आधुनिक विश्व में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता

क्या बौद्ध धर्म हमारे इस आधुनिक विश्व में प्रासंगिक है? सबसे पहले तो अत्यंत रोचक बात यह है कि हम सामान्यतः जीवन में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता के बजाय आधुनिक जीवन में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता के बारे में बात कर रहे हैं। क्या हमारे आधुनिक जीवन में कोई ऐसी विशेष बात है? निश्चित रूप से सेलफ़ोन और अन्य प्रौद्योगिकी हैं - पुराने समय की तुलना में आधुनिक जीवन की ये गोचर वस्तुएँ भिन्न हैं। केवल पंद्रह साल पहले की बात है कि मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे - परन्तु सदा से मनुष्य की स्थिति सामान्य रूप से एक जैसी ही रही है। लोगों के बीच झगड़े होते रहे हैं। लोग दुखी और हताश होते रहे हैं। लोगों को एक-दूसरे के साथ प्रगाढ़ संबंध आसान नहीं लगते। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन, किसी न किसी प्रकार से, चिंतायुक्त रहा है; वर्तमान समय में हम आर्थिक कठिनाइयों से चिंतित हैं, सहस्रों वर्ष पूर्व हम अकाल के कारण फ़सल खराब होने के भय से त्रस्त थे। बौद्ध-धर्म के पास देने के लिए कुछ न कुछ अवश्य है और, न केवल वर्तमान समय में अपितु हमेशा।


बौद्ध विज्ञान, बौद्ध दर्शन और बौद्ध धर्म

परम पावन दलाई लामा बौद्ध विज्ञान, बौद्ध दर्शन, और बौद्ध धर्म के बीच विभेद करते हैं। उनका कहना है कि बौद्ध विज्ञान और बौद्ध दर्शन में सबको देने के लिए बहुत कुछ है। बौद्ध विज्ञान और दर्शन में उपलब्ध शिक्षाओं और अंतर्दृष्टि से लाभ उठाने के लिए हमें बौद्ध धर्म पर विचार करने या उसमें रूचि लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।

बौद्ध विज्ञान मनोविज्ञान से संबंधित है; यह चित्त, मनोभाव, एवं ग्रहण-बोध किस प्रकार काम करते हैं इसपर एक बहुत गहन विश्लेषण है। यह तर्कशास्त्र तथा ब्रह्मांड विज्ञान के विषय में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। बौद्ध दर्शन यथार्थ से संबंधित है – हम यथार्थ को किस प्रकार समझते हैं और किस प्रकार यथार्थ-सम्बन्धी कल्पनाओं और प्रक्षेपणों का विखंडन करते हैं। ये बातें सबके लिए सहायक सिद्ध हो सकती हैं, और इसके लिए बौद्ध धर्म के अधिक धर्म-विषयक आयामों जैसे पुनर्जन्म, मोक्ष, और ज्ञानोदय को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा ध्यान-साधना चित्त शोधन एवं जीवन के प्रति अधिक हितकारी दृष्टिकोण विकसित करने के लिए एक ऐसी गतिविधि है जो सबके लिए उपयोगी हो सकती है।

बौद्ध मनोविज्ञान और दर्शन की प्रासंगिकता

बौद्ध मनोविज्ञान और दर्शन दोनों का (और साथ ही बौद्ध धर्म के धार्मिक आयामों का भी) मुख्य लक्ष्य है दु:ख और अप्रसन्नता को दूर करना। भावात्मक कठिनाइयों के कारण हम सभी को बहुत अधिक मानसिक पीड़ा और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ होती हैं। अतार्किक होने और यथार्थ से दूर होने के कारण हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ये ऐसी समस्याएँ हैं जिनसे उबरने में बौद्ध शिक्षाएँ हमारी सहायता कर सकती हैं।

निस्संदेह एक धर्म के रूप में बौद्ध धर्म परवर्ती जन्मों की समस्याओं से तरने, पुनर्जन्मों से विमुक्त होने, और एक ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध बनने की बात करता है। परन्तु यदि हम केवल मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र के संदर्भ में देखते हैं, तो बौद्ध धर्म इस जीवनकाल में भी हमारे दु:खों और समस्याओं को कम करने में हमारी सहायता कर सकता है।

बुद्ध की प्रमुख शिक्षाओं की संरचना वह ढाँचा था जिसे बुद्ध ने चार आर्य सत्य की संज्ञा दी। "आर्य" शब्द उन जीवों का उल्लेख करता है जिन्होंने यथार्थ को देखा है। ये जीवन के वास्तविक तथ्य हैं जिन्हें यथार्थ को ग्रहण करने वालों ने सत्य के रूप में समझा या जाना है।

दुःख सत्य: दुःख, आनंद, एवं बाध्यता

पहला वास्तविक सत्य दु:ख है। दु:ख सत्य क्या है? हमें किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है?

पहली समस्या है दुःख। दु:ख की कई श्रेणियाँ हो सकती हैं; जब हम आनन्ददायक स्थितियों में होते हैं, आनन्ददायक संगति में होते हैं, स्वादिष्ट भोजन करते हैं, तब भी हम दुखी हो सकते हैं। दूसरी ओर, भले ही हम पीड़ा का अनुभव कर रहे हों, फिर भी बिना शिकायत किए, और बिना परेशान हुए या अपने में ही उलझे बिना सुखी रह सकते हैं; हम शांत रह सकते हैं अपनी स्थिति को स्वीकार करते हुए और इस बात की सावधानी बरतते हुए कि अपने परिवार को परेशान न करें। तो दुःख पहली बड़ी समस्या है जिसका हम सभी सामना करते हैं।

दूसरे प्रकार की समस्या कुछ असामान्य है, और इसलिए अधिकतर लोग इसे एक समस्या के रूप में नहीं देखते; दुःख का दूसरा प्रकार है हमारा सामान्य सुख। हमारे सामान्य सुख में क्या समस्या हो सकती है? समस्या यह है कि यह सदा के लिए नहीं रहता, संतोषदायक नहीं होता, हमारे पास पर्याप्त मात्रा में नहीं होता, और यह परिवर्तनशील होता है। हम कुछ समय के लिए सुखी होते हैं, और फिर अचानक हमारा मनोभाव बदल जाता है और हम सुखी नहीं रहते - हम सहसा दुखी हो जाते हैं। यदि हमारा सामान्य सुख वास्तव में सच्चा और परम सुख होता, तो हमारे पास हमें सुख पहुँचाने वाला आलम्बन जितना अधिक होता, हम उतना ही अधिक सुखी होते। अब आइस-क्रीम को ही ले लीजिए - सैद्धांतिक रूप से, हम एक बार में जितनी अधिक से अधिक आइसक्रीम खा लें, हमें उतना ही अधिक सुख प्राप्त होना चाहिए। परन्तु एक निश्चित समय के बाद उस आइस-क्रीम से सुख मिलना कम होता जाता है और यदि हम इसे और अधिक खाते रहें तो हमें उल्टी हो जाएगी। तो यह सामान्य सुख जिसके लिए हम प्रयास करते हैं, वह भी समस्याग्रस्त है।

