आत्मा, आत्म, की विशेषताओं के प्रति सांख्य दर्शन, न्यायदर्शन, और बौद्ध धर्म का दृष्टिकोण

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आइए आत्मा, आत्म, की विभिन्न विशेषताओं के विषय में सांख्य दर्शन, न्याय दर्शन, और बौद्ध धर्म की व्याख्याओं की तुलना करें।

संज्ञान के विषय में अभिकथन

संज्ञान पर सांख्य दर्शन के अभिकथन

सांख्य दर्शन के अनुसार - यह अत्यंत रोचक है क्योंकि यह पश्चिमी वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समरूप लगता है - आलम्बनों का संज्ञान पूर्ण रूप से शारीरिक धर्म है, जिसमें मस्तिष्क और मस्तिष्क की तरंगें सम्मिलित हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार, पुनर्जन्म होते ही चैतन्यता की आत्मिक क्षमता स्थूल शरीर में प्रवेश करती है और एक प्रकार से, पश्चिम में हम जिसे मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र कहते हैं, उन्हें सक्रिय करता है। अब, चूँकि संज्ञान मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र की शारीरिक क्रियाएँ हैं, ये दोनों आलम्बनों का संज्ञान लेने की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि ये चैतन्यता की इस भौतिक क्षमता से क्रियान्वित हुए हैं।

शरीर में निवास करते हुए आत्मा चैतन्यता के भौतिक संकाय के सम्पर्क में आती है। स्वयं चेतन होने पर भी आत्मा आलम्बनों का संज्ञान लेने में अक्षम होती है, इसलिए अज्ञानवश वह इस भौतिक चैतन्यता की क्षमता के साथ तादात्म्य स्थापित करती है और आलम्बनों के संज्ञान हेतु उसका उपयोग करती है। परन्तु आलम्बनों का संज्ञान तब भी पूर्ण रूप से शारीरिक धर्म ही रहता है।

जैसा मैंने पहले कहा था कि सांख्य दर्शन की व्याख्या, कि संज्ञान पूर्ण रूप से एक शारीरिक धर्म है, पश्चिमी वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसी लगती है। संज्ञानात्मक विज्ञान सबको मस्तिष्क के विभिन्न भागों की क्रियाओं तक सीमित कर देता है, फिर चाहे वे मस्तिष्क तरंगें हों या स्नायुरवैद्युत चेतना, या फिर कुछ और ही सही।

हम मनसाकार (मानसिक क्रियाकलाप) को इस वैज्ञानिक व्याख्या से किस प्रकार जोड़ें? क्या संज्ञान केवल इस या उस प्रकार की मस्तिष्क की तरंग है जो मस्तिष्क के अलग-अलग भागों से उत्पन्न होती हैं, और इससे अधिक और कुछ भी नहीं? उससे "मैं" का क्या संबंध है? यदि संज्ञान यही है तो हम कौन हैं? क्या हमें ऐसा लगता है कि हम इस मनसाकार के समरूप हैं? सांख्य दर्शन भी कहता है कि यद्यपि हम प्रायः ऐसा ही सोचते हैं, परन्तु वह सही नहीं है। क्या हम ही वह हैं जो इस क्रियाकलाप को नियंत्रित करते हैं, जो इसे घटित कराते हैं? या फिर क्या "मैं" मस्तिष्क के इस शारीरिक धर्म का केवल निष्क्रिय द्रष्टा है? क्या "मैं" ज्ञाता है? क्या संज्ञान का कोई व्यक्तिपरक घटक है या यह कंप्यूटर की कार्यप्रणाली की भाँति केवल यांत्रिक है?

अतः, सांख्य दर्शन द्वारा प्रस्तुत पूर्व पक्ष की चुनौती का हम इस प्रकार विश्लेषण करते हैं एवं प्रत्युत्तर देते हैं। यह बात तो स्पष्ट है कि इस पूर्वपक्ष के द्वारा उठाए गए प्रश्न कदापि सरल नहीं हैं। तथापि, इक्कीसवीं सदी के बौद्ध धर्मी साधक होने के नाते हमें वैज्ञानिक रूप से सोचना चाहिए। हम विज्ञान को नकार नहीं सकते। परमपावन दलाई लामा जब वैज्ञानिकों से मिलते हैं तो वे कहते हैं कि, "बौद्ध धर्म और विज्ञान परस्पर जुड़ सकते हैं। यदि बौद्ध धर्म के किसी भी कथन को विज्ञान असत्य प्रमाणित करता है, जैसे अभिधम्म का प्रतिपादन कि धरती चौरस एवं सपाट है, तो हम उसे बौद्ध धर्म से हटा देते हैं।

अतः, सांख्य दर्शन के अनुसार हमें आलम्बनों का बोध इसी प्रकार होता है। आत्मा होने के नाते हम निष्क्रिय चित्त हैं जिसे स्वयं किसी भी आलम्बन का बोध नहीं होता। हमें आलम्बनों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी शरीर में प्रवेश करने तथा उसके मस्तिष्क एवं मस्तिष्क तरंगों जैसी भौतिक इन्द्रियों से संबद्ध होने की आवश्यकता है।

संज्ञान पर न्याय दर्शन के प्रतिपादन 

न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा, जो अज्ञाता है और जिसे किसी वस्तु का बोध नहीं है, आलम्बनों के संज्ञान हेतु प्रज्ञा के सूक्ष्म परमाणुओं से सम्बद्ध होती है, परन्तु स्वभाववश इसमें चैतन्यता का गुण नहीं होता। यहाँ वे क्षुद्र सूक्ष्म परमाणुओं की बात करते हैं, वे कुछ भी हो सकते हैं। तो सूक्ष्म परमाणुओं को प्रज्ञा कहते हैं।

न्याय का एक अत्यंत रोचक सिद्धांत है। यह प्रत्येक वस्तु को ज्ञेय ठोस इयत्ताओं में परिवर्तित करता है - मूल धर्म, गुण, क्रियाकलाप, और सम्बन्ध। मैं इसकी प्रणाली को दो गेंद और उन्हें जोड़ने वाली एक छड़ी के रूप में देखता हूँ। "हमारे सम्बन्ध" के बारे में हम ऐसे ही बात करते हैं। क्या आप कभी उसपर चर्चा करते हैं? "आप हमारे सम्बन्ध को नहीं समझते।" "आप हमारे सम्बन्ध को कैसे समझते हैं?" जैसे वह सम्बन्ध कोई ठोस वस्तु हो जो एक ठोस आप को एक ठोस मुझ से जोड़ता हो, और फिर इससे पृथक कोई अन्य "मैं" भी है जिसे हमारे संबंध से जुड़ना होता है। यदि सोचा जाए तो यह एक अत्यंत विचित्र बात है। यह है न्याय दर्शन, न्याय का प्रतिपादन।

बौद्ध धर्म कहता है कि यदि कोई ऐसा "मैं", आत्मा, जो अज्ञाता है, एवं प्रज्ञा के किंचित्त परमाणु अस्तित्वमान हैं, तो यह "मैं" एक अंधा व्यक्ति होगा: ऐसे में वह किस प्रकार आलम्बन का बोध करने के लिए प्रज्ञा के क्षुद्र परमाणुओं से सम्पर्क करता है? क्या वह लाठी की सहायता से चलने वाले अंधे की भाँति है? लाठी के सहारे अंधे को यह बोध होता है कि पैड़ी कहाँ है। क्या आत्म को आलम्बनों का बोध इसी प्रकार होता है - वह मनस परमाणु के साथ किसी प्रकार का सम्पर्क बनाता है, या फिर मनस परमाणु कुछ जटिल प्रतीत हो तो मस्तिष्क से बनाता है? अत्यंत रोचक है, है न? तो फिर "मैं" और मस्तिष्क के बीच क्या संबंध है और यह संबंध किस प्रकार बनता है? क्या आपने कभी इस पर विचार किया है?

