किसी महान लामा की जीवनी को “नामतार” कहा जाता है, यह एक मुक्तिकारी जीवनी होती है क्योंकि यह श्रोताओं को उस लामा के उदाहरण का अनुसरण करने और मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए प्रेरणा देती है। चोंखापा (1357-1419) की जीवनी निःसंदेह प्रेरणादायी है।
भविष्यवाणियाँ और बाल्यकाल
बुद्ध शाक्यमुनि और गुरु रिंपोशे दोनों ने ही चोंखापा के जन्म और उनके द्वारा हासिल की जाने वाली सिद्धियों के बारे में भविष्यवाणियाँ की थीं। बुद्ध शाक्यमुनि के समय में एक छोटे बालक ने, जो चोंखापा का पूर्व अवतार था, बुद्ध को स्फटिक की एक माला भेंट की थी और बदले में बुद्ध ने उसे एक शंख दिया था। बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी कि मंजुश्री तिब्बत में एक बालक के रूप में जन्म लेंगे जो गांदेन मठ की स्थापना करेगा, और मेरी प्रतिमा के लिए एक मुकुट भेंट करेगा। भविष्य में जन्म लेने वाले इस बालक को बुद्ध ने सुमतिकीर्ति नाम दिया था। गुरु रिंपोशे ने भी भविष्यवाणी की थी कि लोज़ांग द्रोग्पा नाम का एक भिक्षु चीन के निकट जन्म लेगा जिसे महान बोधिसत्व का स्वरूप समझा जाएगा, और वह संभोगकाय प्रतिरूप में बुद्ध की एक प्रतिमा का निर्माण करेगा।
चोंखापा के जन्म से पूर्व के कई लक्षणों से भी यही संकेत मिलता था कि वे एक महान हस्ती होंगे। उदाहरण के लिए, उनके माता-पिता को ऐसे कई शुभ-स्वप्न दिखाई दिए थे कि उनका बालक अवलोकितेश्वर, मंजुश्री और वज्रपाणि का प्रतिरूप होगा। उनके भावी शिक्षक चोजे दोंद्रुब-रिंचेन के स्वप्न में प्रकट हो कर यमान्तक ने उन्हें बताया था कि वे (यमान्तक) किसी एक निश्चित वर्ष में आम्दो (उत्तर-पूर्वी तिब्बत) में पधारेंगे और उनके शिष्य बनेंगे।
चोंखापा का जन्म अपने माता-पिता के छह पुत्रों में से चौथे पुत्र के रूप में आम्दो में 1357 में हुआ था। चोंखापा के जन्म के अगले दिन ही चोजे दोंद्रुब-रिंचेन ने अपने प्रमुख शिष्य को उपहारों, एक मूर्ति और एक पत्र के साथ चोंखापा के माता-पिता के पास भेजा था। उनका नाभिनाल जिस स्थान पर गिरा था उस स्थान पर चंदन का एक पेड़ उग आया। उसकी प्रत्येक पत्ती पर प्राकृतिक रूप से बुद्ध सिंहनाद का चित्र था, और इसलिए उसे एक लाख चित्रों वाला अर्थात कुम्बुम कहा गया। बाद में वहाँ कुम्बुम नामक गेलुग मठ का निर्माण किया गया।
चोंखापा कोई साधारण बालक नहीं थे। वे कभी किसी से बुरा व्यवहार नहीं करते थे; सहज तौर पर बोधिसत्वों जैसा आचरण करते थे; और वे अत्यंत मेधावी थे और हमेशा सब कुछ सीखने के लिए तत्पर रहते थे। तीन वर्ष की उम्र में उन्होंने चौथे करमापा रोल्पे दोरजे (1340-1383) से सामान्य व्रतों की दीक्षा ली। इसके कुछ ही समय बाद उनके पिता ने चोजे दोंद्रुब-रिंचेन को अपने घर पर आमंत्रित किया। लामा ने उस बालक की शिक्षा-दीक्षा का दायित्व लेने का प्रस्ताव रखा जिसे पिता ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। बालक ने सात वर्ष की उम्र तक घर पर रह कर ही चोजे दोंद्रुब-रिंचेन से शिक्षा हासिल की। लामा को पढ़ते हुए देख कर ही वह स्वाभाविक तौर पर पढ़ना सीख गया और उसे सिखाने की आवश्यकता नहीं हुई।
