सभी धर्मों का समान लक्ष्य है
सभी धर्म प्रेम, धैर्य, क्षमाशीलता, आत्म-केंद्रित भाव, एवं स्वार्थ से ऊपर उठने का समान संदेश देते हैं। सभी धर्म इन्हीं बातों को समान रूप से सिखाते हैं और यही अंतर-धर्मी संवाद का आधार है। इन गुणों को सिखाने के पीछे उनके दर्शन और उनकी पद्धतियाँ भिन्न हो सकती हैं, परन्तु लक्ष्य एक ही है। विश्व के सभी धर्मों ने जीवन की गुणवत्ता को सुधारने और व्यक्तियों और समाज में आनंद-प्राप्ति प्रदान कराने का लक्ष्य बनाया है। इस सामान्य आधार को देखते हुए, तथा तात्त्विक मतभेदों को स्वीकार करते हुए, प्रश्न यह उठता है कि सर्व-धर्म सद्भाव को किस प्रकार प्रोत्साहित और विकसित किया जाए, जिसकी आज संसार में अत्यधिक आवश्यकता है।
बौद्ध तथा इस्लामी समाज के लोगों ने भारत, मध्य और दक्षिण पूर्वी एशिया जैसे विश्व के कई अलग-अलग भागों में पुरातन और वर्तमान काल में भी परस्पर विनिमय और विरोध दोनों ही किया है, और अब कई मुस्लिम आप्रवासी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में भी आ रहे हैं। आज हम इन समुदायों और संस्कृतियों के साथ अधिक निकट संपर्क में हैं। वे न केवल यहूदी और ईसाई पृष्ठभूमि के लोगों से, अपितु बौद्धों से भी मिलते और विचार विनिमय करते हैं। आज यहाँ उपस्थित कुछ लोग बौद्ध पृष्ठभूमि के हो सकते हैं और हो सकता है कि उनके लिए यह जानना अत्यंत रोचक हो कि ये दो धर्म आपस में किस प्रकार मेल खाते हैं।
यह एक ऐसा विषय है जिससे परम पावन दलाई लामा अंतर-धर्मी सामरस्य के सन्दर्भ में बहुत गहरा सरोकार रखते हैं। वे सदैव इस बात पर बल देते हैं कि इस सामरस्य का आधार शिक्षा है। लोगों की अन्य धर्मों के प्रति अनभिज्ञता या अनुचित धारणाएँ भय और अविश्वास का कारण बन जाती हैं। लोग पूरे धर्म की पहचान उसके एक क्षुद्र समूह के साथ जोड़कर कर लेते हैं जिस समूह को परम पावन "शरारती तत्त्व" कहते हैं। ऐसे तत्त्व सभी समाजों और धर्मों में होते हैं।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है; इसलिए, धार्मिक सौहार्द का आधार है शिक्षा। शिक्षा के आधार पर आदर का भाव हो सकता है यदि हम एक-दूसरे के दर्शन-सिद्धांतों को समझ लें और उन सद्गुणों को बढ़ावा दे सकें जो इन सभी धर्मों में समान हैं। ये सब सार्वभौमिक गुण हैं जैसे प्रेम, करुणा, क्षमाशीलता, इत्यादि। इसके लिए, आइए, इस्लाम से प्रारम्भ करते हुए हम इन दो धर्मों को परखें और यह समझें कि प्रेम के विकास के बारे में वे क्या कहते हैं।
इस्लाम में मूलभूत सिद्धांत
ईश्वर का अनुसरण करने की निर्मल अन्तर्जात प्रबल प्रेरणा
इस्लाम में हर चीज़ का आधार है विधाता, सृष्टिकर्ता। विधाता ने पुरुषों और महिलाओं को एक निर्मल प्रवृत्ति या रुझान या विधाता के आगे शरणागत होने और उसकी आज्ञा का पालन करने की एक अन्तर्जात प्रेरणा से युक्त बनाया। हमें अपने दृष्टिकोण से यह कुछ असंगत लग सकता है, परन्तु यदि हम इसके बारे में जैविक दृष्टि से देखते हैं, तो हम यह पाते हैं कि हम अपने माता-पिता की देन हैं। शिशु में अपनी माता से जुड़ने की एक अन्तर्जात प्रेरणा होती है जैसे, यदि वह स्तनपायी है तो, अपनेआप स्तन से दूध पीना और पोषण प्राप्त करना इत्यादि। हमारे पास अपने सृष्टिकर्ता के समीप जाने की एक प्रबल प्रेरणा होती है।
इसलिए, हम इस्लाम में जो प्रेरणा देखते हैं, यद्यपि यहाँ इसे और ऊँचे स्तर पर ले जाया जाता है, इस अन्तर्जात प्रेरणा के सन्दर्भ में, जो लगभग एक चुम्बक की तरह है, उतना अनजाना भाव नहीं है जो लोगों को सृष्टिकर्ता की ओर खींचता है और उन्हें विधाता को मानने और उसके शरणागत होने के लिए प्रेरित करता है। हम पशु जगत में भी यह देख पाते हैं कि शिशु अपनी माँ का अनुसरण करता है। यह एक सहज प्रवृत्ति है, और इसी की चर्चा हो रही है।
यद्यपि, विधाता ने मनुष्यों को स्वच्छंद इच्छा एवं बुद्धि से युक्त भी बनाया है। स्वच्छंद इच्छा युक्त बुद्धि के प्रभाव में आत्मा या तो विधाता की आज्ञा का पालन करना चुन सकती है या ईश्वरीय इच्छा की अवज्ञा से उत्पन्न नकारात्मक भावनाओं के अधीन हो सकती है। ऐसे में वह व्यक्ति बहुत आत्मकेंद्रित हो जाता है। यह हमारे बच्चों के विकास में भी देखने को मिलता है। माता-पिता इत्यादि के साथ भी मनमानी एवं अवज्ञा होती है।
यह नकारात्मक व्यवहार की ओर ले जाता है, जो विधाता द्वारा निषिद्ध है, और इसके परिणामस्वरूप हृदय के चारों ओर कलंक जमा हो जाते हैं। यह हृदय और मुहम्मद के संदेश के बीच एक परदा गिरा देता है। हमारा हृदय विधाता के सत्य के प्रति अवरुद्ध हो जाता है, परन्तु चूँकि स्वच्छंद इच्छा आत्मा की होती है, यह आत्मा ही है जिसे यह चाहिए कि बुद्धि की स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करके हृदय से कलंक को हटा दे। बुद्धि की सहायता से हम इस बात में विभेद कर पाते हैं कि विधाता की इच्छा क्या है और क्या नहीं है, और उसका पालन करने या न करने का विकल्प भी हमें प्राप्त होता है।
हृदय को उन्मुक्त करने के इस प्रयास को संघर्ष बताया गया है। यही "जिहाद" शब्द का अर्थ है। यद्यपि इस्लाम के विभिन्न रूपों में ऐसे कई स्तर हैं जिनमें जिहाद शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, इसका मुख्य अर्थ है नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव तथा विधाता की इच्छा की अवज्ञा करने की वासना को दूर करना, तथा एक नैतिक जीवन व्यतीत करना - विश्वास की कमी न होना या वासना या क्रोध के प्रभाव में न आना - इसके पालन हेतु एक आंतरिक संघर्ष या लड़ाई।
इस्लाम के तीन आयाम
विधाता की इच्छा का पालन करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है विधाता की सच्ची आराधना करना। इस्लाम के अंतर्गत इसमें इस्लाम के तीन आयाम समाहित हैं। ये हैं विधाता की इच्छा के आगे अधीन होना या आत्मसमर्पण करना, विश्वास, और, अधिक महत्त्वपूर्ण, वह अवधारणा जिसे इस्लाम में "परिपूर्णता" कहा जाता है।
अधीन होना
अधीन होने का अर्थ है इस बात को पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार करना कि विधाता के अतिरिक्त और कोई विधाता नहीं है और मुहम्मद विधाता के दूत हैं। इसका अर्थ विधाता के नियमों, अर्थात शरिया, को जानना एवं उनका पालन करना भी है। "शरिया" अरबी का शब्द है जिसका अर्थ है नैतिक आचार संहिता के अनुसार जीवन बिताना। विधाता की इच्छा का पालन करने का प्रमुख घटक है शरिया के अनुसार नैतिक जीवन व्यतीत करना। इसके अनुसार दिन में पाँच बार प्रार्थना करना सम्मिलित है, और यह समाज को एकीकृत करने वाली अविश्वसनीय रूप से प्रबल शक्ति है।
कई रूढ़िवादी इस्लामी समाजों में दिन में पाँच बार सबकुछ पूर्ण रूप से ठहर जाता है। थिच न्हाट हान के प्लम गाँव में एक सचेत करने वाली घंटी है, जो समय-समय पर हमें स्मरण कराने के लिए बजाई जाती है कि हम जो कर रहे हैं उसके प्रति सचेतन हो जाएँ। इसे कई स्तरों पर समझा जा सकता है, परन्तु यह केवल एक छोटा-सा अलग-थलग पड़ा गाँव नहीं है, अपितु एक पूरा समाज है जो दिन में पाँच बार विधाता की इच्छा, एक नैतिक जीवन-शैली, का स्मरण करने हेतु ठहर जाता है।
मैंने दलाई लामा की ओर से अफ़्रीका और इस्लामी देशों की यह समझने के लिए यात्रा की है कि हम उनसे क्या सीख सकते हैं। जैंज़िबार में एक रोचक बात यह थी कि उन्होंने इस कड़े इस्लामी अनुशासन का प्रयोग नशेड़ियों से उनकी लत छुड़ाने के लिए किया। यदि किसी के जीवन में एक नशेड़ी जीवन-शैली के स्थान पर एक पूर्ण समयबद्ध कार्य-सारणी हो जिसका उसे पालन करना अनिवार्य हो, और जिसका एक नैतिक आधार भी हो, तो वह उसके जीवन को व्यवस्थित करने में सहायक सिद्ध होता है। जब कोई नशीली दवाओं के व्यसन से ग्रस्त होता है, तो उसका जीवन व्यवस्था-विहीन हो जाता है। यह हमें सोचने पर विवश करता है क्योंकि तिब्बत में भी यही समस्या है। यदि नशेड़ियों को कोई काम करने के लिए दिया जाए, जिसे हम तिब्बती में नगोंद्रो कहते हैं, जिसमें साष्टांग प्रणाम आदि सम्मिलित हैं, और यदि उन्हें एक कठिन दिनचर्या दी जाए, तो यह अत्यधिक सहायक सिद्ध हो सकता है।
अतः, विधाता की इच्छा का पालन करना और नैतिक जीवन जीने का अर्थ है:
- दिन में पाँच बार प्रार्थना करना
- गरीबों के लिए कर का भुगतान करना, जो सभी मुस्लिम अपने समाज के सर्वसामान्य के कल्याण हेतु करते हैं
- रमज़ान के समय उपवास करना; इसे भी जिहाद का एक रूप माना जाता है, आहार इत्यादि के प्रति आसक्ति को दूर करने के लिए एक आंतरिक संघर्ष। यह समय-काल न केवल भोजन और मनोरंजन आदि के प्रति आसक्ति से दूर रहने के लिए, अपितु विधाता के महीने में एक सचेतन जीवन व्यतीत करने के अनुशासन को बनाए रखने के लिए भी होता है।
- इसमें एक तीर्थयात्रा भी सम्मिलित है, जिसमें लोग इस्लाम के पवित्र स्थानों पर जाते हैं और हज़रत मुहम्मद के जीवन की कुछ घटनाओं को फिर से दोहराते हैं। निःसंदेह, यह चित्त को कुरान में प्रकट की गई हज़रत की शिक्षाओं के प्रति सचेत करता है।
विश्वास और परिपूर्णता
दूसरा आयाम, विश्वास, का अर्थ है इस्लाम के मूल सत्यों और विधाता की वाणी, कुरान, के भ्रमातीत होने को स्वीकार करना।
तीसरा, परिपूर्णता, प्रेम की हमारी चर्चा में अत्यंत प्रासंगिक है। इसे प्रायः "प्रेम" के रूप में अनूदित किया जाता है, और इसका अर्थ है चरित्र तथा विधाता की सेवा में उत्कृष्टता। विधाता ने मानव जाति को अपनी उत्कृष्टता, चरित्र के उत्कृष्ट गुणों, तथा विधाता की सेवा करने की क्षमता के युक्त बनाया है। विधाता के भीतर मानव जाति में अपने द्वारा रचित उत्कृष्टता के प्रति सामीप्य तथा प्रेम की भावना है। इन उत्कृष्ट गुणों में प्रेम और दूसरों के प्रति सद्भावना की क्षमता भी सम्मिलित है। विधाता की सेवा में उनकी सम्पूर्ण सृष्टि की प्रेमपूर्ण सेवा समाहित है, और यही सेवा भगवद्भक्ति का एक स्वरूप है।
प्रेम के प्रति यह एक बहुत ही रोचक अवधारणा एवं दृष्टिकोण है। विधाता की सृष्टियों से प्रेम तथा उनकी सेवा करना एवं विधाता के द्वारा रचित उत्कृष्टता, जो हम सब में है, को निभाना विधाता की सेवा करने का एक मार्ग है। प्रेम के लिए अरबी के कई शब्दों में एक शब्द उत्कृष्टता से सामीप्य की अनुभूति कराता है, जबकि दूसरे में अन्य लोगों के प्रति हमारे आचरण और कृत्यों में व्यक्त सामीप्य की भावना अभिप्रेत है। शब्दार्थ तथा केवल कुरान के आधार पर ही हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। हम जब प्रेम के लिए उपयोग किए जाने वाले शब्दों को देखते हैं, तो उनके ये दो निहितार्थ पाते हैं: उत्कृष्टता के प्रति सामीप्य की अनुभूति तथा दूसरों के प्रति किए गए आचरण और कृत्यों में व्यक्त सामीप्य की अनुभूति।
दूसरों के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार करना स्वछन्द इच्छा का कृत्य है। लोग अपनी बुद्धि के उपयोग से इसका चयन कर सकते हैं। विधाता से सामीप्य प्राप्त करने के लिए वे अपनी आतंरिक प्रवृत्ति का अनुसरण करते हैं। यह अत्यंत रोचक है। विधाता हमारी सृष्टि करता है, हमें इस तरह का एक चुंबक देता है जो हमें अपने सृष्टिकर्ता की ओर खींचता है, हमारे भीतर चुनने की स्वछन्द इच्छा की सृष्टि करता है, और साथ ही हर प्रकार के प्रलोभन इत्यादि भी हैं। दूसरों से प्रेम तथा उनकी सेवा करना उस आतंरिक स्वभाव की पूर्ति हेतु विधाता के निकट जाने का मार्ग है। यह निर्धन व्यक्तियों के लिए कर का भुगतान करके या मुस्लिम समाज में सामूहिक सहायता के अन्य मार्गों से हो सकता है। साथ ही, यहाँ अत्यंत रोचक विषय यह है कि मानवता का प्रत्येक सदस्य समान रूप से ईश्वर की रचना है। यह भावना कि सब लोग समान हैं। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा और हृदय में यह सुदृढ़ आतंरिक प्रवृत्ति होती है जो प्रत्येक व्यक्ति को विधाता की ओर आकर्षित कर सकती है।
न्यायकर्ता, दण्डप्रणेता, एवं करुणामय भगवान जो क्षमाकर्त्ता हैं
इसके अतिरिक्त, नैतिकता युक्त इस्लाम में विधाता सबके साथ समान निष्पक्षता से न्याय करता है तथा केवल उन लोगों से प्रेम करता है जो विधाता की इच्छा के अधीन रहते हैं, और शरिया के अनुसार यही हमें नैतिक जीवन की ओर ले जाता है। सकल समाज के कल्याण के लिए, विधाता उन लोगों को दंडित करते हैं जो उनकी अवज्ञा करते हैं और हानि पहुँचाते हैं। इसलिए, विधाता की सेवा और प्रेम के रूप में, मानव जाति को शरिया के विधान का अनिवार्य रूप से पालन करना आवश्यक है। इस प्रकार, मुस्लिम समाज में कानून और न्याय दोनों की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
हमारे यहाँ सभी पाश्चात्य समाजों में भी विधि-शासन का प्रावधान होता है जिसकी व्युत्पत्ति यहूदी-ईसाई परंपरा के पूर्व विधान से हुई है। यहाँ निर्णय और प्रतिफल हैं; यदि हम विधान का पालन करते हैं तो समाज हमसे प्रेम करता है और हमारा ध्यान रखता है, और यदि हम अवज्ञा करते हैं तो हमें दंडित करता है। इस प्रकार पश्चिमी दृष्टिकोण से यह अवधारणा बिल्कुल बेगानी नहीं है।
यदि कोई भी इस आंतरिक संघर्ष, अपनी आत्मकेन्द्रिता के विरुद्ध इस जिहाद, में जुट जाता है, और यह अपने विधाता और उसके प्रेम से मुँह मोड़ने का कारण बन जाता है, तो भी सच्चे मन से पश्चाताप करने पर वह विधाता की क्षमा को अर्जित कर लेता है। इसकी इस्लाम में मुख्य भूमिका है; विधाता करुणामय है, जो सदा क्षमा करता है। विधाता उन पापकर्त्ताओं के हृदय में प्रवेश करता है जो पश्चाताप करना चाहते हैं और उनकी पश्चाताप करने में सहायता करते हैं और फिर उन्हें क्षमा कर देते हैं।
हम इसे बौद्ध धर्म की तुलना में देख सकते हैं; पश्चाताप में ग्लानि की भावना होती है। हमने जो किया उसके लिए हम संतप्त होते हैं; और हम पश्चाताप करते हैं और हमें हानि पहुँचाने वाले लोगों के प्रति द्वेष को त्याग देते हैं कि उन्होंने हमें हानि पहुँचाई। फिर हमने जो दुराचार किया है उसका प्रतिकार करने के लिए, पुण्य कर्म, और हम उस दुराचार को दोबारा न करने का संकल्प लेते हैं। यह वही निष्कर्ष है जो कुरान से सीधे तौर पर निकलता है।
शरिया और क्षमाशीलता
शरिया के न्यायालयों में क्षमाशीलता भी सम्मिलित है। शरिया का यह अविश्वसनीय पहलू है जिसके बारे में हम ज़्यादा नहीं सुनते। हम केवल उनके दंड के बारे में ही सुनते हैं, जो अत्यंत कठोर होते हैं, परन्तु अपराध के भुक्तभोगी व उसके परिवार के पास विकल्प भी होता है। वे या तो कठोर दंड या किसी प्रकार की क्षतिपूर्ति, जैसे प्राचीन काल में बकरी, ऊँट इत्यादि, या कोई आर्थिक प्रतिपूर्ति, या फिर क्षमादान भी चुन सकते हैं। वे क्षमा कर सकते हैं। यदि भुक्तभोगी या उसका परिवार अपराधी को क्षमा कर देता है तो उस अपराधी को मुक्त कर दिया जाता है।
वैधानिक संदर्भ में क्षमा की यह प्रथा भी विधाता की सेवा का एक उत्कृष्ट कार्य है। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और, शरिया के विधान को लागू करने के संदर्भ में, रोचक भी। पश्चिम में कभी-कभी लोग बहुत उलझन में पड़ जाते हैं। जब विधान का इतना कठोर रूप है, और क्षमा के इस आयाम को प्रायः कोई नहीं जानता, तो समाज उसे क्यों चाहेगा? सोमालिया जैसी जगहों पर, जहाँ अत्याचारी सामंतों और अराजकता का बोलबाला है और जो स्थान इतने भयानक रूप से खतरों से भरे हैं, लोग किसी प्रकार की व्यवस्था चाहते हैं। उनकी संस्कृति से शरिया की उत्पत्ति होती है। यदि उनके पास यह है, तो वे सुरक्षित अनुभव कर सकते हैं। वे जानते हैं कि चोर का हाथ कटेगा ही। यह चोरी करने की प्रवृत्ति को केवल जेल में डालने से कहीं अधिक हतोत्साहित करता है। यह एक प्रकार की व्यवस्था का आश्वासन है जो अत्यंत मोहक लगता है।
इसके अतिरिक्त, अफ़्रीका में यात्रा करते समय यह पता चलता है कि इस्लाम ही वह धर्म है जो वहाँ सबसे अधिक फैल रहा है। हम पूछ सकते हैं क्यों? लोगों का कहना है कि इसका कारण है समानता का एहसास, बंधुत्व, जहाँ सभी समान होते हैं। जब वे पश्चिम के बारे में सोचते हैं तो उन्हें उपनिवेशवादी शक्तियों की याद आती है जहाँ गोरी चमड़ी वाली उपनिवेशवादी शक्तियों एवं अफ़्रीकियों में समानता का कोई भाव ही नहीं था। यही है कई अफ़्रीकी देशों में इस्लाम का एक बहुत बड़ा आकर्षण और सम्मोहन।
