सी लर्निंग - वैश्विक नागरिकता की ओर

सामाजिक, भावात्मक, एवं नैतिक शिक्षण, एमरी यूनिवर्सिटी, संक्षिप्त रूपरेखा

सामाजिक, भावात्मक, एवं नैतिक (सी - SEE ) प्रशिक्षण, एमरी विश्वविद्यालय स्थित द सेंटर फॉर कंटेम्पलेटिव साइंस एंड कम्पैशन-बेस्ड एथिक्स द्वारा विकसित कार्यक्रम है। उसका उद्देश्य है व्यक्तियों, सामाजिक समूहों, तथा बृहत्तर समुदायों को भावात्मक रूप से स्वस्थ एवं नैतिक रूप से उत्तरदायी बनाना। इस तीसरे और अंतिम भाग, सी लर्निंग: वैश्विक नागरिकता की ओर, में हम यह समझेंगे कि किस प्रकार यह संसार परस्पर निर्भर है, किस प्रकार सब लोगों को आनंद की समान इच्छा है, तथा किस प्रकार हम वैश्विक स्तर पर परिवर्तन लाने के लिए योगदान दे सकते हैं।

हम जिस संसार में रहते हैं वह उत्तरोत्तर जटिल, वैश्विक, एवं अन्योन्याश्रित है। वर्तमान तथा भविष्य की पीढ़ियों के समक्ष चुनौतियों की प्रकृति विस्तृत एवं दूरव्यापी हैं। निस्संदेह उनके समाधान के लिए नए विचारों एवं समस्या-समाधान के नए मार्गों की आवश्यकता है जो सहयोगपूर्ण, बहुविषयक, एवं विश्व-उन्मुख हों । सांसारिक व्यवहार के लिए केवल करुणा ही पर्याप्त नहीं है। हमें अपनी करुणा को उन निर्णयों का पूरक बनाना होगा जो हम अपनी संयुक्त बृहत्तर व्यवस्था की समझ के आधार पर लेते हैं।

आरम्भ में यह वैश्विक कार्यक्षेत्र अत्यंत भयकारी लगेगा, परन्तु वह उसी ज्ञान और कौशल पर रचा गया है जिन्हें हमने व्यक्तिगत तथा सामजिक कार्यक्षेत्रों में देखा था, जिन्हें हमारे समुदाय, समाज, और वैश्विक समुदाय तक केवल फैला दिया गया है। ऐसा लगता है कि इसी प्रकार हम अपने और दूसरों के व्यवहार को भी समझ सकते हैं, व्यवस्थाओं के परिचालन को समझने की क्षमता भी अन्तर्जात है। इस बोध को गहन करके तथा समीक्षात्मक चिंतन से जटिल स्थितियों का सामना करके ही नैतिक व्यवहार उभर सकता है। तभी समस्याओं का समाधान निकालने की प्रक्रिया सर्वसमावेशी हो सकती है, और विषयों को छोटे-छोटे, असम्बद्ध टुकड़ों में तोड़ने से हम बच सकते हैं। 

वैश्विक कार्यक्षेत्र को हम इन विषयों के माध्यम से जाँचेंगे:

  • परस्पर निर्भरता को समझना 
  • मानवता की सार्वभौमिकता को पहचानना 
  • सामुदायिक और वैश्विक व्यवहार 

परस्पर निर्भरता को समझना 

परस्पर निर्भरता वह धारणा है जिसके अनुसार कोई वस्तु अथवा घटना अपनेआप नहीं होती, अपितु उसका अस्तित्व कई अन्य वस्तुओं और घटनाओं पर आश्रित होता है। उदाहरण के लिए, हमारी खाद्य सामग्री ही कई स्त्रोतों और व्यक्तियों से आती है, जिनके पदचिह्न पुरातन काल एवं दूर-दूर के क्षेत्रों तक फैले हैं। परस्पर निर्भरता का यह भी अर्थ है कि किसी भी क्षेत्र के परिवर्तन से दूसरे क्षेत्रों में भी परिवर्तन आ सकता है। कार्य का कारण होता है, और वास्तव में ये विविध कारणों और परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं। 