आनंद का विषय अत्यंत रोचक है। मैं प्रायः सोचता हूँ: अपनी प्रिय खाने की चीज़ का आनंद लेने के लिए मुझे कितना खाना चाहिए? क्या उसका स्वाद चखना ही पर्याप्त होगा? तब क्या मैं यह कह पाऊँगा कि मैंने इसका आनंद पा लिया है और मुझे इसकी और आवश्यकता नहीं है? वस्तुतः मैंने यह पाया है कि ऐसा नहीं होता है। हम अधिक से अधिक खाना चाहते हैं। तो आस्वादन भी संतोषदायक नहीं होता।

समस्याग्रस्त स्थिति का तीसरा प्रकार है हमारा बाध्यकारी अस्तित्व। बाध्यकारी का अर्थ है अपने मन या व्यवहार पर हमारा कोई नियंत्रण न होना। उदाहरण के लिए, हमारे मन में कोई गाना बाध्यकारी ढंग से बजते रहना - हम इसे रोक नहीं पाते। या बाध्यकारी ढंग से अत्यंत नकारात्मक विचारों का आना, बाध्यकारी ढंग से चिंता करना, हर समय बाध्यकारी ढंग से बात करना, और बाध्यकारी ढंग से नकारात्मक कार्य करना। वास्तव में, बाध्यता के इस पूरे आयाम को बौद्ध धर्म में कर्म कहा गया है; कर्म हमें बिना किसी नियंत्रण के, आवर्ती व्यवहार करने के लिए विवश करता है। और भले ही यह बाध्यकारी तथाकथित "अच्छा व्यवहार" क्यों न हो, जैसे कि सदैव परिपूर्ण होने का प्रयास करना, हम कभी संतुष्ट नहीं होते - वास्तव में परिपूर्ण होने की विवशता अत्यधिक तनावपूर्ण होती है; यह कदापि सुखद नहीं होती।

तो चाहे वह विनाशकारी हो या रचनात्मक, बाध्यकारी व्यवहार बिल्कुल अद्भुत नहीं होता। यह अत्यंत समस्याजनक होता है, विशेष रूप से जब हम विवश होकर क्रोध, लोभ, आसक्ति, या ईर्ष्या इत्यादि के अधीन रहकर कार्य करते, बोलते, या सोचते हैं। कुछ लोग तो अपने साथी के बारे में ईर्ष्यापूर्ण विचारों की धुन में रहते हैं - वे अत्यधिक भयग्रस्त एवं शंकालु होते हैं। यह बाध्यकारी व्यवहार का एक बहुत ही अप्रिय उदाहरण है। बहुत अच्छा होता यदि हम सोचने, बोलने और काम करने के इस बाध्यकारी आयाम को नियंत्रित कर पाते।

दु:ख के वास्तविक कारण के लिए अपने मन के भीतर झाँकना

बौद्ध धर्म यह कहता है कि हमें इन समस्याओं के कारणों को अपने ही भीतर ढूँढ़ने की आवश्यकता है। अपनी समस्याओं के लिए बाह्य कारकों पर दोष मढ़ना सरल है; उदाहरण के लिए, मैं अर्थव्यवस्था, या मौसम, या राजनीति के कारण क्रोधित हूँ। वास्तव में, ये केवल कुछ आदतों के व्यक्त होने के बाह्य कारण होते हैं - वे आदतें जो हमारे भीतर होती हैं, जैसे दुखड़ा रोने की आदत। हमें ऐसा लगता है कि समस्या बाहरी है, परन्तु वास्तव में समस्या है हमारी बाध्यकारी रूप से झींकने की आदत। वास्तव में, बाह्य घटनाएँ प्रभावहीन होती हैं; बाहर जो हो रहा है वह बस झींकने के बहाने हैं।

तो बौद्ध धर्म के मुख्य बिंदुओं में से एक यह है कि हम जीवन का अनुभव किस प्रकार करते हैं, यह मूल रूप से हम पर निर्भर है। जीवन में उतार-चढ़ाव तो होते ही हैं, और हम उन्हें या तो अशांत भाव से झेल सकते हैं, या फिर शांत मन से। अर्थात, यह सब हम पर ही निर्भर है। और इसलिए हमें जो करना है वह है स्वयं को जाँचना: मेरी समस्याएँ क्या हैं? मेरी समस्याओं का कारण क्या है? मेरे दुःखों का कारण क्या है? मेरे सामान्य सुख और मेरे बाध्यकारी व्यवहार के पीछे क्या है? इसके कारण क्या हैं?

बौद्ध धर्म कहता है कि हमें अपनी समस्याओं के वास्तविक कारण को जानने के लिए अधिकाधिक गंभीरता से अध्ययन करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, हम कह सकते हैं कि "मेरी समस्या चिड़चिड़ापन है"; परन्तु हमें फिर आगे यह पूछने की आवश्यकता है: मैं चिड़चिड़ा क्यों हो जाता हूँ? तब हम यह पाते हैं कि हमारी समस्याओं का वास्तविक कारण है भ्रान्ति : अपने अस्तित्व के बारे में भ्रान्ति, दूसरों के अस्तित्व के बारे में भ्रान्ति, समस्त संसार के अस्तित्व के बारे में भ्रान्ति, तथा जो कुछ भी मेरे साथ हो रहा है, उसके बारे में भ्रान्ति। इन सभी भ्रांतियों की वास्तविकता को समझने के बदले हम हर प्रकार की कपोल कल्पनाओं को यथार्थ पर प्रक्षेपित कर देते हैं।

सोचने के असंभव तरीकों का प्रक्षेपण

हम अस्तित्वमान होने के असंभव तरीकों को यथार्थ पर प्रक्षेपित करते हैं। उदाहरण के लिए, अपने बारे में हमारी धारणा: "सदैव मेरी ही मर्ज़ी चलनी चाहिए। सब लोग मुझे ही पसंद करें। सब लोगों को मेरी ओर ही ध्यान देना चाहिए। मेरी बात और मेरे विचार ही महत्त्वपूर्ण हैं।" आप इसके उदाहरण ब्लॉगिंग, टेक्स्ट मैसेजिंग, और सामाजिक नेटवर्किंग के प्रपंचों पर देख सकते हैं। इन नई प्रौद्योगिकियों के साथ लोगों की अपेक्षा है: मुझे जो कहना है वह महत्त्वपूर्ण है। पूरे ब्रह्माण्ड को मेरी बात सुननी होगी। मैंने अभी-अभी नाश्ता किया है, और निश्चित रूप से हर कोई यह जानना चाहता है कि मैंने नाश्ते में क्या खाया। और मेरे सुबह के नाश्ते के "लाइक" पर यदि पर्याप्त लोगों ने क्लिक नहीं किया तो मैं पूरे दिन अत्यंत बेचैन रहूँगा।

