सुख एवं दुःख के उतार चढ़ाव
कई प्रकार की समस्याएँ एवं दुःख हैं जिनका हम सामना करते हैं। जीवन हताशाजनक और बोझिल हो सकता है। हम अपने जीवन को संतोषमय बनाने का भरसक प्रयास करते हैं, परन्तु हमने जिस प्रकार आशा की थी वैसा सदैव होता नहीं है। हमारे साथ वे घटनाएँ होती हैं जिन्हें हमने चाहा ही नहीं, जैसे संबंधों का अप्रिय हो जाना, लोगों का हमारे प्रति दुर्व्यवहार करना, शरीर का अस्वस्थ होना, नौकरी छूट जाना, इत्यादि। हम इनसे बचने का चाहे जितना भी प्रयास कर लें, वे आएँगी ही। प्रायः हम उनसे खिन्न हो जाते हैं अथवा उन्हें अनदेखा करने का प्रयास करते हैं, परन्तु सामान्यतः ये सब समस्या को और बदतर बना देते हैं। हम और अधिक दुखी हो जाते हैं।
जब हम आनंद का अनुभव करने में सफल हो भी जाते हैं, तो उस आनंद में एक समस्या आ जाती है - वह सदा के लिए नहीं रहता। वह हमें संतुष्ट नहीं करता और हमें और अधिक पाने का लोभ हो जाता है। वास्तव में, हम अपना अधिकतर समय और शक्ति इस "अधिक" को पाने में ही लगा देते हैं। ज़रा सोचिए सोशल मीडिया में जब हम अपनी सेल्फ़ी डालते हैं तो हमारा मनोभाव क्या होता है। हर बार जब हमें थोड़ी-सी डोपामीन युक्त ख़ुशी की लहर से जुड़ी हुई एक "लाइक" मिलती है, तो वह ख़ुशी कब तक होती है? कितनी जल्दी हम दोबारा देखते हैं कि कहीं और "लाइक" तो नहीं मिली? और हम कितने त्रस्त हो जाते हैं जब यह पता चलता है कि बहुत अधिक "लाइक" नहीं हैं? वही दुःख है न?
हम जिस शरीर और मन से उतार और चढ़ाव का अनुभव करते हैं उस शरीर और मन को बार-बार बढ़ाते रहते हैं
तो जीवन हमेशा उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं - कभी-कभी हम सुखी होते हैं और बहुत उल्लास का अनुभव करते हैं, कभी-कभी हम क्लांत और दुखी हो जाते हैं। प्रायः हम यह कह देते हैं, "यही जीवन है", और परिस्थिति को अधिक गंभीरता से नहीं परखते। परन्तु क्या हम अपने जीवन को वास्तव में ऐसे ही जीना चाहते हैं - अगले क्षण में हम कैसा अनुभव करेंगे यह जाने बिना? सौभाग्यवश, बुद्ध ने इसे गंभीरता से परखा और इन सबके पीछे छिपी वास्तविक समस्या का पता लगाया। हमारा शरीर और मन जो हमें प्राप्त हैं वे ही हमारी वास्तविक समस्या, दुःख सत्य हैं। हमारे पास जो शरीर और मन हैं ये ही हमारे जीवन के उतार-चढ़ाव को अनुभव करने का आधार हैं, और ये एक चुम्बक की भाँति इन्हें खींचते हैं। यदि हम और गंभीरता से परखें तो हमारी वास्तविक समस्या यह है कि हमारे पास यह शरीर और मन होने के कारण हम और अधिक उतार-चढ़ावों को बनाते और बढ़ाते रहते हैं, केवल अभी या अगले सप्ताह नहीं, अपितु मृत्यु पर्यन्त। इतना ही नहीं, बुद्ध कहते हैं कि हम अपने इस जीवनकाल में ही नहीं अपितु, पुनर्जन्म के अनुसार, भावी जीवनकालों में भी अपनी समस्याओं को बढ़ाते रहते हैं। यदि अभी तक हम पुनर्जन्म को समझकर उसकी सत्यता को स्वीकार नहीं कर पाए हैं, तो हम देख सकेंगे कि हम भावी पीढ़ियों के लिए भी किस प्रकार इन समस्याओं को बढ़ाते रहते हैं। वर्तमान जलवायु संकट से हम यह स्पष्टतः देख सकते हैं कि हमारे कृत्य किस प्रकार उन समस्याओं को बढ़ाते रहते हैं जो इस धरती पर हमारी मृत्यु के बाद भी अस्तित्वमान रहेंगी।
