चित्त की प्रकृति

चित्त के स्तर

हमारे दैनिक जीवन में चेतन सत्त्वों एवं जड़ सत्त्वों, और चेतन सत्त्वों के मानसिक क्रियाकलापों के भी अलग-अलग स्तर होते हैं। जब हम जागृत रहते हैं, स्वप्न देखते हैं, और सुषुप्ति अवस्था में रहते हैं और फिर जब हम अचेतन अवस्था में होते हैं - प्रत्येक चरण में चित्त के गहनतर स्तर होते हैं। इसके अतिरिक्त मृत्यु के समय भी श्वास के पूर्णतया रुक जाने के बाद जब चित्त के विघटन की प्रक्रिया जारी रहती है - उस समय भी चित्त का एक अलग गहनतर स्तर होता है। मृत्यु के समय क्या होता है हमें इसका कोई अनुभव नहीं है, पर हमें अपनी जागृत, स्वप्न, और सुषुप्ति अवस्थाओं के अनुभवों का बोध तो है।

विज्ञान (प्राथमिक चित्त) और चित्त संस्कारों (मानसिक कारकों) के बीच अंतर

प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार मुख्य आध्यात्मिक प्रथाएँ सदा चित्त से सम्बन्धित होती हैं, जैसे समाधि यानी तल्लीन एकाग्रता, और विपश्यना अर्थात् चित्त की एक असाधारण रूप से सचेतन अवस्था। ये दोनों चित्त और उसके सोचने के आयाम से सम्बन्धित हैं; इसलिए, चित्त को पहचानना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 

चित्त एवं उसकी विभिन्न श्रेणियों के विषय में कई व्याख्याएँ हैं। उदाहरण के लिए, बौद्ध धर्म में विज्ञान और चित्त संस्कारों में अंतर है। वास्तव में यह भारत की सभी प्राचीन परम्पराओं में है।

बौद्ध परंपरा में विज्ञान और चित्त संस्कारों के अंतर की कई अलग-अलग व्याख्याएँ हैं। इनमें से ये दो प्रमुख हैं: एक व्याख्या चित्त के आलम्बन के अंतर के अनुसार भेद करती है, और दूसरी चित्त की स्वभावकाया (मूल प्रकृति) के अनुसार भेद करती है। उदाहरण के लिए, मैत्रेय अपने मध्यांतविभाग  ग्रन्थ में पहली व्याख्या को मानते हैं। भेद करने का यह पहला विकल्प चित्त के आलम्बन के अंतर के अनुसार है: विज्ञान सम्पूर्ण आलम्बन पर ध्यान केंद्रित करता है, जबकि माध्यमिक चित्त या चित्त संस्कार आलम्बनों के सन्निहित विभेदकारी कारकों पर ध्यान केंद्रित करता है। दूसरी विधि पार्श्व की दृष्टि से विभेद करती है। विज्ञान आलम्बनों को सम्पूर्ण रूप में अनुभव करता है, और चित्त संस्कार या माध्यमिक चित्त का जहाँ तक सम्बन्ध है, यहाँ आलम्बनों को चित्त के विशिष्ट आयामों या क्रियाओं से अनुभव किया जाता है।

मोटे तौर पर इन दोनों, यानी विज्ञान और चित्त संस्कार, की दो श्रेणियाँ होती हैं: एक श्रेणी जहाँ भौतिक संवेदकों की आवश्यकता होती है और दूसरी जहाँ उनकी आवश्यकता नहीं होती। जहाँ भौतिक संवेदकों की आवश्यकता होती है वह है स्थूल (संवेदीक) चित्त, और जहाँ भौतिक संवेदकों की आवश्यकता नहीं होती वह है सूक्ष्म (मानसिक) चित्त। अब हमारी चर्चा उसके करीब आ गई है जो बात वैज्ञानिक कर रहे हैं। अर्थात् स्थूल चित्त बनाम सूक्ष्म चित्त, यद्यपि कभी-कभी चित्त का प्रयोग केवल मनश्चेतना (मनोविज्ञान) को संदर्भित करने के लिए भी किया जाता है।