जब लोग ब्रह्मांड और मानवता के प्रति शुद्धतम प्रेम विकसित करते हैं, तो इस्लाम में उनका प्रेम मूल रूप से ब्रह्मांड या मानवता के लिए नहीं होता। इस्लाम में यह प्रेम विधाता एवं विधाता के द्वारा रचित उत्कृष्टता के प्रति होता है। प्रेम के पीछे यही तात्त्विक विचार है। सार्वभौमिक समानता के आधार पर प्रेम का यह विकास, प्रेम के विस्तृत विकास की ओर ले जाता है। ऐसा नहीं है कि हम एक से प्रेम करते हैं परन्तु दूसरे से नहीं। जब लोग परहित और इस प्रकार की उत्कृष्टता के लिए प्रयास करते हैं, तब वह प्रेम सब लोगों के लिए होता है। विधाता ने यह सद्गुण और सद्वृत्ति सबको दी है, और इसी से लोग सबसे प्रेम करने की क्षमता प्राप्त करते हैं। यदि लोग क्रोध और वासना के अधीन होकर हिंसक रूप से कार्य करते हैं, तो सबसे पहले उन्हें पश्चाताप करने तथा नैतिक जीवन की ओर मुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। यही इस्लाम में प्रेम का तात्त्विक आधार है।
बौद्ध-धर्म के मूल सिद्धांत
जब हम बौद्ध धर्म की ओर मुड़ते हैं, तो प्रेम को विकसित करने के विषय में हमारी एक अलग ही अवधारणा है, परन्तु रोचक विषय यह है कि इन दोनों धर्मों में बहुत-सी समानताएँ भी हैं।
बुद्ध-धातु की अनादि या सृष्टिकर्ता विधाता से रहित अन्तर्जात विशेषता
बौद्ध धर्म में, सभी जीवों में शुद्ध एवं अनादि बुद्ध-धातु होती है। यह उन्हें स्वयं बुद्ध बनने की क्षमता देती है। इस्लाम में, शुद्ध सहज स्वभाव लोगों को विधाता के निकट जाने, और कुछ सूफ़ी सम्प्रदायों के अनुसार तो विधाता में लीन होने के लिए भी सहायक सिद्ध होता है, परन्तु वे स्वयं कभी भी विधाता नहीं बन सकते। जबकि बौद्ध-धर्म में यह सहज स्वभाव, यह बुद्ध-धातु, सबको बुद्ध बना देती है। इन मिलती-जुलती बातों के पृथक तात्त्विक दृष्टिकोण एवं व्याख्याएँ हैं।
बौद्ध धर्म में, किसी ने भी इस बुद्ध-धातु की जीवों में सृष्टि नहीं की। वह अस्तित्वमान है, प्राकृतिक रूप से और अनादि। इस्लाम के अनुसार विधाता इसकी सृष्टि करता है। यह एक अलग दृष्टिकोण है, क्योंकि यदि हम यह पूछते हैं कि क्या विधाता का कोई आदि है, तब विधाता तो अनादि है। हमारा उत्तर फिर भी अनादि ही रहेगा परन्तु बौद्ध-धर्म में हम उस प्रकार के किसी सृष्टिकर्ता विधाता को नहीं मानते हैं।
बौद्ध-धर्म के अनुसार, लोगों में जन्मजात करुणा और मेधा जैसे सद्गुण भी होते हैं जो हितकारी और अहितकारी तत्त्वों के बीच विभेद करने में सक्षम हैं। बौद्ध-धर्म और इस्लाम इसपर सहमत हैं, और विज्ञान भी इस बात से सहमत है कि यह हमारी सहजवृत्ति का अंश है, स्वयं को संभालने - उत्तरजीविता की प्रवृत्ति - और प्रजाति के अन्य सदस्यों की देखभाल करने की भी प्रवृत्ति। यह अंतर्विरोधी नहीं हैं। हम सबके भीतर उपयोगी तथा अपयोगी तत्त्वों में विभेद करने की क्षमता है।
नैतिक अनुशासन
बौद्ध-धर्म में नैतिक अनुशासन इस बोध पर आधारित है कि कौन-से कार्य दुख देते हैं और कौन-से सुख। इस बात को बुद्ध ने सिखाया; उन्होंने इसे वैसा नहीं बनाया जैसे इस्लाम में, जहाँ विधाता ने नैतिक कार्य-कारण के नियमों को बनाया। बौद्ध-धर्म में, सविवेकी सचेतनता से व्यक्ति स्वयं अपने लिए उपयोगी एवं अपयोगी आलम्बनों का विश्लेषण करके विभेद करने की क्षमता रखता है। यहाँ इस कार्य के लिए बुद्धि का उपयोग किया जाता है, जबकि इस्लाम में इसकी भिन्न अवधारणा है। वहाँ बुद्धि का उपयोग यह निर्णय करने के लिए किया जाता है कि सभी सृष्टियों से प्रेम करने और नैतिक जीवन व्यतीत करने की विधाता की आज्ञा का पालन करना है या उसकी अवज्ञा।
इस्लाम के अनुसार विधाता ने नैतिक आचरण के नियमों की सृष्टि की और विधाता ही स्वयं इनाम एवं दंड का निर्णय भी देता है। बौद्ध धर्म के अनुसार विनाशकारी व्यवहार से स्वतः दु:ख, और रचनात्मक व्यवहार से स्वतः सुख होता है। यदि हम अशांतकारी मनोभावों और अज्ञानता के प्रभाव में रहकर कार्य करते हैं तो प्रकृति के कार्य-कारण के नियमों के अनुसार यह दुख देगा; जबकि, इस्लाम के अनुसार विधाता ही है जो हमें इसके लिए दंडित करता है। परिणाम समरूप हैं, परन्तु समझाने की विधियाँ अलग-अलग।
इसी प्रकार बौद्ध-धर्म के अनुसार इन अशांतकारी मनोभावों के अधीन कार्य करने से स्वयं को रोकना रचनात्मक माना गया है। यदि कोई प्रेम और करुणा-युक्त भाव से दूसरों की सेवा करता है, तो सुख की प्राप्ति होगी। इस्लामी दृष्टिकोण से विधाता हमें इनाम देता है; हम विधाता और अपनी अन्तर्जात निर्मल प्रकृति के निकट जाते हैं। दोनों बातें एक समान हैं, परन्तु प्रश्न यह है कि कार्य-कारण किस प्रकार काम करते हैं। इस प्रश्न और बिंदु को समझना वास्तव में कठिन है। बौद्ध-धर्म यह कहता है कि बस ऐसा ही है, और बुद्ध ने जो अन्य बातें कही हैं उनके आधार पर हम उन्हें जानकारी का वैध स्रोत मानते हैं। इस्लाम में, वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि विधाता ने इसकी सृष्टि की है, बस, और यह दोषरहित और सत्य है।
बुद्ध में आस्था और शरण
बौद्ध-धर्म के अनुसार विश्वास का वास्तविक स्वरुप है तर्क और युक्ति के आधार पर यह सिद्ध करना कि बुद्ध ज्ञान के वैध स्रोत हैं। आखिरकार बुद्ध ने स्वयं कहा कि उनकी बातों पर हम स्वयं सवाल करें और उनका विश्लेषण करें। इस्लाम में पूर्ण शरणागति और विश्वास की अपेक्षा की जाती है। ये दोनों बहुत भिन्न हैं। हमें जब बुद्ध के ज्ञान का वैध स्रोत होने का पूर्ण विश्वास हो जाता है तो हम उनकी शरण में जाते हैं। शरणागति का अर्थ है सुरक्षित दिशा जो हम अपने जीवन को देते हैं और जो मूलतः हमें अपनी बुद्ध-धातु के निकट लाती है। यह वही है जो हमें हानि और भटकाव से बचाती है।
हम इसे इस्लामी दृष्टिकोण से ऐसे समझ सकते हैं कि हमें अपने जीवन में एक प्रकार की दिशा की आवश्यकता है। परन्तु, इस्लाम के विपरीत, बुद्ध की शरणागति का अर्थ यह नहीं है कि हम बुद्ध की पूजा करें, यद्यपि कई लोग हैं जो इसे ऐसा मानते हैं। यदि हम इसे शिक्षाओं के संदर्भ में देखें, तो यह कोई अंधविश्वास नहीं है, केवल "बुद्ध, बुद्ध, आप कितने अद्भुत हैं," और न ही यह वैसी शरणागति है जैसे कि इस्लाम में है।
यदि हम और गहराई में उतरें तो यह बहुत रोचक हो जाता है क्योंकि वास्तव में विधाता के प्रति शरणागति का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है आत्म-केंद्रित भाव या स्वेच्छाचार तथा इस सोच को त्यागना कि हम सर्वज्ञ हैं, हम जानते हैं कि हमारे लिए क्या सर्वोत्कृष्ट है। इस विषय में बौद्ध-धर्म क्या कहता है? वह यह कहता है कि हमें आसमान पर उड़ना छोड़कर यह सोचना बंद करना होगा कि हम ब्रह्मांड की धुरी हैं, सबसे महत्त्वपूर्ण भाग, इत्यादि।
फिर, यह तो हमें जो करना है उसका केवल एक अन्य रूप है। हमें, एक प्रकार से, आत्म की इस ठोस अवधारणा को समझने के लिए शरणागत होने की आवश्यकता है। बौद्ध-धर्म के अनुसार, निश्चित रूप से आत्म का अस्तित्व तो है ही, परन्तु ऐसा नहीं है कि यह कोई ठोस वस्तु है जिसे सदैव हावी रहना है, सदैव सही होना है, सदैव प्रमुख बने रहना है, सदैव सबके ध्यान के केंद्र में ही रहना है, इत्यादि। इसके कारण हमें अपने जीवन में अत्यधिक परेशानियों एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। हमें इसे त्यागना होगा और इसे छोड़ देना होगा। ये भिन्न-भिन्न दार्शनिक सरणियाँ एवं अवधारणाएँ हैं, परन्तु परिणाम मूलतः समरूप होती हैं।
धर्म की शरणागति और नैतिक अनुशासन का आधार
"धर्म" शब्द का अर्थ है एक निवारक उपाय, जो हमें दुःख से दूर रखता है। इसका संकेत बुद्ध की शिक्षाओं से मिलता है। शिक्षाएँ वह होती हैं जिनका विश्लेषण हम सत्य को जानने के लिए करते हैं। यह कुरान और शरिया की तरह कोई अटूट आस्था नहीं है। धर्म कोई पवित्र ग्रंथ या कानूनी व्यवस्था नहीं है। यह रोचक बात है कि चीनियों ने "धर्म" शब्द का "कानून" के रूप में अनुवाद किया, और वे बौद्ध-धर्म को उसके द्वारा देखते हैं जिसे हम चीनी चश्मा कह सकते हैं और उन्होंने उसे कन्फ़्यूशियस की संस्कृति के संदर्भ में समझा है।
