अनादि एवं अनंत चित्त

वास्तविक धर्म से पूर्व धर्म-लाइट की आवश्यकता 

जब हम बोधिसत्त्व मार्ग पर अग्रसर होते हैं, तब हम चेष्टा करते हैं कि हम अपने पर ध्यान न देकर, दूसरों के प्रति चिंतित रहें। किन्तु, एक विमुक्त सत्त्व, एक अर्हत, बनने से पहले हम अपने सभी अशांतकारी मनोभावों पर विजय नहीं पा सकते। तब तक, निस्संदेह, हमारे भीतर थोड़ी-बहुत स्वार्थपरक चिंता तो रहेगी ही। परन्तु, हमें इसके लिए स्वयं को दोषी मानने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम कम से कम इस ओर प्रयासरत तो हैं। हम इसे कम करके दूसरे जीवों को अपना प्रमुख सरोकार बनाने की चेष्टा कर रहे हैं। इसलिए हमें बोधिसत्त्व मार्ग के विषय में यथार्थवादी होना चाहिए।

हम इसी विश्लेषण को स्थानांतरित करने की चेष्टा कर रहे हैं जहाँ हम इस जीवनकाल के विषय में सोचने के बजाय आगामी जीवनकालों, विमुक्ति और ज्ञानोदय के विषय में सोचें। यह सोचना अयथार्थवादी है कि हमें इस जीवनकाल के विषय में कोई चिंता नहीं होगी, इसलिए जब हम धर्म-लाइट और वास्तविक धर्म की बात करते हैं तो, ऐसा नहीं है कि वे परस्पर विरोधी और अनन्य हैं। इन दोनों के बीच एक सातत्य है।

कम से कम हम पश्चिमी लोगों के लिए, इस जीवनकाल की चिंता चरण शून्य जैसी है, और इस आधार पर हम लाम-रिम के एक, दो और तीन चरण बना सकते हैं। यह इस प्रकार है जैसे चरण शून्य पर है समभाव, जिसपर फिर होती है बोधिचित्त की सप्त-भागीय कार्यकारण ध्यान-साधना। हमें इस चरण शून्य की क्या आवश्यकता है? मुझे विश्वास है कि हम में से कई लोग ऐसे अनेक लोगों को जानते होंगे जो अपने को सुधारकर इस जीवनकाल को उत्कृष्ट बनाने की चेष्टा भी नहीं करते। धर्म-लाइट की बात तो रहने दीजिए, उन्हें मनोचिकित्सीय उपचार की बहुत आवश्यकता है और वे इसके बारे में सोचते तक नहीं। तो इसलिए हमें इस धर्म-लाइट चरण की आवश्यकता है, और अपनी चिंता की तुलना में दूसरों की चिंता की भांति, हम अंततः इस जीवनकाल को अपनी प्रमुख चिंता बनाने की प्रवृत्ति को कम और आगामी जीवनकालों की चिंता में वृद्धि करते जाते हैं। फिर भी, इस जीवनकाल के प्रति कुछ चिंता तो रहेगी ही, और जैसा परम पावन दलाई लामा कहते हैं, "50/50" जिसका अर्थ है, हम 50% इस जीवकाल पर ध्यान दें और 50% आगामी जीवनकालों पर।

वास्तविक धर्म: चार आर्य सत्यों के केंद्र हमारे मानसिक सातत्य

वास्तविक धर्म की खोजबीन करते हुए, हम पुनः चार आर्य सत्यों की ओर जाते हैं, जो हैं दुःख सत्य, दुःखों के सत्य कारण (समुदायसत्य), दुःखों और उनके कारणों के सत्य निरोध (निरोधसत्य), और सत्य मार्ग (मार्गसत्य) चित्त जो उन तक ले जाते हैं। चार आर्य सत्य कहाँ अवस्थित हैं? उनका केंद्र है व्यक्ति का मानसिक सातत्य।

मानसिक सातत्य दुःख अनुभव कर सकता है। तीसरे प्रकार के दुःख सत्य से अभिप्राय है अनियंत्रित रूप से आवर्ती स्कंध, अनंत जीवकालों में, जिनसे हमारे मानसिक सातत्य निर्मित हैं। वे पहले दो प्रकार के दुःखों के अनुभव का आधार बनते हैं, अप्रसन्नता और हमारी सामान्य प्रसन्नता, जो हमारे मानसिक सातत्य के अनुभव हैं।

