सामान्य अभिमत
बौद्ध धर्म सृष्टिकर्ता अथवा सृष्टि का दावा नहीं करता | सभी सचेतन प्राणियों के मानसिक सातत्य अनादि हैं | "सचेतन प्राणी" वे प्राणी हैं जो सप्रयोजन कार्य करते हैं और उसके परिणामस्वरूप सुख अथवा दुःख अनुभव करते हैं | यद्यपि इस्लाम में आत्मा की भाँति सचेतन प्राणियों का सातत्य अनंत है; परन्तु, इस्लाम के विपरीत, वे सदैव एक ही योनि में नहीं रहते | वस्तुतः उनकी किसी विशिष्ट योनि के रूप में अन्तर्जात अस्मिता नहीं होती | अपने पूर्व बाध्यकारी (कार्मिक) कृत्यों के प्रभाव में प्रत्येक मानसिक सातत्य, राक्षस, प्रेत, पशु, मनुष्य, अर्ध-दैवी जीव, अथवा दैवी जीव के शरीर और चित्त के साथ बार बार जन्म धारण करता है |
बौद्ध धर्म में न कोई न्यायकर्ता है, और न ही कोई निर्णय का दिन, न समय का अंत है और न ही कोई शाश्वत स्वर्ग अथवा नरक | अपितु, स्वार्थ पर विजय पाने का पथ अनेक पुनर्जन्मों तक विस्तृत है, और यह उपर्युक्त जीवाकारों में से किसी भी योनि में संभव है |
जब हम स्वार्थ पर विजय प्राप्त कर कर लेते हैं, तो हम अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म (संस्कृत: संसार) पर विजय पाकर मुक्ति पा लेते हैं जो स्वर्ग या बहिश्त में पुनर्जन्म नहीं माना जाता | विमुक्ति के बाद हम और अधिक प्रगति करके ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध भी बन सकते हैं | बुद्ध एक सर्वशक्तिमान स्रष्टा नहीं है अपितु एक सर्व-प्रेमी, सर्वज्ञ गुरु हैं जिन्हें इसका सम्पूर्ण ज्ञान है कि दूसरों को मुक्ति दिलवाने में किस प्रकार उनकी सहायता करनी है | केवल एक नहीं कई बुद्धजन हैं |
जैसे स्वर्ग और नरक हैं, उसी प्रकार बौद्ध धर्म में विमुक्ति और ज्ञानोदय शाश्वत अवस्थाएँ हैं | जैसा स्वर्ग में होता है, एक मुक्ति अथवा ज्ञानोदय प्राप्त जीव के रूप में हम शाश्वत सुख अनुभव करते हैं, यद्यपि विमुक्त जीव गहन साधनावस्था में डूबे हुए कभी-कभार एक स्थितप्रज्ञ भाव अनुभव करते हैं |
इस मुस्लिम अभिमत के समानांतर कि सभी मनुष्य स्वार्थ पर विजय पाकर स्वर्ग प्राप्त कर सकते हैं, बौद्ध धर्म का अभिमत है कि सभी सचेतन प्राणी भी, चाहे उनकी वर्तमान योनि कुछ भी हो, अपने स्वार्थ पर विजय पाकर मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्त कर सकते हैं | परन्तु, बौद्ध धर्म का अभिमत यह नहीं है कि जो अपने वर्तमान मनुष्य जीवनकाल में इस कार्य में उत्तीर्ण नहीं होते, वे सदा के लिए नरक जाएँगे | यदि अपने स्वार्थी, विनाशकारी कृत्यों के परिणामस्वरूप ऐसे जीव नरक लोक में पुनर्जन्म प्राप्त कर भी लेते हैं, तब भी अंततः इस नारकीय पुनर्जन्म का अंत होगा | आवर्ती पुनर्जन्मों के द्वारा वे मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति की दिशा में चेष्टा कर सकते हैं |
