बौद्ध विज्ञान, मनोविज्ञान, तथा धर्म

आज शाम आप लोगों के बीच उपस्थित होकर मुझे बहुत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। मुझे आज शाम “बौद्ध धर्म क्यों?” विषय पर व्याख्यान देने के लिए कहा गया है जो कि एक मान्य प्रश्न है, विशेषतया पाश्चात्य जगत में, जहाँ पहले ही हमारे अपने धर्म मौजूद हैं, तो फिर बौद्ध धर्म की क्या आवश्यकता है?

मेरा विचार है कि यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि जब हम बौद्ध धर्म की बात करते हैं, तो उससे अनेक पहलू जुड़े हुए हैं। बौद्ध विज्ञान, बौद्ध मनोविज्ञान, और बौद्ध धर्म जैसे पहलू इनमें शामिल हैं:

  • जब हम बौद्ध विज्ञान की बात करते हैं, तो हमारा आशय तर्क जैसे विषयों से होता है, हम किस प्रकार विषयों को समझ पाते हैं, और मूलतः वास्तविकता को कैसे समझ पाते हैं ─ ब्रह्मांड की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, आदि जैसे विषय ─ चेतन और जड़ पदार्थ के बीच का सम्बंध। इन सभी विषयों का सम्बंध विज्ञान से है, और बौद्ध धर्म इन सभी विषय क्षेत्रों पर बहुत प्रकाश डालता है।
  • बौद्ध मनोविज्ञान विभिन्न अशांतकारी अवस्थाओं, विशेषेतया हमारे लिए ढेरों दुख उत्पन्न करने वाले अशांतकारी मनोभावों (क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, आदि) के विषय की विवेचना करता है। और बौद्ध धर्म में इन अशांतकारी मनोभावों से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान करने के लिए विधियों की एक समृद्ध परम्परा है।
  • वहीं दूसरी ओर, बौद्ध धर्म विभिन्न आनुष्ठानिक पहलुओं, प्रार्थनाओं से सम्बंध रखता है; इसमें पुनर्जन्म जैसे विषयों पर चर्चा की जाती है। और यह भी एक बहुत समृद्ध पक्ष है।

इसलिए जब हम यह प्रश्न पूछते हैं कि “बौद्ध धर्म क्यों? समकालीन विश्व में पश्चिम में हमें बौद्ध धर्म की क्या आवश्यकता है?” तो मुझे लगता है कि हमें विशिष्टतया बौद्ध विज्ञान और बौद्ध मनोविज्ञान के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। यदि इसके अलावा लोगों की दिलचस्पी बौद्ध धर्म के और अधिक धार्मिक पहलुओं में हो, तो अच्छी बात है, इसमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन यदि आपका लालन-पालन किसी एक धर्म के अनुसार हुआ हो तो सामान्य तौर पर किसी और धर्म को अपनाना कोई बहुत आसान काम नहीं होता है, और अधिकांश लोगों के मामले में इससे उनके भीतर अन्तर्द्वंद्व उत्पन्न हो जाता है, निष्ठा का द्वंद्व, और विशेष तौर पर इससे मृत्यु की घड़ी में समस्याएं खड़ी हो सकती हैं ─ व्यक्ति बहुत दुविधा में फँस जाता है कि वह दरअसल किस धर्म में अपनी आस्था रखे।

इसलिए हमें पाश्चात्य परम्पराओं में पले-बढ़े और बौद्ध धर्म के धार्मिक पहलुओं की ओर आकृष्ट होने वाले पाश्चात्य लोगों के मामले में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि इससे अंधविश्वास और बौद्ध अनुष्ठानों से चमत्कारों की अपेक्षा रखने जैसी अतिरिक्त समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए यही बेहतर है और यही सिफारिश की जाती है कि कम से कम शुरुआत में तो बौद्ध विज्ञान और बौद्ध मनोविज्ञान पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए। ये कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें बिना किसी विरोध के आसानी के साथ हमारी पाश्चात्य परम्पराओं में समाहित किया जा सकता है। इसलिए अब हम बौद्ध विज्ञान और मनोविज्ञान के कुछ पहलुओं के बारे में चर्चा करेंगे।

बौद्ध विज्ञान

तर्क

तर्क बौद्ध अभ्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, और इसका अध्ययन वाद-विवाद के माध्यम से किया जाता है। अब इस वाद-विवाद का उद्देश्य क्या है? वाद-विवाद का उद्देश्य अपने विरोधी को परास्त करना नहीं है, विरोधी को गलत सिद्ध करना नहीं है। बल्कि वाद-विवाद का मुख्य मुद्दा यह है कि किसी व्यक्ति ने कोई विचार प्रस्तुत किया है, और वह किसी बौद्ध शिक्षा के बारे में कोई राय या विचार रखता है, और कोई दूसरा व्यक्ति उसकी राय को चुनौती देता है और यह परखने का प्रयत्न करता है कि प्रस्तावक का दृष्टिकोण कितना सुसंगत या तर्कपूर्ण है। इसलिए यदि आप किसी बात को मानते हैं तो तर्क की दृष्टि से वह निष्कर्ष किसी और बात पर भी लागू होता है। और यदि वह निष्कर्ष बेतुका है, उसका कोई अर्थ नहीं है, तो फिर आपकी समझ में कोई दोष है। इसलिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि हम नश्वरता जैसे यथार्थ के मूलभूत तत्वों को समझने का प्रयत्न करेंगे तो ─ जिसे हम ध्यान साधना कहते हैं ─ हम उसके बारे में गहराई से चिन्तन करना चाहेंगे और उसे हम विश्व के प्रति अपने दृष्टिकोण का भाग बनाना चाहेंगे।

सब कुछ प्रतिपल बदल रहा है, और हमारी मानसिक शांति की दृष्टि से इस बात को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, आप कोई नया कम्प्यूटर खरीदते हैं और अन्ततोगत्वा वह खराब हो जाता है, तो आप इस बात को लेकर खिन्न हो जाते हैं: “यह खराब ही क्यों हुआ?” आदि। लेकिन यदि आप इस घटना को तर्क की दृष्टि से देखें, तो उसके खराब होने की मूल वजह यह है कि उसे बनाया गया था। चूँकि उस कम्प्यूटर को बहुत से पुर्जों और हिस्सों को मिला कर बनाया गया था जो आपस में जुड़े हुए थे, इसके कारण वह बहुत अस्थिर था, और निःसंदेह कभी न कभी उसे खराब होना ही था।

इसी प्रकार जब हम किसी से मिलते हैं और उस व्यक्ति के साथ गहरी दोस्ती गाँठ लेते हैं या कोई भागीदारी विकसित कर लेते हैं, तो अन्ततोगत्वा वह भी खत्म हो जाती है। यह भागीदारी क्यों खत्म हुई? दोस्ती क्यों टूटी? हमारी दोस्ती इसलिए टूटी क्योंकि हम मिले थे। हमारी मुलाकात के बाद गुज़रने वाले हर पल के साथ उस व्यक्ति के और स्वयं मेरे अपने जीवन में भी परिस्थितियाँ और हालात बदलते गए। हमारी शुरुआती दौर की दोस्ती जिन परिस्थितियों पर टिकी थी, वे अब नहीं रहीं, और हमारी दोस्ती तो उन्हीं सब परिस्थितियों पर निर्भर है, इसलिए वह खत्म हो जाती है ─ बेशक उसे खत्म तो होना ही है, क्योंकि उसे आधार देने वाली परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। इलसिए जो अन्तिम घटना हमें सम्बंध-विच्छेद का कारण दिखाई देती है ─ जैसे कोई झगड़ा आदि ─ वह तो मित्रता के भंग होने की परिस्थिति मात्र है। यह घटना न होती, तो कुछ और हुआ होता। लेकिन दोस्ती के खत्म होने की असली वजह तो यह है कि दोस्ती की शुरुआत हुई थी।

