हमारा विषय जीवन के प्रति बौद्धधर्मी दृष्टिकोण मूलत: इस विषय पर केन्द्रित है कि बौद्धधर्मी शिक्षाओं को जीवन में कैसे लागू किया जाए। उनका वास्तव में हमारे लिए क्या अर्थ है। ये किस प्रकार हमारा जीवन बदल देती हैं अथवा हमारे व्यक्तित्व को प्रमाणित करती हैं? क्या बौद्धधर्मी साधना अन्य बातों के साथ-साथ किया जाने वाला कोई गौण अभ्यास अथवा शौक है या फिर जीवन की कठिनाइयों से पलायन करने कि विधि? क्या हम केवल किसी मधुर-मनोरम मानस-दर्शन अथवा कल्पना में खो जाएँ, या हमारी साधना अत्यंत उपयोगी और वास्तव में जीवन में सहायक होती है? आखिरकार बौद्धधर्मी शिक्षाओं का मंतव्य तो यही था कि वे हमारे जीवन में कष्टों एवं समस्याओं से उबरने में हमारी सहायता करें।
एक सहायक मार्गदर्शी सिद्धांत
अपने रोजमर्रा के जीवन में शिक्षाओं को लागू करने के लिए, एक संक्षिप्त प्रार्थना में अत्यंत उपयोगी मार्गदर्शन मिलता है। इस प्रार्थना को निरंतर की जाने वाली तीन साधनाएँ कहते हैं। अधिकाँश उपदेशों से पहले प्राय: इनका वाचन होता है, जिसकी पंक्तियाँ इस प्रकार है :
कुछ भी नकारात्मक कदापि न करें, अत्युत्तम रीति से सकारात्मक कृत्य सम्पादित करें; अपने चित्त का पूर्णत: शमन करें। बुद्ध की यही शिक्षाएं हैं।
बुद्ध की शिक्षाओं के यही प्रमुख बिंदु हैं। पहली पंक्ति में कुछ भी नकारात्मक कदापि न करें, यहाँ नकारात्मक का अर्थ है कुछ भी आत्म विनाशकारी, वह जो दूसरों के लिए समस्याएँ और दुःख उत्पन्न करें, तथा दीर्घ अवधि में, स्वयं हमारे लिए। अत: बौद्धधर्मी साधना में पहली बात है दूसरों का तथा अपना अहित न करना। दूसरी पंक्ति में, अत्युत्तम रीति से सकारात्मक कृत्य सम्पादित करें; सकारात्मक का अर्थ है ऐसे कृत्य जो दूसरों के लिए तथा अपने लिए अनुकूल तथा सुखकारी स्थितियां उत्पन्न करें।
ऐसा करने के लिए, तीसरी पंक्ति में कहा गया है, अपने चित्त का पूर्णत: शमन करें। यह संकेत है हमारे विनाशकारी एवं रचनात्मक कृत्यों के स्त्रोत का। इसमें पहले से बचाव एवं दूसरे का संपादन करने के लिए, हमें आत्म-सुधार करना होगा – हमारी मनोदृष्टि तथा हमारे मनोभाव जो हमारे चित्त से उत्पन्न होते हैं। हमारी मनोदृष्टि एवं हमारे मनोभाव प्रभावित करेंगे हमारे दूसरों के साथ पारस्परिक सम्बन्ध को कि हम जीवन में कैसे कृत्य करते हैं, बोलते हैं तथा सोचते हैं। अंतिम पंक्ति से यही अभिप्रेत है, ये बुद्ध की शिक्षाएं हैं।
यथार्थ को समझना
यदि हम तनिक और गहराई से देखें, जैसा कि मेरे एक बौद्ध गुरु-मित्र ने कहा, बौद्ध मत का मूलभूत दृष्टिकोण यथार्थपरक है : यथार्थ को जानिये और यथार्थपरक रीति से व्यवहार कीजिए। दूसरे शब्दों में, हमें अपने व्यवहार एवं बोध को यथार्थ-आधारित बनाना होगा।
यथार्थ क्या है? यथार्थ कारण और परिणाम है जिसे प्राय: “प्रतीत्यसमुत्पाद” कहा जाता है। कारण और परिणाम के फलस्वरूप स्थितियां जन्म लेती हैं। दूसरे शब्दों में, हमारे विनाशकारी और रचनात्मक कृत्य कारणवश होते हैं। यदि हम अपने व्यवहार पर दृष्टि डालें तो हम पायेंगे कि वह या तो हमारे लिए तथा दूसरों के लिए समस्याएँ उत्पन्न करता है अथवा अधिक सुखकारी एवं हितकारी होता है। परन्तु हमें अपने व्यवहार पर गैर-आलोचनात्मक दृष्टि डालनी चाहिए. जीवन निर्वाह के लिए गैर-आलोचनात्मक रवैया अत्यंत महत्वपूर्ण है।
बौद्ध मत के नीति-शास्त्र में ऐसे नियमों का पालन करने का प्रावधान नहीं है जो किसी दिव्य सत्व अथवा किसी नियामक अथवा शास्त्र द्वारा प्रदत्त हों। यदि नीति-शास्त्र ऐसे नियमों पर आधारित होता है, तो गुण दोष विवेचन होता है। यदि हम विधानों एवं नियमों का पालन करते हैं तो अच्छा मानकर हमें उसका सुफल मिलता है; और यदि हम उनका पालन नहीं करते – यदि हम नियम भंग करते हैं – तो हमें बुरा समझा जाता है और हम दंड के भागीदार हो जाते हैं। बौद्धधर्मी नीति-शास्त्र अथवा जीवन शैली ऐसी नहीं है। यह समझना बहुत आवश्यक है जब हम अपने प्रति आलोचनात्मक हो रहे होते हैं। हमें अपने रवैये में एक गहन परिवर्तन लाना होगा, अपने को अपने प्रति आलोचनात्मक होने से रोकने के लिए – उदाहरण के लिए, यह सोचना कि हम बुरे हैं निम्न स्तर के हैं, हमने जो किया वह निकृष्ट था।
इसके स्थान पर, हमें जीवन को कारण और परिणाम के रूप में देखना चाहिए। यदि हमने समस्याएँ खड़ी कीं तथा सब गड़बड़ कर दिया तो यह कुछ कारणों और परिस्थितियों की देन थी, इसलिए नहीं कि हम बुरे हैं। यदि हम गहराई से सोचें तो हम पायेंगे कि हम किसी स्थिति को ठीक से समझे नहीं क्योंकि हम भ्रमित थे। वास्तव में, बात प्रक्षेपण पर आकर ठहरती है। हम बातों को व्यर्थ बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं और स्वयं अपने लिए, स्थितियों तथा अपने आस-पास के लोगों के लिए निरर्थक प्रक्षेपण कर लेते हैं। फिर हम यह मानने लगते हैं कि ये प्रक्षेपण यथार्थ से मेल खाते हैं जबकि वास्तव में वैसा नहीं होता। यदि हम अपनी जांच करें कि हम विनाशकारी ढंग से व्यवहार क्यों कर रहे हैं तो हम पायेंगे कि प्राय: हम किसी स्थिति में कुछ निरर्थक प्रक्षेपण कर लिए होते हैं और उन्हीं के अनुसार चलते रहते हैं।
दो सत्य
हाल ही में परम पावन दलाई लामा उस विषय पर विस्तार से बोलते रहे हैं जो व्यक्तियों को अपने जीवन को कम समस्याप्रद बनाने में सार्वभौमिक स्तर पर सहायक होगा। वे स्वयं को बौद्धधर्मी श्रोताओं तक सीमित नहीं कर रहे, वे सबके लिए उपदेश देते हैं क्योंकि वे सबके प्रति सरोकार रखते हैं। वे कहते हैं कि हमें सत्य समझने से शुरुआत करनी होगी। यह प्राथमिक है। हमें इन दो सत्यों को अत्यंत परिष्कृत रूप में नहीं, अपितु प्राथमिक रूप से देखना होगा ताकि सब उनसे जुड़ सकें। एक ओर अतिरंजनाओं अथवा हमारे असंगत विचारों पर आधारित हमारे प्रक्षेपण होते हैं, और दूसरी ओर यथार्थ है। ये दो सत्य हैं।
