परिचय

चार आर्य सत्य

बुद्ध का जन्म 2500 वर्ष पूर्व भारत में हुआ। चूँकि उनके शिष्यों की प्रवृत्तियाँ और क्षमताएं अलग-अलग थीं, इसलिए उन्होंने प्रत्येक शिष्य को अलग-अलग ढंग से इस प्रकार शिक्षा दी जो उसकी बोधक्षमता के लिए सबसे उपयुक्त हो। लेकिन सर्वप्रथम उन्होंने सभी शिष्यों को इस बुनियादी बोध के बारे में शिक्षा दी कि उन्हें ज्ञानोदय की प्राप्ति किस प्रकार हुई: उन्होंने “चार आर्य सत्यों” के बारे में उपदेश दिया। ये जीवन समबंधी ऐसे चार तथ्य हैं जिन्हें सामान्यजन तथ्य के रूप में नहीं देखते हैं, लेकिन यथार्थ का निर्वैचारिक रूप से दर्शन कर चुके उच्च सिद्धिप्राप्त सत्व (आर्य) इन्हें सत्य के रूप में देखते हैं। संक्षेप में ये चार आर्य सत्य निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर देते हैं:

  • प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में जिन दुखों और समस्याओं को भोगता है उनके सत्य प्रकार क्या हैं?
  • उन दुखों और समस्याओं के कारण क्या हैं?
  • क्या इन समस्याओं का इस प्रकार रोधन करके इनसे मुक्त हो पाना वास्तव में सम्भव है कि वे फिर कभी दोबारा उत्पन्न न हो सकें?
  • इस प्रकार के निरोध को सम्भव बनाने वाला वह कौन सा बोध है जो दुख के कारणों से मुक्ति दिलाने वाला है?

इन प्रश्नों के उत्तर ही उस शिक्षा का आधार हैं जिसे बुद्ध ने शेष जीवन भर विस्तार से सिखाया, और यही उनकी पहली शिक्षा थी।

जब हम इन चार आर्य सत्यों को परखते हैं तो हम पाते हैं कि इनका अपना कोई अलग स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। ये किसी आधार से उत्पन्न होते हैं, और जब हम इन्हें पूरी तरह समझ लेते हैं तो ये एक निश्चित लक्ष्य तक पहुँचते हैं। आसान शब्दों में कहें तो, इन चार सत्यों – जीवन के इन चार तथ्यों – का आधार यथार्थ है।

यदि हम एक शब्द में बौद्ध धर्म के सार को बताना चाहें, तो मेरे एक बौद्ध मित्र हैं जिनका कहना है कि वह एक शब्द है यथार्थ

यदि हम यथार्थ को देख सकें और उसे असम्भव और अवास्तविक कल्पनाओं के बिना समझ और स्वीकार कर सकें, तो हम अपने जीवन की समस्याजनक स्थितियों का यथार्थ ढंग से सामना कर सकेंगे।

इस प्रकार यथार्थ सम्बंधी शिक्षाएं इन चार सत्यों का आधार हैं। किन्तु, यथार्थ में इन बातों के विभिन्न स्तर शामिल होते हैं कि चीज़ें किस प्रकार अस्तित्वमान हैं और वे जीवन को किस प्रकार जीवन को प्रभावित करती हैं। बुद्ध ने इन्हीं सब विषयों के बारे में शिक्षा दी।

तीन बहुमूल्य रत्न

इन चार आर्य सत्यों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दुख और समस्याओं पर विजय पाने के लिए हमें अपने जीवन को कौन सी दिशा देनी चाहिए। बौद्ध शब्दावली में कहा जाए तो “तीन बहुमूल्य रत्न” या “शरणागति के तीन अलंकार” – बुद्ध, धर्म, संघ इस दिशा को दर्शाते हैं। इनमें से प्रत्येक के अर्थ के विभिन्न स्तर होते हैं, लेकिन अपने गहनतम स्तर पर ये निम्नलिखित को दर्शाते हैं:

  • धर्म – वह लक्ष्य जिसे पाने के लिए हम प्रयासरत हैं, यानी स्वयं को अपनी समस्याओं और उनके कारणों सेस मुक्त कराना, और इस बात का पूरा बोध हासिल करना कि वह क्या है जो हमें इनसे हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति दिला सकता है।
  • बुद्धजन – जो स्वयं उस लक्ष्य को पूरी तरह हासिल कर चुके हैं और दूसरों को वैसा ही करने की शिक्षा देते हैं।
  • संघ – वे लोग जो इन शिक्षाओं का अनुसरण कर रहे हैं और उस लक्ष्य को अंशतः हासिल कर चुके हैं, किन्तु अभी उन्होंने लक्ष्य को पूरी तरह हासिल नहीं किया है।

नालंदा के 17 आचार्यों से प्रार्थना

परम पावन दलाई लामा ने एक बहुत ही सुंदर ग्रंथ की रचना की है जिसमें भारत के महान बौद्ध मठ नालंदा के 17 महान आचार्यों से प्रेरणा देने के लिए प्रार्थना की गई है। किसी मठ की भांति संचालित किए जाने वाले अपने समय के विख्यात विश्वविद्यालय नालंदा से भारतीय बौद्ध परम्परा के कई महान आचार्य निकले। दलाई लामा ने इस ग्रंथ की रचना इन आचार्यों में 17 सर्वाधिक विख्यात आचार्यों से की गई प्रार्थना के रूप में की गई है: “मुझे प्रेरणा दें कि मैं आपके पदचिह्नों पर चल सकूँ।” अलग-अलग आचार्यों से विनय के इन छंदों के बाद परम पावन ने सभी आचार्यों को सम्बोधित करते हुए कई और छंदों की भी रचना की है।

मैं यहाँ उन समापन छंदों में से एक छंद पर की गई टीका को प्रस्तुत करना चाहूँगा। इसमें वही बात सार रूप में बताई गई हैं जो मैंने अभी यथार्थ (दो सत्यों), चार आर्य सत्यों, और शरणागति के त्रिरत्नों के बारे में कही हैं। शरणागति का अर्थ है कि यदि हम इन तीनों द्वारा इंगित दिशा में बढ़ते हैं तो हम स्वयं को दुख और समस्याओं से बचा सकते हैं।

छंद इस प्रकार है:

दोनों सत्यों के अर्थ को जानकर, जोकि आधार है, कि सभी चीज़ें किस प्रकार विद्यमान हैं,

“विद्यमान” से आशय है कि चीज़ें किस तरह अस्तित्वमान हैं, किस तरह संचालित होती हैं। यानी यथार्थ को को जान कर।

हम निश्चित तौर पर जान पाते हैं कि किस प्रकार, चार सत्यों के माध्यम से, हम अनियंत्रित ढंग से बार-बार पुनर्जन्म लेते रहते हैं किन्तु हम इस क्रम को उलट भी सकते हैं।

यदि हम यथार्थ को समझ लें तो इन चार सत्यों के माध्यम से यह समझ सकेंगे कि हम किस प्रकार अपनी समस्याओं को बनाए रखते हैं, और यह कि हम किस प्रकार स्वयं को इन समस्याओं से मुक्त कर सकते हैं।

प्रामाणिक बोध से उत्पन्न हमारी यह मान्यता कि तीनों शराणगतियाँ सत्य हैं, दृढ़ हो जाती है।

याद रखें कि ये तीनों शरणागतियाँ एक ऐसे वास्तविक लक्ष्य के रूप में तय की गई हैं जिसे हम हासिल कर सकते हैं – हमारी सभी समस्याओं का पूर्ण निरोध ताकि वे दोबारा कभी उत्पन्न न हों और यह बोध कि हम इसे सम्भव करके दिखाएंगे।

जब आप बौद्ध मार्ग की साधना करना चाहते हैं तो आप किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयासरत होते हैं। अब आपको यह कैसे पता चलेगा कि उस लक्ष्य को प्राप्त करना सम्भव है? क्या यह लक्ष्य केवल एक कल्पना मात्र है? क्या यह केवल एक लुभावनी कहानी है या यह वास्तव में सत्य है? बहुत से लोग केवल आस्था के कारण इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं: “मेरे शिक्षक ने बताया है कि ऐसा हो सकता है। और ठीक है, मैं उनकी बात पर यकीन करना चाहता हूँ, इसलिए मैं विश्वास करता हूँ।”

