तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के बीच क्या अन्तर हैं?

चारों तिब्बती परम्पराओं के बीच बहुत सी समानताएं हैं, और इनके बीच के अन्तर अधिकांशतः शून्यता तथा चित्त की कार्यप्रणाली सम्बंधी व्याख्याओं में अन्तर के कारण हैं। यहाँ हम न्यिंग्मा, शाक्य, काग्यू और गेलुग संप्रदायों के बीच की कुछ समानताओं और भिन्नताओं के बारे में चर्चा करेंगे।

मठीय परम्परा

भारत में हीनयान के अठारह अलग-अलग संप्रदायों का उदय हुआ जिनमें से अब मठीय संवरों वाली विनय की गुरु परम्पराओं की केवल तीन परम्पराएं ही प्रचलित हैं। ये परम्पराएं हैं:

  • थेरवाद – दक्षिण-पूर्व एशिया में
  • धर्मगुप्तक – पूर्वी एशिया
  • मूलसर्वास्तिवाद – तिब्बत और मध्य एशिया में।

चारों तिब्बती परम्पराओं में भिक्षुओं और श्रमणेरों तथा श्रमणेरिकाओं के संवरों वाली मूलसर्वास्तिवादी गुरु परम्परा पाई जाती है, और चारों परम्पराओं में उपासकों की भी परम्परा है। लेकिन थेरवाद की ही भांति मूलसर्वास्तिवाद में भी अब भिक्षुणियाँ नहीं होती हैं – वे केवल धर्मगुप्तक की परम्परा में ही पाई जाती हैं – ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें दीक्षित करने की परम्परा कभी तिब्बत पहुँची ही नहीं।

न्यिंग्मा परम्परा में भी न्गाग्पा (मांत्रिक) दीक्षासंस्कार की व्यवस्था है। न्गाग्पा व्यापक तांत्रिक संवर धारण करते हैं, और उन्हें ध्यानसाधना और उपासकों के लिए अनुष्ठान करने में विशेषज्ञता हासिल होती है। न्गाग्पा बनना कभी भी मठीय व्यवस्था का प्रमुख विकल्प नहीं रहा है और इसीलिए न्गाग्पा हमेशा ही बहुत कम रहे हैं।

अध्ययन, अनुष्ठान और ध्यानसाधना

चारों तिब्बती परम्पराओं में अनुष्ठानों और ध्यानसाधना में सूत्र और तंत्र के अध्ययन को शामिल किया जाता है। इनमें से प्रत्येक परम्परा की बौद्ध शिक्षा में चारों भारतीय मत पद्धतियों के ग्रंथों को कंठस्थ और उनके अर्थ के बारे में औपचारिक शास्त्रार्थ की व्यवस्था शामिल है। सूक्ष्म बिंदुओं की व्याख्या में अन्तर केवल चारों तिब्बती संप्रदायों में ही नहीं दिखाई देते हैं, बल्कि प्रत्येक सम्प्रदाय के मठीय ग्रंथों में भी अन्तर दिखाई देते हैं। ये अन्तर शास्त्रार्थ को सजीव बनाते हैं और अधिक स्पष्ट बोध हासिल करने में सहायक होते हैं।

सफलतापूर्वक अध्ययन समाप्त कर लेने पर गेलुग्पाओं को “गेशे” की उपाधि दी जाती है और शेष तीन परम्पराओं में “खेन्पो” की उपाधि प्रदान की जाती है। मठाधीशों को भी “खेन्पो” की उपाधि दी जाती है। चारों परम्पराओं में पुनर्जन्मे लामाओं की “तुल्कु” व्यवस्था है। तुल्कु लामाओं और मठाधीशों को, चाहे उनकी शिक्षा का स्तर जो भी हो, “रिंपोशे” की उपाधि भी प्रदान की जाती है।