ये बौद्ध धर्म के पक्ष, पूर्व पक्ष, दूसरे पक्ष की आपत्तियाँ हैं। जब हम बौद्ध धर्म में बताए गए आत्म की बात करते हैं और हम किसी असंभव आत्म का खंडन करते हैं, तभी यह नगण्य पूर्वपक्ष उपस्थित हो जाता है। यह प्रतिद्वंद्वी, विवाद में सांख्य या न्याय दर्शन का प्रतिद्वंद्वी बनकर, हमें ललकारता है और कहता है: "तो फिर मस्तिष्क का क्या हुआ? मस्तिष्क तरंगों का क्या हुआ?" तब हमें मस्तिष्क और मस्तिष्क की तरंगों को "मैं" के संदर्भ में समझाना पड़ता है। हम कुछ भी कैसे जानते हैं? यदि केवल मस्तिष्क ही वस्तुओं को जानता है, तो यह मस्तिष्क वस्तुओं को किस प्रकार जानता है? उसे एक बोतल में डाल दें; वह कुछ भी नहीं जानता। इसे कैसे सक्रिय किया जाता है? क्या ऐसा कोई मनस परमाणु है जिसे हम सुई से इसमें भरते हैं ताकि मस्तिष्क काम करना आरम्भ कर दें? या फिर हम चेतनता के गुण से युक्त "मैं" को उसमें सुई से भर देते हैं जिससे मस्तिष्क काम करना आरम्भ कर देता है? जिस "मैं" को हम सुई से भरते हैं, क्या वही चित्त है? या फिर क्या वह "मैं" चेतना-विहीन है और हम उसे मस्तिष्क में भर देते हैं, और सहसा वह ज्ञाता हो जाता है क्योंकि हमने उसे इस जीवन रक्षक नली से जोड़ दिया है?

ये पूर्वपक्ष के प्रश्न सांख्य और न्याय दर्शनों से उत्पन्न होते हैं। ये ही वे विषय हैं जिनका चिंतन पूर्वपक्ष कराता है। हम कुछ भी कैसे जान पाते हैं?

प्रज्ञा सम्बन्धी बौद्ध-धर्मी प्रतिपादन

जैसा मैंने पहले बताया, बौद्ध धर्म में उल्लिखित आत्मा, अर्थात् अनिषेध्य आत्म, आलम्बनों का संज्ञान इस अर्थ में लेती है कि वह चित्त का प्रज्ञप्ति धर्म है। यही उसका सीधा अर्थ है, और मस्तिष्क, उसकी तरंगें इत्यादि को प्रज्ञा की शारीरिक प्रतिवस्तुओं के रूप में लाना किसी प्रकार से विरोधात्मक नहीं है। बौद्ध धर्म चित्तज क्रियाकलाप का - बौद्ध-धर्मी परिभाषा के अनुसार - वह केवल मानसिक आकार (होलोग्राम) एवं संज्ञानात्मक संलग्नता की उत्पत्ति है। ये एक ही परिघटना को समझने के दो आत्मनिष्ठ मार्ग हैं। हम उसी परिघटना को सम्बद्ध पदार्थ एवं ऊर्जा के संदर्भ में वस्तुपरक रूप से भी वर्णित कर सकते हैं, अर्थात् मस्तिष्क की तरंगे, एवं उसके आधार – मस्तिष्क, तंत्रिका तंत्र, इत्यादि – के संदर्भ में। यह सम्पूर्ण चित्र का एक अन्य भाग है, पर हम यह नहीं कह सकते कि प्रज्ञा की पूरी प्रक्रिया केवल मस्तिष्क के अधीन है, और न ही हम यह कह सकते हैं कि यह केवल "मैं" का क्रियाकलाप है।

पुनर्जन्म सम्बन्धी दृष्टिकोण

अगला विषय: आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप की अनभिज्ञाताता के कारण पुनर्जन्म लेती है। तीनों दर्शन प्रणालियाँ - सांख्य, न्याय और बौद्ध दर्शन - इस बात पर एकमत हैं। हमारा पुनर्जन्म होता है क्योंकि हम अज्ञाता हैं; हम अपने अस्तित्व के विषय में या तो अज्ञाता हैं या मिथ्या बोध ग्रस्त हैं। 

सांख्य दर्शन का कथन है कि केवल आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता। उसके अनुसार सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म लेता है - हिन्दू धर्म, उदाहरण के लिए अद्वैत वेदांत, जो बाद में विकसित हुआ, की मान्यता भी कुछ इसी प्रकार है। सांख्य दर्शन के अनुसार सूक्ष्म शरीर चैतन्यता के शारीरिक संकाय, आत्मज्ञान के शारीरिक संकाय, चित्त के शारीरिक संकाय, क्रिया के शारीरिक संकाय, एवं पंच-तन्मात्राओं से निर्मित है। तो, इस अर्थ में, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म तत्वों एवं अनेक शारीरिक तत्वों से बना हुआ है जो किसी न किसी प्रकार से उस स्थूल शरीर के भौतिक तत्वों को सक्रिय करते हैं जिसमें वह पुनर्जन्म लेने के लिए प्रवेश करता है। मृत्यु पर स्थूल शरीर विघटित हो जाता है, परन्तु प्रज्ञा के भौतिक संकाय तथा सूक्ष्म तत्व एक नए स्थूल शरीर में प्रवेश करते हैं। आत्मा गतिहीन है तो वह कुछ नहीं करती। वह प्रत्येक जीवनकाल में सूक्ष्म शरीर से जुड़ जाती है एवं, अज्ञान के कारण, प्रज्ञा के भौतिक संकाय के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करती है, परन्तु यह सूक्ष्म शरीर का संकुल अपनी सम्पूर्णता में सतत गतिशील रहता है।

यह कुछ-कुछ तंत्र की उच्चतम श्रेणी में पुनर्जन्म की बौद्ध-धर्मी व्याख्या जैसा लगता है, है न? सामान्य अनुत्तरयोग तंत्र के अनुसार जो उत्तरोत्तर जीवनकालों में सतत गतिमान रहता है वह है सूक्ष्मतम प्रभास्वर चित्त एवं इसकी भौतिक नींव के रूप में सूक्ष्मतम प्राण-वायु का सम्पुट। कालचक्र उसमें सूक्ष्मतम वाणी और सूक्ष्मतम ऊर्जा-बिंदु जोड़ता है जिसमें लेश मात्र सूक्ष्म तत्त्वों के अंश होते हैं। पुनर्जन्म के समय मानव या पशु की योनियों में यह पोटलिका अंडाणु एवं शुक्राणु के स्थूल तत्वों से जुड़ जाती है, जिसके बाद ये स्थूल तत्व चित्तज क्रियाकलाप का आधार बन जाते हैं जो तदनुसार स्थूलतर बनते जाते हैं।

तो क्या हम यहाँ सांख्य दर्शन द्वारा प्रतिपादित अतिवाद को मानते हैं कि यह सूक्ष्मतम पोटलिका सांख्य दर्शन में बताए गए सूक्ष्मतम शरीर का बौद्ध-धर्मी समरूप है और वही उत्तरोत्तर जीवनकालों में सतत रूप से चलती है, एवं "मैं" एक नित्य पदार्थ है जो जैसे-तैसे उससे जुड़ जाता है? क्या हम पुनर्जन्म की यही छवि बनाते हैं जब भी हम प्रत्येक जीवनकाल में साथ चलने वाले सूक्ष्मतम चित्त और सूक्ष्मतम प्राण-वायु की इस पोटलिका की बात सुनते हैं - विशेषकर जब इस पोटलिका को बुद्धगोत्र के संदर्भ में परखा जाता है? क्या प्रत्येक जीवनकाल में साथ चलने वाली इस पोटलिका को ही हम "मैं" मानते हैं? यदि नहीं, तो इन सबके संबंध में "मैं" क्या है? यही हैं अनुत्तरयोगतंत्र की व्याख्याओं में उभरकर आने वाले पूर्व पक्ष के प्रश्न।