इस अवधि के दौरान चोजे दोंद्रुब-रिंचेन ने बालक को पंच-देव चक्रसंवर, हेवज्र, यमान्तक, और वज्रपाणि के अभिषेक दिए। सात वर्ष का होते-होते उसने इनके पूरे अनुष्ठानों को कंठस्थ कर लिया था, चक्रसंवर एकांतवास पूरा कर लिया था, स्व-दीक्षा संस्कार करने लगा था, और उसे बज्रपाणि के दर्शन हो चुके थे। अतीश (982-1054) बार-बार उसके स्वप्न में प्रकट होते थे जो इस बात का संकेत था कि यह बालक अतीश की ही भांति तिब्बत में धर्म के बारे में मिथ्याबोध को दूर करेगा और सूत्र तथा तंत्र को आपस में जोड़ कर शुद्ध धर्म की पुनःस्थापना करेगा।
सात वर्ष की उम्र में चोंखापा ने चोजे दोंद्रुब-रिंचेन से नवदीक्षितों के व्रत प्राप्त किए और लोज़ांग-द्राग्पा दीक्षा नाम दिया गया। सोलह वर्ष की उम्र तक वे इन्हीं लामा से शिक्षा प्राप्त करते रहे, और फिर उसके बाद वे आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए यूत्सांग (मध्य तिब्बत) चले गए। उसके बाद वे अपने गृहप्रदेश कभी नहीं लौटे। चोजे दोंद्रुब-रिंचेन आम्दो में ही बने रहे जहाँ उन्होंने कुम्बुम के दक्षिण में जाक्युंग मठ की स्थापना की।
मध्य तिब्बत में आरम्भिक अध्ययन
मध्य तिब्बत में रहते हुए चोंखापा ने पहले द्रिगुंग काग्यू मठ में अध्ययन किया जहाँ उन्होंने द्रिगुंग महामुद्रा जिसे “भिक्षुओं के पाँच गुण” कहा जाता है, आयुर्विज्ञान, और बोधिचित्त के बारे में और अधिक शिक्षा प्राप्त की। सत्रह वर्ष की उम्र तक वे एक कुशल चिकित्सक बन गए। इसके बाद उन्होंने विभिन्न न्यिंग्मा, काग्यू, कदम, और शाक्य मठों में अभिसमयालंकार, मैत्रेय के अन्य ग्रंथों, और प्रज्ञापारमिता (व्यापक सविवेक बोध) का अध्ययन किया और कुछ ही दिनों में इन ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया। उन्नीस वर्ष की उम्र तक उनकी ख्याति एक महान विद्वान के रूप में फैल चुकी थी।
उन्होंने तिब्बती बौद्ध परम्पराओं वाले सबसे प्रसिद्ध मठों की यात्राएं जारी रखीं जहाँ उन्होंने पाँच प्रमुख गेशे-प्रशिक्षण के विषयों और भारतीय धर्म सिद्धांतों का अध्ययन किया, उनके विषयों पर शास्त्रार्थ किया और शास्त्रार्थ की परीक्षाएं दीं। उन्होंने कदम लाम-रिम (लाम-रिम, क्रमिक सूत्र मार्ग) की शिक्षा प्राप्त की और अनेक तांत्रिक अभिषेक और शिक्षाएं प्राप्त कीं जिनमें लामद्रे (मार्ग और परिणाम) की शाक्य परम्परा, नरोपा की छह शिक्षाओं की द्रिगुंग काग्यू परम्परा (नरोपा के छह योग), और कालचक्र के अभिषेक शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने काव्य रचना, ज्योतिषशास्त्र, और मंडल निर्माण के विषयों का भी अध्ययन किया। अध्ययन के सभी विषयों के बारे में वे केवल एक बार किसी व्याख्या को सुनकर उसे पूरी तरह से याद रख लेते थे – परम पावन चौदहवें दलाई लामा भी ऐसे ही थे।
