बोधिचित्त का विकास एवं अभ्यास

प्रेम

प्रेम वह मनोभाव है जिससे आप सबकी खुशी की मनोकामना करते हैं | हम सब खुश रहना चाहते हैं, परन्तु अधिकतर लोग खुश रहने का गुर नहीं जानते, और इसलिए वे कठिन परिस्थितियों में फँस जाते हैं, अनियंत्रित रूप से आवर्ती स्थितियाँ, जिनमें अनेक समस्याएँ उलझी होती हैं और इसलिए वे अपनी मनचाही खुशी नहीं पा पाते |इसलिए दूसरों की खुशी की कामना का मनोभाव और प्रबल इच्छा का विकास करना अत्यन्त आवश्यक है | इसमें आप स्वयं को इस प्रकार प्रशिक्षित कर सकते हैं, कि सबसे पहले आप अपनी खुशी की कामना करें, फिर अपनी माता की, अपने पिता की; अपने मित्रों, शत्रुओं, और फिर सबकी खुशी की कामना करते हुए स्वयं को प्रशिक्षित करें |  आप इस प्रकार प्रेम की ध्यान-साधना कर सकते हैं |

अनन्य संकल्प

फिर इसके अतिरिक्त आपको एक सार्वभौमिक दायित्व के विकास की आवश्यकता है जिससे आप दायित्व लें और ऐसा अनुभव करें, "मैं वास्तव में सबकी खुशी के लिए कुछ करूँगा | मैं वास्तव में सबकी समस्याओं का हल ढूँढ़कर उन्हें उनकी कठिन परिस्थितियों से निकलूंगा" | आपको इस असाधारण रूप से सुदृढ़ मनोदशा की आवश्यकता है, जिससे अनन्य संकल्प कहते हैं; कि आप स्वयं कार्य करने का संकल्प लेते हैं |

बोधिचित्त

यदि हम इस अनन्य संकल्प का विकास कर भी लें, जिससे हम अनुभव करते हैं, "मैं सबके लिए खुशी प्राप्त करूँगा| मैं सबके दुःख दूर करूंगा", फिर भी, जब हम अपनी ओर देखते हैं, तो स्वयं में ऐसा कर पाने की क्षमता नहीं पाते | सत्य में, हम सबको खुशी नहीं दे सकते | सत्य में हम सबकी समस्याएँ नहीं सुलझा सकते | यदि हम पूछें कि किसके पास ऐसी क्षमता है, तो केवल वही जो पूर्णतः विकसित और साफ़ मन का हो, जो अपने चरम सामर्थ्य तक पहुँच गया हो, अर्थात एक बुद्ध | इसलिए यदि हम स्वयं एक बुद्ध की अवस्था प्राप्त कर पाएँ, तभी हम पूर्ण रूप से दूसरों की सहायता कर पाएँगे |

इस अनमोल मानव जीवन के आधार पर हम यह वास्तव में सिद्ध कर सकते हैं |हम वास्तव में एक पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध बन सकते हैं | इसलिए, जिस मनोभाव से हम स्वयं को पूरी तरह दूसरों को समर्पित करते हैं और सबकी सहायता के लिए बुद्ध की अवस्था तक पहुँचते हैं, उसे बोधिचित्त का समर्पित हृदय कहा जाता है | जब आप वास्तव में एक समर्पित हृदय का मनोभाव विकसित करते हैं जो सबके लाभ के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति की इच्छा करता है, तब आपको भी बहुत लाभ होता है |

बोधिचित्त विकसित करने के लाभ

कहा जाता है कि, यदि आप एक क्षण के लिए भी यह समर्पित हृदय विकसित कर पाएँ, तो उससे प्राप्त होने वाले लाभ बुद्ध को भेंट किए गए पूरे विश्व के हीरे, जवाहरात, और सोने से कहीं अधिक हैं | यदि आप समर्पित हृदय से केवल एक फूल भी भेंट करें, यह अनुभव करते हुए कि आप सबके लाभ हेतु ज्ञानोदय पाने के लिए ऐसा कर रहे हैं, तो क्योंकि आपका उद्देश्य सबका लाभ है, इससे अर्जित सकारात्मक सम्भाव्यता इस लक्ष्य के अनुपात में है | यह आकार में सभी जीवों के बराबर है |

