सैद्धान्तिक दृष्टिकोण
किन्हीं दो धार्मिक या दार्शनिक सिद्धान्तों के बीच सहमति के आधार तलाश करने में अनेक कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ निहित होती हैं। एक प्रमुख कठिनाई इस बात को लेकर होती है कि धर्मों की तुलना के सैद्धान्तिक विषय के प्रति कौन सा सैद्धान्तिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। मैं यहाँ ईसाई धर्मशास्त्र में ऐसी तुलनाओं के वर्गीकरण की एक व्यवस्था का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसकी रूप रेखा क्रिस्टिन बीज़ किब्लिंगर ने अन्य धर्मों के प्रति बौद्ध दृष्टिकोण में प्रकाशित लेख “अन्य धर्मों के प्रति बौद्ध रवैया: प्रकार, उदाहरण, विचार” में प्रस्तुत की है।
इस लेख में किब्लिंगर ने तीन दृष्टिकोणों की रूपरेखा प्रस्तुत की है: एकान्तिकतावाद, समावेशवाद, और बहुलतावाद।
- एकान्तिकतावादी दृष्टिकोण यह है कि केवल एक धर्म ही मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है। हो सकता है कि दूसरे धर्म भी हमारे धर्म की ही भांति समान विषयों की व्याख्या करते हों, लेकिन उनका दृष्टिकोण गलत है। बहुत से बौद्ध ग्रंथों में न केवल गैर-बौद्ध विचारों के बारे में, बल्कि अन्य बौद्ध धारणाओं के बारे में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया है।
- समावेशवादी दृष्टिकोण के अनुसार मुक्ति के मार्ग अनेक हैं, किन्तु एक मार्ग अन्य मार्गों से श्रेष्ठ है। दूसरे शब्दों में, अन्य धर्मों के विचार हमारे समान हो सकते हैं, और हालाँकि ये सभी विचार मान्य हैं, किन्तु हमारे विचार उनके विचारों से बेहतर हैं। विभिन्न तिब्बती परम्पराओं के कुछ अनुयायी दूसरी तिब्बती परम्पराओं के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखते हैं ─ सभी परम्पराएं ज्ञानोदय की दिशा में ले जाती हैं, किन्तु हमारी परम्परा सर्वश्रेष्ठ है।
- बहुलतावादी दृष्टिकोण के अनुसार मुक्ति के अनेक मार्ग हैं, और उनमें से कोई भी मार्ग दूसरों की तुलना में श्रेष्ठ नहीं है। यह एक असम्प्रदायवादी दृष्टिकोण है, जो विभिन्न धर्मों के अलग-अलग मतों को केवल प्रस्तुत करता है, किन्तु उनका पदक्रम निर्धारण नहीं करता है।
समावेशवादी और बहुलतावादी दृष्टिकोणों में भी इस आधार पर भेद हैं कि आप भिन्नताओं को किस सीमा तक स्वीकार करते हैं और इन भिन्नताओं के प्रभाव को कितना गहरा मानते हैं।
- पहली श्रेणी का भेद समानताओं पर बल देता है, और हालाँकि इसमें भिन्नताओं को स्वीकार किया जाता है, लेकिन इसमें भिन्नताओं को समानताओं, समतुल्यताओं, या महत्वहीन गौण विषयों के रूप में प्रस्तुत करके उनके महत्व को कम करके प्रदर्शित किया जाता है। यह दृष्टिकोण मानता है कि दूसरे धर्म भी वही कर रहे हैं जो हम करते हैं, बस उनका तरीका अलग है ─ एक प्रकार से वे हमारे ही धर्म का पालन कर रहे हैं, केवल उन्हें इस वास्तविकता का बोध नहीं है। गेलुग द्वारा गेलुग अनुत्तरयोग सिद्धांत की दृष्टि से निंग्मा जोगचेन का स्पष्टीकरण दिया जाना इसका उदाहरण है।
- दूसरी श्रेणी का दृष्टिकोण वास्तविक भिन्नताओं का सम्मान करता है, और फिर चाहे वह अपने धर्म को श्रेष्ठ मानता हो या न मानता हो, संवाद को वह एक-दूसरे को समझने की दिशा में प्रगति के महत्वपूर्ण प्रेरक के रूप में देखता है।
पहले प्रकार के दृष्टिकोण (वे दरअसल वही बात कह रहे हैं जो हम कहते हैं, बस कहने का ढंग थोड़ा अलग है) के बारे में खतरा यह होता है कि यह दृष्टिकोण भ्रांत महत्ता-बोध, अहंकार और आत्ममोह का रूप ले सकता है ─ यह दृष्टिकोण मान कर चलता है कि दूसरों के धर्म का वास्तविक अर्थ हमें उनसे बेहतर मालूम है। इसका समावेशी स्वरूप, जो यह मानता है कि हमारा धर्म श्रेष्ठ है, यह रूप धारण कर सकता है कि दूसरा धर्म दरअसल हमारे ही लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, बस उसे इसकी जानकारी नहीं है। या, वे लोग हमारे ही धर्म के किसी निचले सोपान पर हैं। इस प्रकार के दृष्टिकोणों में ऐसा कुछ नहीं है जो हम उनसे सीख सकें, बल्कि वे ही हमसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसकी उपश्रेणियाँ इस प्रकार हैं:
- सभी या अधिकांश धर्म एक ही लक्ष्य की दिशा में बढ़ रहे हैं; और हालाँकि उनका मार्ग हमारे मार्ग के जैसा उत्तम नहीं है, अन्ततः उनका मार्ग भी स्वाभाविक रूप से उसी लक्ष्य तक ले जाएगा जहाँ हमारा मार्ग पहुँचता है।
- उन्हें अन्ततः हमारा वह मार्ग दिखाए जाने की आवश्यकता होगी जिस पर चल कर हम अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं और जिसे वे भी प्राप्त करना तो चाहते हैं, लेकिन यदि वे अपने ही मार्ग पर चलते रहे तो प्राप्त नहीं कर सकेंगे। बौद्ध धर्म में इसका एक उदाहरण अनुत्तरयोग तंत्र के इस दावे के रूप में मिलता है कि सूत्र या निम्न तंत्र आपको केवल दसवे स्तर के भूमिचित्त (दशम भूमि) की अवस्था तक पहुँचने का मार्ग ही दिखा सकते हैं, किन्तु वास्तव में ज्ञानोदय के स्तर तक पहुँचने के लिए अनुत्तरयोग की विधियों के प्रयोग की आवश्यकता होती है।
पहले प्रकार के समावेशवाद (जो भिन्नताओं को गौण मानते हुए उन्हें दरअसल समानताओं के रूप में देखता है) के अन्य स्वरूप इन कथनों के रूप में हैं कि:
- शब्द, अवधारणाएं और सिद्धान्त ध्यानानुभूतियों की सटीक व्याख्या नहीं करते हैं, और सभी धर्म एक ही अनुभूति की बात करते हैं।
- सभी धर्मों के मूल सिद्धान्त या मूल कथन एक समान हैं, और भिन्नताएं केवल सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होती हैं। भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, जापान, तिब्बत आदि देशों में बौद्ध धर्म के विभिन्न रूपों का चित्रण इसका एक उदाहरण हैं।
इसके अलावा जब हम बौद्ध धर्म और इस्लाम के बीच आपसी सहमति के सम्भावित आधारों की तलाश करते हैं, तो यह तलाश धर्मान्तरण के विषय पर भी विचार करती है।
- एकान्तिकवादी दृष्टिकोण से देखा जाए तो यदि केवल हमारा धर्म ही सच्चा है तो फिर आपकी मुक्ति तभी हो सकेगी जब आप अपने धर्म का त्याग करके हमारे धर्म को अपना लें।
- समावेशवादी दृष्टिकोण के अनुसार इस बात में कोई आपत्ति नहीं है कि आप अपने धर्म का पालन करते रहें, क्योंकि आपका धर्म दरअसल हमारे धर्म का ही एक निम्नतर स्वरूप है, और अन्त में आप स्वाभाविक तौर पर हमारे दृष्टिकोण को जान ही लेंगे (उदाहरण के लिए अनुत्तरयोग की साधना करने वाले चित्तमात्र साधक सम्पन्न क्रम अवस्था की साधना की चित्त विलगन अवस्था में पहुँचते ही स्वाभाविक तौर पर प्रासंगिक बन जाएंगे), या फिर अन्त में हमें आपका धर्मान्तरण करना पड़ेगा।
- बहुलतावादी दृष्टिकोण के अनुसार प्रत्येक धर्म अपने एक चरम लक्ष्य की ओर ले जाता है, और वे सभी श्लाघ्य हैं ─ इसके दो भिन्न रूप हैं: लक्ष्य समतुल्य हैं; या लक्ष्य समतुल्य नहीं हैं ─ और कोई भी धर्म दूसरों की तुलना में श्रेष्ठतर नहीं है। इसलिए धर्मान्तरण की आवश्यकता उत्पन्न नहीं होती है। इसका आशय यह होगा कि यदि आप बौद्ध परम्पराओं का पालन करते हैं तो आप बौद्धों के स्वर्ग में जाएंगे, मुसलमानों की जन्नत में नहीं; और यदि आप मुस्लिम परम्पराओं का पालन करते हैं तो फिर आप मुसलमानों की जन्नत में जाएंगे, बौद्धों के स्वर्ग में नहीं।
जहाँ तक दूसरे प्रकार के समावेशवाद और बहुलतावाद (जो धर्मों के बीच की आपसी भिन्नताओं का सम्मान करता है, और साथ ही यह भी स्वीकार करता है कि सभी धर्म मान्य हैं, चाहे कोई धर्म अपने आपको श्रेष्ठतर मानता हो या न मानता हो) का प्रश्न है, यहाँ एक नाज़ुक मुद्दा यह है कि दूसरे धर्म के मत को किस प्रकार समझा जाए और फिर अपने धर्म के साथ उसकी तुलना किस प्रकार की जाए।
- क्या आप किसी धर्म को केवल उसी के नज़रिए से देख कर समझ सकते हैं, या फिर क्या आपको उस धर्म में कही गई बातों को समझने के लिए उन्हें अपनी मान्यताओं की कसौटी पर कसना पड़ता है?
- यदि आप दूसरा वाला विकल्प (दूसरों के धर्म के दावों को समझने योग्य बनाने के लिए उन्हें अपनी मान्यताओं की कसौटी पर कसना) अपनाते हैं, तो क्या आप इस कार्य को कुछ इस प्रकार कर सकते हैं कि यह दृष्टिकोण पहले प्रकार के दृष्टिकोण में परिवर्तित या अवक्रमित न हो, जिसके आधार पर आप कहते हैं कि उनकी मान्यताएं आपकी अपनी मान्यताओं का ही परिवर्तित रूप हैं?
