मंत्रोच्चार की कई विधियाँ हैं | जैसा कि मंत्र कैसे उच्चरित करें में सूचीबद्ध किया गया है, एक है मौखिक रूप से और दूसरी विधि है मानसिक रूप से | मंत्रोच्चार के कई ढंग हैं जैसे आप वास्तव में अक्षरों का मानस दर्शन करते हुए उन्हें मानसिक रूप से उच्चरित करते हैं, अथवा आप ऐसी कल्पना करते हैं कि स्वयं अक्षरों से निनाद उत्पन्न हो रहा है | हम कितनी प्रकार की विधियों से मंत्र-साधना करते हैं इसकी एक लम्बी सूची है | परन्तु यदि हम गहनतर स्तर पर देखें, तो हम अपने शरीर, वाक्, और चित्त को प्रशिक्षित करना चाहते हैं | केवल हमारा शरीर और चित्त नहीं , या केवल हमारा चित्त नहीं | वाक् का सम्बन्ध सम्प्रेषण से है, इसलिए वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | यदि हम दूसरों की सहायता करना चाहते हैं, उन्हें शिक्षा देना चाहते हैं, तो हमें सम्प्रेषण की आवश्यकता होती है; इसलिए हम मानव होने के नाते वाक् का प्रयोग करते हैं |
इसलिए एक स्तर पर, बोलकर मंत्रोच्चार करने से कम से कम वाक् सकारात्मक हो जाता है, क्योंकि हम मंत्रोच्चार करते हुए शरीर को एक विशिष्ट मुद्रा में एकीकृत करते हैं: यह कल्पना करते हुए कि हम एक विशिष्ट देवता हैं; और चित्त में करुणा, चित्त की निर्मल अवस्था, अथवा जिस भी आलम्बन का वहाँ प्रतिरूपण हो उसे धारण करते हुए। इसलिए यह इन तीनों के एकीकरण का एक ढंग है - शरीर, वाक्, और चित्त।
एक गहनतर स्तर पर, मंत्र का सम्बन्ध श्वास और ऊर्जा से है | बौद्ध-धर्मी विश्लेषणपरक दृष्टिकोण से शरीर के श्वास और ऊर्जा का निकट सम्बन्ध है | इसलिए मंत्र श्वास तथा ऊर्जा को एक नियमित लय देते हैं जिसका, मानसिक तरंगों इत्यादि के स्तर पर, विशेष लाभ होता है | इसलिए चाहे हम केवल उस ऊर्जा की एक अधिक संतुलित लय स्थापित करने के स्तर पर अभ्यास कर रहे हों, अथवा वह बोलकर हो या मानसिक तौर पर, मेरे विचार में उसका वही प्रभाव पड़ेगा | मैं तो केवल अपने विचार से ऐसा कह रहा हूँ, परन्तु वह, निश्चित रूप से आपको उतनी ही शान्ति प्रदान करेगा, या आपकी बुद्धि को कुछ और तीक्ष्ण बना देगा |
परन्तु मंत्र के गहनतम स्तर का सम्बन्ध आपके श्वास की ऊर्जाओं को साधने से है | मंत्र से आप श्वास को साधते हैं, और उससे ऊर्जा सरणिबद्ध होती है, जिससे आपको शरीर की ऊर्जाओं और वायु पर नियंत्रण पाने का मार्ग मिलता है ताकि आप उन्हें केंद्रीय नाड़ी में ला सकें | इसलिए, एक मायने में, आप श्वास को साधना चाहते हैं | और यह एक विशेष प्रकार के मंत्र द्वारा संभव है, एक विशेष प्रकार की साधना - बहुत अधिक उन्नत - जिससे वायु केंद्रीय नाड़ी में लाई जा सके, ताकि आपको प्रदीप्त निर्मल चित्त मिल पाए जो शून्यता इत्यादि समझने के लिए अत्यधिक अनुकूल है |