चोंखापा में परित्याग का भाव हमेशा बहुत प्रबल रहा। वे बेहद साधाराण जीवन व्यतीत करते थे और अपने व्रत नियमों का शुद्धता से पालन करते थे। वे बड़ी आसानी से शमथ (चित्त के शांत और स्थिर होने की दशा) और विपश्यना (चित्त की असाधारण ग्रहण क्षमता) की अवस्थाओं को प्राप्त कर लेते थे, किन्तु वे कभी भी अपने ज्ञान या अपनी सिद्धि के स्तर से संतुष्ट होकर नहीं बैठते थे। उन्होंने अपनी यात्राएं जारी रखीं और वे बार-बार उन्हीं ग्रंथों के बारे में शिक्षाएं दिए जाने के लिए अनुरोध करते रहते। उन्होंने अपने समय के सबसे ज्ञानी विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किए और परीक्षाएं दीं। एक शाक्य आचार्य रेन्दावा (1349-1412) उनके एक प्रमुख शिक्षक थे। चोंखापा ने उनके सम्मान में मिग्त्सेमा स्तवन लिखा, किन्तु आचार्य ने उसे चोंखापा को ही पुनःसमर्पित कर दिया। बाद में यह चोंखापा गुरु-योग के लिए दोहराया जाने वाला पद्य बन गया।
प्रारम्भिक शिक्षण और लेखन
चोंखापा ने लगभग 20 20 वर्ष की उम्र से ही शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया और उनकी पहली शिक्षा अभिधर्म (प्रज्ञा के विशेष विषयों) के बारे में थी। सभी उनकी विद्वता से विस्मित थे। उन्होंने लेखन कार्य भी शुरू कर दिया और उन्होंने एकांतवास करना भी बढ़ा दिया था। जल्दी ही उनके बहुत से शिष्य बन गए। हालाँकि कई वर्णनों में ऐसा कहा गया है कि चोंखापा ने 21 वर्ष की उम्र में पूर्ण भिक्षु का व्रत ले लिया था, किन्तु यह निश्चित तौर पर ज्ञात नहीं है कि उन्होंने यह व्रत किस उम्र में लिया। उन्होने यह व्रत सम्भवतः बाद में किन्तु तीस वर्ष की उम्र से पहले लिया।
एक समय पर उन्होंने सम्पूर्ण कांग्युर और तेंग्युर – बुद्ध की प्रत्यक्ष अनूदित शिक्षाओं और उन पर लिखी गई भारतीय टीकाओं का अध्ययन और विश्लेषण कर लिया था। इसके बाद उन्होंने 32 वर्ष की उम्र में स्वर्ण वाग्मिता व्याख्यावली की रचना की जो अभिसमयालंकार पर एक टीका है, और इस प्रकार प्रज्ञापारमिता पर भी टीका है। उन्होंने सभी इक्कीस भारतीय टीकाओं का समन्वय और विश्लेषण किया। अपने सम्पूर्ण वाङ्मय में उन्होंने जो भी लिखा उसकी सम्पूर्ण भारतीय और तिब्बती बौद्ध साहित्य के उद्धरणों से पुष्टि की और विभिन्न अनुवादों की तुलना और समीक्षा करते हुए उनका सम्पादन करने का कार्य भी किया। पूर्व के विद्वानों से वे इस दृष्टि से भिन्न थे कि वे किसी भी ग्रंथ के दुरूहतम और गूढ़तम विषयों की व्याख्या करने से भी नहीं कतराते थे।
सामान्य तौर पर चोंखापा प्रति दिन दोनों ओर तिब्बती भाषा में लिखे हुए और प्रत्येक ओर नौ पंक्तियों वाले सत्रह पृष्ठों को कंठस्थ कर लेते थे। एक बार कुछ विद्वानों ने यह देखने के लिए एक स्मरण प्रतियोगिता आयोजित की कि सूर्य के मठ की छत पर लगे झंडे के ऊपर पहुँचने तक कौन सबसे अधिक पृष्ठ याद करके दिखा सकता है। चार पृष्ठ याद करके चोंखापा प्रतियोगिता के विजेता हुए जिन्हें उन्होंने बिना किसी गलती के दोहरा दिया। उनका निकटतम प्रतिद्वंद्वी केवल ढाई पृष्ठ ही सुना सका, वह भी लड़खड़ाते हुए।
इसके बाद से ही चोंखापा ने तांत्रिक अभिषेक और शिक्षाएं, और विशेष तौर पर उनके बाद ज्ञान के लिए सरस्वती की अनुज्ञाएं देना शुरू कर दिया। उन्होंने तंत्र, विशेष तौर पर कालचक्र के अपने अध्ययन को भी जारी रखा।