परस्पर निर्भरता पर विचार करने का उद्देश्य यह नहीं है कि हम वैश्विक व्यवस्थाओं का शुष्क ज्ञान प्राप्त करें, अपितु इस ज्ञान को अपने, दूसरों, तथा इस धरती के विषयों से जोड़ें। हम इस परस्पर निर्भरता का विवेचन दो परिप्रेक्ष्यों से कर सकते हैं:

  • परस्पर निर्भर व्यवस्थाओं को समझना 
  • व्यवस्था के सन्दर्भ में व्यक्तियों को समझना 

परस्पर निर्भर व्यवस्थाओं को समझना "आभ्यंतर" तथा "अन्य" से ध्यान हटाकर विस्तृत व्यवस्थाओं पर "बाह्य" ध्यान को केंद्रीकृत करना है। हम अपनी अभिज्ञता को कार्य-कारण के रूप में परस्पर-निर्भरता तथा वैश्विक व्यवस्थाओं को समझने की ओर लक्षित करते हैं। हम यह मानते हैं कि किसी व्यवस्था के सन्दर्भ में व्यक्तियों के रूप में  किस प्रकार हमारा तथा हमारे आस-पास के लोगों का अस्तित्व संसार-भर की घटनाओं, कारणों, तथा लोगों के बृहत् विन्यास से जटिल रूप से सम्बद्ध है। 

परस्पर निर्भर व्यवस्थाओं को समझना 

इस परस्पर निर्भरता के लिए प्राकृतिक नियम एवं मानव जीवन की वास्तविकता दोनों उत्तरदायी हैं। फलने-फूलने की बात तो दूर है, आहार, जल और आवास जैसी मौलिक आवश्यकताओं को प्रदान करने के लिए काम कर रहे असंख्य लोगों तथा शिक्षा, विधि प्रवर्तन, एवं सरकार, कृषि, यातायात, स्वास्थ्य सेवा, इत्यादि के लिए उत्तरदायी असंख्य संस्थाओं की सहायक आधारभूत सुविधाओं के बिना तो हम जीवित ही नहीं रह सकते। प्रमुख एवं सु-प्रचारित आपदाओं, जैसे 2007-2009 की अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मंदी तथा जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक स्तर के हिंसक संघर्षों की उत्तरोत्तर बढ़ती चिंता वैश्विक स्तर पर इस प्रकार की आर्थिक और पर्यावरणीय परस्पर निर्भरता को दर्शाती है।

परम्परागत समाजों में लोगों में आपसी जुड़ाव उनके दैनिक जीवन में अधिक गहराई से समाया हुआ था। जीवित बने रहना प्रायः साधनों का सांझा करने एवं उनके आदान-प्रदान तथा अन्य प्रकार के सामाजिक सहयोग पर आश्रित होता था, जैसे फसल काटना, मकान बनाना, हिंसक जानवरों को भागना, इत्यादि। औद्योगिक क्रांति के साथ ही, अपनी आर्थिक अवस्था को सुधारने के मोह में, हम अधिक भ्रमणशील होकर अपने समुदाय से बिछुड़ गए हैं। यह भ्रामक स्वाधीनता का हेतु बन गया है, जिसके कारण, वयस्क होने पर हमें लगाने लगता है कि हमें दूसरों की आवश्यकता नहीं है। आत्मनिर्भरता का यह भ्रामक बोध बढ़ते हुए मानसिक और सामूहिक एकाकीपन का कारण बन जाता है। हम पूर्णतया सामाजिक प्राणी हैं जिनका अस्तित्व एवं मानसिक कल्याण दूसरों से सम्बन्धों पर निर्भर है।

व्यवस्था के सन्दर्भ में व्यक्ति 

अन्योन्याश्रित व्यवस्थाओं की समझ को सार्थक बनाने के लिए, उसे इस तथ्य का पूरक बनाना है कि हम इस बृहत् फलक में किस प्रकार जुड़े हुए हैं। इससे हम इस भ्रामक दृष्टिकोण का खंडन कर सकते हैं कि हम दूसरों से असम्पृक्त हैं, अथवा किसी न किसी प्रकार से बृहत् व्यवस्था से पृथक हैं। इसके तिगुने परिणाम हैं: 