वहीं दूसरी ओर यदि आप बौद्ध धर्म और इस्लाम जैसे दो धर्मों के बीच समानता के मुद्दों या विषयों की पहचान कर सकते हैं, तो फिर भले ही आपको इन विषयों और दूसरे धर्म के दृष्टिकोण को अपनी मान्यताओं के वैचारिक ढांचे की सहायता से व्यक्त करने की आवश्यकता पड़े, आप फिर भी उस धर्म से सम्बंधित भिन्नताओं को समझ पाएंगे और उनका सम्मान कर पाएंगे। तब आप इस बात का दावा किए बिना कि आपका धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है और दूसरे धर्म के प्रति श्रेष्ठता का बनावटी भाव प्रदर्शित किए बिना एक सहिष्णु आलोचना-मुक्त दृष्टिकोण से भिन्नताओं का सम्मान कर सकेंगे। इस प्रकार की समझ-बूझ और आदर भाव के आधार पर ही आप धार्मिक सौहार्द की स्थापना कर सकते हैं।
परम पावन दलाई लामा यही दृष्टिकोण अपनाते हैं। जब उनसे प्रश्न पूछा गया कि “कौन सा धर्म सर्वश्रेष्ठ है?” तो परम पावन ने उत्तर दिया, “ऐसी मान्यताएं और कर्मप्रवृत्तियाँ जो आपको अधिक दयालु, अधिक करुणाशील बनाने में सहायक हो।”
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
बौद्ध धर्म के प्रति मुसलमानों का ऐतिहासिक दृष्टिकोण
अब हम विशेष रूप से बौद्ध धर्म और इस्लाम के विषय में चर्चा करेंगे। इस्लाम के विषय पर किए गए मेरे अपने शोध के अलावा मैंने रज़ा शाह काज़मी की पुस्तक इस्लाम तथा बौद्ध धर्म के बीच परस्पर सहमति का आधार, जिसके लिए परम पावन दलाई लामा और जॉर्डन के युवराज गाज़ी बिन मुहम्मद ने प्रस्तावनाएं लिखी हैं, से भी जानकारी ली है। मैंने क़ुरान के संगत उद्धरणों को विशेष तौर पर डॉ. काज़मी की पुस्तक से लिया है।
ऐतिहासिक दृष्टि से मुसलमानों और बौद्धों (और यहाँ हम अपनी चर्चा को बौद्ध धर्म की भारतीय-तिब्बती परम्पराओं तक ही सीमित रखेंगे), दोनों ही समुदायों ने समावेशवादी दृष्टिकोण को अपनाया है। उदाहरण के लिए, मुसलमानों ने बौद्धों को यहूदियों, ईसाइयों और ज़रदुश्त धर्मानुयायियों की श्रेणी में शामिल किया। लेकिन यह सब हुआ कैसे?
उमय्यद खलीफ़ाओं के शासन काल (661-750 ईसवी) में अरबों ने अपने शासन और अपने धर्म, इस्लाम का विस्तार पूरे मध्य-पूर्व क्षेत्र में कर दिया। इस प्रकार आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उमय्यद सेनापति मुहम्मद बिन क़ासिम ने बौद्ध बाहुल्य वाले सिंध क्षेत्र , जो वर्तमान दक्षिणी पाकिस्तान में है, पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस क्षेत्र के एक प्रमुख शहर ब्राह्मणाबाद के बौद्धों और हिन्दुओं ने अपने मन्दिरों का पुनर्निर्माण करने और अपनी धार्मिक स्वतंत्रता को कायम रखने की अनुमति दिए जाने का आग्रह किया। सेनापति क़ासिम ने इस सम्बंध में वहाँ के शासक हज्जाज बिन यूसुफ से परामर्श किया, और हज्जाज ने आगे मुस्लिम धार्मिक पदाधिकारियों से मशवरा किया। धार्मिक पदाधिकारियों ने घोषणा की कि बौद्ध (और हिन्दू भी) ईश्वर प्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायी हैं, इस घोषणा को बाद में “ब्राह्मणाबाद समझौते” का नाम दिया गया।
उमय्यद शासक हज्जाज ने अपने हुक्मनामे में कहा:
बौद्ध तथा दूसरे मन्दिरों के निर्माण, और धार्मिक मामलों में सहिष्णुता के बारे में ब्राह्मणाबाद के मुखियाओं का अनुरोध न्यायसंगत और वाजिब है। मुझे नहीं लगता कि सामान्य करों को वसूल करने के अलावा उनके ऊपर हमारे कोई और अधिकार वाजिब हैं। उन्होंने हमारे प्रति सम्मान प्रकट किया है और खलीफा को एक निश्चित राशि व्यक्ति कर (जज़िया) के रूप में भुगतान करने का वचन दिया है। अब चूँकि वे हमारे संरक्षण में रहने वाली प्रजा बन चुके हैं, इसलिए हमें उनके जीवन और सम्पत्ति में किसी भी प्रकार का दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। उन्हें अपने धर्म का पालन करने की इजाज़त दी जाए। कोई भी उन्हें बाधित न करे।
बाद में बौद्धों को अपने मन्दिरों और मठों का पुनर्निर्माण करने की अनुमति दे दी गई और उन्हें व्यक्ति कर का भुगतान करते रहने की शर्त पर गैर-मुस्लिम संरक्षित प्रजा का दर्जा दे दिया गया। उमय्यद खलीफ़ाओं ने और फिर बाद के समय में बगदाद से शासन करने वाले अब्बासी खलीफ़ाओं (750-1258 ईसवी) ने और भारत के उत्तरवर्ती मुस्लिम शासकों ने सैद्धान्तिक रूप से इसी नीति को अपनाया, हालाँकि ऐसा नहीं है कि सभी शासकों या सेनापतियों ने हमेशा ही इस नीति का पालन किया हो। फिर भी, इस निर्णय का निहितार्थ यह है कि बौद्ध धर्म को उन मूर्तिपूजक बहुदेववादी धर्मों के समरूप नहीं समझा गया जिनके अनुयायियों को ये विशेष अधिकार नहीं दिए गए थे।
