"सप्तांग साधना" की व्याख्या

आज शाम मैं शान्तिदेव के ग्रन्थ, बोधिसत्त्वचर्यावतार, के विषय पर हमारी प्रत्येक कक्षा के प्रारम्भ में किए जाने वाले प्राथमिक अभ्यासों को अत्यंत सहज रूप में व्याख्यायित करना चाहूँगा। इनमें सप्तांग साधना शामिल है जिसका स्रोत यही ग्रन्थ है। धर्म के विषय में सुनने और उसे सीखने से पहले इन प्राथमिक अभ्यासों को करने से हम एक उपयुक्त ग्रहणशील चित्तावस्था विकसित कर पाते हैं। घर पर की जाने वाली ध्यान-साधना या धर्म अध्ययन सत्रों से पहले भी हम यही अभ्यास करते हैं।

कक्ष साफ़ करना और अर्पण सामग्री सहेजना

यदि हम घर में ध्यान-साधना के प्राथमिक अभ्यास के रूप में ये साधनाएँ कर रहे हैं तो, जैसा हम कक्षा से पहले करते हैं, हमें कमरे को बुहारकर साफ़ करना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि काग़ज़ या कपड़े कमरे में बिखरे पड़े हैं, तो उन्हें सहेजकर रखना चाहिए। ऐसा करते समय हम सोचते हैं, "मैं जिस प्रकार इस कमरे को साफ़-सुथरा और व्यवस्थित कर रहा हूँ, उसी प्रकार मेरा चित्त भी हो जाए ।"

एक ऐसे वातावरण में ध्यान-साधना करना और पढ़ना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जो निर्मल, साफ़ और व्यवस्थित हो। हमारा कार्यस्थल भी ऐसा ही होना चाहिए। हम जो कुछ भी देखते हैं, चाहे वह सतही तौर पर ही हो, उसका हमारी मनोदशा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि हमारे आसपास सब अस्तव्यस्त हो, तो हमारी मनोदशा भी वैसी ही होगी। इसके अतिरिक्त, यदि हमारे अध्ययन या ध्यान-साधना के स्थल सौन्दर्यपरक रूप से मनभावन होंगे तो इससे हमें सहायता मिलेगी। एक सुन्दर वातावरण प्रायः मन को प्रसन्न करता है, और एक प्रसन्न मनोदशा कुछ सृजनात्मक करने के प्रति ग्रहणशील होती है। यदि हमारे आसपास का वातावरण घिनौना हो, तो हम उसे त्यागना चाहते हैं, जिससे हमारी मनोदशा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अतः, हम प्रायः कमरे में एक आकर्षक वेदी सजाते हैं -- सुन्दर कपड़े से ढँका हुआ किसी प्रकार का टांड या मेज़, जिसपर हम अपने प्रयोजन के प्रतीक के रूप में कम-से-कम बुद्ध की प्रतिमा या चित्र रखते हैं, वह प्रयोजन है जीवन में हमारी सुरक्षित दिशा (शरणागति)।

प्रत्येक सुबह, नहा-धोकर और कमरा साफ़ करके, हम एक पानी का कटोरा अर्पित करते हैं। यदि सुविधा न हो तो ऐसा साधारणतया प्रयुक्त सात कटोरों के साथ करना आवश्यक नहीं है। केवल साफ़ पानी का एक कटोरा अर्पण करना भी पर्याप्त है। हम किसी को प्रभावित करने की चेष्टा नहीं कर रहे हैं। यदि इच्छा हो, तो हम मोमबत्तियाँ, पुष्प, अगरबत्ती, इत्यादि भी भेंट कर सकते हैं; परन्तु यह वैकल्पिक है।  हम न केवल बुद्धजन एवं  गुरुओं को आमंत्रित करने के लिए एक सुन्दर स्थान का सृजन कर रहे हैं, जैसा पारम्परिक रूप से बतलाया गया है; बल्कि हम कमरे की सजावट इस प्रकार कर रहे हैं कि हम भी वहाँ प्रसन्न और सुखी अनुभव करें। ऐसा करने से, हम ध्यान-साधना, पठन, या शिक्षाएँ सुनने के लिए अपने चित्त के लिए भी एक अनुकूल वातावरण उत्पन्न करते हैं।