बौद्ध-धर्मी एवं ग़ैर-बौद्ध धर्मी दृष्टिकोणों के बीच का अंतर यह है कि आत्मा, अनिषेध्य आत्मा, इस पोटलिका के समतुल्य नहीं है, न ही यह कोई नित्य धर्म है चाहे चैतन्यता के साथ हो या उसके बिना, जो अपनेआप को इस पोटलिका के साथ जोड़ लेती है, परन्तु वह एक सम्पूर्ण रूप से स्वतंत्र इयत्ता है। अपितु आत्म, अनिषेध्य आत्मा, इस पोटलिका का प्रज्ञप्ति धर्म होता है, तथा प्रत्येक जन्म में उस जीवनकाल में विकसित स्कन्धों का प्रज्ञप्ति धर्म होता है। मोक्ष या ज्ञानोदय प्राप्ति के बाद भी वह इसी पोटलिका का प्रज्ञप्ति धर्म बना रहता है।

परिकल्पित आत्म को परिभाषित करने वाले तीन लक्षणों का बौद्ध-धर्मी खंडन 

असंभव आत्मा या असंभव आत्म के परिकल्पित उपादान के संदर्भ में आत्मा के जिन तीन परिभाषित करने वाले लक्षणों को खंडित किया जा रहा है, यथा - नित्य, निरवयव, तथा मोक्ष के उपरांत शरीर एवं चित्त से स्वतंत्र अस्तित्व - के विषय में क्या कहा जा रहा है? सांख्य एवं न्याय दर्शनों की मान्यता क्या है और उनका बौद्ध-धर्मी खंडन क्या है?

सांख्य दर्शन का अभिकथन

सांख्य दर्शन का मानना यह है कि आत्मा अचल है: यह किसी से भी प्रभावित नहीं होती; यह पूर्ण रूप से निष्क्रिय है। अचल एवं तदर्थ निष्क्रिय होने के कारण यह न कुछ कर सकती है और न ही कुछ ग्रहण कर सकती है, क्योंकि कुछ करने या ग्रहण करने के लिए अनित्य एवं प्रतिक्षण परिवर्तनशील होना अनिवार्य है। आत्म केवल अचल निष्क्रिय चित्त है जिसका कोई आलम्बन नहीं होता। यह अनभिज्ञाता है। फिर भी सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा कर्मफल को भोगती है क्योंकि वह भौतिक इन्द्रियों से युक्त है और क्योंकि पाप-पुण्य के फलस्वरूप ये इन्द्रियाँ मस्तिष्क के महाभूतों को सक्रिय कर मस्तिष्क के सुख-दुःख की तरंगों को उत्पन्न करती हैं। आत्मा, या आत्म, अचल होते हुए भी कर्मफल को भोगने के इस अंतर्विरोध की सांख्य दर्शन इस प्रकार व्याख्या करता है कि कर्मफल-आधारित सुख-दुःख का अनुभव केवल भ्रम है।

निरवयव के गुण से युक्त होने की बात पर क्या विचार है? सांख्य दर्शन प्रकृति को प्रतिपादित करता है और कहता है कि सभी भौतिक तत्व, जिन्हें 24 प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है, इस प्रकृति के "दोष" हैं - यह एक पारिभाषिक पद है। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है, अर्थात् यह तीन गुणों से युक्त है - सत्त्व, रज, तम - जो रस्सी के धागों की भाँति गुँथे हुए हैं। आयुर्वेद में भी इन तीनों गुणों का वर्णन है। इन त्रिगुणों को कई प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। पर बात यह है कि ये तीनों आंदोलित और असंतुलित हो जाते हैं; इस प्रकार के आंदोलन को "दोष" कहते हैं, और इनके 24 प्रकार हैं जिनसे ब्रह्माण्ड निर्मित है। इसका अर्थ यह हुआ कि सभी भौतिक पदार्थों के अवयव होते हैं। इससे इस बात की तुलना कीजिए कि आत्मा, जिसे सांख्य दर्शन "पुरुष" कहता है, इन तीन गुणों से युक्त नहीं है। वह निरवयव है।

फिर हम इस विषय की ओर मुड़ते हैं कि, "क्या पश्चिमी विचार या विज्ञान में इसके समान कुछ है?" हाँ, है। परमाण्विक तथा अवपरमाण्विक कणों के संदर्भ में देखा जाए तो धनावेश, ऋणावेश, तटस्थ, ये तीन आवेश होते हैं। ये आवेश ऋणावेश सूक्ष्माणु (इलेक्ट्रॉन), धनावेश सूक्ष्माणु (प्रोटॉन), और निरावेश सूक्ष्माणु (न्यूट्रॉन), एवं अवपरमाण्विक कणों में होते हैं। सभी पदार्थ धन, ऋण, या तटस्थ कणों एवं अवपरमाण्विक कणों से निर्मित होते हैं एवं वे असंतुलित होते हैं क्योंकि उनके कई पृथक संयोजन होते हैं। ये तीन घटक आवेश कभी परिवर्तित नहीं होते; वे केवल पृथक-पृथक संयोजनों में होते हैं। इस तुल्यता के सामने प्रकृति पर सांख्य का कथन हमारी पश्चिमी सोच से उतना अधिक भिन्न नहीं लगता, है न? यदि आप उन तीनों को "रज, सत्व और तम" कहना चाहते हैं तो ठीक है। ये केवल नाम ही तो हैं, और पश्चिमी विज्ञान में इनके समतुल्य सामान भी हैं। यह इतना भी विचित्र नहीं है।

आत्म ऐसा नहीं है। आत्म कोई धनावेश, ऋणावेश, तटस्थ कणों से नहीं बना है, जैसा कि पश्चिमी विचारधारा उसे व्याख्यायित करती है। क्या हम "मैं" के संदर्भ में ऐसा ही सोचते हैं? क्या उसमें मस्तिष्क की तरंगें होती हैं? अवश्य होती हैं। प्रमात्रा यांत्रिकी के अनुसार कोई भी पदार्थ तरंग एवं कण दोनों हो सकता है, अतः, मस्तिष्क की तरंगें भी धनावेश, ऋणावेश, एवं तटस्थ अवयवों से युक्त मानी जा सकती हैं। परन्तु आत्म को किसी भी प्रकार के अवयव से युक्त नहीं माना जा सकता - उसका कोई विद्युत् आवेश नहीं होता। हम ऐसे नहीं बने हैं।

आत्मा, आत्म, न केवल अचल, निष्क्रिय सत है जो अप्रतिहत है और सत, रज, तम के अवयवों से परे है, अपितु, सांख्य दर्शन यह भी प्रतिपादित करता है कि वह मोक्ष प्राप्ति के उपरांत प्रकृति तथा उसके सभी दोषों, यथा त्रिगुणों, जिसमें मस्तिष्क तरंगें एवं स्थूल तथ्य सम्मिलित हैं, से पृथक पूर्ण रूपेण स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान होती है। मोक्ष प्राप्ति पर उसका एक अलग अस्तित्व होता है, इन सबसे बिल्कुल पृथक।