अब आप तर्क दे सकते हैं कि बौद्धों को कानूनी मान्यता दिए जाने का निर्णय धार्मिक कारणों पर कम और राजनैतिक कारणों पर अधिक आधारित था, और इसका स्रोत सूक्ष्म दार्शनिक विश्लेषण से कहीं अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण था। शायद ऐसा था भी। बौद्ध और हिन्दू मन्दिरों के पुनर्निर्माण के बाद अरब शासकों ने इन मन्दिरों में पूजा-उपासना के लिए आने वाले तीर्थयात्रियों से कर वसूलना शुरू कर दिया। लेकिन फिर भी, इस्लामी विद्वानों ने इस “व्यावहारिक” नीति को न तो उस समय इस्लाम के मूलभूत धर्मतत्व-विषयक सिद्धान्त के उल्लंघन या उसके साथ समझौते के रूप में देखा, और न आज ही देखते हैं। बौद्धों को कानूनी मान्यता, राजनैतिक संरक्षण और धार्मिक सहिष्णुता की सुविधा प्रदान किए जाने से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बौद्ध आध्यात्मिक मार्ग और धर्मसंहिता किसी उच्चतर सत्ता अर्थात, सच्ची ईश्वरोक्ति से उद्भूत है।
बौद्धों को ईश्वरप्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायियों का दर्जा दिए जाने का आधार क्या था? क्या यह निर्णय केवल साझी पूजा-पद्धतियों के आधार पर लिया गया? उदाहरण के लिए, आठवीं शताब्दी की शुरुआत में ईरानी इतिहासकार अल-किरमानी ने बल्ख, अफागानिस्तान के नव विहार मठ का विस्तार से वर्णन किया है और इस्लाम धर्म के साथ समानता की दृष्टि से कुछ बौद्ध रीति-रिवाज़ों का ब्यौरा लिखा है। मठ का वर्णन करते हुए उसने लिखा है कि मुख्य मन्दिर के केन्द्र में एक वर्गाकार पत्थर था, जो कपड़े से लिपटा था, श्रद्धालु उसकी परिक्रमा करते थे और साष्टांग प्रणाम करते थे, जैसा कि मक्का स्थित काबा में किया जाता है। लेकिन उसने किसी भी प्रकार की बौद्ध मान्यताओं का वर्णन नहीं किया है।
तो क्या बौद्धों को ईश्वरप्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायी घोषित किए जाने का कोई सैद्धान्तिक आधार है? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि बौद्धों को ईश्वरप्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायियों के रूप में मान्यता दी गई है, तो निहितार्थ में उन्हें ऐसे समुदायों की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है जिनका “उद्धार” किया जा चुका है, इसी भाव को क़ुरान (2:62) के इस छंद में व्यक्त किया गया है:
निस्संदेह ईमानवाले और जो यहूदी हुए और ईसाई और साबिई, जो भी अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाया और अच्छा कर्म किया तो ऐसे लोगों का उनके अपने रब के पास (अच्छा) बदला है, उनको न तो कोई भय होगा और न वे शोकाकुल होंगे।
क़ुरान के अनुसार ईश्वर में विश्वास और निर्णय के अन्तिम दिन में विश्वास और नेक तथा सकारात्मक कृत्य करने में विश्वास ─ यही बौद्ध धर्म और इस्लाम के बीच परस्पर सहमति के आधार को दर्शाता है। विचार एकदम समान भले ही न हों, लेकिन इस्लाम उन्हें कम से कम इतना समान तो मानता है कि उन्हें अविरुद्ध कहा जा सके। जैसा कि क़ुरान (2:137) में उल्लेख आता है:
फिर यदि वे उसी तरह ईमान लाएँ जिस तरह तुम लाए हो, तो उन्होंन मार्ग पा लिया।
और यह दृष्टिकोण स्पष्ट तौर पर समावेशवादी है। बौद्ध भी इस्लाम में सिखाई गई मुक्ति की मंज़िल तक पहुँचेंगे, क्योंकि वे भी उसी प्रकार का दृष्टिकोण रखते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर, ईश्वर द्वारा उद्घाटित धर्म, रोज़े आख़िरत, सत्य की एकात्मता, आदि जैसी अवधारणाओं के दायरे में कौन-कौन सी बातें आती हैं। मुस्लिम और बौद्ध दोनों ही पक्षों की ओर से कुछ ऐसे धार्मिक पदाधिकारी हैं जो इन अवधारणाओं को बड़े कठोर ढंग से परिभाषित करते हैं। लेकिन कुछ ने इन परिभाषाओं में बहुत गुंजाइश भी छोड़ी है।
इस्लाम के प्रति बौद्धों का ऐतिहासिक दृष्टिकोण
इन अवधारणाओं के दायरों की जाँच करने से पहले हम इस्लाम के प्रति बौद्धों के दृष्टिकोण के इतिहास की चर्चा करेंगे। संस्कृत भाषा में लिखा गया कालचक्र तंत्र साहित्य, जिसकी रचना ईसा की दसवीं शताब्दी के अन्तिम और ग्यारहवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में सम्भवतः दक्षिण-पूर्वी अफगानिस्तान और उत्तरी पाकिस्तान के क्षेत्र में की गई एकमात्र ऐसी बौद्ध ग्रंथ परम्परा है जिसमें किसी प्रकार की इस्लामी प्रथाओं या मान्यताओं का थोड़ा बहुत उल्लेख किया गया है। उस समय इस क्षेत्र के बौद्धों के सामने मध्य पाकिस्तान स्थित मुल्तान के शासकों द्वारा आक्रमण किए जाने का खतरा मंडरा रहा था। मुल्तान के शासक इस्लाम के एक उप-सम्प्रदाय इस्माइली शिया के तौर-तरीकों को मानते थे। उधर मुल्तान मिस्र के फ़ातिमी खलीफ़ाओं के साथ मिल कर मुस्लिम जगत पर आधिपत्य जमाने के लिए अरब के अब्बासियों के साथ होड़ कर रहा था। दक्षिण-पूर्वी अफगानिस्तान और उत्तरी पाकिस्तान में रहने वाले बौद्ध और हिन्दू अपने आप को इस दुश्मनी के बीच फँसा हुआ पा रहे थे।