जो भी हो, भारतीय या तिब्बती बौद्ध धर्म में नियम की कोई विशेष भूमिका नहीं है जिस तरह से पश्चिम में हमारी यहूदी-ईसाई-इस्लामी परंपराओं में पाया जाता है। वास्तव में ये ऐसे नियम नहीं हैं जिनका हम पालन करते हैं या कोई ऐसा विचार कि यदि हम नियम का पालन करते हैं, तो हम अच्छे व्यक्ति हैं। यह हमारे पश्चिम में प्रचलित है और इसकी पृष्ठभूमि न केवल बाइबिल है, अपितु इसे प्राचीन यूनानी समाज से भी ग्रहण किया गया है। यदि हम कानून का पालन करते हैं, तो हम अच्छे नागरिक हैं। नियम या तो विधाता द्वारा बनाए गए हैं या विधान-मंडल द्वारा, तथापि नैतिकता की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है और आज्ञाकारिता पर आधारित है।
इसके विपरीत, बौद्ध-धर्म में नैतिकता आज्ञाकारिता-आधारित नहीं है। यह शुद्ध विवेक पर आधारित है जिससे हम यह समझते हैं कि यदि हम विनाशकारी रूप से कार्य करते हैं तो इससे अनेक समस्याएँ पैदा हो सकती हैं - समाज के लिए और अपने लिए भी। उदाहरण के लिए, कीड़ों को मारना: आइए हम इसका विश्लेषण करते हैं, यदि हमारे इर्द-गिर्द भिनभिनाने वाले कीड़े को चपत लगाकर मारने की हमारी मूल वृत्ति है तो हमें उस मूल वृत्ति के बारे में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। अब एक कुत्ते को ही ले लीजिए; यदि हम कुत्ते पर प्रहार करते हैं, तो वह भौंकता है या गुर्राता है। क्या हम भी कुत्ते की तरह हैं? यदि हमें कोई वस्तु पसंद नहीं है तो क्या हमारी मूल वृत्ति उसपर हमला करने, चोट पहुँचाने, और उसे मार देने की होती है? अब हम इस बात की गंभीरता को ग्रहण कर सकते हैं कि यह विनाशकारी है और दुख और समस्याएँ पैदा कर सकता है। यदि हम किसी नवागंतुक को देखते ही उसपर हमला कर देते हैं तो हमारा चित्त कदापि निश्चल और शांत नहीं रह सकता।
ज़रा सोचिए कि यदि हम सोने की चेष्टा कर रहे हैं और चारों ओर मच्छर भिनभिना रहे हैं, तो हम कितने उत्तेजित हो जाते हैं; अधिकतर लोग तो उसे केवल ढूँढ़कर पकड़ना चाहते हैं। यह इस तरह की बात है जिसका हम विभेद करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि मच्छरों को मारना विधि-विरुद्ध है, और अगर हम उन्हें नहीं मारते हैं तो हम अच्छे नागरिक या अच्छे मुस्लिम या ईसाई बन जाते हैं।
यह एक अलग अवधारणा है, और नैतिकता के प्रति यह दृष्टिकोण हमें चिंतन करने के लिए बहुत-सी सामग्री प्रदान करता है। हमारे नैतिक व्यवहार का कारण क्या है? फिर से केवल एक स्वगत टिप्पणी, जब मैं बर्लिन में, जहाँ मैं रहता हूँ, बौद्ध नैतिकता के बारे में पढ़ा रहा था, मैंने अपने छात्रों से पूछा कि वे चोरी क्यों नहीं करते। कुछ लोगों ने उसका कारण निकृष्ट पुनर्जन्म का डर इत्यादि बताया। मैंने उनसे पूछा कि क्या वास्तव में उनकी वही प्रेरणा थी। वास्तव में किसी का भी उसमें विश्वास नहीं था। मैंने उस बात को एक ओर रखते हुए पूछा, "आप चोरी क्यों नहीं करते?" तो जो उत्तर आया वह था कि वह ठीक नहीं लगता। बस, कारण यही है।
ठीक यही बौद्ध-धर्म कहता है, कि नैतिक व्यवहार के पीछे आत्म-गरिमा और आत्म-सम्मान की भावना है, कि हमारे भीतर इतना अधिक आत्म-सम्मान है कि हम उस तरह के काम नहीं करते। यह हमारी, हमारे परिवार की, हमारे मूल्यों, इत्यादि सब की छवि कलंकित करता है। इसी को बौद्ध-धर्म नैतिक व्यवहार का आधार मानता है। इसी के आधार पर, तथा अपनी अद्भुत मानव मेधा एवं क्षमता के साथ, इसमें विभेद करते हैं और इस बात का चुनाव करते हैं कि क्या उपयोगी होगा और क्या हानिकारक। हम कोई हानिकारक कार्य नहीं करना चाहते क्योंकि ऐसे कार्य हमारे आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाते हैं। बौद्ध-धर्म में इस बात को प्रस्तुत करने का कितना अद्भुत ढंग है। यह आज्ञाकारिता की बात नहीं है। अंत में तो निश्चित रूप से बात नैतिक आचरण की ही है, परन्तु प्रश्न यह है कि हम इसे किस प्रकार व्यवहार में लाते हैं। तो, इसके लिए बौद्ध-धर्म में बुद्ध में शरणागति, धर्म में शरणागति, और उसके बाद, संघ में शरणागति का प्रावधान है।
संघ में शरण लेना: इस्लामी भाईचारा और बहनापे से तुलना
संघ उन लोगों का समुदाय है जो बौद्ध पथ पर हैं, और ऐसा नहीं है कि मठीय समुदाय में इसका केवल एक पारंपरिक प्रतिनिधित्व है, अपितु ये सब बोधिसत्त्व हैं। क्या इस्लाम में इसका किसी प्रकार का कोई समकक्ष है? हो सकता है कि सभी मुसलमानों का भाईचारा एक सहायक समुदाय के रूप में काम करता हो। संघ का मुख्य कार्य है हमें इस बात से प्रोत्साहित करना कि बुद्ध बनने के पथ पर और भी लोग हैं। एक बुद्ध से सभी बौद्ध-गुणों के साथ जुड़ना बहुत कठिन है, परन्तु यहाँ ऐसे लोग हैं जो उस ओर प्रयासरत हैं और उनकी प्रगति भी हुई है, और हम अकेले नहीं हैं। यह हमें एक समुदाय के रूप में कुछ समर्थन तो देता है।
इस्लाम में, सभी मुसलामानों का भाईचारा और बहनापा है। उदाहरण के लिए, आप चाहे जितने भी अमीर या गरीब क्यों न हों, हज पर सभी एक जैसी पोशाक पहनते हैं। यहाँ समानता की भावना है। बौद्ध धर्म में रोचक बात यह है कि बौद्ध पथ पर नहीं चलने वालों के प्रति किसी प्रकार की नैतिक निंदा नहीं है; इसलिए, उन्हें क्षमा करने या धर्मान्तरित करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। इस्लाम में यह कुछ अलग है।
आच्छादित बुद्ध-धातु: आवरण से ढँके हृदय से समानताएँ
बौद्ध-धर्म इस बात पर बल देता है कि हमारी बुद्ध-धातु निर्मल होते हुए भी, अनभिज्ञता या अज्ञान के कारण यथार्थ की वास्तविक प्रकृति को हमारा चित्त स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाता है। इन आच्छादनों को ही ले लीजिए, बुद्ध-धातु अज्ञान के बादलों से आच्छादित है। यह बहुत कुछ इस्लाम के अभिकथन जैसा लगता है। यह अशांतकारी मनोभावों के बारे में बात करता है कि हृदय पर परदा पड़ा हुआ है, और वे हृदय को ढँकने वाले पर्दों का वर्णन करते हैं। सूफ़ीवाद में, जो इस्लाम का एक उप-विभाग है, वे इन पर्दों को हटाने की बात करते हैं। यह एक समरूप रूपक है। यह अज्ञानता आत्म-केंद्रित भाव, अशांतकारी नकारात्मक मनोभावों और विनाशकारी व्यवहार की ओर ले जाती है।
बौद्ध-धर्म में कोई भी यथार्थ को समझकर प्रेम, करुणा, और बोधिचित्त के विकास द्वारा अपनी वास्तविक प्रकृति पर से इन आच्छादनों या आवरणों को हटा सकता है। बोधिचित्त वह मन है जो हमारे वैयक्तिक ज्ञानोदय पर केंद्रित है, जो ज्ञानोदय अभी तक नहीं हुआ है, परन्तु बुद्ध-धातु के आधार पर हो सकता है। यह विधाता पर ध्यान केंद्रित करने से अलग नहीं है। निश्चय ही, विधाता और बुद्ध पृथक हैं, परन्तु अपनी निर्मल अन्तर्जात प्रकृति, जिसके निकट जाना और जिसे प्राप्त करना हमारा लक्ष्य है, उसपर ध्यान केंद्रित करने का यह विचार बौद्धों और मुसलमानों दोनों के लिए अत्यंत शक्तिशाली प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करता है।
इस्लाम की तुलना में बौद्ध-धर्म में प्रेम का विकास
प्रेम की परिभाषा
बौद्ध-धर्म में प्रेम की परिभाषा दूसरों के लिए सुख तथा सुख के कारणों की प्राप्ति की अभिलाषा के रूप में दी गई है। यह इस बोध पर आधारित है कि सब लोग एक समान हैं क्योंकि सब आनंद ही चाहते हैं। कोई भी दुःखी होना नहीं चाहता। इस प्रकार सुख की कामना ही जीवन का लक्ष्य है। पौधे बढ़ते हैं और आनंद के लिए धूप चाहते हैं; सामान्य जीवन में आनंद की कामना के काव्यात्मक निरूपण को हम जहाँ तक चाहें ले सकते हैं।
प्रेम का विकास
बौद्ध-धर्म में, दूसरों के लिए सुख की अभिलाषा इस बोध पर आधारित है कि सब जीवों में सुखी रहने की क्षमता है क्योंकि हम सब के पास बुद्ध-धातु है। इसके अतिरिक्त हम सबको सुखी रहने का समान अधिकार है। इस्लाम में भी कुछ ऐसी ही अवधारणा है। वहाँ प्रेम एक-दूसरे की परस्पर निर्भरता तथा दूसरों से प्राप्त करुणा की स्वीकृति और कृतज्ञता पर भी आधारित है। इस्लाम के अंतर्गत दूसरों से प्राप्त करुणा पर नहीं, अपितु उस करुणा पर बल दिया जाता है जो हम सबके सृष्टिकर्ता विधाता से मिली है। यह सार्वजनीन समानता का एक किंचित पृथक दृष्टिकोण है।
बौद्ध-धर्म में प्रेम का विकास दूसरों के सुख को ध्यान में रखकर किया जाता है। हम ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर कार्यरत हैं ताकि हम सदैव दूसरों की और अधिक अच्छे ढंग से सहायता करने में सक्षम बन सकें। दूसरों से प्रेम करना और उनकी सेवा करना बुद्ध की पूजा करना नहीं होता, जबकि इस्लाम में दूसरों से प्रेम करना और उनकी सेवा करना विधाता की पूजा करने के समान है। फिर भी, हम दूसरों की सहायता करते हैं, और परिणाम वही होता है।