एक और मिथ्या प्रक्षेपण यह विचार है कि सबकुछ मेरे नियंत्रण में होना चाहिए। हम हर स्थिति में सोचते हैं कि सबकुछ हमारे नियंत्रणाधीन होना चाहिए। हम सोचते हैं: "मैं सबकुछ समझता हूँ और मैं अपनी इच्छानुसार सबकुछ चलाऊँगा। अपने कार्यालय में मैं सबसे वैसे ही काम करवाऊँगा जैसे मैं चाहता हूँ। मैं अपने परिवार में लोगों से वह सबकुछ करवाऊँगा जो मैं चाहता हूँ।" यह बेतुकी बात है। यह असंभव है - हम सभी जानते हैं - परन्तु यह उस प्रक्षेपण पर आधारित है कि: मेरे काम करने की शैली ही काम करने की उचित शैली है। अन्य लोगों की शैली ग़लत है और मेरी शैली जितनी अच्छी नहीं है।

या फिर हम किसी और पर यह विचार प्रक्षेपित करते हैं कि "तुम्हें मुझसे प्यार करना ही चाहिए," या "यह व्यक्ति विशेष है।" हम यह मानते हैं कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि अन्य लोग, जैसे कि मेरे माता-पिता या मेरा कुत्ता आदि, मुझसे प्यार करते हैं या नहीं, परन्तु इस व्यक्ति विशेष को मुझसे प्यार करना ही पड़ेगा, और यदि वह प्यार नहीं करता, तो मैं बहुत बेचैन हो जाता हूँ। जब मैं दक्षिणी ध्रुव में पेंग्विनों की बस्तियों के बारे में सोचता हूँ तो मुझे सदा यह बात याद आती है। लाखों पेंग्विन हैं, और हमें वे सब एक जैसे ही दिखते हैं, परन्तु नर पेंग्विन के परिप्रेक्ष्य से देखें तो एक मादा विशेष पेंग्विन आती है और वह उन लाखों पेंग्विनों में से उस विशेष मादा पेंग्विन पर ही आसक्त हो जाता है: "यही है जो पूर्णतया विशेष है, और मैं चाहता हूँ कि वही मुझसे प्यार करे।” यह एक मोहजाल है, एक प्रक्षेपण है, कि यह पेंग्विन विशेष या यह मनुष्य विशेष अन्य सभी की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है, अत्यधिक विशेष है, और दूसरे सब नगण्य हैं।

तो हम अपने को तूल देते हैं (मैं विशेष हूँ) या हम किसी और को तूल देते हैं (आप विशेष हैं)। या फिर हम उस घटना को तूल देते हैं जो हमारे साथ घटित हो रही होती है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि मेरी संतान स्कूल में आगे न बढ़ रही हो; मुझे ऐसा लगता है जैसे सारे ब्रह्मांड में मैं ही वह अकेला व्यक्ति हूँ जिसे इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है। या मेरी पीठ में दर्द है, या मैं तनाव का अनुभव कर रहा हूँ - ऐसा लगता है जैसे किसी और को तो यह समस्या है ही नहीं, केवल मुझे ही है, और यह विश्व का सबसे भयंकर संकट है। या हम यह सोचते हैं कि: “मुझे कोई नहीं समझ पाता। बाकी सबको समझना सहज है, परन्तु मैं विशेष हूँ।"

हम इन सबको तूल देते हैं, जिसे प्रक्षेपण कहते हैं। हम उन्हें किसी असंभव आलम्बन पर प्रक्षेपित करते हैं और फिर उसपर विश्वास करने लगते हैं। और उस कारणवश हम असुरक्षित अनुभव करते हैं, जो यह प्रमाणित करता है कि हम प्रक्षेपित करते हैं और वह प्रक्षेपण यथार्थ पर सुदृढ़ रूप से आधारित नहीं है। हम असुरक्षित अनुभव करते हैं, और फिर अपने इस अति महत्त्वपूर्ण "मैं" को सुरक्षित बनाने के लिए अनेक भावनात्मक रणनीतियों को अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, यह मैं, जिसे सदैव अपना हुक्म ही चलाना होता है - जब कोई हमारी बात नहीं मानता, तो हम क्या करते हैं? हम क्रोधित हो जाते हैं, हम दूसरों को दूर ढकेल देते हैं: यह स्थिति वैसी नहीं है जैसी मैं चाहता हूँ। या यदि स्थितियाँ हमारी इच्छा के अनुरूप होती हैं तो हम उनसे इस आशा से आसक्त हो जाते हैं कि यदि मेरे आस-पास सबकुछ मेरी इच्छानुसार हो जाए तो मैं सुरक्षित अनुभव करूँगा। या फिर हम अत्यंत लोभी और आसक्त हो जाते हैं: यदि किसी अन्य की इच्छापूर्ति हो जाती है और मेरी नहीं, तो उसे जो कुछ मिला है उससे मुझे बहुत ईर्ष्या होती है और मैं उस वस्तु को अपने लिए चाहने लगता हूँ। और तब हम बाध्यकारी ढंग से इन अशांतकारी मनोभावों के अधीन होकर व्यवहार करते हैं। हम किसी पर क्रोध से चिल्ला उठते हैं, या बाध्यकारी ढंग से ईर्ष्या या लोभ-युक्त भयंकर विचारों से ग्रस्त रहते हैं।

ये सब हमारी समस्याओं के असली कारण हैं। हम दु:खी होते हैं, तो हम क्या करते हैं? हम रोने बैठ जाते हैं: मैं बेचारा, मैं कितना दुखी हूँ। और यदि हम सुखी  होते हैं, तो वह सुख कभी भी हमारे लिए पर्याप्त नहीं होता। हम अपने सुख से आसक्त होते हैं, और हम कभी संतुष्ट नहीं होते - हम सदा अधिकाधिक सुख चाहते हैं। यदि आप स्वयं पर ध्यान दें, तो क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि कभी-कभी आप कुत्ते के समान व्यवहार करते हैं? जब कुत्ता कुछ खा रहा होता है, तो वह हमेशा इधर-उधर झाँकता रहता है कि कोई दूसरा कुत्ता आकर उसके भोजन को छीन न ले। तो, कुत्ते की तरह, मनुष्यों को भी लगता है: मैं अपने सुख का उपभोग कर रहा हूँ। मेरे सारे काम मेरी इच्छानुसार हो रहे हैं। कहीं कोई उसे छीन न ले। हम असुरक्षित रहते हैं।

यह कितना विस्मयकारी है कि हम जितना अधिक अपना विश्लेषण करते हैं और अपने भीतर झाँकते हैं, उतनी ही अधिक बातें निकलकर सामने आती हैं। हमारे ऐसे विचार होते हैं जैसे: "मैं सुखी हूँ परन्तु कदाचित मैं और अधिक सुखी हो सकता हूँ। मैं दु:खी हूँ और यह दुःख सदा के लिए बना रहेगा। मैं बेचारा। मैं इस अवसाद से कभी बाहर नहीं निकल पाऊँगा।" हम यह पाते हैं कि हमारा मन हमारे अस्तित्व के विषय में लगातार भ्रमित होकर चक्कर काटता रहता है।

एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य यह भी हो सकता है, उदाहरण के लिए मेरे पास जो है मैं उससे संतुष्ट हूँ। उदाहरण के लिए, मेरे पास एक घड़ी है। घड़ी काम करती है, और अगर वह टूट जाए तो मैं उसे ठीक करवा सकता हूँ। मैं इस विकल्प को चुन सकता हूँ कि मेरे पास जो है उससे मैं संतुष्ट रहूँ, परन्तु ऐसा न करके मैं किसी और की घड़ी को देखकर सोचता हूँ: "ओह, उसके पास मुझसे बेहतर घड़ी है।" तो फिर समस्याएँ शुरू हो जाती हैं। "ओह, मेरी घड़ी उसकी घड़ी जितनी अच्छी नहीं है। मेरे पास केवल यह सस्ती घड़ी ही क्यों है? मुझे एक बेहतर घड़ी कैसे मिल सकती है? जब लोग मुझे यह सस्ती घड़ी पहने हुए देखेंगे, तो मेरे बारे में क्या सोचेंगे?”