बौद्ध धर्म के अनुसार, हम किसी भी समय अपने पूर्व विनाशकारी व्यवहार पर पछतावा कर सकते हैं; और, जैसा इस्लाम में भी है, इस पछतावे में अपने नकारात्मक कार्य को न दोहराने का तथा उसके प्रभावों का सकारात्मक कार्यों से प्रतिकार करने का वचन है | परन्तु, इस्लाम के विपरीत, बुद्ध द्वारा दी गई क्षमा में भी शोधन प्रक्रिया सम्मिलित नहीं है | ऐसा इसलिए है क्योंकि सदाचार उच्चतर शक्ति की अधीनता पर आधारित नहीं है और बुद्ध वह न्यायकर्ता नहीं है जो पुरस्कृत अथवा दण्डित करें |
अनभिज्ञता स्वार्थ का कारण
बौद्ध धर्म स्वमेव आत्मा का दावा नहीं करता, अपितु यह कहता है कि आत्म (जिसे परम्परागत रूप से "मैं" के नाम से जाना जाता है ) मात्र शरीर एवं मन के चिर परिवर्तनशील क्षणों का व्यक्तिगत मानसिक सातत्य पर प्रतिरोपित दृश्य-प्रपंच (तिब्बती: बटगस-पा ) है | यह प्रतिरोपित दृश्य-प्रपंच न ही कोई स्थूल गोचर वस्तु है, और न ही किसी वस्तु के प्रति सचेतन होने का तरीका (तिब्बती: ईदन-मिन 'दू-ब्यद ), तथा उसे अपने प्रतिरोपित दृश्य-प्रपंच के आधार से अलग भी नहीं किया जा सकता (तिब्बती: गडगस-गज़्ही ) | एक जीवनकाल में शरीर और चित्त की व्यक्तिगत निरंतरता पर आधारित प्रतिरोपित दृश्य-प्रपंच के भाव आयु का एक उदाहरण हैं | परन्तु आत्म एक ऐसा प्रतिरोपित दृश्य-प्रपंच है जो मुक्ति अथवा ज्ञान प्राप्ति के बाद भी इस निरंतरता पर स्थित है | जैसा इस्लाम में आत्मा (रूह) के साथ देखा जाता है, एक व्यक्ति अथवा "स्वत्व" अनेक कारणों और परिस्थितियों से प्रभावित होता है, उसके कई अंश हैं, और उसका शरीर एवं चित्त से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है |
यह ध्यान रखने की बात है कि इस्लाम में रूह तथा बौद्ध धर्म में आत्म अधिकतर ग़ैर-बौद्ध भारतीय परम्पराओं में मान्य आत्मा (संस्कृत: आत्मन ) से भिन्न है | आत्मन एक अचर, निरंजन, अखंड इकाई है और,अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से मुक्त होने के बाद, शरीर और चित्त से स्वतंत्र अस्तित्वमान रहती है |
सभी नकारात्मक मनोभाव एवं विनाशकारी व्यवहार, व्यावहारिक कार्य-कारण के विषय में अनभिज्ञता (संस्कृत: अविद्या, तिब्बती: मा-रिग-पा, अज्ञानता ) से तथा, अधिक गहन स्तर पर, आत्म के अस्तित्व के विषय में अज्ञानता से जन्म लेते हैं | हमारा ज्ञान या तो नहीं है या फिर अशुद्ध है | इस्लाम के अनुसार ख़ुदा के प्रति हमारी अन्तर्जात प्रवृत्ति की विस्मृति वह कारण है जो हमारे चित्त पर काले धब्बों का पर्दा डालता है; जबकि बौद्ध धर्म में कारण और प्रभाव तथा आत्म के अस्तित्व जैसे विषयों-सम्बन्धी अनभिज्ञता के कारण चित्त पर पर्दा पड़ा रहता है | परन्तु यह अनभिज्ञता इन विषयों की विस्मृति नहीं है | ऐसा नहीं है कि जन्म के समय सबका चित्त निर्मल होता है और वे इन तथ्यों के प्रति सजग होते हैं, परन्तु अवज्ञा के कारण बाद में उन्हें भूल जाते हैं | सचेतन प्राणी कभी भी अपने तथा कारण और प्रभाव की सत्यता के प्रति अन्तर्जात रूप से सचेत नहीं थे, तथा यह अनभिज्ञता अनादि है |
बौद्ध धर्म में विस्मृति को एकाग्रता के अवरोधों में से प्रमुख रूप से एक माना गया है | पहले यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि कारण और प्रभाव किस प्रकार कार्य करते हैं, और आत्म किस प्रकार अस्तित्वमान रहता है | फिर जब हम एकाग्रता और समझ सहित यथार्थ के इन दो मूलभूत तथ्यों में से एक पर ध्यान-साधना के माध्यम से ध्यान केंद्रित करने लगते हैं, तो विस्मृति रूपी बाधा के कारण हम अपने ध्यान के विषय को खो बैठते हैं |