एक भ्रमित चित्त को ये प्रक्षेपण सत्य प्रतीत होते हैं, जैसे, “मैं अभागा हूँ, मैं किसी काम का नहीं हूँ, कोई मुझसे प्रेम नहीं करता”, या “यह विश्व की महाविपत्ति है”, जब हमारा खाना जल जाता है या रेस्टोरेंट में मंगाया गया व्यंजन समाप्त हो गया होता है या हम यातायात की भीड़ में फँस जाते हैं और सोचते हैं कि अब हम कभी घर नहीं पहुँच पायेंगे। हम चीज़ों को बढ़ा-चढ़ा कर ऐसे दिखलाते हैं कि ये भयंकरतम घटनाएँ हैं जैसे कि यातायात की भीड़ में हम सदा फंसे ही रहेंगे। हम इन प्रक्षेपणों को सत्य मान लेते हैं। यह परम्परागत सत्य है : जिसे भ्रमित चित्त सत्य मानता है।
फिर एक वास्तविकता है, गहनतम सत्य। यथार्थ यह है कि भीड़ भरा यातायात किन्हीं कारणों और परिस्थितियों का परिणाम; यह व्यस्ततम घंटे हैं और सब घर पहुँचाना चाहते हैं। हम क्या आशा करते हैं, यह ठीक उस प्रकार है जैसे शीत ऋतु में ठंडक की शिकायत करना। हमने क्या सोचा था? शीत ऋतु है। ऐसा ही होगा। हमें दोनों प्रकार के सत्यों में विभेद करना आना चाहिए। जब हम समझ जाते हैं कि हम बात को व्यर्थ बढ़ा रहे हैं तथा अनर्गल प्रक्षेपण कर रहे हैं तो ऐसे में हमें उसे विखंडित करना आना चाहिए। संक्षेप में, अपने जीवन के घटनाक्रम को समझने के लिए, हमें दोनों के मध्य अन्तर समझकर इसे अपने जीवन में उतारना होगा। यह अनिवार्य है।
यह बात उसी प्रार्थना की अगली पंक्ति में दर्शाई गई है:
कृत्रिम संरचना को इसी प्रकार समझें जैसे तारे एक धुंधलका, या एक (घूमती हुई) मशाल, एक मरीचिका, ओस की बूंदे, या एक बुलबुला, एक स्वप्न, बिजली की कौंध या बादल।
हमें अपने जीवन में यह समझना होगा कि जब हम तिल का ताड़ बनाते हैं, प्रक्षेपण करते हैं, तो जो इतना सत्य प्रतीत हो रहा है वह एक भ्रम है, एक स्वप्न, एक बुलबुला इत्यादि। वह इतना ठोस नहीं जैसा प्रतीत होता है। इसलिए हम नहीं मानेंगे कि वह यथार्थ से मेल खाता है। ऐसा करके हम मानो अपनी कल्पना का गुब्बारा फोड़ देते हैं।
प्रक्षेपण
मूलत: दो प्रकार के प्रक्षेपण होते हैं। इनमें से कुछ उपयोगी होते हैं एवं कुछ हानिकारक होते हैं। कौन से प्रक्षेपण उपयोगी होते हैं? हमारी कोई सकारात्मक अथवा सामान्य प्रेरणा हो सकती है। उदाहरण के लिए, किसी आमोद-यात्रा की प्रेरणा हो सकती है। हमें यहाँ से वहां यात्रा करनी होगी और हम आगे के विषय में सोचते हैं। यह भी एक कल्पना है कि हमें यह करना होगा, वह करना होगा, अपने साथ क्या-क्या ले जाना होगा, आरक्षण करवाना होगा, इत्यादि। इस प्रकार की कल्पना का उपयोग कार्य नित्यचर्या अथवा क्रय सूची के लिए भी किया जाता है जब हम दुकान पर जाते हैं। ये ऐसी योजनाएं होती हैं कि हम क्या करने वाले हैं अथवा हम किसी काम को कैसे पूरा करेंगे। हम प्राय: अपने कार्यस्थल में भी ऐसा करते हैं जब हम पूरे वर्ष की योजना बनाते हैं।
परन्तु हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हमारी प्रस्तावित योजना एक स्वप्न की भांति है। व्यावहारिक जीवन में इसका क्या अर्थ है? यह लचीला होता है। यह कृत्रिम संघटना होती है, जैसा कि प्रार्थना में कहा गया है। वे कारणों और स्थितियों से प्रभावित होती हैं; उन्हें प्राय: “अनुकूलित संघटना” कहते हैं। इन पर कारणों और स्थितियों का प्रभाव होता है। अत: जब हम कोई योजना बनाते हैं, वह स्थिति कारणों एवं परिस्थितियों से प्रभावित होगी, जो परिवर्तनशील है। परिवर्तन का एक उदाहरण यह हो सकता है कि किसी विशिष्ट फ्लाइट में सीटें ही न बची हों। चाहे हमने उस फ्लाइट से जाने का निश्चय किया हो, हमें अपना कार्यक्रम बदलना होगा। बजाय इसके कि हम शिकायत करें या परेशान हो जाएँ, हम इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेते हैं। हमें यही करने का अभ्यास करना चाहिए। जब हम अपने निश्चित कार्यक्रम में ही अटक कर रह जाते हैं और यह नहीं सोच पाते कि पहले वाली योजना एक भ्रम, एक बुलबुले तथा प्रार्थना में उल्लिखित सभी उपमाओं के समान हैं जिनसे हम चिपके रहते हैं।
उससे क्या मिलेगा? इससे एक अत्यंत अशांत मनोदशा निर्मित होगी। हम अत्यंत क्रोधित या हताश भी हो सकते हैं। यह हमें बस व्याकुल कर देता है परन्तु स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आता। यातायात की भीड़ में फंसे होने पर उसे कोसने से कोई सहायता नहीं मिलती; हॉर्न बजाते रहने से भी कोई लाभ नहीं होता। केवल इस वास्तविकता को स्वीकार करना ही सहायक होता है कि हमने जो सोचा था वैसा नहीं हो रहा। उदाहरण के लिए, हम एक निश्चित समय पर पहुंचना चाहते थे; रेलगाड़ी छूट गयी या फिर देर से चली परन्तु हम उसके विषय में कुछ भी तो नहीं कर सकते। हम अपने जीवन में इन शिक्षाओं को इसी रूप में लागू कर सकते हैं।
हमें समझना होगा कि इन बातों पर विचार करने के उचित एवं अनुचित ढंग हैं। अनुचित रीति यह है कि हम यह सोचें कि निरंतर बदलती हुई परिस्थितियों से लगातार प्रभावित होने वाली कोई स्थिति अचल एवं स्थिर है – यह सोचना कि कोई योजना निश्चित होनी चाहिए। इस प्रकार सोचना अत्यंत सामान्य है। हमें अपनी योजना में परिवर्तन करने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि सब कुछ हमारी योजना के अनुसार नहीं होता और तब उसे बदलना पड़ता है। हम ट्रैफिक में फँस सकते हैं, अथवा लोग हमसे मिलने से मना कर सकते हैं। शांतिदेव ने बोधिसत्वचर्यावतार में इसके लिए अति उत्तम परामर्श दिया है;
यदि उसमें सुधार किया जा सकता है, तो उस बात पर अपनी मनोदशा क्यों बिगाड़ी जाए? यदि उसमें सुधार नहीं हो सकता, तो अपनी मनोदशा बिगाड़ कर ही क्या मिल जाएगा?