चारों परम्पराओं के अनुष्ठानों में झांझ, ढोल और तुरही के वादन के साथ उच्चार, और मूर्ति बनाने तथा शंकु के आकार वाले तोरमा – जौ के आटे तथा मक्खन से बने लड्डू – का चढ़ावा भेंट करने के अनुष्ठान शामिल हैं। सस्वर पाठ करने और संगीत की शैलियाँ सामान्यतया समान होती हैं, लेकिन गेलुग्पा भिक्षुओं में ओवरटोन युक्त डबलबस स्वर में उच्चार की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है।

चारों परम्पराओं में अनुयायियों को न्गोन्द्रो के साष्टांग प्रणाम और गुरु-योग जैसे प्रारम्भिक अभ्यासों को 100,000 बार दोहराने की सीख दी जाती है। लेकिन उच्चारित किए जाने वाले मंत्रों और किए जाने वाले अभ्यासों की संख्या में थोड़ा अन्तर होता है। प्रत्येक परम्परा में की जाने वाली ध्यानसाधना में दैनिक अभ्यास, कुछ माह के अल्प अवधि वाले एकांतवास और तीन वर्ष के एकांतवास शामिल होते हैं। इनमें अन्तर मुख्यतः इस दृष्टि से होता है कि साधक अपने जीवन की किस अवस्था में एकांतवास करते हैं। शाक्य, न्यिंग्मा और काग्यू परम्पराओं में न्गोन्द्रो अभ्यास आरम्भिक काल में किए जाते हैं जबकि गेलुग्पा लोग इन्हें बाद में करते हैं।

परिभाषाएं और दृष्टिकोण

चारों परम्पराओं में शिक्षाओं की व्याख्याओं के बीच प्रमुख अन्तर इनमें तकनीकी शब्दावली को परिभाषित किए जाने और उनके प्रयोग के कारण होते हैं, और इन परम्पराओं द्वारा अलग-अलग दृष्टिकोणों से धर्म को प्रस्तुत किए जाने के कारण होते हैं।

उदाहरण के लिए “स्थायी/अस्थायी” युग्म का अर्थ या तो अपरिवर्ती/परिवर्ती या फिर नित्य/अनित्य हो सकता है। जब गेलुग्पा कहते हैं कि चित्त अस्थायी है, तो उनका आशय यह होता है कि हमारे चित्त को हर क्षण अलग-अलग वस्तुओं का बोध रहता है और इसलिए वह ।

कभी भी अपरिवर्ती नहीं होता है। वहीं दूसरी ओर काग्यू और न्यिंग्मा यह व्याख्या करते हैं चित्त स्थायी है, तो उनका आशय यह होता है कि चित्त की प्रकृति कभी नहीं बदलती है और उसका कोई आदि या अन्त नहीं होता है। लेकिन चित्त के स्थायी या अस्थायी होने के बारे में उनके दृष्टिकोणों के सतही तौर पर एकदम विपरीत होने के बावजूद दोनों ही पक्ष दूसरे पक्ष के दावों से सहमत होंगे।

एक और अन्तर यह है कि गेलुग परम्परा में धर्म की व्याख्या साधारण सत्वों के दृष्टिकोण से की जाती है, शाक्य परम्परा उसकी व्याख्या धर्म के मार्ग का उन्नत बोध प्राप्त कर चुके आर्यों की दृष्टि से, जबकि काग्यू और न्यिंग्मा में उसकी व्याख्या ज्ञानोदय प्राप्त सत्वों के दृष्टिकोण से की जाती है। इसलिए, उदाहरण के तौर पर, गेलुग में कहा जाता है कि सूक्ष्मतम चित्त में भी अज्ञान मौजूद रहता है, जैसेकि मृत्यु के समय पर; शाक्य कहता है कि वह आनंदमय होता है उसे जैसे मार्ग पर विकसित किया गया हो; जबकि काग्यू और न्यिंग्मा बताते हैं कि चित्त में सबकुछ पहले से ही पूर्णता से विद्यमान होता है, जैसाकि बुद्धजन के मामले में होता है। इसके अलावा, गेलुग और शाक्य परम्पराएं उन साधकों की दृष्टि से व्याख्या करती हैं जो क्रमिक ढंग से धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं, जबकि काग्यू और न्यिंग्मा अक्सर मार्ग को उन बिरले साधकों के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करते हैं जिनके लिए “सब कुछ एक ही बार में घटित होता है।“