कालचक्र ग्रंथों में सम्भावित आक्रान्ताओं की कुछ मान्यताओं और रीति-रिवाज़ो का उल्लेख मिलता है। इन ग्रंथों में वर्णित कुछ मान्यताएं जैसे पैगम्बरों की सूची, उस समय प्रचलित इस्माइली चिन्तन से विशिष्ट रूप से सम्बंधित हैं; जबकि कुछ मान्यताएं उस चिन्तन का खण्डन करती हैं, जैसे कि मानी धर्म के संस्थापक मानी के नाम को उस सूची में शामिल किया जाना। लेकिन कुल मिलाकर इनमें से ज़्यादातर मान्यताएं इस्लाम की बुनियादी मान्यताएं ही हैं। कुछ मान्यताएं नैतिक आचरण से सम्बंधित हैं और बौद्धों के नैतिक आचरण सम्बंधी विचारों को प्रतिध्वनित करती हैं, हालाँकि इस साहित्य में उन्हें समान परम्पराओं के रूप में नहीं दर्शाया गया है। किन्तु इन बातों को दोनों धर्मों के बीच समानता का आधार माना जा सकता है। उदाहरण के लिए श्रीकालचक्र-तंत्रोत्तरतंत्र हृदय में कहा गया है:
उनकी एक ही जाति है, वे चोरी नहीं करते, और सत्य भाषण करते हैं। वे स्वच्छताप्रिय हैं, परस्त्रीगमन से दूर रहते हैं, तपश्चर्या करते हैं, और अपनी पत्नियों के प्रति निष्ठावान रहते हैं।
अन्यत्र, हमें समावेशवादी दृष्टिकोण के कुछ और उदाहरण वहाँ देखने के लिए मिलते हैं जहाँ कालचक्र ग्रंथ आक्रान्ताओं की मान्यताओं का वर्णन बौद्ध नज़रिए से करते हैं। उदाहरण के लिए लघु कालचक्र तंत्र राज में कहा गया है:
जन्म लेने वाली सभी जंगम या स्थावर वस्तुएं सृष्टिकर्ता द्वारा सृजित हैं। उसे प्रसन्न करने से, जोकि कि तायी लोगों की मुक्ति का कारण है, स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मनुष्यों के लिए रहमान की यही शिक्षा है।
कालचक्र ग्रंथों में आक्रान्ताओं के लिए “तायी” शब्द का प्रयोग अरबी भाषा के शब्द ताज़ी के अर्थ में ईरान पर आक्रमण करने वाले अरब आक्रान्ताओं के लिए किया गया है। “रहमान” अर्थात करुणावान अल्लाह के लिए प्रयुक्त एक विशेषण है।
पुंडरीक ने विमलप्रभा नामक लघु कालचक्र तंत्र राज टीका में इस छंद की व्याख्या करते हुए लिखा है,
जहाँ तक तायी आक्रान्ताओं की मान्यताओं का प्रश्न है, जंगम और स्थावर दोनों ही प्रकार की प्रत्येक परिघटना का सृष्टिकर्ता रहमान है। तायी लोग अर्थात श्वेत वस्त्रधारी आक्रान्ताओं की मुक्ति का कारण रहमान को प्रसन्न करना है, और इससे निश्चित तौर पर मनुष्यों को उच्चतर श्रेणी में पुनर्जन्म (स्वर्ग में) मिलता है। उसे प्रसन्न न करने पर नरक (में पुनर्जन्म) भोगना पड़ता है। यही रहमान की शिक्षा है, तायी लोगों की मान्यता है।
पुंडरीक आगे व्याख्या करते हैं:
मृत्यु के बाद मनुष्य रहमान के निर्णय से उच्चतर पुनर्जन्म (स्वर्ग) में सुख या नरक में दुख भोगते हैं।
यहाँ बौद्ध धर्म और इस्लाम के प्रति बौद्धवादी दृष्टिकोण में समानता मनुष्य के नैतिक आचरण के आधार पर स्वर्ग या नरक में पुनर्जन्म की दृष्टि से है। इन अंशों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि कालचक्र ग्रंथों में न तो सृष्टिकर्ता के बारे में और न ही इस आधार पर सृष्टिकर्ता की भूमिका के दावों के बारे में टिप्पणी की है कि सृष्टिकर्ता इस आधार पर मनुष्य के परवर्ती जीवन के बारे में निर्णय करता है कि उस मनुष्य ने सृष्टिकर्ता को प्रसन्न किया है या नहीं। किन्तु इस आखिरी बिन्दु पर, कि अल्लाह इस आधार पर निर्णय करता है कि किसी ने उसे प्रसन्न किया है या नहीं, बौद्धवादी दृष्टिकोण की प्रस्तुति उचित नहीं है। हदीस (हज़रत मुहम्मद के निजी कथन) के अनुसार अल्लाह ने कहा,
मेरे बन्दो, मैं तो तुम्हारे कर्मों को परखता हूँ और फिर उसके आधार पर फल देता हूँ।
जो भी हो, कालचक्र ग्रंथ केवल परवर्ती जीवन के स्वरूप और परवर्ती जीवन पर मनुष्य के इस जीवन के सामान्य कर्मों के प्रभाव की ही बात करते हैं। परवर्ती जीवन के विषय को इस दृष्टि से प्रस्तुत करते हुए कालचक्र ग्रंथ एक समावेशवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए आक्रान्ताओं के अनन्त पुनर्जन्मों के दावे को एक गलत दृष्टिकोण बताते हैं जिसे बौद्ध धर्म में कहीं अधिक सटीकता से समझाया गया है। लघु कालचक्र तंत्र राज (II.174) कहता है:
(अनन्त) परवर्ती जीवन से गुज़रते हुए मनुष्य संसार में अपने पुराने कर्मों (के परिणामों) को भोगता है। यदि ऐसा होता, तो एक जन्म से दूसरे जन्म तक मनुष्य के कर्मों का हिसाब कभी खत्म न होता। संसार से कभी मुक्ति सम्भव न होती और अनन्त अस्तित्व की दृष्टि से भी कभी मुक्ति न होती। निःसंदेह यह दृष्टिकोण तायी लोगों में पाया जाता है, हालाँकि दूसरे समुदाय इसका खण्डन करते हैं।