यह परामर्श वास्तव में बुनियादी है। एक ऐसी बात जिसे हमें आत्मसात करके अपने जीवन का अंग बनाना चाहिए। यदि जीवन में हम किसी विकट स्थिति में पड़ जाते हैं और उसे बदल सकते हैं, तो बस बदल दीजिये। यदि नहीं बदल सकते तो फिर कुछ भी नहीं हो सकता, और फिर अशांत होने का भी कोई अर्थ नहीं है। उदाहरण के लिए किसी आमोद-यात्रा में हमारा सामान खो जाता है, और कुछ दिन तक वह हमें नहीं मिल सकता। हम उस वास्तविकता को स्वीकार कर लेते हैं।
हाल ही में मेरे साथ एक बहुत रोचक घटना घटी। मैं परम पावन दलाई लामा का उपदेश सुनने हॉलैंड जा रहा था मैं एम्स्टर्डम जाने के लिए हवाई अड्डे पहुँचा, मैं प्रवेश पंजीकरण के लिए प्रतीक्षा कर रहा था। वहां कंप्यूटर प्रणाली ठप्प हो गयी थी और इसलिए बहुत लम्बी पंक्ति चल रही थी। सब बहुत परेशान थे कि समय से उनका प्रवेश पंजीकरण नहीं हो पायेगा ताकि वे एम्स्टर्डम अपनी फ्लाइट पकड़ सकें। एक समय आया जब मेरे सामने जो लोग खड़े थे उन्होंने अपनी टिकट और पासपोर्ट निकाले और जब मैंने वैसा करना चाहा, मैंने देखा कि मैं तो अपना पासपोर्ट लाना भूल गया हूँ। मैं बिना पासपोर्ट के प्रवेश पंजीकरण नहीं करा सकता था और मेरे पास जर्मनी का पहचान पत्र भी नहीं है।
मेरे पूरे जीवन में पहली बार ऐसा हुआ है। अब मैं क्या करूँ? मैं हवाई अड्डे पर खड़ा हूँ और यह बिलकुल असंभव है कि मैं अपने अपार्टमेंट जाकर पासपोर्ट सहित विमान के प्रस्थान-समय से पहले हवाई अड्डे पहुँच सकूँ। क्या ऐसी बात को लेकर मैं परेशान हो जाऊं? उससे तो कोई सहायता नहीं मिलेगी। क्या मैं क्रोधित हो जाऊं? उससे भी कोई सहायता नहीं मिलेगी। मैं सूचना पटल पर गया और पूछा कि क्या उसके बाद भी कोई फ्लाइट है? मुझे पता चला कि उस हवाई अड्डे से तो नहीं है; यद्यपि शहर के दूसरे कोने पर स्थित हवाई अड्डे से एक फ्लाइट जा रही थी। जिसका अर्थ यह हुआ कि मैं संध्यासमय को जिस आयोजन में जाना चाह रहा था वह सम्भव नहीं होगा। अब क्या किया जाए? मैं घर गया, दूसरी फ्लाइट के लिए आरक्षण किया, संध्यासमय हवाई यात्रा की।
इस प्रकार के अनुभव एक परीक्षा होते हैं यह जांचने के लिए कि हमने इन शिक्षाओं को किसी सीमा तक अपने जीवन में उतारा है। क्या हम अशांत होकर अस्त-व्यस्त हो जाएँ? यदि हम क्रोधित होते हैं तो अपने को ही आहत करते हैं और व्याकुल होते हैं। हमें उस स्थिति को तत्काल स्वीकार करके जो हो सकता है वह करना चाहिए। अनित्यता सम्बन्धी बुद्ध की शिक्षाओं को समाहित करके उनका उपयोग करना चाहिए बजाय इसके कि हम अपने प्रक्षेपणों पर जमे रहें। उदाहरण के लिए, यदि मैंने एक फ्लाइट पकड़ने की योजना बनाई थी तो उसे छोड़कर एम्सटर्डम हवाई अड्डे से रोटरडम जाने वाली रेलगाड़ी पकड़ें और संध्या के कार्यक्रम में जाएँ। यह एक स्वप्न की भांति है और उस प्रकार घटित नहीं हो पायेगा। ठीक है, तो अब हम एक वैकल्पिक योजना बनाए।
इसका सम्बन्ध उस मूलभूत निर्देश से है जो ध्यान-साधना के लिए दिया गया है : हमें किसी अपेक्षा के बिना ध्यान साधना करनी चाहिए और फिर हमें निराशा नहीं होगी। बौद्ध मठ के व्यावहारिक अनुपालन के लिए यह अत्यन्त मूलभूत बात है।
मेरी बहन के दो पुत्र हैं और उन पुत्रों के चार बालक हैं। मैं सदैव उसे प्रेरित करता हूँ कि वह यह उम्मीद न करे कि उसके पुत्र या उसके बालक उसे फ़ोन करेंगे। यदि हम वैसी आशा करते हैं, तो हमें निराशा होगी क्योंकि वे ऐसा नहीं करेंगे। यदि हमें किसी से बात करनी है, तो हम उन्हें फ़ोन कर सकते हैं। सीधी सी बात है; हम उस वास्तविकता को स्वीकार करें। यदि हम उसे बदल सकते हैं, तो बदल दें। यदि हम वैसा नहीं कर सकते, तो हम उसे बदल नहीं पायेंगे। हमारा खोया हुआ सामान जब उसे आना है तभी आएगा। हम उसे स्वीकार करें।
मैं फिर कहूंगा, प्रक्षेपण दो प्रकार के होते हैं एक जो उपयोगी है – हम कोई योजना न बनाएं। यदि हमें कहीं जाना है तो हमें हवाई यात्रा के लिए आरक्षण तो करना होगा। तथापि दूसरी प्रकार की योजनाएं उपयोगी नहीं होती, वे हानिकारक होती हैं।
प्रक्षेपण तथा व्यावहारिक अनुप्रयोग
अपने हानिकारक प्रक्षेपणों पर विचार करने से पहले अच्छा हो कि हम पल भर रुककर अपनी स्थिति पर विचार करें कि हम परिवर्तन के लिए कितने तैयार हैं? हम कितने बेचैन हो जाते हैं जब हमारी योजना के अनुसार कुछ नहीं होता, हम किसी निश्चित कार्यक्रम के फलीभूत न होने पर किस सीमा तक उसी पर अड़े रहते हैं; उदाहरण के लिए अमुख कार्य इतनी समय अवधि में पूरा हो जाना चाहिए; अथवा यदि हम किसी रेस्टोरेंट में जाएँ तो उनके पास हमारा मनचाहा व्यंजन होना चाहिए, और वह जल्दी से परोस दिया जाना चाहिए। हम किसी योजना अथवा अपेक्षा से किस सीमा तक जुड़े रहते हैं? ध्यान दीजिये कि जब हम निराश होते हैं तो वह स्थिति कितनी अप्रियकर हो जाती है। हम अपनी आशाओं के कारण निराश होते हैं। हम सोचते हैं कि हमारी योजना को यथार्थ से मेल खाते हुए वास्तव में ठीक उसी प्रकार फलीभूत होना चाहिए।
परन्तु प्रत्येक बात कारणों तथा परिस्थितियों पर निर्भर होती है। रेस्टोरेंट के यहाँ हमारा मनचीता व्यंजन समाप्त हो गया। रेलगाड़ी विलम्ब से आयी; हम यातायात में फंस गए और हमारा वायुयान छूट गया। ये कारण और स्थितियां हैं। एक पल के लिए जांच कर देखिये कि हमारा रवैया कितना लचीला है। क्या इसमें आपको सुधार करने की आवश्यकता है? अनित्यता के विषय में जानना मात्र पर्याप्त नहीं है अथवा श्वास पर ध्यान केन्द्रित करना और अनुभव करना कि श्वास भी अनित्य है। यह बहुत अच्छा है; परन्तु, हम इसे अपने जीवन में लागू कैसे करें? अनित्यता का यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष है।
एक व्यावहारिक उदाहरण के विषय में सोचिये जैसे किसी प्लेट का गिरकर टूट जाना। इसके प्रति आपकी भावात्मक प्रतिक्रिया क्या होती है? आप खाना बना रहे हैं और वह जल जाता है। हम भावात्मक रूप से उसका सामना कैसे करते हैं? इसी से हमारी प्रगति प्रकट होती है। हम कंप्यूटर अथवा फ़ोन पर कुछ करना चाहते हैं और वे काम नहीं करते। क्या आप तत्काल कोई दूसरा रास्ता खोज सकते हैं अथवा आप परेशान हो जाते हैं क्या आप अपशब्द कहते हैं?
शिक्षाओं का यह व्यावहारिक अनुप्रयोग है। यदि इन स्थितियों में हम परेशान हो उठते हैं और किसी दूसरी योजना को शुरू नहीं कर पाते, फ़ोन, कंप्यूटर पर किसी अन्य प्रकार कार्य करने का भी रास्ता होता है – यदि हम परेशान हो जाते हैं, तो इससे संकेत मिलता है कि इस क्षेत्र में हमें आत्मसुधार करने की आवश्यकता है।
हानिकारक प्रक्षेपण
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, दो प्रकार के प्रक्षेपणों में से एक उपयोगी होता है। योजना बनाकर समय निश्चित करने में तथा दूसरा हानिकारक होता है। ऐसी कल्पनाएँ करना कि “मैं अभागा हूँ; कोई मुझसे प्रेम नहीं करता; यह व्यक्ति कितना भयावह है, इत्यादि” हानिकारक होती हैं। अथवा यदि खाना बनाते हुए जल जाए या रेलगाड़ी छूट जाए तो सोचना कि यह तो घोर विपत्ति है। इस प्रकार के हानिकारक प्रक्षेपण अतिरंजना पर निर्भर होते हैं।
क्रोधवश हम किसी चीज़ के नकारात्मक पक्ष को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर उस बात का बतंगड़ बना देते हैं। अनेक लोगों को इसका अनुभव है सबवे या मेट्रो में : हम जैसे ही सीढियों से उतरते हैं रेलगाड़ी प्लेटफार्म छोड़ देती है। इस स्थिति का हम कैसे सामना करते हैं? क्या हम अपशब्द कहने लगते हैं? पांच या दस मिनट प्रतीक्षा करनी पड़े तो उसमें ऐसी क्या बुराई है। परन्तु हम क्रोधित होकर उसे बहुत बड़ी बात बना देते हैं और परेशान हो जाते हैं। हम व्याकुल हो जाते हैं परन्तु उससे कोई लाभ नहीं होता, क्या होता है?