  • दूसरों के लिए मूलभूत स्तर पर निश्छल कृतज्ञता-भाव
  • दूसरों के जीवन को प्रभावित करने की संभाव्यता का गहनतम बोध 
  • व्यापकतर कल्याण सुनिश्चित करने हेतु कार्य करने की बढ़ती आकांक्षा 

हम यहाँ से आरम्भ करते हैं कि हमारा व्यवहार दूसरों को कैसे प्रभावित करता है और उनका व्यवहार हमारे ऊपर क्या असर डालता है। तत्पश्चात हम इसपर ध्यान देंगे कि अन्य लोग हमारे कल्याण में कितने प्रकार से योगदान देते हैं। एक सूची बनाकर उसे बार-बार जाँचकर हम यह काम कर सकते हैं। केवल हमारे सामाजिक क्षेत्र के ज्ञात लोगों पर ध्यान केंद्रित करने के स्थान पर हम व्यक्तियों, समूहों, एवं व्यवस्थाओं की एक विस्तृत श्रेणी को समाविष्ट करते हैं, चाहे हम उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानें  या न जानें। अपने भीतर दूसरों के लिए अकृत्रिम कृतज्ञता जगाने के लिए इस बात को समझने की आवश्यकता है कि अगणित व्यक्तियों के सहारे के बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते - समृद्ध होना तो दूर की बात है।

हमारे जीवन का साथ देने वाले सामाजिक तंत्र में प्रत्येक व्यक्ति एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस बात को स्वीकार कर लेने से हमारे भीतर प्रतिदान का बोध जाग उठता है। फिर यह स्वीकार करने से पहले कि संभवतः उसमें लाभ है, हमें यह जानने की आवश्यकता नहीं है कि लोग हमारी सहायता वास्तव में किस प्रकार कर रहे हैं। जैसे-जैसे यह बोध बढ़ता जाता है, सम्बन्ध की पारस्परिक हितकारी प्रकृति संकीर्ण स्वार्थ-केंद्रित अथवा प्रतियोगी दृष्टिकोण पर धीरे-धीरे प्राथमिकता प्राप्त करती जाती है। औरों के साथ बढ़ता हुआ यह सह-सम्बन्ध हमारी सहानुभूति-जन्य हर्ष की क्षमता में वृद्धि करके तत्काल अकेलेपन का प्रतिकार करेगा। यह दूसरों की कार्यसिद्धि पर हमें भी प्रसन्न होने की अनुमति देता है तथा, ईर्ष्या और जलन तथा कठोर आत्मालोचन अथवा दूसरों के साथ अवास्तविक तुलना करने के प्रतिकारक भी प्रदान करता है। 

समान मानवता का सम्मान करना

परस्पर सम्बन्ध का गहन बोध, विशेष रूप से समानुभूति-जन्य सरोकार के सामाजिक क्षेत्र में कुशलता के साथ विकसित, दूसरों के प्रति और अधिक सरोकार तथा सबकी पारस्परिक सम्बद्धता को समझने की ओर ले जाता है। फिर, समान मानवता की पहचान को स्पष्टतया विकसित करके इसे सशक्त, विकसित, एवं सुदृढ़ किया जा सकता है। यहाँ हम विवेचनात्मक चिंतन से यह समझने का प्रयास करते हैं कि मूलभूत स्तर पर कैसे सभी मनुष्यों के आतंरिक जीवन तथा जीवन की परिस्थितियाँ कुछ-कुछ मिलती-जुलती होती हैं। इस प्रकार, हम किसी भी स्थान के किसी भी व्यक्ति विशेष के साथ बंधुत्व, समानुभूति, एवं सहानुभूति को एक निश्चित स्तर तक बढ़ावा दे सकते हैं, यहाँ तक कि उन लोगों के साथ भी जो हमसे बहुत दूर रहते हैं अथवा हमसे पृथक जान पड़ते हैं। हम अपनी सहभाजित मानवता का विश्लेषण दो सन्दर्भों में सकते हैं:

  • सभी लोगों की मूलभूत समानता को मानना 
  • सुख-समृद्धि पर व्यवस्थाओं के प्रभाव को मानना 

सभी लोगों की समानता को मानने का तात्पर्य यह है कि हम यह समझें कि सब लोगों की आकांक्षाएँ - हमारे परिवारजन और मित्रों से लेकर सुदूर रहते अपरिचितों तक - अपने अपने सुख और स्वास्थ्य के प्रति सजगता एवं दुःख से बचने के विषय में मूलतः समान हैं। किस प्रकार व्यवस्थाएँ सुख-समृद्धि को प्रभावित करती हैं, इसे मानने का अर्थ है यह समझना कि वैश्विक व्यवस्थाएँ, सकारात्मक मूल्यों को अपनाकर, अथवा समस्याकारी विश्वासों को बनाए रखकर, सुख-समृद्धि को या तो बढ़ावा देती हैं, या उसे संकट में डाल देती हैं।

सभी लोगों की मूलभूत समानता को स्वीकारना 

मौलिक मानवाधिकार के बोध को हम अपने समीप के समुदाय से बाहर रहने वालों की ओर भी प्रसरित करते हैं। और अंत में हम पूरे संसार को ही इस बोध के क्षेत्रफल में समाविष्ट करते हैं। हमारे फलने-फूलने की इच्छा एवं व्यसन तथा असंतुष्टि से बचने की अभिलाषा जैसे उन सभी विषयों पर ध्यान केंद्रित करके, जो मनुष्य होने के नाते हम सब में विशिष्ट है, हम इसे कार्यान्वित करते हैं। यह हमारे अपने पूर्वग्रह तथा दूसरों की आवश्यकताओं को नगण्य समझने की प्रवृत्ति को कम करता है।

दूसरों को इस प्रकार एक समान समझकर हम अपने "अन्तः समूह" में अन्य राष्ट्रीयता, जातीयता, धर्म, इत्यादि के लोगों को भी सम्मिलित कर सकते हैं। एक व्यक्ति के रक्तदान से लेकर प्राकृतिक आपदा में धर्मार्थ-दान का प्रवाह, एवं किसी एक समुदाय-विशेष का सदस्य न होने पर भी उस समुदाय के विरुद्ध हो रहे अन्याय का विरोध करना जैसे कार्य इस क्षमता को अनेक रूपों में अभिव्यक्त करता है। परस्पर निर्भरता को स्वीकारने की कुशलता एवं दूसरों के लिए समानुभूति-जन्य सरोकार, दूसरों के साथ सम्बद्ध होने के मार्ग की बाधाओं का प्रतिकारक बन सकता है, जैसे पूर्वग्रह, पृथकता का आभास, तथा हमारे निकटतम समुदाय के बाहर रहने वालों की समस्याओं के प्रति उदासीनता।

जब हम अपने पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं, तो संसार बहुत ही क्षुद्र लगता है और हमारी चिन्ताएँ विशालकाय। परन्तु जब हम दूसरों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो यह संसार विस्तृत हो जाता है। हमारी समस्याएँ हमारे मन की परिधि में सिमट जाती हैं और इसलिए क्षुद्रतर लगने लगती हैं, और हम अपनी सहबद्धता तथा सहानुभूतिपूर्ण कार्य करने की क्षमता को बढ़ाते हैं।