हम विस्मृति को पराजित करने के लिए स्मृति (संस्कृत: स्मृति, तिब्बत्ती: द्रान-पा ) का उपयोग करते हैं, जिस शब्दावली का अर्थ "स्मरण" भी है, परन्तु इस सन्दर्भ में उसका संकेत उस मानसिक तत्त्व की ओर है जो मन को किसी वस्तु पर केंद्रित करने के लिए एक मानसिक "गोंद" के रूप में काम करता है |
मन्त्रों के रूप में उच्चरित अक्षरों और शब्दों द्वारा चित्त का सचेतन भाव, जैसे प्रेम, स्थिर रखा जाता है | संस्कृत में "मन्त्र" का शाब्दिक अर्थ है "चित्त की रक्षा" | अतः बौद्ध धर्म में मन्त्रों के उच्चारण से, जैसे सूफ़ी मत में दिकिर का दोहराना, ध्यान की वस्तु को याद रखने में सहायता मिलती है |
जब हम अपने तथा दूसरों के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ होते हैं, तो हम कल्पना करते हैं और मानते हैं कि हम असंभव रूप से अस्तित्वमान हैं | इसमें वे लोग भी सम्मिलित हैं जो, उदाहरण के लिए, सदा सही हैं, अन्य लोगों से अधिक माननीय हैं, तथा परिस्थितियों की चिंता किए बिना जिन्हें सदा अपनी बात मनवानी होती है | इस तथाकथित अनुपस्थित "मिथ्या आत्म" के कारण हम स्वकेन्द्रित तथा स्वार्थी बन जाते हैं | यह स्वार्थ न केवल नकारात्मक मनोभावों और विनाशकारी व्यवहार को जन्म देता है, अपितु स्वार्थी प्रवृत्ति सकारात्मक मनोभावों और रचनात्मक व्यवहार को भी दूषित कर सकती है | उदाहरणार्थ, संभव है सदैव "अच्छा" बनने, "पूर्णतः दोष-मुक्त" होने के प्रयत्न में हम अहंकारी, आत्मपोषणकारी रूप से पाखंडी एवं कठोर बन जाएँ | जैसे इस्लाम में ख़ुदा के प्रति पूर्ण शरणागति होती है, हमें स्वार्थ को जड़ से निकाल देना होगा; अन्यथा हम शुद्ध रूप से नैतिक जीवन नहीं जी पाएँगे | हमें अनभिज्ञता के पर्दे पूरी तरह हटा देने चाहिए |
बौद्ध धर्म में ऐसा नहीं माना जाता कि अनभिज्ञता एक अन्तर्जात हीन आत्मा अथवा आत्म है जिस पर विजय प्राप्त करके स्वार्थ का परिहार करने हेतु उसके प्रभाव का दमन करना हो | यथार्थ की सही समझ द्वारा अनभिज्ञता को निर्मूल करने की आवश्यकता है | जहाँ तक लोगों के यथार्थ का प्रश्न है, सच्चाई यह है कि, जिन असंभव रूपों में हम कल्पना करते हैं, उनमें हम तथा अन्य अस्तित्वमान नहीं हैं | यथार्थ में इस मिथ्या अस्तित्व की पूर्ण अनुपस्थिति को - जो वास्तव में किसी से भी मेल नहीं खाता - "शून्यता" कहते हैं (संस्कृत: शून्यता, तिब्बती: स्टॉन्ग-पा-न्यीद, खालीपन ), जो एक निषेध है जिसका अर्थ लगभग है "ऐसा कुछ नहीं है" | इस मिथ्या अस्तित्व जैसा कुछ नहीं है | वास्तविक आत्म मिथ्या आत्म के समान अस्तित्वमान नहीं होता |
सत्यबोध पर आधारित नैतिक आचार