हमारे जीवन की भी यही स्थिति है (मृत्यु के प्रति बौद्ध धर्म का यही दृष्टिकोण है): हमारी मृत्यु का कारण क्या है? कारण यह है कि हमारा जन्म हुआ है। दरअसल रोग या दुर्घटना तो मृत्यु की परिस्थिति मात्र है। इसलिए यदि किसी का जन्म हुआ है, तो उसकी मृत्यु भी होगी। बस। यही वास्तविकता है। ये बौद्ध विज्ञान के पहलू हैं, और यह तर्कसंगत है। इसलिए शास्त्रार्थ में विरोधी आपके ज्ञान को परखेगा और आपके तर्क में त्रुटियाँ ढूँढने का प्रयत्न करेगा।

  • “आप ऐसा कह सकते हैं, ‘यदि मैंने वह न खाया होता या मैं उस जगह न गया होता, तो मेरी मृत्यु न हुई होती।‘”
  • जबकि प्रतिद्वंद्वी यह कह सकता है, “हाँ, लेकिन ऐसा दूसरी परिस्थितियों में भी हो सकता था। क्योंकि आपका जन्म हुआ, इसलिए आपकी मृत्यु भी होगी।”

इस प्रकार, तर्क के आधार पर, वाद-विवाद के आधार पर हमें एक निश्चित ज्ञान की प्राप्ति होती है जहाँ कोई दुविधा नहीं होती (“यह बात ऐसे है, या वैसे है?”)। और इस प्रकार हमारा बोध बहुत दृढ़ और स्थिर हो जाता है। और उसके बाद चाहे हम ध्यान साधना कर रहे हों या कुछ और, हमारा कार्य बहुत प्रभावी हो जाता है। इस प्रकार की चर्चा, वाद-विवाद, तर्क सभी के लिए हर परिस्थिति में बहुत उपयोगी होते हैं। अक्सर हमारे विचार बहुत अस्पष्ट होते हैं; हम अपने कर्मों के परिणामों या अपनी सोच के परिणामों के बारे में विचार नहीं करते। इसलिए यदि हम तर्कसंगत ढंग से विचार करना सीख लें, तो हमारे जीवन की समस्याएं बहुत कम हो जाएंगी।

तो, यह तो बौद्ध विज्ञान का एक पक्ष हुआ।

वास्तविकता

जहाँ तक वास्तविकता का सम्बंध है, नश्वरता के रूप में एक विषय की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। हर चीज़ हर पल बदल रही है और हर घड़ी अपने अन्त के नज़दीक पहुँच रही है। यही वास्तविकता है। हमारी उम्र के बारे में भी यही बात सच है। आप ऐसा सोच सकते हैं, “अरे, मैं तो हर दिन बूढ़ा हो रहा हूँ” और स्वयं को समझा सकते हैं “चलो, ठीक है,” लेकिन हममें से कितने लोग हैं जो हर दिन यह सोचते हों कि “मैं अपनी मृत्यु की ओर बढ़ रहा हूँ। यही वास्तविकता है”? लेकिन यदि हमें इस बात का आभास हो कि हम हर दिन अपनी मृत्यु के नज़दीक पहुँच रहे हैं और मृत्यु कभी भी आ सकती है, जो कि एक सच्चाई है, तो फिर हम अपना समय व्यर्थ नहीं गवाँएगे। हम काम को कल पर नहीं टालेंगे, बल्कि अपने जीवन को अधिक से अधिक उपयोगी ढंग से जीने का प्रयत्न करेंगे। और सबसे अधिक उपयोगी यही हो सकता है कि हम दूसरों के काम आने का प्रयत्न करें। तो, यही वास्तविकता है। और इस प्रकार विचार करना बहुत उपयोगी होगा, “यदि आज का दिन मेरे लिए अन्तिम दिन होता, तो इस आखिरी दिन को मैं कौन-कौन से काम करना चाहूँगा? मैं इस दिन को सार्थक किस प्रकार बना सकता हूँ?” क्योंकि हम नहीं जान सकते कि हमारा अन्तिम दिन कब आ जाएगा। इस कमरे से बाहर निकलने पर हम किसी कार से टकरा सकते हैं। इस बात को कहने का मकसद किसी को खिन्न करना नहीं है; इसका मकसद यह समझाना है कि हम अपने समय को और अधिक उपयोगी ढंग से बिताएं।

वास्तविकता को समझने की दृष्टि से हम एक और उदाहरण लें। मान लीजिए कि आप दस लोगों के साथ किसी लिफ्ट में हैं, और लिफ्ट बीच में कहीं अटक जाती है। बिजली गुल हो जाती है और आप इन दस लोगों के साथ दिन भर के लिए लिफ्ट में अटक जाते हैं। ऐसी स्थिति में आप लोग एक दूसरे के साथ कैसा व्यवहार करेंगे? यदि आप लड़ना-झगड़ना शुरू कर दें तो यह लिफ्ट नरक जैसी लगने लगेगी। वहाँ बने रहने का एक यही तरीका है कि सब एक-दूसरे के साथ सहयोग करें, मित्रवत व्यवहार करें, एक-दूसरे के साथ विनम्रता का व्यवहार करें, क्योंकि आप सभी इस लिफ्ट में एक साथ फँसे हुए हैं; आप सभी एक ही परिस्थिति में अटके हुए हैं। यही व्यवहार तर्क पर आधारित है। यही उचित व्यवहार है, है न? इसी उदाहरण को हम इस पूरे ग्रह पर लागू कर सकते हैं: यह पृथ्वी ग्रह एक विशाल लिफ्ट की तरह है, और हम सभी इस ग्रह पर एक साथ अटके हुए हैं। यदि हम आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू कर दें, तो सभी के लिए यहाँ रहना दूभर हो जाएगा। इसलिए यहाँ जीवित बने रहने का यही तरीका है कि सभी एक दूसरे के प्रति मित्रता और उदारता का भाव रखें, क्योंकि हम सभी यहाँ एक साथ हैं और हम सभी एक जैसी स्थिति में हैं। हम एक ही हवा में साँस ले रहे हैं; यहाँ के समुद्र, पानी, ज़मीन हम सब के हैं। हम सभी एक ही लिफ्ट में सवार हैं। तो, यह वास्तविकता है, तर्क पर आधारित।

इसके अलावा हमारे मन में अनेक प्रकार की फंतासियाँ और कल्पनाएं भी होती हैं। हम अनेक प्रकार के असम्भव तरीकों से अपने, दूसरों के और इस दुनिया के अस्तित्व के बारे में कल्पना कर लेते हैं। ये हमारी कल्पना के चित्र होते हैं, और हमें लगता है कि सभी चीज़ों के अस्तित्व का यही आधार है, लेकिन ये कल्पनाएं वास्तविकता के अनुरूप नहीं होती हैं; यह तो केवल हमारे मन की कल्पना मात्र होती है।