एक लामा हुए जो एक साथ ग्यारह ग्रंथों की शिक्षा देने की अपनी योग्यता के लिए विख्यात थे। चोंखापा के एक शिष्य ने उन्हें भी वैसा ही करने का आग्रह किया। चोंखापा ने ग्यारह की तुलना में सत्रह प्रमुख सूत्र ग्रंथों की शिक्षा दी, वह भी स्मृति के आधार पर, प्रत्येक ग्रंथ पर प्रतिदिन एक सत्र रखा गया और सभी सत्रह ग्रंथों पर एक ही दिन में सत्र रखे गए, जिन्हें उन्होंने तीन महीने बाद उसी दिन समाप्त कर दिया। अपने प्रवचनों के दौरान उन्होंने गलत व्याख्याओं का खंडन किया और अपने दृष्टिकोण को स्थापित किया। हर दिन प्रवचन के दौरान वे यमान्तक का स्वदीक्षा संस्कार और अपनी दूसरी तांत्रिक साधनाएं भी करते थे।
यदि हम उनके केवल 62 वर्षों के जीवनकाल को देखें और यह विचार करें कि उन्होंने कितना अध्ययन किया, कितनी साधना की (जिसमें त्सात्सा मिट्टी की प्रतिमाओं का निर्माण करना शामिल है), कितना लेखन कार्य किया, कितना अध्यापन और कितने एकांतवास किए, तो यह मानना असम्भव सा लगेगा कि कोई व्यक्ति इनमें से किसी एक कार्य को भी एक ही जन्म में कर सकता है।
गहन तंत्र विद्याभ्यास और साधना
इसके तुरन्त बाद चोंखापा ने काग्यू परम्परा के अनुसार चक्रसंवर पर अपना पहला तांत्रिक एकांतवास किया। इस एकांतवास के दौरान उन्होंने नरोपा की छह शिक्षाओं और निगुमा (निगुमा के छह योग) की छह शिक्षाओं पर गहन ध्यान साधना की। इससे उन्हें गहरे बोध की प्राप्ति हुई।
इसके बाद 34 वर्ष की उम्र में चोंखापा ने तंत्र की चारों श्रेणियों का गहन अध्ययन और साधना करने का निश्चय किया। बाद में उन्होंने लिखा कि अनुत्तरयोग तंत्र की गहराई को तब तक नहीं समझा जब तक कि तीन निम्नतर तंत्रों की साधना न की जाए और उनका ज्ञान न प्राप्त कर लिया जाए। इसलिए उन्होंने एक बार फिर व्यापक यात्राएं कीं और तीनों निम्नतर तंत्रों से सम्बंधित अनेक अभिषेक और शिक्षाएं प्राप्त कीं। इसके अलावा उन्होंने गुह्यसमाज और कालचक्र की पाँच अवस्थाओं वाली पूर्ण अवस्था का भी और अधिक विस्तार से अध्ययन किया।
शून्यता का निर्वैचारिक बोध हासिल करने के लिए अध्ययन और एकांतवास
चोंखापा मंजुश्री तांत्रिक चक्र और माध्यमिक की साधनाओं का अध्ययन करने के लिए करमा काग्यू लामा उमापा के पास भी गए। इन महान आचार्य ने शाक्य परम्परा में माध्यमिक की शिक्षा प्राप्त की थी और बचपन से ही स्वप्न में उन्हें रोज़ाना मंजुश्री के दर्शन होते रहे थे और मंजुश्री ने उन्हें प्रतिदिन एक पद्य की शिक्षा दी थी। चोंखापा और आचार्य एक-दूसरे के गुरु और शिष्य बन गए। लामा उमापा चोंखापा से पूछ कर इस बात की पुष्टि करते थे कि उन्हें स्वप्नों में मंजुश्री से जो शिक्षाएं प्राप्त हुई थीं वे सही थीं या नहीं। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि स्वप्नों को पिशाच आदि द्वारा प्रभावित किया जा सकता है।