जब हम दूसरों से प्रेम करते हैं तब हमारे भीतर एक सकारात्मक बल का विकास होता है जिसके द्वारा हम स्वयं बुद्ध बन सकते हैं। इस अर्थ में हम बुद्धत्व के निकट आते हैं, परन्तु इसके ठीक विपरीत इस्लाम के अनुसार हम स्वयं बुद्ध के निकट आते हैं। बुद्धत्व एवं स्वयं बुद्ध बनने के लक्ष्य और बुद्ध के निकट आने में बहुत अंतर है। बौद्ध-धर्म में हम बुद्ध को एक व्यक्ति के रूप में नहीं देखते। बुद्ध एक शिक्षक के रूप में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, परन्तु एक सृष्टिकर्ता के रूप में नहीं जिनकी हम पूजा करते हों।
विधाता के दंड की तुलना में प्राकृतिक कार्य-कारण
दूसरों से प्रेम करने के लिए हमें स्वयं आत्म-पोषण से उबरने की आवश्यकता है। इस्लाम में कुछ ऐसा ही है जहाँ आंतरिक जिहाद एक संघर्ष है आत्म-केन्द्रित भाव और विधाता की इच्छा की अवज्ञा के विरुद्ध। परन्तु, बौद्ध-धर्म में हमें बुद्ध से अपने पापों या कुकर्मों या अज्ञानता के वशीभूत होकर कार्य करने के लिए क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं है। जब हम दूसरों को नकारात्मक, विनाशकारी ढंग से काम करते हुए देखते हैं, तो इसका कारण यह नहीं है कि वे बुरे या अवज्ञाकारी हैं। वह इसलिए है क्योंकि वे अज्ञान के कारण भ्रमित हैं और यह बिल्कुल नहीं समझते कि वे क्या कर रहे हैं और उनके कर्मों के परिणाम क्या होंगे। हम इसे करुणा का आधार बनाते हैं। एक तरह से कहा जाए तो ऐसा नहीं है कि हम उन्हें क्षमा कर रहे हैं, अपितु हम उन्हें समझने का प्रयास कर रहे हैं और उस तरह से प्रेम और करुणा को विकसित कर रहे हैं।
इसलिए जब विनाशकारी कृत्यों के कारण दुःख होता है तो यह दंड नहीं होता, अपितु कार्य-कारण के नियमों का स्वाभाविक परिणाम होता है। हम विधाता के नियमों को निष्पादित करने का उत्तरदायित्त्व स्वयं पर लेकर दूसरों को दण्ड नहीं देते हैं। तिब्बत और भारत के इन बौद्ध समाजों में भी निश्चित रूप से एक वैधानिक व्यवस्था थी; परन्तु यह विधाता के द्वारा बनाए गए पवित्र नियमों पर आधारित नहीं थी, और न ही यह थी कि हम विधाता की इच्छा को लागू करके पृथ्वी पर विधाता का कार्य कर रहे हैं। यह बहुत अलग है।
पश्चाताप के संबंध में बौद्ध-धर्म और इस्लाम में समानताएँ
बौद्ध-धर्म में पश्चाताप की वही अवधारणा है जो इस्लाम में है, और इनकी समानताएँ अत्यंत रोचक हैं:
- दोनों में हमें अपनी भूलों को स्वीकार करने की आवश्यकता है, बौद्ध-धर्म के अनुसार अज्ञानता से हुई भूलों को, न कि इस्लाम की तरह अवज्ञा से।
- हम पछताते हैं, जैसा कि इस्लाम में होता है।
- हम अपने कुकर्मों को दोबारा न करने का संकल्प लेते हैं, जैसा कि इस्लाम में होता है।
- हम जीवन में जिस सकारात्मक दिशा में जा रहे हैं उसकी पुष्टि करते हैं। यह विधाता से क्षमा याचना करने जैसा नहीं है, परन्तु यह सकारात्मकता की पुनःपुष्टि करता है। विधाता से क्षमा माँगकर हम फिर से उस सकारात्मक दिशा की ओर जाते हैं।
- अंत में, हम सकारात्मक कार्यों के द्वारा अपनी भूलों का प्रतिकार करते हैं। इस्लाम में भी ऐसा ही होता है।
स्पष्टतः बौद्ध-धर्म में कई बातें हैं जो इस्लाम के सदृश हैं, और कई हैं जो सदृश नहीं हैं। अंततः दोनों प्रेम, करुणा, धैर्य, क्षमाशीलता इत्यादि सिखाते हैं। जब हम विश्व के इन दो महान धर्मों के बीच की समानताओं को पहचान सकते हैं और समझ सकते हैं तो, तात्त्विक भेदों के होते हुए भी, संवाद, धार्मिक समरसता, और एक दूसरे से सीखने का आधार तो विद्यमान है ही।
प्रश्न और उत्तर
एक दूसरे से सीखना
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य धर्मों के साथ संवाद के बारे में बोलते हुए दलाई लामा प्रायः यह संस्तुत करते हैं कि हम दूसरों को परिवर्तित करने की चेष्टा न करें, अपितु उन्हें अपने ही विश्वास में प्रेरित करें। यह उत्तम होगा कि वे अपने विवेक के उपयोग से अपनी ही आस्था को एक पृथक दृष्टिकोण से ग्रहण करने का प्रयास करें। इस संवाद के बारे में आपकी क्या राय है?
जैसा कि मैंने कहा, और दलाई लामा भी यही कहते हैं, ऐसी बहुत-सी बातें हैं जो सभी धर्म एक दूसरे से सीख सकते हैं। उदाहरण के लिए, बौद्ध-धर्म एकाग्रता, प्रेम, और करुणा इत्यादि विकसित करने के मार्गों में बहुत संपन्न है। उदाहरण के लिए, मननशील सम्प्रदायों ने यह पाया है कि बौद्ध-धर्म से वे बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमने यह विशेष रूप से ईसाई कैथलिक मठों से जाना है कि लोग ध्यान-साधना के बारे में जानने के लिए यहाँ आते हैं, जिस जानकारी का प्रयोग वे अपने धर्म में कर सकते हैं।
दलाई लामा हमेशा कहते हैं, विशेष रूप से ईसाई धर्म के सन्दर्भ में, कि विशिष्ट रूप से तिब्बती बौद्ध लोग मठीय समुदायों से समाज सेवा करना सीख सकते हैं। विभिन्न भौगोलिक कारणों से मठीय पाठशालाओं, अनाथालयों, वृद्धाश्रमों, अस्पतालों आदि की सेवाओं का तिब्बत में विकास नहीं हो सका। हम यह देखते हैं कि मदर टेरेसा की गतिविधियों से हम निश्चित रूप से ये बातें सीख सकते हैं।
तो हम इस प्रकार के परस्पर विनिमय की बात कर रहे हैं। जैसा कि मैंने कहा, मैंने जैंज़िबार में जिस परिघटना को प्रत्यक्ष रूप से देखा और उसके बारे में बताया, कि इस्लाम नशीली पदार्थों के व्यसन में लिप्त लोगों को उस व्यसन से छुटकारा दिलाने में किस प्रकार एक निर्धारित आध्यात्मिक साधना का प्रयोग कर रहा था। यह अत्यंत सहायक है। इस प्रकार धर्मांतरण के बिना ही धर्मों के बीच एक अत्यंत उपयोगी आदान-प्रदान हो सकता है।
दलाई लामा जिस बात में विशेष रूप से रुचि रखते हैं, वह यह है कि प्रत्येक धर्म के गंभीर चिन्तकों के साथ निजी बंद बैठकें हों जहाँ सब अपने-अपने अनुभवों का विचार-विनिमय करें। यदि ऐसा हो सके तो यह बहुत ही अच्छा होगा।
सार्वभौमिक मूल्य
ऐसा लगता है कि, इस्लाम के साथ इस विस्तृत तुलना में, आप संभवतः यह कह रहे हैं कि हमें आत्म-मुग्ध नहीं होना चाहिए और न ही यह सोचना चाहिए कि बौद्ध-धर्म सर्वोत्कृष्ट है। इस तरह, यह अत्यंत सकारात्मक प्रतीत होता है क्योंकि किसी भी प्रकार का विश्वास आत्मबद्ध हो जाता है। इस्लाम के लिए चित्त का द्वार खोलना अन्य विचारधाराओं के लिए भी उस द्वार को खोलने का एक मार्ग है।
हाँ, मैं इससे पूरी तरह सहमत हूँ। दलाई लामा कहते हैं कि ऐसा कोई धर्म नहीं है जो सबके लिए उत्तम हो, जिस प्रकार ऐसा कोई भोजन नहीं है जो सबके लिए उत्तम हो, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति यह निर्णय स्वयं ले सकता है कि उसके लिए उत्तम क्या है, उचित मार्ग क्या है। हम इसे दूसरों पर आरोपित नहीं कर सकते। ये मूलभूत सार्वभौमिक मूल्य सभी धर्मों में पाए जाते हैं और सभी के लिए वैध हैं, यहाँ तक कि उनके लिए भी जो किसी भी धर्म का पालन नहीं करते। यही महत्त्वपूर्ण है। परम पावन इस बात से बहुत चिंतित हैं कि प्रेम, करुणा, धैर्य, क्षमा के इन मूलभूत सार्वभौमिक मूल्यों का किस प्रकार संचार किया जाए, इस संवाद को किस प्रकार आगे बढ़ाया जाए, और किस प्रकार इन सार्वभौमिक मूल्यों को शिक्षा प्रणाली में समाविष्ट किया जाए। वास्तव में इसे विश्व में लाने का सही मार्ग है स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों को ये आधारभूत मूल्य सिखाना आरम्भ करना। यह कितना सरल हो सकता है इसका एक उदाहरण यह है: यदि हम क्रोधित या हताश होने लगते हैं तो दस तक गिनें, या अपने श्वास पर तीन श्वासोच्छ्वास तक ध्यान केंद्रित करें, या झगड़े के स्थान पर वार्तालाप करें।
भारत और अमरीका में कुछ शिक्षाशास्त्री इस अवधारणा को शिक्षा प्रणालियों में सम्मानपूर्ण और, जैसे परम पावन कहते हैं, धर्मनिरपेक्ष ढंग से, अर्थात सभी धर्मों के प्रति उदार भाव रखते हुए, किसी एक धर्म विशेष से सम्पृक्त हुए बिना, क्रमशः सन्निविष्ट करने के लिए पाठ्यचर्या का विकास कर रहे हैं।
क्या इस्लाम में ज्ञानोदय की अवधारणा है?