अपने बोधिचित्त लक्ष्य की पुनः पुष्टि करना

सुबह उठने पर यदि आप सबसे पहले ऐसा अनुभव करें कि आप कितने भाग्यशाली हैं कि रात्रि में आपकी मृत्यु नहीं हुई, कि आप उठे और अब भी जीवित हैं, और फिर आप स्वयं को अपने हृदय को पूरे दिन के लिए यह अनुभव करते हुए समर्पित करें कि, "मैं जो भी सकारात्मक कार्य करूँ, उससे सबका लाभ हो", तब आप दिन भर जो भी सकारात्मक और रचनात्मक कृत्य करेंगे, उन पर आपकी सुबह की सकारात्मक ऊर्जा और समर्पण का प्रभाव होगा | चाहे पूरे दिन अन्य क्षणों में आपके मन में यह विचार न भी आए, फिर भी आपने सुबह जो प्रबल मंशा संचित की, उसकी सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव आपके पूरे दिन पर पड़ेगा | अतैव, आपकी प्रेरणा के लिए एक समर्पित हृदय का होना अत्यंत आवश्यक है |

दिन के अंत में आपको अपने व्यवहार की पुनः परीक्षा करनी चाहिए, जो कुछ आपने दिन भर में किया है और, उदाहरण के लिए, यदि अपने दिन में सकारात्मकता  से काम किया है, और रचनात्मक रहे हैं, तो आपको बहुत प्रसन्नता अनुभव करनी चाहिए | फिर, इससे अर्जित संभाव्यता को आपको ज्ञानोदय प्राप्ति और दूसरों की सहायता करने की आपकी क्षमता के प्रति समर्पित करना चाहिए | इस सकारात्मक ऊर्जा को आपको सब जीवों के लाभ के लिए समर्पित करना चाहिए | फिर जब आप सोने के लिए जाएँ, तब आपको इसी प्रकार यह दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि, "कल भी मैं बहुत सकारात्मकता से कार्य करूँगा | मैं ज्ञानोदय की ओर कार्य करूँगा | मैं सभी जीवों को लाभ पहुँचाने के लिए कर्म करूँगा |" यदि आप इस मनोभाव सहित सोएँगे, तो यह सकारात्मक ऊर्जा आपकी नींद की पूरी अवधि में बनी रहेगी और वह भी सकारात्मक होगा |

यदि आप अपने द्वारा अर्जित सारी सकारात्मक सम्भाव्यता के बीज को विकसित करें, जो ज्ञानोदय की प्राप्ति के रूप में परिपक्व हो जाए, तो यह संभाव्यता उस ज्ञानोदय को प्राप्त करने तक बनी रहेगी | यह शाश्वत रहेगी, और दूसरों के लाभ हेतु अर्जित ज्ञानोदय की प्राप्ति के पहले समाप्त नहीं होगी | अपनी सकारात्मक सम्भाव्यताओं को ऐसे व्यापक रूप में अर्पित करना महत्त्वपूर्ण है |

बोधिचित्त के दो चरण

बोधिचित्त के समर्पित हृदय के वास्तकव में दो स्तर हैं | जब आप सबकी सहायता कर पाने के लिए ज्ञानोदय की अवस्था प्राप्त करने की इच्छा या अभिलाषा रखते हैं, तो इसे अभिलाषापूर्ण प्रकार का समर्पित हृदय कहा जाता है | समर्पित हृदय के दो प्रकार हैं, अभिलाषापूर्ण और अंतर्ग्रस्त |

अंतर्ग्रस्त प्रकार का समर्पित हृदय चित्त की वह अवस्था है जिससे आप यह महसूस करते हैं कि सबके लाभ के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति की इच्छा रखना पर्याप्त नहीं है, अपितु आपको बोधिसत्त्व अथवा समर्पित जीव की सभी प्रथाओं में प्रवेश करना चाहिए, जिससे आप वास्तव में इस अवस्था तक पहुँच पाएँगे | जिन प्रथाओं से सबका लाभ होगा और आपको ज्ञानोदय प्राप्ति होगी, उनमें आपका हृदय पूर्णतः लिप्त है | इन्हें छह पारमिताओं और दूसरों पर प्रभाव डालने वाले चार विधियों में संक्षिप्त किया गया है | जिस मनोभाव से आप इन सब में स्वयं को प्रक्षिशित करने की इच्छा रखते हैं, उसे अंतर्ग्रस्त अथवा प्रवृत प्रकार का समर्पित हृदय कहा जाता है |  

इन दोनों हृदयों के बीच के अन्तर को समझने के लिए एक उदाहरण है, कि, यदि आपने भारत जाने का निश्चय किया हो, तो केवल जाने की इच्छा अभिलाषी प्रकृति का हृदय कहलाई जाएगी | परन्तु, केवल भारत जाने  की इच्छा ही पर्याप्त नहीं है | आपको वहाँ पहुँचने के विभिन्न चरणों में भागी बनना पड़ेगा | आपको वीज़ा लेना होगा, हवाई जहाज़ का टिकट खरीदना होगा, आरक्षण आदि करना होगा, और जब आप स्वयं को इस प्रक्रिया में शामिल करेंगे, तो यह प्रवृत्त प्रकार के हृदय के समान है |