श्वास पर ध्यान केंद्रित करना

प्रचलित प्रथा है कि बैठने से पहले हम वेदी पर बुद्ध प्रतिमा के समक्ष तीन बार साष्टांग प्रणाम करते हैं। हम बिना किसी अनुभूति के यंत्रवत रूप से ऐसा करें, इससे बचने के लिए हम पहले अपने चित्त को सही अवस्था में लाते हैं। इसके लिए हम अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित करते हैं और अपनी अभिप्रेरणा की पुनःपुष्टि करते हैं। यद्यपि हम ये दोनों कार्य बैठने के बाद करते हैं, इन्हें पहले खड़े होकर करना बेहतर है।

पहले हमें चाहिए कि हम शांत होकर जो कर रहे थे और जो करनेवाले हैं उसके बीच साँस लें। सकारात्मक मनोदृष्टि उत्पन्न करने से पहले, हमें अपने चित्त को एक शांत, तटस्थ अवस्था में लाने की आवश्यकता है। अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित करके, तनावमुक्त भाव से अपनी आँखों से सामने धरती की ओर देखते हुए हम ऐसा कर सकते हैं। यदि हम असहज रूप से व्यथित अथवा तनावग्रस्त हैं, तो शांत होते समय हमें अपनी आँखें बंद करना शायद अच्छा लगे, परन्तु इन्हें अधखुला छोड़ देना वरीय विधि है।

हम सामान्य ढंग से नाक से साँस लेते हैं, न बहुत जल्दी से, न बहुत धीरे, न बहुत गहरी, और न बहुत हल्की। हम साँस रोकते नहीं हैं, पर साँस छोड़ने के बाद दूसरी साँस भरने से पहले पलभर रुकते हैं। सामान्य विधि है श्वास छोड़ने, रुकने, और साँस लेने को एक चक्र मानना; परन्तु यदि यह आपको पेचीदा लगता है, तो हम साँस लेने, छोड़ने, और रोकने को भी एक चक्र मान सकते हैं। साधारणतया, हम इस प्रकार ग्यारह तक गिनती करते हैं, और फिर इस ग्यारह के चक्र को दो अथवा तीन बार दोहराते हैं।

जब हमारे चित्त असाधारण रूप से व्यग्र हो, असंगत विचारों से भरा हो, तब हम केवल श्वास की गिनती की प्रक्रिया का प्रयोग करते हैं। यदि हमारा चित्त इतना भटका हुआ नहीं है।, तो गिनती करने की कोई आवश्यकता नहीं है; केवल नाक से आते-जाते श्वास की अनुभूति पर ध्यान केंद्रित करना ही काफ़ी है। वैकल्पिक रूप से, हम कुछ चक्रों तक गिनती कर सकते हैं और फिर बिना गिनती के आगे बढ़ सकते हैं। हम चाहे जो भी विधि अपनाएँ, हम तब तक करते रहते हैं जब तक हम कुछ हद तक आंतरिक रूप से स्थिर और शांत न हो जाएँ। यदि हमारा चित्त असंगत विचारों से अशांत होगा तो हम कभी भी सही प्रकार ध्यान-साधना नहीं कर पाएँगे और न शिक्षाओं को ध्यानपूर्वक सुन पाएँगे।

हमारी प्रेरणा या लक्ष्य को परखना

जब हमारा चित्त अपेक्षया शांत हो जाता है, तब हम सोचते हैं कि हम ध्यान-साधना या शिक्षा के लिए क्यों जा रहे हैं, या हम धर्म कक्षा में क्यों आए हैं? दूसरे शब्दों में, हम अपनी प्रेरणा को परखते हैं, जिस प्रेरणा का बौद्ध-धर्म में अर्थ है किसी कृत्य के पीछे का हमारा लक्ष्य अथवा उद्देश्य। क्या हम बिना किसी लक्ष्य के यंत्रवत आज शाम यहाँ आए हैं, या अपने मित्रों से एक अच्छे वातावरण में मिलकर बातचीत करने? या क्या हम वास्तव में कुछ सीखने आए हैं? क्या हम केवल बौद्धिक स्तर पर कुछ रोचक सीखने यहाँ आए हैं, या कुछ ऐसा व्यावहारिक जो हम अपने जीवन में उपयोग में ला सकते हैं? यदि हम उसे अपने जीवन में उपयोग में लाना चाहते हैं, तो हम ऐसा क्यों करना चाहते हैं? लक्ष्य क्या है? क्या लक्ष्य है जीवन को कुछ सरल बनाना? अपनी कुछ समस्याओं से छुटकारा पाना? या, इसके अतिरिक्त, लक्ष्य है दूसरों के लिए कम समस्याएँ पैदा करना, उनकी अधिक सहायता कर पाना? कदाचित हमारा लक्ष्य इन सबका मिश्रण है।

