“चित्त साधना के आठ छंद” की व्याख्या – योंगज़िन त्रिजांग रिन्पोचे

छंद 

यह ग्रन्थ कदम्पा गेशे लंगरी तंग्पा द्वारा रचित है। 

पहला छंद कहता है:

(1) ऐसा हो कि इस बात पर विचार करते हुए, कि सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इष्ट-पूरक रत्नों की तुलना में सीमित सत्त्व कितने श्रेष्ठ हैं, मैं सदा सभी सीमित सत्त्वों का सम्मान कर पाऊँ।

एक छोटे से स्पष्टीकरण के रूप में, सचेतन सत्त्व इष्ट-पूरक रत्नों के समान ही अमूल्य हैं क्योंकि दूसरों की कृपा से ही हमारे सब उद्देश्यों की पूर्ति होती है। हम जो कुछ भी खाते-पीते हैं, जो कपड़े हम पहनते हैं, वह सब दूसरों की दया से आता है। हम जो कुछ भी खाते हैं उसे हमें रोपना और उगाना नहीं पड़ता, और हमें अपने कपड़े बनाने नहीं पड़ते। जब हम पैदा होते हैं, तो हम नग्न होते हैं, न हमारे पास पहनने के लिए कपड़े होते हैं, न खाने के लिए भोजन और न ही हाथ में पैसे। हमें इन्हें अन्य लोगों से प्राप्त करना होता है। दूसरों की कृपा से ही हमें वह सब कुछ मिलता है जिसकी हमें आवश्यकता होती है।

सचेतन सत्त्व हम पर न केवल इस जन्म में कृपा करते हैं: वे हमें वस्त्र और भोजन प्रदान करते हैं; अपितु, आगामी जीवनकालों में भी हमारा सुख दूसरों पर निर्भर करता है। दूसरों के प्रति उदार रहने से हमारे भविष्य के जीवनकालों में धन-सम्पदा की प्राप्ति होगी और सब कुछ आरामदायक हो जाएगा। इसी तरह, दूसरों के साथ नैतिक अनुशासन का अभ्यास करने से, भविष्य में सबकुछ हमारे अनुकूल ही होगा। यह ज्ञानोदय प्राप्ति तक सत्य रहेगा। यह दूसरों पर निर्भर करता है और, दूसरों की सहायता करने की हमारी लक्षित इच्छा से हमारे बोधिचित्त के विकास के कारण ही हम आत्मज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होते हैं।

उदाहरण के लिए, यह एक खेत की तरह है। यदि हम वृक्ष से फल प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें वृक्ष को खेत में लगाना होगा। यदि खेत न हो तो हमें फल नहीं मिलेगा। इसी प्रकार, दूसरों, अर्थात सचेतन सत्त्वों, के क्षेत्र के बिना हम उदारता, धैर्य, नैतिक अनुशासन, और दृढ़ संकल्प का अभ्यास करने में सक्षम नहीं होंगे और हम ज्ञान का फल प्राप्त करने में भी सक्षम नहीं होंगे। यदि हमारे पास प्रचुर परिमाण में पृथ्वी होती, तो हमारे पास प्रचुर मात्रा में फल भी होते। इस तरह, सभी सचेतन सत्त्व रुपी खेत की सहायता से ही हम साधना करके ज्ञानोदय प्राप्ति कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, यह दूसरों की दया ही है कि हम गायों से दूध प्राप्त कर पाते हैं। इसलिए हमें दूसरों के साथ साधना करने की आवश्यकता है।

अगला छंद कहता है:

(2) ऐसा हो कि जब भी मैं किसी के संपर्क में आऊँ तो मैं अपनेआप को दूसरों से कम आँकूँ और हृदय की गहराई से दूसरों को स्वयं से अधिक महत्त्व दूँ।

हम चाहे किसी के भी साथ रहें या जहाँ भी रहें, हमें सदा अत्यंत नम्रतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए, सदा दूसरों की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए, और सदा दूसरों की कद्र करनी चाहिए। यह ऐसा है जैसे हमारे पास एक गाय है जो बहुत अच्छा दूध देती है, तो हम गाय के प्रति बहुत दयालु रहेंगे ही। हम उसका लाड़-दुलार करेंगे और बहुत अच्छा चारा भी खिलाएँगे, इत्यादि। इसी तरह हमें दूसरों का सम्मान करना चाहिए और उन्हें अच्छा खाना देना चाहिए।

अगला छंद कहता है:

(3) ऐसा हो कि मैं जो कुछ भी करूँ अपने चित्त-प्रवाह को नियंत्रित करने में सफल हो पाऊँ, और जिस क्षण पूर्वधारणा या क्लेश की स्थितियाँ प्रकट हों, क्योंकि वे मुझे और दूसरों को दुर्बल बना देती हैं, मैं शक्तिशाली साधनों से उनका सामना कर उन्हें रोक पाऊँ।