उदारता

इस मनोदृष्टि में स्वयं को प्रशिक्षित करने के लिए आपको सबसे पहले एक दाता मनोदृष्टि का विकास करना होगा | उदारता अथवा दाता प्रकार की मनोदृष्टि वह मनोदृष्टि है जिससे आप दूसरों को सब कुछ देने के लिए तैयार हैं |  इस जीवनकाल में हम जिन वस्तुओं का आनन्द लेते हैं, हमारी सारी संपत्ति आदि, ये सब वस्तुएँ उस उदारता का परिणाम है जिनका अभ्यास हमने पूर्व जन्मों में किया है | सामान्यतः आप अनेक जीवों को दान दे सकते हैं | आप बुद्धाओं को एक दाता शैली में वस्तुएँ दान कर सकते हैं, और इसी प्रकार आप उन्हें दान दे सकते हैं जिन्हें इन वस्तुओं की आवश्यकता हो, जैसे, रोगी, दरिद्र, और अभावग्रस्त लोग | उदाहरण के लिए, आप किसी ऐसे व्यक्ति को कोई बहुत अच्छी वस्तु भेंट कर सकते हैं जो एक बहुत कठिन और अप्रिय स्थिति में हो |  

बुद्ध के पूर्व जन्म से एक उदाहरण है जिसमें, शावकों सहित, एक भूखी बाघिन बहुत कठिन परिस्थिति में थी, और बुद्ध अपने उस पूर्व जन्म में उस बाघिन का पेट भरने के लिए अपना शरीर त्यागने के लिए तत्पर थे | हमें अपना शरीर अति प्रिय होता है, और बुद्ध की दाता मनोदृष्टि इतनी प्रबल थी कि वे स्वयं को भूखी बाघिन का आहार बनाने के लिए तत्पर थे | यह एक प्रसिद्द वृत्तांत है |

नैतिक आत्म-अनुशासन

दूसरी प्रज्ञा पारमिता है एक दृढ नैतिक अनुशासन बनाए रखना, और, उदाहरण के लिए इससे अभिप्राय है अपने को हत्या करने से रोकना, अन्य जीवों को मारने से रोकना, तथा दस विनाशकारी कृत्यों को करने से स्वयं को रोकना | यह है नैतिक अनुशासन | यदि आप में किसी भी प्रकार का नैतिक आत्म-अनुशासन नहीं है, तो आप मनुष्य अथवा देवता के रूप में पुनर्जन्म प्राप्त नहीं कर सकते | इसलिए यदि आपको अच्छा पुनर्जन्म चाहिए, तो यह बहुत आवश्यक है कि आप दृढ़ नैतिक आत्म-अनुशासन का पालन करें |

यदि आप उदार हैं, परन्तु आप में किसी भी प्रकार का नैतिक आत्म-अनुशासन नहीं है, तो इसके परिणाम स्वरुप ऐसा पुनर्जन्म होगा जिसमें आप मनुष्य बनकर नहीं, अपितु उदाहरण के लिए, एक पशु के रूप में जन्म लेंगे, जिसके पास ढेर सारी भौतिक सम्पदा होगी | दाता मनोदृष्टि से आपको भौतिक सम्पदा मिलती है, परन्तु, क्योंकि आप में कोई आत्म-अनुशासन नहीं था, नैतिकता नहीं थी, इसलिए आप मनुष्य के स्थान पर पशु बनकर जन्म लेते हैं, और ऐसे कई पशु हैं जो बहुत सी सम्पदा समेटकर रखते हैं |

धैर्य

तीसरी बात है, चित्त की एक लाभप्रद आदत के रूप में सहिष्णुता और धैर्य को विकसित करना | यदि आप में सहिष्णुता और धैर्य नहीं होगा, तो आप क्रोधित होंगे, और जब आप क्रोधित होते हैं, तो आपके द्वारा अर्जित की गई सारी सकारात्मक संभाव्यता और ऊर्जा पूर्णतः नष्ट हो जाती है | आपसे अर्जित करते हैं परन्तु क्रोधित होने पर वह पूर्णतः नष्ट हो जाती है, जैसे, उदाहरण के लिए, हवाई अड्डे पर एक्स-रे मशीन में नेगेटिव फिल्म डालने पर उसका चित्र पूरी तरह मिट जाता है | जब आप क्रोधित होते हैं, तो तुरन्त शान्त होना बहुत कठिन होता है परन्तु आपको यह सोचने का अभ्यास करना चाहिए कि क्रोधित होने से कितनी हानि होती है और इस प्रकार आप स्वयं को क्रोधित होने से रोक पाएँगे |

