धर्म के चार प्रमाण-चिह्न

परिचय

बौद्ध-धर्मी अध्ययन के किसी भी पहलू की चर्चा में यह देखना सदा सहायक सिद्ध होता है कि चर्चा का विषय बौद्ध शिक्षाओं के व्यापक सन्दर्भ में किस प्रकार सम्बद्ध है | इसका अर्थ है यह समझना कि वह विषय चार आर्य सत्यों तथा चार पुष्टिकारक बिंदुओं की प्रस्तुति से किस प्रकार सम्बद्ध है जिससे एक दृष्टिकोण को शिक्षाप्रद शब्दों (इता-बा बका'-बटागस-ज्ञी फयाग-रग्या-ब्ज़्ही ) से प्रेरित माना जा सके, जिन्हें धर्म के चार प्रमाण-चिह्न (चोस-क्यी स्दोम-पा ब्ज़्ही ) भी कहा जाता है | पारिभाषिक शब्द "चार प्रमाण- चिह्नों" का अर्थ है वे चार विशेषताएँ या लक्षण जो जीवन के प्रति दृष्टिकोण को बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण के रूप में परिभाषित करते हैं, जो बुद्ध के कथनों पर आधारित हैं |

यह समझना आवश्यक है कि बौद्ध शिक्षाओं में पाई जाने वाली अधिकतम शिक्षाएँ अनन्य रूप से बौद्ध नहीं हैं | ये अधिकतर अन्य भारतीय दार्शनिक पद्धतियों में पाई जाती हैं | अंततः, बुद्ध भारत में रहे और उन्होंने उसी सांस्कृतिक सन्दर्भ में शिक्षा दी | भारतीय शिक्षण में एकाग्रता तथा इस प्रकार के विषयों पर शिक्षाएँ सामान्य बात हैं | इसके कुछ लक्षण ईसाई धर्म जैसी पाश्चात्य प्रणालियों में भी पाए जाते हैं, जैसे इस जीवन का परित्याग करके एक उत्कृष्ट भावी जीवन की अभिलाषा करना | ये विशेषतः बौद्ध शिक्षाएँ नहीं हैं | किसी शिक्षा की चार आर्य सत्यों तथा चार पुष्टिकारक बिंदुओं के साथ संगति उसे अद्वितीय रूप से बौद्ध बनाती है |

आइए हम इस बात का परीक्षण और विश्लेषण करें कि इन चार बिंदुओं की चर्चा में पाँच स्कंध कैसे ठीक बैठते हैं | ये पाँच स्कंध हैं प्राकृतिक घटनाओं के रूप, सुख अथवा दुःख की भावनाएँ, विवेक-बोध, सचेतनता के प्रकार, और अन्य परिवर्ती कारक | हमारे अनुभवों का प्रत्येक क्षण इन पाँचों स्कन्धों में एक या एक से अधिक कारकों से बना होता है |  

Top