तो हमारे शरीर और मन की समस्या वास्तव में क्या है? समस्या यह है कि वे सीमित हैं। हमारे शरीर इस प्रकार सीमित हैं कि वे बढ़ती वय से रुग्ण एवं क्षयग्रस्त हो जाते हैं। दूध की भाँति व्यपगत हो जाते हैं; परन्तु यह दूध से भी निकृष्टतर हैं क्योंकि उनकी व्यपगत होने की कोई स्पष्ट तिथि भी तो नहीं होती। हमें अपने शरीर के व्यपगत होने की तिथि की भनक भी नहीं होती। यह सोचिए कि जब तक शरीर चल रहा है, हमें कितना समय उसकी देखभाल के लिए लगाना पड़ता है। हमें उसे स्वच्छ करना है, कपड़े पहनाने हैं, भोजन कराना है, शौच कराना है, व्यायाम कराना है, विश्राम कराना और सुलाना है, तथा जब उसे चोट पहुँचे या वह अस्वस्थ हो जाए तो उसकी देखभाल भी करनी है। ये सब कितना आनंददायक है? जैसे एक महान भारतीय बौद्ध गुरु ने कहा है, हम सब अपने शरीर के दास हैं।
मनोभावों और भावनाओं के साथ-साथ हमारा चित्त भी सीमित है। हमें अपने चित्त को शिक्षित एवं प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है, तिस पर ऐसी कई बातें हैं जो हम नहीं समझ पाते। हमें किसी भी बात का पूर्ण ज्ञान नहीं होता - उदाहरण के लिए, हमारे दैनिक जीवन में क्या हो रहा है उसकी बात तो छोड़ ही दीजिए, वैश्विक तापवृद्धि के परिणाम, कृत्रिम बुद्धि, रोबोटिक्स, आभासी यथार्थ परिवेश, इत्यादि। और इससे अधिक गंभीर है हमारा चित्त जो, हमारे शरीर के समान समय के साथ विघटित हो जाता है - हमारी लघु-अवधि स्मरण-शक्ति का क्षय हो जाता है, हमारा चित्त और अधिक मंद गति से काम करता है, एवं हम बहुत आसानी से उलझन में पड़ जाते हैं।
इससे भी बढ़कर बात यह है कि हमारी भावनाएँ बहुत आसानी से आहत हो जाती हैं, हमारे मनोभाव आवेशग्रस्त हो जाते हैं, जिससे हम स्पष्ट रूप से सोच-विचार भी नहीं कर पाते। परन्तु इन सबके कारण वास्तविक समस्या यह है कि हमारे सीमित शरीर, मन, मनोभाव, तथा भावनाएँ स्वयं को बढ़ाते रहते हैं, स्वयं की वृद्धि करते रहते हैं।
हमारी सीमित काया द्वारा दुःख सत्य के चार आयामों का सोदाहरण प्रतिपादन
बुद्ध ने हमारी सीमित काया के चार आयामों के द्वारा दुःख सत्य का सोदाहरण प्रतिपादन किया है:
- सर्वप्रथम, वे अनित्य हैं। कभी-कभी हमारा शरीर स्वस्थ रहता है और हमें खुशी होती है, परन्तु छोटी-से-छोटी बात भी हमारे शरीर को असंतुलित कर देती है, और हम अवस्वस्थ और संतप्त हो जाते हैं। ज़रा देखिए हमारा शरीर कितना नाज़ुक है - छोटी-से-छोटी घटना भी उसे चोट और कष्ट पहुँचा सकती है। और इसमें अंतर्निहित बात यह है कि हम प्रतिक्षण मृत्यु के और समीप जा रहे हैं। हम यह सोचते हैं कि हम अपने शरीर को सदैव स्वस्थ और बलशाली बनाए रख सकते हैं, और अपने बुढ़ापे में भी वे सभी पदार्थ खा सकते हैं और वे सारे कार्य कर सकते हैं जो हमने युवावस्था में किए थे। परन्तु हम अपने को छल रहे हैं; सदा युवा बने रहने की हमारी कामना का अनंत संघर्ष चिंता एवं तनाव का कारण बन जाता है।