यह एक बहुत ही सामान्य मनोभाव है - कि लोग क्या कहेंगे। अपनी आत्म-छवि के बारे में चिंतन करके, कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं, इतनी सारी समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। अब मैं अपने लिए यह सोच सकता हूँ कि अच्छे शिक्षकों के पास अच्छी घड़ियाँ होनी चाहिए। परन्तु एक अलग दृष्टिकोण यह भी हो सकता है: मेरे पास एक सस्ती घड़ी है, तो क्या हुआ? “तो क्या हुआ” की इस अंतर्दृष्टि को हमें विकसित करना होगा। क्या इस बात का कोई महत्त्व है कि मेरे पास किस तरह की घड़ी है? मेरी घड़ी मुझे समय दिखाती है, और मुझे बस इसी से मतलब है।

इसके ठीक विपरीत विचार भी सम्भाव्य हैं: यह सोचने के स्थान पर कि मेरे पास एक अच्छी घड़ी होनी चाहिए, मैं यह सोच सकता हूँ कि एक बौद्ध शिक्षक होने के नाते मुझे सीधा-सादा  होना चाहिए। मेरे पास बहुमूल्य वस्तुएँ नहीं होनी चाहिए, अन्यथा लोग यह समझेंगे कि मैं यह काम धन कमाने के लिए कर रहा हूँ। तब मुझे इस तथ्य पर बहुत गर्व होगा कि मेरे पास एक सस्ती घड़ी है, और मैं  घोषित करता रहूँगा; मैं इसे प्रदर्शित करना चाहूँगा: “देखो मेरी घड़ी कितनी सस्ती है। मैं बहुत सीधा-सादा  हूँ। मैं कितना बौद्ध हूँ।" और निश्चित रूप से यह चित्त की अत्यंत अशांत अवस्था है।

तो यही है दु:ख। बौद्ध धर्म इसी के बारे में बात करता है - उद्भ्रांत, आशंकित सोचने के ढंग के आवर्तीक्रम से किस प्रकार छुटकारा पाया जाए। ये सारे दुःख हमारी मनोदृष्टियों पर आधारित हैं, विशेष रूप से अपने बारे में अपनी मनोदृष्टि पर।

सत्य निरोध

तीसरा आर्य सत्य जो बुद्ध ने देखा वह यह है कि इन सारी समस्याओं से छुटकारा पाना वास्तव में संभव है। उन समस्याओं का ऐसा सत्य निरोध संभव है कि उनकी पुनरावृत्ति हो ही न। यह केवल ऐसा नहीं है कि हम सो जाएँ और हमें समस्याओं का कोई आभास ही न हो, क्योंकि जब हमारी नींद खुलेगी तो सारी समस्याएँ फिर से वापस आ जाएँगी। हम उस तरह का अस्थायी समाधान नहीं चाहते।

हम यह क्यों कहते हैं कि समस्याओं से सदा के लिए छुटकारा पा लेना संभव है? क्या यह केवल ख़याली पुलाव है? या यह वास्तव में व्यावहारिक है? बौद्ध धर्म कहता है कि इन सभी समस्याओं से सदा के लिए छुटकारा पा लेना सुसाध्य है क्योंकि हमारे चित्त की मूल प्रकृति निर्मल है। अब हमें यह समझना है कि इसका अर्थ क्या है। जब हम बौद्ध धर्म में चित्त के बारे में बात करते हैं, तो हम किसी प्रकार की मशीन की बात नहीं कर रहे जो हमारे मस्तिष्क में बैठकर सोचने का काम कर रही है। हम समस्त मानसिक क्रियाकलापों की बात कर रहे हैं। हमारे मानसिक क्रियाकलाप चलते रहते हैं। मानसिक क्रियाकलाप में केवल चिंतन ही नहीं अपितु मनोभाव एवं बोध भी समाविष्ट हैं। बौद्ध धर्म यह सिखाता है कि मूल मानसिक क्रियाकलाप को भ्रान्ति के साथ जोड़ना अनिवार्य नहीं है। इसे अशांतकारी मनोभावों, जैसे क्रोध आदि के साथ जोड़ना भी अनिवार्य नहीं है - यह उसकी प्रकृति का अंग नहीं है।

अब, ऐसा लग सकता है कि हम सदा क्रुद्ध या भ्रमित रहते हैं। कई लोगों को ऐसा अनुभव होता है कि एक ही धुन उनके मस्तिष्क में बार-बार बज रही है। ऐसा लगता है कि वह कभी रुकने वाली नहीं है। सुबह उठते ही वह फिर से प्रारम्भ हो जाती है। यह भोलापन है, परन्तु है तो बाध्यकारी ही। फिर भी यह धुन हमारे मानसिक क्रियाकलाप की अनिवार्य प्रकृति का अंग नहीं है। यदि ऐसा होता, तो वह जन्म से लेकर वर्तमान क्षण तक हमारे साथ ही रहती। परन्तु मानसिक क्रियाकलाप असंभव रूप से अस्तित्वमान नहीं होते; यह सच नहीं है कि मेरे मस्तिष्क में यह ऊटपटांग धुन सदा बजती रहती है। वह असंभव है। मैं अपने मस्तिष्क में बज रही इस धुन को प्रभावहीन कर सकता हूँ। उदाहरण के लिए, मैं अपने श्वासों को गिनकर इसका प्रतिकार कर सकता हूँ। कम से कम अस्थायी रूप से ही सही, इसे रोकने की यह एक बहुत ही सरल विधि है। अपने श्वासों को ग्यारह तक बार-बार गिनना प्रारम्भ करें। यदि आप वास्तव में ध्यान लगाकर एकाग्र हो जाते हैं तो वह धुन बजना बंद हो जाती है। तो इसका यह अर्थ हुआ कि वह धुन हमारे मानसिक क्रियाकलाप का कोई मूलभूत अंग नहीं है।