चोंखापा ने लामा उमापा के साथ मिलकर मंजुश्री का एक विस्तृत एकांतवास किया। उस समय के बाद से चोंखापा को शुद्ध स्वप्नों में मंजुश्री से सीधे निर्देश प्राप्त होने लगे और वे मंजुश्री से अपने सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने लगे। इससे पहले उन्हें मंजुश्री से अपने प्रश्न लामा उमापा के माध्यम से पूछने पड़ते थे।
एकांतवास के दौरान चोंखापा को अभी भी यह अनुभव होता था कि उन्हें माध्यमिक और गुह्यसमाज का समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है। मंजुश्री ने उन्हें सलाह दी कि वे एक लम्बे समय का एकांतवास करें और फिर उसके बाद उन्हें मंजुश्री से प्राप्त निर्देशों का अर्थ समझ में आ जाएगा। इसलिए कुछ समय तक अध्यापन कार्य करने के बाद, चोंखापा अपने आठ घनिष्ठ शिष्यों के साथ चार वर्ष के एकांतवास के लिए ओल्का चोलुंग चले गए। उन्होंने 35 पापस्वीकार बुद्धों में से प्रत्येक के लिए 100,000 साष्टांग प्रणाम किए, और 18 बार 100,000 मंडल भेंट किए, साथ ही अनेक यमान्तक स्व-दीक्षा संस्कार किए और बोधिसत्व कर्मों के लिए अवतंसक सूत्र का अध्ययन किया। बाद में उन्हें मैत्रेय के दर्शन हुए।
एकांतवास के बाद चोंखापा और उनके शिष्यों ने जिंजि लिं में मैत्रेय की एक भव्य प्रतिमा का पुनःनिर्माण किया। यह उनके चार बड़े कार्यों में से पहला कार्य था। इसके बाद वे पाँच और महीनों के एकांतवास पर चले गए। इसके बाद न्यिंग्मा लामा ल्होद्राग नाम्का-ग्येल्त्सेन, जिन्हें वज्रपाणि के दर्शन होते रहते थे, ने चोंखापा को आमंत्रित किया, और वे दोनों भी आपस में एक-दूसरे के गुरु-शिष्य हो गए। उन्होंने चोंखापा को कदम लाम-रिम और मौखिक मार्गदर्शन गुरु-शिष्य परम्परा का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
चोंखापा भारत जा कर आगे और अधिक अध्ययन करना चाहते थे, किन्तु वज्रपाणि ने उन्हें परामर्श दिया कि वे तिब्बत में ही रहें क्योंकि उनका वहाँ रहना ही अधिक उपयोगी होगा। इसलिए वे तिब्बत में ही ठहर गए। उन्होंने निश्चय किया के बाद में वे क्रमिक सूत्र मार्ग पर मार्ग के क्रमिक स्तर सम्बंधी एक भव्य व्याख्यान और तंत्र की चार श्रेणियों की साधना के स्तरों पर तंत्र मार्ग के क्रमिक स्तर सम्बंधी एक भव्य व्याख्यान लिखेंगे।
इसके बाद चोंखापा ने कालचक्र के सम्पूर्ण स्तरों पर एक लम्बे समय का एकांतवास किया, और उसके बाद माध्यमिक पर एक वर्ष का एकांतवास किया। हालाँकि चोंखापा ने अपने शिक्षकों से माध्यमिक और शून्यता के बारे में बहुत कुछ सीखा था, किन्तु वे उनकी व्याख्या के स्तर से कभी संतुष्ट नहीं हुए। एक वर्ष के इस एकांतवास पर जाने से पहले मंजुश्री ने उन्हें परामर्श दिया कि वे माध्यमिक पर बुद्धपालित की टीका पर विश्वास करें। चोंखापा ने वैसा ही किया और इसलिए एकांतवास के दौरान उन्हें शून्यता का पूर्ण निर्वैचारिक बोध प्राप्त हुआ।
इस बोध के आधार पर चोंखापा ने उस समय के शिक्षकों और विद्वान आचार्यों की शून्यता के बारे में प्रासंगिक-माध्यमिक शिक्षाओं और उससे सम्बंधित विषयों की समझ को पूरी तरह संशोधित किया। इस दृष्टि से वे एक उग्र सुधारक थे जो इस बात का साहस रखते थे कि यदि उन्हें तत्कालीन मान्यताएं अपर्याप्त लगती थीं तो वे उन्हें छोड़कर आगे बढ़ सकते थे।