सुख-समृद्धि पर व्यवस्थाओं के प्रभाव को समझना

सांस्कृतिक तथा संरचनात्मक स्तरों पर व्यवस्थाएँ सुख-समृद्धि को या तो बढ़ावा दे सकती हैं, या उसे संकट में डाल सकती हैं - सकारात्मक मूल्यों को अपनाकर, अथवा समस्याकारी विश्वासों एवं विषमताओं को बनाए रखकर। हम समय निकालकर इस बात पर विचार कर सकते हैं कि हमें कैसा लगता है जब और यदि हमें असमानता, पूर्वधारणा, पूर्वग्रह, अथवा पक्षपात का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की समस्यात्मक व्यवस्थाओं के प्रभाव को दर्शाने के लिए हम इतिहास अथवा आज के ताज़ा उदाहरण ले सकते हैं। अंत में, हम इसकी भी जाँच कर सकते हैं कि क्या पक्षपात और पूर्वग्रह कभी भी वस्तुतः न्यायसंगत हो सकते हैं, अथवा क्या सभी मनुष्यों को आनंदप्राप्ति का समान अधिकार है।

अपनी समानुभूति का परिधि-विस्तार अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य होने के नाते व्यापक स्तर पर व्याप्त दुःख, अथवा वैश्विक स्तर की समस्याओं के प्रति स्वतः समानुभूति की हमारे भीतर जन्मजात क्षमता नहीं है। उदाहरण के लिए, हमारी समानुभूति की प्रवृत्ति प्रायः एकाधिक पीड़ितों की तुलना में एक व्यक्ति-विशेष के प्रति अधिक प्रबल होती है। तथापि, वैधानिक एवं सांस्कृतिक विषयों को समझने से दुःख-कष्ट के प्रति हमारी प्रतिक्रिया के परिष्करण के साथ साथ उसके प्रति हमारी अंतर्दृष्टि एवं उसकी स्वीकृति भी समुन्नत होगी।

जनसाधारण की पहचान से हम दूसरों की अवधारणाओं एवं अपेक्षाओं के अधिक यथार्थवादी बोध प्राप्त करने के साथ ही प्रजातीय तथा सामुदायिक समूहों के साथ जुड़ना और सहयोग करना भी सीख सकते हैं। यह जानकर कि दूसरों के साथ हम क्या सांझा कर रहे हैं, हम प्रकट भिन्नता पर संदेह करने के स्थान पर उसे स्वीकार कर सकते हैं, जिससे पूर्वग्रह और एकाकीपन में कमी आएगी। यह जानकर कि व्यक्तियों के क्षेम को प्रणालियाँ किस प्रकार विकसित करती हैं, हमारी सहनशीलता के साथ-साथ मानवता के दुःख एवं कष्टों के संभावित समाधान के प्रति हमारा विवेचनात्मक चिंतन भी गहनतर एवं अधिक व्यापक हो जाएगा ।

समुदाय तथा वैश्विक व्यवहार

परस्पर संबंधों का मोल समझने, दूसरों के द्वारा अपनी लाभ-प्राप्ति के मार्गों के साथ सुर मिलाने, तथा हमारी सहभागी मानवता को स्वीकार करने से हमारे भीतर उत्तरदायित्व के अनुभव के साथ कार्य करने की अभिलाषा भी उत्पन्न होगी। फिर हम नैसर्गिक रूप से हमारे प्रति समाज की कृपा के प्रतिदान के विषय में चिंतन करेंगे, तथा जो लोग संघर्ष कर रहे हैं और जो अभावग्रस्त हैं, उनके हित में कार्य करने की हमारे मन में इच्छा होगी। फिर भी, हम जटिल व्यवस्थाओं अथवा एक सामुदायिक या वैश्विक स्तर पर किस प्रकार प्रभावपूर्ण ढंग से व्यवहार कर सकते हैं ?

सी (SEE) लर्निंग का एकमात्र उद्देश्य है हमारी करुणामय विश्व नागरिक बनने की क्षमता को पहचानना एवं उसे यथार्थ रूप देना। इसे सिद्ध करने के लिए दो उपाय हो सकते हैं:

  • समुदाय तथा संसार में सकारात्मक परिवर्तन लाने की हमारी क्षमता 
  • सामुदायिक एवं वैश्विक समाधान से में सम्बद्ध होना