क्या हम और आगे बढ़कर शान्तिदेव के ग्रन्थ से शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं ताकि हम वे आदतें सीख पाएँ जिनसे हमारे शुभ पुनर्जन्म हों जिनमें हमें धर्म साधना और शिक्षा के और अधिक अवसर मिलते रहें? इसके अलावा, क्या हम ये इसलिए कर रहे हैं ताकि हम हर प्रकार के अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्मों से मुक्ति पा सकें? अथवा, इससे भी परे, क्या हम बोधिसत्त्व आचरण के विषय में इस ग्रन्थ से इसलिए सीख लेना चाहते हैं ताकि हम दूसरों की आवर्ती पुनर्जन्म से मुक्ति पाने में या उससे बच निकलने में उनकी सहायता कर सकें? यदि ये अंतिम कारण न भी हों, तब भी कम-से-कम क्या हमारा यह लक्ष्य है कि हम इसे विकसित करके अपने जीवन में उस दिशा में बढ़ें?

ध्यान-साधना से पूर्व या घर में शान्तिदेव का ग्रन्थ पढ़ने से पूर्व हम इसी आत्म-निरीक्षण प्रक्रिया का पालन करते हैं। यदि हमें पता चलता है कि हमारी प्रेरणा या ध्येय पर्याप्त रूप से उत्कृष्ट नहीं हैं, जैसे आदत के अनुसार अथवा भूल जाने पर अपराधबोध से ध्यान-साधना करना, तो हम अपनी प्रेरणा का भूल-सुधार करके उन्हें सारगर्भित बनाते हैं। यदि हमारी प्रेरणा पहले से ही सृजनात्मक है, तो हम उनकी पुनःपुष्टि करते हैं। इस प्रक्रिया का पालन करना अति आवश्यक है, क्योंकि शिक्षाओं में आना या यंत्रवत ध्यान-साधना करना सरल है, परन्तु इससे हमें बहुत कम लाभ होगा।

शरणागति और बोधिचित्त सहित साष्टांग प्रणाम

इसके बाद, हम "शरणागति लेते हैं और बोधिचित्त विकसित करते हैं"। इसका अर्थ है कि हम जीवन में एक सुरक्षित, सकारात्मक दिशा में जाने की इच्छा की पुनःपुष्टि करते हैं। यही कारण है कि मैं इसका अनुवाद 'शरणागति लेना' करता हूँ। हम यह सोचने और महसूस करने की चेष्टा करते हैं कि मैं समस्याओं और बाधाओं से बचने के लिए एक सुरक्षित दिशा में जाना चाहता हूँ; मैं उनकी कामना नहीं करता। मैं अपनी दूभर स्थिति बने रहने के विचार से भी काँप उठता हूँ। समस्याओं से बचने की सुरक्षित दिशा का संकेत किस प्रकार मिलता है? एक ऐसी मनःस्थिति जो संभ्रम से मुक्त हो और सभी सकारात्मक सद्गुणों से भरपूर हो। विकास और शुद्धता की ऐसी अवस्था ही धर्म है। जिन्होंने ऐसी अवस्था पूर्णतः प्राप्त कर ली है और जो ऐसी दिशा दर्शाते हैं वही बुद्धजन हैं। जिन्होंने कुछ सीमा तक यह अवस्था प्राप्त कर ली है वे भी यह दिशा दिखाते हैं। वे हैं संघ। मैं भी अपने जीवन में यही दिशा लाऊँगा। शरणागति का अर्थ है जीवन में इस दिशा की पुनःपुष्टि करना।

इसके अतिरिक्त, मैं यह सुरक्षित और सकारात्मक दिशा केवल अपने लाभ हेतु नहीं बल्कि दूसरों की अधिकाधिक सहायता करने के लिए ले रहा हूँ। अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए, मुझे इस दिशा में अंत तक, ज्ञानोदय प्राप्ति तक, यात्रा करनी होगी, और बीच में ही हार मानकर या आत्मतुष्ट होकर बैठना नहीं होगा। बोधिचित्त और शरणागति की पुनःपुष्टि के लिए हमें ऐसा करना होता है।