आत्म के यथार्थ अथवा शून्यता की सही समझ के लिए यह आवश्यक है कि हम अनभिज्ञता के आवरण को बेधने के लिए सकारात्मक बल की वृद्धि करें | एक नैतिक जीवन जीकर हम इस सकारात्मक बल की वृद्धि कर सकते हैं | एक नैतिक जीवन जीने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यावहारिक कारण और प्रभाव के प्रति अनभिज्ञता दूर करें | अतः, आत्म के यथार्थ के प्रति अनभिज्ञता दूर करने से पहले कारण और प्रभाव के प्रति अनभिज्ञता को दूर करने की आवश्यकता है |
बुद्ध ने कर्म की शिक्षाओं द्वारा व्यावहारिक कारण और प्रभाव के सिद्धांत सिखाए | "कर्म" से अभिप्राय है वह बाध्यकारी प्रेरणा जो हमें अज्ञान के प्रभाव में कार्य करने के लिए उकसाती है | हमारे व्यवहार का क्या परिणाम होगा, इसका हमें ज्ञान नहीं है अथवा अशुद्ध ज्ञान है | और, एक गहनतम स्तर पर, हम यह नहीं जानते अथवा अशुद्ध रूप से जानते हैं कि हम तथा अन्य लोग किस प्रकार विद्यमान हैं | अतः इस गहनतर स्तर की अनभिज्ञता के कारण, असुरक्षा के प्रभाव से, हम बाध्य होकर कार्य करते हैं, बोलते तथा सोचते हैं जो एक मिथ्या आत्म को सुरक्षित करने का निरर्थक प्रयास है |
कर्म की शिक्षाओं को अभिधर्म के ग्रंथों में प्रस्तुत किया गया है, जिसका अर्थ है विशिष्ट विषय | बुद्ध ने बतलाया कि किस प्रकार का कर्म, वाचन, तथा चिंतन विनाशकारी है, तथा दुःख एवं कष्ट को जन्म देता है, और किस प्रकार का रचनात्मक है, तथा सुख को जन्म देता है | बुद्ध ने कर्म, वाचन,और चिंतन के कुछ प्रकारों को रचनात्मक अथवा विनाशकारी इंगित नहीं किया | यद्यपि नैतिक रूप से उदासीन होने पर भी इनमें से अधिकतर मुक्ति में बाधा नहीं डालते (जैसे भक्षण और शयन), तथापि कुछ उसे बाधित करते हैं (जैसे अवधारणापरक चिंतन) और अंततः इन्हें निष्फल करना ही चाहिए |
भिक्षुओं और भिक्षुणियों के मठीय समुदाय के लिए बुद्ध ने अनुशासन के नियम बतलाए जिन्हें विनय ग्रंथों में संहिताबद्ध किया गया | ब्रह्मचर्यव्रत सामुदायिक जीवन के अनुभव के आधार पर जब समुदाय में अथवा उसके आसपास के गृहस्थ समाज में समस्याएँ उत्पन्न हुईं, तो बुद्ध ने आवृत्ति से बचने के लिए ने नए नियम जारी किए | उदाहरणार्थ, एक भिक्षु किसी स्त्री के साथ अकेले एक कमरे में नहीं रह सकता | परन्तु, ये विधि-निषेध सामान्यतः समाज पर लागू नहीं होते | अतः कुछ विनाशकारी कृत्य स्वाभाविक रूप से विनाशकारी हैं ( जैसे हत्या या चोरी), जबकि कुछ अन्य समुदाय के लोगों के लिए कुछ अन्य निषिद्ध हैं, भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों जैसे लोगों के लिए ये निषिद्ध हैं, क्योंकि ये उनके आध्यात्मिक मार्ग अथवा मठीय समुदाय के कल्याण के लिए हानिकारक हैं | गृहस्थ लोगों के लिए भी, बुद्ध और परवर्ती बौद्ध गुरुओं ने कुछ कृत्यों को प्रोत्साहित किया (जैसे खान-पान तथा निद्रा में सादगी) और अन्यों के लिए निरुत्साहित किया (जैसे सांसारिक कर्मों में आवश्यकता से अधिक समय व्यतीत करना) जिनसे एकाग्रचित साधना में बाधा उत्पन्न हो |