लोभ एवं आसक्तिवश हम सोचते हैं कि कोई वस्तु संसार की सर्वोत्तम वस्तु है, अथवा हम संसार के सर्वोत्तम व्यक्ति की संगति में हैं। हम अतिरंजना करते हैं, प्रेमासक्त हो जाते हैं, और उस व्यक्ति की अच्छी बातों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं। हम चाहते हैं कि वह व्यक्ति हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरे परन्तु ऐसा कोई नहीं कर पाता। फिर हम निराश हो जाते हैं।
ऐसा दृष्टिकोण समस्याजनक होता है। प्राय: होता यह है कि हम चीज़ों को अत्यंत संकीर्ण परिप्रेक्ष्य से देखते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसा तब होता है जब हमारे जीवन में कोई निराशा हाथ आती है, अथवा कोई हमें त्याग देता है अथवा कोई हमारे साथ अप्रियकर व्यवहार करता है। जिस व्यक्ति के साथ हमारा सम्बन्ध चल रहा है, वह कुछ ऐसा करता है जो हमें नहीं सुहाता, हमारे जन्मदिन पर फ़ोन नहीं करता या फिर क्रोधित होकर हम पर चीखता-चिल्लाता है या ऐसा ही कुछ हो सकता है। हम केवल एक घटना पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। हम पूरे सम्बन्ध के विस्तृत फलक को नहीं देखते। हम केवल इस छोटी सी बात के साथ उस सम्बन्ध को एकाकार कर लेते हैं और फिर हम क्रोध से भर उठते हैं।
यदि कोई कठिनाई आती है या हम रोगग्रस्त हो जाते हैं, तो हम सोच लेते हैं, “मैं बेचारा; मुझको ही यह भुगतना पड़ रहा है”। अब यह फिर वही संकीर्ण दृष्टिकोण है। यह एक ऐसा प्रक्षेपण है जो विस्तृत परिप्रेक्ष्य को नहीं देख पा रहा। उदाहरण के लिए, “कोई मुझसे प्रेम नहीं करता”। यदि हम पूरे जीवन की छानबीन करके देखें तो क्या हमारे पूरे जीवन में कभी किसी ने हमसे प्रेम नहीं किया हमारा कुत्ता हमसे प्रेम नहीं करता? क्या किसी ने कभी हमसे अच्छा व्यवहार नहीं किया, हमारा ध्यान नहीं रखा? एक अन्य उदाहरण, “मैं कितना अभागा हूँ”। क्या यह सत्य है? क्या यह सच है कि हम कभी सफ़ल नहीं हुए? हम सफल हुए, हमने चलना सीखा या शौच प्रशिक्षण सीखा, अत: निश्चित रूप से हम कहीं न कहीं सफल हुए हैं।
फिर हमारे प्रक्षेपण यथार्थ से मेल नहीं खाते; परन्तु हम चाहते हैं कि वे उनसे मेल खाएं और विश्वास करते हैं कि वैसा है। हम चाहते हैं कि हमारा साथी सबसे अद्भुत, संसार का सबसे विशिष्ट व्यक्ति हो। एक अच्छा उदाहरण है दक्षिणी ध्रुव प्रदेश में पेंगुइन पक्षी, जिसका आजीवन एक ही जीवन साथी होता है। हमें तो वे सब एक जैसे लगते हैं परन्तु किसी पेंगुइन के लिए उनमें से कोई एक विशिष्ट होता है। निस्संदेह, पेंगुइन के परिप्रेक्ष्य से सभी मनुष्य एक जैसे लगते हैं, किन्तु हमारे लिए, यदि कोई अन्य व्यक्ति हमसे प्रेम करे तो हमें कोई अंतर नहीं पड़ेगा। नहीं वही होना चाहिए बस वही यानी तुम – सबसे विशिष्ट – तुम मुझसे प्रेम करो। इस प्रकार की अतिरंजना बहुत सहायक नहीं होती।
यथार्थ को नकारना
हानिकारक प्रक्षेपण का एक अन्य प्रकार है यथार्थ को नकारना, दूसरों के यथार्थ को न समझकर उसे अस्वीकार करना। ऐसा तब होता है जब हम लोगों को इन्द्रियग्राही बना देते हैं, यह सोचे बिना कि वे भी मनुष्य हैं और उनकी भी भावनाएं हैं। बौद्धधर्म की एक विख्यात पंक्ति है : “सब सुखी होना चाहते हैं और कोई भी दुखी होना नहीं चाहता।” हम दूसरे के विषय में किस बात पर कितना गंभीरतापूर्वक विचार करते हैं। प्राय: हम इसकी उपेक्षा करते हैं तथा इस प्रकार व्यवहार करते हैं कि हम उनसे चाहे कैसा भी बर्ताव क्यों न करें या वार्तलाप करें, कोई अंतर नहीं पड़ता। मानो कारण और प्रभाव का सिद्धांत यहाँ लागू नहीं होता, तथा मुझे छोड़कर किसी की भावनाएं नहीं हैं।
उदाहरण के लिए, हमारे कार्यक्षेत्र में कोई बहुत खिजाने वाला अप्रिय व्यक्ति है। परन्तु फिर भी वह व्यक्ति सुखी होना चाहता है और दुखी होना नहीं चाहता। ऐसे लोग चाहते हैं कि लोग उन्हें पसंद करें, नापसंद न करें। वे अप्रिय रूप से व्यवहार करते हैं क्योंकि वे भ्रमित होते हैं कि वे किस प्रकार सुखी हो सकेंगे। यहाँ फिर वही गैर-आलोचनात्मक रवैया आ जाता है। जैसा कि शांतिदेव ने कहा, हम अपने सुख को विनष्ट कर देते हैं मानो वह हमारा शत्रु हो। दूसरे शब्दों में हम दुःख के कारणों की ओर स्वयं दौड़कर जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति अत्यधिक स्वार्थी होकर व्यवहार कर रहा है, तो यह उसके त्यागे जाने का कारण बन जाता है। उसका ऐसा व्यवहार कोई भी पसंद नहीं करता परन्तु वह व्यक्ति सोचता है कि यह उसे सुख प्रदान करेगा।
दूसरों के संपर्क में आने पर यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है। समझने का प्रयास कीजिये, “आप सुखी होना चाहते हैं जैसे मैं होना चाहता हूँ। मेरी भांति आपकी भी भावनाएं हैं। आप दुखी नहीं होना चाहते, पसंद किये जाना चाहते हैं, जैसा कि मैं चाहता हूँ। आप नहीं चाहते कि आपको नापसंद किया जाए या त्याग दिया जाये, जैसा कि मैं नहीं चाहता।” जब हम किसी बस में बैठे होते हैं या ट्रैफिक में फंसे होते हैं तो यह अभ्यास अत्यंत सहायक होता है। सब अपने-अपने गंतव्य तक पहुंचना चाहते हैं और कोई भी ट्रैफिक में बैठे रहना नहीं चाहता जैसा कि हम नहीं चाहते। दूसरों पर क्रोधित होने का कोई कारण नहीं है। हमारे भांति सबकी भावनाएं हैं।
एक अत्यधिक सहायक पंक्ति है : “सब बुद्ध को पसंद नहीं करते थे; तो हम यह आशा क्यों करें कि सब हमें पसंद करेंगे?” अथवा, “उन्होंने यीशु को सूली पर चढ़ाया, तो हम अपने लिए क्या उम्मीद करते हैं”। क्या संभव है कि सभी हम से प्रेम करें? यह बहुत महत्त्वपूर्ण है जब कोई हमें पसंद नहीं करता अथवा हमारी आशा के विपरीत इच्छित अनुकूल व्यवहार नहीं करता। जीवन में व्यावहारिक स्तर पर अपनी अवास्तविक आकांक्षाएं एवं प्रक्षेपणों का प्रतिवाद करने के लिए ये पक्तियां अत्यंत सहायक हो सकती हैं। हम सोच सकते हैं, “मेरी बात हमेशा ठीक होनी चाहिए और सबको मेरी बात सुननी चाहिए”। परन्तु वे ऐसा क्यों करें?
याद रखिये यहाँ हम वास्तविक और अवास्तविक में विभेद कर रहे हैं। हो सकता है कि हम बेहतर करने के लिए, सुधार करने के लिए, अधिक एकाग्र होने की अथवा वैसा कुछ और करने की प्रेरणा रखते हों। यदि हम उस योग्य हों तो बेहतर करने की प्रत्याशा यथार्थवादी है। परन्तु जब हम सोचते हैं, “मुझे आपके जीवन में सदैव सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होना चाहिए। आपको मेरे लिए सदैव उपलब्ध होना चाहिए”। ताकि जब हमारा साथी अपने काम से वापस घर आये तो ऐसा लगे कि जैसे दिन भर में उस साथी या साथिन के साथ कुछ भी घटित नहीं हुआ और वे शून्य से उतर कर आ रहें ताकि वे पूर्ण रूप से उपलब्ध हों – ऐसी आशा करना अवास्तविक है, नहीं है क्या?