उदाहरण के लिए, मैं ऐसा सोच सकता हूँ कि मैं किसी विशेष प्रकार का आचरण कर सकता हूँ और उसके कोई प्रभाव नहीं होंगे। जैसे, “मैं अच्छी शिक्षा हासिल न करूँ, मैं आलसी बना रहूँ, और फिर भी इसका मेरे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा; मैं फिर भी जीवन में सफल हो जाऊँगा।” या यह कि, “मैं पहुँचने में देर कर सकता हूँ, या मैं आपसे कठोर वचन बोल सकता हूँ, और इसके कोई प्रभाव नहीं होंगे।” बहुत से लोग ऐसा समझते हैं कि दूसरों की भावनाएं नहीं होती हैं। उन्हें कभी यह खयाल नहीं आता कि उनकी कही बात से किसी दूसरे व्यक्ति को तकलीफ पहुँच सकती है। इसी लिए तो, “मैं देर से पहुँच सकता हूँ, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।” लेकिन यह तो वास्तविकता नहीं है। यह तो कारण और कार्य के बारे में हमारी कल्पना है। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सभी की भावनाएं होती हैं, जैसे कि मेरी हैं, मैं आपसे कैसे वचन कहता हूँ या आपके साथ कैसा व्यवहार करता हूँ उससे आपकी भावनाएं वैसे ही प्रभावित होंगी जैसे मेरे बारे में कहे गए आपके वचन और व्यवहार मेरी भावनाओं को प्रभावित करते हैं। और यही वास्तविकता है, है न? और इस बात को हम जितना अधिक समझ लेते हैं और ध्यान में रखते हैं, उतना ही अधिक हम दूसरों का खयाल रखने लगते हैं। हमें यह खयाल रहता है कि हमारे व्यवहार का दूसरों पर क्या असर होगा, और हम आवश्यकतानुसार अपने व्यवहार में बदलाव कर लेते हैं।

या, मैं यह कल्पना कर सकता हूँ कि मेरा अस्तित्व बाकी सभी से स्वतंत्र है। यह भी वास्तविकता नहीं है, क्यों? यदि मैं ऐसा मानने लगूँ, तो मैं सोचूँगा, “हमेशा मेरे मन की मर्ज़ी चलनी चाहिए। मैं ही सबसे महत्वपूर्ण हूँ। इसलिए रेस्तराँ में मुझे सबसे पहले खाना परोसा जाना चाहिए,” और फिर जब हमारी मर्ज़ी के मुताबिक काम नहीं होता है, तो हम बहुत खिन्न हो जाते हैं, बेहद गुस्सा। लेकिन समस्या तो यह है कि बाकी सभी लोग भी समझते हैं कि वे ही सबसे महत्वपूर्ण हैं और कोई भी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि हम ही सबसे महत्वपूर्ण हैं। यह तो हमारे मन की कल्पना है। यह तो वास्तविकता नहीं है। कोई भी इस ब्रह्माण्ड का केन्द्र नहीं है। कोई भी ऐसा नहीं है जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो। हम सभी इस दृष्टि से बराबर हैं कि हर कोई चाहता है कि उसे पसन्द किया जाए, कोई भी नापसन्द होना नहीं चाहता। रेस्तराँ में भोजन परोसे जाने के लिए प्रतीक्षा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसे भोजन परोसा जाए, अकेला मैं ही ऐसा नहीं हूँ। डॉक्टर के दफ्तर में प्रतीक्षा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसकी बारी आए, अकेला मैं ही ऐसा नहीं हूँ। तो इसलिए हम सभी बराबर हैं। यह भी वास्तविकता है।

बौद्ध विज्ञान और पाश्चात्य विज्ञान

वास्तविकता को समझना और उसके अनुरूप अपने व्यवहार को ढाल लेना बौद्ध विज्ञान का हिस्सा है। हालाँकि वास्तविकता सम्बंधी शिक्षाओं के दूसरे पहलू भी हैं। और यह जानना भी बड़ा दिलचस्प है कि पश्चिम के वैज्ञानिक अब इस निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि बौद्ध विज्ञान में कही गई बहुत सी बातें सही हैं ─ विभिन्न विषयों के बारे में ऐसे दृष्टिकोण जिनके बारे में उन्होंने पहले विचार नहीं किया था।

उदाहरण के लिए पश्चिम के विज्ञान में पदार्थ और ऊर्जा के संरक्षण के नियम की बात की जाती है: पदार्थ और ऊर्जा को न तो सृजित किया जा सकता है और न ही उन्हें नष्ट किया जा सकता है, उन्हें केवल रूपांतरित किया जा सकता है। यदि हम इस दृष्टि से देखें तो इस तर्क के आधार पर यही निष्कर्ष निकलता है कि न तो कोई आदि है और न ही कोई अन्त। इसलिए यदि हम इस आधार पर महाविस्फोट (बिग बैंग) के बारे में विचार करें, तो हम यही मानेंगे कि महाविस्फोट की उत्पत्ति शून्य से हुई ─ उसकी शुरुआत का कोई कारण नहीं था ─ लेकिन बौद्ध मान्यता यह है कि महाविस्फोट से पहले भी कुछ था। बौद्ध धर्म को इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के कारण के रूप में महाविस्फोट की धारणा को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इससे पहले भी असंख्य ब्रह्माण्ड हुए हैं, और इसके बाद भी असंख्य ब्रह्माण्ड होंगे। और अब पाश्चात्य विज्ञान भी धीरे-धीरे इस दृष्टिकोण को स्वीकार करने लगा है। पाश्चात्य विज्ञान की मूल धारणा की दृष्टि से यह बात तर्कसंगत भी है। इस प्रकार बात फिर तर्क पर आ जाती है। जब आप यह मानते हैं कि पदार्थ और ऊर्जा को न तो सृजित किया जा सकता है और न नष्ट किया जा सकता है, बल्कि उन्हें केवल रूपांतरित किया जा सकता है, तब तर्क की दृष्टि से यह कहना असंगत होगा कि, “ब्रह्माण्ड की उत्तपत्ति की शुरुआत महाविस्फोट के साथ हुई।” इस प्रकार पाश्चात्य विज्ञान में हमारी मान्यताओं की दृष्टि से इस बौद्ध तर्क के लागू होने का एक स्पष्ट उदाहरण है।

चित्त और पदार्थ के बीच का सम्बंध बौद्ध विज्ञान के प्रमुख अभिकथनों में से एक है। चित्त और पदार्थ के बीच परस्पर सम्बंध होता है। आप चित्त को सिर्फ मस्तिष्क या किसी प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया के रूप में ही नहीं देख सकते हैं। देखिए, समस्या यह है कि जब आप आप चित्त शब्द का प्रयोग करते हैं तो आप उसे किसी वस्तु के रूप में समझने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन बौद्ध धर्म की धारणा ऐसी नहीं है। बौद्ध अवधारणा का आशय मानसिक क्रियाकलाप से होता है। और मानसिक क्रिया ─ जिसका अर्थ स्थितियों या अवस्थाओं को समझना होता है ─ हम उसे मस्तिष्क की किसी रासायनिक या वैद्युत प्रक्रिया के रूप में समझा सकते हैं, लेकिन हम उसका वर्णन किसी आनुभविक दृष्टिकोण से भी कर सकते हैं, और जब हम चित्त की चर्चा करते हैं तो हमारा आशय इसी आनुभविक दृष्टिकोण से होता है।