यद्यपि भिक्षु और भिक्षुणियाँ अनुशासन के विनय नियमों का उल्लंघन न करने की प्रतिज्ञा करते हैं, और साधकों तथा गृहस्थों को अभिधर्म ग्रन्थों में बतलाए गए विनाशकारी व्यवहार से बचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, विनय तथा अभिधर्म ग्रंथों में से किसी को भी उस प्रकार "पवित्र" नहीं माना जाता जिस प्रकार मुस्लिम क़ुरान और शरिया को मानते हैं | बौद्ध ग्रन्थ वे निदेशक सिद्धांत हैं जिनका अध्ययन और अनुसरण इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि हम तार्किक रूप से मानते हैं कि वे तर्क-संगत एवं सार्थक हैं | इन दिशानिर्देशों का शरणागति और आज्ञाकारिता के कृत्यों के रूप में अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता | तथापि, चाहे हम विनय और अभिधर्म परम्पराओं का पालन करें अथवा शरिया का, ऐसा करने से हम सुखी जीवन और समरस समाज पा सकते हैं |
परन्तु, बौद्ध धर्म सिखाता है कि एक नैतिक जीवन भी स्वार्थ से कलुषित हो सकता है | नैतिक मूल्यों की स्वार्थपूर्ण साधना से हम मनुष्य योनि अथवा दैवी स्वर्गलोक में उच्चतर पुनर्जन्म प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु, ऐसे पुनर्जन्मों का सुख मात्र अस्थायी और सीमित होता है |जब तक हम इससे अनभिज्ञ हैं कि आत्म अस्तित्वमान कैसे रहता है तब तक हम सभी स्वार्थों से मुक्त निर्मल नैतिक जीवन जीकर मुक्ति अथवा ज्ञानोदय का सनातन, असीमित सुख प्राप्त नहीं कर पाएँगे |
अतः बौद्ध धर्म में नैतिक आचार यथार्थ के तथ्यों पर आधारित है, न कि स्रष्टा द्वारा दिए गए नियमों पर, और न ही ऐतिहासिक बुद्ध द्वारा बनाए गए नियमों पर | बुद्ध वास्तविक पीड़ा और उनके वास्तविक कारणों को समझते थे, और उन्होंने यथार्थ का वास्तविक ज्ञान दिया जिससे इन पीड़ाओं का सदा के लिए सत्य निरोध हो सके | इन्हें "चार आर्य सत्य" कहा गया है | यदि हम समझ लें कि बुद्ध ने यथार्थ के विषय में क्या सिखाया, तो हम व्यावहारिक कारण और प्रभाव समझ पाएँगे तथा यह भी समझ पाएँगे कि जिन असंभव रूपों में हम उसकी कल्पना करके प्रस्तुत करते हैं उनमें आत्म अस्तित्वमान नहीं रहता |
अतः बौद्ध धर्म में नैतिक मूल्यों से आशय यह नहीं है कि हम अपने स्रष्टा की इच्छा के प्रति समर्पित तथा आज्ञाधीन हों | अपितु इन मूल्यों से अभिप्राय है यथार्थ का सही ज्ञान पाना | परन्तु, जैसा इस्लाम में भी है, मनुष्य के पास यह विकल्प है कि वह नैतिक मूल्यों को माने अथवा न माने | यदि वह नहीं मानता तो बौद्ध धर्म इसका कारण अनभिज्ञता अथवा भ्रम बताता है; इस्लाम इसकी व्याख्या अवज्ञा के रूप में करता है जो हीन-आत्म से उत्पन्न होती है |
संक्षेप में, बौद्ध धर्म और इस्लाम दोनों समझाते हैं कि नैतिक आचरण का आधार कारण और प्रभाव तथा यथार्थ को स्वीकार करना है | किन्तु इन्हें समझने और स्वीकार करने के मार्ग भिन्न हैं | इस्लाम के अनुसार एकेश्वरवाद यथार्थ है, तथा ईश्वर या ख़ुदा ने, प्रेम के कारण अपने दूत हज़रत मुहम्मद द्वारा शरिया आचार-संहिता को प्रकट किया | "ख़ुदा के अतिरिक्त और कोई ख़ुदा नहीं है, और हज़रत मुहम्मद ख़ुदा के दूत हैं" इस श्रद्धा वचन से वास्तविकता का साक्षी बनकर हम अपने हीन आत्म को ख़ुदा की शरण में समर्पित करते हैं | इस वचन के द्वारा, जिसे “साक्ष्य वहन करना” भी कहते हैं, हम ख़ुदा की दी गई नीति संहिता, शरिया, का पूर्ण रूपेण आज्ञा-पालन करते हैं, और इस प्रकार हम अपने स्वार्थ से ऊपर उठते हैं | अतः इस्लाम में ख़ुदा के प्रति शरणागति और स्वार्थ से उबरने के हेतुक सम्बन्ध को ख़ुदा ने स्वयं बनाया था |