कुछ इस प्रकार के लोग होते हैं जिनका भूतकाल की आदतों और सहज प्रवृत्तियों से इस प्रकार का स्वभाव बन जाता है कि वे सदैव अप्रसन्न और संतप्त रहते हैं, और अपना आपा खोते हैं, व क्रुद्ध रहते हैं | ऐसा वास्तव में होता है: ऐसे कई क्रुद्ध लोग होते हैं जो सदा अपना आपा खो बैठते हैं | ऐसी घटनाएँ होती हैं | यदि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जिसमें आप सदैव क्रुद्ध और हताश रहते हों जब आप किसी विशेष प्रकार के व्यक्ति अथवा वस्तु या परिस्थिति के संपर्क में आते हैं, तो कभी-कभी ऐसे स्थान से दूर चले जाना और ऐसी परिस्थिति से पूरी तरह बचना बहुत सहायक होता है | इस प्रकार, जिस परिस्थिति से आप सदैव क्रोधित होते हैं, उसके संपर्क में न आना ऐसे क्रुद्ध स्वभाव पर विजय पाने में अत्यंत लाभप्रद सिद्ध होता है |

इसी प्रकार, ऐसे बहुत से कारणों से आप क्रोधित होते हैं और उत्तम है कि इनके बारे में न सोचा जाए | श्रेष्ठतर है कि आपके क्रोध के कारणों को कुरेदकर सदैव उनकी छानबीन न की जाए, अपितु उन्हें भुलाकर उनपर बिलकुल ध्यान न दिया जाए | इसका कारण यह है कि जब आपके पास अनेक प्रकार की जानकारी होती है, और जब आप इसके विषय में नहीं सोचते, तो आप उन बातों को भूल जाते हैं, और इसी प्रकार जब आप अपने क्रोध के विषय में नहीं सोचेंगे तो आप उसे भी भूल जाएँगे |

यदि आप अपने क्रोध पर इस प्रकार विजय पाएँगे की आप कभी किसी भी परिस्थिति में क्रोधित न हों, तो आप पाएँगे कि आपको सब चाहते हैं, और आपकी सराहना करते हैं, और कहते हैं, "कितना अद्भुत व्यक्ति है, वह कभी क्रोधित नहीं होता | " यदि आप अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं पाते, अपितु उसका शिकार बन जाते हैं, तो आप हर छोटी से छोटी बात पर क्रोधित होंगे | कोई कहेगा, "तुम्हारी नाक बहुत अजीब है" और आप तुरन्त क्रोध से फट पड़ेंगे |

जब आप क्रोधित होते हैं, तब आप दूसरों के साथ किसी भी प्रकार का सामरस्य या संतुलन नहीं बना पाते और तब आप अपना वांछित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर पाते | यदि आप अपने उद्देश्यों के पूर्ती करना चाहते हैं, तो आपके उनसे समरस सम्बन्ध होने चाहिए, और यदि आप सदैव दूसरों के प्रति क्रोधित रहेंगे, तो आप ऐसा नहीं कर पाएँगे | जिनके साथ आप काम आकर रहे हैं, यदि उनसे आपका सामरस्य होगा तो आप महान कार्य सिद्ध कर पाएँगे | यदि आपके समरस सम्बन्ध होंगे तो आप दूसरों के साथ एक प्रबल कार्यदल गठित कर पाएँगे |

वीर्य

अगली प्रज्ञा पारमिता है सकारात्मक उत्साह सहित वीर्य, जो कुछ सकारात्मक करने के लिए वीर्य, उत्साह, और प्रसन्नता की मिली-जुली भावना है | यदि आप कठिन परिश्रम करते हैं और साधारण, सांसारिक विषयों में बहुत अधिक उद्यम करते हैं, तो इसे सकारात्मक उत्साह नहीं कहा जा सकता | यदि आप आध्यात्मिक विषयों और प्रशिक्षण में बहुत अधिक परिश्रम तथा उद्यम करते हैं, तो इसे सकारात्मक उत्साह कहते हैं |

सकारात्मक उत्साह सहित वीर्य के विपरीत है अकर्मण्यता | अकर्मण्यता के तीन प्रकार हैं | पहला है अपर्याप्तता की अनुभूति | उदाहरणार्थ, आप समर्पित जीवों, बोधिसत्त्वों द्वारा किए गए इन अद्भुत कृत्यों की ओर देखते हैं जैसे अपने शरीर को दूसरों का आहार बनाना आदि, और पूर्णतः अपर्याप्त अनुभव करते हैं और सोचते हैं कि, "संभवतः मैं ऐसा नहीं कर सकता," तो इसे अपर्याप्तता की अनुभूति कहा जाता है | यह केवल एक प्रकार का आलस्य है, क्योंकि यदि आप प्रशिक्षण लें और अभ्यास करें तो आप भी उस स्तर तक पहुँच सकते हैं जहाँ आप ऐसे कृत्य कर पाएँगे |