यदि हम अनन्त नरकदण्ड को व्यापक बौद्ध संदर्भ में देखें तो बौद्ध तथा मुस्लिम दृष्टिकोणों के बीच समानता का दायरा थोड़ा और बढ़ जाता है। दायरे का यह विस्तार इसलिए होता है क्योंकि आप पुनर्जन्म और मुक्ति के बारे में मुस्लिम दृष्टिकोण को बौद्ध दृष्टिकोण की ओर बढ़ते कदम के रूप में देख सकते हैं। बौद्धवादी दृष्टि से आप कह सकते हैं कि इस्लाम केवल दुखों से या निम्नतर पुनर्जन्म की अवस्थाओं से मुक्ति की बात करता है। यह मुक्ति एक उच्चतर स्वर्ग में पुनर्जन्म है। लेकिन लाम-रिम के क्रमिक स्तरों वाले मार्ग में यह तो केवल प्रारम्भिक प्रेरणा मात्र है। इसके आगे बौद्ध धर्म पुनर्जन्म के सर्वव्यापी दुख से मुक्ति, जो कि मध्यक्रम की प्रेरणा का लक्ष्य होता है, की बात करता है। इस चर्चा के आलोक में इस्लाम का अनुसरण बौद्ध धर्म के अनुसरण का प्रारम्भिक कदम बन जाता है।
किन्तु आप अनन्त दुख के मुस्लिम दावे को एक ऐसे अलग नज़रिए से देख सकते हैं कि वह बौद्ध दृष्टिकोण से इतना भिन्न भी न लगे। कालचक्र ग्रंथों में नरक की अवधारणा के प्रति आपत्ति यह है कि एक बार नरक की आग में गिरने के बाद यह यातना अनन्त है और उससे मनुष्य की मुक्ति सम्भव नहीं है। लेकिन यदि बौद्ध मत के संसार सम्बंधी विवरणों को देखें, तो मनुष्य इससे उसी प्रकार निकलना चाहता है जैसे कोई जलती हुई इमारत से बाहर निकलना चाहता है। इसके अलावा सांसारिक पुनर्जन्म का सिलसिला अनन्तकाल तक तब तक चलता रहेगा जब तक कि मनुष्य इससे मुक्ति का कोई उपाय न करे, अर्थात धर्म की ओर प्रवृत्त न हो।
उन्नीसवीं शताब्दी के निंग्मा आचार्य मिपाम ने अपने ग्रंथ वज्र सन का प्रदीपन, श्रीकालचक्र तंत्र का अर्थनिर्वचन : अध्याय (पाँच), गहन चेतनता पर टीका में कालचक्र तंत्र साहित्य से भी अधिक समावेशवादी दृष्टिकोण अपनाया है। मिपाम ने इस बात का संकेत देते हुए, कि बुद्ध ने कुशल साधनों की सहायता से मुसलमानों को प्रबोधन की राह दिखाने की शिक्षा दी थी, लिखा है,
गैर-भारतीय आक्रान्ताओं के दो (दार्शनिक) दृष्टिकोण हैं। वे मानते हैं कि परिघटनाएं अणुओं के समूहों के रूप में घटित होती हैं, और वे व्यक्ति के ऐसे सत्व को मानते हैं जो अस्थायी तौर पर जन्म लेता है या उसकी अवस्था संसार में जन्म लेती है। मनुष्य का लक्ष्य देवताओं के समान सुख हासिल करना है। इसके अलावा वे किसी अन्य प्रकार के निर्वाण पर बल नहीं देते हैं।
मिपाम आगे कहते हैं कि आक्रान्ताओं का पदार्थ का अणुओं के रूप में विद्यमान होने सम्बंधी दावा बौद्ध मान्यताओं के अनुरूप है। वे बताते हैं कि हीनयान बौद्ध धर्म के वैभाषिक और सौत्रान्तिक निकाय अविभाज्य अखण्ड अणुओं की बात करते हैं; जबकि महायान बौद्ध धर्म के चित्तमात्र और माध्यमिक निकाय अगणनीय खण्डों में विभाज्य अणुओं के बारे में दावा करते हैं।
सत्व या आत्मा के विषय में मिपाम आगे कहते हैं,
उनकी प्रवृत्ति और विचारों को समझते हुए बुद्ध ने उन्हें (आक्रान्ताओं को) उन सूत्रों के बारे में शिक्षा दी जिन्हें वे स्वीकार कर सकते थे। उदाहरण के लिए, उत्तरदायित्व स्वीकार करने सम्बंधी सूत्र में बुद्ध ने कहा कि (अपने कर्मों के) उत्तरदायित्व को स्वीकार करने वाले मनुष्य होते हैं, किन्तु उन्होंने व्यक्ति की आत्मा के स्थायी या अस्थायी होने के विषय में कुछ नहीं कहा। प्रकट रूप से ये बातें उनके (आक्रान्ताओं) के दावों की दृष्टि से सही थीं। बुद्ध की बातों का लक्ष्यार्थ यह है कि मनुष्यों का अस्तित्व किसी सत्व के सातत्य के रूप में होता है जो कर्म के उत्तरदायित्व को ग्रहण करता है, किन्तु यह अस्तित्व केवल सातत्य के अध्यारोपित अर्थ में होता है, जिसकी प्रकृति न तो स्थायी होती है और न ही अस्थायी होती है।
स्पप्न की अवस्था में, जो चित्त के स्वभाव मात्र से उद्भूत होती है, आनन्द या दुख का अनुभव करने वाले मूर्तरूप व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं होता है। चूँकि यह केवल प्रकटन मात्र होता है, इसलिए ऐसी स्थिति में (व्यक्ति का) अस्थायित्व किसी अस्थायी वस्तु की प्रकृति जैसा भी नहीं होता है। जाँच किए जाने पर वह (स्वाभाविक तौर पर) एक वस्तुमात्र होता है जिसमें स्थायी अथवा अस्थायी होने का कोई अन्तर्वेशन नहीं होता है, ऐसा ही सिखाया जाता है। तथागत की शिक्षाओं से प्रभावित हो कर (आक्रान्ताओं ने) अपने धर्म का त्याग कर दिया और बाद में वे बौद्ध मत के अनुयायी बन कर वैभाषिक हो गए।
यहाँ समावेशवादी दृष्टिकोण यह है कि बुद्ध ने शिक्षाएं इस प्रकार दीं जो आक्रान्ताओं की मान्यताओं के अनुरूप हों, और अपने इस कौशल से उन्होंने आक्रान्ताओं को मुक्ति का मार्ग दिखाया। अन्यथा मुसलमान इसे आपत्तिजनक मानते और इस दृष्टिकोण से धार्मिक सौहार्द की स्थापना सम्भव नहीं हो पाती।
बौद्धों को ईश्वरप्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायी समझे जाने के आधार पर समानताएं