चोंखापा अपने सुधारों को हमेशा तर्क और धर्मग्रंथों पर आधारित करने के नियम का कड़ाई से पालन करते थे। जब उन्होंने महान भारतीय ग्रंथों के गूढ़तम अर्थ के बारे में स्वयं अपने दृष्टिकोण को स्थापित किया तो वे अपने शिक्षकों के साथ अपनी घनिष्ठता और अनुराग को भंग नहीं कर रहे थे। अपने आध्यात्मिक गुरुओं को बुद्धों के रूप में मानने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने बोध और ज्ञान में उनसे आगे नहीं जा सकते हैं। त्सेनझाब सरकांग रिंपोशे द्वितीय ने इस बात को एक उदाहरण से समझाया था।
केक बनाने के लिए हमें कई प्रकार की सामग्रियों को एक साथ मिलाना पड़ता है – आटा, मक्खन, दूध, अंडे आदि को मिलाना पड़ता है। हमारे शिक्षक हमें दिखाते हैं कि केक कैसे बनाया जाए और वे हमें कुछेक केक बनाकर भी देते हैं। ये केक बहुत स्वादिष्ट हो सकते हैं और हो सकता है कि हमें बहुत भाएं। हमारे शिक्षक की कृपा से हमने सीख लिया कि केक कैसे बनाया जाता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उसमें कुछ बदलाव नहीं कर सकते हैं, नई सामग्रियाँ डाल कर ऐसे केक नहीं बना सकते हैं जो हमारे शिक्षकों द्वारा बनाए गए केकों से भी अधिक स्वादिष्ट हों। ऐसा करके हम अपने शिक्षकों के प्रति कोई असम्मान का कार्य नहीं करते हैं। यदि शिक्षक योग्य हैं तो वे भी हमारे द्वारा किए गए सुधार से खुश होंगे और हमारे साथ मिल कर नए केकों का आनन्द लेंगे।
कुछ अन्य महान कार्य
कुछ और समय तक अध्यापन करने के बाद चोंखापा एक बार फिर एकांतवास में चले गए, इस बार वे अपने शिक्षक रेन्दावा के साथ गए, और उस दौरान उन्होंने लाम-रिम चेन-मो के अधिकांश हिस्से की रचना की। एकांतवास के दौरान उन्हें एक महीने तक अतीश और लाम-रिम गुरु परम्परा के आचार्यों के दर्शन हुए और उन्होंने बहुत से प्रश्नों के स्पष्टीकरण दिए। उसके बाद उन्होंने द्रिगुंग काग्यू से नरोपा की छह साधनाओं और महामुद्रा के बारे में और अधिक शिक्षा हासिल की। इसके बाद अगली वर्षा ऋतु में उन्होंने विनय (मठीय अनुशासन के नियम) के बारे में इतने स्पष्ट तरीके से शिक्षा दी कि उसे उनका दूसरा महान कार्य माना जाता है।
लाम-रिम चेन-मो की रचना का कार्य पूरा करने के बाद त्सांग्खापा ने तंत्र के बारे में और अधिक पूर्णता से शिक्षा देने का निश्चय किया। लेकिन इससे पहले उन्होंने बोधिसत्व व्रतों और गुरुपंचाशिका को तंत्र साधना के आधार के रूप में स्थापित करने के लिए इनके बारे में विस्तृत टीकाएं लिखीं। फिर अपने शिक्षण कार्य को जारी रखते हुए उन्होंने न्गाग-रिम चेन-मो की रचना की और गुह्यसमाज पर अनेक टीकाएं लिखीं। इसके अलावा उन्होंने यमान्तक और नागार्जुन के माध्यमिक ग्रंथों पर भी लेखन कार्य किया।
चीनी सम्राट ने उन्हें अपना शाही शिक्षक बनाने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन चोंखापा ने यह कह कर उस आग्रह को टाल दिया कि उनकी उम्र बहुत अधिक हो चली थी और वे एकांतवास में रहना चाहते थे।