फिर, दूसरे प्रकार की अकर्मण्यता है हार मान लेने का आलस्य; ऐसा तब होता है जब आप कुछ सकारात्मक करने निकलें, कुछ सप्ताहों अथवा एक मास तक एक मतान्ध की तरह कार्य करें, और फिर जो करना चाहते हैं उसे पाए बिना हार मान लें | यह आलस्य का ही एक रूप है और यह आवश्यक है कि ऐसी मनोदृष्टि न हो, अपितु निरन्तर प्रयास करते रहें और हार न मानें |

फिर अगले प्रकार की अकर्मण्यता है स्थगन, सदा कल के लिए काम टालने की प्रवृत्ति | आपको लगता है, "ठीक है, मैं कल अथवा परसों यह काम लूँगा", और आप सदा उस काम को टालते जाते हैं | यह एक बहुत बुरी आदत है | यदि कोई आलसी है तो उसके लिए अच्छे गुण विकसित कर पाना कोई नई जानकरी प्राप्त करना, या कुछ सीख पाना बहुत कठिन होगा | उसके स्वभाव से लगता है कि आलस्य इतना बड़ा अवगुण नहीं है, परन्तु वास्तव में यह अत्यंत नकारात्मक बात है क्योंकि इसके कारण हम अपना पूरा जीवन गँवा  देते हैं | इसलिए उत्साह की मनोदृष्टि विकसित करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है |

अतीत में, ड्रोमटोंपा नाम के एक महान गुरु हुए थे जो चेनरेज़िग या अवलोकितेश्वर के अवतार थे और वे अपने आध्यात्मिक गुरु सेटोंपा के प्रति पूर्ण हृदय से समर्पित थे और उन्होंने उनकी बहुत तन्मयता से सेवा की | वे इस प्रकार सेवा करते थे कि वह बैठकर अपने पैरों से अपने गुरु के चमड़े को नरम करते थे, अपने हाथों से दूध बिलोते थे, तथा अपनी पीठ से आगे-पीछे झूमते हुए दही बनाते थे | और ये सब करते हुए वे अपनी पढ़ाई की पुस्तकें अपने पास रखकर अत्यंत उत्साह और धुन से इस प्रकार अध्ययन करते थे | चमड़ा जो पशुओं की चर्म है, उसे नरम बनाने के लिए वे उसपर बार-बार चढ़ते-उतरते थे | यदि आपको उसे नरम बनाना होता है, तो आपको उसपर चढ़ना-उतरना पड़ता है | अपने हाथों से वे दूध बिलोते थे और अपनी पीठ से आगे-पीछे झूमते हुए दही बनाते थे | जब अतिशा तिब्बत आए और ड्रोमटोंपा से मिले, तो उन्होंने पूछा कि ड्रोमटोंपा ने अतीत में क्या किया है, और ड्रोमटोंपा ने यह विवरण दिया | फिर वे बोले, "तुम्हारे द्वारा की गई सभी आध्यात्मिक क्रियाओं में से इस प्रकार की सेवा, इस प्रकार का कर्म, सबसे अधिक सकारात्मक है |"

यदि आप योग्य और निपुण व्यक्ति हैं तो आप दोनों सांसारिक और आध्यात्मिक कार्य भली-भाँती कर पाएँगे; परन्तु यदि आप दक्ष नहीं हैं, तो आप दोनों में से कुछ भी नहीं कर पाएँगे | अतः मैं आप जैसे लोगों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ जो दिन में नौकरी करते हैं और शाम को विभिन्न आध्यात्मिक शिक्षण और गतिविधियों में भाग लेते हैं | यह देखकर अत्यन्त हर्ष होता है |

स्थिरचित्तता

अगली प्रज्ञा पारमिता है स्थिरचित्तता, चित्त का ठहराव | आपको ऐसी मनोदशा विकसित करने की आवश्यकता है जिसमें एकाग्रता और स्थिरचित्तता हो | आवश्यकता है एक ऐसी विशेष विधि की जो आपके चित्त को शान्त करे | और ऐसा एक वस्तु पर एकाग्र होने से किया जाता है | आप चाहे जिस भी प्रकार की वस्तु चुनें, फिर उसपर लक्ष्यबद्ध होकर और ध्यान केंद्रित करके एक प्रकार की ध्यान-साधना करें | आपको यह वस्तु ध्यानपूर्वक चुननी चाहिए, और चुनने के बाद उसे बदलना नहीं चाहिए, अपितु अपने चित्त को एक एकाग्र अवस्था में उस वस्तु पर केंद्रित करना चाहिए | यदि आप उचित रूप से पूर्ण एकाग्रता के साथ ध्यान-साधना करें, तो आप छह महीनों के भीतर एक निश्चल और विश्रान्त चित्त (शमथ) पा सकते हैं |