इसलिए, एक स्तर पर, कुछ हद तक बोलकर मंत्रोच्चार करने से श्वास को साधने में सहायता मिलती है, परन्तु, इसे बहुत ऊँचे स्वर में बोलने की आवश्यकता नहीं है | निस्संदेह मंत्रोच्चारण की कई शैलियाँ हैं: ऊँचा स्वर, धीमा स्वर, गाकर करना, और अन्य कई ढंग हैं | परन्तु अंततः, गहनतम स्तर पर, केवल जिस बात की आवश्यकता है वह है श्वास को साधना | यह आप फुसफुसाकर भी कर सकते हैं | एक रूप में यह केवल श्वास को साधने की बात है | किसी अन्य को इसे सुनने की आवश्यकता नहीं है |
तो जब आप मंत्रोच्चार करते हैं, तो प्रायः यह सलाह दी जाती है कि आप मंत्र के आकार के अनुसार अपना मुँह चलाएँ और और थोड़ा-सा मौखिक वाचन भी हो, परन्तु वास्तव में उसे केवल आप ही सुन सकते हैं, इसलिए उससे आसपास के लोगों के शान्ति भंग भी नहीं होती | निस्संदेह आप मठों में लोगों को बहुत ऊँचे स्वर में मंत्रोच्चारण करते हुए सुनते हैं, परन्तु ग्रंथों में दिए गए सैद्धांतिक दृष्टिकोण से प्रायः यही परामर्श दिया जाता है: केवल निजी स्तर पर, श्वास को साधें | तो संक्षेप में, मानसिक रूप से इसे उच्चरित करने का अर्थ यह नहीं है कि यह निरर्थक अथवा कम प्रभावशाली है, यह केवल भिन्न है |
मेरा यह मत है कि समझने की दृष्टि से मंत्र एक अत्यंत कठिन विषय है और इसे जादू-टोने के शब्दों में क्षरित न होने दें | विशेषतः इसलिए क्योंकि तिब्बती लोग संस्कृत मंत्रों का अशुद्ध उच्चारण करते हैं; मंगोल संस्कृत से और भी दूर हैं; जब चीनी और जापानी लोग मंत्र उच्चरित करने का प्रयास करते हैं, तब आप पहचान भी नहीं सकते कि वे क्या कह रहे हैं | तब आप सोचना शुरू करते हैं कि वास्तविकता क्या है, क्योंकि निस्संदेह इन लोगों को मंत्रों के द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं | यह सरल विषय नहीं है | परम् पावन दलाई लामा परामर्श देते हैं कि, चाहे तिब्बती लोगों का उच्चारण और मंत्र पढ़ने का अपना ढंग हो - जैसे वे "ॐ वज्रसत्त्व" न कहकर, "ॐ बेन्ज़ासातो" कहते हैं, जो संस्कृत की विकृति है - फिर भी, वे कहते हैं कि पश्चिमवासी होने के नाते हम जितना संभव हो सके उतना मूल संस्कृत उच्चारण करें, वही अच्छा है | परन्तु कई तिब्बती लामा यह पसंद करते हैं कि पाश्चात्य शिष्यों के रूप में हम उनकी भाँति उच्चारण करें | तो सबकुछ गुरु पर निर्भर है |
अभिषेक ग्रहण करने के पश्चात जब हम मंत्रोच्चार की वचनबद्धता स्वीकार कर लेते हैं, तब क्या सार्वजनिक वाहनों इत्यादि में उच्चार करना उचित है, बजाय हमारे नियमित साधना सत्रों में? क्या दिनभर मंत्रोच्चार करना उचित है?