तो यह है आत्मा, वह आत्म जो सांख्य दर्शन के अनुसार त्रिगुणों से युक्त है और जिस कथन का बौद्ध धर्म खंडन करता है। अचल आत्म शाश्वत एवं अपरिवर्ती है, भौतिक पदार्थों के घटक त्रिगुणों से युक्त नहीं है, और वह भौतिक पदार्थों से विलग होकर भी अस्तित्वमान रह सकता है। वह अज्ञानवश अपना तादात्म्य सूक्ष्म भौतिक ज्ञानेन्द्रियों से स्थापित करता है, पर वह उनका स्वरूप नहीं है। वह कभी भी सूक्ष्म भौतिक ज्ञानेन्द्रियों के समरूप था ही नहीं; वह केवल एक भ्रम था।

तो क्या हमारा यही विचार है? क्या यह हमारा भ्रम है कि अज्ञानतावश हम यह मान बैठे हैं कि हम यह शरीर और ये सारे क्लेश हैं, जो एक भ्रामक विचार है, और वास्तविकता यह है कि एक "मैं" है जो उससे पूर्ण रूप से पृथक है और जो शुद्ध सत है? यह विचारणीय है।

न्याय दर्शन का अभिकथन 

न्याय दर्शन का भी यही मानना है कि आत्म अचल है। वह अप्रतिहत एवं चेतना विहीन है। यह आकस्मिक संबंधों के द्वारा ही आलम्बनों को जानता है एवं क्रियाएँ करता है। "आकस्मिक" का तात्पर्य है अनित्य। यह व्यष्टि-समष्टि के सम्बन्ध की भाँति नहीं है, जैसा सदा होता है। "आकस्मिक" का अर्थ है कि यह संबंध अज्ञान पर आधारित है। अज्ञान के कारण यह आत्म, यह आत्मा, जो अचल, अज्ञाता, और अकर्मक है, छड़ियों की भाँति नौ गुणों की सूची से अभिसंबद्ध है, यथा इन्द्रिय बोध, सुख, दुःख, राग, द्वेष, कर्म, अभ्यास, धर्म, और अधर्म।

आत्म, आत्मा, निरवयव भी है, अर्थात्, इसमें व्यष्टि-समष्टि के अंतर्निहित गुण नहीं होते। यह उस वस्तु की तरह नहीं है जिसके अंश होते हैं। यह पाँच प्रकार के अंतर्निहित, अपरिवर्तनीय संबंधों को संदर्भित करता है, जिनमें से एक है व्यष्टि-समष्टि का सम्बन्ध। यह सम्बन्ध ऐसा है जैसे एक छड़ी के दोनों ओर रखी गई दो गेंदों के बीच का संबन्ध। परन्तु, आत्म उपरोक्त नौ आकस्मिक गुणों के साथ किसी भी प्रकार की छड़ी से नहीं जुड़ा है। 

इसके अतिरिक्त, मोक्ष की प्राप्ति के बाद आत्म का इन नौ गुणों से स्वतंत्र एक अस्तित्व होता है। न्याय दर्शन के अनुसार आत्म में ये नौ गुण नहीं होते। यह उनसे तथा शरीर के किसी मनस परमाणु या स्थूल परमाणु से स्वतंत्र होकर अस्तित्वमान रह सकता है। हमें केवल अपनेआप को इन गुणों एवं परमाणुओं से अपने सम्बन्ध को जोड़ने से रोकना होगा। हम इसे तभी रोक पाएँगे जब हम यह मान लेते हैं कि हमें इस सम्बन्ध जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, कि हम मुक्त हैं, स्वतंत्र हैं।

क्या हम यही सोचते हैं? “मुझे मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? इसके लिए केवल इतना करना है कि किसी शरीर से न जुड़ें, और न ही किसी भ्रमित चित्त से, और यह मान लें कि मैं इन सबसे स्वतंत्र होकर रह सकता हूँ। वैसे भी मैं इनमें से किसी से भी जुड़ा हुआ नहीं हूँ; यह "मैं" का वास्तविक स्वरूप नहीं है।" हम ऐसा सोच सकते हैं। हम यह सोच सकते हैं कि यदि हम इस बात को पूरी तरह समझ लेते तो हम मोक्ष को प्राप्त कर लेते।

बौद्ध धर्म इसी बात का खंडन करता है। न्याय दर्शन के अनुसार इस स्थिति में भी हमारी मोक्ष-प्राप्ति नहीं होगी। हमें ऐसा लगता है कि हम मुक्त हो गए, पर वह वैसा नहीं होगा। हम तब भी लोभ से ग्रसित होंगे, हमें तब भी क्रोध आएगा। "परन्तु, मैंने इन सबसे आगे बढ़ चुका हूँ।" सच में? क्या हम यही सोचते हैं?

बौद्ध धर्म का दृष्टिकोण

बौद्ध धर्म क्या कहता है? बौद्ध धर्म कहता है कि आत्मा अचल नहीं है। यह अनित्य है। यह सदा परिवर्तनशील है। यह सदा कर्म करती है और सबको प्रभावित करती है, तब भी जब, मोक्ष-प्राप्ति के बाद हम अर्हत बन जाते हैं, और तब भी जब ज्ञानोदय-प्राप्ति के बाद हम बुद्धजन बन जाते हैं।

अर्हत क्या करते हैं? वे, उदाहरण के लिए, ध्यान साधना करते हैं। वे अकर्मण्य नहीं रहते। ऐसा नहीं है कि वे हवा में लटके रहते हैं। अर्हत दो प्रकार के होते हैं। एक तो ऐसे अर्हत हैं जो बुद्ध-क्षेत्रों में रहते हैं और मूल रूप से ध्यान साधना करते हैं; उनका यही काम है। कभी-कभी वे एक प्रकार के आनंद का अनुभव करते हैं। कभी-कभी वे समाधि चित्त अवस्था में उदासीनता का अनुभव करते हैं, न सुख न दु:ख। स्पष्टतः उन्हें किसी प्रकार का दुःख तो होता नहीं; वे कोई क्रिया तो करते हैं, उन्हें किसी प्रकार का अनुभव तो होता है, वे कुछ तो जानते हैं। दूसरे प्रकार के अर्हत बोधिचित्त को विकसित करते हैं, फिर हमारे लोकों में लौटते हैं, और ज्ञानोदय-प्राप्ति हेतु लगे रहते हैं।

बुद्धजन भी निश्चित रूप से कर्म करते हैं। वे परहित में लगे रहते हैं। वे सर्वज्ञाता हैं, इसलिए वे सब कुछ जानते हैं। वे हमारे कर्मों को जानते हैं, और वे यह भी जानते हैं कि ज्ञानोदय प्राप्ति तक पहुँचने के लिए हमारी सर्वोत्तम रूप से किस प्रकार सहायता की जा सकती है। तो वे ज्ञाता तो हैं ही।

बौद्ध धर्म कहता है कि आत्म सावयव है। वह सावयव क्यों है? क्योंकि वह सदा परिवर्तनीय पंचस्कन्धों के वैयक्तिक समतान का प्रज्ञप्ति धर्म है: यथा, शरीर, चित्त, सुख, दुःख, इत्यादि। ये अवयव अस्थाई हैं क्योंकि प्रत्येक क्षण में वह पंचस्कन्धों के घटकों के एक पृथक संजाल का प्रज्ञप्ति धर्म होता है। स्कन्धों के प्रत्येक संजाल के संदर्भ में आत्म के भिन्न-भिन्न आयाम, भिन्न-भिन्न अवयव होते हैं - जैसे पारिवारिक जीवन, व्यावसायिक जीवन, क्रीड़ा जीवन इत्यादि के संदर्भ में आत्म के पृथक-पृथक आयाम या अवयव।