जब आप ध्यान-साधना आरम्भ करते हैं, अथवा एकाग्रता के माध्यम से चित्त की हितकारी प्रवृत्तियाँ विकसित करने का प्रयास करते हैं, तब आपके शिक्षण सत्र बार बार होने चाहिए परन्तु कम अवधि के लिए | उदाहरणार्थ, एक दिन में आपके लगभग अट्ठारह सत्र होने चाहिए और, तब आपकी साधना ठीक से हो पाएगी | हम विभिन्न प्रतिमाओं के लिए कई प्रकार के सस्वर पाठ करते हैं; हम उनका रूपध्यान करते हैं और उनसे साक्षात्कार करने का प्रयास करते हैं, परन्तु हम सफल नहीं होते | इसका कारण है कि हमारा चित्त निश्चल और विश्रांत अवस्था में नहीं होता | हम एकाग्र नहीं हो पाते | आप बैठकर मणि पद्मे हुम्  का मनका फेरने का प्रयास करते हैं और आपका शरीर वहाँ होते हुए भी, मंत्रोच्चारण के समय आपका चित्त जहाँ-तहाँ भटकता फिरता है |

एक व्यक्ति था जिसको भूलने की आदत थी | वह अपने व्यापार से सम्बद्ध बातें भूल जाता था, और ऐसा होने पर वह लोगों से कहता, "थोड़ा रुकिए, मैं बैठकर अपनी प्रार्थना करता हूँ और फिर मुझे याद आएगा |" यह बहुत आवश्यक है कि आप सबल और दृढ संकल्पबद्ध हों कि, उदाहरणार्थ, आप मणि पद्मे हुम्  का पूरा मनका फेरेंगे, और उस पूरी अवधि में आप अपने चित्त को बिलकुल भटकने नहीं देंगे; और यदि आप ऐसा कर पाते हैं, तो इस अभ्यास से आपको अनेक अपरिमित लाभ होंगे |

यदि आप एक निश्चल और विश्रान्त अवस्था का चित्त विकसित कर पाते हैं, तब आप जिस भी सकारात्मक कार्य में अपनी ऊर्जा व्यय करेंगे, उस सकारात्मक दिशा में आप तुरन्त अपना चित्त केंद्रित कर पाएँगे | इस निश्चल और विश्रान्त अवस्था के चित्त के आधार पर आप परासम्वेदी बोध विकसित कर पाएँगे | ऐसे निश्चल और विश्रान्त अवस्था के चित्त के अभाव में आपके पास किसी भी प्रकार का परासम्वेदी बोध (इ एस पी) नहीं होगा |

यदि आप निश्चल और विश्रान्त अवस्था का चित्त विकसित कर पाते हैं, तो यह आपके पास एक विशाल हवाई जहाज़ होने के समान है | आप जो भी सकारात्मक कार्य करने की ठान लेंगे, आपका चित्त तुरन्त प्रचण्ड शक्ति और ऊर्जा के साथ वहाँ केन्द्रित हो जाएगा और वहीं अडिग तथा अचल रहेगा |

यदि आप निश्चल और विश्रान्त अवस्था का चित्त विकसित कर भी लेते हैं, तब भी यह स्वयं में पर्याप्त नहीं है | इसके अतिरिक्त आपको एक असाधारण रूप से अनुभूतिक्षम चित्त, एक विपश्यना चित्त, भी विकसित करना आवश्यक है क्योंकि आपके चित्त को निश्चल और विश्रान्त, तथा असाधारण रूप से अनुभूतिक्षम और वास्तविकता पर लक्षित होना चाहिए |

सविवेकी सचेतनता

यह आवश्यक है कि आप सविवेकी सचेतनता का विकास करें जिससे आप यथार्थ, शून्यता, अस्तित्वमान होने के मनोचित्रित रूप के अभाव को समझते हैं, और इसके साथ हम छठी प्रज्ञा-पारमिता तक पहुँचते हैं, जो है सविवेकी सचेतनता की मनोदृष्टि या विवेक | यह सविवेकी सचेतनता वह सचेतनता है जिससे आप यह समझते हैं कि आपकी अथवा अन्य किसी की कोई सत्य पहचान नहीं होती |