यहाँ कहा जा रहा है कि हमें पूरी सतर्कता से अपने चित्त पर अंकुश लगाए रखना चाहिए, अपने विचारों के प्रति सजग रहना चाहिए, और यह ध्यान देना चाहिए कि हमारे चित्त में क्या हो रहा है। हमें यह परखना होगा कि कहीं कोई प्रबल क्लेश या अशांतकारी मनोदृष्टियाँ उत्पन्न तो नहीं हो रहीं। यदि हमारे मन में क्रोध, लोभ या निर्बोध संकीर्णता है, और हमें जैसे ही इस बात का पता लगता है इन्हें रोकने का प्रयास करना चाहिए। यदि हम किसी पाठशाला में बच्चों को पढ़ा रहे होते और बच्चे बहुत शरारती होकर इधर-उधर दौड़ते तो हम उनसे यह कहते कि वे शांत होकर बैठ जाएँ और कड़ी मेहनत करें, पढ़ाई करें, इत्यादि। यदि वे अत्यंत शरारती होते तो हम उन्हें दण्ड देते; परन्तु यदि वे अच्छे होते तो हम उनके प्रति बहुत दयालु होते। इसी तरह, हमें अपने चित्त के प्रति इस प्रकार की मनोदृष्टि रखते हुए उसे परखते रहना होगा। यदि क्लेश उत्पन्न होता है तो उसे यथाशीघ्र समाप्त करने का प्रयास करना होगा।

हमें हानियों के बारे में सोचना चाहिए, उदाहरण के लिए, यदि हम क्रोधित हो जाते हैं तो हमारा सारा पुण्य क्षीण हो जाता है और हमारा पुनर्जन्म न्यूनतम योनियों में हो जाएगा। यदि हमारी कामना प्रबल होगी तो यह हमें इस संसार में निरंतर चक्कर कटाती रहेगी। इन हानियों को देखते हुए हमें इन क्लेशों को ठीक उसी प्रकार रोकना होगा जिस प्रकार बाढ़ को अपनी ओर आता देख उसे रोकने के लिए हम उसके आगे किसी प्रकार का अवरोध खड़ा करने का प्रयास करेंगे ताकि वह हमें बहाकर न ले जाए। इसी प्रकार हमें इन क्लेशों की बाढ़ को रोकना होगा ताकि वे हमें बहाकर न ले जाएँ।

अगला छंद कहता है:

(4) ऐसा हो कि जब भी मैं सहज रूप से क्रूर सत्त्वों को देखूँ जो नकारात्मकता और गंभीर समस्याओं के वश में हैं, तो मैं उन्हें दुर्लभ रत्न भंडार की तरह संजोकर रख पाऊँ।

इसका अर्थ यह है कि जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो अत्यंत क्रूर है, बहुत दुःखी है, जो बहुत ही नकारात्मक है, तो हमें अत्यधिक हर्ष का अनुभव होना चाहिए और उस अवसर की कद्र करनी चाहिए क्योंकि अब हमें एक ऐसा व्यक्ति मिल गया है जिसके साथ हम धर्म की साधना कर सकेंगे। हम इस व्यक्ति के साथ क्षान्ति एवं दृढ़ संकल्प की साधना कर सकते हैं और वास्तव में उनकी सहायता हेतु काम कर सकते हैं।

उदाहरणार्थ, यह ऐसा होगा जैसे किसी व्यक्ति ने स्कूल की शिक्षा प्राप्त कर ली हो, बहुत सारी उपाधियाँ प्राप्त कर ली हों, परन्तु उसके पास कोई काम ही न हो। अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद वह काम की तलाश में जाता है, और अंततः जब उसे काम मिलता है तो वह बहुत खुश हो जाता है। इसी तरह, यदि कोई नर्स बनने के लिए प्रशिक्षित होता है, और यदि कोई बीमार ही न हो तो वह कभी भी अपने प्रशिक्षण का उपयोग नहीं कर पाएगा। यदि लोग बीमार होंगे तो उसे अपने प्रशिक्षण का उपयोग करने का अवसर मिलेगा और उसे खुशी होगी। धर्म के साथ भी ऐसा ही होता है, यदि हमारी एक क्रूर, नकारात्मक व्यक्ति से बहुत संघर्ष के बाद भेंट होती है, तो हमें ऐसी खुशी होगी जैसे कि कोई निधि मिल गई हो, क्योंकि अब हम इस व्यक्ति की सहायता हेतु काम कर सकते हैं।

अगला छंद कहता है:

(5) ऐसा हो कि जब दूसरे लोग ईर्ष्या-युक्त होकर मेरे साथ बुरा व्यवहार करें, जैसे डाँटना, अपमानित करना, इत्यादि, तो मैं उनकी पराजय को अपने ऊपर ले पाऊँ और जय को उन्हें प्रदान कर पाऊँ।

यह श्लोक कहता है कि जब भी हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो ईर्ष्या के कारण हमारी आलोचना करता है या हमारे साथ दुर्व्यवहार करता है, हमें चोट पहुँचाता है या धोखा देता है, तो हमें चाहिए कि उस व्यवहार को स्वीकार कर लें। हमें केवल क्षमा माँग लेनी चाहिए और यह मान लेना चाहिए कि दोष हमारा ही है। इस तरह हम क्षान्ति का अभ्यास कर सकते हैं और बदले में क्रोधित भी नहीं होंगे। हमें यह समझना होगा कि यदि कोई हमें हानि पहुँचाता है तो वह हानि हमारे पिछले जन्मों के नकारात्मक कर्मों का परिपक्व परिणाम है। ये सब हमारे पिछले कर्मों का पलटकर वापस आना है। इस दूसरे व्यक्ति की कोई भूल नहीं है, बल्कि वह हमारे नकारात्मक कर्म विपाक का साधन मात्र है। उदाहरण के लिए, यदि कोई हमसे क्रोधित हो जाता है तो हमें यह महसूस करना चाहिए कि यह हमारी भूल है कि हमने उसे उकसाया। यदि हम घर पर ही रहते और इस व्यक्ति से कुछ भी न कहते, तो उसका गुस्सा हम पर न बरसता।

उदाहरण के लिए, हम यदि किसी नुकीले काँटों से भरे खेत में टहलने जाएँ और ये काँटे हमारे पैर में चुभ जाएँ, तो भूल हमारी ही होगी। यदि हम उनपर न चलते, तो हमें चोट नहीं लगती। इसी तरह, यदि हम व्यापार करते हैं और ठगे जाते हैं, तो दोष हमारा ही है। यदि हम उस व्यवसाय में जाते ही नहीं, तो हम धोखा भी न खाते। व्यापार करके अधिक धन कमाने के लोभ के कारण ही हम धोखा खा जाते हैं या लुट जाते हैं। चाहे कुछ भी हो जाए, हमें सदा अपनी ही भूल मान लेनी चाहिए और कभी भी दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए।

अगला छंद है:

(6) ऐसा हो कि कोई व्यक्ति जिसकी मैंने सहायता की है और जिससे मुझे बहुत आशाएँ हैं, अकारण ही मुझे हानि पहुँचाए, तो भी मैं उसे एक ज्योतिवलयित गुरु के रूप में देख पाऊँ।

यह कहता है कि यदि हमारा कोई रिश्तेदार, कोई बच्चा या माता-पिता, या कोई ऐसा व्यक्ति है जिसकी हम सदा सहायता करते आए हैं, और यह व्यक्ति पूरी तरह से कृतघ्न हो जाता है और हमारे विरुद्ध हानिकारक काम करता है, तो हो सकता है कि हमें बहुत क्रोध आ जाए। मान लीजिए हम किसी बच्चे के प्रति बहुत दयालु रहे हैं, और जीवन में आगे चलकर उससे बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ भी रखते हैं, परन्तु वह बच्चा हमारी बिल्कुल सहायता नहीं करता, तो यह हमारे क्रोध का कारण बन सकता है। परन्तु हमें कभी क्रोध नहीं करना चाहिए; बल्कि, हमें इस व्यक्ति के साथ क्षान्ति और ध्यान-साधना का अभ्यास करना चाहिए। साथ ही, हमें यह भी समझना होगा कि क्षान्ति विकसित करने के लिए हमें किसी आलम्बन की आवश्यकता तो होगी ही। यदि लोग हमेशा हमारे साथ अच्छा व्यवहार ही करते रहें या कभी भी हमें क्रोध न दिलाएँ तो हमारे पास कभी कोई आलम्बन ही नहीं होगा जिसपर हम क्षान्ति का अभ्यास कर पाएँ।

हमें अतीश के उदाहरण का स्मरण करना चाहिए। जब उन्होंने तिब्बत की यात्रा की तो वे भारत से अपने साथ एक अनुचर भी लाए थे जो सदा उनके साथ बहस करता था, उनकी बातों को कभी नहीं सुनता था, सदा पलटकर जवाब देता था, और बहुत ही तैश दिलाने वाला था। लोगों ने उनसे अपने साथ इस उपद्रवी व्यक्ति को लाने का कारण पूछा और कहा कि वे उसे वापस भेज दें। अतीश ने उत्तर दिया कि वह अनुचर उनकी क्षान्ति का शिक्षक था और बहुत महत्त्वपूर्ण था। "वह जब भी मेरी अवज्ञा करता है तो मुझे क्षान्ति की साधना करने का अवसर प्राप्त हो जाता है।" इसी तरह, यदि हमारे ऐसे मित्र और रिश्तेदार हैं जिनके साथ हम बहुत अच्छा व्यवहार करते आए हैं, परन्तु वे हमारे प्रति कृतघ्न रहते हैं और घृणात्मक व्यवहार करते हैं, तो हमें चाहिए कि क्षान्ति की साधना करने के अवसर के लिए उनके प्रति आभारी रहें।