- दूसरी बात, हमारे शरीर स्वयं समस्याकारी हैं। हम यह सोच सकते हैं कि सुगन्धि और प्रसाधन सामग्री से अथवा मांसपेशियों को बढ़ाने से हम अपने शरीर को अधिक आकर्षक बना लेंगे। परन्तु स्वयं को सुन्दर बनाने का जितना भी प्रयास कर लें, हम फिर भी परेशान रहेंगे कि हम पर्याप्त रूप से सुन्दर नहीं दिख रहे या हम अपने सुदर्शन रूप को कहीं खो रहे हैं। हम चाहे जितना भी प्रसाधन कर लें, या जितना भी मांसपेशियों को बढ़ा लें, या स्वास्थ्य के लिए हितकर आहार का सेवन कर लें, हमारे शरीर की समस्या यह है कि हम फिर भी अस्वस्थ हो जाएँगे, हम फिर भी बूढ़े हो जाएँगे, और हम फिर भी दुर्घटनाग्रस्त हो सकते हैं और हमें चोट लग सकती है।
- तीसरा, यदि हम नहीं नहाते तो हमारे शरीर से दुर्गन्ध आती है, यदि हम अपने दाँत साफ़ नहीं करते हैं तो श्वास दुर्गन्धित होता है, और हम जो मल-मूत्र त्यागते हैं वह दुर्गन्ध देता है। यदि हम चबाकर थूका हुआ खाना किसी को भेंट करते हैं तो कौन उसे खाने योग्य समझेगा? समस्या यह है कि हम कोई "मैं" नाम का स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान सत्व नहीं हैं जो हमारे शरीर से विलग "सुन्दर शरीर" के किसी काल्पनिक लोक में रहता हो । अपनी त्रुटियों के बावजूद हम इस शरीर में उलझे रहते हैं, और हमें इसकी देखभाल करनी पड़ेगी और, दूसरों की सहायता के लिए तथा हमारी अपनी त्रुटियों से ऊपर उठने के लिए इसका उपयुक्त प्रयोग भी करना पड़ेगा।
- चौथा, वास्तविक जीवन में दूसरों को हमारे शरीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखता है। हम वीडियो गेम्स में दूसरों के लिए भले ही अपना ऑनलाइन अवतार बना लें, परन्तु "वास्तविक संसार" में जब कोई हमसे मिलता है, तो उन्हें हमारा शरीर जैसा है वैसा ही दिखता है। हम भले ही यह कल्पना कर लें कि 60 वर्ष की अवस्था में हम ऐसे ही दिखते हैं जैसे हम 20 वर्ष के थे, दूसरे लोग जब हमें देखते हैं तो उन्हें एक 60 वर्षीय शरीर ही दिखता है। यदि हम यह समझ नहीं लेते और स्वीकार नहीं कर लेते तो हम केवल स्वयं को छल रहे हैं और वय-प्रतिकूल शैली का आचरण करके समस्याएँ खड़ी कर रहे हैं।
सारांश
हमारी सीमित काया दुःख सत्य का उदाहरण है क्योंकि वह अनित्य है, समस्याकारी है, हम उससे स्वयं को अलग नहीं कर सकते, तथा हमें चाहे अच्छा लगे या न लगे, वह वैसा ही दिखता है जैसा लोग देखते हैं। इस प्रकार के शरीर को पाना ही पर्याप्त समस्या है, परन्तु वास्तविक समस्या है जो बुद्ध ने कहा है और जिसे हमें समझना चाहिए कि हम अनुवर्ती जीवनकालों में इस शरीर को ही आधार बनाकर बढ़ते चल रहे हैं, जिस शरीर से हम आपाततः दुःख का अनंत रूप से आवर्ती चक्र अनुभव कर रहे हैं। आप क्या यही चाहते हैं?