मनोभाव परिवर्तन द्वारा अशांतकारी भावनाओं को प्रभावहीन करना 

अशांतकारी मनोभावों के साथ भी यही स्थिति है। हम उन्हें प्रतिकारक शक्तियों के द्वारा चुनौती दे सकते हैं। हम अपनी मनोदृष्टि बदल सकते हैं। मनोदृष्टि परिवर्तन द्वारा हमारा पूरा अनुभव ही बदल जाता है। मान लीजिए कि मैं किसी काम को पूरा करने का प्रयास कर रहा हूँ, तो उसमें यह सोच सकता हूँ कि वह अत्यंत दुःसाध्य है - इतना विकट कि मैं इसे कभी पूरा नहीं कर पाऊँगा। तब मैं बहुत ही परेशान हो जाता हूँ। दूसरी ओर, मैं अपने दृष्टिकोण को बदल सकता हूँ और उस काम को एक चुनौती के रूप में देख सकता हूँ। मैं सोच सकता हूँ: “यह एक बड़ी चुनौती है। इसका हिसाब बैठाना तो एक साहसिक कार्य है। चलो देखते हैं कि यह काम मुझसे होगा भी कि नहीं" - मैं इसे एक पहेली के रूप में देख सकता हूँ जिसे हल करने की आवश्यकता है। आप सोचिए एक कंप्यूटर खेल का आप किस प्रकार विश्लेषण करते हैं। यह मानकर कि आप उसे खेल ही नहीं पाएँगे, उसे दुःसाध्य मान सकते हैं। या आप उसे मनोरंजन मान सकते हैं, आप उसे एक साहसिक कार्य मान सकते हैं - मैं इसे समझने का प्रयास करूँगा, मैं इसमें निष्णात होने का प्रयास करूँगा। और फिर चाहे वह मुश्किल ही क्यों न हो, उससे मन तो बहलता है। तो सब कुछ हमारी मनोदृष्टि के बदलने पर निर्भर करता है।

मेरे, आपके, और हमारे आस-पास जो कुछ विद्यमान है उसका ठीक प्रतिकारक बल भी मौजूद है। इनके अस्तित्व के विषय में अनभिज्ञ होने के स्थान पर मैं उनके अस्तित्व की सच्चाई से परिचित हूँ। असत्य ज्ञान के स्थान पर मैं सत्य ज्ञान संपन्न हूँ।

यथार्थ को समझने का सही मार्ग

दृश्य जगत के अस्तित्व का सही ज्ञान चौथा आर्य सत्य है। इसे सामान्यतः सत्य मार्ग कहते हैं, और इसका अर्थ है यथार्थ का बोध करने का सही मार्ग। बोध का वह सत्य मार्ग बोध के असत्य मार्ग को प्रभावहीन कर देता है। एक बार जब हम यह निश्चित रूप से जान लेते हैं कि इनका सही अस्तित्व क्या है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके अस्तित्व की हमारी पहले की अवधारणा असंभव है, असंगत है। फिर उस निश्चितता की सहायता से हम सही बोध को बनाए रख पाते हैं।

उदाहरण के लिए, कोई यह सोच सकता है: “मैं ही ब्रह्मांड का केंद्र बिंदु हूँ। मैं सबसे महत्त्वपूर्ण हूँ और हमेशा मेरी ही चलनी चाहिए।" इस विचार का प्रतिकार इस प्रकार हो सकता है: "तो मैं वास्तव में कौन हूँ? मैं कोई विशिष्ट व्यक्ति तो नहीं हूँ। सब एक जैसे ही हैं। यह कैसे हो सकता है कि मैं एक अकेला ऐसा हूँ जिसकी मर्ज़ी चलनी चाहिए?" यह बात तो समझ में आती है – यह विचार कि: "मैं कोई विशिष्ट नहीं हूँ। मैं सबके समान हूँ।" पर हम यह कैसे जानें कि यह सच है? वह ऐसे, कि यदि मैं ब्रह्मांड का केंद्र बिंदु होता, यदि मैं वह अकेला व्यक्ति होता जिसकी मर्ज़ी चलनी चाहिए तो अन्य सभी इस सिद्धांत से सहमत होते। तो वे क्यों नहीं हैं? क्या इसलिए कि वे मूर्ख हैं? और उन लोगों का क्या कहा जाए जो मेरे पैदा होने से पहले आए थे और सिधार गए - क्या उन्हें भी यही सोचना चाहिए था कि मैं सबसे महत्त्वपूर्ण हूँ? और यह कैसे हो सकता है कि केवल मेरे अकेले की ही मर्ज़ी चलनी चाहिए और दूसरों की नहीं?

तो हम विश्लेषण करते हैं। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, यों सोचना कि: जिस प्रकार मैं स्वयं को संसार पर प्रक्षेपित करता हूँ और उससे वास्ता रखता हूँ, क्या यह व्यावहारिक है? और यदि यह निरर्थक है तो मैं बाध्यकारी रूप से ऐसा व्यवहार क्यों करता हूँ मानो यह सच हो - ऐसा व्यवहार कि केवल मेरी ही मर्ज़ी चलनी चाहिए, कि मेरे आसपास जो कुछ हो रहा है वह मेरे नियंत्रणाधीन रहना ही चाहिए? यह दीवार से सिर टकराने जैसा है। इसलिए जब मैं स्वयं को इस स्थिति में पाता हूँ, तो मैं उसपर ध्यान देने की चेष्टा करता हूँ। और जैसे ही वह मेरी पकड़ में आता है, मैं स्वयं से कहता हूँ "यह हास्यास्पद है," और फिर तत्काल रुक जाता हूँ, और उस काम को नहीं करता। हमारा व्यवहार इसलिए बाध्यकारी होता है क्योंकि हमें यह पता नहीं होता कि क्या हो रहा है।

निश्चित रूप से हम स्वयं को एक विशेष प्रकार से सोचने से रोक पाएँ यह सुगम तो नहीं है। परन्तु उस धुन के उदाहरण की भाँति, जो हमारे मस्तिष्क में बार-बार बजती ही रहती है, हम अपने नकारात्मक मानसिक व्यवहार का प्रतिकार कर सकते हैं, या कम-से-कम अपने श्वासों को गिनते हुए उसे अस्थायी रूप से रोक तो सकते हैं। हम श्वास के इस उपाय का उपयोग बाध्यकारी चिंता, बाध्यकारी विचार, और हताशा एवं संताप जैसी भावनाओं को समाप्त करने के लिए भी कर सकते हैं। यहाँ तक कि यदि मैं अपनी समस्या के वास्तविक कारण को गहनता से विश्लेषण करने और समझने में असमर्थ भी हूँ, तो भी मैं कम-से-कम अपनी नकारात्मक सोच को तो रोक सकता हूँ; उसके स्थान पर मैं श्वासों की गिनती तो कर सकता हूँ। दूसरे शब्दों में, मैं शांत हो सकता हूँ। मैं अपनी चिंताओं के इस तीव्र प्रभाव से, अपने विचारों के इस बोझ से, कुछ समय के लिए छुट्टी तो पा सकता हूँ कि: यह स्थिति वैसा मोड़ क्यों नहीं ले रही जैसा मैं चाहता हूँ? एक मानसिक विराम के पश्चात जब हम थोड़ा शांत हो जाते हैं, तब हम अपने से यह पूछ सकते हैं: “मैं यह आशा क्यों करता हूँ कि सबकुछ वैसा ही होना चाहिए जैसा मैं चाहता हूँ? क्या मैं भगवान हूँ?”