चलिए एक पल के लिए विचार करते हैं कि अवास्तविक आशाएं क्या होती हैं। हमारे भीतर ऐसी कितनी अवास्तविक अपेक्षाएं हैं और हम उन्हें कितनी भली प्रकार पहचान सकते हैं? क्या हम जानते हैं कि जब हम उनमें विश्वास करते हैं तो वे हानिकारक होती हैं और हमें क्षति पहुंचाती हैं? क्या हम समझ पाते हैं कि वे भावात्मक वेदना का कारण बनती हैं? दलाई लामा उन्हें आंतरिक विपत्तिकारक कहा करते हैं।
पश्चिम जगत में बहुत से लोग गुण-दोष विवेचक दर्शनों से प्रभावित हैं। हममें से अनेक के लिए सबसे अधिक समस्याजनक विचार है कि हम किसी काम के नहीं हैं। अब यह अत्यंत आलोचनापरक विचार है। हमें इस बात को समझना चाहिए कि कोई हमें आंक नहीं रहा और निश्चित रूप से हमें अपने को भी आंकने की कोई आवश्यकता नहीं है। हो सकता है कि हम भ्रमित हों; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम किसी प्रकार कमतर हैं या कि बुरे हैं। यह अत्यंत विनाशकारी प्रक्षेपण है।
यह अनिवार्य है कि हम इन दो सत्यों के मध्य विभेद कर सकें जो हमें सत्य प्रतीत हो रहा है, उदाहरण के लिए कि हम किसी काम के नहीं हैं उस पर विश्वास करने का कोई पुष्ट कारण नहीं है। अत: हमें उसपर विश्वास न करते हुए कारण व परिणाम की दृष्टि से जीवन व्यतीत करना चाहिए। यदि हम कुछ सिद्ध करना चाहते हैं तो हमें उसके कारण तैयार करने चाहिए, यदि यह संभव है कर डालिए, यदि यह संभव नहीं है तो यथार्थ को स्वीकार कीजिये। उदाहरण के लिए यदि हमें बेहतर रोज़गार चाहिए तो हमें उसकी खोज करनी चाहिए। हमें यह सोचकर बैठ नहीं जाना चाहिए कि वह सीधा आकाश से उतर कर आएगा या कोई हमें उसे थमा देगा। इसके कारण और प्रभाव होते हैं। हमें संभावनाओं के प्रति ग्रहणशील होना चाहिए तथा उनका लाभ उठाना चाहिए। हम केवल किसी स्थिति में बंधकर रह जाते हैं और सोचते रहते हैं कि वह कितनी भयावह है, हम तो कभी आगे बढ़ ही नहीं पायेंगे और अब कुछ नहीं हो सकता। इस प्रकार के विचार अत्यंत नकारात्मक हैं। जैसा कि प्रार्थना में कहा गया है : कुछ भी नकारात्मक मत कीजिये। यह केवल कर्म या बोल पर ही नहीं विचारों पर भी लागू होता है। इसमें यह भी शामिल है कि हम अपने को और दूसरों को क्या समझते हैं।
चार आर्यसत्य
प्रक्षेपण को यथार्थ से अलग करने की दृष्टि का अभिप्राय है कि चार आर्यसत्यों को अपने जीवन में कैसे लागू किया जाए। जैसा कि परम पावन बल देते हैं हमें दो आर्यसत्यों से चार आर्यसत्यों तक पहुँचना होगा। हमें समझना होगा कि हमारी समस्या प्रथम आर्यसत्य कारणों से उद्भूत होती हैं, जो कि दूसरा आर्यसत्य है। हम यह प्रक्षेपण करते हैं तथा इसके साथ इस तथ्य के प्रति अनभिज्ञता अथवा सचेतनता का अभाव रहता है कि ये प्रक्षेपण यथार्थ से मेल नहीं खाते। यदि हम इनका अवरोधन चाहते हैं – तीसरा आर्यसत्य उनसे मुक्ति पाना, हमें यथार्थ का बोध होना चाहिए – चौथा आर्यसत्य – और कल्पना के गुब्बारे को फोड़ना चाहिए।
इसे लागू करने के लिए बौद्धधर्मी होना आवश्यक नहीं है। जैसा कि दलाई लामा ने कहा है कि यह एक सर्वव्यापी दृष्टिकोण है और हमें इसका उल्लेख चार आर्यसत्यों के रूप में करने की आवश्यकता नहीं है। उसे कोई नाम देने की जरूरत ही नहीं है। इस रूप में, वास्तव में हम त्रिरत्नों की ओर चले जाते हैं उनका वर्णन किये बिना। हम समझ जाते हैं कि हम यदि अपनी समस्याओं के कारणों को मिटा देंगे तो समस्याएँ दूर हो जायेंगी। जिस स्तर पर कारण और समस्याएँ लुप्त हो जाती हैं तथा जो बोध इन्हें जन्म देता है वह धर्मरत्न है। ये तीसरा और चौथा आर्यसत्य है। बुद्धजन वे हैं जो इसे पूर्णत: कर चुके हैं तथा संघ वे हैं जो इसे आंशिक रूप से कर पायें हैं।
इस प्रकार दो आर्यसत्य, चार आर्यसत्य और त्रिरत्न हैं और इसके लिए हमें बौद्ध’धर्मी बनने की आवश्यकता नहीं है। बौद्धधर्मी होने की विभाजक रेखा है भावी जीवनकालों में सुधार करने के लिए काम करना। यद्यपि, इसके लिए विगत तथा भावी जीवनकालों में विश्वास रखना आवश्यक नहीं है। जैसा कि परम पावन कह रहे थे हमारी परंपरागत सूत्र दृष्टि जैसा कि अतिश के युग में लाम-रिम के रूप में तिब्बत में प्रस्तुत की गयी, प्रेरणा के तीन स्तरों के रूप में। इसके अधीन हम भावी जीवनकालों में सुधार करते हैं, अनियंत्रित रूप से भावी जीवनकालों से मुक्ति प्राप्त करते हैं तथा ज्ञानोदय प्राप्त करते हैं ताकि अन्य सभी को भावी जीवनकालों से मुक्ति दिलाने में पूर्णत: सक्षम हो सकें। यह पूरी व्यवस्था भावी जीवनकालों एवं पुनर्जन्म पर आधारित है। इन चार विचारों के साथ चित्त धर्म की ओर अभिमुख होता है जो कि पुनर्जन्म का समानार्थी है। यह पूरा मार्ग इस विश्वास पर आधारित है कि पुनर्जन्म जैसी कोई चीज़ है।
पश्चिमवासियों के लिए अथवा अधिक सामान्य दृष्टिकोण रखने वालों के लिए बेहतर होगा कि क्रमश: दो सत्यों, चार सत्यों तथा त्रिरत्नों के रूप में आगे बढ़ा जाए। इसके पश्चात हम कारण और परिणाम की चर्चा प्रस्तुत कर सकते हैं परन्तु कारण और प्रभाव का कोई अर्थ नहीं होगा यदि हम निरपेक्ष आरम्भ मानते हैं। यह हमें अनादि चित्त की ओर ले जाता है; और यदि हमें अनादि चित्त का बोध हो जाता है तो हम पुनर्जन्म भी समझ लेते हैं। इस बिंदु पर, हम सच्चे मन से भावी जीवनकालों को लाभान्वित करने तथा संसार अर्थात अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से मुक्ति पाने के आकांक्षी हो जायेंगे। लाम-रिम क्रमिक मार्ग से हमारा सम्बन्ध यदि केवल पुनर्जन्म पर आधारित है तो वह स्थिर नहीं होगा। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इस आधार पर लाम-रिम का अभ्यास निष्फल है; इसका अर्थ है कि वह अधिक स्थिर होगा यदि हम वहां पहुँच सकें जहाँ परम्परागत रूप से तिब्बतवासी आरम्भ करते हैं अर्थात पुनर्जन्म में विश्वास।