जब आपने इस्लाम में उस बोध या प्रथा के बारे में बात की जिसके द्वारा आप विधाता के निकट जाने या उनसे एकात्म हो जाने का प्रयास करते हैं, तो क्या इस्लाम में ज्ञानोदय का कोई बोध है, और यदि हाँ, तो इसका बोध किस प्रकार होता है?
विधाता के निकट आने की अवधारणा इस्लाम में सामान्य रूप से पाई जाती है, जबकि विधाता से एकात्म हो जाना केवल कुछ सूफ़ी समुदायों में ही होता है, जो इस्लाम का एक उप-वर्ग है। ज्ञानोदय इस पर निर्भर करता है कि इसे किस प्रकार परिभाषित किया जाता है। यदि हम इसे विशेषतः बौद्ध-धर्म के अनुसार परिभाषित करते हैं, तो हम यह नहीं कह सकते कि अन्य लोग वास्तव में इसे अपना लक्ष्य बना रहे हैं। मेरे शिक्षकों में से एक ने इसे बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है: यदि हम ईसाई स्वर्ग में जाने की प्रार्थना करते हैं, तो बौद्ध स्वर्ग में नहीं जा सकते, और यदि बौद्ध स्वर्ग में जाने की प्रार्थना करते हैं, तो ईसाई स्वर्ग में नहीं पहुँच सकते।
प्रत्येक धर्म में एक लक्ष्य होता है जिसे प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है, और वह है सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति बनने का, चाहे वह सबसे नैतिक, सबसे अनुरागशील व्यक्ति होने का हो, या उससे अधिक, परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि इस मार्ग का अनुसरण करते हुए हम किसी अन्य धर्म में विशेष रूप से निर्दिष्ट और उल्लिखित लक्ष्यों तक पहुँच पाएँगे।
क्या इसका अर्थ यह है कि उनकी अवधारणा के अनुसार स्वर्ग वह स्थान है जहाँ ज्ञानोदय मिलता है?
जीवित रहते हुए, सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति बनने का लक्ष्य होता है, फिर एक अन्तराभाव अवधि, एक मध्यवर्ती अवधि, होती है, अंतिम निर्णय से पूर्व, जिसमें भविष्य में होनेवाली घटनाओं का आभास होता है, और फिर होता है अंतिम निर्णय, और हाँ, स्वर्ग भी। यह इस्लाम का सर्वोच्च लक्ष्य है।
जब हम बौद्ध कालचक्र साहित्य में देखते हैं, तो उसमें इस्लाम का उल्लेख पहले से ही है, क्योंकि पहले से ही परस्पर विनिमय था। उस समय के सम्पूर्ण कालचक्र साहित्य में केवल दो ही ऐसी बातें हैं जो विचित्र पाई जाती हैं। एक यह कि स्वर्ग और नरक शाश्वत हैं, दूसरी यह कि उसमें अनित्यता की कोई अवधारणा ही नहीं है। बौद्ध दृष्टिकोण से, जब स्वर्ग में एक पुनर्जन्म होता है तो उसकी बहुत लम्बी समयावधि होती है, परन्तु उसकी परिसमाप्ति भी होती है और उसके बाद एक और पुनर्जन्म की स्थिति आती है। कालचक्र ग्रंथों में उल्लिखित दूसरी आश्चर्यजनक बात यह है कि मुसलमानों में मांस के लिए पशुओं की हत्या करने का हलाल तरीका विधाता के नाम पर बलि है। क्योंकि पशु का वध करते समय वे कहते हैं "अल्लाह के नाम पर बिस्मिल्लाह," बौद्ध- धर्मियों ने इसे अल्लाह के लिए एक रक्त बलि के रूप में व्याख्यायित किया, और उन्हें लगा कि यह अनुचित है। यह स्पष्ट रूप से इस्लाम के आहार सम्बन्धी नियमों का मिथ्याबोध था। ऐसी और कोई बात नहीं थी जिसका उन्होंने विरोध किया। उसमें सृष्टिकर्ता के बारे में कोई उल्लेख नहीं था, कोई भी नहीं। यह वास्तव में अत्यंत सारगर्भित है।
क्या सब ज्ञानोदय प्राप्त कर सकते हैं?
ऐसे बहुत से ग्रंथ हैं जो अलग-अलग बातें कहते हैं, एक सूत्र है जो यह कहता है कि ऐसे भी लोग हैं जिनके पास बुद्ध-धातु नहीं होती। कई ऐसे पदार्थ हैं जो परिवर्तित होते हैं, परन्तु यदि किसी के पास बुद्ध-धातु नहीं है, तो वह बदल ही नहीं सकता। एक समय था जब हमारे पास ये परस्पर विरोधी अवधारणाएँ थीं।
जिस तरह से मैंने इसे व्याख्यायित होते हुए सुना है ऐसा नहीं है कि उनमें बुद्ध-धातु नहीं है। पहले तो हमें यह देखना होगा कि बुद्ध-धातु क्या है। ये वे घटक हैं जो किसी के बुद्ध बनने में सहायक होते हैं और जो बुद्ध के विभिन्न गुणों में अनन्तरित हो जाते हैं। यह सकारात्मक शक्तियों का समूह है, जिसका कभी-कभी "पुण्यसम्भार" के रूप में भी अनुवाद किया जाता है, और गहन जागरूकता का समूह भी, जिसे कभी-कभी "ज्ञानसम्भार" भी कहा जाता है। करुणा, चित्त की सूझबूझ आदि से युक्त होकर काम करने का ढंग, इत्यादि के आधार पर सकारात्मक रूप से कार्य करने के फलस्वरूप हर किसी के पास यह पुण्य संचित हो जाता है।
पुण्य के इस संजाल के विलोम को हम "पापों का संजाल" कह सकते हैं। हम सभी इन पापों से छुटकारा पा सकते हैं, परन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम किसी तरह उन पुण्यों से भी छुटकारा पा सकते हैं या नहीं कि हम बुद्धत्व को प्राप्त करने में असमर्थ हो जाएँ। प्रश्न यह है। विवाद इस बात का है कि क्या हम उन पुण्यों को अत्यधिक मात्रा में खो सकते हैं या नहीं, परन्तु जैसा होता है कि हमेशा कुछ न कुछ तो विद्यमान रहेगा ही। विवाद बस यही है।
एक और विवाद यह है कि यदि हम अर्हत के रूप में मोक्ष प्राप्त करते हैं, तो क्या उसके पश्चात मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, या फिर हम भी आगे चलकर बुद्ध बन सकते हैं? जब वे कहते हैं कि कोई बुद्ध नहीं बन सकता, तो वैसा तभी होगा जब वे मानते हों कि अर्हत बनने के पश्चात मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।
उसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए यह आवश्यक है कि अधिक से अधिक टीकाओं और व्याख्याओं को पढ़ा जाए। कोई कह सकता है कि कोई व्यक्ति सदा मुक्त होने के लिए अभिशप्त हो कि वह कभी भी बुद्ध न बन पाए, जैसे कि वे बेचारे स्वर्गलोक में बसे अर्हत जिनके लिए हम दुखी होते हैं, कितना उबाऊ है। परन्तु बुद्ध ने यह स्पष्ट रूप से देखा कि लोग अलग-अलग होते हैं। जब हम बुद्ध के जीवन को देखते हैं, तो वे अपने भिक्षुओं के समूह के साथ लोगों के घरों में जाते थे। उन्हें मध्याह्न भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता था और बुद्ध एवं उनके भिक्षुओं को अच्छी तरह खिलाया-पिलाया जाता था, और भोजनोपरांत उनसे आग्रह किया जाता था कि वे कुछ सिखाएँ। तब बुद्ध उपदेश देते थे और उन्हें आमंत्रित करने वालों की मानसिकता को देखते हुए वैसी ही शिक्षा देते थे जिसे वे समझ सकें।
इस प्रकार यदि हम सूत्रों के नामों को देखते हैं, तो कई सूत्र ऐसे हैं जिनके नाम के साथ उस व्यक्ति का नाम जुड़ा है जिसे सूत्र सिखाया गया था। सभी व्यक्तियों की पृष्ठभूमि या बोध समान नहीं होते। इसलिए, कई व्याख्याएँ हुई हैं; यह बुद्धिमत्ता थी।
बहुत-से लोग इस्लाम से बौद्ध-धर्म की ओर नहीं आते
ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत-से लोग ईसाई या यहूदी धर्मों से बौद्ध-धर्म की ओर आ रहे हैं, परन्तु इस्लाम से उतने अधिक लोग नहीं आ रहे। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
सबसे पहले, कई इस्लामी समाजों में यदि कोई व्यक्ति इस्लाम छोड़ दे तो इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता। कुछ समाजों में तो उस व्यक्ति को इस बात के लिए कड़ी-से-कड़ी सज़ा भी दी जाती है। दलाई लामा ने सही जानकारी के महत्त्व पर बल दिया और मुझे अंतर-धर्मीय समन्वय के संदेश को फैलाने में सहायता करने के लिए प्रोत्साहित किया। मैंने बौद्ध-मुस्लिम सद्भाव पर ही अधिकतर ध्यान केंद्रित किया है और इस्लामी देशों में कई अलग-अलग स्थानों पर लोगों को सम्बोधित भी किया। एक बार, मैंने काहिरा, मिस्र, में भाषण दिया और लगभग 300 छात्र स्वेच्छानुसार बौद्ध-धर्म पर मेरा भाषण सुनने के लिए आए। उन्होंने कहा कि वे ज्ञान-पिपासा से व्याकुल थे और कुछ सीखना चाहते थे।