अगला छंद कहता है:

(7) संक्षेप में, ऐसा हो कि मैं अपनी प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी माताओं को वह सब अर्पित कर पाऊँ जिससे उन्हें लाभ एवं सुख की प्राप्ति होगी; और मैं अपनी माताओं की सभी परेशानियों और विपत्तियों को गुप्त रूप से अपने ऊपर स्वीकार कर पाऊँ।

यह छंद तोंग्लेन  की लेन-देन की प्रथा के बारे में है। इसका अर्थ है कि हम चाहते हैं कि दूसरों के सारे दु:ख और पीड़ा हमपर विपाक हो जाएँ। इस तरह हम उनसे दु:ख ले लें और स्वयं उसे सहन कर लें। साथ ही, हम अपने सारे सुख और लाभ दूसरों को दे दें। यह एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा है और, आगे चलकर, शांतिदेव के ग्रन्थ, बोधिसत्त्वचर्यावतार  से इसका अध्ययन करने का प्रयास करें। लेन-देन की इस प्रथा में सीखने और सोचने के लिए बहुत-सी बातें हैं।

अंतिम छंद यह कहता है:

(8) ऐसा हो कि इन सबके दौरान आठ क्षणभंगुर वस्तुओं की धारणाओं के कलंक से अकलुषित उस चित्त के द्वारा, जो सभी दृश्य प्रपंचों को एक भ्रम समझता है, मैं, बिना आसक्ति के, अपने सारे बंधनों से मुक्त हो पाऊँ।

यह छंद कहता है कि जब हम साधना करते हैं तो कभी भी धन-सम्पदा, प्रसिद्धि, प्रशंसा या अपने सुख की प्राप्ति का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए। ये आठ सांसारिक भावनाओं के अंश हैं। परन्तु इनके बजाय हमें अपनी सभी रचनात्मक साधनाओं को दूसरों के कल्याण हेतु समर्पित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब हम अपनी ध्यान-साधना और पाठ करते हैं तो हमें यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि, "इससे मुझे कभी कोई रोग न हो; मेरी आयु लंबी हो और मैं धन-सम्पदा युक्त एवं आनंदप्रद रहूँ।" ये बहुत क्षुद्र और तुच्छ विचार हैं। हमें केवल इस विचार के साथ साधना करनी चाहिए कि हमारी साधना से सभी प्राणियों को लाभ होगा। यहाँ तक कि, उदाहरण के लिए, जब हम एक छोटा-सा दीया जलाते हैं यदि वह हमारे अपने लाभ के लिए है, तो यह बहुत क्षुद्र कृत्य है। परन्तु यदि हम यह सोचते हैं, "इससे सभी प्राणी लाभान्वित हों," तो यह एक महत्त्कर्म हो जाता है।

निष्कर्ष

रिन्पोचे का कहना है कि समय की कमी के कारण वे इस ग्रन्थ के बारे में केवल संक्षिप्त रूप से ही समझा पाए हैं, परन्तु आपको गेशे रबतेन और गेशे न्गवांग धारज्ञेय के साथ इसका अधिक विस्तृत अध्ययन करना चाहिए। यह अत्यंत लाभदायक हो सकता है। आप में से कई लोग तीर्थस्थलों की यात्रा पर धर्म केंद्रों से यहाँ आए हैं और यह अति उत्तम बात है। यह आपके पिछले जन्मों के सकारात्मक कर्म हैं जो परिपक्व हो गए हैं। आपको इस प्रकार सोचना चाहिए, "इससे उत्पन्न सभी लाभों का विपाक दूसरों पर हो जाए और दूसरों को सुख प्रदान करे।"

याद रखें कि धर्म चित्त को लाभ पहुँचाता है; इसलिए, हमें अपने चित्त को सुधारने के लिए इसका अभ्यास करना होगा और उन सभी क्लेशों तथा कठिन अवस्थाओं से अपनेआप को मुक्त करना होगा जिन्हें हमने अतीत में झेला है। हम चाहे कुछ भी करें, हमें अपने चित्त को सुधारना होगा और बेहतर मनुष्य बनने का प्रयास करना होगा। बस यही है धर्म का सारांश।

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