मनोविज्ञान के दो प्रकार हैं: एक है वह जिसे अपनी आसन्न पूर्ववर्ती स्थिति के रूप में विद्यमान इन्द्रिय संवेदन द्वारा प्रकट किया जाता है, और दूसरा है वह जिसमें इस इन्द्रिय संवेदन की कमी होती है। हमारे ग्रंथों में पंच-सर्वत्रग (पांच सदा कार्यरत चित्त संस्कार) का वर्णन है जिससे स्थूल चित्त समेत सभी प्रकार के चित्त युक्त होते हैं। उदाहरण के लिए, संज्ञा (विभेदन की क्षमता), वेदना (परम आनंद का अनुभव) इत्यादि। संज्ञा को ही लीजिए, इसका अर्थ है "क्या यह यह है या वह," और इसके बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि इसका आधार चाक्षुष बोध नहीं अपितु केवल बुद्धि है। परन्तु हम कहते हैं कि इन्द्रिय ज्ञान अपनेआप में यह नहीं सोचता कि "कोई वस्तु यह है" या "कोई वस्तु वह है," अपितु स्थूल चित्त स्वयं विभेद करने के चित्त संस्कार से युक्त होता है, जैसे प्रकाश और अंधकार के बीच विभेद करना।

अन्य विभेद

अब, बौद्ध-धर्मी विचारधाराओं और सम्प्रदायों में इस पर अलग-अलग अभिमत हैं और इस बात पर भी अलग-अलग अभिमत हैं कि ग्रहण बोध किस प्रकार कार्य करता है। उदाहरण के लिए, जहाँ एक ओर वैभाषिक दृष्टिकोण के अनुसार किसी आलम्बन को ग्रहण करने के माध्यम के रूप में किसी आकार (मानसिक आयाम) को नहीं लिया जाता, वहाँ दूसरी ओर सौत्रान्तिक के अनुसार एक विशिष्ट आयाम, एक आकार होता है, जिसका वास्तव में अनुभव किया जाता है। यह दूसरी राय वैज्ञानिक दृष्टिकोण के क़रीब है।

इस प्रकार बौद्ध-धर्मी सम्प्रदायों में इस बात पर बहुत अधिक शास्त्रार्थ होता है कि, उदाहरणार्थ, ग्रहण बोध - जैसे चाक्षुष बोध - का तंत्र किस प्रकार प्रभावशाली होता है। सौत्रान्तिक और चित्तमात्र सम्प्रदायों के बीच यह शास्त्रार्थ होता है कि जब हम एक ऐसे आलम्बन को देखते हैं जिसमें अनेक रंग हैं, तो क्या उस आलम्बन के विविध आयामों और विविध चाक्षुष बोध की संख्या समान होती है? या उस आलम्बन के विविध आयामों को चाक्षुष बोध का एक अकेला आयाम ग्रहण करता है? या सम्पूर्ण बहुरंगी आलम्बन के एक अकेले आयाम को चाक्षुष बोध का एक अकेला आयाम ग्रहण करता है? वैज्ञानिक दृष्टिकोण इस स्पष्टीकरण के अधिक क़रीब है कि रंगों के बाहुल्य के बावजूद चित्त उन सभी रंगों को उनकी समग्रता में ग्रहण करता है।

जहाँ तक मनोभावों का प्रश्न है, उनकी विज्ञान से किसी प्रकार की समरूपता नहीं है। वर्तमान वैज्ञानिक - उदाहरण के लिए, पॉल एकमन - कहते हैं कि मनोभाव, मनोदशा, और लक्षणों के बीच अंतर करना एक जटिल कार्य है। वैज्ञानिक प्राचीन ग्रंथों के शास्त्रीय उद्धरणों को नहीं अपितु अनुसंधान को ही आधार बनाते हैं। इसलिए इससे आगे संयुक्त अनुसंधान करना फलदायक हो सकता है: दोनों वैज्ञानिकों और बौद्ध-धर्मियों को इससे अत्यधित लाभ हो सकता है।

यदि आलम्बनों की बात की जाए तो ऐसे आलम्बन होते हैं जिनके भौतिक गुण होते हैं; ऐसे आलम्बन भी होते हैं जो चीज़ों को जानने के तरीक़े होते हैं; और फिर ऐसे भी आलम्बन हैं जो उपर्युक्त दोनों श्रेणियों में नहीं आते, फिर भी सदा परिवर्तनशील होते हैं, जैसे समय।