सहमति के कुछ और आधारों की तलाश में अब हम एक बार फिर इस्लाम द्वारा बौद्धों को ईश्वरप्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायियों का दर्जा दिए जाने के निहितार्थों के बारे में चर्चा करेंगे। जैसा कि हमने पूर्व में देखा, इस कथन से उद्भूत सहमति का आधार यह है कि बौद्ध धर्म एक ऐसा धर्म है जिसे किसी उच्चतर सत्ता, अर्थात ईश्वर द्वारा उद्घाटित किया गया है। इससे स्वाभाविक तौर पर उद्घाटन के स्रोत के रूप में ईश्वर और उस उद्घाटित ज्ञान को प्राप्त करने वाले व्यक्ति के बारे में प्रश्न उठता है जिसने बाद में उस ज्ञान को दुनिया में बाँटा।
ईश्वरोक्ति या इलहाम के इस प्रश्न के बारे में बौद्ध और मुसलमान, दोनों ही समावेशवादी दृष्टि अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, कालचक्र टीका निर्मल प्रकाश (विमलप्रभा) में स्पष्ट किया गया है,
जहाँ तक आक्रान्ताओं का प्रश्न है, पैगम्बर मुहम्मद रहमान का अवतार थे। वे आक्रान्ता तायी लोगों के गुरु और हाकिम थे।
हिन्दू धर्म में किसी देवता की आत्मा के किसी अन्य रूप में देह-धारण को अवतार कहा जाता है। अतः मुहम्मद का रहमान के अवतार के रूप में आना कृष्ण का विष्णु के अवतार के रूप में आने के सदृश है। बौद्ध दृष्टिकोण के अनुसार यह सादृश्य इस कथन के समतुल्य होगा कि पैगम्बर मुहम्मद अल्लाह के निर्माणकाय उद्भूत रूप हैं।
वहीं दूसरी ओर प्रश्न उठता है कि क्या बुद्ध को अल्लाह के पैगम्बर या संदेशवाहक के रूप में देखा जा सकता है? फ़ारसी इतिहासकार अल-बरूनी ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में महमूद गज़नी के भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण के समय गज़नी के साथ आया था। वहाँ पहुँच कर अल-बरूनी ने अपने अनुभवों को किताब अल-हिन्द नाम की अपनी पुस्तक में लिखा है। इस पुस्तक में उसने बौद्धों के बुनियादी रीति-रिवाज़ों और मान्यताओं का वर्णन करते हुए लिखा है कि भारत के लोग बुद्ध को पैगम्बर मानते थे। इसका निश्चित तौर पर यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता है कि अल-बरूनी का कहने का तात्पर्य यह था कि मुसलमान बुद्ध को पैगम्बर या अल्लाह के दूत के रूप में स्वीकार कर लें। तथापि, क़ुरान (4:163-164) में कहा गया है:
हमने तुम्हारी ओर उसी प्रकार वह्य की है जिस प्रकार नूह और उसके बाद के नबियों की ओर वह्य की। और हमने इबराहीम, इसमाईल, इसहाक और याक़ूब और उसकी संतान और ईसा और अय्यूब और यूनुस और हारून और सुलैमान की ओर भी वह्य की। और हमने दाऊद को ज़बूर प्रदान किया। और कितने ही रसूल हुए जिनका वृत्तान्त पहले हम तुमसे बयान कर चुके हैं और कितने ही ऐसे रसूल हुए जिनका वृत्तान्त हमने तुमसे नहीं बयान किया।
बुद्ध को उन संदेशवाहकों में शुमार किया जा सकता है जिनका स्पष्ट तौर पर उल्लेख नहीं किया गया है।
उदाहरण के लिए, किसी बुद्ध के बारह शिक्षाप्रद कौतुकों की प्रस्तुति के अनुसार बुद्ध जन अलग-अलग समयों पर आते हैं, तब जब जीव उन्हें स्वीकार करने के लिए परिपक्व होते हैं, और अलग-अलग युगों में ऐसे विभिन्न प्रकार के तरीकों से शिक्षा देते हैं जो उस युग के जीवों के लिए अनुरूप हों। हालाँकि इस महाकल्प में हज़ारों निर्माणकाय बुद्ध हुए हैं, जहाँ अगले उस महाकल्प के आने से पूर्व जिसमें ये निर्माणकाय बुद्ध प्रकट होंगे, ऐसे अनेक निर्माणकाय श्रेष्ठ पुरुषों के रूप में मौजूद हैं जिनका आविर्भाव उस युग में होता है जब ऐसे प्रत्येक निर्माणकाय बुद्ध की शिक्षाएं प्रचलित होती हैं। इन दोनों की प्रकार के निर्माणकायों को “धर्म के संदेशवाहक” कहा जा सकता है। साथ ही, प्रत्येक बुद्ध धर्म की शिक्षा देने के लिए कुशल साधनों का प्रयोग करता है। कुरान (14:4) में कहा गया है:
हमने जो रसूल भी भेजा, उसकी अपनी क़ौम की भाषा के साथ ही भेजा, ताकि वह उनके लिए अच्छी तरह खोलकर बयान कर दे।
यहाँ हमें सावधानी बरतने की आवश्यकता है। हालाँकि इस्लाम बुद्ध को ईश्वर के संदेशवाहक के रूप में स्वीकार कर सकता है; लेकिन मुसलमानों, साथ ही साथ ईसाइयों और यहूदियों को इस बात पर बहुत आपत्ति होगी यदि उन्हें कहा जाए कि मुहम्मद, ईसा मसीह, अब्राहम और डेविड निर्माणकाय बुद्ध थे या अल्लाह के अवतार थे। धर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए समावेशवादी दृष्टिकोण की यह एक बड़ी कमी है। किन्तु बौद्धों के इस दावे को किस प्रकार से समझा जाए कि मंजुश्री द्वारा नागों को सौंपी गईं और नागों द्वारा समुद्र के नीचे छिपाई गई प्रज्ञापारमिताओं को नागार्जुन ने उद्घाटित किया था। या यह दावा कि असंग को प्रेम, करुणा, और बोधिचित्त की शिक्षाएं मैत्रेय से तुषित के स्वर्ग में प्राप्त हुई थीं? निंग्मा परम्परा की निर्मल दृष्टि और उद्घाटित ग्रंथ शिक्षाओं को हम किस प्रकार समझेंगे? क्या ये बौद्ध कथन ईश्वरीय ज्ञान को उद्घाटित करने वाले पैगम्बरों के मुस्लिम दावों से इतने भिन्न हैं?
