किसी बहुधर्मी समाज में किस प्रकार से रहें और काम करें

मुझे कहा गया है कि मैं धार्मिक विविधता वाले समाज में सामंजस्य बनाकर रहने के विषय पर व्याख्यान दूँ, जिसके कई पहलू हैं। जैसा कि हमारे सम्मानित मेज़बान ने कहा, एक पहलू तो मानव मूल्य और धर्मनिरपेक्ष नैतिकता है जिस पर परम पावन दलाई लामा हमेशा बल देते हैं। किसी समाज में रहने वाले हम लोगों की मान्यताओं के आधार पर किसी भी प्रकार के मतभेद हो सकते हैं, लेकिन नैतिकता का किसी विशेष प्रकार की धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होना आवश्यक नहीं है बल्कि बुनियादी मानव मूल्यों पर आधारित एक ऐसा नीतिशास्त्र है जिसे सभी धर्म समान रूप से स्वीकार करते हैं और नास्तिक भी इसे स्वीकार करते हैं। ये मूल्य इस मान्यता पर आधारित हैं कि हम सभी बराबर हैं: प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है, कोई भी दुख नहीं चाहता। इस दृष्टि से हम सभी एक जैसे ही हैं। हम सभी के अन्दर भावनाएं होती हैं। हर कोई चाहता है कि दूसरे उसे पसन्द करें और स्वीकार करें। कोई नहीं चाहता कि उसे नापसन्द किया जाए या उत्पीड़ित किया जाए। हर कोई चाहता है कि उसका सम्मान किया जाए और दूसरे उसका लिहाज़ करें। इसलिए इस धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के प्रति यह सामान्य दृष्टिकोण, जैसा कि परम पावन दलाई लामा सदैव बल देकर कहा करते हैं, करुणा पर आधारित है, जिसे इस कामना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है कि दूसरे लोग दुख और समस्याओं तथा उनके कारणों से मुक्त हो सकें।

इन समस्याओं और दुखों के मूल कारण क्या हैं? इनके बहुत से कारण हैं। हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ आर्थिक समस्याएं हैं, दुनिया भर में अनेक प्रकार के झगड़े हैं। और हम लोग आपस में जुड़े हुए हैं, इसलिए दुनिया के किसी एक भाग में जो घटित होता है, उससे हर कोई प्रभावित होता है; और अब ऐसी स्थिति नहीं है कि हम अलग-थलग हो कर रह सकें।

और इसलिए जब हम विभिन्न धार्मिक मान्यताओं के बारे में विचार करते हैं, तो यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि इन धार्मिक व्यवस्थाओं के मध्य समस्याओं को और अधिक न बढ़ाएं। इसलिए प्रश्न यह उठता है: विभिन्न धर्म व्यवस्थाओं के कारण उत्पन्न होने वाले विवादों, झगड़ों, गलतफहमियों से कैसे बचा जाए? इतना कह देना भर काफी नहीं है: “आखिर सभी धर्म एक जैसे ही तो हैं। सभी धर्मेतर, धर्मनिरपेक्ष मान्यताएं ─ सब कुछ एक जैसा ही तो है। हम सभी तो इस दुनिया को बेहतर बनाने के बुनियादी दायित्व को मान्यता देते हैं।” इतना कह देना ही काफी नहीं है। हालाँकि यह बात सही हो सकती है कि हम सभी समान मूल्यों, आकांक्षाओं और उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में प्रयासरत हैं, फिर भी हमारे बीच अन्तर हैं; और यह कहना कि कोई अन्तर नहीं हैं, विभिन्न धर्मों के साथ अन्याय होगा।