चित्त की मूल प्रकृति

अब, संज्ञा (संज्ञान) या प्रज्ञा (जागरूकता) एक ऐसा प्रपंच है जिसे चित्त (मानसिक क्रियाकलाप) के संदर्भ में परिभाषित किया गया है: किसी चीज़ का संज्ञान होने या उसके प्रति जागरूक होने का मानसिक क्रियाकलाप। इसकी निर्धारक विशेषताएँ हैं (1) अच्छटा (स्पष्टता), जिसका अर्थ है स्वरूप-निर्माण, (2) प्रज्ञा (जागरूकता), किसी चीज़ की जागरूकता या उसकी अनुभूति, और (3) किसी का अनुभव करना। किसी चीज़ का अनुभव करने पर अलग-अलग सकारात्मक या नकारात्मक भावनाएँ होती हैं; पर फिर भी मानसिक क्रियाकलाप की प्रकृति अपनेआप में तटस्थ ही रहती है। मानसिक क्रियाकलाप सहायक है या हानिकारक, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार का चित्त संस्कार है, न कि चित्त संस्कार की मूल प्रकृति पर।

उदाहरण के लिए, क्रोध चित्त की मूल प्रकृति नहीं है; वरन् क्रोध की उत्पत्ति कारणों और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। [विलोमतः, किसी वस्तु की मूल प्रकृति सविराम नहीं होती और न ही अपने उत्पन्न होने और विद्यमान होने के लिए कारणों और अवस्थाओं पर निर्भर करती है। उसकी उत्पत्ति एवं विद्यमानता अविरल होती है।] तो निष्कर्ष यह हुआ कि क्रोध जैसे कुछ चित्त संस्कार ऐसे होते हैं जो कारणों और परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं और वे उसके बाद ही हावी हो जाते हैं।

जब क्रोध अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है, तो उसे चित्त या मानसिक क्रियाकलाप से अलग करना मुश्किल हो जाता है। किन्तु अभ्यास के द्वारा हम अपने चित्त के एक भाग से उस क्रोध को विकसित होते हुए परख सकते हैं, पुनः उसे बढ़ते हुए, और अंत में घटकर समाप्त होते हुए भी देख सकते हैं। क्रोध के अवलोकन की इस क्रिया में ही उसके वेग को कम करने की क्षमता होती है। अतः जब कोई निश्चित मानसिक अवस्था या चित्त संस्कार उत्पन्न होता है तो उसे प्रभावित किया जा सकता है।

ये थीं चित्त की प्रकृति के बारे में कुछ बातें।

मनोभाव और भौतिक शरीर के बीच का संबंध

अब मैं एक अन्य विषय की बात करूँगा जिसपर मैं और अधिक शोध करना चाहता हूँ। हमारे भौतिक शरीर के तत्वों में परिवर्तन के कारण मनोभाव उत्पन्न होती हैं। साथ ही एक विशेष मनोवृत्ति का विकास शरीर में परिवर्तन ला सकता है। उदाहरण के लिए, क्रोध या घृणा को ही ले लें। जब क्रोध आता है तो मस्तिष्क के एक निश्चित भाग में रक्त का परिसंचरण अधिक हो जाता है; परन्तु यदि करुणा का उद्रेक हो तो मस्तिष्क का एक अन्य भाग अधिक सक्रिय हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक सूक्ष्म स्तर पर हमें यह जानना होगा कि पहले क्या आता है: मस्तिष्क में परिवर्तन के कारण किसी मनोभाव विशेष का उद्रेक, या फिर मनोभाव विशेष के उद्रेक के कारण मस्तिष्क में परिवर्तन। इसपर और अधिक शोध किए जाने की आवश्यकता है।

उदाहरण के लिए, तथ्य यह है कि स्नायु में परिवर्तन होते हैं। अब यह है सूक्ष्म, पर जब सूक्ष्म स्तर पर कोई परिवर्तन का संचयन होता है तो हम स्थूल स्तर पर परिवर्तन देख पाते हैं। उदाहरणार्थ, जब हमें डर लगता है तो पैरों में रक्त का अधिक परिसंचरण होता है और परिणामस्वरूप हम दौड़ते हैं; जब क्रोध होता है तो बाहों में अधिक खून दौड़ने लगता है और इसलिए हम मार-पीट में लग जाते हैं। तो इन उदाहरणों से भावनाओं और स्थूल शरीर में परिवर्तन के बीच संबंध स्पष्ट हो जाता है। उदाहरण के लिए, रक्त प्रवाह एक अधिक स्थूल अभिव्यक्ति है जिसमें परिवर्तन दिखाई देता है, पर प्रश्न यह है कि मानसिक स्थिति में परिवर्तन और स्थूल शरीर में परिवर्तन के बीच यह संबंध किस स्तर पर स्थापित होता है?

