तीसरा आर्य सत्य: दुःख का सत्य निरोध

एक बार जब हम अपने जीवन में अनुभव कर रहे दुःख सत्य को पहचान लें और उनके वास्तविक कारणों को निर्धारित कर लें, और यदि हम उनसे वास्तव में मुक्त होना चाहें, तो उन्हें फिर से आने से हमेशा के लिए रोकना होगा। तीसरा आर्य सत्य जो बुद्ध ने अपने जीवन के अनुभवों से जाना और बाद में बतलाया कि सारे दुःखों तथा उनके कारणों का सत्य निरोध संभव है, जिससे वह फिर से कभी भी न आ पाए। यह इसलिए संभव है क्योंकि चित्त की प्रकृति निर्मल है।

दुःख सत्य और दुःखों के वास्तविक कारण

बुद्ध ने सिखाया कि यद्यपि अपने जीवन में हम कई वैयक्तिक समस्याओं का सामना करते हैं, दुःख सत्य वह तथ्य है कि हम अपने दुःखों को बनाए रखते हैं। हम अनियंत्रित रूप से दुःख एवं असन्तोषदायक सुख के उतार-चढ़ावों के अनुभवों को बनाए रखते हैं और हम प्रत्येक जन्म में सीमित काया एवं चित्त को भी बनाए रखते हैं, जिनसे हम इन भावात्मक उतार-चढ़ावों का अनुभव करते हैं। बुद्ध ने यह भी बताया कि इन्हें बढ़ावा देने के वास्तविक कारण हमारे चित्त में ही हैं।

अपने और दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार का प्रभाव, एवं किस प्रकार हम, अन्य सभी, और सारे दृश्य-प्रपंच अस्तित्वमान हैं, हमारा चित्त इसकी भी एक मिथ्या वास्तविकता प्रक्षेपित करता है। हम यह मिथ्या कल्पना करते हैं कि हम "मैं" नाम के किसी ठोस, स्वतः सम्पूर्ण इयत्ता के रूप में अस्तित्वमान हैं। और हम इसकी भी मिथ्या कल्पना करते हैं कि हमारा चित्त बुद्धि में स्थित कोई ठोस इयत्ता है जिससे हम या तो स्वयं को एकम एक करते हैं, क्योंकि ऐसा अनुभव होता है कि हमारे भीतर का स्वर हमारे चित्त में है, या फिर हम उसे किसी यंत्र के समान देखते हैं जिससे हम वस्तुओं का बोध करते हैं और सोचते हैं।

क्या आपको कभी यह सोचकर स्वयं पर दया आई है कि, "कोई मुझसे प्रेम नहीं करता; किसी को मेरी आवश्यकता नहीं है?" या आप ने पूरी तरह तनावग्रस्त होकर सोचा हो कि, "मैं कुछ भी संभाल नहीं सकता; यह सब मेरे लिए नियंत्रण से बाहर हो गया है?" क्या ये सुखद मनोदशाएँ हैं? स्पष्टतः नहीं। हम भले ही आत्म-दया में लोट रहे हों, तब भी हम तरसते रहते हैं कि ये स्थितियाँ समाप्त हों। समस्या यह है कि हम इस परिस्थिति को किस प्रकार देखते हैं। ऐसा लगता है मानो यह एक रंग भरने की पुस्तक है जिसमें दुःख काला बादल है जो एक ठोस घेरे के अंदर स्वतः सम्पूर्ण रूप से विद्यमान है और जो "मेरे" ऊपर छाया हुआ है, जहाँ "मैं" भी एक ठोस घेरे के अंदर स्वतःसम्पूर्ण रूप से विद्यमान है। इस विचार को आधार मानकर कि यह भ्रामक प्रतीति वास्तविकता के अनुरूप है – केवल इसलिए कि हमें ऐसा अनुभव हो रहा है – हमारे भीतर अशांतकारी मनोभाव उत्पन्न होते हैं जैसे किसी के प्रेम के लिए उत्कट इच्छा होना अथवा हम से प्रेम न करने वालों के प्रति क्रोध आना। ये अशांतकारी मनोभाव हमारे भीतर ऐसी बाध्यकारी कार्मिक तीव्र इच्छाएँ उत्पन्न करते हैं कि हम किसी से भी यह अनुचित माँग  कर बैठते हैं कि वह हमारे साथ समय बिताए और प्रेमाभिव्यक्ति करे। यदि वह व्यक्ति इस माँग को मान भी लें तो हम जिस अल्पकालिक सुख का अनुभव करेंगे वह कभी भी यथेष्ट नहीं हो सकता, और हम अपनी माँगों को बढ़ाते जाएँगे, जिससे एक दुखद स्थिति उत्पन्न होगी जो फिर निरंतर बनी रहेगी।