तर्कहीन विचार का एक और अच्छा उदाहरण यह विश्वास है कि सब लोग मुझे चाहें। इसका प्रत्युत्तर है: बुद्ध के जीवनकाल में भी, प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध को पसंद नहीं करता था, तो मैं यह अपेक्षा कैसे कर सकता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति मुझे पसंद करे? यह हमें यथार्थवाद की ओर कुछ अधिक दूर ले जाता है। जीवन के कुछ मूलभूत तथ्य हैं, जिनमें से एक यह है कि आप सभी को खुश नहीं कर सकते। हो सकता है कि हम सभी को खुश करना चाहते हों, परन्तु दुर्भाग्य से यह संभव नहीं है। हम उन्हें खुश कर पाते हैं या नहीं यह उन  पर निर्भर नहीं करता - अपितु यह उनकी मनोदृष्टि पर निर्भर करता है, जिसे मैं नियंत्रित नहीं कर सकता। यह अत्यंत प्रबल अंतर्दृष्टि है: लोग मेरे प्रति ग्रहणशील हैं या नहीं, यह कई कारणों और कई परिस्थितियों का परिणाम है। मेरे प्रति उनकी प्रतिक्रिया केवल मेरे ही कृत्यों पर निर्भर नहीं है। निस्संदेह हमें भरसक प्रयत्न करना चाहिए, परन्तु हमें असंभव की आशा नहीं करनी चाहिए। हम सत्कर्म की चेष्टा करते हैं, हम अच्छा व्यवहार करने की चेष्टा करते हैं, परन्तु कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण नहीं होता। बुद्ध परिपूर्ण हैं, परन्तु मैं बुद्ध नहीं हूँ।

सत्य बोध एवं सत्य मार्ग का अर्थ है सुस्पष्ट प्रज्ञा के साथ अपने भ्रम का विखंडन करके उसका प्रतिकार करना; हमारे, आपके, तथा प्रत्येक व्यक्ति एवं वस्तु के अस्तित्व को समझना।

यातायात अवरोध का सामना किस प्रकार किया जाए

आइए हम अपने आधुनिक जीवन का एक उदाहरण लेते हैं। हम यह मान लेते हैं कि मैं किसी यातायात अवरोध में फँस गया हूँ, जिसके कारण मेरा किसी से मिलने का समय बीता जा रहा है, और मैं उस स्थिति से दुःखी हूँ। मैं बाध्यकारी रूप से धैर्यहीनता एवं क्रोध से युक्त नकारात्मक विचारों में उलझा हूँ। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आपको अपने विचारों को नियंत्रित करने के लिए पुनर्जन्म में विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है। इस स्थिति में बौद्ध विज्ञान और दर्शनशास्त्र की मूलभूत अंतर्दृष्टि हमारी सहायता कर सकती है। मैं इस स्थिति का विश्लेषण करता हूँ: क्या हो रहा है? मुझे देर हो रही है, और मैं दु:खी हूँ। हम बस इतना कहकर उस बात को छोड़ सकते हैं कि: "मैं दु:खी हूँ तो क्या हुआ?" परन्तु इस बात को स्वीकार करने के स्थान पर, कि मैं दु:खी हूँ, मेरी सुई उस दुःख पर ही अटक जाती है और मैं उसमें ही फँस जाता हूँ; मैं उस अवस्था पर दुःख के सातत्य को प्रक्षेपित करता हूँ। बौद्ध धर्म में जिस छवि का उपयोग किया जाता है वह है कि मैं एक प्यासे व्यक्ति के समान हूँ जो पानी के लिए ऐसे तड़प रहा है जैसे कि वह प्यास से मर रहा हो। मैं अविश्वसनीय रूप से प्यासा होने के दुःख में लोट रहा हूँ और यह महसूस कर रहा हूँ कि मुझे तुरंत पानी पी लेना चाहिए ! अब इस यातायात वाली स्थिति में लौट आते हैं जहाँ मैं यह सोच रहा हूँ कि: "मुझे इस स्थिति से अनिवार्यतया बाहर निकलना ही होगा, मैं इस दुःख एवं हताशा से मुक्त होने की प्रतीक्षा नहीं कर सकता।" यह उस प्यासे व्यक्ति के विचार के समान है: "मैं पानी मिलने की प्रतीक्षा नहीं कर सकता।"

यह एक रोचक बात है कि प्यासे की इस छवि का तब भी प्रयोग किया जा सकता है जब हम आनंद का अनुभव कर रहे होते हैं। हम नहीं चाहते कि हमारा सुख समाप्त हो और इसलिए हम उसे कसकर पकड़े रहते हैं। उस अनुभव की कल्पना कीजिए जब आप अत्यधिक प्यासे हैं और आप पानी का पहला घूँट लेते हैं। उस समय आपका मनोभाव क्या होता है? हम इतने प्यासे होते हैं कि हमें केवल एक घूँट पानी पर्याप्त नहीं लगता; हम और अधिक पानी पीना चाहते हैं, हम इसे पीते ही रहना चाहते हैं। यह एक रोचक विषय है जिसका हमें विश्लेषण करना चाहिए। क्या मैं केवल आनंद का प्यासा हूँ? हम सब आनंदमय होकर रहना चाहते हैं; कोई भी दु:ख नहीं चाहता। यह एक सामान्य सिद्धांत है जिसे बौद्ध धर्म में स्वीकार किया जाता है, और इसमें कोई बुरी बात नहीं है। परन्तु क्या आनंद पाने के प्रति मेरी मनोदृष्टि उस व्यक्ति की मनोदृष्टि की तरह है जो प्यास के कारण मरा जा रहा है? क्या मैं आनंद के लिए तृषित हूँ? और जब मैं इसका लेशमात्र भी अनुभव करता हूँ तो क्या मैं तनाव-ग्रस्त हो जाता हूँ? क्या मुझे ऐसा लगने लगता है: "इसे मुझसे छीनो मत! मैं इस सुखद अनुभूति को खोना नहीं चाहता!" और यदि मैं उस आनंद को खो देता हूँ तो क्या मैं यह सोचता हूँ कि: "ओह, मैं इस दुःख को सह नहीं सकता! मुझे फिर से आनंद ढूँढ़ना होगा!" तीसरी संभावना है तटस्थता: मैं अभी प्यासा नहीं हूँ, परन्तु मुझे आशंका है कि मुझे कुछ समय पश्चात प्यास लगेगी, इसलिए मैं अपने साथ पानी की बोतल लिए चलता हूँ, क्योंकि मुझे भविष्य में प्यास लगने की आशंका है। यहाँ तक कि जब हम विशेष रूप से न सुखी होते हैं और न दुःखी, हमें यह डर लगा रहता है कि हम भविष्य में अत्यंत विषादग्रस्त हो जाएँगे।