बौद्ध-धर्मी और हिंदू तंत्र दोनों सूक्ष्म स्तरीय ऊर्जा की बात करते हैं: चित्त या मानसिक क्रियाकलाप इसी ऊर्जा से चलते हैं। इसे "प्राण" कहा जाता है और यह ऊर्जा जैसी कोई वस्तु होनी चाहिए जो स्थूल भौतिक स्तर और मानसिक क्रियाकलाप के बीच संबंध जोड़ती है। हिंदू और बौद्ध-धर्मी विश्लेषणों में यह एक समान है। तो, वैज्ञानिकों के लिए जाँच का असली सवाल है: वह कौन-सा माध्यम या तंत्र है जो मानसिक और भौतिक क्षेत्रों को जोड़ता है?

प्राचीन भारतीय बौद्ध-धर्मी और ग़ैर-बौद्ध धर्मी परंपराओं में "आंतरिक स्पर्श" एक अवधारणा है। [बौद्ध धर्म इसे चित्त संस्कार के रूप में परिभाषित करता है जो किसी संज्ञानात्मक आलम्बन से संपर्क होने पर उसका प्रियकर, अप्रियकर, या तटस्थ के रूप में विभेद करता है, और उसे इस आधार पर क्रमशः आनंद, दुःख, या तटस्थ भावना के रूप में अनुभव करता है।] इस आंतरिक स्पर्श को उपादान हेतु मानकर उसके आधार पर शारीरिक बोध होता है और यही है दुःख या सुख की अनुभूति का समानान्तर प्रत्यय (अर्थात् उस अनुभूति से ठीक पहले की अवस्था)।

इसके अतिरिक्त अन्य इंद्रिय ज्ञान की विशिष्ट संज्ञानात्मक अवस्थितियाँ होती हैं - जैसे देखने की शक्ति आँखों में होती है - परन्तु स्पर्श का ज्ञान शारीरिक संवेदकों के आधार पर होता है और ये संवेदक सम्पूर्ण शरीर और अन्य ज्ञानेन्द्रियों में व्याप्त होते है। विज्ञान के अनुसार देखने और सुनने आदि की इन्द्रियों की अलग-अलग संज्ञानात्मक अवस्थितियाँ होती हैं; पर उन सभी का संबंध मस्तिष्क से है। वे सब मस्तिष्क में व्याप्त होती हैं। इसलिए एक विशिष्ट संज्ञानात्मक स्तर का अन्य सभी संज्ञानात्मक स्तरों पर व्याप्त होने की अवधारणा पर विचार करना होगा क्योंकि ऐसा लगता है कि दोनों बौद्ध धर्म तथा विज्ञान ऐसे किसी स्तर के अस्तित्वमान होने का सुझाव देते हैं।

मस्तिष्क, स्नायुओं, की जब हम जाँच करते हैं, तो स्थूल एवं सूक्ष्म चित्त में विभेद करना होगा। हम चित्त के स्थूल स्तर की पहचान मनुष्यों और कुत्तों दोनों के इंद्रिय बोध के स्तर पर कर सकते हैं। पर दोनों के मस्तिष्क की असमानता के कारण उनके चित्त तथा उस चित्त के स्थूलतर स्तर पर कार्य करने की प्रक्रिया में अंतर हो जाता है। [उदाहरण के लिए कुत्तों की घ्राण शक्ति मनुष्यों की तुलना में अत्यंत उन्नत होती है।] पर बात यह है कि चित्त या मानसिक क्रियाकलापों के स्थूल स्तर के अतिरिक्त कोई सूक्ष्मतर स्तर भी होना चाहिए।

चित्त शरीर पर जितना निर्भर होता है उसकी सूक्ष्मता के उतने ही स्तर होते हैं। स्थूलतर स्तर का इंद्रिय-बोध शरीर के सबसे अधिक अधीन रहता है। दूसरी ओर, चित्त के अधिक सूक्ष्म स्तर पर क्लेश पाया जाता है, जिसकी अधीनता भौतिक शरीर पर कम  रहती है। स्वप्न के स्तर के संदर्भ में भी यही स्थिति सत्य है: भौतिक शरीर पर इसकी अधीनता और भी कम होती है। ऐसे में भावनाओं और सपनों के इन सूक्ष्मतर स्तरों को लेकर मनुष्यों और पशुओं में अंतर क्या है?