ऐसे फंदे में हमारा चित्त उद्भ्रांत एवं भटका रहता है। हम सीधी तरह सोच नहीं पाते और हमारा चित्त नियंत्रण से बाहर हो जाता है। परन्तु क्या अस्पष्टता चित्त की प्रकृति का एक अंग है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें यह जानना होगा कि बौद्ध-धर्म में "चित्त" का अर्थ क्या है। चित्त कोई स्वतःपूर्ण "वस्तु" नहीं है जो हमारे मस्तिष्क के भीतर होता है, अपितु वह एक मानसिक क्रियाशीलता है। यह वस्तुओं को अनुभव करने की वैयक्तिक, व्यक्तिनिष्ठ मानसिक क्रिया है। वह निरंतर परिवर्तनशील है क्योंकि भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में हम भिन्न-भिन्न भावनाओं का अनुभव करते हैं, परन्तु उसका पारम्परिक स्वरूप हमेशा अपरिवर्तित रहता है। उसका गहनतम स्वरूप भी हमेशा वही रहता है – वह असंभव प्रकार के अस्तित्व से रहित है।

हमारे चित्त के अस्तित्वमान होने की मिथ्या कल्पना हम कई असंभव प्रकार से कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हम यह मान सकते हैं कि चित्त एक ठोस इयत्ता है जो एक अन्य ठोस इयत्ता "मैं", या कोई वस्तु जिसका उपयोग ऐसा "मैं" करता है, से मिलती-जुलती है। क्योंकि इन दोनों में से कोई भी मिथ्या दृष्टिकोण चित्त के वास्तविक स्वरूप से मेल नहीं खाते – वे केवल काल्पनिक हैं और इसलिए चित्त के स्वरुप का अंग नहीं हैं – इन मिथ्या दृष्टिकोणों पर आधारित कोई भी मानसिक अवस्था चित्त के स्वरूप का अंग नहीं है। इन मानसिक अवस्थाओं में समाविष्ट हैं "मैं" की हमारी भ्रांत धारणाएँ, उस "मैं" को असुरक्षित बनाने के लिए उठते अशांतकारी मनोभाव, तथा उस "मैं" की टेक लगाने हेतु व्यर्थ कार्य करने के लिए प्रेरित करने वाली बाध्यकारी तीव्र इच्छाएँ। क्योंकि इनमें से कोई भी चित्त के स्वरुप का अंग नहीं है, वरन उस स्वरुप की भ्रांत धारणाओं पर आधारित है, तो एक बार जब सही बोध उन भ्रांत धारणाओं के स्थान पर स्थापित हो जाता है, तब उन्हें हम पूर्ण रूप से दूर कर सकते हैं। दूसरी ओर, रचनात्मक मनोभाव, जैसे प्रेम तथा करुणा, चित्त के स्वरुप की भ्रांत धारणाओं पर आधारित नहीं हैं। इस बृहत् अंतर के कारण सही बोध उन्हें विस्थापित नहीं करता।

अतः, चित्त अवरोध वास्तविक दुःख निरोध नहीं है। हमारे अनेक सद्गुणों, जैसे प्रेम, करुणा, तथा सटीक बोध से युक्त हमारा चित्त एक जीवनकाल से दूसरे जीवनकाल में अंतरित होता रहता है। जिसका अंत होता है वह है अनभिज्ञता, अशांतकारी मनोभाव, तथा बाध्यकारी कार्मिक तीव्र इच्छाओं के नियंत्रण के अधीन हमारे सीमित शरीर और सीमित चित्त-युक्त हमारा अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म।