अपने दुःख का सामना करना

यातायात में फँसना और हताशा का अनुभव करना अपने दुःख पर ध्यान केंद्रित करने के समान है। मैं यातायात में फँसा हुआ हूँ, और एक प्यासे व्यक्ति की तरह मैं व्याकुलतावश यह सोच रहा हूँ: “मुझे इस स्थिति से बाहर निकलना होगा। मुझे इस दु:खद मनोदशा से बाहर निकलना होगा जिसमें मैं अभी हूँ।" मैं विषादग्रस्त हूँ, और मुझे लगता है कि यह सदा के लिए रहेगा।

इसलिए धीमी गति से चलने वाले यातायात की स्थिति में फँसने और हताशा अनुभव करने की कठिन स्थिति में, जिस बात पर मेरा ध्यान पहले जाता है वह यह है कि मैं कितना दु:खी हूँ: “मैं बेचारा, मुझे देर हो जाएगी। मैं दुखियारा, मैं यह सह नहीं सकता कि मैं इस यातायात में फँस गया हूँ। मेरी मर्ज़ी चलनी चाहिए। मैं इस बात को सह नहीं सकता कि यह स्थिति मेरे नियंत्रण में नहीं है। मैं इसे अपने नियंत्रणाधीन रखना चाहता हूँ, मैं इस गाड़ी को शीघ्रातिशीघ्र चलाना चाहता हूँ।" दूसरी बात जिसपर मेरा ध्यान जाता है वह है यातायात, मानो यह स्थिति सदा के लिए यों ही बनी रहेगी: "यह यातायात अवरोध कभी  समाप्त नहीं होगा। मैं सारा दिन यहीं अटका रहूँगा।” जब स्थितियाँ मेरे नियंत्रण में नहीं होतीं तो मैं इसे सहन नहीं कर पाता हूँ।

फिर इस प्रक्षेपण की हमपर सनक सवार हो जाती है - मैं जिस दुःख का अनुभव कर रहा हूँ उसके बारे में प्रक्षेपण, यातायात के बारे में प्रक्षेपण, और स्वयं मेरे अपने  बारे में प्रक्षेपण। हमें इन तीनों प्रक्षेपणों का विखंडन करने की आवश्यकता है, और उसके लिए हमें बौद्ध दर्शनशास्त्र के सामान्य सिद्धांतों का उपयोग करना है, जो अत्यंत लाभदायक हैं। बौद्ध शिक्षाएँ कहती हैं कि सुख और दु:ख आते-जाते रहते हैं। हमारी मनस्थिति में निरंतर उतार-चढ़ाव होता रहता है। यदि हम यह जान लें और मान लें कि परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तो हम यह सोच पाएँगे हैं कि: "मैं अभी दुखी हूँ। यह कोई विशेष बात नहीं है। यह सदा के लिए तो नहीं रहेगा।"

मेरे सुख अथवा दुःख का अनुभव कारणों एवं परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। भारत के एक महान बौद्ध गुरु, शांतिदेव, ने हमें एक बहुत ही उपयोगी परामर्श दिया है: यदि परिस्थिति को आप बदल सकते हैं, तो चिंता किस बात की ? बस उसे बदल डालिए। और यदि परिस्थिति को आप बदल नहीं सकते, तो चिंता किस बात की ? चिंता से कोई लाभ तो होने नहीं वाला।

तो, इस सिद्धांत की सहायता से मैं इस प्रकार सोच सकता हूँ: "मैं यातायात की इस स्थिति में गाड़ी को भगा तो नहीं सकता। मैं तो यहाँ फँसा पड़ा हूँ। मैं इसे बदल नहीं सकता, इसलिए मुझे इस यथार्थ को स्वीकार कर लेना चाहिए।" यथार्थ को स्वीकार करना हम में से अधिकांश लोगों के लिए बड़ी मुश्किल बात होती है। क्या हम इस स्थिति को लेकर कुछ कर सकते हैं? हाँ, यदि मेरे पास मोबाइल फ़ोन है तो मुझे जिस व्यक्ति से मिलना है उसे फ़ोन करके बता सकता हूँ कि, "क्षमा करें, मैं यातायात में फँसा पड़ा हूँ। मुझे आने में देर हो जाएगी।" वह निराश हो जाता है या नहीं यह उसकी समस्या है। सुनने में भले ही यह कुछ कटु लगे, परन्तु सत्य तो यही है। यथार्थ यह है कि मैं फँसा पड़ा हूँ और मुझे देर हो जाएगी, और दूसरे व्यक्ति की प्रतिक्रिया पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं है।

इस स्थिति में आपको अपराध-बोध से सावधान रहना चाहिए - इस बात पर कुढ़ना कि मैं पूर्वनिश्चित समय पर मिलने से चूक रहा हूँ, ऐसा सोचना कि मैं अपने मित्र को निराश कर रहा हूँ जो मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। यही अपराध-बोध है। यहाँ सदोष विचार यह है कि मुझे इस स्थिति को रोक पाना चाहिए था; सड़क पर इतना अधिक यातायात होना मेरी ही भूल है। स्पष्टतः यह हास्यास्पद है - यह यातायात अवरोध मेरी भूल कैसे हो सकती है? यह सच है कि मैं समय से कुछ पहले निकल सकता था, परन्तु सड़क पर फिर दुर्घटना भी तो हो सकती थी: तो समय से पहले निकलने के बाद भी मुझे देर हो सकती थी। ऐसा नहीं है कि सबकुछ मेरे नियंत्रण में है, और विश्व में जो कुछ हो रहा है उसमें मेरा कोई दोष है। तो, इसके स्थान पर मैं इस प्रकार सोच सकता हूँ: "विलम्ब होने से मैं गदगद नहीं हो रहा, परन्तु यह मेरी गलती भी नहीं है, यातायात की स्थिति को देखते हुए मैं यथाशीघ्र पहुँचने का प्रयास करूँगा।" मैं यातायात में फँसे रहने के दुःख का विखंडन कर सकता हूँ; मैं कोई गाना सुन सकता हूँ; वहाँ बैठे-बैठे अपना मन बहला सकता हूँ। यदि मैं फँस ही गया हूँ तो मैं समय का सदुपयोग कर सकता हूँ।

यातायात अवरोध पर चिंतन करना

इसके बाद हमें यातायात का विखंडन करना होगा। मैं इस यातायात को एक भयावह स्थिति मान रहा हूँ; यह विश्व की निकृष्टतम अवस्था है। निस्संदेह हमें लगता है कि यह यों ही निरंतर चलता रहेगा; हमें ऐसा लगता है कि हम कभी भी इस अवरोध से बाहर निकलकर अपने गंतव्य स्थान तक नहीं पहुँच पाएँगे। तो हम अब इस स्थिति का विश्लेषण कर सकते हैं: यह यातायात अवरोध की स्थिति कई कारणों से उत्पन्न होती है। जो कुछ भी कारणों से उत्पन्न होता है, वह कारणों और स्थितियों पर आश्रित होता है, और इसलिए अनिवार्य रूप से परिवर्तनशील होता है - वह  टिक नहीं सकता। जब वे परिस्थितियाँ ही बदल जाएँगी जिनपर यह आश्रित है तो वह अवस्था भी स्वयं बदल जाएगी।

