बौद्ध धर्म तथा अद्वैत वेदांत में अद्वैतवाद

बौद्ध धर्म में अद्वैतवाद

चित्तमात्र प्रणाली

भारतीय बौद्ध सिद्धांतों की चित्तमात्र (केवल मन) प्रणाली में अद्वैत का तात्पर्य है संज्ञानात्मक प्रतिभास एवं संज्ञानात्मक बोध के मूल पदार्थों या द्रव्यों की पृथकता। किसी वस्तु का द्रव्य या हेतु वह है जिससे उसकी उत्पत्ति होती है एवं जो उसका सृजन करता है, जैसे रोटी के लिए चूल्हा या मिट्टी के घड़े के लिए चाक। किसी वस्तु के प्रतिभास तथा उसे ग्रहण करने वाले बोध एवं उससे संलग्न चित्त संस्कार ही वह कर्म बीज है जो आलयविज्ञान (सर्वव्यापक आधार-चेतना, चेतना का भंडार) पर आधारित प्रज्ञप्ति (आरोपित परिघटना) है।

  • एक आरोपित परिघटना वह है जो विद्यमान नहीं हो सकता और जिसका किसी आधार के बिना बोध नहीं किया जा सकता।

ऐसा नहीं है कि किसी आलम्बन के प्रतिभास का मूल द्रव्य कोई पृथक "बाह्य" आलम्बन है। "बाह्य" का तात्पर्य यह है कि उस आलम्बन का मूल द्रव्य उसे ग्रहण करने वाले चित्त से पृथक है। ऐसा प्रतीत होता है कि आलम्बन तथा उसके बोध के मूल द्रव्य अलग-अलग हैं, परन्तु यह द्वैत भाव केवल मायिक है। पर यह बात यथार्थ से मेल नहीं खाती।

यद्यपि चित्तमात्र प्रणाली के अनुसार प्रत्यक्ष बोध (देखना, सुनना, इत्यादि) के आलम्बन, उनकी चेतना, आलयविज्ञान, एवं शून्यता (अद्वैत) का अस्तित्व सत्यसिद्ध है, जिसका अर्थ यह हुआ कि उनका इस या उस भाव से अस्तित्वमान होना उनकी अपनी विशेषताओं (लक्षणों) से सिद्ध होता है, जो उनके आधारभूत आरोपित धर्म (प्रज्ञप्ति धर्म) से स्वतंत्र है (यह उस अप्रमाणाभ श्रेणी से पृथक है जो प्रज्ञप्ति धर्म युक्त रूप से अस्तित्वमान है जिनका आरोपण उन पृथक वस्तुओं पर है जो कुछ विशेष लक्षण साझा करती हैं)।

गैर-गेलुग माध्यमक प्रणालियाँ

शाक्य, न्यिन्गमा, एवं काग्यू माध्यमक प्रणालियों में अद्वैत का अर्थ एकसमान है। इनके अनुसार अलग-अलग स्रोतों से उत्पन्न संज्ञानात्मक प्रतिभास (आलम्बन) तथा संज्ञानात्मक बोध के पृथक-पृथक अस्तित्व नहीं होते (यद्यपि वे "मूल द्रव्य" शब्द का प्रयोग नहीं करते)। आलयविज्ञान की उनकी परिभाषाएँ भी चित्तमात्र से पृथक हैं, और साथ ही चित्त के प्रभास्वर (सूक्ष्मतम) स्तर के आधार पर इन तीन तिब्बती प्रणालियों की व्याख्याएँ भी पृथक हैं। इन तीन प्रणालियों एवं चित्तमात्र के बीच का महत्वपूर्ण अंतर यह है कि किसी का भी अस्तित्व सत्यसिद्ध नहीं है।