अगले दो वर्षों तक चोंखापा ने लाम-रिम और तंत्र की विस्तार से अध्यापन किया और महायान के सिद्धांतों के निश्चयात्मक और व्याख्येय अर्थों के बारे में व्याख्येय तथा निश्चयात्मक अर्थों की उत्कृष्ट व्याख्या का सार की रचना की। उसके बाद उन्होंने 1409 में 52 वर्ष की उम्र में ल्हासा जोकांग में मोनलाम प्रार्थना महोत्सव का उद्घाटन किया। उन्होंने शाक्यमुनि की प्रतिमा को एक स्वर्ण मुकुट अर्पित किया जिसका अर्थ यह था कि अब प्रतिमा सिर्फ निर्माणकाय न होकर एक संभोगकाय प्रतिमा हो गई थी। बुद्धों के संभोगकाय स्वरूप तब तक बने रहते हैं जब तक कि सभी जीव संसार से मुक्त न हो जाएं, जबकि निर्माणकाय स्वरूप केवल थोड़े समय तक ही रहते हैं। इसे उनका तीसरा महान कार्य कहा जाता है। इसके बाद उनके शिष्यों ने उनसे आग्रह किया कि वे अधिक यात्राएं करना बंद कर दें और इसलिए उन्होंने चोंखापा के लिए गांदेन मठ की स्थापना की।
गांदेन में चोंखापा ने अध्यापन, लेखन (विशेषतया चक्रसंवर के विषय पर), और एकांतवास करने के क्रम को जारी रखा। उन्होंने गांदेन के सभागार में बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा और गुह्यसमाज, चक्रसंवर, और यमान्तक के तांबे के त्रिआयामी मंडलों की स्थापना की। इसे उनका चौथा महान कार्य समझा जाता है। उन्होंने अपना लेखन कार्य जारी रखा और अंत में उनके ग्रंथों को कुल अठारह खंडों में संकलित किया गया जिनमें से सर्वाधिक ग्रंथ गुह्यसमाज पर लिखे गए थे।
देहावसान
वर्ष 1419 में 62 वर्ष की उम्र में गांदेन में चोंखापा की मृत्यु हो गई। उन्होंने मृत्यु के बाद बर्दो के स्थान पर एक मायादेह धारण करके ज्ञानोदय प्राप्त किया। ऐसा उन्होंने भिक्षुओं को कड़े ब्रह्मचर्य के पालन के महत्व को समझाने के लिए किया था क्योंकि इस जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए कम से कम एक बार किसी सहचर के साथ साधना करने की आवश्यकता होती है।
अपनी मृत्यु से पहले चोंखापा ने अपनी टोपी और अपना सभावस्त्र ग्याल्तसाब जे (1364-1432) को सौंप दिया, और उसके बाद वे ही अगले बारह वर्षों तक गांदेन की गद्दी पर आसीन रहे। इसके बाद से ही यह परम्परा शुरू हुई कि गांदेन के पीठासीन ही गेलुग संप्रदाय के प्रमुख होंगे। वहाँ के अगले पीठाधीश्वर खेद्रुब जे (1385-1438) हुए जिन्हें बाद में चोंखापा ने पाँच बार दर्शन दिए और उनके शंकाओं का निवारण किया और उनके प्रश्नों के उत्तर दिए। गेलुग गुरु परम्परा उस समय से ही फलती-फूलती चली आ रही है।
शिष्यगण
चोंखापा के कई अनन्य शिष्यों ने उनकी परम्परा को जारी रखने और उनकी शिक्षाओं का प्रसार करने के लिए मठों की स्थापना की। चोंखापा के जीवित रहते-रहते ही जाम्यांग चोजे (1379-1449) ने 1416 में द्रेपुंग मठ की स्थापना की और जाम्चेन चोजे (1354-1435) ने 1419 में सेरा मठ की स्थापना की। चोंखापा की मृत्यु के बाद ग्यू शेराब-सेंग्गे (1383-1445) ने 1433 में ग्यूमे लोअर तांत्रिक कॉलेज की स्थापना की और ग्येल्वा गेंदुन-द्रुब (1391-1474), जिन्हें मरणोपरान्त पहला दलाई लामा घोषित किया गया, ने 1447 में ताशिल्हुन्पो मठ की स्थापना की।