उदाहरण के लिए हम यह मान लेते हैं कि सड़क पर एक दुर्घटना घटी है। यह स्थिति यातायात अवरोध का एक कारण है। अंततः सड़क को उस दुर्घटना से मुक्त किया जाएगा, घायलों को अस्पताल ले जाया जाएगा, आपातकालीन वाहन निकल जाएँगे, और यातायात फिर से चलना प्रारम्भ हो जाएगा। यातायात अवरोध की स्थितियाँ (दुर्घटनाग्रस्त गाड़ियाँ, पुलिस और एम्बुलेंस की गाड़ियाँ) हट जाएँगी। यातायात अवरोध के हालात बदल जाने से स्वयं यातायात अवरोध ही परिवर्तित हो जाएगा - यातायात की समस्या समाप्त हो जाएगी। अब इस विश्लेषण से हम यह समझ सकते हैं कि यातायात कोई भीषण दानवी वस्तु नहीं है। यह अत्यंत आवश्यक है कि हम प्रत्येक वस्तु को उसे प्रभावित करने वाले कारणों और स्थितियों के बृहत् संदर्भ में देखें, बजाय इसके कि उसे स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान मान लें - मानो "यातायात अवरोध" ने अपनेआप को वहाँ स्थापित कर दिया हो, वहीं बैठ गया हो, कारणों या स्थितियों से पूरी तरह असम्बद्ध।

दृष्टि-पथ का विस्तार जिसमें अन्य समाहित हो सकें

इस प्रकार बौद्ध दर्शनशास्त्र से हम यातायात के बारे में अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण बना सकते हैं। फिर हम इस यातायात के प्रति अपनी मनोदृष्टि को विखंडित कर सकते हैं। हम यह देख सकते हैं कि हम "मैं बेचारा" और "मैं समय पर अपने गंतव्य स्थान तक नहीं पहुँच सकता" से त्रस्त हैं। पर यदि हम यथार्थ को देखें, तो पता चलता है कि मैं अकेला नहीं हूँ जो इस अवरोध में फँसा हुआ है। मेरे चारों ओर लोग अपनी गाड़ियों में बैठे हैं, और सब अपने-अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचना चाहते हैं। मैं कोई ऐसा अकेला व्यक्ति नहीं हूँ। मैं अपने बगल में खड़ी गाड़ियों में बैठे लोगों को देख पा रहा हूँ - दाएँ, बाएँ, आगे और पीछे - और यदि मैं यह जान लेता कि वे उत्तेजित एवं क्रोधित हैं तो यह मेरे भीतर उस करुणा के सृजन में सहायक हो जाती जो यह इच्छा है कि वे भावनात्मक रूप से इस विकट अवसर से बाहर निकल पाते, और यह इच्छा भी कि वे इस यातायात अवरोध में यों फँसे न होते।

जब मैं स्वयं पर ही एकाग्र हो जाता हूँ, तो विचार-परिधि बहुत संकीर्ण हो जाती है। जब मेरे विचार केवल मुझपर केंद्रित होते हैं, तो मेरा चित्त बहुत संकुचित हो जाता है। मैं "मैं बेचारा" को कसकर पकड़ लेता हूँ। मेरे भीतर का सबकुछ, मेरी सारी ऊर्जा कसकर बंध जाती है। परन्तु यदि मैं अपने आस-पास के यातायात में फँसे सभी लोगों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ, तो मेरे चित्त की सम्पूर्ण ऊर्जा अधिक विस्तृत हो जाती है, और क्योंकि मेरी विचार-परिधि इतनी व्यापक और विस्तृत हो जाती है, मेरा चित्त बिलकुल तनाव-मुक्त हो जाता है। क्योंकि अपने बारे में संकीर्ण परिप्रेक्ष्य के कारण अपने दु:ख की पीड़ा के एक भाग को मैंने इतना कसकर पकड़ रखा है। इसलिए यदि मैं अपने विचार की परिधि का विस्तार कर पाता तो मैं जिस दुःख का अनुभव कर रहा हूँ उसे दूर करने का यह एक प्रभावी मार्ग बन जाता है। मेरी सम्पूर्ण मनःस्थिति अधिक सुखद, अधिक तनाव-मुक्त हो जाती है; मुझे इतना अधिक दुःख नहीं भुगतना पड़ता। यह बात इस तथ्य को नहीं बदलती कि मुझे मुलाकात के लिए देर हो रही है - मैं इसके बारे में कुछ भी नहीं कर सकता, परन्तु यातायात में फँसे रहने के अनुभव के बारे में तो कुछ कर ही सकता हूँ।

निष्कर्ष: अपने चिंतन का विश्लेषण और परिवर्तन हेतु बौद्ध-धर्म का उपयोग

यही है बौद्ध-धर्म की प्रासंगिकता न केवल आधुनिक जीवन में, अपितु प्रत्येक काल में। हम अपने मनोभाव, मनोदृष्टि, एवं प्रक्षेपणों पर ध्यान देने का प्रयास करते हैं, जो मनोदृष्टियों के आधार हैं। हम अपने चिंतन, वाक्, एवं कृत्य की बाध्यकारिता का विश्लेषण करते हैं। यह बाध्यकारिता हमारे बनाए गए प्रक्षेपणों का परिणाम है, एवं वर्तमान स्थिति के यथार्थ को और अधिक स्पष्ट रूप से जानने के लिए हम विखंडन विधियों को प्रयोग में लाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार, हम जो कष्ट अपने ऊपर लाद रहे हैं उसे कम-से-कम करने के लिए बौद्ध विज्ञान और दर्शनशास्त्र हमारे दैनिक जीवन के लिए प्रासंगिक हैं। जिस प्रकार जब हम अपने दैनिक जीवन में सुख-दुःख के उतार-चढ़ावों का अनुभव करते हैं, हम यह प्रयास करते हैं कि हम एक तृषित व्यक्ति जैसे न बनें। जब हम सुखी होते हैं तो जब तक वह है हम उस सुख का आनंद लेते हैं क्योंकि यह सुख टिकाऊ नहीं है। परन्तु हम उसे बहुत तूल भी नहीं देते - वह जितना भर है हम बस उसी रूप में उसका आनंद लेते हैं। और जब हम दु:खी होते हैं, तो हम स्वयं को याद दिलाते हैं कि हर कोई कभी-न-कभी तो दु:खी होता ही है - यह बिल्कुल साधारण-सी बात है। हम बस वही करते रहते हैं जो हमें करना है, और इस प्रकार किसी भी घटना के महत्त्व को अधिक तूल दिए बिना ही हम जीवन को जीते हैं। दूसरे शब्दों में, हम अपने प्रक्षेपणों के द्वारा स्थितियों को तूल देने से बचते हैं। इस प्रकार जीवन आनंदमय हो जाता है, क्योंकि जब हम "मैं" और मेरी कामनाओं में सम्पूर्ण रूप से डूबे नहीं रहते, तब हम अपने दैनिक जीवन की सभी छोटी-छोटी बातों में आनंद पाने लगते हैं।

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