इक्कीसवीं शताब्दी के बौद्ध धर्मानुयायी कैसे बनें
मैं तिब्बतिवासियों से, और चीन तथा जापान और लद्दाख तथा हिमालयी क्षेत्र के सभी बौद्धों से हमेशा कहता हूँ ─ मैं हमेशा यह बात कहता हूँ कि अब हम इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं, इसलिए हमें इक्कीसवीं शताब्दी के बौद्धों की तरह आचरण करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि हमें आधुनिक शिक्षा, आधुनिक विज्ञान आदि विषयों की पूरी जानकारी हो, हम आधुनिक सुविधाओं का उपयोग करें, लेकिन साथ ही साथ अपरिमित परोपकारिता, बोधिचित्त और परस्परनिर्भरता, प्रतीत्यसमुत्पाद [अवलंबित उत्पत्ति] के बारे में बुद्ध की शिक्षाओं पर हमारा दृढ़ विश्वास हो। तब आप सच्चे बौद्ध बन सकेंगे और इक्कीसवीं शताब्दी के व्यक्ति भी बन सकेंगे।
हाल में मैं नुब्रा [लद्दाख] गया था, और रास्ते में दोपहर के भोजन के लिए रुका था। वहाँ कुछ स्थानीय लोग पहुँचे ─ उनमें से कुछ लोगों को हम बीस या तीस वर्षों से जानते हैं ─ और मैं उनसे बातचीत करने लगा। मैंने उनसे कहा कि हमें इक्कसवीं शताब्दी के बौद्ध बनना चाहिए, और मैंने उनसे यह भी कहा कि अध्ययन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। फिर मैंने उनसे पूछा, “बौद्ध धर्म क्या है?” और उनका जवाब था, “बुद्धं शरणं गच्छामि। धर्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। [मैं बुद्ध की, धर्म की और संघ की शरण में जाता हूँ।] यही बौद्ध धर्म है।V यह तो बहुत ही साधारण उत्तर है। फिर मैंने उन लोगों से पूछा कि बुद्ध, ईसा मसीह, और मुहम्मद साहब के बीच क्या अन्तर है। उन्होंने उत्तर दिया, “कोई अन्तर नहीं है।V यह उत्तर सही नहीं है। जहाँ तक मानवता के शिक्षक होने का सम्बंध है, वे समान हैं। लेकिन उनकी शिक्षाओं की दृष्टि से उनके बीच बड़ा अन्तर है। बौद्ध धर्म एक अनात्मवादी धर्म है। एक दिन मैंने आपसे प्रश्न किया था कि बौद्ध धर्म नास्तिकता का ही एक रूप है या नहीं, और आपने अपने उत्तर में कहा था कि नास्तिकता का अर्थ “ईश्वर विरोधी” होना होता है। बौद्ध धर्म ईश्वर विरोधी नहीं है ─ बौद्ध धर्म सभी धर्मों का आदर करता है ─ लेकिन बौद्ध धर्म इस दृष्टि से निरीश्वरवादी है कि वह सृष्टिकर्ता को नहीं मानता है, इस धर्म में किसी सृष्टिकर्ता की अवधारणा नहीं है। इस प्रकार शिक्षाओं की दृष्टि से, दर्शन की दृष्टि से बौद्ध धर्म और इन अन्य धर्मों के बीच बड़ा अन्तर है, लेकिन वे देहाती लोग समझते हैं कि ये सभी धर्म समान हैं।
इससे मुझे एक घटना याद आती है: एक समय की बात है, तिब्बत में एक लामा उपदेश दे रहे थे, और लोगों ने उनसे प्रश्न पूछा, “त्रिरत्न कहाँ हैं? बुद्ध कहाँ मिलेंगे?” कुछ समय तक खामोश रहने के बाद लामा आकाश की ओर इशारा करते हुए बोले, “बुद्ध आकाश में एक स्फटिक निर्मित प्रासाद में हैं, और उन्हें घेरे हुए प्रकाशपुंजों का प्रभामण्डल है।” यह बात सही नहीं है। बुद्ध तो अन्ततोगत्वा हमारे हृदय में ─ बुद्ध-धातु में वास करते हैं।
इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि हमें बौद्ध धर्म के वास्तविक आधार पर [बुद्ध की शिक्षाओं पर] अपने आपको केन्द्रित करना चाहिए। जैसे कि जब आप भोजन करते समय मुख्य आहार लेते हैं ─ चावल या आटा या तिब्बतियों के मामले में त्साम्पा ─ और फिर साथ में कुछ सब्ज़ियाँ लेते हैं। बेहतरीन सब्ज़ियाँ; ये बड़ी गुणकारी होती हैं। लेकिन मुख्य आहार के बिना सिर्फ़ कुछ सब्ज़ियाँ खाना ─ सिर्फ़ कुछ सहायक व्यंजन परोसा जाना ─ यह काफ़ी नहीं है। इस बात को समझना महत्वपूर्ण है।
तिब्बती बौद्ध धर्म का तना और शाखाएं
मैं अक्सर तिब्बती बौद्ध धर्म का ज़िक्र नालंदा की विशुद्ध परम्परा [इस अर्थ में कि यह परम्परा भारत के प्राचीन मठीय नालंदा विश्वविद्यालय के सत्रह महान आचार्यों की शिक्षाओं की उत्तराधिकारिणी है] के रूप में करता हूँ। यह आधारभूत बात है। मैं लद्दाख के बौद्धों सहित अन्य बौद्ध समूहों को भी किसी वृक्ष के तने और उसकी विभिन्न शाखाओं के सादृश्य के माध्यम से यह बात समझाता हूँ। नालंदा परम्परा वृक्ष के तने के समान है। और निंग्मा, शाक्य, काग्यू, गेलुग, कदम, जोनांग [की तिब्बती परम्पराएं] उस वृक्ष की शाखाएं हैं।
कुछ समय पहले मैं दोर्ज़ोंग केन्द्र में गया था, जोकि एक द्रुग्पा काग्यू केन्द्र है। वहाँ के रिम्पोशे न केवल अपने यहाँ के भिक्षुओं के लिए, बल्कि युवा तिब्बती गृहस्थ छात्रों के लिए भी सामान्यतया बहुत अच्छे कार्यक्रम चलाते हैं। मैंने दोर्ज़ोंग रिम्पोशे से उनके कार्यक्रम के विषय में पूछा, और उनका कार्यक्रम बहुत अच्छा है। इसलिए मैंने उन्हें पेड़ के तने और शाखाओं के बारे में बताया कि एकात्मकता की दृष्टि से शाक्य, निंग्मा, काग्यू, गेलुग, कदम, और जोनांग ─ ये सभी परम्पराएं एक ही जड़ से पोषित होती हैं। इनमें कोई अन्तर नहीं है। लेकिन जब शाखाओं पर बहुत अधिक बल दिया जाता है, तब छोटे मोटे अन्तर भी बहुत बड़े दिखाई देते हैं। ये शाखाएं महत्वपूर्ण हैं; इनमें कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं जैसे जोग्चेन [महान सम्पूर्णता] और महामुद्रा [श्रेष्ठ मुद्रा] और शाक्य लामद्रे [सपरिणाम मार्ग] और सेल्ताँग-ज़ुंगजुग [सुबोधगम्यता और शून्यता का युग्मित द्वय]। इनमें से प्रत्येक परम्परा अच्छी है, लेकिन ये सभी शाखाएं तने से जुड़ी हैं। जब ये विशेषताएं तने की मुख्य शिक्षाओं के पूर्ण ज्ञान के साथ जुड़ जाती हैं तो और भी अच्छा है। तब यह ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है। लेकिन यदि आप मूलभूत शिक्षाओं की अनदेखी करें और सिर्फ़ शाखाओं से ही चिपके रहें, तो ज्ञान पूर्ण नहीं होगा, और साथ ही शाखाओं की गलत व्याख्या का खतरा भी बना रहेगा।
तो इस प्रकार नालंदा के आचार्यों की परम्परा वृक्ष का तना है। मैं अक्सर नालंदा के सत्रह आचार्यों के बारे में वर्णन करता हूँ। उनके ग्रंथ बौद्ध धर्म की आधारभूत शिक्षाओं की व्याख्या करते हैं। अन्य परम्पराएं उसकी शाखा हैं।
संशयवाद का महत्व
पेड़ के तने ─ मूलभूत बौद्ध शिक्षाओं ─ के अनुसार संशयवादी होना बहुत महत्वपूर्ण है। मैं स्वयं को बौद्ध मानता हूँ, लेकिन मेरु पर्वत की मान्यता में मेरा विश्वास नहीं है। दोनों सत्य और आर्य सत्य ही ब्रह्माण्ड की व्यवस्था, आकाशगंगाओं और महाविस्फोट सिद्धान्त की वास्तविक व्याख्या करते हैं। यही बुद्ध और बौद्ध धर्म की वास्तविक शिक्षा है।
