परम पावन दलाई लामा के 90वें जन्मदिन के इस उत्सव का हिस्सा बनना और आज 21वीं सदी के लिए उनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं की प्रासंगिकता पर आपसे बात करना मेरे लिए बहुत सम्मान की बात है। परम पावन की दृष्टि में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्या है यह हम उन तीन विषयों से भाँप सकते हैं जिन पर परम पावन बार-बार लौटते हैं। ये हैं मानवता की एकता, उनके दैनिक ध्यान के दो केंद्र, और उनकी चार महान प्रतिबद्धताएँ। वैज्ञानिकों के साथ उनकी चर्चा सहित कई अन्य पहलू भी हैं, जिनका उल्लेख किया जा सकता है, लेकिन मैं केवल इन तीन विषयों पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहूँगा। मैं यह जानने का दावा नहीं कर सकता कि परम पावन इन विषयों की प्रासंगिकता के बारे में क्या सोचते हैं, लेकिन उन्होंने जो सार्वजनिक रूप से साझा किया है, उसके आधार पर हम कुछ बिंदुओं का अनुमान लगा सकते हैं।
पहला है मानवता की एकता – और व्यापक रूप से, समय और स्थान के पार, सभी संवेदनशील जीवों की एकता। यह एकता इस तथ्य पर आधारित है कि हर कोई सुखी रहना चाहता है, और कोई भी दुःख नहीं चाहता। चूँकि दुनिया जिन कठिनाइयों का सामना कर रही है, जैसे कि वैश्विक ताप वृद्धि, जो सभी को प्रभावित करेंगी, इसलिए उनसे निपटने के लिए उठाए गए सभी कदम भी सभी को प्रभावित करेंगे। बुद्धिमानी से चुनाव करना सभी संवेदनशील जीवों की एकता और परस्पर संबद्धता को समझने पर निर्भर करेगा।
दूसरा बिंदु जो परम पावन प्रायः कहते हैं, वह यह है कि उनका दैनिक अभ्यास बोधिचित्त पर केंद्रित है - सभी प्राणियों के लिए ज्ञानोदय प्राप्त करने की करुणामयी इच्छा - और शून्यता या शून्यता के दृष्टिकोण पर। बोधिचित्त लोगों को अपनी कमियों पर विजय पाने और अपनी क्षमताओं को साकार करने के लिए कार्य करने का साहस और उद्देश्य प्रदान करता है ताकि वे सभी जीवों की सर्वोत्तम सहायता कर सकें। अनिश्चित भविष्य के संदर्भ में यह विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। शून्यता के सही दृष्टिकोण के साथ, लोग अपने, दूसरों के और उनके सामने आने वाली चुनौतियों के वास्तविक अस्तित्व के बारे में अपनी भ्रांतियों को दूर कर पाएँगे। परिणामस्वरूप, वे कारण और प्रभाव पर आधारित स्पष्टता, अंतर्दृष्टि और प्रभावी कार्रवाई के साथ प्रतिक्रिया करने में सक्षम होंगे।
अब हम परम पावन की चार महान प्रतिबद्धताओं पर आते हैं, जिन्होंने विश्व में उनके अधिकांश कार्यों को परिभाषित किया है। पहला है दया, ईमानदारी और क्षमा जैसे सार्वभौमिक मूल्यों को आधुनिक शिक्षा प्रणाली में शामिल करके धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को बढ़ावा देना। आज के बच्चे ही कल की चुनौतियों का सामना करेंगे। उनके निर्णयों का मार्गदर्शन करने और एक अधिक करुणामय विश्व के निर्माण के लिए केवल भौतिक मूल्यों की नहीं, बल्कि आत्मिक मूल्यों की आवश्यकता है।
