Study buddhism shantideva

शांतिदेव

शांतिदेव एक महान भारतीय आचार्य थे जिन्होंने बोधिसत्वों के आचार और व्यवहार की व्याख्या की थी।

शांतिदेव का जन्म पूर्वी भारत के बंगाल क्षेत्र में स्थित एक राज्य के राजा के पुत्र के रूप में हुआ था। जब उनका राज्यारोहण होने वाला था तब मंजुश्री उनके स्वप्न में प्रकट हुए और उनसे बोले, “यह सिंहासन तुम्हारे लिए नहीं है।“ मंजुश्री की सलाह को शिरोधार्य करते हुए शांतिदेव ने सिंहासन का त्याग कर दिया और वन में एकांतवास के लिए चले गए। वहाँ उनकी भेंट अनेक गैर-बौद्ध गुरुओं से हुई जिनसे उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और पूर्ण एकाग्रचित्तता की अवस्थाओं को हासिल किया। किन्तु शाक्यमुनि की ही भांति उन्होंने यह पाया कि गहरी एकाग्रता की अवस्था में चले जाने मात्र से दुख के मूल का नाश नहीं होता है। मंजुश्री पर उनकी आस्था के कारण उन्हें सभी बुद्धों के ज्ञान की इस प्रतिमूर्ति के वास्तविक दर्शन हुए और उन्होंने मंजुश्री से उपदेश ग्रहण किए।

इसके बाद शांतिदेव वन से चल पड़े और नालंदा के मठीय विश्वविद्यालय पहुँचे जहाँ के मठाधीश ने उन्हें भिक्षु के रूप मे दीक्षित किया। वहाँ रहते हुए उन्होंने प्रमुख सूत्रों और तंत्र का अध्ययन किया और उनकी कठोर साधना की, लेकिन उन्होंने अपनी साधना को गुप्त रखा। वहाँ हर कोई यही सोचता था कि वे खाने, सोने और शौच के अलावा और कुछ नहीं करते थे। लेकिन सच्चाई यह थी कि वे हमेशा ही निर्मल प्रकाश की ध्यान अवस्था में रहते थे।

आखिरकार, मठ के सभी भिक्षुओं ने उन्हें नाकारा समझ कर मठ से निकाल बाहर करने का फैसला किया। उन्हें निष्कासित करने के लिए यह तरीका सोचा गया कि उन्हें किसी मूल ग्रंथ पर व्याख्यान देने के लिए कहा जाए क्योंकि सभी का मानना था कि वे इसमें बुरी तरह से विफल होंगे। उनके लिए यह सोचकर बिना सीढ़ियों वाला एक बहुत ऊँचा आसन तैयार किया गया कि वे उस आसन तक नहीं पहुँच पाएंगे। लेकिन आसन स्वयं नीचे उतर कर आ गया और शांतिदेव आसानी से उस पर चढ़ गए।

इसके बाद उन्होंने बोधिसत्वों जैसा आचरण करने सम्बंधी बोधिचर्यावतार के बारे में उपदेश देना शुरू किया। जब वे शून्यता से सम्बंधित नवें अध्याय के एक छंद पर पहुँचे, तो उनका शरीर आकाश में ऊपर की ओर उठता चला गया। वह छंद इस प्रकार था:

यदा न भावो नाभावो मतेः संतिष्ठते पुरः। तदान्यगत्यभावेन निरालम्बा प्रशाम्यते॥ ९.३५

इसके बाद, शेष ग्रंथ का उच्चारण करती हुई केवल उनकी आवाज़ ही सुनाई दी। वे स्वयं दृष्टि से ओझल हो चुके थे। बाद में भिक्षुओं ने स्मृति के आधार पर ग्रंथ को लिखकर पूरा किया।

अपने उपदेश में शांतिदेव ने अपने दो अन्य ग्रंथों (1) शिक्षासमुच्चय तथा (2) सूत्रसमुच्चय का भी उल्लेख किया जिनकी रचना उन्होंने अपने नालंदा प्रवास के समय की थी, लेकिन ये दोनों ग्रंथ कहाँ मिलेंगे, इसकी जानकारी किसी को भी नहीं थी। अंततः शांतिदेव किसी भिक्षु के स्वप्न में प्रकट हुए और उन्होंने बताया कि ये दोनों ग्रंथ किसी अन्य भिक्षु के कमरे में छत की शहतीर में छिपा कर रखे गए थे। स्वप्न में शांतिदेव ने बताया कि वे स्वयं अब लौटने वाले नहीं हैं।

सूत्रसमुच्चय में सूत्रों के प्रमुख बिंदुओं को सार रूप में बताया गया है जबकि शिक्षासमुच्चय में सूत्र साधनाओं का सार प्रस्तुत किया गया है। बोधिचर्यावतार और शिक्षासमुच्चय के तिब्बती भाषा में अनुवाद को बुद्ध के वचनों पर भारतीय भाष्यों के तिब्बती अनुवादों के संकलन तेंग्युर में शामिल किया गया है। कुनु लामा रिंपोशे के अनुसार सूत्रसमुच्चय का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया था, लेकिन उसे तेंग्युर में शामिल नहीं किया गया है।

बोधिचर्यावतार, विशेषतः उसके नवें अध्याय पर अनेक भाष्य लिखे गए। तिब्बती भाष्य सभी परम्पराओं में लिखे गए क्योंकि यह ग्रंथ तिब्बत में सभी बौद्ध संप्रदायों के लिए सबसे प्रधान ग्रंथ है। गेलुग परम्परा में त्सोंग्खापा का मार्ग के क्रमिक स्तरों की महान प्रस्तुति (लाम-रिम चेन-मो) पर, एक बड़ी हद तक, विशेषतः आत्म तथा दूसरों को समान दृष्टि से देखने की शिक्षाओं पर, आधारित है। हालाँकि त्सोंग्खापा ने बोधिचर्यावतार पर अलग से कोई भाष्य नहीं लिखा है, किन्तु उनके मार्ग के क्रमिक स्तरों की महान प्रस्तुति में बोधिचर्यावतार में उठाए गए बहुत से बिंदुओं के बारे में चर्चा की गई है। उनकी विवेचनीय तथा निश्चयात्मक अर्थों की उत्कृष्ट व्याख्या सार में बोधिचर्यावतार के नवें अध्याय में उल्लिखित बहुत से बिंदुओं को शामिल किया गया है। उनके मध्यम मार्ग पर (नागार्जुन के [मूल छंदों के बारे में] चंद्रकीर्ति के परिशिष्ट पर) स्पष्टीकरण भी बहुत हद तक बोधिचर्यावतार पर ही आधारित है।

परम पावन 14वें दलाई लामा द्वारा बोधिचर्यावतार के बारे में जनवरी 1978 में बोध गया, भारत में दिए गए एक प्रवचन से उद्धृत। डा. अलेक्ज़ेंडर बर्ज़िन द्वारा अनूदित एवं सम्पादित।
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