जहाँ तक ईश्वर की बात है, बौद्ध धर्म केवल इस बात का खण्डन करता है कि कोई सृष्टिकर्ता है जो किसी भी बात से प्रभावित हुए बिना, यहाँ तक कि सृजन करने की इच्छा से भी प्रभावित हुए बिना सृष्टि की रचना करता है।
इसमें ईश्वर के दूसरे गुणों का खण्डन नहीं किया जाता है, यहाँ तक कि सृजनशीलता का भी नहीं। उदाहरण के लिए, अनुत्तरयोग तंत्र में स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति का निर्मल प्रकाश चित्त ही व्यक्ति द्वारा अनुभव किए जाने वाले समस्त प्रकटनों का सृष्टिकर्ता है, और यह उस व्यक्ति के अपने कर्म और सामूहिक कर्म दोनों के ही द्वारा प्रभावित होता है। इसके अलावा, गहनतम सत्य, निर्मल प्रकाश चित्त अल्लाह की ही भांति शब्दों और अवधारणाओं से परे है। क़ुरान में घोषणा की गई है:
महान और उच्च है अल्लाह, उन बातों से जो ये बयान करते हैं।
तथापि, अल्लाह के निन्यानवे नाम हैं, और ये नाम अल्लाह के तात्विक गुणों का बखान करते हैं। इसी प्रकार मंजुश्री नाम संगीति में मंजुश्री का उल्लेख निर्मल प्रकाश चित्त की मौलिक अवस्था के लिए किया जाता है, और इस कालचक्र ग्रंथ के छंद उसके गुणों की व्याख्या करते हैं।
अल्लाह की ही भांति निर्मल प्रकाश चित्त मंजुश्री
(58) आदिम हैं, सर्वोच्च हैं, अनादि हैं।
(100) वे अनादि और अनन्त हैं।
(97) अप्रकट हैं, जो प्रत्यक्ष नहीं होते, उनका कोई संकेत दृष्टिगोचर नहीं होता है।
इसके अलावा, अल्लाह एक है, और इसी प्रकार निर्मल प्रकाश चित्त मंजुश्री
(47) अद्वय, अद्वैत के वक्ता हैं।
अल-हक़, अर्थात जो वास्तविक है, जो सच्चा है, जो उचित है, नैतिक दृष्टि से भी, अल्लाह का मौलिक गुण है। इसकी धर्मता─ गहनतम सत्य, गहनतम चेतनायुक्त धर्मकाय के साथ अवधारणात्मक समानता है। निर्मल चित्त प्रकाश मंजुश्री
(55-56) पवित्र धर्म हैं, धर्म के शासक हैं... वास्तविकता के कान्तिवान अविनाशी स्वर्ग हैं।
(47) वे पूर्णतया वास्तविक हैं, अभिज्ञान का अभाव स्वरूप, वास्तविक अवस्था हैं।
(157) वे गहनतम सत्य की शुद्धता और वैभव हैं।
अल्लाह को सदैव अल-रहमान, अर्थात करुणामय, और अल-रहीम, अर्थात दयालु के रूप में सम्बोधित किया जाता है ─ करुणामय इसलिए कि वे करुणावश सृजन करते हैं, और दयालु इसलिए कि वे दुखों से रक्षा करते हैं। जोग्चेन में रिग्पा का उल्लेख प्रकटनों को उत्पन्न करने वाली निर्मल चेतनता को “करुणा” कहा जाता है। इसके अलावा, निर्मल चित्त प्रकाश मंजुश्री
(38) बृहत प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं, वे महान करुणा के प्रथम चित्त हैं।
(88) वे सभी परिमित जीवों के लक्ष्यों की प्राप्ति का साधन हैं। वे उपकारी हैं, परिमित जीवों के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाले हैं।
अल्लाह की ही भांति निर्मल प्रकाश चित्त मंजुश्री
(152) अर्पण के योग्य हैं, श्रेष्ठ हैं, साष्टांग प्रणाम के अधिकारी हैं... पूज्य हैं, वन्दनीय हैं, श्रद्धा के अधिकारी हैं।
आधारभूत समान नैतिक सिद्धान्तों के अलावा अल्लाह के ये सभी गुण, निर्मल चित्त प्रकाश, सत्य का प्रकटन, करुणा, आदि बौद्ध धर्म और इस्लाम के बीच सहमति के आधारों को दर्शाते हैं। इस्लाम में ज़िक्र का सस्वर-पाठ और बौद्ध धर्म में मंत्रों का उच्चार, दान देने पर बल दिया जाना, अध्ययन, ईमानदार आजीविका, आदि और भी बहुत सी विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है। यदि हम इन सभी समानताओं को सम्मानजनक बहुलतावादी दृष्टिकोण से देखें और आलोचनात्मक रवैया न अपनाएं तथा एक दूसरे के धर्म की शिक्षाओं को अपने धर्म की शिक्षाओं का बदला हुआ रूपमात्र न समझें, तो हम धार्मिक सौहार्द के लिए एक मज़बूत आधार तैयार कर सकते हैं।