जब इस प्रकार की अभिव्यक्ति प्रकट की जाती है, तब आपको समझना चाहिए कि जिसका खण्डन किया जा रहा है, वह एक मनोचित्रित बात है, यथा, लोगों अथवा आपकी एक सत्य ज्ञेय पहचान है; परन्तु इस बात का खण्डन नहीं किया जा रहा कि सामान्यतया व्यक्ति अथवा अहम् होता है | केवल इस बात को अस्वीकार किया जा रहा है कि एक सत्य ज्ञेय यथार्थपूर्ण पहचान होती है |

दो प्रकार की "मैं" के बीच में सही प्रकार विभेद करना अत्यन्त आवश्यक है; दो प्रकार की "मैं" होती हैं | पहली, जो पारम्परिक साधारण अहम् है, और दूसरी वह जो पूर्णतः मनोचित्रित है और जिसका खण्डन किया जाना चाहिए; और यदि आप इन दोनों के बीच सावधानी से विभेद नहीं करेंगे, तब आपके लिए बहुत कठिनाई पैदा होगी |

रूढ़ अहम् वह अहम् है जिसमें स्थायित्व नहीं होता | मैं खता हूँ, मैं चलता हूँ, मैं नकारात्मक कार्य करता हूँ, और फिर उनसे उत्पन्न समस्याएँ झेलता हूँ | मैं सकारात्मक कार्य करता हूँ और प्रसन्नता अनुभव करता हूँ | यह केवल एक परम्परागत "मैं" है | यह रूढ़ अहम् है | परन्तु इसके अतिरिक्त एक कल्पित प्रकार की "मैं" भी है जिसका अपना यथार्थपूर्ण अस्तित्व है | यह केवल आपके अनुभवों के समग्र कारकों पर प्रक्षेपित नहीं है, अपितु संभवतः स्वतन्त्र रूप से अपना अस्तित्व लिए हुए है |  वह एक पूर्ण कल्पना जिसका खण्डन किया जाना चाहिए; परन्तु, मैं चलता हूँ और मैं कार्य करता हूँ वाला रूढ़ साधारण "मैं" ऐसा नहीं है |

इसलिए, हमें मिले इस अमूल्य मानव जीवन के आधार पर हमें इस सविवेकी सचेतनता को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए जिसके द्वारा हम यह समझते हैं कि सत्य ज्ञेय अस्तित्व आदि जैसी कोई अवधारणा नहीं होती | इसी प्रकार, इसके अतिरिक्त हमें बोधिचित्त के समर्पित हृदय को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए जिससे हम पूर्ण रूप से दूसरों के लिए, ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए समर्पित हों तथा दूसरों के प्रति एक करुणामय और स्नेहमयी हृदय रखें | अपने अमूल्य मानव जीवन के आधार पर हमें ऐसा करने का प्रयास करना चाहिए |

यदि आप में यह सविवेकी सचेतनता है, जिससे आप शून्यता समझ सकते हैं, जो अस्तित्वमान होने की सभी मनोचित्रित विधियों का पूर्ण अभाव है, तो आप अपनी सभी समस्याओं का निवारण कर सकते हैं और सभी कठिनाइयों से मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं | परन्तु, इसके अतिरिक्त यदि आपके पास एक ऐसा हृदय है जो दूसरों के प्रति पूर्णतः समर्पित है, पूर्ण निर्मल चित्तता और सम्पूर्ण विकास की अवस्था पाना चाहता है, जो बुद्ध की अवस्था प्राप्ति हेतु पूर्णतः समर्पित है, तभी आप वह बुद्ध की अवस्था प्राप्त कर पाएँगे | एक अमूल्य मानव जीवन प्राप्त करने के बाद आपको इन दो बातों का अभ्यास करने का अधिक से अधिक प्रयत्न करना चाहिए |

अंतिम परामर्श

यदि आप भौतिक वस्तुओं की चाह में अपना पूरा जीवन व्यतीत करेंगे, तो आप सदैव असंतुष्ट रहेंगे और आपको लगेगा कि आपके पास पर्याप्त भौतिक वस्तुएँ नहीं है | इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि आप ऐसी मनोदृष्टि का विकास करें जिससे आप थोड़े में ही संतोष कर पाएँ और सदैव अन्तहीन प्राप्ति की इच्छा न रखें | आपको यह पता होना चाहिए कि कब आपके पास पर्याप्त साधन हैं | यदि आप इस अनुभूति से ही वंचित हैं कि कितनी भौतिक वस्तुएँ आपके लिए पर्याप्त है, तो, आपको चाहे पूरे विश्व की धन-संपत्ति ही क्यों न मिल जाए, वह कभी भी पर्याप्त नहीं होगी, और आप अधिक के लिए इच्छुक रहेंगे |