ये दोनों बातें समरूप हैं, परन्तु पहला बिंदु हमारी यह जानने में सहायता करता है कि अपनी क्षमताओं और अवसरों के आधार पर सार्थक परिवर्तन लाने के लिए हम स्वयं क्या कर सकते हैं। दूसरा बिंदु हमें समाज एवं संसार को प्रभावित करने वाले प्रश्नों के रचनात्मक समाधान ढूंढ़ने में सहायता करता है।

समाज एवं संसार में सार्थक परिवर्तन लाने की हमारी क्षमता

यदि हमें समाज तथा संसार में व्यवहार करना है एवं उसकी आवश्यकताओं पर ध्यान देना है जो हमारे और दूसरों के लिए हितकारी हो, और साथ ही यथार्थवादी एवं प्रभावी हो, तो हमें अपनी क्षमता तथा सीमाओं दोनों को ही जानना होगा। यह जानना आवश्यक है कि सबकुछ हमारे तत्काल नियंत्रण में नहीं है, और चिरकालिक समस्याओं को बदलने में समय लगता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम प्रभावशाली कार्यवाही नहीं कर सकते । वास्तव में, जटिल समस्याओं का सामना करते हुए यदि हमें विवशता का अनुभव होता है, तो इससे हमारे भीतर दूसरों तथा अपने लिए करुणा उत्पन्न करना और अधिक दुःसाध्य हो जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि सहानुभूति - दुःख निवृत्ति की इच्छा या लक्ष्य - आशान्वित होने पर निर्भर होती है - वह विश्ववास कि क्लेश कम किया जा सकता है।

यद्यपि हम पूरी व्यवस्था को बदल नहीं सकते, हम व्यवस्था के मुख्य तत्वों पर ध्यान केंद्रित करके परिवर्तन को परिवर्धित करने का प्रयास कर सकते हैं। इससे वैश्विक तथा मौलिक समस्याओं के अनुपात से पराभूत हुए बिना ही सशक्तिकरण का अनुभव प्राप्त होता है। यदि हम व्यवस्था के उन मुख्य कारकों को पहचान लें जो उस व्यवस्था को प्रभावित करते हैं, तो उन कारकों पर ध्यान केंद्रित कर महत्त्वपूर्ण परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि यद्यपि हम तुरंत बृहत् स्तर के परिणाम सम्पादित न भी कर सकें, हम जो निम्न स्तर के परिवर्तन ला सकते हैं, वे भी अत्यंत उपयुक्त सिद्ध होंगे। आज के छोटे स्तर के परिवर्तन कालांतर में बड़े स्तर के परिवर्तन में बदल सकते हैं। संघटित छोटे-छोटे कामों के संचयन से बृहत् स्तर के परिवर्तन लाए जा सकते हैं, जैसे भरावक्षेत्र के कूड़े से फिर से काम में आ सकने वाली वस्तुओं को अलग करना। परस्पर निर्भर व्यवस्थाओं के सम्पूर्ण बोध से हमें यह विश्वास हो जाता है कि छोटे स्तर पर किए गए कार्य तथा आचरण भविष्य में बड़े स्तर के प्रभाव को व्यवस्थित करते हैं, यद्यपि वे परिणाम वर्तमान में दृष्टिगोचर नहीं होते।

जटिल सामूहिक एवं वैश्विक विषयों को छोटे-छोटे भागों में बाँटकर सरलीकृत किया जाना चाहिए ताकि उनका विश्लेषण हो सके और उनसे निपट सकें। जब हम यह समझते हैं कि किस प्रकार हमारा व्यवहार समस्याओं के इन छोटे-छोटे घटकों को सुलझाता है, और किस प्रकार ये घटक बृहत्तर व्यवस्थाओं में अन्योन्याश्रित रूप से सम्बद्ध हैं, हमारे अंदर विश्वास के साथ प्रतिनिधित्व एवं सशक्तिकरण का बोध जाग उठेगा। इसके लिए हमें विवेचनात्मक चिंतन कौशल की आवश्यकता है। यहाँ, विवेचनात्मक चिंतन कौशल में मूलभूत मानव मूल्यों के आधार पर जटिल समस्याओं पर विचार करना सम्मिलित है। यद्यपि इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इस आधार पर किए गए कार्यों को लोग निश्चित रूप से लाभप्रद समझेंगे, विवेचनात्मक चिंतन से उपयोगी परिणाम को प्राप्त करने की संभाव्यता बढ़ेगी।