इसके ठीक विपरीत, बौद्ध धर्म के अनुसार कारण-कार्य के व्यवस्था विधान का कोई स्रष्टा नहीं है; अपितु वह यथार्थ की प्राकृतिक व्यवस्था है | वास्तविकता यह है कि केवल आत्म का ही नहीं, अपितु कोई भी वस्तु असंभव रूप से अस्तित्वमान नहीं है; तथा, इस तथ्य के कारण व्यवहारवादी कारण-कार्य बिना किसी अवरोध के परिचालित है | इस प्रकार, हम जीवन की घटनाओं और स्थितियों के यथार्थ के प्राकृतिक नियमों को समझकर एवं स्वीकार करके अपने आत्मकेंद्रीकरण से ऊपर उठते हैं |
शरणागत होना
बौद्ध धर्म में हम बुद्ध, धर्म, एवं संघ में शरणागत होते हैं, अर्थात, अपने जीवन को एक सुरक्षित दिशा देते हैं | धर्म की सुरक्षित दिशा से तात्पर्य है मानसिक रूप से अज्ञान के सभी स्तरों का सत्य निरोध करना तथा उस सत्य बोध को प्राप्त करना जिससे यह प्राप्तव्य सिद्ध हो सके | सभी बुद्ध जनों ने इसे पूर्णतया प्राप्त कर लिया है और अन्यों को इसे प्राप्त करने की शिक्षा भी दी है; संघ उन उच्च सिद्धि प्राप्त जनों का समुदाय है जिन्होंने इसे आंशिक रूप से प्राप्त कर लिया है | बुद्ध, धर्म, तथा संघ के शरणागत होने का अर्थ यह नहीं है कि हम उनके आगे समर्पित हो जाएँ | अपितु, अपने जीवन को एक सुरक्षित दिशा देने का अर्थ है बुद्ध के व्यावहारिक कार्य-कारण तथा यथार्थ के उपदेशों को स्वीकार करना एवं उनका पालन करना, उन्हें पूर्णतया समझना, और अपने जीवन को उनके अनुसार व्यतीत करना |
अतः, हमें व्यावहारिक कार्य-कारण के प्रति अनभिज्ञता तथा इस अनभिज्ञता से उत्पन्न आत्म-केंद्रित भाव से उबरने की आवश्यकता है | यदि हम यह समझ लें कि विनाशकारी व्यवहार से पीड़ा उत्पन्न होती है और हमें ऐसे विनाशकारी कृत्यों से बचना चाहिए, तो हम इनसे उबर सकते हैं | ऐसे करने से हमें उत्तम मनुष्य योनि अथवा स्वर्ग के देवताओं की योनि प्राप्त हो सकती है | परन्तु, इस प्रकार के पुनर्जन्म का सुख अनित्य है | गहनतर स्तर पर हमें अपने अस्तित्व की वास्तविकता के प्रति अज्ञान तथा इसके कारण उत्पन्न गहरे आत्म-केंद्रित भाव को दूर करना होगा | इन्हें पराजित करने के लिए हमें अपने अस्तित्व की गहनतम वास्तविकता का उचित ज्ञान प्राप्त करना होगा | इससे हमें अदम्य पुनर्जन्मों से मुक्ति तथा शाश्वत सत्यानंद मिलता है |
इस तरह से कार्य-कारण की परंपरागत वास्तविकता एवं शून्यता के गहनतम सत्य को समझना और स्वीकार करना ही बौद्ध धर्म के दो चरण हैं | इस प्रकार इस्लाम में नैतिकता और वास्तविकता को समझना और स्वीकार करना एक चरण में समाहित हो जाते हैं | एकेश्वरवाद की गहनतम सत्यता को समझने और स्वीकार करने का अर्थ है ख़ुदा के दूत पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा प्रकट किए गए नैतिक कार्य-कारण के विधि-निषेधों को स्वीकार करना तथा उनका पालन करना |