और अब चिकित्सा वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि बौद्ध धर्म का यह दावा सही है कि हमारे चित्त की अवस्था, हमारे जीवन के अनुभव की गुणवत्ता हमारे शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। इसलिए जब हमारा चित्त शान्त होता है, हम आन्तरिक उत्तेजना से मुक्त होते हैं... इसका अर्थ है कि हम निरन्तर चिन्ता और शिकायत करने और नकारात्मक, निराशावादी भाव से सोचने से मुक्त हों। यदि हम ऐसे नकारात्मक विचार रखते हैं, तो इसका दुष्प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है। और यदि हम आशावादी विचार रखते हैं, सदयता का भाव रखते हैं, दूसरों का खयाल रखते हैं, मित्रवत व्यवहार करते हैं, शान्त रहते हैं ─ तो इससे हमारे शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता सुदृढ़ होती है, और हमारे स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। इसलिए दुनिया भर में चिकित्सा विज्ञानी अलग अलग स्थानों पर इस विषय पर शोध कर रहे हैं, और वे इस निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि बौद्ध धर्म का यह दावा सही है कि हमारे चित्त की अवस्था हमारे शरीर को प्रभावित करती है, इस प्रकार चित्त पदार्थ को प्रभावित करता है। और अब पश्चिम में कई ऐसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जहाँ लोगों को तनाव, पीड़ा और कठिन परिस्थितियों को नियंत्रित करने में सहायता करने के लिए “चैतन्य भाव” युक्त ध्यान साधना के आधार पर अभ्यास कराया जाता है। इसमें मूलतः श्वास पर ध्यान को केन्द्रित रखने का अभ्यास किया जाता है जिससे हमें अपने चित्त को शांत रखने में सहायता मिलती है। यह अभ्यास हमें धरातल से, एक भौतिक तत्व से जोड़े रखता है ताकि हम “मैं, मैं, मैं और मेरे दुख और चिन्ताएं” और “मैं बहुत परेशान हूँ” जैसे विचारों के कारण विचलित न हों। तो, यह अभ्यास व्यक्ति के चित्त को शांत करता है और पीड़ा को नियंत्रित करने में बेहद उपयोगी होता है। इस प्रकार, ऐसे पीड़ाहारी उपायों का लाभ उठाने के लिए बौद्ध धर्म का अनुयायी बनना कतई आवश्यक नहीं है।

तो, यह तो बौद्ध विज्ञान की चर्चा हुई।

बौद्ध मनोविज्ञान

अब, बौद्ध मनोविज्ञान यह चर्चा करता है कि हम विषयों को कैसे समझते हैं, यानी संज्ञानात्मक विज्ञान (मनोविज्ञान और विज्ञान के बीच का अंतर इतना वास्तविक भी नहीं है)। इस प्रकार हम विषयों को समझने के तरीकों को जानते हैं ─ हम विषयों को कैसे समझते हैं? ─ और हम यह भी जानते हैं कि हम भावनात्मक समस्याओं से कैसे निपटते हैं। ये दोनों बौद्ध मनोविज्ञान के क्षेत्र हैं।

विषयों को समझने के तरीके

बहुत महत्वपूर्ण बात यह है कि हम यह समझ सकें कि विषयों को समझने के मान्य और अमान्य तरीकों के बीच क्या अन्तर है। बौद्ध धर्म में इस विषय पर बहुत सी जानकारी मिलती है। किसी विषय को समझने के मान्य तरीके के रूप में ऐसे तरीके को परिभाषित किया गया है जो सटीक और निश्चयात्मक हो। सटीक होने का अर्थ है कि वह यथातथ्य हो ─ वह वास्तविकता के अनुरूप हो; दूसरे लोग उसकी पुष्टि कर सकें। और निश्चयात्मक होने का अर्थ है कि हम दृढ़तापूर्वक कह सकें; हमें कोई संदेह न हो। यह कोई ऐसी मनोदशा नहीं है: “हो सकता है कि ऐसा हो, या वैसा हो, लेकिन मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता हूँ।”

तो, विषयों को जानने के मान्य तरीके क्या हैं? हमें विषय की आधारभूत समझ हो सकती है। इसमें देखने, सुनने, गंध, स्वाद, और किसी प्रकार की शारीरिक संवेदना (और ऐसी संवेदनाओं को हम अपने स्वप्नों में भी अनुभव कर सकते हैं, और तब ये संवेदनाएं मानसिक कहलाएंगी) की अनुभूति शामिल है। इसलिए जब हम किसी व्यक्ति को देखते हैं, तो वह घटना मान्य होनी चाहिए। लेकिन वह अनुभूति हमेशा मान्य नहीं होती है: “मुझे लगा कि मैंने आपको भीड़ में देखा था, लेकिन मैं पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता हूँ। मुझे लगा कि मैंने आपको देखा था, लेकिन दरअसल वह कोई और व्यक्ति था।” “मुझे लगा कि आपने ऐसा कहा, लेकिन शायद मैं गलत था और मैंने कुछ और ही सुन लिया।” यह तो मान्य नहीं है, क्या ऐसा है? यह तो सटीक और निश्चयात्मक नहीं है।

और इस विरूपण के कई कारण हो सकते हैं। जैसे कि जब मैं अपना चश्मा उतारता हूँ तो मुझे अपने सामने सिर्फ धुंधलापन दिखाई देता है। लेकिन आपका अस्तित्व तो किसी धुँधले धब्बे के रूप में नहीं है, क्या ऐसा है? दोष मेरी आँखों का है, और इसी लिए मुझे दृश्य विरूपित दिखाई देता है। यदि मैं किसी दूसरे व्यक्ति से पूछूँ, “क्या आपको वहाँ सामने धुँधला धब्बा दिखाई देता है?” तो उस व्यक्ति का जवाब नहीं होगा, इस प्रकार मैं जान सकूँगा कि मेरी अनुभूति गलत थी।

इस प्रकार हमारी अनुभूति आधारभूत स्तर की होती है, और यहाँ हम सटीक, निश्चयात्मक समझ या बोध की बात कर रहे हैं।

और इसके अलावा आनुमानिक बोध भी मान्य है। किन्तु वह अनुमान मान्य होना चाहिए, त्रुटिपूर्ण नहीं। अनुमान। तर्क। “जहाँ धुआँ होता है वहाँ आग भी होती है” यह एक चिरसम्मत उदाहरण है। आप दूर पहाड़ पर किसी चिमनी से उठते हुए धुँए को देखते हैं। यह तो मान्य अनुभूति हुई ─ आप धुँए को देखते हैं ─ और आग के होने का निष्कर्ष निकाल लेते हैं (हालाँकि आग हमें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती है)। जहाँ धुआँ है, वहाँ आग भी होगी। तो यह अनुमान मान्य है।

लेकिन कुछ ऐसे विषय हैं जिन्हें हम तर्क की सहायता से भी नहीं जान सकते हैं, जैसे किसी घर में रहने वाले व्यक्ति का नाम, इसके लिए आपको जानकारी के किसी मान्य स्रोत की आवश्यकता होगी। यह भी एक प्रकार का अनुमान है ─ यह व्यक्ति जानकारी का एक मान्य स्रोत है, इसलिए वह जो कहता है वह सत्य है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण यह है: “मेरा जन्मदिन कब आता है?” ऐसा कोई तरीका नहीं है कि हम स्वयं अपने जन्म की तारीख को जान सकें। अपने जन्म की तारीख को जानने का एकमात्र तरीका यही है कि हम अपनी माता से पूछें या अभिलेखों को देख कर मालूम करें, इस प्रकार यह जानकारी का एक मान्य स्रोत है।

अनुमान के कई स्वरूप हो सकते हैं। एक अनुमान सुस्थापित परम्पराओं पर आधारित होता है: आपको कोई ध्वनि सुनाई देती है। आप कैसे मालूम करते हैं कि वह कोई शब्द है? और आपको यह कैसे मालूम होता है कि उस शब्द का क्या अर्थ है? यदि आप इसके बारे में विचार करें तो यह एक अद्भुत प्रक्रिया है। मूलतः हमें सिर्फ आवाज़ें सुनाई देती हैं, लेकिन चूँकि हम कुछ परम्पराओं को सीख चुके होते हैं, इसलिए जब हमें वह स्वर सुनाई देता है तो हम यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि वह किसी शब्द का स्वर है, और हम यह निष्कर्ष भी निकाल लेते हैं कि उसका एक निश्चित अर्थ है। बेशक हमें इसकी जाँच करनी पड़ती है क्योंकि कभी-कभी हमें ऐसा लगता है कि किसी व्यक्ति की कही बात कोई एक निश्चित अर्थ है जबकि उस व्यक्ति का आशय उससे बिल्कुल अलग होता है।