लेकिन अक्सर वैमनस्य एक दूसरे की मान्यताओं के बारे में हमारे अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। और यह वैमनस्य तब और भी गहरा हो जाता है जब हमें खुद अपनी परम्पराओं की गहरी समझ न हो। इसलिए स्वयं अपनी पृष्ठभूमि और दूसरों की पृष्ठभूमि के बारे में हमारा दृष्टिकोण समझ और ज्ञान पर आधारित होने के बजाए “फुटबॉल टीम” की मानसिकता वाली विकृति का शिकार हो जाता है। फुटबॉल टीम की मानसिकता का अर्थ है, “यह मेरी फुटबॉल टीम है, और यही सर्वश्रेष्ठ है, और हमें जीतना है, और हमें हर दूसरी फुटबॉल टीम का मुकाबला करके उसे परास्त करना है।” यह एक ऐसी मान्यता है कि मेरी धार्मिक मान्यता ही सबसे अच्छी है क्योंकि वह मेरी है और मेरे कुल की परम्परा है।

एक बार परम पावन दलाई लामा से यह प्रश्न पूछा गया था कि “सबसे अच्छा धर्म कौन सा है?” और परम पावन ने उत्तर दिया, “सबसे अच्छा धर्म वही है जो आपको अधिक करुणाशील व्यक्ति बनने में सहायता करता है।” और इसलिए, ज़ाहिर है, कि हर व्यक्ति के लिए कोई एक धर्म या दूसरा धर्म उसे और अधिक करुणाशील बनाने में सहायक हो सकता है। मैं समझता हूँ कि धार्मिक विविधता के प्रति यह दृष्टिकोण बहुत ही उपयोगी है। हमें यह समझना और मानना होगा कि हर धर्म अपने अनुयायियों को अधिक करुणाशील और बेहतर व्यक्ति बनाने की दिशा में प्रयत्नशील है। इस बात को समझ पाने और मान पाने के लिए यह आवश्यक है कि हमें स्वयं अपने धर्म का ज्ञान हो, दूसरे लोगों के धर्म का भी ज्ञान हो। और किसी का धर्मपरिवर्तन करने का प्रयास किए बिना और किसी भी प्रकार का आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाए बिना हमारी शिक्षा प्रणालियों के माध्यम से, सिर्फ सामान्य जानकारी देकर, इस कार्य को बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है; यह बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण है।

अक्सर धार्मिक नेताओं के बीच परस्पर भेंट-मुलाकातें होती रहती हैं। परम पावन दलाई लामा ऐसी अन्तर-धार्मिक बैठकों में भाग लेने में विशेष रुचि रखते हैं। वे कहते हैं कि ऐसी बैठकें बड़ी उपयोगी होती हैं। मुझे स्मरण है कि ऐसी अनेक बैठकों में मैंने स्वयं भी भाग लिया है। एक ऐसी ही बैठक इस्तांबुल में प्राच्य ईसाई धर्म के धर्मप्रधान पैट्रिआर्क बार्थोलोम्यू के साथ हुई थी। मैं उनके पदधारण के कुछ समय बाद ही उनसे मिला था, और वे जापान जाने की तैयार कर रहे थे जहाँ वे पहली बार किसी बौद्ध धार्मिक नेता से भेंट करने वाले थे। मुझसे अपनी बातचीत में उन्होंने परम पावन दलाई लामा की कुछ बौद्ध धर्म सम्बंधी पुस्तकों के बारे कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा कि पहले उन्हें बौद्ध धर्म के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी, लेकिन उन पुस्तकों से उन्हें बड़ी सहायता मिली थी और अब वे जापान जाकर बौद्ध धार्मिक नेताओं से मिल सकते थे और उनके साथ सार्थक चर्चा कर सकते थे। इससे हमें पता चलता है कि धर्मों के बीच आपसी सद्भाव और सहयोग को स्वीकार करने वाले ऐसे उदार दृष्टिकोण का आधार शिक्षा और ज्ञान है। विभिन्न धर्मों के नेताओं में यह गुण देखने के लिए मिलता है।