इन तीन प्रणालियों के कई आचार्य स्वशून्यता और परशून्यता में अंतर करते हैं। इन दोनों की कई व्याख्याएँ हैं। शब्दातीत एवं अनिर्वचनीय होने के कारण स्व-शून्यता उस शून्यता को संदर्भित करता है जो सत (विद्यमान), असत, उभय, तथा दोनों नहीं के वैचारिक रूप से ज्ञेय श्रेणियों से परे हैं। परशून्यता भी शब्दातीत एवं अनिर्वचनीय होने के कारण चित्त के उस स्तर को संदर्भित करता है जो निर्वचनीय स्तर से भी सूक्ष्मतर है।

गेलुग प्रासंगिक प्रणाली

गेलुग प्रासंगिक-माध्यमक प्रणाली के अनुसार अद्वैत का तात्पर्य है सत्यसिद्ध ज्ञेय अस्तित्व की अनुपस्थिति। सत्यसिद्ध ज्ञेय अस्तित्व इस अर्थ में द्वैत है कि यदि वह यथार्थ में अस्तित्वमान होता तो वह सत्यसिद्ध ज्ञेय अस्तित्व की अनुपस्थिति के इतर किसी अन्य रूप में अस्तित्वमान होता। यद्यपि आत्मग्राह की सहजबुद्धि से युक्त चित्त सत्य स्वभावसिद्ध अस्तित्व के आभास को जन्म देता है, परन्तु वह आभास किसी यथार्थ से मेल नहीं खाता क्योंकि सत्य स्वभावसिद्ध अस्तित्व स्वयं निस्सत्व है। "सत्य स्वभावसिद्ध अस्तित्व" का अर्थ है कि उक्त वस्तु ज्ञेय निर्धारक विशेषताओं से युक्त है।

शाक्य, न्यिन्गमा, तथा काग्यू माध्यमक, एवं गेलुग प्रासंगिक-माध्यमक विचार दोनों ही नागार्जुन से समुद्भूत हुए हैं। उनमें से कोई भी यह नहीं कहता कि सब कुछ पूर्णतया परिकल्पना मात्र है। शांतिदेव ने स्पष्ट रूप से उल्लिखित किया है कि किसी व्यिक्ति को मारने और किसी व्यक्ति के आभास को मारने में अंतर है। परन्तु गैर-गेलुग प्रणालियाँ इस बात पर बल देती हैं कि अनभिज्ञता (अविद्या) से संक्रमित चित्त जो भी परखता है वह माया है। इन प्रणालियों के इस दृढ़-ज्ञापन का कारण यह है कि, गेलुग के विपरीत, ये किसी के विशुद्ध अस्तित्व के अवभास एवं वह वस्तु किस प्रकार अस्तित्वमान है उसके अवभास के बीच अंतर नहीं करते। चूँकि अविद्या युक्त चित्त के लिए सब कुछ सत्यसिद्ध है, ये सभी अवभास माया है। इसके ठीक विपरीत, गेलुग की उक्ति यह है कि इस प्रकार के सभी अवभास माया है। वह किस प्रकार अस्तित्वमान है इसका अवभास भ्रामक है क्योंकि वह उसके वास्तविक अस्तित्व के साथ मेल नहीं खता, परन्तु उसका वैध व्यावहारिक अवभास माया नहीं होता।

अद्वैत वेदांत

कुछ पारिभाषिक शब्दावली ऐसी है जो अद्वैत वेदांत और माध्यमक प्रणालियाँ साझा करती हैं जिसके फलस्वरूप उनमें अनेक समानताएँ प्रतीत होती हैं। परन्तु, शांकर प्रणाली में कई महत्त्वपूर्ण अंतर हैं:

पारंपरिक आत्म

शंकर का दावा है कि व्यवहारसत, अनुभवजन्य रूप से विद्यमान जीव निष्क्रिय साक्षी चेतनता एवं सक्रीय अंतःकरण का सम्मिश्रण है जो ज्ञात आलम्बन का रूप धारण कर लेता है। मोक्ष से पहले, गहरी नींद में ही सही, दोनों सदा ही एक साथ होते हैं, और साक्षी चेतनता उस अविद्या में लीन हो जाती है जो प्रत्येक सजीव आत्म के अपने हिस्से की माया होती है। बौद्ध धर्म इस बात पर बल देता है कि वैयक्तिक स्कन्धों के समतान के आधार पर व्यवाहरसत आत्म प्रज्ञप्ति धर्म है, परन्तु वह उनमें से किसी का सम्मिश्रण नहीं है।