शास्त्रीय ग्रंथों की प्रस्तुति का ताना-बाना विश्वास के चतुर्स्थापन के इर्द-गिर्द बुना गया है। [विश्वास व्यक्ति का नहीं उसकी शिक्षाओं का करो;व्यक्ति के शब्दों का विश्वास मत करो, उनक शब्दों के अर्थ का करो;शब्दों के व्याख्यार्थ का विश्वास मत करो, उनके निश्चित अर्थ का करो;(इसे समझने के लिए) अपनी विभाजक चेतनता का विश्वास मत करो, अपनी गहन चेतनता का विश्वास करो।] इन शास्त्रीय ग्रंथों में कहा गया है कि इन ग्रंथों के सच्चे पाठकों, गम्भीर पाठकों को संशयवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उन्हें यह जाँच करनी चाहिए कि ग्रंथ की विषयवस्तु उनके जीवन में प्रासंगिक है या नहीं। अस्थायी तौर पर उससे क्या लाभ होगा? और लम्बी अवधि में उससे क्या लाभ होंगे? गम्भीर पाठकों को किसी ग्रंथ में उल्लिखित शिक्षाओं का अनुसरण करने से पहले उसकी प्रासंगिकता को स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए।
नालंदा परम्परा का यही दृष्टिकोण है। श्रोताओं को संशयवादी होना चाहिए। संशय से प्रश्न उठते हैं; प्रश्न पूछने से अन्वेषण होता है; अन्वेषण से उत्तर मिलते हैं। यही एकमात्र तार्किक दृष्टिकोण है।
मेरु पर्वत और नरक क्षेत्र की अवस्थितियों से सम्बंधित धारणाओं का खण्डन
चालीस वर्ष पहले जब मेरा सार आश्रम जाना हुआ, तो वहाँ मैंने एक बार कहा था, “बुद्ध इस पृथ्वी लोक में नक्शे बनाने के लिए नहीं आए थे। इसलिए यह तय करना बौद्धों का काम नहीं है कि मेरु पर्वत है या नहीं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।” इसलिए हमें यह छूट है कि हम [अभिधर्ममोक्ष, ज्ञान के विशेष विषयों का खज़ानामें] वसुबंधु की व्याख्या को अस्वीकार कर सकें। हमें शाब्दिक और प्रतीकात्मक अर्थों के बीच फ़र्क करके देखना चाहिए। कालचक्र में उल्लेख आता है कि मेरु पर्वत और इस प्रकार की अन्य चीज़ें सिर से लेकर पाँवों के तलवों तक मानव शरीर का प्रतीक हैं। इसी प्रकार की अपने तांत्रिक व्याख्याएं भी हैं। इन प्रतीकों के निश्चित अर्थ हैं और उनका निश्चित प्रयोजन है।
और जहाँ तक नरक और नरकों की अवधारणा का सम्बंध है: वसुबंधु के अभिधर्ममोक्ष में किए गए इस उल्लेख को स्वीकार करना मुझे कठिन लगता है कि नरक के आठ विभिन्न क्षेत्र बोधगया से बीस योजन नीचे स्थित हैं। एक योजन एक किलोमीटर से कहीं बहुत अधिक लम्बा होता है। इस प्रकार यदि आप नीचे, और नीचे चलते चले जाएं, तो सम्भवतः नरक अमेरिका में मिलेगा! लेकिन यह कहना बहुत लज्जाजनक है कि अमेरिका नरक है। इसलिए ऐसी चीज़ों का खण्डन करना कोई मुश्किल बात नहीं है।