तो, जब हम बौद्ध मनोविज्ञान के इस पहलू की बात करते हैं तो हमारा आशय संज्ञानात्मक विज्ञान से होता है। हमें इसकी जाँच करनी होती है। “मेरा यह निष्कर्ष यह है कि आपने जो कहा उसका यह अभिप्राय है, लेकिन क्या मेने सही निष्कर्ष निकाला है या नहीं?” अक्सर हम दूसरे व्यक्ति की कही हुई बात का गलत अर्थ समझ लेते हैं, क्या ऐसा नहीं होता है? कोई कहता है, “मुझे तुमसे प्रेम है,” और हो सकता है कि हम उसका यह अर्थ समझें कि यह हमारे प्रति यौनाकर्षण की अभिव्यक्ति है, जबकि उसका यह आशय होता ही नहीं है। ऐसे गलत अर्थ निर्धारण से बड़ी भ्रामक स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

इसलिए यदि अनुमान मान्य है, तो वह सटीक और निश्चयात्मक होगा।

पूर्वधारणा अमान्य होती है। “मैं पहले ही मान लेता हूँ कि आपकी बात का आशय यह है, लेकिन मैं विश्वासपूर्वक यह नहीं कह सकता।” पूर्वधारणा मूलतः अटकलबाज़ी है। “मेरा अनुमान है कि आपका आशय यह है।“ मेरा अनुमान सही हो सकता है, गलत भी हो सकता है, लेकिन वह अनिर्णायक है। “मेरा विचार है कि आपका कहने का यह अर्थ है।” यह अटकलबाज़ी है। लेकिन हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते।

और फिर अनिश्चय के कारण अनिर्णय की स्थिति आती है: “क्या आप यह कहना चाहते हैं, या आपके कहने का वह आशय है?” हम असमंजस में रहते हैं।

और फिर विरूपित बोध की स्थिति उत्पन्न होती है, जहाँ हम एकदम गलत अर्थ ग्रहण करते हैं। यह तो किसी भी दृष्टि से वह अर्थ नहीं है जो उस व्यक्ति का अभिप्राय था।

तो, संज्ञान की प्रक्रिया इस प्रकार चलती है, और बौद्ध धर्म में इसके बारे में बहुत कुछ कहा गया है। हम कैसी भी पृष्ठभूमि से हों, हमारे लिए यह समझना बहुत उपयोगी है, “इस विषय को समझने का मेरा तरीका सही है या गलत?” यदि मैं फिर भी निश्चित नहीं हूँ तो मुझे इस बात को समझना होगा और अपने बोध को ठीक करने का प्रयत्न करना चाहिए, पुनः यह मालूम करने का प्रयत्न करना चाहिए कि वास्तविकता क्या है। यह तरीका सभी के लिए उपयोगी है। इसे अपनाने के लिए आपको बौद्ध धर्म और उसके अनुष्ठानों की आवश्यकता नहीं है।

अशांतकारी मनोभाव

बौद्ध मनोविज्ञान का एक अन्य प्रमुख विषय मनोभावों से सम्बंधित है। हमारे भीतर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के मनोभाव होते हैं। ये नकारात्मक मनोभाव ही अशांतकारी मनोभाव होते हैं; हमारे मन की शांति को भंग करने वाले होते हैं। यहाँ हम क्रोध जैसे मनोभावों की चर्चा कर रहे हैं। इन्हें ऐसे मनोभावों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिनके उत्पन्न होने पर हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है ─ हम थोड़े गड़बड़ा जाते हैं, थोड़े उत्तेजित हो जाते हैं ─ और इसके कारण हम अपने ऊपर नियंत्रण खो बैठते हैं। इसलिए जब हम क्रोधित होते हैं, हमारी ऊर्जा ─ और आप इसे अनुभव कर सकते हैं, असंतुलित हो जाती है। और फिर हम ऐसी बातें कहते और करते हैं जिनके बारे में हमें बाद में पछतावा हो सकता है। हम इस भाव के वशीभूत हो कर व्यवहार करने लगते हैं।

बौद्ध धर्म में कर्म के बारे में भी बहुत चर्चा की जाती है। और कर्म के बारे में चर्चा पुरानी आदत के वशीभूत हमारे व्यवहार पर आधारित होती है। इसलिए जब हम आसक्ति या इच्छा या लोभ के वशीभूत होते हैं तब भी हम हमारा चित्त शांत नहीं है ─ हम अशांत होते हैं क्योंकि हम कुछ पाना चाहते हैं ─ और ऐसी स्थिति में भी अपने ऊपर हमारा नियंत्रण नहीं रहता है, जैसाकि उस चॉकलेट के मामले में होता है, जिसे खाने की मेरी प्रबल इच्छा होती है।

तो, यह तो अशांतकारी मनोभावों की बात हुई। वहीं दूसरी ओर कुछ सकारात्मक मनोभाव भी होते हैं। बौद्ध धर्म यह नहीं कहता है कि आप अपने चित्त के सभी मनोभावों से मुक्त हो जाएं। प्रेम जैसे सकारात्मक मनोभाव भी होते हैं जिसके वशीभूत दूसरे लोग सुख की प्राप्ति और सुख के साधनों की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं फिर चाहे उन साधनों का जो भी प्रभाव हो, चाहे मुझ पर या मेरे प्रियजन पर उनका कुछ भी प्रभाव हो। और करुणा का मनोभाव है, दूसरों के दुख और दुख के कारणों से मुक्त होने की इच्छा रखने का भाव। धैर्य है, सम्मान है। इस प्रकार अनेक सकारात्मक मनोभाव भी हैं। इसलिए हमें यह विवेक होना चाहिए कि हम अपने सकारात्मक और विनाशकारी मनोभावों और व्यवहार के बीच भेद कर सकें। और बौद्ध धर्म में इन विभिन्न मनोभावों को समझने की प्रचुर जानकारी मिलती है ताकि हम उन्हें पहचान सकें, और साथ ही साथ हमें ऐसी अनेक विधियों की भी शिक्षा मिलती है जिनकी सहायता से हम इन अशांतकारी मनोभावों से मुक्त हो सकते हैं।

आपको स्मरण होगा हम मिथ्या धारणाओं की चर्चा कर रहे थे, उन कल्पनाओं की चर्चा कर रहे थे जो वास्तविक नहीं हैं। एक प्रमुख मिथ्या धारणा हमारे अस्तित्व के आधार से सम्बंधित है। जैसा कि मैं कह रहा था, हम अपनी नासमझी के कारण यह समझ लेते हैं हम ही सबसे महत्वपूर्ण हैं, हम दृढ़ता से मानते हैं कि हम अपने ही दम पर हैं, और हमेशा हमारी ही मर्ज़ी चलनी चाहिए, और यह कि सभी हमें पसंद करें। यह विचार करना बड़ा दिलचस्प होगा कि, “बुद्ध को सभी लोग तो पसंद नहीं करते थे, तो फिर मैं यह अपेक्षा क्यों रखूँ कि हर कोई मुझे पसंद करेगा?” इस विचार को ध्यान में रखना बड़ा उपयोगी रहेगा।