दूसरा है बौद्ध परंपराओं और दुनिया के प्रमुख धर्मों के बीच धार्मिक सद्भाव के प्रति उनकी प्रतिबद्धता। परम पावन अक्सर कहते हैं कि धर्म में निहित संघर्ष अब पुराना हो चुका है। इस शताब्दी में वास्तविक समाधान केवल संवाद, आपसी सम्मान और समझौते से ही निकलेगा।
तीसरा, परम पावन तिब्बती संस्कृति – उसकी भाषा, चिकित्सा-पद्धति, पर्यावरण और नालंदा परंपरा – के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं। तिब्बती संस्कृति बौद्ध धर्म पर आधारित है, और तिब्बती बौद्ध धर्म, नालंदा परंपरा में समाहित, भारत में बौद्ध धर्म के पूर्ण विकास को संरक्षित करने में अद्वितीय है। तर्क और वाद-विवाद में अपने कठोर प्रशिक्षण के साथ, यह परंपरा आज दुष्प्रचार और विकृतियों का मुकाबला करने के एक साधन के रूप में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। तिब्बती भाषा में भारतीय बौद्ध ग्रंथों के सबसे पूर्ण अनुवाद मौजूद हैं। जहाँ अन्य प्रणालियाँ अपर्याप्त हैं, वहाँ तिब्बती चिकित्सा-पद्धति विकल्प प्रदान करती है। और तिब्बत के नाज़ुक पर्यावरण का संरक्षण पूरे एशिया के लिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी नदियाँ महाद्वीप के अधिकांश भाग को जल प्रदान करती हैं।
चौथा, परम पावन का प्रयास है कि भारत की प्राचीन चित्त संबंधी शिक्षाओं, बौद्ध और ग़ैर-बौद्ध, को भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली में पुनः समाहित किया जाए। ये शिक्षाएँ मन और भावनाओं की गहरी समझ और उनके साथ काम करने का तरीका प्रदान करती हैं। छात्रों को यह शिक्षा देने से उन्हें जीवन की चुनौतियों का सजगता और ज़िम्मेदारी के साथ सामना करने के साधन मिलते हैं। भारत में इन शिक्षाओं को पुनर्जीवित करना कृतज्ञता का भी प्रतीक है, क्योंकि सदियों पहले भारत ने ही तिब्बत को यह ज्ञान दिया था।
परम पावन न केवल स्वयं इन प्रतिबद्धताओं का अथक पालन करते हैं, बल्कि वे हममें से कई लोगों को, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, उनके प्रयासों में शामिल होने के लिए प्रेरित और सशक्त करते हैं। परम पावन की आध्यात्मिक शिक्षाएँ शाश्वत हैं, लेकिन उनकी वैश्विक प्रतिबद्धताएँ हमारी वर्तमान शताब्दी के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक हैं। मुझे लगता है कि परम पावन को उनके 90वें जन्मदिन के इस पावन अवसर पर सबसे अच्छा उपहार यही है कि हम उनके प्रयासों में उनका सहयोग करने के लिए हर संभव प्रयास करें। परम पावन ने हमें मार्ग दिखाया है, अब यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनकी कृपा का बदला चुकाएँ और उनके मार्गदर्शन का अनुसरण करें।
भविष्य के प्रति परम पावन का दृष्टिबोध दशकों पहले से ही उनके कार्यों का मार्गदर्शन करता रहा है। इसे स्पष्ट करने के लिए, मैं आपके साथ कुछ उदाहरण साझा करना चाहता हूँ जिन्हें मैंने स्वयं देखा, आयोजित किया या अनूदित किया है।