साथ ही, आत्म का अपने आधार रूपी पंचस्कन्धों से पृथक कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, यहाँ तक कि मोक्ष प्राप्ति या बुद्धत्व प्राप्ति के बाद भी। स्कंध विभिन्न प्रकार के होते हैं। कर्मफल से भ्रमित पंचस्कन्धों के स्थान पर बुद्धजन के स्कंध शुद्ध निष्कलंक होते हैं। उनके शरीर भी होते हैं। निर्माणकाय एवं सम्भोगकाय ये ही तो हैं। उनके शरीर सूक्ष्म प्रभास्वर के बने होते हैं, पर ये फिर भी शरीर ही होते हैं। उनका चित्त होता है, वे ज्ञाता हैं। निस्संदेह वह शुद्ध-चित्त या रिग्पा के स्तर, प्रभास्वर स्तर का हो; पर चैतन्यता उनमें भी है। वे शुध्द आनंद से युक्त होते हैं, इसलिए उनके विचार शुद्ध होते हैं। वे पाँच प्रकार के ज्ञान से युक्त होते हैं: वे आलंबनों की वैयक्तिकता से बोधवान होते हैं, और यह भी जानते हैं कि किस प्रकार सहायता करनी होती है। ये सब शुद्ध स्कन्धों के अंश हैं। वे शुद्ध समुच्चय के भाग हैं। चाहे हम यह कहें कि उनका प्रतिनिधित्व पाँच ध्यानी बुद्ध कर रहे हैं, या उन्हें पाँच तथाकथित बुद्ध-प्रज्ञा के रूप में वर्णित करें, वे इन पाँच प्रकार के ज्ञान से युक्त हैं। किसी बुद्धजन का ऐसा कोई आत्म अस्तित्वमान नहीं है जिसे अपनी प्रज्ञप्त वस्तु से पृथक होकर जाना जा सके।

बौद्ध धर्म यही कहता है। आत्मा नित्य नहीं है, वह परिवर्तनशील एवं ज्ञाता है। वह सावयव है क्योंकि वह सावयव पदार्थों, यथा स्कन्धों - शरीर, चित्त, इत्यादि - का प्रज्ञप्ति धर्म है। वह प्रज्ञप्त वस्तु, शरीर एवं चित्त, से पृथक होकर स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान नहीं रह सकती। यह अशुद्ध आधार के प्रज्ञप्ति धर्म के रूप में अस्तित्वमान रह सकती है। परन्तु, यह विचारणीय है कि केवल इसलिए कि यह अशुद्ध आधार के प्रज्ञप्ति धर्म के रूप में अस्तित्वमान रह सकती है, यह सत्य नहीं है कि यह किसी भी आधार - अर्थात्, एक शुद्ध आधार - के प्रज्ञप्ति धर्म के रूप में अस्तित्वमान रह सकती।

बौद्ध धर्म के अंतर्गत चर्चा में यह एक संकट है। चूँकि हम यह नहीं चाहते कि आत्म फिर से किसी शरीर से जुड़ जाए जो रोगग्रस्त एवं जरा-जीर्ण हो जाए और जिसे फिर से बाल्यकाल आदि से होकर गुज़रना पड़े, तो हम इस प्रकार सोच सकते हैं कि, "इससे अच्छा है कि शरीर ही न हो।" हम ऐसा चित्त नहीं चाहते जो सीमित और अज्ञाता हो, और केवल वह ही जाने जो उसकी आँखों के सामने हो रहा हो, इत्यादि। तो, हम क्या चाहते हैं? कि हम उससे मुक्ति प्राप्त कर लें, पर उससे आगे क्या? पते की बात तो यही है, कि उसके आगे क्या? ऐसा नहीं है कि मोक्ष प्राप्ति के बाद केवल शून्य ही रह जाता है जैसे सांख्य एवं न्याय दर्शन कहते हैं। अपितु हो सकता है हम इस प्रकार सोचें कि यह एक ऐसी शून्यता है जैसे मोक्ष प्राप्त अर्हत या ज्ञानोदय प्राप्त बुद्धजन अनुभव करते हैं - कि हम किसी लोकातीत निर्वाण को प्राप्त कर लेते हों। पर यह ऐसा नहीं है, इसलिए हमें संभावित पूर्वपक्ष के हेत्वाभास से सतर्क रहना होगा।

मोक्ष प्राप्ति हेतु पुद्गलात्म का खंडन

सांख्य एवं न्याय दर्शन, तथा बौद्ध धर्म एक बात को समान रूप से स्वीकार करते हैं कि आत्मा, आत्म, का असंभव अस्तित्व (पुद्गलात्म) की अवधारणा के निराकरण के द्वारा ही सांसारिक दुखों से मुक्ति प्राप्त कर हो सकती है। ये सभी दर्शन असंभव प्रकार से अस्तित्वमान आत्म की बात करते हैं जिसका खंडन करना होगा। हो सकता है कि वे सभी इस विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग न करते हों, पर वे सब इस विशेषता को समान रूप से मानते है।

सांख्य दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्ति हेतु हमें यह समझना होगा कि आत्मा निष्क्रिय चित्त है, वह आलम्बनों को ग्रहण करने वाली ज्ञानेन्द्रियों के समान नहीं है, और यह कि वह प्रत्येक जीवनकाल में सूक्ष्म शरीर से युक्त होकर हमारे साथ ही रहती है। परन्तु, अज्ञानतावश - अर्थात्, यह न जानना कि यह असत्य है - आत्मा अथवा आत्म अपनेआप को इस शरीर से तादात्म्य बना बैठती है। हम यह सोचते हैं कि यह शरीर ही "मैं" है। इसके लिए हमें तो पहले यह मानना होगा कि यह मिथ्या है, फिर यह कि मोक्ष प्राप्ति के बाद आलम्बनों को जानने वाले इस शरीर एवं चित्त के बिना ही हम अस्तित्वमान रहेंगे।

तो, यदि हम स्वयं को अपना चित्त मानते हैं, क्योंकि कुछ बौद्ध-धर्मी सिद्धांत प्रणालियाँ यह कहती हैं कि आत्म की परिभाषित विशेषता उसकी प्रज्ञप्त वस्तु, मनोविज्ञान (मानसिक चेतना) में निवास करती है, तो हमें सावधान रहना होगा कि कहीं हम सांख्य दर्शन के दृष्टिकोण में न उलझ जाएँ। हम इस खतरे में अवश्य पड़ सकते हैं यदि हम यह सोचते हैं कि आत्म का प्रज्ञप्ति धर्म उसके मनोविज्ञान में नहीं है और हम अपने शरीर एवं चित्त से स्वतंत्र आत्म के रूप में अस्तित्वमान रह सकते हैं, पर वस्तुतः यह विचार आलम्बन रहित निष्क्रिय चित्त की पारिभाषिक विशेषता को बनाए रखता है।

न्याय दर्शन के अनुसार हमें यह समझना है कि आत्मा या आत्म ग्रहणबोध न तो सुख, दुःख, इत्यादि से  सहजात रूप से सम्बद्ध है और न ही किसी शारीरिक आधार से। इन गुणों एवं पदार्थों का हमसे सम्बन्ध उस छड़ी की भाँति है जो काठ के खण्डों को जोड़ता है। वे प्रासंगिक, अस्थायी, और अनावश्यक हैं। जब हम इस बात को मान लेते हैं कि इन गुणों एवं पदार्थों का हमसे जो सम्बन्ध है वह स्वाभाविक नहीं है तो हमारी मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। फिर हम उनसे विलग हो जाते हैं।

परन्तु क्या वह पलायनवाद नहीं है? क्या निस्सरण के परिणामों का हमारा दृष्टिकोण यही है? “मैं इस संसार रूपी कचरे से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। मैं इससे बाहर निकलना चाहता हूँ। मैं बस इससे विलग हो रहा हूँ।" क्या इस सम्बन्ध से विलग हो जाना ही पर्याप्त है? हम अपनेआप को किस प्रकार विलग करें? क्या यह कहना पर्याप्त है कि "मैं विलग हो गया हूँ"? यही हेत्वाभास है। यदि हम केवल इतना कह दें कि, "मैं विलग हूँ?" फिर भी हमें क्रोध तो आ ही सकता है।