जब हम पाँच स्कन्धों की बात करते हैं, तो हम साधारणतः शरीर और चित्त की बात करते हैं; या अधिक विशेष रूप से, हमारी संवेदी और मानसिक प्रकार की अभिज्ञता की, जिन्हें हम ज्ञानेन्द्रियों तथा उन मानसिक कारकों, जैसे मनोभाव, भावनाएँ, मनोदृष्टियाँ, इत्यादि, से ग्रहण करते हैं जिनसे हमारे अनुभवों का प्रत्येक क्षण बनता है। ये यथार्थ के प्रति भ्रान्ति से उत्पन्न होते हैं, प्रत्येक क्षण भ्रान्ति से मिश्रित होते हैं और, यदि हम इनके विषय में कुछ न करें, तो ये भ्रान्ति को और अधिक बढ़ाते रहेंगे।

दुःखों के सत्य कारण (समुदायसत्य) हैं कार्यकारण के बारे में और हम, तथा अन्य सब किस प्रकार विद्यमान है इस विषय में भ्रान्ति। स्पष्ट है कि भ्रान्ति मानसिक सातत्य के भाग के रूप में प्रकट होती है। जब हम व्यावहारिक कार्यकारण से अनभिज्ञ अथवा भ्रमित होते हैं, तब हम विनाशकारी कार्य करते हैं। जब हमें यथार्थ का पता नहीं होता, तब हम विनाशकारी अथवा रचनात्मक ढंग से कार्य करते हैं, परन्तु दोनों में भ्रान्ति घुली होती है। जब हम तटस्थ भाव से भी कार्य करते हैं, जैसे अपना सिर खुजाना, उसमें भी भ्रान्ति घुली होती है। यह भ्रान्ति अथवा अनभिज्ञता अशांतकारी मनोभावों को जन्म देती है और हम बाध्यकारी रूप से उनके अधीन व्यवहार करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप और अधिक दुःख पैदा होता है। इस क्रियाविधि से हम पाते हैं कि दुःख के सत्य कारण (समुदायसत्य) स्कन्धों के भीतर  होते हैं, और उसके प्रत्येक क्षण से हमारे अनुभव का सातत्य बना होता है।

यह है कार्यकारण का सम्बन्ध। दुःख के कारण हैं अशांतकारी मनोभाव और उनके कारण हमारा बाध्यकारी आचरण, और उसके प्रभाव, नामतः दुःख जो उसके उत्तरवर्ती क्षण में उत्पन्न होता है। दुःख का अनुभव, नामतः अप्रसन्नता या साधारण असंतोषजनक अल्पकालीन प्रसन्नता, हमारे उस क्षण के स्कंध का भाग होता है। अतः पहला और दूसरा आर्य सत्य, दोनों दुःख सत्य और दुःखों के सत्य कारण (समुदायसत्य), मानसिक सातत्य में होते हैं और चार आर्य सत्यों के अशांतकारी पक्ष को दर्शाते हैं।

चार आर्य सत्यों के शोधनकारी पक्ष को अंतिम दो आर्य सत्य दर्शाते हैं। हम सत्य मार्ग चित्त (मार्गसत्य), या सरल रूप से कहा जाए तो, यथार्थ के बोध को विकसित करते हैं। यह भी उन स्कन्धों के भाग के रूप में मानसिक सातत्य पर घटित होता है जिनसे अनुभव का प्रत्येक क्षण बना होता है। इसका परिणाम स्वयं वास्तविक सत्य निरोध (निरोधसत्य) नहीं होता क्योंकि मानसिक सातत्य कभी भी इन समस्याओं से कलंकित हुआ ही नहीं। परन्तु सत्य मार्ग चित्त का परिणाम होता है सत्य निरोध की प्राप्ति, स्वयं सत्य निरोध नहीं। यह एक सूक्ष्म पारिभाषिक अंतर है। बात यह है कि मुक्ति पक्ष के लिए, हमारे पास सत्य मार्ग चित्त और पहले दो आर्य सत्यों के निर्मूलन की प्राप्ति के बीच हेतुक क्रम है।

संक्षेप में, आर्य सत्यों की अवस्थिति और आधार एक वैयक्तिक मानसिक सातत्य होता है जिसमें क्षणों के अनुक्रम होते हैं, जिनकी अंतर्वस्तु कार्यकारण संबंधों से जुड़ी होती है। इसे अपने अनुभव से समझ पाना कठिन नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि हमारा पैर मेज़ से टकरा जाए, तो इसके तुरंत बाद हम दर्द का एक क्षण महसूस करते हैं। इन दोनों क्षणों की अंतर्वस्तु में सम्बन्ध है और वे हमारे वैयक्तिक अनुभव के सातत्य में घटित होते हैं।