सर्वप्रथम, सामान्यतः हमारी धर्म साधना केवल हमारे साधना-स्थल के नियंत्रित वातावरण तक सीमित नहीं रहनी चाहिए | धर्म साधना का ध्येय ही है कि उसे दैनिक जीवन में लागू किया जाए और उससे बँटा हुआ जीवन न जीना पड़े - कि अपनी ध्यान-साधना आसन पर हमारा एक रूप हो, और फिर हमारे सामान्य, दैनिक जीवन में हम बिलकुल भिन्न हों | इसलिए हम निरंतर, कभी भी मंत्रोच्चार कर सकते हैं |
यदि हम सार्वजनिक स्थानों में हों, जैसे मेट्रो इत्यादि, तब आप निस्संदेह ऊँचे स्वर में मंत्रोच्चार नहीं करेंगे | आपको सबके सामने जपमाला निकालकर उसकी सहायता से मंत्रोच्चार करने की आवश्यकता नहीं है | जैसा मैंने कुछ समय पहले बताया, इस प्रकार की साधना को निजी या गुप्त रखना चाहिए | यदि आपके लिए ध्यान केंद्रित करने की दृष्टि से (क्योंकि आप अंगुली फेरते हैं) माला का प्रयोग अनिवार्य हो, तो जब आप सार्वजनिक स्थान पर हों तब आप उसे अपनी जेब में रखकर उसका प्रयोग करें | ठीक है? हम एक साधारण गृहस्थ की बात कर रहे हैं; हम भिक्षु अथवा भिक्षुणी की बात नहीं कर रहे |
हमें सदैव मंत्रों की गिनती रखने की आवश्यकता नहीं है; अन्यथा आप मंत्रोच्चार के स्थान पर केवल गिनती ही कर लें | मंत्रों का महत्त्व है कि, एक ओर वे एक विशेष चित्तावस्था पर हमारा ध्यान केंद्रित करने में सहायता करते हैं, जैसे चेनरेज़िग के साथ करुणा, अथवा मंजुश्री के साथ चित्त की निर्मल अवस्था | इसलिए निस्संदेह मंत्रोच्चार करते हुए, हम उस चित्तावस्था में रहने का प्रयास करते हैं जो उससे मेल खाती हो |
प्रत्येक मंत्र अभ्यास के साथ हम विभिन्न प्रकार के मानस-दर्शन सीख सकते हैं | जब हम सार्वजनिक स्थानों में हों जैसे मेट्रो इत्यादि तब भी हम उन्हें कर सकते हैं | यदि हम कोई जोखिम भरा काम कर रहे हों - जैसे बिजली के यंत्र के साथ कोई कार्य या ऐसा कोई काम - तब निस्संदेह, आपको एकाग्रचित्त होकर वह काम करना चाहिए और अपने मानस-दर्शन में नहीं खो जाना चाहिए |
परन्तु आपको यह याद रखना चाहिए कि इससे पहले कि आप पूर्ण स्तर के पर्याप्त उन्नत स्तर पर पहुँचें जहाँ आप ऊर्जा वात उत्पन्न कर सकते हैं, जिसका सम्बन्ध आँखों से है ताकि आपके सामने चाक्षुष सचेतनता की सहायता से बुद्ध-आकृति का मानस-दर्शन स्वरुप हो, उससे पहले, वह अभ्यास किया जाएगा जो हम सब किया करते हैं जिसमें मानसिक सचेतनता सहित हम सामान्य रूपाकार की वस्तुओं का मानस-दर्शन करते हैं (इसलिए एक तरह से ये दोनों एक दूसरे अध्यारोपित हैं)। सड़क पार करते समय आप सड़क से अपनी नज़र नहीं हटाते।
इस वचनबद्धता का पालन करने के अतिरिक्त क्या आप मंत्रोच्चार की आवश्यकता को अधिक व्याख्यायित कर सकते हैं?
मंत्र शब्द में, मन मनस का संक्षिप्त रूप है, जिसका अर्थ है "चित्त," और त्र का उद्भव संस्कृत क्रिया "बचाने" अथवा "रक्षा करने" से हुआ है। इसे प्रायः इसी प्रकार व्याख्यायित किया जाता है। हमारे चित्त के विभिन्न प्रकार के नकारात्मक विचारों से संरक्षा के लिए ऐसा किया जाता है। यह एक स्तर है। दूसरों को पसंद न करने वाले नकारात्मक विचारों के बजाए जब हम चेनरेज़िग के मंत्र उच्चरित करते हैं तो उससे हम दूसरों के लिए प्रेम और करुणा जैसे भावों के प्रति सचेतन रहते हैं। अतः यह चित्त की रक्षा करता है।