शून्यता की व्याख्या और साधना की विधि

चारों परम्पराओं में इस बात पर सहमति है कि माध्यमक ग्रंथों में दी गई शून्यता की व्याख्या – सत्यतः स्थापित अस्तित्व की शून्यता – ही सबसे गहन व्याख्या है। लेकिन उनके बीच अन्तर इस बात को लेकर हैं कि उनमें माध्यमक को उप-सम्प्रदायों में किस प्रकार विभाजित किया जाता है और इन सम्प्रदायों के बीच परस्पर किस प्रकार के अन्तर हैं। अन्तिम लक्ष्य शून्यता का निर्वैचारिक बोध हासिल करना होता है – चाहे सूत्र में चित्त के अपरिष्कृत स्तर से हो या उच्चतम तंत्र में निर्मल प्रकाश चित्त के सूक्ष्मतम स्तर से या फिर उच्चतम तंत्र में रिग्पा निर्मल बोध के स्तर से हो। इसका अर्थ एक निश्चित प्रकार की चित्तावस्था और एक निश्चित लक्ष्य, जिसका लक्ष्य शून्यता की प्राप्ति हो, को विकसित करना होता है। गेलुग परम्परा की ध्यानसाधना में लक्ष्य पर विशेष बल दिया जाता है, जबकि शाक्य, काग्यू और न्यिंग्मा परम्पराओं में चित्त पक्ष पर अधिक बल दिया जाता है।

निर्वैचारिक बोध हासिल करने और सूक्ष्मतम चित्त तक पहुँचने और उसे सक्रिय करने के लिए प्रत्येक परम्परा की अपनी-अपनी विधियाँ भी सिखाई जाती हैं। गेलुग में जिसे निर्वैचारिक कहा जाता है, शाक्य, काग्यू और न्यिंग्मा में उसे “शब्दों और अवधारणाओं से परे” कहा जाता है।

जहाँ तक चित्त और उसके लक्ष्यों का सम्बंध है, गेलुग में बताया गया है कि हम लक्ष्यों के अस्तित्व का वर्णन कर सकते हैं क्योंकि उन्हें दर्शाने वाले शब्द और अवधारणाएं उपलब्ध हैं; लेकिन ज़ाहिर है कि अवधारणाओं की सहायता से मानसिक लेबलिंग करने और शब्दों की सहायता से निर्दिष्ट कर देने से कोई ढूँढे जा सकने योग्य लक्ष्य निर्मित नहीं होता है। शाक्य, काग्यू और न्यिंग्मा में चित्त और उसके लक्ष्यों के अद्वैत पर बल दिया जाता है; लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि ये दोनों एक ही हैं। बल्कि इन दोनों का एक दूसरे से स्वतंत्र अस्तित्व सम्भव नहीं है। इसे चित्त और प्रतीतियों की अविभाज्यता कहा जाता है। तिब्बती सम्प्रदायों के ये दो दृष्टिकोण एक-दूसरे के प्रतिकूल नहीं हैं।

इसके अलावा, दोनों ही पक्ष मानते हैं कि विश्लेषण किए जाने पर कुछ भी ऐसा नहीं है जो ढूँढे जा सकने योग्य हो, स्वयं अपने ही दम पर अस्तित्वमान हो, स्वतः ही अपने अस्तित्व को स्थापित करने वाला हो; फिर भी कारण और प्रभाव अपना कार्य करते रहते हैं। गेलुग की व्याख्या कहती है कि सत्यतः स्थापित अस्तित्व इस दृष्टि से भ्रम जैसे होते हैं कि वे किसी यथार्थ चीज़ के सदृश नहीं होते हैं; जबकि बाकी तीन परम्पराएं इस बात पर ज़ोर देती हैं की यथार्थतः अस्तित्व दरअसल एक भ्रम होता है।