मैं विशेष तौर पर बौद्ध-मुस्लिम संवाद के कार्य से जुड़ा रहा हूँ। पहली बार में इस कार्य की ओर 1990 के दशक के मध्य में उस समय आकृष्ट हुआ जब तिब्बत में, विशेषतः उत्तरपूर्वी क्षेत्र में बड़ी संख्या में चीनी मुसलमान आकर बस रहे थे।

मध्य तिब्बत क्षेत्र में मुस्लिम परम्परागत तौर पर रहते आए थे। इनमें से अधिकांश लोग लद्दाख और कश्मीर से आने वाले मुस्लिम व्यापारी थे। यह सत्रहवीं शताब्दी में पाँचवें दलाई लामा के समय की बात है। उन्होंने ऐसे कई कानून बनाए जिनके माध्यम से मुस्लिमों को उनकी इच्छा के अनुसार मस्जिद का निर्माण करने, अपने अलग कब्रिस्तान बनाने, और वर्ष के दौरान विशेष अवकाश के दिनों में विभिन्न प्रकार के बौद्ध अनुष्ठानों या प्रक्रियाओं से छूट दिए जाने जैसे सभी प्रकार के अधिकार दिए गए थे। इस प्रकार, परम्परागत रूप से तिब्बत में इन दोनों धर्मों के बीच किसी प्रकार का टकराव नहीं था। लेकिन पिछले कुछ समय में बड़ी संख्या में चीनी आप्रवासियों के तिब्बत में आकर बसने से ─ बड़ी संख्या में मुस्लिम वहाँ आकर बसे हैं ─ आर्थिक प्रतिस्पर्धा बढ़ी है।

इसलिए मध्य एशिया के व्यापक परिदृश्य और बौद्ध तथा मुस्लिम और ईसाई समुदायों के बीच परस्पर प्रभाव के इतिहास को देखते हुए मैंने यह महसूस किया कि इन धार्मिक समूहों के बीच, विशेष तौर पर बौद्धों और मुस्लिमों के बीच आपसी सद्भाव को बढ़ाने के लिए संवाद शुरू किया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसा करने से पूरे क्षेत्र के विकास में मदद मिल सकती थी। एक तो मैंने यह तय किया कि इन दोनों संस्कृतियों के बीच परस्पर मेलजोल का एक अधिक स्वतंत्र और निष्पक्ष इतिहास लिखा जाए, और मेरे इस काम ने मुझे मध्य पूर्व के इस्लामी देशों का दौरा करने और वहाँ के विद्वानों के साथ विचार-विमर्श करने का अवसर प्रदान किया जो मेरे लिए सर्वाधिक उपयुक्त था। चूँकि मैं ज्ञान की तलाश में निकला था, इसलिए मुस्लिम विद्वानों ने इन दोनों संस्कृतियों के बीच परस्पर मेलमिलाप को लेकर व्याप्त भ्रान्तियों को दूर करने में बड़ी उदारता से सहयोग किया। बहुत से इतिहासवृत्त इन बातों का उल्लेख इस प्रकार करते हैं: “मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत और अन्य स्थानों पर चढ़ाई करके बौद्ध धर्म से सम्बंधित सभी चीज़ों को नष्ट कर दिया।” हालाँकि कुछ विनाश अवश्य हुआ था, लेकिन यह वास्तविकता का और लम्बे इतिहास का सही-सही चित्रण नहीं है। लेकिन जब तक बौद्ध मुसलमानों को भारत में मठों को ध्वस्त करने वाले आक्रमणकारियों के रूप में देखते रहेंगे, या मुसलमान ईसाइयों को अपने खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ने वाले समूह के रूप में देखते रहेंगे, जब तक आपसी मेल की स्मृति मुख्यतः इन्हीं बातों पर टिकी रहेगी, तब तक इससे दोनों धर्मों के बीच समस्याएं ही बढ़ेंगी, झगड़े ही बढ़ेंगे।