अतः, शरणागति हीन-आत्मा का ख़ुदा या अपनी उच्च आत्मा के आगे समर्पण अथवा अधीनता नहीं है | अपितु, इससे उद्भूत है परित्याग और स्वयं को अनभिज्ञता से छुटकारा दिलवाना | परन्तु, समर्पण तथा संन्यास दुःख और पीड़ा के कारणों को त्यागने के कृत्य हैं | बौद्ध धर्म के अनुसार इस त्याग के कारण हैं गहनतम सत्य तथा व्यावहारिक कार्य-कारण का बोध एवं स्वीकृति |
बुद्ध- धातु
बौद्ध धर्म की तिब्बती परंपरा मनुष्य के अन्तर्निहित बुद्ध- धातु की चर्चा करती है जिससे अभिप्राय है सभी प्राणियों में अन्तर्जात कारक जो - केवल उनके मनुष्य जीवन काल में ही नहीं - उन्हें बुद्धत्त्व प्राप्त करने में सक्षम बनाते हैं | इन कारकों में पाए जाते हैं (1) गहन बोध (संस्कृत: ज्ञान, तिब्बती: ये-शेस ) जो समग्र यथार्थ को समझने में सक्षम है, और (2) व्यक्ति और उसके चित्त का यथार्थ अथवा उसकी शून्यता | सभी ज्ञानोदय प्राप्त करने में सक्षम हैं क्योंकि, गहनतम स्तर पर, सभी में गहन बोध की क्षमता होती है, और वे तथा उनके चित्त असंभव रूप से अस्तित्वमान नहीं होते | ये कारक, अनभिज्ञता की परतों से ढके हुए एक रहस्य की भाँति छिपे होते हैं | इससे इस्लाम की वह व्याख्या याद आती है जिसमें निम्नतर आत्म रहस्यमयी श्रेष्ठतर आत्म पर पर्दा डाले रहता है, जो यथार्थ भी है और श्रेष्ठतर मेधा भी, ख़ुदा की दी गई प्राण वायु | परन्तु बुद्ध- धातु कारकों को एक आत्मा न मानकर, इन्हें एक अनादि शाश्वत सातत्य के रूप में देखा जाता है जिसके आधार पर एक व्यक्ति अथवा आत्म आरोपण संघटना है |
विभिन्न ध्यान-साधना विधियों द्वारा (जैसे चित्त की परम्परागत और गहनतम प्रकृतियों पर ध्यान केंद्रित करना) चित्त के स्थूलतर स्तरों को शांत करके हम अपने गहनतम बुद्ध- धातु कारकों तक पहुँचकर उनमें पाए जाने वाले गहन बोध को क्रियान्वित करते हैं | हम अपनी गहनतम प्रकृति के यथार्थ को समझते हैं जो सदैव अनादि, अजन्मा, और अप्रत्यक्ष रहा है |
प्रेम
बौद्ध धर्म में यथार्थ को समझने के लिए सकारात्मक शक्ति (संस्कृत: पुण्य, तिब्बती: बसोड़-नमस , "मेरिट") की वृद्धि हेतु प्रेम अत्यावश्यक है | सभी जीवों की इच्छा है कि वे प्रसन्न रहें और उनके पास प्रसन्नता के कारण हों जिनका आधार है सभी जीवों की पारस्परिक सम्बद्धता और समानता के यथार्थ का बोध | सभी जीव समान हैं, परन्तु इसलिए नहीं कि वे सब ख़ुदा की समान कृतियाँ हैं, जैसा इस्लाम में बतलाया गया है | सभी जीव समान इसलिए हैं क्योंकि सृष्टि के प्रारंभ से ही सभी जीव सभी योनियों में जी चुके हैं और उनके परस्पर सम्बन्ध रहे हैं | कभी उन्होंने हमारी सहायता की है, कभी हमें हानि पहुँचाई है, और कभी वे सम्पूर्ण रूप से अपरिचित भी रहे हैं | अतः कोई कारण नहीं है कि हम कुछ के प्रति आकर्षित हों, कुछ से विकर्षित हों, तथा अन्य सभी के प्रति उदासीन हों | इस अनादि पुनर्जन्म तथा पारस्परिक सम्बद्धता के कारण सब समान हैं |
इस भावात्मक समचित्तता एवं सबके प्रति उदारता के आधार पर बौद्ध धर्म प्रेम और करुणा (यह इच्छा कि सब कष्टों और कष्ट के कारणों से मुक्त हो जाएँ) के विकास के लिए एक भावात्मक और तर्कसंगत विधि सिखाता है |