दो सत्यों का विन्यास यह भी इंगित करता है कि हम इन शिक्षाओं को अपने जीवन में कैसे विन्यस्त कर सकते हैं। यह आरम्भ होता है अपने प्रक्षेपणों तथा यथार्थ में विभेद करने से, यह पहचानने से कि हम कब अपने भ्रांत विश्वास को प्रक्षेपित कर रहे हैं। यह सब करते हुए हमें गैर-आलोचनात्मक होना होगा। उदाहरण के लिए, “मैंने सोचा था कि आप मेरी इसमें सहायता करेंगे परन्तु आपने नहीं की”, अथवा “मैंने सोचा था कि आप इसे ठीक ढंग से करेंगे, परन्तु आपने नहीं किया”। अपने कार्यस्थल पर हमने किसी को इस आशा के साथ कोई काम सौंपा कि वे उसे भली भांति करेंगे परन्तु उन्होंने नहीं किया। ऐसे में हम क्या करें? हम उसे स्वयं कर लें? क्या हम उस व्यक्ति से रुष्ट हो जाएँ? उससे बात नहीं बनती। भविष्य में उन्हें वैसा कोई काम मत सौंपिए अथवा उन्हें सही ढंग से करना सिखाइए। यथार्थ का सामना कीजिये। हम अशांत हो जाते हैं क्योंकि हम यह आशा करते हैं कि वह व्यक्ति मार्गदर्शन के अभाव में उस काम को भली भांति कर लेगा। हम आशा करते हैं कि वे ऐसा करेंगे; यह दूसरी बात है। कोई प्रत्याशा न हो तो निराशा भी नहीं होती।
अशांतकारी मनोभाव
जब हम इस पंक्ति का पालन करना चाहते हैं कुछ भी नकारात्मक कभी मत कीजिये हमें पहचानना होगा कि हम कब अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में कोई काम करते हैं, वचन बोलते हैं अथवा सोचते हैं। अशांतकारी मनोभावों की परिभाषा है एक ऐसी चित्तावस्था जो विकसित होकर हमारे चित्त की शांति एवं आत्म-नियंत्रण का लोप कर देती है। जब हम क्रोधित होते हैं, तो हम अपने चित्त की शांति खो देते हैं, ऐसी बात कहते हैं और ऐसे कृत्य करते हैं जिन पर बाद में हमें पछतावा होता है। जब हम लोभवश अथवा आसक्तिवश व्यवहार करते हैं तो वह शांत चित्तावस्था नहीं होती और हम ऐसी बातें कह जाते हैं जो बाद में हमें बहुत हास्यास्पद लगती हैं। प्राय: दूसरा व्यक्ति पीछा छुड़ाकर भाग जाता है क्योंकि हम बहुत अधिक अपेक्षा करते हैं और पीछे पड़े रहते हैं।
हमें पहचानना होगा कि हम कब अशांतकारी मनोभावों के प्रभाव में व्यवहार कर रहे हैं। जब हम कुछ अधिक संवेदनशील हो जाते हैं अपनी ऊर्जा के विषय में, हम अनुभव कर सकते हैं कि शत्रु भाव अथवा आसक्ति के पीछे एक घबराहट छिपी रहती है। ये विनाशकारी एवं अशांतकारी मनोभाव हमारे अनभिज्ञता एवं सचेतनता के अभाव से जन्म लेते हैं। हम कारण और परिणाम से अनभिज्ञ होते हैं। ऐसा नहीं है कि हम मूर्ख हैं, हम अनभिज्ञ होते हैं कारण और प्रभाव के उत्स से तथा इस बात से कि हमारे प्रक्षेपण यथार्थ से मेल नहीं खाते।
सप्त-बिंदु चित्त साधना में सारगर्भित रूप से कहा गया है :
केवल एक बात को दोषी मानिये, आत्म-पोषण।
इसका तात्पर्य है कि हम सदैव चाहते हैं कि स्थितियां हमारे अनुसार घटित हों जिस प्रकार हम चाहते हैं। यह “पहले मैं” दृष्टिकोण होता है : “मैं जिस प्रकार मानता हूँ और अपेक्षा करता हूँ स्थितियां उसी प्रकार घटित हों”। अपनी समस्याओं के लिए ऐसे दृष्टिकोण को दोषी ठहराना एक अत्यंत सहायक परामर्श है। इसके उदाहरण हैं : “मैंने चाहा था कि यह रेस्टोरेंट बिल्कुल बढ़िया हो”, या “मैंने चाहा था कि आज की संध्या आदर्श संध्या हो”, या “मैंने चाहा था कि आप मेरे प्रति इस प्रकार व्यवहार करते”। इन स्थितियों का जन्म होता है, “मैं, मैं, मैं” से। हम केवल अपने बारे में सोच रहें हैं दूसरे के बारे में नहीं। हम नहीं सोच पा रहे कि दूसरे व्यक्ति का दिन कठिनाइयों से भरा रहा हो या वह किसी और चीज़ में व्यस्त हो। यह दृष्टिकोण केवल “मैं” और मैं क्या चाहता हूँ पर आधारित होता है। ये कुछ ऐसे विषय हैं जिनपर ध्यान देकर इन्हें अपने दैनिक जीवन में लागू करें। जीवन सम्बन्धी बौद्धधर्मी दृष्टिकोण कहता है कि अपनी समस्याओं के लिए केवल अपने आत्म-पोषक दृष्टिकोण को दोषी ठहराइए। इसका अभिप्राय है स्वार्थी एवं आत्म-केन्द्रित होना। इसका मंतव्य यह नहीं कि अपनी आवश्यकताओं की पूरी तरह अनदेखी की जाए, बल्कि यह कि केवल अपनी आवश्यकताओं को ही महत्व देकर दूसरों की आवश्यकताओं की उपेक्षा न की जाए। यह मूलभूत दृष्टिकोण है।
अतिउत्तम रूप से सम्पादित करें जो रचनात्मक है, का अर्थ है बोधयुक्त कृत्य। क्रोध, लोभ रहित अथवा स्वार्थ के अभाव सहित। हम ऐसा व्यक्ति होने से बचते हैं जिसे सदैव अनुमोदन एवं आकर्षण का केंद्र बना रहने की आवश्यकता रहती है। जब हम उस प्रकार के दृष्टिकोण के प्रभाव में व्यवहार करते हैं तो हम कठिनाई का कारण बनते हैं, नहीं क्या? हम दूसरों से अवास्तविक मांगें करते हैं और फिर निराश होते हैं। रचनात्मक रूप से व्यवहार करने का अभिप्राय है ऐसे दृष्टिकोण से रहित कृत्य करना। इसका अर्थ यह नहीं कि हमने गहनतम स्तर पर इन अशांतकारी मनोभावों एवं दृष्टिकोणों का सत्य अवरोधन कर लिया है; अपितु हम उनके प्रबल प्रभाव के अधीन व्यवहार नहीं करते।
जीवन हमारा प्रशिक्षण केंद्र है
हम नासमझ होना नहीं चाहते कि हम दूसरों की विशेषताओं को पहचान न सकें। हमें समझना होगा कि जिस प्रकार हमारी भावनाएं हैं, उसी प्रकार दूसरों की भी भावनाएं हैं। जिस प्रकार हम ठुकराए जाना या उपेक्षित होना नहीं चाहते अन्य भी उसी प्रकार उपेक्षित या ठुकराए जाना पसंद नहीं करते। यह बोध हमें अपने जीवन पर लागू करने की आवश्यकता है। ऐसा करने के लिए, हमें अपने चित्त का पूर्णत: शमन करना होगा, जैसा कि प्रार्थना की तीसरी पंक्ति में उल्लेखित है।
अपने जीवन को प्रशिक्षण केंद्र के रूप में देखना अत्यंत सहायक होता है। साधना का भी यही अभिप्राय है। निश्चित रूप से यह केवल मनोरम वातावरण में एक आसन पर बैठकर जहाँ मोमबत्तियां और लोबान और शान्ति हो तथा निस्संदेह रोते हुए बालक तो बिल्कुल न हों सीमित नहीं है ।
एक बार मैं एक बौद्धधर्मी केंद्र में गया जहाँ मेरा एक छात्र शिक्षा दे रहा था। वहां कोई अपना ढाई वर्ष का बालक साथ लाया हुआ था। सत्र के दौरान वह ढाई वर्ष का बालक शिक्षा कक्ष में यहाँ से वहां दौड़ता फ़िर रहा था। आप ढाई वर्ष के बालक से और क्या आशा करते हैं – कि वह एक-डेढ़ घंटे तक बिल्कुल निश्चल बैठा रहेगा। उस शिक्षक ने कहा कि उस नन्हें से बालक को कक्षा में लाना बिल्कुल सही था; उस नन्हें से बालक का इधर-उधर दौड़ना और शोर मचाना जबकि हम ध्यान साधना कर रहे हैं, एक अद्भुत चुनौती थी। यही वास्तविक ध्यान साधना है। क्या हम इन स्थतियों में अशांत अथवा अन्यमनस्क हुए बिना ध्यान साधना कर सकते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वह अभिवावक उस बालक पर ध्यान न दें कि कहीं उसके चोट न लग जाए। परन्तु क्या हम बाहर से आते हुए यातायात के इतने शोर में ध्यान साधना कर सकते हैं, या फिर ट्रैफिक में फंसी हुई अवस्था में भी?