परम पावन ने मुझे कुछ मूलभूत बौद्ध शिक्षाओं को प्रमुख इस्लामी भाषाओं में उपलब्ध कराने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया। हमने इसे अब तक लगभग छः इस्लामी भाषाओं में उपलब्ध कराया है, और बहुत से लोग उन्हें पढ़ते हैं। हम अपनी वेबसाइट का विश्लेषण यह जानने के लिए करते रहते हैं कि उसपर विभिन्न भाषाओं के सबसे लोकप्रिय लेख कौन कौन-से हैं। उदाहरण के लिए, अरबी में "क्रोध से कैसे निपटें" का लेख सबसे लोकप्रिय है। यह एक ऐसी बात है जिससे लाभान्वित होने के लिए किसी को बौद्ध बनने की आवश्यकता नहीं है। बौद्ध-धर्म में क्रोध पर नियंत्रण पाने और भय इत्यादि से निपटने के लिए कई लाभप्रद उपाय हैं। ईरान में, फ़ारसी में सबसे लोकप्रिय लेख ध्यान की विधि से सम्बंधित है। उन्हें इसमें बहुत रुचि है। इंडोनीशिया में, जहाँ मुसलमानों के साथ-साथ चीनी बौद्धों की जनसंख्या बहुत अधिक है, वे दोनों धर्मों के बीच विनिमय सम्बन्धी लेखों में अधिक रुचि रखते हैं।
स्पष्टतः अभिरुचि तो है ही। इसके अतिरिक्त हम पाकिस्तान में यह पाते हैं कि वहाँ बहुत-से युवा हैं जो वास्तव में हर प्रकार की हिंसा और आतंक से तंग आ चुके हैं और उन्हें लगने लगा है कि अब बहुत हो गया। वे कुछ ऐसा ढूँढ़ रहे हैं जिससे उन्हें मन की शांति प्राप्त हो जाए। जब तक हम बौद्ध रीतियों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि हम किसी को धर्मान्तरित करने का प्रयास नहीं कर रहे, वे स्वीकार्य होंगी। किसी को भी इस्लाम या ईसाई धर्म को त्यागने की आवश्यकता नहीं होगी, परन्तु बौद्ध-धर्म में संसार को देने के लिए बहुत कुछ है, और यही हम करने का प्रयास कर रहे हैं। समस्त लोगों के हितार्थ सार्वभौमिक मूल्यों को बढ़ावा देने के संदर्भ में दलाई लामा भी यही करने का प्रयास करते हैं।
जब तक हम बौद्ध-धर्म को केवल इन सार्वभौमिक मूल्यों तक सीमित नहीं कर देते, जो निःसंदेह बौद्ध-धर्म के लिए अन्यायपूर्ण है, यह ठीक है। बुद्ध का ज्ञान, तिब्बत का ज्ञान, विश्व सम्पदा का भाग है, और इसे यथासंभव सुगम्य और संवहनीय बनाना बहुत आवश्यक है। इस उद्यम में मेरे साथ कई अन्य लोग भी सम्बद्ध हैं।
शून्यता और परंपरागत आत्म
इन शिक्षाओं के लिए धन्यवाद। इन प्रवचनों में भाग लेने के लिए मैं और मेरे साथियों ने आठ घंटे बिताए हैं। आपने कहा कि एक आत्म है, और सामान्यतः हम अंतर्भूत अस्तित्व की शून्यता और "मैं" की अस्तित्वहीनता इत्यादि के बारे में सुनते हैं। क्या आप इनका अंतर समझा सकते हैं?
बौद्ध परिप्रेक्ष्य से आत्म का अस्तित्व तो है। वह यह नहीं कहता कि कोई आत्म नहीं है, परन्तु यह आत्म शरीर, मन, भावनाओं इत्यादि पर आश्रित रहता है। ये सब सदा परिवर्तनशील हैं। हम यह नहीं कह सकते कि आत्म केवल शरीर है या केवल मन है या केवल भावनाएँ हैं, या मेधा है, या यह है या वह है। यद्यपि उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि "मैं" अस्तित्वमान है। ये विभिन्न वस्तुएँ, जिनपर यह आधारित है, सदा परिवर्तनशील हैं। हमारी भावात्मक स्थिति बदलती रहती है, हमारा शरीर सदा बढ़ रहा है। यदि हम अपने शरीर को ही देख लें, उसकी सभी कोशिकाएँ अलग-अलग हैं। सबकुछ परिवर्तनीय है; हमारे शरीर में अभी ऐसी एक भी कोशिका नहीं है जो हमारे बचपन में विद्यमान थी। एक आत्म है, परन्तु यह अपने शरीर और मन के साथ-साथ क्षण-प्रतिक्षण बदलता रहता है। परन्तु ऐसा कोई आत्म नहीं है जो अपने शरीर, मन, भावनाओं इत्यादि से स्वतंत्र हो और जो क्षण-प्रतिक्षण नहीं बदलता जैसे-जैसे शरीर, मन इत्यादि क्षण-प्रतिक्षण बदलते हैं।
क्या नित्यता का नितांत अभाव है?
न कोई आदि है और न कोई अंत, इसलिए उस अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति का आत्म शाश्वत है, परन्तु वह अपरिवर्तनीय नहीं है। समस्या इसलिए है क्योंकि एक तिब्बती शब्द है "र्ताग-पा " जिसका अनुवाद "स्थायी" के रूप में किया गया है, और उसके दो अर्थ हैं। एक अर्थ है सदा के लिए, जिसे बौद्ध धर्म स्वीकारता है। बुद्ध के रूप में भी उसका भी कोई आदि या अंत नहीं है। इसका दूसरा अर्थ है कि यह कभी नहीं बदलता, परन्तु आत्म तो क्षण-प्रतिक्षण बदलता रहता है। यद्यपि एक शिशु के और एक वयस्क के रूप में आप तो आप ही हैं, तथापि हम यह नहीं कह सकते कि वयस्क-आप और शिशु-आप तद्रूप हैं। आप बदल गए हैं। इस अर्थ में आत्म क्षण-प्रतिक्षण परिवर्तनीय है, परन्तु वह शाश्वत है क्योंकि वह सदा के लिए है। यह भ्रामक है क्योंकि संस्कृत शब्द से उद्भूत इस तिब्बती शब्द के दो अर्थ हैं।
सूफ़ीवाद पर हिंदू या बौद्ध प्रभाव
आपने सूफ़ीवाद का उल्लेख किया। मुझे लगता है कि सूफ़ीवाद और बौद्ध-धर्म में कई समानताएँ हैं। इसका मुख्यधारा इस्लाम के साथ एक विकल संबंध और संपर्क है, यद्यपि वह इस्लाम के अधिक निकट है। कुछ लोगों के लिए पुनर्जन्म की अवधारणा मान्य है। क्या आपको लगता है कि इनमें किसी प्रकार का ऐतिहासिक संबंध है, क्योंकि मेरे एक सूफ़ी गुरु हैं जो मध्य एशिया के उत्तर-पूर्वी फारस कहलाने वाले स्थान से हैं? उस क्षेत्र में आने के बाद इस्लाम अत्यंत सबल था। क्या आपको अपने शोध में किसी प्रकार के ऐतिहासिक संबंध का पता लगा?
सूफ़ीवाद पर हिंदू धर्म का एक स्पष्ट प्रभाव प्रतीत होता है, विशेष रूप से अफ़्ग़ान, पाकिस्तान, भारतीय कश्मीर क्षेत्र में। यह प्रभाव योगादि के संदर्भ में था। वहाँ पदावली और नामों का दोहराना होता है, जो मंत्रोच्चार की तरह है, और यह हिंदू धर्म में पाया जाता है। बात यह है कि प्रभाव कहाँ से आया, हिंदू धर्म से या बौद्ध-धर्म से? साक्ष्य तो हिंदू धर्म की ओर कुछ अधिक संकेत करते हैं। यद्यपि कुछ ऐसी बातें हैं जो बौद्ध-धर्म की याद दिलाती हैं, परन्तु यह अधिकतर सूफ़ी आचार्यों के समाधि-स्थल आदि के संदर्भ में है। कुछ लोग कहते हैं कि यह एक प्रकार का स्तूप है। पर ऐसा लगता है कि ध्यान-साधना की विधियाँ अधिकतर हिंदू धर्म से ही आती हैं।
सूफ़ीवाद में ऐसी बहुत-सी बातें हैं जो अत्यंत रोचक हैं। हम जो प्रेम की बात करते हैं, तो वे प्रेम के लिए एक अन्य शब्द का प्रयोग करते हैं, जो कुरान में नहीं है, परन्तु उसका लक्ष्यार्थ "सौंदर्य" से अधिक मिलता है। विधाता और उसके सौंदर्य के साथ विलय की ओर लौटने की एक स्वाभाविक ललक और तड़प है। सौंदर्य के प्रति इस प्रेम को संगीत द्वारा व्यक्त किया जाता है। इसकी सूफ़ीवाद में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है, और यह बौद्ध धर्म में नहीं पाया जाता। यहाँ मंत्रोच्चार इत्यादि हैं, परन्तु ये बुद्ध के सन्निकट जाने के साधन के रूप में नहीं हैं।
हमें सूफ़ीवाद के विभिन्न आयामों को देखना होगा जिनकी बौद्ध-धर्म से समरूपता हो सकती है। वहाँ ध्यान-साधना, मंत्रोच्चार जैसा सस्वर पाठ, एक शिक्षक के साथ एक समुदाय में रहना ये सब हैं, परन्तु ये सब तो हिंदू धर्म में भी हैं। कहना मुश्किल है, परन्तु मध्य एशिया निश्चित रूप से इन तीनों संस्कृतियों - बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, और इस्लाम का संगम-स्थल था जहाँ एक-दूसरे से विचारों का आदान-प्रदान होता था।
मरण प्रक्रिया की तुलना
क्या आप कुरान से कुछ बता सकते हैं कि किसी व्यक्ति को मृत्यु की तैयारी किस प्रकार करनी चाहिए? क्या मनुष्य को प्रकाश की ओर देखना चाहिए?
