"क़ुरान" के अनुसार, आत्म-केंद्रिकता का अर्थ है मनमानी करना, तथा अहंकार, स्वार्थ और नकारात्मक मनोभावों का हावी हो जाना, बजाय इसके कि भगवद-इच्छा का पालन किया जाए। आत्म-केंद्रिकता से ऊपर उठने का मार्ग है ईश्वर की शरणागति, तथा विश्वास, चरित्र एवं अन्य जीवों की सेवा में उत्कृष्टता के द्वारा ईश्वर की भक्ति करना। अतः सभी प्राणियों के लिए प्रेम और उनकी अपने दुःखों से उबरने में सहायता करना भगवद भक्ति तथा पूर्णता के निकट पहुँचने का एक मार्ग है। बौद्ध धर्म के अनुसार आत्म-केंद्रिकता इस बात की अनभिज्ञता (अज्ञान) से आती है कि हम, दूसरे सभी प्राणी, तथा अन्य वस्तुएँ किस प्रकार अस्तित्वमान हैं। इससे उबरने के लिए सही बोध की आवश्यकता है। प्रेम इस अनुभूति से विकसित होता है कि सुख चाहने और दु:ख न चाहने में सभी समान हैं, परन्तु वास्तविकता से अनभिज्ञ होने के कारण वे अपने और दूसरों के लिए अधिकाधिक दु:ख उत्पन्न करते हैं। इन अलग-अलग दार्शनिक विचारों के बावजूद, इस्लाम और बौद्ध धर्म दोनों के सदाशय अभ्यास का एक ही लक्ष्य है स्वार्थ से ऊपर उठना, सभी प्राणियों के लिए प्रेम विकसित करना, और उनके दुःख को कम करने के लिए प्रयत्न करना।