लेकिन हम इस प्रकार विचार करते हैं: “मैं अपने मस्तिष्क मैं बैठी वह मूर्त सत्ता हूँ, अपने मस्तिष्क में उठ रहे उस स्वर का नियंता जो यह सोच-सोच कर चिंतित रहता है कि मैं क्या करूँ? लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं?” मानो मेरे अन्दर कोई छोटा सा मैं बैठा हुआ हो जो किसी चित्रपट पर आने वाली सभी सूचनाओं को देख रहा हो और इन्द्रियों से मिलने वाली जानकारी को लाउडस्पीकर पर सुन रहा हो और शरीर को चलाने वाले और वाणी को नियंत्रित करने वाले बटनों को दबाता हो: “अब मैं ऐसा करूँगा। अब मैं यह कहूँगा।” यह हमारी अपने बारे में एक अशांतकारी मिथ्या धारणा है। हम कैसे समझ सकते हैं कि यह धारणा अशांतकारी है? क्योंकि हम असुरक्षा से ग्रसित रहते हैं। इस प्रकार विचार करने के कारण हमें अपने बारे में यह असुरक्षा अनुभव होती है: “लोग मेरे बारे में क्या राय रखते हैं?” आदि, आदि।

इस प्रकार हम न केवल अपने बारे में इस तरह की कल्पनाएं करते हैं बल्कि अपने आस-पास की सभी चीजों के बारे में भी ऐसी ही कल्पनाएं कर लेते हैं। हम अपने आस-पास की अलग-अलग चीज़ों को देखते हैं और फिर उनके अच्छे गुणों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बखान करते हैं। हम उनमें ऐसे गुणों की भी कल्पना कर लेते हैं जो उनमें होते ही नहीं हैं। ठीक वैसे ही जैसे जब हमें किसी से प्रेम हो जाता है, “वह व्यक्ति दुनिया का सबसे अच्छा व्यक्ति है।” हम उस व्यक्ति के अवगुणों को पूरी तरह अनदेखा कर देते हैं। “मैंने उससे सुन्दर और आकर्षक व्यक्ति आज तक नहीं देखा।” और फिर वह व्यक्ति हमें न मिले तो हम उसकी कामना करने लगते हैं, “मुझे कैसे भी करके उस व्यक्ति को अपना साथी या मित्र बनाना ही होगा।” और यदि वह व्यक्ति हमारा मित्र बन जाए, तो फिर उसके प्रति आसक्ति (हम उस व्यक्ति को अपने से दूर नहीं जाने देना चाहते) और तृष्णा (हम अधिक से अधिक समय उस व्यक्ति के साथ रहना चाहते हैं) के भाव उत्पन्न होते हैं।

तो, यह एक अशांतकारी मनःस्थिति है, है न? हमें वास्तविकता को देखना चाहिए: प्रत्येक व्यक्ति में कुछ अच्छाइयाँ होती हैं, और कमज़ोरियाँ भी होती हैं। हम अक्सर सोचते हैं, और ऐसा सोचना एकदम अवास्तविक है, कि : “मैं सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हूँ। इसलिए तुम्हारे जीवन में अकेले मेरा ही महत्व है। तुम्हें अपना पूरा समय मुझे ही समर्पित कर देना चाहिए,” और हम इस बात को पूरी तरह से भूल जाते हैं कि उस व्यक्ति के जीवन में दूसरे लोग भी हैं, दूसरे ऐसे और भी काम हैं जिन्हें उन्हें करना होता है, अकेले हम ही नहीं हैं। इसलिए हम क्रोधित हो जाते हैं, असुरक्षित अनुभव करते हैं। और फिर जब वह व्यक्ति हमें कॉल नहीं करता है, तो हम उसके इस व्यवहार की बुराइयों को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं, और फिर हमें उस व्यक्ति के साथ अपने सम्बंध में कोई अच्छाई नज़र नहीं आती। और हम क्रोधित हो जाते हैं, हम अपनी भड़ास निकाल देना चाहते हैं, इसलिए हम उस व्यक्ति पर चीखते-चिल्लाते हैं, “तुमने मुझे कॉल क्यों नहीं किया? तुम आए क्यों नहीं?” यह सब इसलिए होता है क्योंकि हमारे भीतर एक नन्हा सा मैं होता है, जो चाहता है कि हमेशा उसी की मर्ज़ी चले, उसे ही सबसे अधिक महत्व दिया जाए, और ऐसा इस अवास्तविक दृष्टि के कारण होता है कि उस व्यक्ति के जीवन में अकेले मेरा ही स्थान और महत्व है।

बौद्ध धर्म में इस बात की बहुत स्पष्ट व्याख्या की गई है कि ऐसा दृष्टिकोण और भाव अशांतकारी और अनुचित क्यों है। क्योंकि हमारा चित्त स्थितियों को हमारे सामने इसी प्रकार उपस्थित करता है, और समस्या यह है कि हम उसे वास्तविकता मान बैठते हैं। तो हम अपनी कल्पना के गुब्बारे को फुलाने के लिए ऐसे तरीकों का प्रयोग करते हैं। हमें ऐसा प्रतीत हो सकता है कि मेरे अलावा और किसी का अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि जब मैं अपनी आँखें बन्द करता हूँ तो मुझे कोई नहीं दिखाई देता, लेकिन चित्त में वह स्वर सुनाई देता रहता है। लेकिन यह तो नादानी है। यह तो वास्तविकता नहीं है। यह स्थिति वास्तविकता से मेल नहीं खाती है। मेरे आँखें मूँद लेने से आपका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता है। यही बौद्ध मनोविज्ञान का आधार है।

प्रेम और करुणा के भाव विकसित करना

या हम इसे प्रेम और करुणा की दृष्टि से देख सकते हैं। बौद्ध धर्म में इन गुणों को विकसित करने के लिए अनेक तरीके सिखाए जाते हैं, और कोई भी व्यक्ति इनसे लाभान्वित हो सकता है (और वह भी बौद्ध मत के धार्मिक स्वरूप को अपनाए बिना)। सभी की समानता प्रेम और करुणा का आधार है: सभी जीवन में सुख चाहते हैं; कोई भी दुख नहीं चाहता। सभी आनन्दित रहना पसन्द करते हैं। कोई भी दुखी नहीं रहना चाहता। इस दृष्टि से हम सभी एक जैसे हैं।

हम सभी परस्पर सम्बंधित हैं। मेरा पूरा जीवन दूसरों की करुणा और उनके श्रम पर निर्भर है। हम उन सभी लोगों के बारे में विचार करते हैं जो हमारे लिए खाने की चीज़ें उगाते हैं, उनकी ढुलाई करते हैं, उन्हें दुकानों और स्टोरों तक पहुँचाते हैं। इसके अलावा और भी लोग हैं जिन्होंने सड़कों का निर्माण किया है और वे लोग भी हैं जिन्होंने उस भोजन सामग्री को ढोने वाले ट्रकों का निर्माण किया है। और इनके निर्माण के लिए धातु कहाँ से आई होगी? किसी ने उस ट्रक के निर्माण के लिए प्रयुक्त धातु का खनन किया होगा। फिर रबड़ के टायर भी तो हैं। वह रबड़ कहाँ से आया होगा? इस प्रकार इतने सारे लोग उद्योगों से भी जुड़े हुए हैं। फिर पैट्रोल भी है, न जाने कितने डायनासॉर और दूसरे जन्तु रहे होंगे जिनके शरीर के अपघटित होने से उस पैट्रोल का निर्माण हुआ होगा। जब हम इस नज़रिए से देखते हैं तो हमें यह बात समझ आती है कि हम पूरी तरह दूसरों के साथ जुड़े हुए हैं और उन पर निर्भर हैं। और वैश्विक अर्थव्यवस्था की दृष्टि से यह बात और अधिक स्पष्ट हो जाती है।