विषयों को तीन तरीकों से समझा जा सकता है: संवेदी ग्रहणबोध के माध्यम से, तर्क-वितर्क पर आधारित निष्कर्ष के माध्यम से, और धर्मग्रंथों के प्रमाण पर विश्वास के माध्यम से। मैं अक्सर लोगों से कहता हूँ कि यह स्थिति वैसे ही है जैसे हमारे जन्मदिन का अवसर हो: हमारे पास यह जाँचने का कोई तरीका नहीं है कि हमारी वास्तविक जन्मतिथि क्या है। इसकी जानकारी के लिए हमें किसी अन्य व्यक्ति, उदाहरण के लिए अपनी माँ, की बात पर निर्भर करना पड़ता है। और उस अन्य व्यक्ति के विवरण को स्वीकार कर पाने के लिए हमें पहले यह सिद्ध करना होगा कि वह व्यक्ति ईमानदार है, भरोसेमन्द है, और उसकी मनोदशा सामान्य है। इसलिए हमें उस व्यक्ति की बताई हुई किसी और बात की जाँच करनी होगी, कोई ऐसी बात जिसकी हम जाँच करके उसकी सत्यता का पता लगा सकें। यदि अपनी जाँच में हम उस बात को सत्य पाते हैं, तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वह व्यक्ति सच्चा है और उसके झूठ बोलने या छल करने का कोई कारण नहीं है। उसके बाद हम उस व्यक्ति द्वारा कही गई दूसरी बातों को स्वीकार कर सकते हैं।
तो, इस प्रकार ऐसी रहस्यमय परिघटनाएं हो सकती हैं जो हमारी बोध क्षमता से परे हों और जिनके बारे में हमें कोई अनुभव न हो। यदि कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने इन परिघटनाओं को वास्तव में अनुभव किया है, तो हम उनके लेखों की जाँच करके मालूम कर सकते हैं कि क्या वे व्यक्ति दूसरी बातों में विश्वास के योग्य हैं। बौद्ध साहित्य में दी गई कुछ व्याख्याओं को समझने के लिए हमें इसी प्रकार का दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
अब, प्रमाण ─ तर्कशास्त्र और ज्ञानमीमांसा ─ के अनुसार [प्रमाण और खण्डन के कई प्रकार होते हैं। एक प्रकार के खण्डन में परिघटना इन्द्रिय-गोचर होनी चाहिए, किन्तु होती नहीं है]।
उदाहरण के लिए, अभिधर्ममोक्ष के अनुसार सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी से समान दूरी पर हैं, और जब ये दोनों मेरु पर्वत की परिक्रमा करते हैं तो दिन और रात होते हैं। ज़ाहिर तौर पर [रात के समय] हम वास्तव में मेरु पर्वत की छाया को अनुभव करते हैं। लेकिन जब हम उसकी छाया को अनुभव कर पाते हैं तो हमें पर्वत भी दिखाई देना चाहिए। प्राचीन भारत में वसुबंधु के पास यह जाँच करने का कोई साधन नहीं था कि मेरु पर्वत का अस्तित्व है भी या नहीं। लेकिन अब हमारे पास अन्तरिक्ष यान हैं, इसलिए अब हमारे लिए उसे देख पाना सम्भव होना चाहिए। लेकिन चूँकि वह हमें दिखाई नहीं देता, इसलिए हम कह सकते हैं कि उसका अस्तित्व नहीं है।
इस प्रकार इस आधार पर खण्डन किया जाता है कि जिस परिघटना को आप सिद्ध करना चाहते हैं उसे देखा या अनुभव नहीं किया जा सकता है या फिर जो दिखाई देता है या अनुभव किया जाता है वह अपेक्षा के विपरीत होता है। दिग्नाग और धर्मकीर्ति ने अपने ग्रंथों में इन विषयों का स्पष्ट तौर पर वर्णन किया है। इस प्रकार बौद्ध बौद्ध ज्ञानमीमांसा का प्रयोग करते हुए सुमेरु पर्वत का अस्तित्व न होने की बात का आसानी से खण्डन किया जा सकता है। ऐसी चीज़ों का खण्डन करने में कोई कठिनाई नहीं है।