ग्रहणबोध सिद्धांत

गैर-गेलुग सम्प्रदायों का कहना है कि हम निर्वैचारिक तौर पर जिस किसी चीज़ का बोध हासिल करते हैं वे केवल ग्राह्य बोध होते हैं – जैसे हमारी दृष्टि से हासिल होने वाला रंगीन आकृतियों का बोध – किसी एक इंद्रिय के इंद्रिय विवरण होते हैं। इसके अलावा, हमें एक समय पर केवल एक ही क्षण का बोध होता है। फिर भी, लौकिक वस्तुओं को अनेक इंद्रियों के माध्यम से जाना जा सकता है: हम किसी सेब को दृष्टि, गंध, स्वाद या अपने हाथ की भौतिक संवेदना के माध्यम से जान सकते हैं, और यह बोध हमें बोध के क्षणों की एक श्रृंखला के माध्यम से होता है। इसीलिए शाक्य, काग्यू और न्यिंग्मा परम्पराओं का कहना है कि हम केवल सेब जैसी लौकिक सहज-बुद्धि से समझी जाने योग्य वस्तुओं का ही वैचारिक बोध हासिल कर सकते हैं। हाँ, इसका यह मतलब नहीं है कि सेबों का अस्तित्व केवल हमारे वैचारिक चित्त में ही होता है, बल्कि यह कि हम उन्हें केवल वैचारिक मानसिक प्रपंचों के माध्यम से ही जान सकते हैं।

गेलुग में इस बात पर बल दिया जाता है कि निर्वैचारिक तौर पर भी हमें केवल रंगीन आकृतियों का एक क्षण ही दिखाई नहीं देता है, बल्कि हर क्षण में भी हमें सेबों जैसी लौकिक वस्तुएं, जिन्हें विभिन्न इंद्रियों के माध्यम से जाना जा सकता है और जो लम्बे समय तक स्थायी रहती हैं, दिखाई देती हैं। वैचारिक विचार और परम्परागत वस्तुओं के बीच का सम्बंध यह नहीं है कि वस्तुओं को केवल वैचारिक दृष्टि से ही जाना जा सकता है, और न ही यह है कि वे केवल वैचारिक विचार की उत्पत्ति हैं। बल्कि यह कि हम उनके अस्तित्व को केवल वैचारिक विचार की सहायता से ऊपर बताए गए अनुसार मानसिक लेबलिंग की सहायता से समझा सकते हैं। इस प्रकार दोनों ही पक्ष इस बात पर सहमत हैं कि हमारे भ्रम और यथार्थ के बारे में हमारे अज्ञान – हमारे दुख के सबसे प्रमुख कारण - पर विजय पाने और उसे हमेशा-हमेशा के लिए दूर करने के लिए दुनिया को जानने के हमारे तरीके में वैचारिक विचार की भूमिका महत्वपूर्ण है।

सारांश

यह महत्वपूर्ण होता है कि इसके लिए एक गैर-सम्प्रदायवादी दृष्टिकोण अपनाया जाए, जिस पर दलाई लामा लगातार बल देते रहते हैं। गुरु परम्परा को लेकर किसी फुटबॉल टीम जैसी मानसिकता नहीं अपनाई जाना चाहिए, जहाँ हम सोचते हैं कि कोई एक टीम दूसरी टीम से बेहतर है। शिक्षा सम्प्रदायवादी सोच का सबसे उत्तम प्रतिमारक है। हम अलग-अलग परम्पराओं के बारे में जितना अधिक जानते जाते हैं उतना ही अधिक हमें यह समझ आता है कि ये सभी सम्प्रदाय किस प्रकार एक-दूसरे के अनुरूप हैं, बावजूद इसके कि अक्सर इनमें विषयों का वर्णन अलग-अलग ढंग से किया जाता है। इस प्रकार हम सभी गुरु परम्पराओं की शिक्षाओं का आदर कर सकते हैं।

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