हमें यह बात समझनी होगी कि बौद्ध धर्म में आत्मा पुद्गलात्म (असंभव आत्म) के समरूप नहीं है। वह स्कन्धों के प्रज्ञप्ति धर्म से न तो अभिन्न है और न ही पूर्णतः पृथक। आत्मा और स्कंध "एकानेकवियोगहेतु" हैं। आपने अवश्य ही इसके बारे में अपने मध्यमकवतार  के अध्ययन में पढ़ा होगा। आत्म शरीर एवं चित्त तथा पंचस्कन्धों के प्रज्ञप्ति धर्म है। यह अपने आलय से स्वतंत्र रूप से न अस्तित्वमान हो सकता है और न ही जाना जा सकता है, अतः, वह अपने आधार के न तो समरूप हैं और न ही पूर्ण रूप से पृथक एवं असम्बद्ध।

मोक्ष प्राप्त आत्म सम्बन्धी उक्तियाँ 

अब हम मोक्ष प्राप्त अनिषेध्य आत्म की बात करते हैं। मुक्त आत्मा अनंत काल तक अस्तित्वमान रहती है। सब यही कहते हैं, पर वह किस प्रकार अनंत काल तक अस्तित्वमान रहती है? 

सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा या आत्म निष्क्रिय चित्त, आलम्बन विहीन रूप से अस्तित्वमान रहती है। वह सर्वव्यापी है। वह सुख-दुःख से परे है। वह अकर्मक है और साथ ही सभी भौतिक धर्मों से पृथक भी।

सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष एवं प्रकृति, जो वास्तव में पुरुष के विकार है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, और वह शाश्वत है। पश्चिमी विज्ञान भी यही कहता है, चाहे वह कण, ऊर्जा, विकिरण इत्यादि की बात ही क्यों न करे। परन्तु सांख्य दर्शन यह भी कहता है कि इस ब्रह्माण्ड में अनादि काल से व्याप्त मायातीत मोक्ष प्राप्त आत्माएँ भी हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सभी आत्माएँ मायातीत और मुक्त हो जाती हैं। यह सांख्य दर्शन का मत नहीं है। यह उक्ति परवर्ती हिन्दू दर्शन शास्त्रों में वर्णित है, पर सांख्य में नहीं जो इन सबके पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। ये मायातीत आत्माएँ अलग-अलग हैं, कोई सम्पूर्णीकृत इकाई नहीं। इस प्रकार प्रकृति और मायातीत आत्माएँ पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। ये आत्माएँ आलम्बन विहीन निष्क्रिय चित्त हैं, जबकि प्रकृति अचेतन जड़ वस्तु है।

उस बात पर विचार करें तो यह अत्यंत रोचक प्रतीत होती है। क्या हम ऐसे ही होना चाहते हैं, अर्थात्, निष्क्रिय चित्त, पर अज्ञाता, होकर सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त रहें? हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए यह आकर्षक लगे, परन्तु सांख्य दर्शन के अनुसार यही मुक्त अवस्था है। हम सुख-दुःख की अनुभूतियों से परे तथा अज्ञाता परन्तु फिर भी चैतन्यवत रहते हैं। यह कुछ ऐसा है मानो नशे में धुत्त हों।

न्याय दर्शन कहता है कि मुक्त आत्मा गुण, चेतना, इत्यादि से रहित होती है। वह सुख-दुःख से परे होती है। वह अकर्मक रहती है। न्याय एवं वैशेषिक दर्शनों में यही अंतर है:

  • न्याय दर्शन का कहना है कि आत्म एक निरवयव परमाणु है, जैसे कोई चिंगारी।
  • सांख्य दर्शन की भाँति वैशेषिक दर्शन का कहना है कि वह सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, पर जड़ माया से पूर्णतया विलग।

मूल रूप से सांख्य, न्याय, और वैशेषिक दर्शन में अंतर यह है कि मुक्त आत्मा ब्रह्माण्ड में व्याप्त है या परमाणु तुल्य है। यदि वह परमाणु तुल्य है तो वह अचेतन है, परन्तु यदि वह ब्रह्माण्ड व्यापी है तो क्या वह चैतन्य है?

बौद्ध धर्म क्या कहता है? बौद्ध धर्म कहता है कि मोक्ष-प्राप्त आत्मा ज्ञाता होती है। ठीक? अर्हत अभी भी क्रियाएँ करते हैं - वे अभी भी ध्यान-साधना करते हैं, भले ही वे केवल बुद्धक्षेत्र में निवास करते हों - और फिर भी ज्ञाता हैं तथा कुछ न कुछ करते हैं।

जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, अर्हत दो प्रकार के होते हैं। एक तो ऐसे अर्हत हैं जो केवल बुद्धक्षेत्र में निवास करते हैं और ध्यान-साधना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करते। दूसरे वे हैं जो बोधिचित्त का विकास कर हमारे लोक में आते हैं और बोद्धिसत्त्व के पथ पर ही चलते हैं। वे ऐसा कर सकते हैं।

जब हम तथाकथित "हीनयान" मार्ग, श्रावक मार्ग, में यह सुनते हैं कि अर्हत के मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य स्वार्थ-पूर्ण है, तो हमें यह ध्यान में रखना होगा कि यह ध्यान साधना के पथ पर चलने की बात नहीं कर रहे हैं, जिस पथ पर हीनयान के साधक चलते हैं। यह मार्ग स्वार्थ-पूर्ण नहीं है। उदाहरण के लिए थेरवाद के अनुयायी घोर प्रेम तपस्या - पालि में प्रेम के लिए शब्द है "मेत्ता" – करते हैं। वे चार अप्रमाण-चित्त – प्रेम, करुणा, स्थितप्रज्ञाताता, और आनंद – की ध्यान-साधना करते हैं। वे यह सब करते हैं।

यह ऐसी बात नहीं है कि हीनयान मार्ग की ध्यान-साधना प्रेम एवं करुणा से विहीन है; यह तो उसके परिणाम का प्रभाव है। वे अर्हत बनने का प्रयास करते हैं जो अपनेआप में एक शांतिपूर्ण क्रिया है और वे परहित में कोई करुणामय कृत्य में सक्रिय रूप से लिप्त नहीं है। उनका लक्ष्य आत्महित की ओर उन्मुख है, परन्तु वह अपनेआप में पथ नहीं है। इस विषय पर लोगों में बहुत अधिक भ्रम है क्योंकि यह बात कई प्रस्तुतियों में स्पष्ट नहीं की गई है, यहाँ तक कि शास्त्रीय महायान ग्रंथों में भी। मुझे लगता है कि इस विभेद को समझना आवश्यक है; अन्यथा यह थेरवाद जैसी हीनयान परंपराओं के प्रति अन्याय होगा। यह मान लेना कि थेरवाद में प्रेम एवं करुणा की ध्यान-साधना नहीं होती थेरवाद के विषय में हमारी अज्ञानता को दर्शाता है। मान भी लीजिए कि वे ऐसी ध्यान-साधना करते हैं।