यह तरीका बहुत से लोगों के लिए प्रभावकारी हो सकता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि यह तरीका ही हमेशा साधना करने का सबसे टिकाऊ तरीका हो। लम्बे समय तक अभ्यास करने के बाद अक्सर ऐसा होता है कि आप प्रश्न पूछने लगते हैं कि मैं कर क्या रहा हूँ? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आप अभी भी क्रोध, आसक्ति, स्वार्थ आदि – जो समस्याओं के वास्तविक कारण होते हैं – से प्रभावित होते हैं और इनसे मुक्ति पाना सचमुच बहुत कठिन होता है। इसलिए हमारी प्रगति बहुत धीमी होती है। लेकिन आपको यह भी समझना चाहिए कि प्रगति कभी भी एक सीधी रेखा के समान आगे नहीं बढ़ती है: उसमें हमेशा उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। किसी दिन अभ्यास अच्छा चलता है तो कोई दिन खराब भी जाता है। यदि आप केवल आस्था के कारण बौद्ध विधियों का अभ्यास कर रहे हैं तो आपको निराशा हो सकती है क्योंकि ऐसा नहीं लगता है कि आप कहीं पहुँच रहे हैं। तब आप यह प्रश्न पूछ सकते हैं, “क्या इस लक्ष्य को हासिल करना सचमुच सम्भव है?”

इसीलिए इस छंद में कहा गया है, “प्रामाणिक बोध से उत्पन्न...मान्यता”। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, जब आप वास्तव में तर्क और विवेक के आधार पर यह बोध हासिल कर लेते हैं कि यह लक्ष्य वास्तविक है और इसे हासिल करना वास्तव में सम्भव है, तब इस लक्ष्य के प्रति, इसकी प्राप्ति की व्यवहार्यता और इस बात के प्रति धारणा बहुत दृढ़ हो जाती है कि ऐसे लोग भी हुए हैं जिन्होंने इसे हासिल किया है। आप विश्वास करने लगते हैं कि ये बातें केवल इसलिए ही सत्य नहीं हैं क्योंकि ये किसी धर्म ग्रंथ में लिखी हुई हैं। आपको यकीन हो जाता है कि ये बातें इसलिए सच हैं क्योंकि दोनों सत्य यथार्थ हैं, और यथार्थ पर आधारित चारों सत्य और तीन शरणागतियाँ तर्कसंगत हैं।

      मुझे प्रेरणा दें कि मैं मुक्ति देने वाले मार्गचित्त के इस मूल को रोप सकूँ।

सामान्यतः हम बीज को रोपते हैं, लेकिन यहाँ बीज के बजाए “मूल” को रोपा जाता है। शब्दों का यह चयन दर्शाता है कि दोनों सत्यों, चार सत्यों और तीन शरणागतियों का स्वरूप ही पूरे बौद्ध आध्यात्मिक मार्ग का मूल है क्योंकि बाकी सब कुछ इसी के परिणामस्वरूप घटित होता है। जब यह मूल दृढ़ता से आपके चित्त में आरोपित हो जाता है तो आपकी समस्त साधना को दृढ़ विश्वास का आधार मिल जाता है। आपको यह बोध हो जाता है कि आप क्या कर रहे हैं, आप जान पाते हैं कि इस लक्ष्य को हासिल कर पाना सम्भव है, और आपको यह बोध भी हो जाता है कि लक्ष्य क्या है।

मैं मानता हूँ कि बौद्ध धर्म के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि हम किसी आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करने वाले हों तो यह आवश्यक होता है कि हमें सके यथार्थवादी होने पर दृढ़ विश्वास हो। यह कोई ऐसी आदर्शवादी कल्पना नहीं है जिसकी ओर हम भावनात्मक कारणों से आकृष्ट हुए हों लेकिन जो पूरी तरह असम्भव हो। यदि हमें दृढ़ विश्वास हो कि हम अपने आध्यात्मिक जीवन में जो कुछ कर रहे हैं वह व्यावहारिक है तो फिर हम उसमें हितकर मनोभावों को डाल सकते हैं। हमें बोध और हितकर मनोभाव, जैसे करुणा, उत्साह, धैर्य, आदि दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता होती है।

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