कार्यकारण संबंधों की अस्थायी सीमाऍं

हम पूछ सकते हैं कि कार्यकारण संबंधों की क्या सीमाऍं होती हैं? समय के सन्दर्भ में, कारण और उसके प्रभाव के बीच कितनी दूरी हो सकती है? हमारे सामान्य जीवन में, हम देखते हैं कि हेतुक क्रिया और उसके प्रभाव के बीच काफ़ी दूरी होती है। उदाहरण के लिए, मैं शेयर बाज़ार में निवेश करता हूँ, और कई वर्षों बाद, मुझे बहुत घाटा या लाभ होता है। ऐसा नहीं है कि मेरे निवेश करने के अगले ही क्षण मुझे फ़ायदा या नुकसान होगा। यह पैर टकराते ही दर्द होने जैसा नहीं है। तो, क्या इसकी कोई सीमा है? वास्तव में, यह कर्म का एक नियम है, कि व्यावहारिक कारण और उसके प्रभाव के बीच की कालावधि की कोई सीमा नहीं होती। कभी न कभी, यदि हमने उनका पश्चाताप नहीं किया तो, हमारे कर्म परिपक्व होकर अपना प्रभाव डालेंगे।

इस प्रकार हम स्वाभाविक रूप से इस विषय पर आते हैं कि क्या मानसिक सातत्य केवल इस जीवनकाल तक सीमित है, या वह आगे तक चलता है, पहले और बाद में? निस्संदेह हमारे भीतर शंकाएँ उत्पन्न होती हैं, क्योंकि वैज्ञानिक भी स्पष्टतः यह परिभाषित और निर्णीत नहीं कर सकते कि वह ठीक कौन-सा क्षण है जब इस जीवनकाल का मानसिक सातत्य आरम्भ और समाप्त होता है। गर्भपात और गर्भनिरोध का पूरा मुद्दा इसी बात पर टिका है कि जीवन वास्तव में कब प्रारम्भ होता है। जहाँ तक मृत्यु का प्रश्न है, हम कब मरते हैं जब हमारा मस्तिष्क काम करना बंद कर दे या जब हमारी हृदय गति रुक जाए? वैज्ञानिक इसपर एकमत नहीं हो पाते हैं। फिर, जब हमारी मृत्यु हो जाती है, तब स्वर्ग अथवा नरक में क्या केवल एक भावी जीवन है? क्या वह अंत है, या उसके आगे कुछ और भी है? यदि हम अधिकतर धर्मों की ओर दृष्टि डालें तो, निस्संदेह स्वर्ग और नरक हैं, और हम अनंतकाल तक उनमें से एक में स्थित हैं। फिर प्रश्न यह रहता है कि मानसिक सातत्य कब आरम्भ होता है। क्या किसी एक क्षण में इसका सृजन होता है अथवा नहीं?

कार्यकारण की शून्यता (रिक्तता)

इससे कार्यकारण की शून्यता (रिक्तता) का प्रश्न उत्पन्न होता है। क्या बिना कारण के कोई प्रभाव हो सकता है? क्या वह स्वयंभू है? वह कैसे उत्पन्न होता है? बौद्ध-धर्म में कार्यकारण की शून्यता की बहुत विस्तृत परिक्षा की गई है। उदाहरण के लिए, यदि घटनाएँ बिना कारण होतीं, तो कभी भी कुछ भी हो सकता था। यदि हमारे अनुभवों में कोई अर्थ न होता, तो मेरा पैर मेज़ से टकराने और मुझे दर्द का अनुभव होने के बीच कोई सम्बन्ध होता ही नहीं।

विश्लेषण योग्य एक और बात यह है कि क्या कारण के समय उसका प्रभाव पहले से ही विद्यमान था। दूसरे शब्दों में, यदि कुछ स्वयंभू होता, तब तो ऐसा होता मानो सबकुछ पूर्वनिर्धारित है। सभी आलम्बन पहले से विद्यमान होते, और केवल सही समय पर प्रकट होते। यदि यह सत्य होता, तब इस बात में कोई तुक न होती कि सबकुछ नश्वर है और क्षण प्रति क्षण बदलता है, और इससे प्रभावित होता है कि पिछले क्षण क्या हुआ था। सबकुछ पहले से ही विद्यमान होता परन्तु केवल प्रकट या अप्रकट रूप में, मानों सबकुछ एकसाथ घटित हुआ हो। फिर समय जैसा कुछ न होता। पूर्वनिर्धारण के कारण, इसका अर्थ होता कि भूत, वर्तमान और भविष्य सब ठीक उसी समय घटित हो रहे हैं।