सत्य निरोध के चार आयाम

तीसरा आर्य सत्य, सत्य निरोध, के चार आयाम हैं।

  • पहला, यह सभी प्रकार के दुःखों की उत्पत्ति को अस्तित्व में बनाए रखने के वास्तविक कारणों का सत्य निरोध है। दुःख की कोई भी विशिष्ट घटना अपनेआप समाप्त हो जाएगी, क्योंकि जो कुछ भी कारणों एवं स्थितियों से प्रभावित है वह अनित्य होता है और अपरिहार्य रूप से समाप्त हो जाता है। परन्तु "सत्य निरोध" से तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की घटनाएँ कभी भी दोबारा नहीं होंगी। क्योंकि चित्त का स्वरुप निर्मल है – इन वास्तविक कारणों से पूर्ण रूप से रहित होने के अर्थ में – इस तथ्य का बोध इस भ्रांत धारणा का प्रत्युत्तर है कि दुःख सत्य की उत्पत्ति को हम जो बनाए रखते हैं, उससे मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं है।
  • दूसरा, सत्य निरोध एक शांत अवस्था है, क्योंकि सभी अशांतकारी मानसिक कारणों का शचित्त हो जाता है। यह उस मिथ्या धारणा का प्रत्युत्तर है कि संपूर्ण एकाग्रता की गहन स्थिति की प्राप्ति हमारी सारी समस्याओं का सत्य निरोध है, जिस प्रकार एक पीड़ा निवारक गोली खा लेने पर कुछ अनुभव नहीं होता। हम चाहे जितनी भी देर इस पीड़ा एवं दुःख से मुक्त स्थिति में रह लें, यह हमारी समस्याओं के वास्तविक कारणों को दूर नहीं करता। यह केवल एक अस्थायी मनोविलास है। एकाग्रता समाप्त हो जाती है, औषध का प्रभाव समाप्त हो जाता है, और हमारी समस्याएँ लौट आती हैं।
  • तीसरा, सत्य निरोध एक उन्नत दशा है। यह सांसारिक क्षेत्र की किसी भी उपलब्धि से अधिक उन्नत है। हम एक आभासीय संसार की चाहे कितनी भी मनमोहक स्थिति की रचना कर लें और उसमें स्वयं को भुला लें, परन्तु उसमें छिप जाने से दुःख सत्य एवं उसके वास्तविक कारणों से हम बच नहीं सकते। इस तथाकथित "वास्तविक संसार" की हमारी समस्याएँ चली नहीं गईं।
  • अंत में, सत्य निरोध सभी दुःख सत्य तथा उनके वास्तविक कारणों से निश्चित रूप से उबर पाना है, न कि कोई आंशिक अथवा अस्थायी मुक्ति । यद्यपि यह मुक्ति स्तरों और दशाओं में होती है – क्योंकि अपने, दूसरों के, तथा सभी वस्तुओं के अस्तित्व के बारे में अनभिज्ञता तथा भ्रांत धारणाएँ अभ्यास एवं प्रवृत्तियों के रूप में गहराई से समाई होती हैं – फिर भी उनका ऐसा समूल निवारण संभव है कि वे फिर से न आने पाएँ। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे चित्त की प्रकृति के अंग नहीं हैं। वे क्षणिक कलंक हैं क्योंकि चित्त, स्वभावतः निर्मल है।

सारांश

जब यह संभव है कि हम अपने दुःख सत्यों को बनाए रखने के वास्तविक कारणों से सदा के लिए मुक्त हो सकते हैं, तब हम क्यों उन्हें केवल न्यून करने या अस्थाई रूप से दचित्त करने के लिए सहमत हो जाएँ? निश्चित रूप से जब हम उनसे स्थाई रूप से छुटकारा पाने का प्रयास कर रहे हैं, तो हमें चाहिए कि उनकी बारम्बारता एवं तीव्रता को उत्तरोत्तर कम करें, परन्तु बुद्ध ने इस ओर संकेत किया है कि हम सभी उन दुःख सत्यों के सत्य निरोध को प्राप्त कर सकते हैं। तो फिर क्यों किसी कमतर इकाई को लक्ष्य बनाएँ?

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