प्राकृतिक आपदाएँ, चाहे कहीं भी आई हों, मानवता के एकत्व के प्रति समर्पित परम पावन ने राहत कार्यों के लिए उदार दान दिया है। उन्होंने सामाजिक उथल-पुथल के समय भी मदद की है। उदाहरण के लिए, वे पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के नेताओं और लोगों द्वारा साम्यवाद के पतन के बाद संक्रमण के दौरान आने वाली कठिनाइयों को लेकर बहुत चिंतित थे। जब राष्ट्रपति वाक्लाव हवेल ने उन्हें पदभार ग्रहण करने के कुछ ही सप्ताह बाद चेकोस्लोवाकिया आने और उन्हें तथा उनकी टीम को अपनी नई ज़िम्मेदारियों के तनाव से उबरने के लिए ध्यान विधियाँ सिखाने के लिए आमंत्रित किया, तो उन्होंने अत्यंत अल्प सूचना पर वहाँ की यात्रा की। इसी प्रकार, बोरिस येल्तसिन के प्रथम उप-राष्ट्रपति के अनुरोध पर, परम पावन ने रूसी सांसदों की सहायता के लिए तिब्बती डॉक्टरों को भेजा, जो उस समय तनाव से जूझ रहे थे जब रूस सोवियत संघ से अपनी स्वतंत्रता का दावा करने लगा था।
1990 में, सोवियत स्वास्थ्य मंत्रालय ने चेरनोबिल आपदा के पीड़ितों के इलाज के लिए तिब्बती डॉक्टरों से अनुरोध किया। परम पावन ने करुणापूर्वक सहमति व्यक्त की और अपने निजी चिकित्सक, डॉ. तेनज़िन चोएद्राक को भेजा। दुर्भाग्य से, प्रायोगिक परीक्षणों की सफलता के बावजूद, सोवियत संघ के विघटन के बाद चिकित्सा परियोजना को बंद करना पड़ा, क्योंकि रूस, यूक्रेन और बेलारूस सहयोग पर सहमत नहीं हो सके। हालाँकि, सक्रिय करुणा का यह उदाहरण दर्शाता है कि परम पावन का ध्यान-साधना का मुख्य केंद्र कभी भी केवल निजी अभ्यास तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह सक्रिय करुणा ही हमेशा उनकी गतिविधियों का सक्रिय मार्गदर्शक सिद्धांत रही। अपनी शून्यता और अपने सभी कार्यों में निहित शून्यता की उनकी गहरी समझ न केवल शून्यता-सम्बन्धी उनकी गहन शिक्षाओं में, बल्कि प्रशंसक भीड़ के सामने विनम्र बने रहने और बिना किसी दबाव या तनाव के बड़ी संख्या में परियोजनाओं का संचालन करने की उनकी क्षमता में भी स्पष्ट है।
बच्चों को धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की शिक्षा देने के लिए स्कूली पाठ्यक्रम का विस्तार करने की परम पावन की प्रतिबद्धता के संदर्भ में, उन्होंने एमोरी विश्वविद्यालय में ‘सामाजिक, भावनात्मक और नैतिक (एसईई) शिक्षण कार्यक्रम’ के विकास की पहल की है। 24 भाषाओं में अनूदित, इसे 41 से अधिक देशों के स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया है।
परम पावन ने हमेशा अंतरधार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया है, जो उनकी दूसरी सबसे बड़ी प्रतिबद्धता है। भारत आने के बाद उनकी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा 1967 में जापान और थाईलैंड के बौद्ध नेताओं से मिलने के लिए हुई थी, और यूरोप की उनकी पहली यात्रा का पहला पड़ाव वेटिकन में पोप पॉल VI से मुलाकात थी। आने वाले वर्षों में, उन्होंने कई ईसाई और यहूदी नेताओं के साथ कई अंतर्धार्मिक कार्यक्रमों में भाग लिया, और हमेशा सार्वजनिक