एक बार दक्षिण भारत में छात्र भिक्षुओं की एक बड़ी सभा में ─ मेरा अनुमान है कि उस सभा में दस हज़ार से अधिक छात्र भिक्षु उपस्थित रहे होंगे (सभी प्रमुख मठ संस्थाओं के छात्र वहाँ एकत्र थे) ─ मैंने विज्ञान के महत्व के बारे में अपने विचार व्यक्त किए थे और कहा था कि हमें विज्ञान, आधुनिक विज्ञान का अध्ययन करना चाहिए। और फिर मैंने कहा था कि मैं सुमेरु पर्वत के अस्तित्व और ऐसी दूसरी चीज़ों को नहीं मानता हूँ। और फिर मैंने कहा, “आप लोग मुझे शून्यवादी न समझें।” पहले दिन मेरा उपदेश बौद्ध विज्ञान और पाश्चात्य विज्ञान के बीच के सम्बंध पर अधिक आधारित था। फिर अगले दिन मैंने बौद्ध शिक्षाओं के बारे में चर्चा की। इस प्रकार पहले दिन मैंने अपनी शिक्षाओं के बारे में नवीन दृष्टिकोण अपनाया, जबकि दूसरे दिन की शिक्षाएं पारम्परिक धार्मिक शिक्षाएं थीं। ख़ैर, इस प्रकार की चीज़ों का खण्डन करना कोई मुश्किल कार्य नहीं है।
गुरु भक्ति के सम्भावित खतरे
इस प्रकार यदि आप मूल को देखें, तो भक्ति पर कोई बल नहीं दिया गया है। लेकिन यदि आप महामुद्रा या जोग्चेन जैसी शाखाओं को देखें, तो वहाँ गुरु-योग को बहुत महत्व दिया जाता है। लेकिन इसके कारण दरअसल कुछ लामाओं का बिगाड़ हो रहा है, और फिर इससे उनके केन्द्र अलग पंथ या मत बन सकते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि बुनियादी बौद्ध शिक्षाओं को भुला कर सिर्फ़ इन शाखाओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
मारपा के मुख्य शिक्षक नरोपा, जो काग्यू परम्परा के प्रमुख व्यक्ति हैं, का उदाहरण लें। नरोपा नालंदा संस्था के महान विद्वानों में से एक थे। बाद में उन्होंने किसी भिक्षुक या साधु के रूप में जीवन व्यतीत करते हुए तंत्रायन की साधना की। इन विषयों की साधना करने की क्षमता अकेले नरोपा के ही पास थी क्योंकि उन्होंने नालंदा परम्परा के सभी उपलब्ध महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन किया था। लेकिन अब पश्चिम के कुछ साधक ─ तिब्बती साधक भी, और लद्दाखी साधक भी ─ बौद्ध धर्म की बुनियादी बातों को समझे बिना वही करने लगते हैं जैसा उनके लामा उन्हें करने के लिए कहते हैं। यदि उनके लामा कहें, “पश्चिम ही पूर्व है,” तो वे मान लेते हैं, “अरे, यही तो पूर्व है।” यह नालंदा की परम्परा के खिलाफ़ है।
इसमें संदेह नहीं कि जो व्यक्ति बौद्ध धर्म की बुनियादी जानकारी की पूरी योग्यता रखता है, वह ऊँचे आसान पर बैठने वाले किसी लामा ─ जैसे मैं एक ऊँचे आसन पर बैठता हूँ ─ से जिसका वास्तविक अनुभव बहुत सीमित होता है, अलग होता है। सम्भव है कि इससे ऐसा प्रतीत हो कि मैं इन लामाओं के प्रति थोड़ा ईर्ष्या भाव रखता हूँ! लेकिन जहाँ तक मेरा अनुभव है, मुझे लगता है कि इन लामाओं को समुचित और पूरा ज्ञान नहीं होता और वे सिर्फ़ शाखाओं को ही महत्व देते हैं। इससे बहुत भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। इस बात को समझना महत्वपूर्ण है।
बौद्ध धर्म को पश्चिम जगत के अनुकूल बनाना
एक पाश्चात्य बौद्ध धर्म के विचार में कोई बुराई नहीं है, यह एकदम ठीक है। आप जानते हैं कि बौद्ध धर्म मूलतः भारत से आया है। और फिर जब यह अलग-अलग जगह पहुँचा, तो यह वहाँ की स्थानीय सांस्कृतिक परम्पराओं के साथ घुल-मिल गया और इसने तिब्बती बौद्ध धर्म, चीनी बौद्ध धर्म, जापानी बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया।