इसके अतिरिक्त, हम प्रतीत्यसमुत्पाद की दृष्टि से विश्लेषण कर सकते हैं। यदि किसी दृश्य-प्रपंच को इस दृष्टि से देखें कि उसके तुरंत पहले क्या हुआ था, तो इसे हम परिणाम कहेंगे। यदि हम उसे इस प्रकार देखें कि उसके पश्चात क्या होता है, तो फिर उसे कारण कहेंगे। किसी आलम्बन का कारण अथवा प्रभाव होना उसके सातत्य पर निर्भर करता है। मेरा आज का अनुभव मेरे बीते कल के अनुभव का परिणाम है और और मेरे आनेवाले कल का कारण। कुछ भी स्वतः स्वतंत्र रूप से कार्य या परिणाम के रूप में विद्यमान नहीं होता, अपितु उसके पहले या बाद के आलम्बन के सन्दर्भ में विद्यमान होता है। इसके फलस्वरूप, क्या यह संभव है कि, भूतकाल के परिणामस्वरुप, मृत्यु का कोई ऐसा क्षण हो जो भविष्य की किसी घटना का कारण न हो? कार्यकारण की शून्यता का विश्लेषण इस बिंदु को रेखांकित करता है।

संक्षेप में, पहले प्रकार का व्यक्ति होने के लिए जो यह सुनिश्चित करने के लिए कार्य करे कि हमें अनमोल मानव पुनर्जन्म प्राप्त होते रहें, जिनमें आध्यात्मिक मार्ग पर चलते रहने की संभावना हो, हमें पुनर्जन्म पर विश्वास होना चाहिए। उसके लिए, हमें अनादि और अनंत मानसिक सातत्य की समझ होनी चाहिए, और इसकी भी कि वह कार्यकारण के सन्दर्भ में किस प्रकार कार्य करता है। दूसरे शब्दों में, दुःखसत्य और उसके कारणों से हमेशा के लिए पीछा छुड़ाने के लिए, हमें यह समझना होगा कि दुःखों के सत्य कारण (समुदायसत्य) केवल इस जीवनकाल में नहीं, बल्कि अनादि काल में किस प्रकार संचित हुए हैं। सत्यनिरोध और सत्य मार्ग चित्त प्राप्त करने के लिए, हमें उनकी अवस्थिति के साथ कार्य करना होगा, जो नामतः उनके मानसिक सातत्य हैं; और चूंकि मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति में बहुत समय तक अथक प्रयास करना होगा, इसलिए हमें इस प्रक्रिया को अनेक भावी जन्मों के सन्दर्भ में समझना होगा।

सारांश

यदि हम भावी पुनर्जन्मों में विश्वास नहीं रखते, तो हमारे द्वारा वास्तविक धर्म को परखने में कोई तुक नहीं है। लाम-रिम भावी जन्मों में विश्वास करता है, और उसकी शिक्षाएँ इसपर ही आधारित हैं। यह सब समझने के लिए, हमारे लिए अपने चित्त की प्रकृति पर चिंतन-मनन करना अनिवार्य है।

जब हम कार्यकारण पर दृष्टि डालते हैं, और इसपर भी कि सामान्य दैनिक जीवन में हमारे चित्त किस प्रकार कार्य करता है, तब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमारा मानसिक सातत्य अनादि ही नहीं, बल्कि अनंत भी है। इस बात पर विश्वास हमें अपने भावी जन्मों के विषय में सोचने पर विवश करेगा, और इस बात पर भी कि हम अभी उनके लिए क्या कर सकते हैं।

इन विषयों को समझना सरल नहीं है परन्तु ये वे मार्ग हैं जिनसे हम अपने को विश्वास दिला सकते हैं कि लाम-रिम के तीन लक्ष्य प्राप्त करना संभव है, और उन्हें हम स्वयं प्राप्त कर सकते हैं। जब हमें इस बात पर विश्वास हो जाएगा, तब हम वह भावात्मक शक्ति विकसित करने का प्रयास कर पाएँगे जो हमें इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करने हेतु प्रेरित करेगी। 

Top