इसलिए मैंने मिस्र और जॉर्डन, तुर्की आदि देशों की यात्राएं कीं और इस्लाम के प्रोफेसरों और धार्मिक नेताओं से मुलाकातें कीं। दरअसल काहिरा की थियॉलॉजिकल यूनिवर्सिटी (अल-अज़हर विश्वविद्यालय) के अध्यक्ष ने तो मुझे बहुत बड़ा सम्मान दिया। उन्होंने कहा कि मैं सत्य के लिए लड़ने वाला सच्चा योद्धा हूँ, जोकि मुजाहिदीन का सच्चा अर्थ होता है। इस प्रकार मैं घटनाओं को सत्य के आलोक में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा था। मैंने पाया कि मैं जिन प्राध्यापकों और धार्मिक नेताओं से मिला था, केवल वे ही नहीं, बल्कि छात्र भी इस विषय में गहरी रुचि दिखा रहे थे। काहिरा विश्वविद्यालय में मैंने बौद्ध धर्म की आधारभूत जानकारी के बारे में एक व्याख्यान दिया था जिसमें 300 छात्रों ने स्वेच्छा से भाग लिया। खैर, मैंने इस विषय पर जो कुछ लिखा है, यदि उसे पढ़ने में आपकी दिलचस्पी हो तो आप उस सामग्री को मेरी वैबसाइट berzinarchives.com के रूसी भाषा के खण्ड में रूसी अनुवाद में देख सकते हैं।

एक बार परम पावन दलाई लामा ने मुझे एक महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा (वे अक्सर मुझे कोई ऐसा काम सौंपते थे जिसे मैं मिशन इम्पॉसिबल कहा करता था)। उन्होंने कहा, “मैं चाहता हूँ कि तुम किसी अश्वेत अफ्रीकी मुस्लिम धार्मिक नेता से मेरी मुलाकात करवाओ।” ऐसे अनुरोध के प्रत्युत्तर में आप “धन्यवाद” के सिवा और क्या कह सकते हैं? परम पावन के पास लोगों के साथ कार्मिक सम्बंधों को पहचानने की अद्भुत क्षमता है, और जब भी उन्होंने मुझे असम्भव दिखाई देने वाला ऐसा कोई भी कार्य सौंपा है, उसे करना उतना ही आसान रहा है ─ सब कुछ जैसे स्वतः ही होता चला जाता है। इसके कुछ ही समय बाद मैं यूरोप की यात्रा पर गया ─ मैं दुनिया भर में घूम-घूम कर बड़े व्याख्यान दिया करता था ─ और वहाँ मेरी मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो दरअसल अफ्रीका में राजनयिक के रूप में तैनात था। मैंने उसे दलाई लामा द्वारा व्यक्त इच्छा के बारे में बताया, और उस व्यक्ति ने तपाक से जवाब दिया, “ अरे, मेरे एक घनिष्ठ मित्र हैं जो गिनी देश के सूफ़ी धार्मिक नेता हैं।” गिनी पश्चिमी अफ्रीका में स्थित है, और मैं यह बताना भूल गया था कि परम पावन ने भी पश्चिमी अफ्रीका के किसी धार्मिक नेता से ही मुलाकात करवाए जाने की बात कही थी। ये धार्मिक नेता उस समय यूरोप में ही थे, और किसी प्रकार के आयुर्वेदिक उपचार के लिए भारत जाने वाले थे। और संयोग से वे भी दिल्ली ठीक उसी समय पहुँचने वाले थे जब मुझे दिल्ली लौटना था, और यह भी संयोग ही था कि भारत छोड़ने से पहले उनके पास कुछ अतिरिक्त दिनों का अवकाश उपलब्ध था और वे वहाँ मुझसे मिलने और मेरे साथ धर्मशाला जाकर दलाई लामा से भेंट करने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। इस प्रकार यह व्यवस्था करने में मुझे रत्ती भर भी प्रयास नहीं करना पड़ा।