जैसा कि मैंने कहा, एक प्रकार के अर्हत बुद्ध-क्षेत्रों में ही निवास करते हैं। वे करुणार्थ परहित नहीं करते, परन्तु वे बोधिचित्त विकास कर सकते हैं, हमारे लोक में आ सकते हैं, अर्थात्, वे ध्यानसाधना के अतिरिक्त अन्य कार्य भी कर सकते हैं,  वेदनाओं का अनुभव भी कर सकते हैं। चाहे ये वेदनाएँ सास्रव हो या अनास्रव - अब इनकी परिभाषाओं के प्रकार अनेक हैं, इसलिए हम इन भिन्नताओं में नहीं पड़ेंगे। मूल बात यह है कि, उनकी ध्यान-साधना के प्रकार के अनुरूप, अर्हत या तो सुख का अनुभव करते हैं या फिर उदासीन रहते हैं, अर्थात्, न सुख का अनुभव करते हैं न दुःख का। ध्यान साधना के उत्तरोत्तर स्तरों में न सुख का अनुभव होता है, न दुःख का; वे इन दोनों से परे एक तटस्थ या उदासीन भाव में प्रवेश कर जाते हैं। ध्यान साधना के निम्न स्तरों में सुख का अनुभव होता है। अर्हत इन दोनों में से किसी एक का अनुभव करते हैं।

अर्हत के भी शरीर होते हैं। मृत्यु पर, जब उस स्थूल शरीर को त्याग देते हैं जिसमें उनकी मोक्ष प्रति हुई थी, यदि वे बुद्ध-क्षेत्र में जाना चाहते हैं तो उन्हें सूक्ष्म शरीर मिलता है। वह शरीर सूक्ष्मतम नहीं होता जैसे बुद्धजन का होता है। इसे कभी-कभी "चित्त शरीर" भी कहा जाता है, परन्तु, वे कहते हैं कि यह सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है, सूक्ष्मतम नहीं, पर कुछ ऐसे जैसे स्वप्नों का शरीर होता है। बुध-क्षेत्रों में वे निवास करने वाले सत्त्व इस प्रकार के शरीर से युक्त होते हैं।

अब मैं जो बात कहने वाला हूँ अत्यंत रोचक है। ज्ञानोदय प्राप्ति के बाद भी बुद्धजन की आत्मा या आत्म अपने व्यक्तित्व को बनाए रखता है। शाक्यमुनि बुद्ध मैत्रेय बुद्ध नहीं हैं, और न ही मैत्रेय बुद्ध शाक्यमुनि। वे अलग-अलग व्यक्ति हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक बुद्धजन का चित्त - चित्तज क्रियाकलाप - पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त होता है क्योंकि बुद्धजन सर्वज्ञाता होते हैं। चूँकि बुद्धजन का चित्तज क्रियाकलाप पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है और चूँकि उस चित्तज क्रियाकलाप का आधार सूक्ष्मतम प्राण-वायु उससे अविभाज्य है, बुद्धजन का शरीर भी, जो सूक्ष्मतम प्राण-वायु से निर्मित है, पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। यही कारण है कि बुद्धजन सब जगह एक ही समय में अनेकानेक रूपों में अस्तित्वमान रह सकता है।

अब एक प्रश्न उठता है, "क्या यह कथन सांख्य या वैशेषिक दर्शनों के अभिकथनों के समान नहीं है जिनके अनुसार विमुक्त आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होती है?" नहीं, यह उन अभिकथनों के समतुल्य नहीं है। सांख्य एवं वैशेषिक दर्शनों के अनुसार विमुक्त आत्माएँ संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त होती हैं पर वे ब्रह्माण्ड से विलग होती हैं। वे ब्रह्मांड के विषयों से अनभिज्ञाता होती हैं तथा उनका ब्रह्मांड के किसी भी वस्तु या व्यक्ति से किसी भी प्रकार का विनिमय नहीं होता। दूसरी ओर, बुद्धजन का सर्वज्ञाता चित्त ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु एवं व्यक्ति से बोधवान रहता है, और साथ ही बुद्धजन के शरीर भी प्रत्येक सत्त्व से विनिमय बनाए रखते हैं और उन्हें ज्ञानोदय प्राप्ति का मार्ग भी दर्शाते हैं। इस प्रकार इनमें बड़ा अंतर है।

निष्कर्ष

केवल आत्म, या आत्मा, की ही चर्चा करते हुए हम यह पाते हैं कि बौद्ध धर्म तथा भारतीय ग़ैर-बौद्ध धर्मी प्रणालियों के बीच ये कुछ मूल विषय हैं जो समरूप हैं परन्तु जिनकी व्याख्या अलग-अलग रूप से की गई है। इस प्रकार अन्य विषय भी हैं जिन पर वे चर्चा करते हैं जैसे कर्म, कार्य-कारण सिद्धांत, इत्यादि। क्या कोई सृष्टिकर्ता भी विद्यमान है? इन सभी विषयों पर बौद्ध-धर्मी ग्रंथों में पूर्व पक्ष की पद्धति - दूसरे पक्ष की आपत्तियाँ - से चर्चा की गई है।

अब यह बात स्पष्ट हो गई कि पूर्वपक्ष को गंभीरता से लेना चाहिए, और उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए जैसे कुछ अज्ञानी लोगों ने शताब्दियों पहले की थी, जो मूर्ख थे। कोई मेधावी शास्त्रार्थ करने वाले - और तिब्बती मठों में ऐसे लोगों की कई कथाएँ हैं - किसी भी भारतीय ग़ैर-बौद्ध धर्मी विचारधारा के अभिकथन का ऐसा समर्थन कर सकते हैं कि कोई अन्य बौद्ध-धर्मी छात्र या गेशे या खेनपो उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर सकता। यदि वे पूर्वपक्ष का इतनी निपुणता से समर्थन कर सकते हैं तो उनके अभिकथन निरर्थक तो नहीं हो सकते। मेरे अपने गुरु, सरकाँग रिन्पोचे, मुझे डाँटते हुए कहते थे, "यह केवल तुम्हारा अहंकार है जो उन्हें निरर्थक समझता है।" वे निरर्थक नहीं हैं। वे गहन सूक्ष्मदर्शी अभिकथन हैं, अत्यंत सुसंगत।

ये सभी एक-से विषयों की बात करते हैं। बौद्ध धर्म सहित सभी भारतीय दर्शन एक-से विषयों से जूझ रहे हैं, और वे सब यही सोचते हैं कि उन्होंने इनका समाधान ढूँढ़ लिया है। अतः, बौद्ध धर्म को पूरी तरह से समझने के लिए हमें इसे अन्य सभी भारतीय विचार प्रणालियों तथा और उनके बीच पूर्वपक्षीय शास्त्रार्थों के संदर्भ में समझना होगा।

अब, हम यह कह सकते हैं कि हो सकता है बौद्ध-धर्मी अहंकारी हों जब वे कहते हैं, "तुम्हारे अभिकथन फिर भी तुम्हें क्रोध, लोभ, इत्यादि से छुटकारा नहीं दिला सकते, पर हमारी स्थिति ऐसी नहीं है।" परन्तु, इस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए हम केवल प्रत्येक प्रणाली के शिक्षणों एवं विधियों के परिणामों को परखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते।