प्रार्थना सभाओं के स्थान पर प्रेम विकसित करने के लिए उनकी शिक्षाओं और ध्यान विधियों पर निजी चर्चाओं को प्राथमिकता दी। इस संबंध में, उन्होंने 1990 में यहूदी आध्यात्मिक नेताओं के एक समूह को धर्मशाला आमंत्रित किया। उन्होंने इसी तरह की चर्चाओं के लिए मुस्लिम नेताओं को भी आमंत्रित किया, जैसे कि 1994 में गिनी के वंशानुगत सूफी नेता डॉ. तिर्मिज़ियो डायलो को। दोनों ही पक्षों के लिए यह भेंट बहुत भावभीनी तथा मर्मस्पर्शी थी।
तब से, परम पावन कई मुस्लिम नेताओं से मिल चुके हैं और उन्होंने ‘बर्ज़िन अभिलेखागार’ में हमसे अनुरोध किया है कि हम अपनी ‘स्टडी बुद्धिज़्म’ वेबसाइट की सामग्री सभी प्रमुख इस्लामी भाषाओं में उपलब्ध कराएँ, जो हमने किया भी है। चूँकि जानकारी के अभाव में अक्सर भ्रांतियां पैदा होती हैं, इसलिए हमने परम पावन के अनुरोध को आगे बढ़ाया है और अपनी सामग्री का हिब्रू और सभी एशियाई बौद्ध देशों की भाषाओं में भी अनुवाद करवाया है।
परम पावन की तीसरी महान प्रतिबद्धता, तिब्बती संस्कृति के संरक्षण के लिए प्रयास भी उनके भारत आने के कुछ समय बाद ही शुरू हो गए। 1960 में धर्मशाला में, उन्होंने पहला ‘तिब्बती बाल ग्राम’ खोला। 1961 में, उन्होंने माई लैंड एंड माई पीपल नामक पुस्तक लिखी और अगले वर्ष उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाया। अगले चरण के रूप में, 1962 में, उन्होंने किशोर शारपा और खामलुंग रिन्पोचे, साथ ही गेशे सोपा और लामा कुंगा को कलमीक मंगोल गेशे वांग्याल के मार्गदर्शन में अंग्रेज़ी सीखने और धर्म अनुवादक बनने के लिए न्यू जर्सी भेजा।
1965 में नई दिल्ली में, परम पावन ने तिब्बती सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पहला ‘तिब्बत हाउस’ खोलने की व्यवस्था की और 1966 से दक्षिण भारत में ल्हासा के प्रमुख मठों की पुनर्स्थापना शुरू की। फिर 1967 में, उन्होंने सारनाथ में ‘केंद्रीय उच्च तिब्बती अध्ययन संस्थान’ का उद्घाटन किया।
जहाँ तक मुझे पता है, परम पावन ने बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद का काम 1969 में शुरू किया था, जब मैं हार्वर्ड में अपने पीएचडी शोध प्रबंध पर शोध करने भारत आया था और उनसे पहली बार मिला था। उन्होंने मुझे शारपा और खामलुंग रिन्पोचे के साथ अनुवाद करने के लिए एक ग्रंथ दिया था। ये दोनों रिन्पोचे पिछले साल भारत लौटे थे और गेशे वांग्याल के माध्यम से मेरा उनसे संपर्क हुआ था। हमने रिन्पोचे के गुरु, गेशे न्गवांग धारग्ये के मार्गदर्शन में उस ग्रंथ का अनुवाद किया। हमारा यह साथ-साथ किया गया काम अंततः ‘तिब्बती ग्रंथ एवं अभिलेखागार पुस्तकालय’ के ‘अनुवाद विभाग’ के रूप में विकसित हुआ।
तिब्बती संस्कृति के संरक्षण और तिब्बत से लाए गए धर्मग्रंथों को संरक्षित करने के लिए, परम पावन ने जून 1970 में पुस्तकालय की आधारशिला रखी। नवंबर 1971 में इसके उद्घाटन से कुछ समय पहले, पश्चिमी लोगों के लिए बौद्ध दर्शन और ध्यान की कक्षाओं के लाभ को देखते हुए, उन्होंने गेशे न्गवांग धारग्ये को शिक्षक और दोनों रिन्पोचे को अनुवादक नियुक्त किया। उन्होंने यह भी संभव बनाया कि मैं 1972 में हार्वर्ड से अपनी डिग्री पूरी करने के बाद उनके साथ जुड़ सकूँ और अपना जीवन उनकी सेवा में समर्पित कर सकूँ।