ब्रह्म तथा आत्म या शून्यता के बीच का सम्बन्ध

शंकर का यह कहना है कि प्रत्येक द्रष्टा चैतन्य निर्गुण ब्रह्म के तद्रूप है, और यह भी कि मोक्ष प्राप्ति के पश्चात उस चैतन्य का अंतःकरण माया में लीन हो जाता है एवं वह चैतन्य स्वयं निर्गुण ब्रह्म में लीन हो जाता है। बौद्ध धर्म के परिप्रेक्ष्य में व्यवहारसत आत्म एवं स्वशून्यता (सत्यसिद्ध अस्तित्व का अभाव) के सम्बन्ध को देखा जाए तो बौद्ध धर्म कभी यह नहीं कहता कि दोनों समरूप हैं, और न ही यह कि मोक्ष या ज्ञानोदय-प्राप्ति के पश्चात उनका विलय हो जाता है। स्वशून्यता व्यवहारसत के अस्तित्व का विधान है जो है सत्यसिद्धहीन रूप से अस्तित्वमान रहना। और जहाँ तक सत्यसिद्ध अस्तित्व का प्रश्न है, वह तो सरासर मिथ्या है। यदि परशून्यता के संदर्भ में विश्लेषण किया जाए, और परशून्यता को प्रभास्वर (मानसिक क्रियाकलाप का सूक्ष्मतम स्तर में स्थित निर्मल चित्त) के रूप में परिभाषित किया जाए, तो यद्यपि सामान्यतया एक सत्यसिद्धहीन अस्तित्व एवं सत्यसिद्ध अस्तित्व दोनों के अवभास-निर्माण प्रभास्वर के अवभास के आयाम ही हैं, वे प्रभास्वर के समरूप नहीं हैं। बौद्ध धर्म में "समरूप" का तात्पर्य है सम्यक् प्रकार से अनुरूप, या बराबर, होना। यद्यपि ज्ञानोदय-प्राप्ति के बाद सत्यसिद्ध आत्म का अवभास, यहाँ तक कि उसमें विश्वास भी, अस्तित्व विहीन हो जाता है, उसका तात्पर्य यह नहीं हो जाता कि सत्यसिद्ध आत्म प्रभास्वर में विलीन हो जाता है। इसके अतिरिक्त, ज्ञानोदय-प्राप्ति के पश्चात भी सत्यसिद्धहीन आत्म का प्रज्ञप्ति धर्म तो विद्यमान रहता ही है।

शंकर का मानना है कि माया ईश्वर की शक्ति है। अनुभवजन्य यथार्थ, जिसे सार्वभौमिक स्तर पर परखा जाता है, ईश्वर-सृष्ट है और वह व्यावहारिक है। वैयक्तिक यथार्थ, जिसे व्यक्तिगत स्तर पर परखा जाता है, जीव-सृष्ट है और वही प्रातिभासिक संसार है। ये दोनों संसार, अर्थात् अनुभवजन्य एवं जीव-सृष्ट, माया जनित हैं। मुझे नहीं पता कि शंकर की सृष्ट  (प्रकट, रचित) की अवधारणा चित्तमात्र के मूलस्रोत एवं आलयविज्ञान की चर्चा से किस प्रकार सम्बन्धित है। मुझे नहीं लगता कि वे समरूप हैं।

अद्वैत में माया का वर्णन सांख्य में प्रकृति की उक्ति के समतुल्य नहीं है जहाँ प्रकृति को माया का विकार कहा गया है। 