मैं ऐसी किसी बात से परिचित नहीं हूँ, और मैं निश्चित रूप से कुरान का विद्वान नहीं हूँ। मैं यह कल्पना कर सकता हूँ कि केवल भगवान का स्मरण करना है। मुझे नहीं पता कि कुरान में मृत्यु की प्रक्रिया के बारे में उतने ही विस्तार से बताया गया है जितना कि बौद्ध-धर्म की तंत्र शिक्षाओं में। मैंने ऐसा नहीं देखा है, यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं है कि उसमें उसका उल्लेख नहीं है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि मैंने ऐसा देखा नहीं है।
मैंने यह इसलिए पूछा क्योंकि मैं दुबई में कई छात्रों के साथ रहता था, और यह गहन रूप से इस्लामी संस्कृति के अत्यंत निकट है। मैंने महिलाओं के विषय में पिता के प्रति पूर्ण समर्पण और पति के हाथों सौंपे जाने की सम्पूर्ण तैयारी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देखा। तब से, और इससे भी अधिक आजकल, कई ऐसे छात्र और अन्य शिक्षक हुए हैं जो पूर्ण रूप से उस तरह समर्पित हैं, परन्तु जब मृत्यु की बात आती है तो इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह ऐसा है: जीवन में सर्वोत्कृष्ट बनो, और फिर मैं बहिश्त में जाऊँगा। वहाँ तक पहुँचना भी बहुत बड़ी बात है, और मरने के लिए कोई किस प्रकार तैयारी करता है। मेरा पालन-पोषण एक ईसाई परिवार में हुआ था, और वहाँ जब मरने की तैयारी की बात आती है तो ऐसा लगता है कि बौद्ध धर्म जो दे सकता है उससे कोई तुलना नहीं हो सकती।
बौद्ध-धर्म कहता है कि मृत्यु की तैयारी करते समय सबसे अच्छे विचार वे होते हैं जैसे शरणागति, हमारे भविष्य की गति, बोधिचित्त, ज्ञानोदय का लक्ष्य, और ऐसी इच्छाएँ जैसे कि बौद्ध-शिक्षाओं का अनुसरण करना, शिक्षकों आदि से मिलना, तथा आध्यात्मिक पथ पर बने रहने में सक्षम होना, इत्यादि। हमें बुद्ध या अपने आध्यात्मिक गुरु के बारे में चिंतन करते हुए मृत्यु को प्राप्त होना चाहिए। इसी प्रकार, इस्लाम में भी मरते समय विधाता का चिंतन करने की अवधारणा बहुत कुछ वैसी ही है।
इस्लाम में मरणोपरांत हमारा क्या होता है इसके बारे में विशेष रूप से शिक्षाएँ हैं। हमारे सकारात्मक कर्मों और नकारात्मक कर्मों का अभिलेख होता है, जिसे हमारे मरणोपरांत देखा जाता है। फिर, क़यामत के दिन तक एक प्रकार के धारण क्षेत्र में हमें रखा जाता है जिसका वातावरण वैसा ही होता है जैसा हम भविष्य में भोगने वाले हैं, जो या तो भयावह होगा या फिर सुखद। फिर, प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी कब्र से उठकर विधाता के सामने आता है और फिर वास्तव में अंतिम निर्णय होता है। तदोपरांत, वह या तो शाश्वत स्वर्ग में जाता है या फिर शाश्वत नरक में।
हो सकता है इस्लाम में उसी प्रकार सोचा जाता हो। एक अच्छे मुसलमान के लिए पश्चाताप करने और अपने नकारात्मक कर्मों के लिए विधाता से क्षमा माँगने पर बहुत बल दिया जाता है। बौद्ध-धर्म में भी ऐसा ही किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी ने बोधिसत्व या तांत्रिक संवरों आदि का उल्लंघन किया हो, तो मृत्यु से पहले वह चाहेगा कि उन्हें नवीकृत किया जाए ताकि वह नवीन निर्मल विशुद्ध संवरों के साथ ही मृत्यु का वरण करे। यह तो निश्चित है। इस्लाम और बौद्ध-धर्म दोनों में मृत्यु से पहले पश्चाताप और प्रक्षालन की समान अवधारणा है। मुझे लगता है कि यदि हम धर्म साधना निष्कपट रूप से करते हैं तो हम यह पाएँगे कि बौद्ध-धर्म और इस्लाम दोनों में अनेक समानताएँ हैं। निस्संदेह अधिकांश लोग ऐसे नहीं हैं, परन्तु यदि कोई है तो वह ऐसा ही करेगा।
सच्चाई यह है कि हमारे पास जो है उसे बचाए रखने के बजाय हम अपने भविष्य के बारे में आशावान होकर प्रतीक्षा करते हैं। अवश्य ही शहादत की बात तो है ही, पर यह एक अलग विषय है।
क्रोध नियंत्रण एवं निष्ठा द्वंद्व
मैं ऑस्लो के एक स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्यरत हूँ, जहाँ लगभग 60% मुस्लिम छात्र पढ़ते हैं। क्या आप मुझे स्कूल के छात्रों, विशेष रूप से बालकों, में क्रोध के विषय में कुछ बता सकते हैं? इस्लामी देश व्यापक संग्राम से ग्रस्त हैं, और उससे उत्पन्न क्रोध यहाँ भी दिखाई दे रहा है। मेरी बेटी अपनी सहेलियों के साथ किसी मस्जिद में गई, और वहाँ अकथनीय बकवाद और बुरा व्यवहार हो रहा था। ये वे लोग हैं जो पाकिस्तान, अफ़्ग़ानिस्तान, और अब सीरिया से भी अपनी मातृभूमि को छोड़कर आए हैं, और दूसरी पीढ़ी के अपने बच्चों के साथ यहाँ रहते हैं। मैं अपनी बेटी को क्या बताऊँ ? यह बहुत ही कठिन कार्य है। आप इस आक्रामकता और क्रोध के बारे में क्या सोचते हैं?
स्पष्टतः संसार के इन भागों से आए लोगों के लिए दुःख एवं रक्तपात को देखना अत्यंत हताशाजनक है, भले ही वे दूसरी पीढ़ी के हों। यह सहज ही युवाओं को बहुत दुःखी करता है; वे अपनी भावनाओं को भली-भाँति संभाल नहीं पाते। ये क्रोध के रूप में बाहर आती हैं। अल्पसंख्यकों के साथ एक मनोवैज्ञानिक समस्या है निष्ठा, फिर चाहे वह मुस्लिम हो या कोई अन्य आप्रवासी। एक ओर यजमान देश अपने देश के मूल्यों के प्रति निष्ठा की माँग कर रहा है, परन्तु इन अतिथियों की अपनी संस्कृति और धर्म है जिसके प्रति वे निष्ठावान होना अधिक आवश्यक समझते हैं।
इनकी निष्ठा का बँटवारा उन बच्चों की विभक्त निष्ठा के समान है जिनके माता-पिता का विवाह-विच्छेद हो चुका हो। उन्हें ऐसा लग सकता है कि यदि वे माता के प्रति निष्ठावान हैं, तो वे पिता के प्रति निष्ठाहीन हैं, या इससे ठीक विपरीत स्थिति हो सकती है। प्रश्न यह है कि दोनों के प्रति निष्ठा हो ऐसा संतुलन किस प्रकार लाया जाए। होता क्या है कि, उदाहरण के लिए, यदि हम कहते हैं कि केवल अपने यजमान देश के प्रति ही निष्ठावान रहना चाहिए, न कि अपनी मूल संस्कृति और धर्म के प्रति, तो जाने-अनजाने, निष्ठा के इस अभियान के कारण वे अपनी मूल संस्कृति के नकारात्मक आयामों के प्रति निष्ठावान हो जाते हैं। यही फिर आक्रामकता आदि के रूप में प्रकट होता है।
उपचारात्मक दृष्टि से यह बहुत ही हितकारी होता यदि वे अपनी संस्कृति की सकारात्मकताओं को स्वीकार कर सकते जिससे संघर्ष के बिना ही उनके भीतर संयुक्त निष्ठा का भाव उजागर हो जाता। ऐसा आवश्यक नहीं है कि यदि एक हो तो दूसरा नहीं हो सकता। सामाजिक रूप से इस बात पर शोध करने की आवश्यकता है। यूरोप के कुछ समाजों में वे कहते हैं कि महिलाओं को पर्दा करने की अनुमति नहीं है, इत्यादि। उन लोगों के दृष्टिकोण से यह एक भयावह कथन है और यह क्रोध जाग्रत करता है।
पर्दे के साथ इतनी समस्या क्या है? उदाहरण के लिए, यदि उनका चेहरा पूरी तरह से ढँका हुआ है और वे न्यायालय में किसी अभियोग का भाग हैं, मान लीजिए अमरीका में, यह एकमात्र स्थिति है जिसमें उन्हें पर्दा हटाने की आवश्यकता है। या फिर कार चलाते समय, यह तो स्पष्ट है ही।
हमें अतिथियों के ऐसे मूल्यों को पहचानना होगा जो उन्हें यजमान समाज में समरस रूप से रहने में उनकी सहायता करें और जो किसी प्रकार की समस्या या संघर्ष को रोकें। यह इस प्रकार की आक्रामकता का हल खोजने में सहायक होता है। निस्संदेह, एक बच्चे के लिए यह समझना कठिन होगा। आप अपनी बेटी से यह पूछ सकते हैं कि जब वह कठिन समय से गुज़र रही होती है तो क्या वह हताश और क्रोधित नहीं होती, और क्या आप दूसरे लोगों के बारे में बुरा-भला नहीं कहते जबकि आपका वह मतलब ही नहीं था? आप उसे यह समझाने का प्रयास कर सकते हैं कि उन लोगों का वास्तव में वह मतलब नहीं है, और लोग प्रायः उत्तेजित होने पर ऐसी बातें करते हैं। इस प्रकार समझाना कभी-कभी काम कर सकता है, परन्तु यह इस बात पर निर्भर करता है कि बच्चा कितना बड़ा है।
आप सभी को धन्यवाद। आपके साथ इसपर चर्चा करते हुए अत्यंत प्रसन्नता हुई, और मुझे आशा है कि यह चर्चा आपके लिए विचारोत्तेजक सिद्ध हुई होगी।