योग एवं बौद्ध-धर्मी साधना को मिलाना

हठ योग की आधुनिक शैलियों जैसे अष्टांग विन्यास, अय्यंगार योग, या फिर किसी अन्य शैली जिसमें आसन  अभ्यास पर बल दिया जाता हो, को मिलाना हमारी बौद्ध-धर्मी साधना के लिए अत्यंत लाभदायक हो सकता है:

  • दैनिक आसन अभ्यास हमारे अनुशासन को प्रशिक्षित करता है और हमारे लिए नियमित ध्यान-साधना शुरू करना सरल बनाता है।
  • हमारा शरीर अधिक सबल और लचीला हो जाता है, जिससे हमें बैठकर ध्यान-साधना करना सहज हो जाता है। शमथ  साधना में, जहाँ हमारा लक्ष्य होता है एक शांत और निश्चल चित्त की अवस्था प्राप्त करना, अंग-विन्यास अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है और आसन  अभ्यास इसमें सहायक सिद्ध होता है।
  • यदि हम अपने आसन अभ्यास पर एकाग्रचित्त रह सकते हैं, तो यह हमारे ध्यान को आत्मनिरीक्षण के लिए तैयार करता है, जैसे श्वास पर केंद्रित प्राणायाम  साधना। 
  • शवासन, या मृत शरीर की मुद्रा, विश्राम करने के अभ्यास में सहायक होती है - जो शमथ  के विकास के प्रशिक्षण के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

दर्शन की दृष्टि से देखा जाए तो स्थिति अधिक जटिल हो जाती है, क्योंकि योग और बौद्ध-धर्म के कई प्रमुख सिद्धांत अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किए गए हैं। यदि हम हठयोग और बौद्ध-धर्म दोनों का अभ्यास एक साथ करना चाहते हैं, तो यह महत्त्वपूर्ण है कि हम इन दोनों प्रणालियों के पृथक तात्त्विक दृष्टिकोणों को परस्पर उलझाएँ नहीं।

योग एवं बौद्ध-धर्म की दार्शनिक समानताएँ

योग और बौद्ध-धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों में कुछ समानताएँ हैं:

  • दोनों परम्पराएँ कर्म एवं पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं और दोनों को समस्याजनक माना जाता है। 
  • वास्तविकता को ग्रहण करने के हमारे अभ्यस्त मार्ग को अविद्या - आलम्बनों के वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञता - विकृत कर देती है। यही हमारे कर्म और पुनर्जन्म को प्रेरित करती है।
  • यथार्थ के बारे में हमारा विकृत दृष्टिकोण क्लेश - अर्थात क्रोध, आसक्ति और दम्भ जैसे अशांतकारी मनोभाव - को जन्म देता है।
  • इस विकृत दृष्टिकोण को प्रज्ञा - यथार्थ के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान - ही समाप्त कर सकता है।
  • चित्त में इस बोध को स्थिर करने के लिए हमें समाधि - एकाग्रचित्तता - की आवश्यकता होती है।
  • समाधि  की स्थिति तक पहुँचने के लिए हमें सबसे पहले नैतिक अनुशासन का पालन करना होता है। योग में इसे यम (सार्वभौमिक नैतिकता) और नियम (व्यक्तिगत स्तर पर नैतिकता पालन) कहा जाता है, जबकि बौद्ध धर्म में इसे शील (नैतिक आत्मानुशासन) कहा जाता है।
  • अपने चित्त को इस प्रकार प्रशिक्षित करने से हमें मोक्ष - कर्म और पुनर्जन्म से मुक्ति - की प्राप्ति होती है।

ये विचार तुलनीय हैं परन्तु सामान्यकृत करके यह सोच लेना कि ये बिल्कुल एक समान हैं, बहुत भारी मिथ्याबोध को जन्म दे सकता है।

योग एवं बौद्ध-धर्म की दार्शनिक असमानताएँ

एक ओर जहाँ उपर्युक्त चरण समान दिखते हैं, वहाँ दूसरी ओर इन अभ्यासों में अंतर्निहित मूल विश्वास बहुत ही भिन्न होते हैं:

  • योग ग्रंथ प्रायः यह कहते हैं कि यथार्थ माया  है - एक भ्रम जो अस्तित्वमान नहीं है। बौद्ध-धर्म यह दावा नहीं करता कि यथार्थ बिल्कुल अस्तित्वहीन है, परन्तु यह कहता है कि यथार्थ के हमारे प्रक्षेपण अतार्किक, अयथार्थवादी, और समस्याजनक हैं।
  • योग एक आस्तिक प्रणाली है जहाँ आत्मा और ब्रह्म - सृष्टिकर्त्ता भगवान - में विश्वास है। बौद्ध धर्म इन दोनों के अस्तित्व को नकारता है।
  • योगाभ्यास में मुक्ति की अंतिम अवस्था को प्रायः आत्मा और सृष्टिकर्ता ब्रह्म के मिलन के रूप में वर्णित किया जाता है। बौद्ध-धर्म में यथार्थ को समझने और नकारात्मक प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने के उद्देश्य का किसी आत्मा या उच्चतर सत्त्व से कोई लेना-देना नहीं है, अपितु यह केवल हमारे चित्त-नियंत्रण से सम्बंधित है।
  • अहिंसा  का सिद्धांत, दोनों प्रणालियों में समान हैं। नैतिक व्यवहार के अन्य आयामों को अलग-अलग रूप से समझा जाता है, उदाहरण के लिए:
  • योग मार्ग को प्रायः तपस्वी मार्ग (तप ) के रूप में वर्णित किया जाता है, जबकि बुद्ध ने आनंदवाद और संन्यास के अतिवादों में पड़े बिना मध्यम मार्ग के अनुसरण पर बल दिया है।

योग की आधुनिक शैलियों का अभ्यास करना निश्चित रूप से हमारी बौद्ध साधना के लिए हितकारी हो सकता है यदि हम दोनों प्रणालियों के तात्त्विक सिद्धांतों की भिन्नताओं के प्रति सचेत रहें, दोनों को आपस में उलझाएँ नहीं, और दोनों का अभ्यास अलग-अलग सत्रों में करें।

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