- भावात्मक दृष्टिकोण से यह समझना कि अनादि पुनर्जन्म के कारण सभी जीव कभी न कभी हमारी माँ बने हैं, तथा उन्होंने हमारे प्रति दयालुता दिखाई है | इस बात को याद करके और इसका मोल समझकर कि जब हम असहाय शिशु थे, तो कैसे हमारा अस्तित्व उन माताओं की स्नेहपूर्ण कोमल मातृ-सुलभ देखभाल पर निर्भर था, हमारे भीतर हार्दिक कृतज्ञता का उद्रेक होता है | फिर इस जन्म में पुनः उनसे मिलने पर हमारे भीतर स्वाभाविक रूप से उनके प्रति निष्कपट आत्मीयता का भाव उत्पन्न होता है | प्रेम से हम उनके सुख की कामना करते हैं, तथा करुणा से हम उनकी दुःख और पीड़ा से मुक्ति की कामना करते हैं |
- प्रेम और करुणा बढ़ाने का युक्तिसंगत साधन है यह जानना कि सब जीव सदा सुख की ही कामना करते हैं, दुःख की नहीं | इसके अतिरिक्त, सभी जीवों को सुखी रहने तथा दुःख से दूर रहने का समान अधिकार है | जिस प्रकार हमारा शरीर दूसरों के, अर्थात हमारे माता-पिता के, शरीर से उत्पन्न तत्त्वों से बना है, उसी प्रकार सभी जीवों के शरीर भी दो अन्य लोगों के शरीर से ही उत्पन्न हुए हैं | अतः जिस प्रकार हम अपने शरीर का, सुखी रहने के उद्देश्य से, प्रेमपूर्वक ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार हम दूसरों की आवश्यकताओं का भी उसी प्रकार प्रेम-पूर्वक ध्यान रख सकते हैं | यह इसलिए कि किसी का भी शरीर किसी स्वतंत्र "मैं" का नहीं है जिसका एक स्वतंत्र अस्तित्व है | पीड़ा और दुःख को इसलिए दूर नहीं करना है कि वे "मेरा" अथवा "तुम्हारा" है | जैसा महान बौद्ध गुरु, शान्तिदेव, ने कहा है, पीड़ा का कोई स्वामी नहीं है | पीड़ा को दूर करना है क्योंकि उससे दुःख होता है |
ऐसे प्रेम और ऐसी करुणा का विकास, चाहे वह भावात्मक रूप से किया गया हो, युक्तिसंगत रूप से, अथवा इन दोनों के मिश्रण द्वारा, यह दूसरे लोगों के नैतिक आचरण पर निर्भर नहीं है | किन्तु आवश्यकता पड़ने पर दूसरों से अपने बचाव के लिए ये हमें बल-प्रयोग करने से नहीं रोकते | इस प्रकार, सभी जीवों के प्रति प्रेम, बुद्ध के प्रति प्रेम से उद्भूत नहीं होता | अपितु, जब हम अपने तथा दूसरों के अस्तित्व के यथार्थ को समझ लेते हैं, तो अन्य जीवों के प्रति हमारा प्रेम निर्मल एवं -अटल हो जाता है |
सारांश
सारतः, इस्लाम और बौद्ध धर्म दोनों ही स्वार्थ पर विजय पाने तथा प्रेम के विकास के लिए प्रभावी विधियाँ सिखाते हैं | इनमें से प्रत्येक धर्म की पद्धतियों में पाए जाने वाले अंतर उनके आत्म अथवा आत्मा, नैतिक आचार, व्यावहारिक कारण तथा प्रभाव, यथार्थ, और उच्चतर मेधा अथवा गहन ज्ञान के अभिमतों से उद्भूत होते हैं | जब हम यह समझ लेते हैं कि इस्लाम और बौद्ध धर्म दोनों एक ही जैसी समस्याओं का समाधान करते हैं, तथा उनकी व्याख्या से उद्भूत विधियों द्वारा प्रेम के विकास एवं स्वार्थ पर विजय पाने में लोगों की सहायता करते हैं, तत्परिणाम हमारे पारस्परिक आदर सम्मान में वृद्धि होती है | समानताओं की समझ तथा भिन्नताओं का सम्मान धार्मिक सामरस्य का स्थायी आधार बनता है |