इस प्रकार जब हम सभी को समान समझते हैं और सभी के बीच की परस्पर निर्भरता के बारे में विचार करते हैं तो हमारा दृष्टिकोण यह होता है: “जो भी समस्याएं हैं, उन्हें हल किया जाना चाहिए।” क्योंकि एक महान बौद्ध आचार्य ने कहा था, “समस्याओं और दुख पर किसी का स्वामित्व नहीं होता; दुख का निवारण किया जाना चाहिए, इसलिए नहीं कि वह मेरा या आपका दुख है ─ उसका निवारण तो केवल इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि वह कष्ट देता है।” इसलिए यदि कोई पर्यावरण सम्बंधी समस्या उत्पन्न होती है, तो हमें कहना चाहिए कि यह अकेले मेरी या अकेले आपकी समस्या नहीं है; यह हम सभी की समस्या है। समस्या पर किसी का स्वामित्व नहीं है। उसका समाधान केवल इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि वह एक समस्या है, केवल इसलिए कि वह एक समस्या है और सभी को तकलीफ देती है।

इस प्रकार हम प्रेम और करुणा के भाव को विकसित करने के लिए ऐसे तरीके अपनाते हैं जिनका धर्म से कोई सम्बंध नहीं होता है, बल्कि वे पूरी तरह तर्क और वास्तविकता पर आधारित होते हैं।

वीडियो: मिन्ग्युर रिन्पोचे — बौद्ध धर्मी तथा पश्चिमी चित्त विज्ञान
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बौद्ध धर्म

जब हम यह प्रश्न पूछते हैं, “बौद्ध धर्म ही क्यों?” तो उसके वैज्ञानिक पहलू, और मनोवैज्ञानिक पहलू ही ऐसे पहलू हैं जो पश्चिम जगत में बौद्ध धर्म को हमारे लिए प्रासंगिक बनाते हैं। और हममें से कुछ पाश्चात्य लोगों के लिए बौद्ध धर्म के धार्मिक पहलू ─ उसके कर्मकाण्ड, पुनर्जन्म सम्बंधी शिक्षाएं, प्रार्थनाएं, आदि ─ उपयोगी हो सकते हैं। लेकिन जैसाकि मैंने कहा, हमारे लिए यह देखना बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारे इस आकर्षण का कारण क्या है। क्या हम केवल उसके विदेशी स्वरूप से आकर्षित होते हैं? क्या हम किसी प्रकार के चमत्कारों की आशा रखते हैं? क्या हम अपने माता-पिता या अपनी परम्पराओं के खिलाफ विद्रोह की भावना से प्रेरित हो कर आकर्षित होते हैं? क्या हम इसलिए आकर्षित होते हैं क्योंकि ऐसा करना इस समय चलन में है; बौद्ध धर्म से जुड़ना कथित तौर पर “कूल” समझा जाता है? ये सभी मान्य कारण नहीं हैं, क्योंकि ये टिकाऊ कारण नहीं हैं; स्थिर नहीं हैं। यदि हम आकर्षित होते हैं और हमें लगता है कि बौद्ध धर्म हमारे लिए लाभदायक है (इससे मुझे और अधिक उदार, अधिक करुणावान होने में सहायता मिलती है), और यह वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को सुदृढ़ करता है ─ और यह बहुत महत्वपूर्ण है, कि वह विज्ञान और मनोविज्ञान को सुदृढ़ करे और उनकी जगह न ले ले ─ यदि धार्मिक पहलुओं में ये गुण हों, तो अच्छी बात है।

इस प्रकार हम बौद्ध विज्ञान, मनोविज्ञान, और धर्म के बीच अन्तर करके देखते हैं।

मुझे इतना ही कहना था। सम्भवतः आप कुछ प्रश्न पूछना चाहते होंगे। क्या आपके कोई प्रश्न हैं?

चित्त और पुनर्जन्म से सम्बंधित प्रश्न

जब हम पुनर्जन्म की चर्चा करते हैं, तो हम चित्त की बात करते हैं। यह विचार आत्मा के विषय किस सीमा तक जुड़ा है?

जब हम पुनर्जन्म की चर्चा करते हैं, तो हम चित्त की बात करते हैं। यह विषय आत्मा के विषय से किस सीमा तक जुड़ा है? हमें यह समझना होगा कि चित्त और आत्मा से हमारा क्या आशय है।

पुनर्जन्म का मतलब सातत्य से है। जैसे पदार्थ और ऊर्जा का न तो निर्माण किया जा सकता है और न ही उन्हें नष्ट किया जा सकता है, बल्कि उनका केवल रूप बदलता है, उसी प्रकार हमारे वैयक्तिक, आत्मपरक मानसिक कार्यकलाप को न तो सृजित किया जा सकता है और न ही उसे नष्ट किया जा सकता है। ऐसा मानना तर्कविरुद्ध होगा कि वह शून्य से शुरू हो सकता है। और जब इस सातत्य में हर क्षण अगले क्षण को उत्पन्न करता है, तो यह मानना भी तर्कविरुद्ध होगा कि वह समाप्त हो जाए या शून्य में परिणत हो जाए। बेशक मानसिक कार्यकलाप के लिए थोड़ा भौतिक समर्थन होता है, लेकिन वह बहुत ही सूक्ष्म ऊर्जा के रूप में होता है; इसके लिए किसी मस्तिष्क युक्त स्थूल शरीर का होना आवश्यक नहीं है। यह तो एक जन्म से अगले जन्म में और फिर उससे अगले जन्म में, यहाँ तक कि बुद्धत्व में भी चलता जाता है, वैयक्तिक, आत्मपरक मानसिक कार्यकलाप के रूप में, इसका स्वरूप बहुत सूक्ष्म या फिर बिल्कुल स्थूल हो सकता है, उसके कई स्तर हो सकते हैं, लेकिन वह क्षण प्रति क्षण अनवरत जारी रहता है।

रही बात आत्मा की, तो निश्चित तौर पर यह एक पाश्चात्य शब्द है। और अलग-अलग भाषाओं में ─ पश्चिम जगत की भाषाओं में भी ─ चित्त के लिए, जीव के लिए, आत्मा के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ये शब्द एक दूसरे के सदृश नहीं हैं, हमारे पाश्चात्य जगत की भाषाओं में भी सदृश नहीं हैं, और अलग-अलग धर्म आत्मा को विविध भाषाओं में अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते हैं। और फिर पश्चिम के धर्मों में आत्मा और ईश्वर के बीच के सम्बंध की भी बात की जाती है। और भारतीय धर्मों में आत्मन् शब्द का प्रयोग किया जाता है, और यहाँ भी आत्मन् का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जाता है। इसलिए आत्मा शब्द का सामान्यीकृत अर्थ निर्धारित कर पाना कठिन है।

किन्तु मैं के बारे में चर्चा करना अपेक्षाकृत अधिक आसान है ─ मैं की संकल्पना नहीं, बल्कि मैं क्या है? हम सभी का मैं या आत्म होता है, लेकिन हम उसके अस्तित्व पर कल्पना के ऐसे आवरण चढ़ा देते हैं कि उसका स्वरूप वास्तविकता से मेल नहीं खाता है। मानो किसी कन्वेयर बैल्ट पर रखा किसी मुसाफिर का कोई सामान हो, जो हमारे पूरे जीवन काल से होकर गुज़रता है और फिर हमारे अगले जन्म में भी प्रवेश कर जाता है। यह बहुत दिलचस्प है: आप अपनी शैशव-अवस्था के किसी चित्र को देखते हैं, और कहते हैं, “यह मैं हूँ।” उसमें मैं जैसा क्या है? शरीर की हर कोशिका बदल चुकी होती है। सोचने, समझने के तौर तरीके बचपन से लेकर अब तक पूरी तरह बदल चुके होते हैं। फिर भी हम कहते हैं, “यह मैं हूँ।” तो फिर यह मैं क्या है? मैं एक शब्द है जिसे हमारे जीवन की इन सभी बदलती घटनाओं पर चस्पां कर दिया जाता है। और मैं इनमें से कोई चित्र नहीं है, बल्कि मैं शब्द का आशय मेरे जीवन की इन सभी घटनाओं पर आधारित किसी चीज़ से होता है, जो पल प्रति पल परिवर्तनशील है।