अत्यंत सामान्य स्तर पर, यदि हमारे मन में कोई गाना अथवा संगीत बज रहा हो और हम उसे अपने मन से निकाल न पा रहे हों, तो उससे चित्त की रक्षा करने का उत्तम उपाय है चित्त की उस शाब्दिक ऊर्जा का प्रयोग करते हुए मंत्रोच्चार करना। या यह भी आवश्यक नहीं है कि हमारे मन में कोई गाना ही बज रहा हो। ये अनियंत्रित विचार भी हो सकते हैं, जैसे रात को चिंता करना, या इस प्रकार की अन्य बातें। चित्त की उस शाब्दिक ऊर्जा का प्रयोग करते हुए मंत्रोच्चार कीजिए।
परन्तु, जैसा मैंने कहा, एक गहनतर स्तर पर मंत्र श्वास को साधना है; और मंत्र की ध्वनि तथा श्वास साधने से सूक्ष्म ऊर्जाओं को साधा जाता है। इसलिए वज्र पाठ में हम श्वास को ओम अह हुम् की ध्वनि के साथ मिलाते हैं। विशिष्ट, काफ़ी उन्नत साधनाओं सहित, जिनका प्रयोग श्वास साधने, अर्थात सूक्ष्म ऊर्जा, के लिए किया जाता है, हम उसे मध्य नाड़ी में विलय कर देते हैं और अंततः इसे सूक्ष्मतम, निर्मल-उज्ज्वल स्तर तक लाकर चित्त की रक्षा करते हैं।
सामान्य सांसारिक सिद्धियाँ भी प्रायः सूक्ष्म ऊर्जाओं पर नियंत्रण पाकर तथा उन्हें साधकर अर्जित की जाती हैं, और यह मंत्र द्वारा किया जाता है। इनसे अभिप्राय है परासंवेदी शक्तियाँ तथा पराभौतिक शक्तियाँ, जिनके द्वारा दूसरों की सहायता की जाती है, और जो केवल शक्ति के प्रदर्शन आदि के लिए नहीं होतीं।
अतः मंत्र के अनेक प्रयोग एवं प्रयोजन हैं।
जब आपका चित्त कुछ और सोचने में व्यस्त हो तो क्या तब मंत्रोच्चार का कोई लाभ है?
ऐसा करना मंत्रोच्चार बिलकुल न करने से श्रेष्ठतर है। जब हम ॐ मणि पद्मे हुम् बोल रहे हों, तब उसी समय चाहे हम फुटबॉल के विषय में भी सोच रहे हों, तब भी कम-से-कम कुछ तो हो रहा है। परन्तु, निस्संदेह, एकाग्रचित्त होने की चेष्टा करना श्रेष्ठतम है।
मंत्रोच्चार की सर्वोत्तम विधि क्या है? क्या इन्हें मानसदर्शन अथवा किन्हीं विशिष्ट विचारों सहित उच्चरित करना चाहिए?
मंत्रोच्चार की विभिन्न विधियाँ है - ऊँचे स्वर में, धीमे स्वर में, केवल अपने मन में, बिना अपने मन में अथवा ऊँचे स्वर में बोले हुए मंत्र के अक्षरों का केवल मानसदर्शन करते हुए। क्रिया-तंत्र में यह कल्पना करने के विपरीत कि हम स्वयं निनाद कर रहे हैं, हम ऐसी कल्पना करते हैं कि मंत्र के अक्षर हमारे हृदय के भीतर से मंत्र की ध्वनियाँ उत्पन्न कर रहे हैं। फिर मंत्र की उस ध्वनि की शून्यता-सम्बन्धी ध्यान साधनाएँ हैं। ऐसी अनेक, विभिन्न प्रकार की मंत्र साधनाएँ विद्यमान हैं।
प्रायः यह संस्तुत किया जाता है कि मंत्र के साथ कम-से-कम आपके होंठ हिल रहे हों, उसे केवल बहुत धीमे स्वर में बुदबुदाएँ ताकि केवल आप ही उसे सुन पाएँ। आपको बहुत दिखावा करते हुए उसे ऊँचे स्वर में उच्चरित करने की आवश्यक्ता नहीं है जिससे आपके आसपास सभी लोग उसे सुन पाएँ, यद्यपि कुछ स्थितियों में आप उन्हें ऊँचे स्वर में उच्चरित करते हैं। और इसकी गति आप पर निर्भर करती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आपसे कोई भी अक्षर छूट न जाए। यदि आप कभी भी परम पावन दलाई लामा को मंत्रोच्चार करते हुए सुनेंगे, तो मेरे अनुभव में वे किसी भी व्यक्ति से अधिक तीव्र गति में उच्चार करते हैं - चाहे वह पाठ का उच्चार हो या कुछ और - परन्तु सबकुछ स्पष्ट होता है।