अब ऐसे-ऐसे वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध हैं जिसके द्वारा मृत्यु की प्रक्रिया की जाँच हो सकती है। इस प्रकार का शोध पिछले पंद्रह वर्षों से चला आ रहा है। परन्तु मरते हुए व्यक्ति की मानसिक स्थिति का परीक्षण करने के लिए किसी के मस्तिष्क से बिजली के तार (इलेक्ट्रोड) जुड़े हुए हों - खैर, ऐसे परीक्षण करते हुए आज तक किसी की भी मृत्यु नहीं हुई। पर अब हमें इस प्रकार के प्रयोग को लेकर और भी गंभीर होने की आवश्यकता है। हमें किसी से विनती करनी होगी कि मरने से पहले कृपया अपने सिर पर इलेक्ट्रोड लगाए रखें। अब यह तो बड़ा ही जटिल काम है; इसलिए हमें उचित अवसर की प्रतीक्षा करनी होगी।

जहाँ एक ओर मृत्यु की प्रक्रिया के दौरान क्या हो रहा होता है, इसे आंकने के लिए कोई गंभीर वैज्ञानिक परीक्षण नहीं किया जा रहा है, वहाँ भारतीय ग्रंथ तीन स्तरों के मानसिक क्रियाकलापों की बात करते हैं। तीसरा स्तर मृत्यु के समय ही होता है। अधिक विशेष रूप से कहा जाए तो यह तब होता है जब श्वास और हृदय की गति थमने के बाद भी मानसिक गतिविधि के क्षय होने की प्रक्रिया सक्रिय रहती है। यह स्तर चित्त के किसी भी अन्य स्तर की तुलना में भौतिक शरीर के कम अधीन प्रतीत होता है। तो यह बात तय है कि स्थूल स्तर मस्तिष्क और स्नायुओं के अधीन है; पर यह जो अधिक सूक्ष्म स्तर है: वह अभी भी संदिग्ध है।

इसके अतिरिक्त मेरे मन में यह विचार आता है कि बौद्ध-धर्मी श्रेणीकरण के अनुसार हमारे क्लेशों को स्थूल स्तर के बजाय सूक्ष्म स्तर पर क्यों समाहित किया गया है। वे स्थूल भौतिक शरीर पर कम अधीन क्यों है? एक बार वैज्ञानिकों के साथ एक गोष्ठी में मैंने पूछा, "क्या बिना किसी शारीरिक गतिविधि के केवल मानसिक क्रियाकलाप कायिक प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं?" वैज्ञानिक ने कहा, “सैद्धांतिक रूप से हाँ; पर वास्तव में यह संभव नहीं है।”

यह दृष्टिकोण बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं लगता है। एक सरल प्रयोग है जो किया जा सकता है। रोना या आँसू बहाना एक विशेष मानसिक स्थिति की भौतिक प्रतिक्रिया है, परन्तु यह आँसू या तो आनंद के हो सकते हैं या दुःख के। मानसिक स्तर पर इन दोनों के बीच बहुत बड़ा अंतर है पर भौतिक प्रतिक्रिया एक जैसी है। यदि ऐसा होता कि आनंद के आँसू दाहिनी आँख से निकलते और दुःख के आँसू बायीं आँख से, तो भौतिक स्तर पर हम उनका विभेद कर सकते थे। पर ऐसा नहीं है: यह अंतर इतना अधिक स्थूल भी नहीं है। अतः भावात्मक स्तर की जाँच करने के लिए हमें इस स्थूलतम भौतिक स्तर से कहीं अधिक गहराई में जाना होगा। पर केवल मस्तिष्क के भौतिक स्तर की जाँच के द्वारा चित्त की जाँच करना - हमें यहाँ यह प्रश्न करना होगा कि क्या अभी भी कुछ छूट तो नहीं रहा, क्या यह अभी भी अत्यंत सामान्य है।

बौद्ध-धर्मी तर्कशास्त्र के अंतर्गत हम निष्कर्ष के विभिन्न रूपों की बात करते हैं। उदाहरण के लिए, समान आलम्बनों के समान गुणों के आधार पर हम एक विशिष्ट श्रेणी का सामान्यीकरण कर किसी विशिष्ट निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं। अथवा यदि कोई आलम्बन उन गुणों से युक्त नहीं है तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि यह किसी अलग श्रेणी में समाविष्ट है। परन्तु मनोभाव और शरीर के बीच के संबंध से जुड़े हुए इस प्रकार के विषय के बारे में किसी निर्णय तक पहुँचने के लिए यह एक ऐसी तर्क पद्धति है जो अत्यंत व्यापक है और इससे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता। 

Top