सामुदायिक एवं वैश्विक समाधानों से सम्बद्ध होना

समस्याओं का समाधान ढूंढ़ निकालना भले ही हमारे सामर्थ्य से बाहर हो, फिर भी हम समस्याओं एवं उनके संभावित समाधानों पर विचार तो कर ही सकते हैं। हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उनकी थाह लेने के लिए इस प्रारूप का प्रयोग कर सकते हैं: 

  • व्यवस्थाओं तथा उनकी जटिलताओं को समझना 
  • व्यवहार के लघु एवं दीर्घ अवधि के परिणामों का मूल्यांकन करना 
  • मूलभूत मानव मूल्यों के सन्दर्भ में स्थितियों को आँकना 
  • नकारात्मक भावनाओं एवं पूर्वग्रहों के प्रभाव को कम करना 
  • उदार, सहयोगपूर्ण, तथा बौद्धिक रूप से विनयशील मनोदृष्टि को विकसित करना
  • किसी भी कार्यविधि के पक्ष-विपक्ष पर विचार करना

बहुधा, लघु- एवं दीर्घ-कालिक परिणामों पर विचार किए बिना ही कार्यवाही की जाती है। जब हम एक विषय-विशेष की जाँच करते हैं, तो हमें किसी भी कार्यवाही की योजना से प्रभावित होने वाले सभी जन-वर्गों को ध्यान में रखना चाहिए। यदि हम इस विधि का पालन करते हैं और इससे परिचित हो जाते हैं, तो उस कार्यवाही के विस्तृत आशय तथा उसके प्रथम-दृष्टया विषय से सुदूर प्रतीत होने वाले लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव के विषय पर सुगमता से विचार करने लगेंगे। हमें इस पर भी विचार करना होगा कि समस्याएँ मूलभूत मानव मूल्यों से किस प्रकार सम्बंधित हैं, तथा किस प्रकार उनका समाधान व्यक्तिगत, सामाजिक, एवं वैश्विक खुशहाली को बढ़ावा देता है।

सामुदायिक और वैश्विक व्यवहार को एक ऐसे उदार मनोभाव से समर्थन मिलता है जो दूसरों के साथ सहयोग करने, तथा उनके दृष्टिकोण, विचार, ज्ञान, एवं अनुभव का सम्मान करने के लिए तत्पर है। एक स्वस्थ विचार-विमर्श तभी संभव है जब हम यह मान लेते हैं कि, यद्यपि दूसरों के दृष्टिकोण हम से भले ही भिन्न क्यों न हो, उन्होंने भी अपनी तर्क करने की योग्यता एवं अनुभव से ही अपना दृष्टिकोण बनाया है। बौद्धिक विनम्रता एवं उदार मनोभाव के बिना विचार-विमर्श और पारस्परिक मतैक्य असंभव हो जाता है, और वार्तालाप निरर्थक टकराव तथा सत्ता संघर्ष की ओर पथभ्रष्ट हो जाता है।

ऐसी कतिपय गंभीर समस्याएँ हैं जिनका समाधान हम अकेले व्यक्तिगत रूप से बिना दूसरों के सहयोग एवं सहायता के ढूंढ़ सकते हैं, जिसके लिए अपने विचारों और मूल्यों को स्पष्ट एवं मुखर रूप से सम्प्रेषित करने की क्षमता अपेक्षित है। अतः अपने दृष्टिकोण को व्यक्त करने, प्रश्न पूछने, दूसरों से सीखने, एवं रचनात्मक रूप से विचार-विमर्श में सम्मिलित होने की क्षमता सामूहिक एवं वैश्विक व्यवहार में अत्यधिक सहायक सिद्ध होती है । अपने विवेचनात्मक चिंतन एवं चिर-पोषित मूल्यों के आधार पर विचारों को स्पष्टतः एवं प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने तथा शक्तिदायक एवं प्रेरक रूप से बोलने की क्षमता, यहाँ तक कि समाज के उन निःशब्द वर्गों की ओर से भी, वैश्विक नागरिक एवं रूपांतरकारी नायकों के रूप में हम सब के लिए एक प्रभावशाली कौशल है।