तिब्बती मठों में प्रयोग किए जाने वाले कुछ संगीत वाद्य नालंदा परम्परा से नहीं आए हैं, बल्कि चीनी पक्ष से प्राप्त हुए हैं। एक वाद्य यंत्र है जिसे ग्यालिंग [तिब्बती शॉम या नफ़ीरी] कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ “चीनी बाँसुरी” होता है। और कुछ मठों में इस वाद्य को बजाने वाले वादक चीनियों की तरह की पोशाक भी पहनते हैं। यह तो नादानी है, है न? यह तो बौद्ध धर्म का हिस्सा नहीं है; केवल एक सांस्कृतिक पहलू है। इसी प्रकार पश्चिम जगत के बौद्ध समुदाय आधुनिक वाद्यों का प्रयोग कर सकते हैं और किसी पाश्चात्य गीत की धुन पर प्रार्थना कर सकते हैं। ठीक, इसमें कोई समस्या नहीं है।
लेकिन जहाँ तक चार आर्य सत्यों और परोपकारिता का सम्बंध है, बौद्ध धर्म मनोभावों के बारे में शिक्षा देता है, और आज की मानवीय भावनाएं वही हैं जो 2600 वर्ष पहले थीं। मैं मानता हूँ कि मानवीय भावनाएं पिछले तीन-चार हज़ार से बदली नहीं हैं और आने वाले कुछ हज़ार वर्षों में भी बदलने वाली नहीं हैं। दस हज़ार या बीस हज़ार वर्ष बाद मस्तिष्क का किसी नए रूप में विकास हो तो हो सकता है कि तब इनमें थोड़ा बहुत अन्तर आ जाए। लेकिन वह तो बहुत दूर की बात है। हमारी पीढ़ी के लिए, दूसरी पीढ़ी के लिए, तीसरी पीढ़ी के लिए शिक्षाओं में बदलाव करने की कोई आवश्यकता नहीं है ─ वही मानव मस्तिष्क है, वही मानवीय भावनाएं हैं। आप वैज्ञानिकों से, मस्तिष्क विशेषज्ञों से इस विषय में पूछ सकते हैं, और वे सब यही जवाब देंगे, “कम से कम अगली कुछ शताब्दियों तक मस्तिष्क बदलने वाला नहीं है। कोई बदलाव नहीं होगा।” इसलिए आधारभूत बौद्ध शिक्षाएं प्रामाणिक होनी चाहिए।
एक बार फ़्रांस में मैंने नए युग का उल्लेख किया ─ आप कुछ यहाँ से लेते हैं, कुछ वहाँ से, और फिर अन्तिम परिणाम प्रामाणिक नहीं होता है। यह अच्छी बात नहीं है। मैं मानता हूँ कि हमें नालंदा की परम्परा को अक्षुण्ण रखना चाहिए। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन सांस्कृतिक पहलुओं में बदलाव हो सकता है।
उच्च शिक्षाओं के मिथ्याबोध की समस्या
अब मैं कुछ सकारात्मक आलोचना की चर्चा करूँगा। पश्चिम में कुछ ऐसे लोगों से मेरी मुलाकात हुई जिन्हें थोड़ा-बहुत ज्ञान है, लेकिन वे समझते हैं: “अरे, मैं तो सब कुछ जानता हूँ!” और फिर अपने सीमित ज्ञान और गलत धारणाओं के आधार पर वे लोग शिक्षाएं गढ़ लते हैं। निःसंदेह तिब्बतियों में भी ऐसी प्रवृत्ति होना सम्भव है, विशेष तौर पर उन लोगों में जो इन महान दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते हैं।
एक उदाहरण मैं आपको बता सकता हूँ। सान फ्रांसिस्को में एक भीषण भूकंप के तुरन्त बाद मैंने वहाँ का दौरा किया। उस समय मेरा ड्राइवर स्टेट डिपार्टमेन्ट से नहीं था। मुझे एक निजी कार उपलब्ध कराई गई थी, और उसका ड्राइवर धर्म केन्द्र का एक सदस्य था जो जोग्चेन की साधना करता था। मैंने उससे यूँ ही पूछ लिया, “जब इतना बड़ा भूकम्प आया तो आपने कैसा अनुभव किया?” और उसका जवाब था, “अरे, वह तो जोग्चेन का अभ्यास करने का बड़ा अच्छा अवसर था, क्योंकि भूकंप एक झटके के तौर पर आया, एक बहुत बड़ा आघात।”