हमें सभी पूर्वपक्षों पर गंभीरता से विचार करना होगा। इन शास्त्रार्थों का उद्देश्य यह नहीं है कि तार्किक वाग्युद्ध में कौन विजयी होगा। यह बात नहीं है। तो फिर बात क्या है? इसका उद्देश्य है दु:ख-निवृत्ति। ये सभी चर्चाएँ इसी विषय पर केंद्रित है कि दुःख को किस प्रकार समाप्त किया जाए। इन भारतीय ग़ैर-बौद्ध धर्मी विचारधाराओं सहित सभी विचारधाराएँ इस बात का ही चिंतन करती हैं। हमें इस बात का विश्लेषण करना होगा कि उस लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाए। मानने के लिए तो हम यह भी मान सकते हैं कि हमें तो अपने को सब तरह से काट कर किसी गुफा में जाकर रहना है और ध्यान-साधना की उच्चतम अवस्था में यह सोचते हुए लीन होना है कि "मुझे इन सभी भौतिक कामनाजन्य वस्तुओं एवं उनसे सम्बन्धित क्लेशों से नहीं जुड़ना है। मैं अपनी समाधि से किसी पारलौकिक क्षेत्र में चला जाऊँगा।" परन्तु यह तो अतर्कसंगत है। इससे तो सत्व का रूपधातु या अरूपधातु लोक में जाने की बात हो रही है। ग्रंथों का सुस्पष्ट रूप से कहना है कि "इस अवस्था में लम्बे समय तक रहा जा सकता है, परन्तु अंततः इसका पतन होना तो अवश्यम्भावी है। अतः समाधि में जाना भी कोई दीर्घकालीन समाधान नहीं है; वह मायिक दुखों से केवल अल्पकालिक मुक्ति ही दे पाती है।

हमें इस प्रश्न का समाधान ढूँढ़ना होगा कि: "क्या इनमें से किसी भी दृष्टिकोण पर विश्वास कर लेने से मुझे न केवल दु:ख से, अपितु दु:ख के कारणों से भी मुक्ति प्राप्त हो जाएगी?" हम यह नहीं कह सकते कि किसी भी दृष्टिकोण के बोध से अनभिज्ञता को दूर किया जा सकता है क्योंकि हम जिस विषय को नहीं जानते उसकी परिभाषा भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से करते हैं, तो हम सटीकता से कुछ नहीं कह सकते। हमें क्लेशों - क्रोध, लोभ, आसक्ति, ईर्ष्या, इत्यादि - की और अधिक जाँच करनी होगी। क्या उन्हें समझ लेने मात्र से मुझे उनसे मुक्ति मिल सकती है? क्या उससे मैं कर्म-बंधन की अनिवार्यता से विमुक्त हो जाऊँगा?

जब हम कर्म को क्रिया के रूप में अनूदित करते हैं तो अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं। कर्म का तात्पर्य क्रिया से नहीं है। किसी भी प्रणाली में कर्म का अर्थ क्रिया नहीं है। समस्या यह है कि कर्म के लिए तिब्बती भाषा में प्रयुक्त शब्द [लास ] वही है जो साधारण बोलचाल की भाषा में क्रिया के लिए प्रयुक्त होता है। इसलिए, तिब्बती लोग इसका अंग्रेजी में अनुवाद "क्रिया (action)" के रूप में करते हैं क्योंकि यह साधारण बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त शब्द है, पर यह उसका सही अर्थ नहीं है। यह इसका सही अर्थ क्यों नहीं है? तर्क-सिद्ध रूप से सोचें। यदि क्रिया ही हमारे दु:खों का कारण होता तो हमें ध्यान-साधना, आहार, श्वास-प्रश्वास सहित अपनी सभी क्रियाओं को रोक लेने मात्र से हमारी मोक्ष प्राप्ति हो जाती। पर यह तो स्पष्ट रूप से विवेकहीन बात है। अतः, ऐसा नहीं हो सकता कि हमें अपनी क्रियाओं पर ही रोक लगाना है।

कर्म - और मैं कर्म पर कोई भारी-भरकम प्रवचन नहीं देना चाहता - का सही अर्थ है हमारे अनियंत्रित रूप से बाध्यकारी व्यवहार। यह वह विवशता है जो हमें आचारगत व्यवहारों एवं आवृत्ति क्रमों को बार-बार दोहराने के लिए प्रेरित करती है। हमें इसी विवशता, विध्वंसात्मक या रचनात्मक क्रियाओं को करने की विवशता, को दूर करना होगा। "मुझे अच्छा बनना है।" संपूर्णतावादी होने की यह बाध्यकारी विवशता भीषण असंतुलन को जन्म देती है। यह कितना अधिक कष्टदायक होता होगा? हमें ऐसा लगता है कि हमें अपनी परिस्थितियों पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यद्यपि हम चाहे जितना भी अधिक बाध्यकारी रूप से साफ़ करने का प्रयास कर लें, फिर भी हम कभी भी अपने शरीर या अपने घर को पर्याप्त रूप से साफ़ नहीं कर पाएँगे। तिब्बती भाषा में एक बढ़िया कहावत है: "विष्ठा को आप चाहे जितना धो लें, वह कभी भी साफ़ नहीं हो सकती।" यह एक निराली कहावत है। इसी प्रकार हमें भी अपने बाध्यकारी व्यवहार से मुक्ति पानी होगी।

फिर, हमें  विचार करना होगा कि, " यदि मैं केवल इतना सोचता हूँ कि मुझे सबसे वैराग्य हो गया है और अब मुझे किसी बात की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मैं इन सबसे तर चुका हूँ, तो क्या यह चिंतन मेरे बाध्यकारी व्यवहार को समाप्त कर देगा? क्या में अपनी स्वार्थपरता, चिढ़चिढ़ेपन इत्यादि से मुक्त हो जाऊँगा? हमारी साधना का परिणाम ही उसका अंतिम मानदंड होता है। स्पष्टतः हमारी साधना सही होनी चाहिए, न कि लापरवाह। लापरवाही से की गई साधना का परिणाम भी असंतोषजनक ही होगा। बात तो बिल्कुल सरल है, है न?

एक अन्य बात, हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि इन भारतीय ग़ैर-बौद्ध धर्मी प्रणालियों और उनकी प्रथाओं का पालन करने से कोई लाभ नहीं होगा तथा वे हमें, कुछ हद तक ही सही, दुःख-निवृत्ति नहीं दिला पाएँगी। प्रश्न यह है कि वे हमारी सहायता कहाँ तक कर सकती हैं।

मैं जानता हूँ कि मैंने अभी यहाँ बहुत-से विषयों पर चर्चा की है, पर इसके लिए मैंने जितनी तैयारी की थी यह उसका एक लघु रूप मात्र था। मैंने सम्पूर्ण तथ्यों का एक सार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यदि आप सांख्य और न्याय प्रणालियों का सम्पूर्ण विवरण प्राप्त करना चाहते हैं तो आप मेरी वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। उसमें बहुत-सी सूचियाँ हैं। न्याय दर्शन में  सूचियाँ होती हैं - सभी अलग-अलग गुण, भिन्न-भिन्न धर्म, उनके समस्त प्रकार, इत्यादि।

कालचक्र प्रमुख रूप से सांख्य दर्शन की प्रणाली पर आधारित है क्योंकि वह उस समय की सबसे अधिक लोकप्रिय ग़ैर बौद्ध-धर्मी प्रणाली हुआ करती थी। उसकी इस प्रकार रचना इसलिए की गई है ताकि लोग उसके प्रति अपनी आसक्ति से ऊपर उठ सकें, जैसे कालचक्र की 24 भुजाएँ 24 प्रकार के स्थूल तत्वों की प्रतीक हैं, आदि। ज्योतिष की कालचक्र प्रणाली में सत्व, रज, तम की भी चर्चा है। कालचक्र की रचना इस प्रकार की गई थी कि सांख्य दर्शन के अनुयायी उसका अध्ययन करते हुए कुछ सहजता का अनुभव कर सकें, पर साथ ही कालचक्र यह भी कहता है कि, "ध्यान रहे, उसे बदलने का एक मार्ग भी है।"

बौद्ध धर्म और इन प्रणालियों के बीच संवाद और संपर्क के कई स्तर हैं। पर बात यह है कि उनके पूर्वपक्ष पर ध्यान देने से उन-उन विषयों पर बौद्ध-धर्मी अभिकथनों सम्बन्धी हमारी समझ की सटीकता एवं निश्चितता को बढ़ाने में हमें सहायता मिलेगी।

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