सारांश

पहले दो भागों में हम ने यह देखा कि हम किस प्रकार अपने मनोभावों को संचालित कर सकते हैं तथा अपने परिवारजनों, मित्रों, एवं सहकर्मियों के साथ मिलजुलकर रह सकते हैं। इस तीसरे और अंतिम भाग में, हम ने यह समझना प्रारम्भ किया है कि किस प्रकार संसार परस्पर निर्भर है, किस प्रकार सब लोगों को सुख की सामान्य इच्छा और दुःख से बचने की कामना है, एवं किस प्रकार हमारा व्यवहार विस्तृत वैश्विक परिवर्तन लाने में योगदान दे सकता है।

हम एक जटिल संसार में रह रहे हैं। वयस्क होने के नाते हमें प्रायः ऐसा लगता है कि हम किसी की सहायता के बिना ही स्वयं जीवित रह सकते हैं। ऐसा बोध हो सकता है कि संसार के दूसरे लोग हमारे लिए कोई महत्त्व नहीं रखते हैं - वे सब आखिर हम से कितने अलग हैं। प्रायः ऐसा भी लग सकता है कि संसार में किसी प्रकार का वास्तविक परिवर्तन लाना अत्यंत कठिन अथवा असंभव है। जब हम अपनी स्थिति की वास्तविकता को समझ लेते हैं - किस प्रकार हमारा आहार, कपड़े, गाड़ियाँ इत्यादि सब में दूसरों का योगदान है - हमारे मन में उनके प्रति स्वाभाविक रूप से कृतज्ञता उत्पन्न होगी। जब हम यह देखते हैं कि ये सभी मनुष्य हमारी तरह आनंद ही चाहते हैं, हमारे भीतर यह कामना होगी कि वे भी सुखी रहें। अंत में, इस बोध के साथ कि छोटे-छोटे कृत्य एक दूसरे से जुड़कर बड़े परिणामों में परिवर्तित होते हैं, हमें यह आत्मविश्वास मिलेगा कि हमारा रचनात्मक कार्य - चाहे वह कितना भी क्षुद्र क्यों न हो - संसार के लिए लाभप्रद होगा।

इस प्रशिक्षण-पद्धति का उद्देश्य यह नहीं है कि एक बार पढ़ लिया और फिर भूल गए; हमें इसे बिंदुवार शैली में व्यवहार में लाना होगा। मनुष्य सभी एक दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु हम अनगिनत व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्थितियों से गुज़रते हुए कई चुनौतियों का सामना करते हैं। जब जीवन के उतार-चढ़ाव की बात आती है, तो आत्म-हित से प्रेरित कार्यों एवं परहित को ध्यान में रखकर किए गए कार्यों के बीच स्पष्ट अंतर होता है। अपने मनोवेगों एवं पूर्वग्रहों के व्यापक बोध के साथ-साथ अपनी प्रतिक्रियाओं को संभालने एवं स्थितियों का समीक्षात्मक रूप से परीक्षण करने की क्षमता से हम अपने जीवन में आई किसी भी आकस्मिक घटना को संभाल सकते हैं। हम और आगे बढ़कर भलाई की शक्ति बनने की हमारी असीम सम्भाव्यता को पहचान सकते हैं: हमारी अपनी भलाई, दूसरों की भलाई, तथा इस व्यापक संसार की भलाई।


यदि आप और अधिक जानकारी चाहते हैं, तो कृपया एस.ई.ई. लर्निंग फ्रेमवर्क के पूर्ण संस्करण को पढ़ें और सेंटर फॉर कंटेम्प्लेटिव साइंस एंड कम्पैशन-बेस्ड एथिक्स के ­अन्य कार्यक्रमों के बारे में भी जानें।

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