यदि आपके सामने आपका कोई मनचाहा खाद्य पदार्थ है, परन्तु आपको यह बोध नहीं है कि कितना पर्याप्त है, तो आप बहुत अधिक मात्रा में उसे खाएँगे जिससे आप बीमार हो जाएँगे और उलटी कर देंगे | आपको संतोष करना सीखना होगा, संतोष का अनुभव करना, यह जानना कि कितना पर्याप्त है, और ऐसे विचार मन में होना कि दूसरों की सहायता करें, किसी को दुःख न पहुँचाएँ, और एक दयालु व स्नेही हृदय का अभ्यास करें, तथा, ॐ मणि पद्मे हुम् कहें | ऐसे अभ्यास से आपका जीवन अत्यन्त सार्थक होगा | नगण्य वस्तुएँ पाने के प्रयास में अपना जीवन न गँवाएँ, अपितु कोई उत्कृष्ट कार्य सिद्ध करने की चेष्टा करें |

ऐसा कर्म करें कि आपके आने वाले जन्मों में लाभ हों | वास्तव में साधना का मुख्य लक्ष्य है सदा एक दयालु और स्नेही हृदय का होना; सदैव दूसरों के साथ प्रसन्नता अनुभव करना | जब भी आप किसी से मिलें, तो आप प्रसन्नता अनुभव करें और सदा दयालु रहें; यह है वास्तविक लक्ष्य | कभी भी किसी को हानि पहुँचाने या उनका मन दुखाने जैसे विचार या भावनाएँ मन में न लाएँ | साधना के मुख्य लक्ष्य हैं सभी हानिकारक विचारों से छुटकारा पाना तथा दयालुता के विचार विकसित करना, और दूसरों की सहायता की इच्छा रखना |

यदि आप दूसरों के लिए इस प्रकार कार्य करेंगे, और उन्हें इस महान अवस्था तक लेकर आएँगे, तो आप स्वयं ज्ञानोदय प्राप्त कर लेंगे | सबसे पहले आप स्वयं बुद्ध बन जाएँगे | उदाहरणार्थ, यदि आप स्वयं को सभी सद्गुणों में प्रशिक्षित करेंगे और ज्ञानी तथा सुशिक्षित बनेंगे, तब आप स्वयं एक उत्तम अधिकारी बन जाएँगे | फिर उस सशक्त और प्रभावशाली पद को प्राप्त करने के पश्चात आप वास्तव में दूसरों की सहायता सफलतापूर्वक कर सकेंगे | अतः यह आवश्यक है कि आप इस समर्पित हृदय, इस प्रकार के समर्पण को अपनी मूल साधना बनाएँ जिससे आप दूसरों की सहायता के लिए और अपनी पूर्णतम संभाव्यता प्राप्त करने के लिए स्वयं को समर्पित करते हैं | यह अत्यन्त लाभप्रद होगा यदि आप निरन्तर स्वयं को पुनः समर्पित कर पाएँ, दूसरों के प्रति अपने हृदय को सदैव पुनः समर्पित करें, अपनी पूर्णतम संभाव्यता तक पहुँचने का निरन्तर प्रयास करें, और सदैव यह कामना करें कि अन्य सभी अपनी समस्याओं से मुक्त हो जाएँ और सुखी रहें |

जब आप प्रेम और समर्पित हृदय के विषय में इन विभिन्न विषयों के बारे में सुनते हैं, तब आपको इन्हें व्यक्तिगत परामर्श मानते हुए तुरन्त विकसित करने की चेष्टा करनी चाहिए | आपको ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि यह सुदूर भविष्य में अभ्यास करने वाली कोई उन्नत साधना है जिस तक आप कभी नहीं पहुँच पाएँगे | उदाहरण के लिए जब आप पहले पहल विद्यालय जाते हैं, तो वहाँ पहुँचने के तुरन्त बाद आप पहले अक्षर, 'अ' से आरम्भ करते हैं, उसे लिखना सीखते हैं | आप वहाँ से उन्नति करते हैं; इसलिए इस उदाहरण का अनुसरण करते हुए आपको प्रारम्भ से दूसरों के प्रति एवं अपनी पूर्णतम सम्भाव्यताओं को प्राप्त करने के प्रति अपना हृदय समर्पित करना चाहिए | यदि आप इस प्रकार अपना हृदय बार-बार पुनःसमर्पत करेंगे, तो आप अपने चित्त की एक लाभप्रद अभ्यास के रूप में सहजता से इसका विकास कर पाएँगे, और यह समर्पित हृदय आपके भीतर स्थिर हो जाएगा | इसलिए आपको अपने तथा दूसरों के प्रति अपनी मनोदृष्टियों को बदलने के अभ्यास की चेष्टा करनी चाहिए | 

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