मैं हमेशा एक फिल्म का उदाहरण देता हूँ, उदाहरण के लिए स्टार वॉर्स को लें। स्टार वॉर्स क्या है? हम कहते हैं, “मैंने स्टार वॉर्स देखी,” लेकिन क्या हम उस फिल्म को एक क्षण में देख सकते हैं? नहीं। उस फिल्म का कोई क्षण, क्या वह स्टार वॉर्स है? शायद हाँ। यह स्टार वॉर्स फिल्म का एक क्षण है। इस प्रकार स्टार वॉर्स का अर्थ फिल्म के प्रत्येक क्षण के लिए समान नहीं है। स्टार वॉर्स सिर्फ एक शीर्षक नहीं है। बेशक “स्टार वॉर्स” एक फिल्म का पर्याय है ─ स्टार वॉर्स नाम की एक फिल्म है, उसका अस्तित्व है ─ लेकिन आप उसे प्लास्टिक की फिल्म के किसी टुकड़े में नहीं ढूँढ सकते हैं, आप उसे किसी दृश्य में नहीं तलाश कर सकते हैं, लेकिन उसका अस्तित्व दृश्य दर दृश्य हो रहे परिवर्तन के रूप में अवश्य है।

मैं या आत्म भी ऐसा ही है। मैं एक शब्द के रूप में है। वह किसी चीज़ को इंगित करता है ─ मैं यहाँ बैठा हूँ; मैं यह कार्य कर रहा हूँ; मैं आपको सम्बोधित कर रहा हूँ। किन्तु यह मेरे चित्त या मेरे शरीर या उसके किसी क्षण के सदृश नहीं है। किन्तु शरीर और चित्त के सातत्य के आधार पर उसे मैं की संज्ञा दे सकते हैं। वह आप नहीं है। वह हर क्षण बदल रहा है, और उसका कोई मूर्त स्वरूप नहीं है। क्या आप उसे आत्मा कहना चाहेंगे? आप उसे क्या नाम देना चाहेंगे?

इसके लिए शाक्यमुनि बुद्ध ने संस्कृत या पालि भाषा में किस शब्द का प्रयोग किया था?

बुद्ध ने पालि भाषा में इसके लिए अनत शब्द का और संस्कृत भाषा में अनात्मन शब्द का प्रयोग किया था, जो भारतीय दर्शन के दूसरे निकायों द्वारा प्रयुक्त “जो आत्मन नहीं है” है। भारतीय दर्शन के दूसरे निकाय आत्मन् को इस रूप में व्यक्त करते हैं जहाँ वह स्थिर है (वह कभी बदलता नहीं है और किसी बात से प्रभावित नहीं होता है), अभाज्य है (अर्थात वह या तो ब्रह्माण्ड के आकार का है, आत्मन् ही ब्रह्म है, पूरा ब्रह्माण्ड है, या फिर आत्मन् जीवन के किसी सूक्ष्म स्फुलिंग के समान है), और जो पूर्णतः मुक्त रूप में शरीर या चित्त से अलग होकर अस्तित्वमान रह सकता है।

कुछ भारतीय दर्शनों की मान्यता है कि इस प्रकार का आत्मन् चेतनायुक्त होता है। यह सांख्य मत है। न्याय दर्शन कहता है कि वह सचेतन नहीं है। जो दर्शन यह मानता है कि वह सचेतन है, यह कहता है कि आत्मन् केवल शरीर में वास करता है और मस्तिष्क का संचालन करता है। और आत्मन् को चेतनाविहीन मानने वाला दर्शन कहता है कि वह शरीर में प्रवेश करता है और चेतना की अनुभूति शरीर के भौतिक आधार पर होती है।

जब बुद्ध ने “कोई आत्मन् नहीं” कहा तो वे इन्हीं मतों का खण्डन कर रहे थे। अनात्मन से उनका आशय आत्मन के उस स्वरूप से था जिसे इन दूसरे मतों द्वारा परिभाषित किया गया है। किन्तु आत्मन् होता है, आत्म होता है, लेकिन उसके अस्तित्व का स्वरूप ─ जिसे “पारम्परिक आत्म” कहा जाता है, “पारम्परिक आत्मन्” कहा जाता है ─ से भिन्न है।

यदि कोई व्यक्ति पुनर्जन्म को मानता है और यह समझता है कि उसका पुनर्जन्म होगा, तो वह इस बात को कितने विश्वास के साथ कह सकता है कि उसकी चेतनता में समाहित समस्त बोध उसके अगले जन्म में उसके साथ जाएगा?

पहली बात तो यह है कि बौद्ध धर्म की मान्यता है कि पुनर्जन्म अनादि है ─ उसकी की कोई शुरुआत नहीं है ─ इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा स्वभाव और वृत्तियाँ अनन्त जन्म कालों से चली आ रही हैं। इस प्रकार अनेक कारकों के प्रभाव से किसी एक जन्म में केवल कुछ वृत्तियाँ ही प्रकट होती हैं। ऐसा कदापि नहीं है कि भले ही हमारा पुनर्जन्म मनुष्य के रूप में ही क्यों न हो, जो कभी-कभार ही होता है, फिर भी हमारी सभी वृत्तियाँ और हमारा समस्त बोध हमारे अगले जन्म में प्रकट होगा। यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आसन्न मृत्यु के समय हमारे क्या विचार थे और हमारी मनोदशा क्या थी। इसके अलावा हमारे अगले जन्म की स्थितियाँ और परिस्थितियाँ, जो सिर्फ हमारी पारिवारिक स्थितियों तक ही सीमित नहीं होती हैं, देश में अकाल की स्थिति हो सकती है, युद्ध की स्थिति हो सकती है ─ कितने ही ऐसे कारक हो सकते हैं जो यह तय कर सकते हैं कि क्या कुछ प्रकट होगा और क्या प्रकट नहीं होगा।

इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने जीवन में नकारात्मक विचारों और व्यवहार के बजाए सकारात्मक विचारों पर ध्यान केन्द्रित करें, ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा को जारी रखने के लिए हम शांत चित्त, और सकारात्मक मनोदशा और ध्येय के साथ मृत्यु को प्राप्त हों।

निवेदन

सम्भवतः हम अब इस चर्चा को यहाँ समाप्त कर सकते हैं। हम प्रार्थना करें कि इस चर्चा से जो भी सकारात्मक बल हमें मिला है, वह और प्रबल और प्रगाढ़ हो।

यह प्रार्थना बौद्ध धर्म का परिचायक लग सकती है, लेकिन इसका वैज्ञानिक आधार भी है। यदि आपकी किसी के साथ खुशगवार मुलाकात हो, आप उस व्यक्ति के साथ विचारपूर्ण, सकारात्मक चर्चा कर रहे हों, और तभी टेलीफोन की घंटी बजने से वह तारतम्य टूट जाए तो वह सकारात्मक ऊर्जा अचानक खत्म हो जाती है और आप उस सकारात्मक चर्चा को भूल जाते हैं। लेकिन यदि हम उस चर्चा को इस प्रार्थना के साथ समाप्त करते हैं कि, “इसका मुझ पर सकारात्मक प्रभाव हो,” तब वह सकारात्मक भाव, वह बोध हमारे साथ रहता है और हमारे जीवन को बेहतर बना सकता है। इसलिए हम अपनी इस चर्चा को इसी विचार के साथ समाप्त करते हैं, और किसी के भी साथ किसी सकारात्मक चर्चा को समाप्त करने का यह बहुत उपयोगी तरीका है।

वीडियो: डा. ऐलन वॉलेस — बौद्ध धर्म के अध्ययन की क्या आवश्यकता है?
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