लेकिन निर्विचार रहते हुए आघात की स्थिति में होना ─ यदि उसे लगा हो कि यही वास्तविक जोग्चेन साधना है, तब तो यह साधना बहुत आसान हो जाती: आपको कोई आघात पहुँचे और आप जोग्चेन की साधना कर लें! लेकिन जोग्चेन की साधना इतनी आसान नहीं है। मैंने स्वयं जोग्चेन का अभ्यास किया है। वह बहुत कठिन है, बहुत ही कठिन।
एक कहावत है: “अल्पज्ञान खतरनाक होता है।” इस बात में सच्चाई है, इसलिए सावधानी बरतें। अध्ययन करें। और किसी लामा के निर्देशों पर ही निर्भर न रहें; इन प्रामाणिक ग्रंथों को आधार बनाएं। यह बात महत्वपूर्ण है। नागार्जुन, आर्यदेव, और दूसरे सभी महान बौद्धाचार्यों के लिखे हुए इन प्रामाणिक ग्रंथों का अध्ययन करें। इन विद्वानों ने सदियों तक शिक्षाओं को कसौटी पर कसा है। आर्य असंग ने इस विषय पर लेखन कार्य किया और दूसरे दार्शनिकों के साथ विवेचन किया। उदाहरण के लिए नागार्जुन की लिखी हुई कुछ बातों की आर्य असंग ने आलोचना की थी; और फिर किसी दूसरे आचार्य ने आर्य असंग की कृति का विश्लेषण किया और उसकी आलोचना की। महान आचार्यों द्वारा लिखे गए इन ग्रंथों पर प्रयोग किए गए और सदियों तक उनकी जाँच और परीक्षा की गई, इसलिए ये ग्रंथ सचमुच विश्वसनीय हैं।
और फिर दोहों, आध्यात्मिक गीतों [सिद्ध आचार्यों के स्वतःस्फूर्त आध्यात्मिक गीत] की बात आती है। नरोपा और तिलोपा जैसे इन साधकों ने नालंदा परम्परा का पूरा अध्ययन किया। और फिर साधना करते हुए उन्होंने मठीय जीवन सहित हर प्रकार के सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया और पूरी तरह भिक्षु या योगी के रूप में जीवन व्यतीत किया। और फिर अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने अपने गहन ज्ञान की सहायता से आसान शब्दों में इन कविताओं की रचना की। इसलिए यदि केवल आधारभूत परम्परा का ही ज्ञान हो [और उससे अधिक ज्ञान न हो] तो मिथ्याबोध होने का खतरा बना रहता है।
निंग्मा परम्परा में नौ यानों (वाहनों) का वर्णन आता है। पहले तीन यान ─ श्रावक-यान, प्रत्येकबुद्ध-यान, और बोधिसत्व-यान [त्रिसूत्र यान] ─ मुख्यतः चार आर्य सत्यों के बोध पर आधारित हैं। और फिर अगले तीन यान ─ क्रिया, उप, और योग [तंत्र के तीन बाहरी वर्गों से सम्बंधित यान] ─ परिमार्जन के अभ्यास पर विशेष रूप से बल देते हैं। और फिर अन्तिम तीन यानों ─ महा, अनु, और अति [तंत्र के तीन भीतरी वर्गों से सम्बंधित यान] ─ में चित्त को नियंत्रित करने सम्बंधी साधनाओं पर बल दिया जाता है।
अन्त में बताए गए इन तीन यानों का वास्तविक उद्देश्य मनोभावों को विकसित होने देना और फिर, उन मनोभावों के वशीभूत हो जाने के बजाए आपका चित्त उस मनोभाव की मूल प्रकृति को समझ पाता है। यही निर्मल प्रकाश है। इस प्रकार इन अन्तिम तीन यानों की दृष्टि से विनाशकारी मनोभावों को जीते जाने वाले मनोभावों के रूप में नहीं देखा जाता है, बल्कि इन विनाशकारी मनोभावों की प्रकृति को समझ कर हम वास्तविकता को समझते हैं। यह बोध गहन अनुभव के आधार पर किया जाता है, और यह साधना पूर्व के स्तरों की साधनाओं से बहुत अलग होती है। इसलिए उच्च स्तर की साधनाएं सम्पन्न कर चुके साधकों की शिक्षाओं का अपने स्तर पर अभ्यास करना कठिन कार्य है। इन नौ स्तरों की साधना आसान नहीं है।