मैंने इन सूफ़ी धार्मिक नेता से भेंट की। उनका व्यक्तित्व बड़ा सुदर्शन था। विशालकाय, किसी अफ्रीकी कबीले के मुखिया के समान, और बहुत ही गरिमामय। हम दोनों धर्मशाला गए, और दलाई लामा से भेंट के लिए मैं उनके साथ गया। उन्होंने बड़ी सौम्य सफेद पोशाक पहन रखी थी। और जब उन दोनों की भेंट हुई, तो वह एक बड़ी भावुक, स्नेहपूर्ण मुलाकात थी, जैसे दो पुराने मित्र आपस में मिल रहे हों, और वे सूफ़ी नेता तो दरअसल रो पड़े। और दलाई लामा अपने स्थान से उठे और अपने उप-कक्ष ─ बाहर का वह कक्ष जहाँ वे आगंतुकों से मिलते हैं ─ में चले गए और स्वयं एक टिश्यू (कागज़ी रूमाल) लेकर लौटे ताकि सूफ़ी नेता अपने आँसू पौंछ सकें, मैंने दलाई लामा को पहले कभी ऐसा करते नहीं देखा था। उनके पास सदा ही कोई सहायक या अनुचर होता था जो उनके लिए कार्य करता था, चीज़ें लाकर देता था; वे स्वयं उठकर चीज़ें नहीं लाते थे। और फिर उन दोनों के बीच बौद्ध धर्म और सूफ़ी मत में करुणा के आधार के बारे में स्नेहपूर्ण चर्चा हुई। और उसके बाद भी कई वर्षों तक उन दोनों के बीच कई बार मुलाकातें हुईं।

इस तरह दलाई लामा ने स्वयं न केवल मुस्लिम के साथ, बल्कि दुनिया भर के दूसरे धर्मों के नेताओं के साथ भी इस संवाद में गहरी रुचि दिखाई है। और उन्होंने मुझे भी इस बात के लिए प्रोत्साहित किया है कि मैं अपनी वैबसाइट के बड़े भागों को इस्लामी भाषाओं में अनुवाद करवाऊँ ताकि बौद्ध धर्म के बारे में, तिब्बत के बारे में और धार्मिक समरसता और धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के बारे में स्वयं उनकी पुस्तकों और भाषणों के बारे में इस्लामी जगत में और अधिक जानकारी उपलब्ध हो सके। एक और दुस्साध्य लक्ष्य! लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि हम वैबसाइट के एक बड़े भाग को पहले ही अरबी और उर्दू भाषाओं में प्रस्तुत कर चुके हैं (उर्दू पाकिस्तान और उत्तर भारत के मुस्लिमों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है)। और पिछले कुछ हफ्तों में बिना किसी तलाश के, बिना किसी कोशिश के अनुवादकों की एक टीम प्रकट हुई है जो हमारी वैबसाइट को इंडोनेशियाई भाषा में अनुवाद करने के लिए तैयार है। इंडोनेशिया दुनिया में मुसलमानों की सबसे अधिक आबादी वाला देश है।

इसलिए, जैसाकि मैंने पहले कहा, शिक्षा और एक-दूसरे की धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानकारी धार्मिक समरसता का आधार है। यह जानकारी मिलने के बाद हमें यह बात समझ में आती है कि दूसरों के प्रति आशंकित होने का कोई कारण नहीं है। और विभिन्न मान्यताओं के बीच के अन्तर को स्वीकार करते हुए हम समरसता के लिए समानताओं पर बल देते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है: यहाँ कालमिकिया जैसे बहुधर्मी समाज में रहने और काम करने का सलीका क्या है? और विशेष तौर पर, चूँकि यह एक इंजीनियरी कॉलेज है, मैं सोच रहा था कि इस विषय के छात्रों के रूप में आप लोगों के लिए किस प्रकार के विचार अधिक प्रासंगिक रहेंगे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जब आप कोई निर्माण कर रहे हों, किसी चीज़ का डिज़ाइन तैयार कर रहे हों, तो किन बातों को ध्यान रखने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं को समायोजित किया जा सके? और बड़े पैमाने पर, यदि हमारे पास ऐसा करने में सहायता करने की क्षमता हो, तो हम किसी समाज, किसी सरकार, स्थानीय शासन आदि की संरचना किस प्रकार तैयार करेंगे?