उसी वर्ष, नालंदा परम्परा के ग्रंथों के संरक्षण और अनुवाद के महत्त्व को देखते हुए, परम पावन ने गेशे वांग्याल के साथ मिलकर कोलंबिया विश्वविद्यालय में ‘अमरीकी बौद्ध अध्ययन संस्थान’ की स्थापना की और उसे तेंग्युर का अनुवाद करने का कार्य सौंपा, जिसमें वे ग्रंथ शामिल थे।
इसी प्रकार, परम पावन ने कालचक्र दीक्षा को सुलभ बनाने के लिए शीघ्र कदम उठाए, जिसे वे भविष्य के लिए विशेष रूप से लाभकारी मानते हैं। उनके कालचक्र शिक्षकों में से एक, त्सेनझाब सरकाँग रिन्पोचे ने मुझे उनके लिए इसका अनुवाद करने का प्रशिक्षण दिया। परम पावन ने शीघ्र ही पश्चिमी लोगों की कालचक्र साधना में गहरी रुचि को समझ लिया, और इसलिए उन्होंने उनके अभ्यास के लिए अनुवाद हेतु क्रमिक अवधि की तीन साधनाएँ चुनीं। फिर, लोगों को इन दीक्षाओं के लिए तैयार करने में सहायता करने के लिए, परम पावन ने व्यक्तिगत रूप से दिशानिर्देश दिए कि क्या समझाया जाए और सबसे अधिक पूछे जाने वाले प्रश्नों का उत्तर कैसे दिया जाए।
परम पावन ने धर्म को दुनिया के लिए सुलभ बनाने में कई अन्य विधियों से भी बहुत सहयोग किया है। 1989 में, उन्होंने मुझे दक्षिण भारत के मठों में उन गेशे और भिक्षुओं को तैयार करने में सहायता करने के लिए भेजा, जो पश्चिम में शिक्षा और अनुवाद करने की योजना बना रहे थे। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से हर छोटी-बड़ी बात का ध्यान रखते हुए मुझे सूट और टाई पहनने का निर्देश दिया ताकि मठवासी मुझे अधिक गंभीरता से लें। इसके परिणामस्वरूप, डोबूम रिन्पोचे ने 1994 में दिल्ली में एक कार्यशाला आयोजित की, जिसका उद्देश्य युवा तिब्बतियों को लिखित अनुवाद के लिए आवश्यक कौशल सिखाने में मदद करना था।
तिब्बतियों में बौद्ध शिक्षाओं के संरक्षण के लिए, परम पावन ने देखा कि चारों तिब्बती संप्रदायों के साथ-साथ मूल बॉन परंपरा के बीच सामंजस्य अत्यंत आवश्यक है। इसलिए, परम पावन ने 1988 में सभी पाँचों परंपराओं के पुनर्जन्म प्राप्त लामाओं और मठाधीशों का एक सम्मेलन आयोजित किया ताकि उन तरीकों पर चर्चा की जा सके जिनसे वे सहयोग कर सकें।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि तिब्बत में ही शिक्षाओं का संरक्षण जारी रहे, परम पावन ने अनुभव किया कि चीनी शिक्षाविदों का सहयोग बहुत सहायक होगा। इसलिए, तिब्बती बौद्ध धर्म में उनकी रुचि के स्तर का आकलन करने के लिए, परम पावन ने मुझे 1994 में बीजिंग जाने और वहाँ बौद्ध धर्म के अकादमिक अध्ययन के लिए समर्पित शोध संस्थानों में व्याख्यान देने के लिए कहा। वहाँ के प्रोफेसर और विद्वान तिब्बती बौद्ध धर्म, विशेषकर तंत्र, में गहरी रुचि रखते थे और अधिक सीखना चाहते थे। परम पावन ने इसे भविष्य के लिए एक सकारात्मक संकेत माना।