शंकर के अनुसार, माया को सत या असत के रूप में लक्षित नहीं किया जा सकता। अज्ञानता तब होती है जब हम अपने भीतर के निजी संसार और बाहर के सार्वजनीन संसार दोनों को लेकर उलझ जाते हैं। भीतर के संसार के आलम्बन, जो व्यक्तिगत रूप से परखे जाते हैं, केवल तब तक बने रहते हैं जब तक परखने वाला उन्हें परखता रहता है, परन्तु बाहरी संसार के आलम्बन, जिन्हें सभी परखते हैं, बने रहते हैं उन्हें चाहे कोई परखे या न परखे, क्योंकि उन पर ईश्वर की दृष्टि सदा रहती है। अतः, इस प्रकार, इस विषय में बौद्ध धर्म का दृष्टिकोण, चित्तमात्र और माध्यमक दोनों ही सम्प्रदायों में, पूर्णतया पृथक है।

अंतराल (आकाश) और काल

शंकर कहते हैं कि विभिन्न जीवात्मा एवं माया, और स्वयं ईश्वर भी, अंतराल या काल के अधीन नहीं हैं। परन्तु, वैयक्तिक तथा सर्वजनीन रूप से गोचर सभी आलम्बन अंतराल एवं काल के अधीन हैं, तथा अंतराल स्वयं काल के अधीन है। जीवात्माओं को माया से जोड़ने वाला काल है।

माध्यमक सम्प्रदाय में काल एवं अंतराल को आलम्बनों के कोश के रूप में नहीं माना गया।  काल परिवर्तन का परिमाण है, और अंतराल (आकाश) उस ठोस वस्तु अथवा विघ्न का अभाव है जो किसी स्थूल आलम्बन को विमा-त्रय में अस्तित्वमान होने से रोकता हो। काल और अंतराल दोनों ही सत्यसिद्ध अस्तित्व से रहित हैं।

अद्वैत

निर्गुण ब्रह्म स्वयं ही काल-अंतराल के क्षेत्र में मायिक आलम्बनों, तथा जीवात्माओं एवं ईश्वर के विभिन्न एवं पृथक रूपों में परिवर्तित होता है, अर्थात्, वह ब्रह्म इन सभी रूपों का विवर्त  है। परन्तु निर्गुण ब्रह्म स्वयं अपरिवर्तित रहता है। सगुण ब्रह्म इन विविध रूपाकारों का ऐक्य  है - इस सन्दर्भ में कि ये सभी रूपाकार मायिक है। परन्तु, निर्गुण ब्रह्म अद्वैत है क्योंकि वह भेद और अभेद के विशिष्टीकरण से परे है। इस प्रकार, शंकर का अद्वैत वेदांत सिद्धांत रामानुज के उस विशिष्टाद्वैत सिद्धांत के समरूप नहीं है जिसके अनुसार माया एवं जीवात्मा ब्रह्म की परिणामस्वरूपा हैं एवं वे ब्रह्म से उद्भूत हैं। न ही वह कुमारिल के पूर्व मीमांसा के भेदाभेद सिद्धांत के समरूप है।

जब माध्यमक न एक न अनेक के तर्क का उपयोग करता है तो यह इस तथ्य को उद्धृत करता है कि यदि आलम्बनों का अस्तित्व सत्यसिद्ध होता, जैसे आत्म एवं स्कंध, तो या तो इनमें से केवल एक ही की आवश्यकता होती (जिसके फल स्वरूप आत्म तथा स्कंध एक ही होते, सम्यक् रूप से अभिन्न), या फिर अनेक सत्यसिद्ध रूप से अस्तित्वमान आलम्बन होते जो एक-दूसरे से सम्यक् रूप से पृथक होते। चूँकि इनमें से कोई भी विकल्प तर्क-संगत नहीं है, इसका अर्थ यह हुआ कि सत्यसिद्ध अस्तित्व भी मिथ्या है। शून्यता सत्यसिद्ध अस्तित्व का अभाव है – एक या अनेक सत्यसिद्ध रूप से अस्तित्वमान आलम्बनों का अभाव।

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