पहला विचार जो मेरे मन में आया वह यह है कि कुछ धर्म ऐसे हैं जो अपने अनुयायियों को दिन में कुछ निश्चित समयों पर पूजा-इबादत करने के लिए कहते हैं ─ जैसे मुसलमान दिन में पाँच बार प्रार्थना करते हैं। तो यदि आप किसी ऐसे भवन के निर्माण कार्य देख रहे हैं जहाँ के कुछ कर्मचारी मुस्लिम हों, या यदि आप किसी सार्वजनिक उपयोग के लिए किसी इमारत, किसी स्कूल आदि का निर्माण कर रहे हों जहाँ मुस्लिम छात्र या अध्यापक हों, तो समरसतापूर्ण वातावरण बनाने की दृष्टि से यह बड़ा उपयोगी रहेगा कि उस भवन में एक प्रार्थना कक्ष हो ताकि जो लोग दिन के समय प्रार्थना करना चाहें वे अपनी मान्यताओं और परम्पराओं का पालन कर सकें। इसी प्रकार यदि दूसरे धर्मों की परम्पराओं को भी भवन का डिज़ाइन तैयार करते समय स्थान दिया जा सके तो यह बहुत अच्छा रहेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी धार्मिक मान्यता की उन्हें दूसरी मान्यताओं से भिन्न करने वाली विशेषताओं का खयाल रखिए ताकि उन लोगों को लगे कि उनका सम्मान किया गया है और उनकी सुविधा का ध्यान रखा गया है।

देखिए निष्ठा का मुद्दा हमेशा उभर कर सामने आता है। लोगों की भावनात्मक कुशल-क्षेम में निष्ठा का बड़ा महत्व होता है। हम अपने परिवार, अपनी जातीय पृष्ठभूमि और अपने धर्म के प्रति निष्ठावान बने रहना चाहते हैं। और फिर राष्ट्र, देश के प्रति निष्ठा की भी बात आती है। और समस्या अक्सर उस समय उत्पन्न होती है जब लोगों को तालमेल रखते हुए इन सभी के प्रति निष्ठावान बने रहने का अवसर नहीं मिलता है, उन्हें व्यापक समाज की प्रथाओं के प्रति निष्ठावान बने रहने के लिए अपनी धार्मिक पृष्ठभूमि के प्रति एक प्रकार से निष्ठाहीन होने के लिए बाध्य किया जाता है।

मुझे धार्मिक पोशाकों के बारे में कुछ उदाहरण याद आ रहे हैं। मुस्लिम समाजों में महिलाएं अपने सिर को ढक कर रखती हैं, और कभी-कभी अपने पूरे चेहरे को भी बुरक़े से ढँक कर रखती हैं, और हाल में फ्रांस में इस प्रतिबंध लगाए जाने को लेकर बहुत विवाद हुआ है। सिख ─ जोकि भारत का एक धर्म है ─ कभी अपने केश नहीं काटते हैं; पुरुष कभी अपने केश नहीं काटते हैं, और वे हमेशा पगड़ी पहनते हैं। कुछ जगहों पर उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें कार्यस्थल पर ऐसा करने की अनुमति नहीं है। या बौद्ध भिक्षुओं को, यदि वे किसी दफ्तर में या स्कूल में काम करते हों तो उन्हें अपने चोगे पहनने से हतोत्साहित किया जाता है। और कुछ स्थानों में, यदि आप ईसाई हों, तो क्रॉस पहनने को भी धर्म के किंचित उग्र प्रदर्शन के रूप में देखा जाता है।