यही जीवन है और जीवन को अभ्यास साधना का क्षेत्र, हमारे अज्ञान, अनभिज्ञता एवं अशांतकारी मनोभावों से संघर्ष करने का वास्तविक युद्ध क्षेत्र होना चाहिए। अतिश ने बोधिसत्व रत्नमाला में स्पष्ट रूप से लिखा है :
जब अनेक के मध्य रहूँ, मुझे अपनी वाणी पर नियंत्रण चाहिए। जब एकांत में रहूँ, तो मैं अपने चित्त पर अंकुश रख सकूँ।
यह अत्यंत सहायक है। जब हम दूसरों की संगति में हैं, ध्यान रखिये कि हम उनसे कैसे बोलते हैं। केवल शब्दों की बात नहीं है बल्कि हमारा लहजा, मनोभाव और उनके पीछे कार्यरत हमारी मनोदृष्टि। यदि हमें लगता है कि हम विद्वेष अथवा अहंकार के साथ बोल रहे हैं, उस पर ध्यान दीजिये और अपने स्वर को नीचा कीजिये। जब हम अकेले होते हैं तो यही बात हमारे चित्त पर लागू होती है। ध्यान दीजिये हम क्या सोच रहे हैं, वही सारा का सारा “मैं बेचारा, कोई मेरी सराहना नहीं करता” संलक्षण।
यह हमें ले जाता है सप्त बिंदु चित्त साधना की ओर जिसमें कहा गया है कि हमें तीन विभिन्न बातों के प्रति सचेतन रहना चाहिए - सचेतन रहने का अर्थ है इन्हें याद रखना तथा इन्हें लागू करना और बनाये रखना। सचेतनता के विषय में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है। हम सचेतनता अभ्यास के विषय में सुनते हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इसे पश्चिमी सन्दर्भ में समझा जाए, कि हम केवल इसी क्षण में बने रहें। “सचेतनता” शब्द का अर्थ है याद रखना। हमें यह याद रखने की आवश्यकता है कि हम जो प्रक्षेपण कर रहे हैं वह अनर्गल है तथा फिर इस बोध को लागू करना और फिर निरंतर इसका अनुपालन करना। दैनिक जीवन में यही वास्तविक साधना है।
निर्वैचारिक एवं वैचारिक अवस्थाए
इस बौद्धधर्मी परामर्श में निर्वैचारिक होने का परामर्श दिया गया है। इसका क्या तात्पर्य है? निस्संदेह हम इसकी अत्यंत औपचारिक परिभाषा एवं विश्लेषण का वाचन कर सकते हैं। परन्तु हम व्यावहारिक स्तर पर देखें तो हमारा लक्ष्य है कि हमें इन बातों को व्यवहार में लाने के लिए सोचना न पड़े। ऐसी स्थितियों में जब हमारी फ्लाइट या रेलगाड़ी छूट जाए तो हमारा उद्देश्य यह है कि हमें अनित्यता, कारण एवं परिस्थितियों से स्थितियों का प्रभावित होना तथा क्रोधित होना, निष्फल होगा, के विषय में सोचना न पड़े। प्रथम चरण में इन बिन्दुओं के विषय में सोच सकते हैं परन्तु हमारा लक्ष्य है कि बाद में वह स्वत: स्फूर्त हो। हमें उसके विषय में सोचना न पड़े, वह स्वत: स्थित हो। हम उस विषय में अनावश्यक प्रतिक्रिया न करें बल्कि दूसरे विकल्प के लिए प्रस्तुत हों।
यही हमारा ध्येय है। यह कोई अवस्था नहीं है। परन्तु गैर औपचारिक रूप से हम यहीं तक पहुँचने का अभ्यास करते हैं ताकि हम इन शिक्षाओं को अपने जीवन ने उतार सकें ताकि हम स्वयं अपने तथा दूसरों के लिए अधिक कष्ट उत्पन्न न करें। बस इतनी सी बात है।
प्रश्न
किसी योजना पर अमल करते हुए लचीलापन बनाये रखना
मैं सोचता हूँ कि मैं परिवर्तन के लिए प्रस्तुत रहता हूँ परन्तु सदा ऐसा नहीं होता। यथार्थ बोध में मेरे सामने एक समस्या आती है कि किसी योजना को कब छोड़ दिया जाए और कब न छोड़ा जाए। यह जानना कि क्या बदला जा सकता। उदाहरण के लिए, मेरी रेलगाड़ी छूट गई, मैं भागा और एक टैक्सी पकड़ ली और फिर अगले स्टेशन से गाडी पकड़ ली। हम यह निर्णय कैसे करें कि अपनी योजना पर अड़े रहना उपयोगी होगा?
किसी योजना पर अमल करने या उसे छोड़ देने के साथ बहुत से कारक जुड़े होते हैं। हमें देखना होता है कि क्या कोई दूसरा विकल्प है, क्या परिवर्तन करना संभव है जैसे कि टैक्सी पकड़कर अगले स्टेशन से गाडी पकड़ना। यदि टैक्सी उपलब्ध नहीं है तो यह योजना छोडनी पड़ेगी। यह व्यावहारिक स्तर का उदाहरण हुआ। परन्तु एक अन्य स्तर पर, मान लीजिये हमने किसी स्कूल में प्रवेश पाने के लिए आवेदन किया और उस वर्ष अस्वीकृत हो गए। क्या हम हार मान लें, अथवा अगले वर्ष फिर से आवेदन करे? हमें स्थिति को परखना होता है। यदि हमारा कहीं और दाखिला नहीं होता तो अगले वर्ष पुन: आवेदन देने में कोई बुराई नहीं है। ऐसे में स्थिति का विश्लेषण करना होगा कि यथार्थ क्या है। हम अपनी योग्यताओं और अहर्ताओं को बढ़ा-चढ़ा कर तो नहीं देख रहे। हमें दूसरों की भी राय जाननी चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति की पसंद का विश्लेषण आवश्यक है इसका कोई एक निश्चित उत्तर नहीं है जो सब पर लागू हो सके। हमें देखना होगा कि इस ध्येय तक पहुँचना किन कारकों पर निर्भर है, क्योंकि स्थितियां कारण एवं परिस्थितयों पर आश्रित होती हैं। क्या वे कारण और परिस्थितियाँ पूरी हो पा रही हैं? यदि अभी वह संभव नहीं है, तो क्या भविष्य में वैसा होने की संभावना है? क्या विकल्प उपलब्ध हैं? हमें ऐसे निर्णयों और परिवर्तनों के विषय में बहुत तर्कसंगत ढंग से आगे बढ़ना होगा।
एक अत्यन्त भावुक व्यक्ति होना
मेरे लिए यह नई सी बात है कि मैं कैसे अपने आप को व्यथा के चक्र में उलझाए रखता हूँ। मैं याद रखना चाहता हूँ कि मेरे प्रक्षेपण तर्कसंगत नहीं हैं, परन्तु इस विषय में मेरी भावनाएं भिन्न हैं, मैं फिर पीछे लौट जाता हूँ। मैं स्वयं का अवमूल्यन करने से बचने के लिए क्या करूँ, क्योंकि अब याद रखना कठिन हो रहा है?
प्राय: हम जानते हैं कि क्या सहायक हो सकता है और सर्वोत्तम क्या रहेगा, परन्तु हमारी भावनाएं इतनी बलवती होती हैं कि कुछ भी कर पाना कठिन हो जाता है। वास्तव में सामान्यतया ऐसा होता है। हमें अधिक निर्णयक्षम होना चाहिए अर्थात यह निश्चय कर लेना चाहिए कि भले ही मैं बहुत भावुक और अव्यवस्थित हो जाऊं, मैं इन बातों पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार नहीं करूँगा।
यह महत्वपूर्ण है कि हम इसे गलत न समझ लें। हम किसी बात को लेकर बहुत परेशान और भावुक हो सकते हैं, परन्तु यह सब बीत जाता है। मनोदशाएँ एवं मनोभाव स्थिर नहीं रहते, बदल जाते हैं। उन्हें पकड़कर उनसे एकाकार नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए हमें यह नहीं सोचना चाहिए, “मैं कितना परेशान हूँ क्योंकि मैंने सब गड़बड़ कर दिया और अपनी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा। मैं किसी काम का नहीं हूँ”। ऐसा सोचते हुए हम उस मनोदशा से तादाम्य स्थापित कर लेते हैं और उसे पकड़ कर बैठ जाते हैं। हम मान लेते हैं कि हम जो अनुभव कर रहे हैं वह कितना महत्वपूर्ण और विशिष्ट है, परन्तु वैसा होता नहीं है। यह एक अस्थायी मनोदशा है। हमें आश्वस्त हो जाना चाहिए कि हम वास्तव में इसके आकांक्षी नहीं हैं। हमें आश्वस्त होना चाहिए कि यह मनोदशा गुज़र जायेगी और उसे गुजरने दीजिये। मन ही मन हम समझते हैं कि हमारी अपेक्षा अवास्तविक थी। हमें चोट पहुँचती है पर उसकी कसक चली जाती है। हम उस चोट पर बहुत गंभीर प्रतिक्रिया नहीं करते मानो यह संसार ही समाप्त हो रहा हो।
परम्परागत रूप से, किसी मनोदशा को आकाश में विचरण करने वाले बादल के रूप में वर्णित किया जा सकता है जो गुज़र जाएगा। उससे निपटने का यही एक रास्ता है। इसके अतिरिक्त हमें समझना होगा कि मनोभावों में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। हममें से कुछ अन्य लोगों से कहीं अधिक भावुक होते हैं, तो ठीक है, उस पर गुण-दोष विवेचन करने की कोई आवश्यकता नहीं। यह वास्तविकता को स्वीकार करने का ही एक अंग है। वास्तविकता यह है कि अभी हम यहाँ हैं, हम बहुत भावुक होकर जल्दी से अशांत हो सकते हैं, परन्तु हमें यहीं अटक कर नहीं रह जाना चाहिए। यथार्थ को स्वीकार करने के लिए हमें अधिक से अधिक अभ्यास करना चाहिए।
उदाहरण के लिए, “मैं एकांतवास के लिए गया और मैंने सोचा था कि मेरा ध्यान बहुत भली प्रकार एकाग्र होगा, परन्तु पूरे समय मेरा चित्त भटकता रहा”। ठीक, तो हमारी आशा अवास्तविक थी। निस्संदेह चित्त तो भटकता रहेगा और निस्संदेह वह अभी अतिउत्तम नहीं होगा। अपनी आशा का स्तर जरा कम कीजिये और सच्चे मन से वैसा ही अनुभव कीजिये। उदाहरण के लिए, "मैं उच्चतम स्तर तक पहुँच सकता हूँ, परन्तु वह कारण और परिणाम पर निर्भर हुए बिना संभव नहीं है। मुझे कठिन परिश्रम करना होगा।"
इसके अतिरिक्त यदि हम अत्यंत भावुक हैं तो उस प्रवृत्ति को अंतरित करके उसे सकारात्मक भावनाओं के सृजन के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। उस स्थिति में हम अधिक प्रबल प्रेम एवं करुणा का अनुभव कर सकते हैं। इस अर्थ में, भावुक होना सकारात्मक है। आखिरकार कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अत्यंत तर्कप्रधान होते हैं उनके लिए किसी मनोभाव की अनुभूति करना बहुत कठिन होता है। उनके लिए प्रेम तथा करुणा भाव अनुभव कर पाना वास्तव में कठिन होता है। यदि आप अत्यंत भावुक व्यक्ति हैं, तो कुछ सकारात्मक तो पहले से विद्यमान है, बात केवल उसे रूपांतरित करने की है। यदि आप कारण और परिणाम को लागू करेंगे, वह धीरे-धीरे घटित होता जाएगा।
अपने सुख-सुविधा के घेरे से बाहर निकल कर कर्म करना
हम यह प्रशिक्षण करते हैं और देखते हैं कि लोगों को समाज में अनेक स्थितियों में दायित्व निभाने की आवश्यकता है। हमें कैसे पता चलेगा कि अब हम इस मार्ग पर आगे बढ़कर, अपनी सुख-सुविधा की परिधि से निकलकर उन स्थितियों का सामना करें जो हमें भावात्मक रूप से चुनौती देती हैं?