बौद्ध संस्कृति के संरक्षण के प्रति परम पावन की प्रतिबद्धता केवल तिब्बत तक ही सीमित नहीं है। उन्होंने मंगोलिया और रूस के पारंपरिक बौद्ध क्षेत्रों: कलमीकिया, बुर्यातिया और तुवा में भी बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1979 और 1982 में अपनी यात्राओं के माध्यम से इस पुनरुत्थान की नींव रखी और साम्यवाद के पतन के बाद, 1992 में वहाँ व्यापक रूप से उपदेश दिए।
मंगोलिया में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के लिए, परम पावन ने 1997 में बकुला रिन्पोचे की शिक्षाओं को बोलचाल की मंगोलियाई भाषा में संकलित और प्रकाशित करने हेतु एक परियोजना शुरू की। उस समय तक, ये शिक्षाएँ केवल शास्त्रीय मंगोलियाई या तिब्बती भाषा में ही उपलब्ध थीं, जिन्हें आम लोग पढ़ नहीं सकते थे। मंगोलिया में भारत के राजदूत के रूप में कार्यरत, बकुला रिन्पोचे वहाँ एक लोकप्रिय शिक्षक बन गए थे। उनकी शिक्षाओं और मठवासी अनुशासन के सुधारों ने मंगोलिया में बौद्ध धर्म के वर्तमान फलने-फूलने की नींव रखी है।
भारत की प्राचीन दार्शनिक शिक्षाओं को भारतीय शिक्षा प्रणाली में शामिल करने की अपनी चौथी प्रतिबद्धता को पूरा करने की शुरुआत, परम पावन ने 2017 में तिब्बती बाल ग्रामों के स्कूली पाठ्यक्रम में तर्क और वाद-विवाद के अध्ययन को शामिल करके की। फिर, 2023 में, उन्होंने बोधगया में ‘दलाई लामा तिब्बती और भारतीय प्राचीन ज्ञान केंद्र’ की आधारशिला रखी। इस वर्ष अप्रैल, 2025 में, भारतीय स्कूलों में ऐसे विषयों को लाने की संभावित रणनीतियों का पता लगाने के लिए इस केंद्र ने अपना पहला शैक्षणिक सम्मेलन आयोजित किया। परियोजना के लिए उपयुक्त शिक्षण सामग्री की आवश्यकता को देखते हुए, हमने अपनी ‘स्टडी बुद्धिज़्म’ वेबसाइट के बड़े हिस्से का दस भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाया है।
ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता है जहाँ दूसरों को भी परम पावन की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में सहायता करने के लिए सूचीबद्ध और प्रेरित किया गया है, जैसे 1987 में वैज्ञानिकों के साथ ‘माइंड एंड लाइफ़ मीटिंग’ का उद्घाटन, 2008 में बेंगलुरु (बैंगलोर) में ‘दलाई लामा इंस्टीट्यूट फॉर हायर एजुकेशन’ का उद्घाटन, और 2024 में धर्मशाला में ‘सरकाँग इंस्टीट्यूट’ का उद्घाटन, ताकि तर्क और वाद-विवाद सिखाया जा सके और पश्चिमी धर्म केंद्रों में अध्ययन कार्यक्रमों में उन्हें किस प्रकार लागू किया जाए। मुझे आशा है कि जैसे-जैसे शताब्दी आगे बढ़ेगी, नयी पीढ़ियाँ, हमारे उदाहरणों से प्रेरित होकर, भविष्य के उद्धार हेतु परम पावन के दृष्टिकोण को साकार करने के लिए कदम उठाएंगी। इसके लिए परम पावन से अधिक बुद्धिमान और अधिक दयालु कोई मार्गदर्शक नहीं है, और दूसरों के लाभ के लिए हमारे कार्यों से बेहतर उनके लिए कोई जन्मदिन का उपहार नहीं है। धन्यवाद।