मैं पुनः कहूँगा कि यदि ऐसा करने से समाज में कोई बड़ी समस्या उत्पन्न न होती हो तो लोगों को अपनी परम्परा के प्रति निष्ठावान बने रहने की अनुमति दी जानी चाहिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है। यदि आप किसी स्कूल में काम करते हैं या सेना आदि में हैं और आप पगड़ी पहनते हैं या अपने केश नहीं काटते हैं तो इसमें हर्ज़ क्या है? क्या इसमें कोई समस्या है? मुझे तो नहीं लगता। इसके बावजूद आप अपना काम बखूबी कर सकते हैं। किसी बौद्ध के रूप में यदि आप प्रार्थना करते हैं या भोजन करने से पूर्व नैवेद्य अर्पित करते हैं तो इसमें बुराई क्या है? समस्या क्या है? यदि आप चेहरे को पूरी तरह ढँकने वाला बुरक़ा पहनते हैं ─ हो सकता है, उदाहरण के तौर पर, कार चलाते समय इससे समस्या हो; क्योंकि आपको देखने में बाधा आती है। इसलिए आप कह सकते हैं, “देखिए, यदि आप कार चलाने जा रहे हैं तो आपको पूरे चेहरे को बुरक़े से ढँकने की अनुमति नहीं है।” लेकिन दूसरी स्थितियों में ऐसा करने में क्या हर्ज है? या, यदि आप महिला हों और आप किसी अस्पताल में जाएं, तो आप इस बात पर आग्रह क्यों नहीं कर सकती हैं कि आपका इलाज किसी महिला डॉक्टर या नर्स द्वारा ही किया जाए? बहुत से ऐसे लोग हैं जो किसी धर्म को नहीं मानते हैं, फिर भी महिला के रूप में वे यही पसंद करेंगे।

इसलिए मैं मानता हूँ कि यदि आप किसी ऐसे समाज में रहते हों जहाँ काफी संख्या में ऐसे लोग हों जो अपनी परम्पराओं के कारण इस प्रकार की व्यवस्था चाहते हों तो आप किसी भवन का डिज़ाइन तैयार करते समय, उदाहरण के तौर पर, महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग सैक्शन बनाने जैसी चीज़ों का खयाल रख सकते हैं। और यदि आप किसी समाज के साथ मिलकर काम कर रहे हैं तो आप इस बात का खयाल रखें कि ऐसे कौन से कदम हैं जिन्हें उठाने से लोगों को इस प्रकार अपनी परम्पराओं के प्रति निष्ठावान बने रहने की सुविधा मिलेगी जिससे समाज के कार्यकलापों में भी बाधा उत्पन्न न हो।

संक्षेप में, जैसाकि परम पावन दलाई लामा हमेशा कहते हैं, यह अच्छी बात है कि दुनिया में इतने सारे विभिन्न प्रकार के धर्म हैं ─ और सिर्फ धर्म ही नहीं, धर्मनिरपेक्ष मान्यताएं भी हैं ─ क्योंकि भोजन के उदाहरण की ही भांति यदि सभी के लिए एक ही प्रकार का भोजन उपलब्ध होता तो यह बड़ा उबाऊ हो जाता और वह हर किसी के लिए माफ़िक भी नहीं होता। मान्यताओं के साथ भी यही स्थिति है: जो बात किसी एक व्यक्ति के लिए उपयुक्त है, हो सकता है कि वह दूसरे व्यक्ति के लिए बिल्कुल अनुपयुक्त हो। ऐसी अनेकानेक मान्यताएं हैं जो हमें अधिक दयालु, अधिक विचारशील और अधिक स्नेहमय व्यक्ति बनने में सहायक हो सकती हैं, जो हमें दूसरों के साथ मेलजोल के साथ रहना सिखा सकती हैं। और जैसाकि परम पावन कहा करते हैं, सबसे अच्छा धर्म वह है जो आपको अधिक करुणावान व्यक्ति बनने में सहायता करता है। यह कुछ वैसा ही है: “क्योंकि मुझे चॉकलेट आइसक्रीम पसंद है, इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको भी चॉकलेट आइसक्रीम पसंद आनी ही चाहिए।”

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