इसका सम्बन्ध इससे है कि क्या सकारात्मक है और क्या विनाशकारी है। उदाहरण के लिए, अपने सुख-सुविधा के दायरे से निकल कर किसी शराबखाने में जाकर नशे में धुत्त लोगों को साथ समय बिताना संभवत: रचनात्मक नहीं कहलाएगा। हम कह सकते हैं कि एक बोधिसत्व तो अन्य सत्वों की सहायता करने के लिए नरक में भी चले जायेंगे परन्तु हम जैसे लोगों के लिए वह बहुत कठिन हो जाएगा। परन्तु अपनी सुख-सुविधा की परिधि से निकलकर कुछ कर पाना जैसे सड़क पर बैठे किसी व्यक्ति से दो मीठे बोल बोलना, एक भिन्न बात है।
सबसे पहले तो यह विभेद करना होगा कि जो हम करना चाह रहे हैं उसमें यह स्थिति कितनी सहायक सिद्ध होगी। कुछ युवजन किसी क्लब में जाकर संगीत की धुन पर सारी रात नाचते रह सकते हैं। क्या हमारे लिए वैसा करना किसी काम का होगा। यह सुख-सुविधा की परिधि से निकलना तो है परन्तु इसमें सकारात्मक कुछ भी नहीं है जब तक कि हम अपने नकारात्मक आलोचनात्मक रवैये पर नियंत्रण प्राप्त करने का प्रयास न कर रहे हों। परन्तु उस रवैये में सुधार अथवा पूर्ण नियंत्रण लाने के लिए सारी रात, सुबह होने तक नाचना और तेज़ संगीत से बधिर होना अनिवार्य नहीं है। यद्यपि अपनी सुख-सुविधा परिधि से निकलने के कुछ दूसरे रास्ते हो सकते हैं, जैसे शरणार्थियों के लिए काम करना। ऐसा कार्य करना रचनात्मक एवं सकारात्मक होगा तथा हमारे उदार भाव के विकास में सहायक होगा।
बर्लिन में, मैं प्रत्येक सप्ताहांत में एक कक्षा आयोजित करता हूँ। हम सभी मित्र हैं और कक्षा के पश्चात हम सब मिलकर भोजन खाने जाते हैं। मैंने प्रश्न पूछा कि दैनिक जीवन में धर्म उनका कैसे सहायक होता है। मेरे एक छात्र ने बताया कि वह किस प्रकार अपने सहज भाव की सीमा-रेखा का अतिक्रमण करने की चेष्टा कर रहा है। उसने कहा कि उसकी प्रवृत्ति सुदर्शन लोगों पर अधिक ध्यान देकर उनके अधिक निकट होने की है। एक प्रकार से वह उन्हें अन्य लोगों से अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। तो उसने यह ठान लिया कि वह अपने कार्यस्थल पर किसी ऐसे व्यक्ति से मैत्री करेगा जो अत्यंत स्थूल हो, जिसके चेहरे पर कुछ अजीब सा हो, जो आकर्षक न हो। वह वास्तव में यह अनुभव करना चाहता था कि वह भी एक मनुष्य है जो सुखी होना, पसंद किया जाना चाहता है और यह नहीं चाहता कि उसे नापसंद किया जाए या उसकी उपेक्षा की जाए। यह व्यक्ति एक नया मित्र, एक गहरा मित्र, एक मणि सिद्ध हो सकता था। उसने निर्णय किया कि वह उसकी अनदेखी नहीं करेगा। यह एक बहुत अच्छा उदाहरण है अपनी सहज प्रकृति से बाहर निकलने के प्रयास का। ऐसे काम सरलता से किये जा सकते हैं। यदि हम अपनी सहज सीमाओं का अतिक्रमण करें तो वे उपाय सहज संभाव्य हों, अगम्य नहीं।
एक अन्य मित्र एक दूसरी चरम सीमा पर पहुँच गया। यह निरंतर इस दिशा में प्रयासरत रहना चाहता है तो उदाहरण के लिए वह पार्क में चला जाता है जहाँ चरसी लोग नशीली दवाओं का धंधा करते हैं और वह उन लोगों के साथ समय बिताता है। वह ऐसा इसलिए करता था क्योंकि वह ऐसे लोगों के बीच सुख-चैन का अनुभव नहीं करता था। मुझे इसमें कोई लाभ दिखाई नहीं देता। यह इस प्रकार के व्यवहार का अति साहसी प्रदर्शन है।
एक रोचक प्रश्न है कि हम अपने सहज-क्षेत्र से बाहर कैसे जाएँ तथा सहज क्षेत्र का वास्तव में क्या तात्पर्य है। यह सोचना किस सीमा तक यह मान लेना कि सहज-क्षेत्र की परिधि वह है जहाँ हम सुरक्षित अनुभव करते हैं? यह सहज क्षेत्र क्या है? इसका अपने भीतर विश्लेषण करना चाहिए। क्या हम किसी भी स्थिति में किसी भी व्यक्ति के साथ सहज अनुभव कर पाते हैं?
इसकी कुंजी है इसका दोष आत्म-पोषण की प्रवृत्ति पर मढ़ना। जब हम किसी स्थिति या किसी व्यक्ति के साथ असहज होते हैं तो इसका कारण केवल “मैं, मैं, मैं” के विषय में लगातार सोचना होता है। उदाहरण के लिए हम सोचते हैं, “मुझे यह अच्छा नहीं लगता, मैं इसे नहीं निभा सकता”। हम दूसरों के विषय में नहीं सोचते। बात केवल दूसरों में रुचि लेने की है कि हम सब मनुष्य हैं।
सारांश
ये कुछ अत्यंत बुनियादी सिद्धांत हैं। यदि हम इतना स्वार्थी एवं आत्म-केन्द्रित होना छोड़ दें तो हम अधिक सुखी हो पायेंगे। जब हम किसी दूसरे व्यक्ति के साथ होते हैं, तो केवल अपने विषय में बात करने के स्थान पर, दूसरे व्यक्ति में सच्चे मन से रुचि लें तथा उनके विषय में पूछें तो निश्चित रूप से हम तथा वह दूसरा व्यक्ति अधिक सुखी होगा। ये जीवन तथा दूसरों के साथ निर्वाह करने के मूलभूत एवं व्यावहारिक परिवर्तन हैं। यह स्मरण रखना ही वह सचेतनता है जो हमारा लक्ष्य है। जब हम स्वार्थी हो रहे होते हैं तथा केवल अपने विषय में सोच रहे होते हैं तब इस परामर्श को लागू करना हमें याद रखना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि दूसरा व्यक्ति व्यस्त है और जाना चाहता है परन्तु हम बात करते चले जाते हैं। हम सोचते हैं कि हमें जो कहना है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्या दूसरा व्यक्ति वास्तव में वह सुनने को इच्छुक है? नहीं, परन्तु हम सोच लेते हैं कि वे सुनना चाहते हैं। यहाँ जीवन में हमें धर्म लागू करने की आवश्यकता है।