जब हम देखते हैं कि दूसरों की सहायता के लिए सुरक्षित दिशा में जाना या उनकी सहायता के लिए अधिक से अधिक पूर्ण रूप से उस दिशा में जाने की मनोदृष्टि या चित्तावस्था का विकास संभव है, तब हम साष्टांग प्रणाम करते हैं। यदि हम पहले ही बैठ चुके हैं और दोबारा उठकर वास्तव में साष्टांग प्रणाम नहीं करते, तो हम साष्टांग प्रणाम की कल्पना-भर कर सकते हैं। देखा जाए तो, साष्टांग प्रणाम अपने को पूर्ण रूप से इस दिशा में झोंक देने जैसा है; और पूरे आदरभाव के साथ - आदर उनके लिए जो इस दिशा में जा चुके हैं और वही करने की अपनी क्षमता और अपने लिए। इसलिए, साष्टांग प्रणाम करना अपने को नीचा दिखाने की क्रिया नहीं है; इससे हमारा पतन नहीं हो रहा, अपितु उत्थान हो रहा है।

सप्तांग साधना का यह पहला चरण है: शरणागति और बोधिचित्त सहित साष्टांग प्रणाम। यदि हम कक्षा में इसका अभ्यास कर रहे हैं, तो अब हम बैठ जाएँगे।

अर्पण

अगला है अर्पण। इस सन्दर्भ में अर्पण करते समय जो प्रमुख चित्तावस्था विकसित करने की आवश्यकता है, वह है: मैं इस दिशा में जा रहा हूँ। मैं केवल पूर्ण रूप से अपने को इसमें झोंक नहीं रहा, मैं इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनी ऊर्जा, अपना समय, अपनी जीवनशैली, और स्वयं अपने को इसपर न्यौछावर करने के लिए तैयार हूँ। दूसरों की सहायता हेतु इस दिशा में जाने के लिए मैं सम्पूर्ण हृदय से तत्पर हूँ। हम इस चित्तावस्था में अर्पण करते हैं।

यद्यपि ये हम प्रायः मानस-दर्शन के माध्यम से करते हैं, तथापि यदि हम अपने ध्यान-कक्ष में साधना कर रहे हैं तो हम दैहिक रूप से अर्पण करते हैं। साष्टांग प्रणाम करने के बाद और बैठने से पहले, हम वेदी तक जाकर अपने बाएँ हाथ की चौथी उँगली वहाँ रखे कटोरे में डुबोते हैं और तीन बार पानी के छींटे छिड़कते हैं, जो अर्पण करने का प्रतीक है। एक प्रकार से हम बुद्धजन के समक्ष अर्पण कर रहे हैं, परन्तु इस मनोदृष्टि से नहीं कि यदि हम उन्हें भेंट देंगे तो वे हमारी सहायता करेंगे, अन्यथा नहीं। बल्कि, हम जीवन में जिस दिशा की ओर बढ़ रहे हैं, हम उस दिशा को सबकुछ अर्पित करते हैं। हम प्रसन्नचित्त होकर ऐसा करने का प्रयास करते हैं, प्रसन्न होकर कि हम अपने को अर्पित कर पा रहे हैं।

यदि इच्छा हो तो हम व्यापक अर्पण सामग्री भी भेंट कर सकते हैं, जैसा शान्तिदेव के ग्रन्थ में बताया गया है। यह आवश्यक नहीं है कि बताई लम्बी सूची की सभी सामग्री प्रस्तुत की जाए, हालाँकि हम हर प्रकार की सुन्दर भेंट की कल्पना कर सकते हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि हम यह महसूस करें कि हम स्वयं को भेंट कर रहे हैं। प्राथमिक साधना का यह दूसरा चरण है, अर्पण। यदि हमने वेदी के समक्ष यह चरण पूरा कर लिया है, तो अब हम बैठ जाते हैं।

कमियों को स्वीकार करना

तीसरा चरण है ईमानदारी से अपनी कमियों, कठिनाइयों, और समस्याओं को स्वीकार करना। हम दुखी होते हैं कि हम इन समस्याओं से ग्रस्त हैं, क्योंकि ये हमें दूसरों की सहायता करने से बाधित करती हैं। हम कामना करते हैं कि हम अपनी कमियों से मुक्त हो जाएँ और निश्चय करते हैं कि हम अपनी भूलें न दोहराएँ। हम अपने जीवन में जिस सुरक्षित और सकारात्मक दिशा की चेष्टा कर रहे हैं, उसकी पुनःपुष्टि करते हैं, ताकि हम दूसरों की  सहायता कर पाएँ; और अंततः, हम अपने को याद दिलाते हैं कि अपनी कमियों के प्रतिकार के रूप में हम शान्तिदेव का ग्रन्थ पढ़कर और साधना करके सकारात्मक कृत्य कर रहे हैं। यह तीसरा चरण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह स्वीकार करके कि हमारी समस्याएँ हैं, हम यहाँ अपनी उपस्थिति के कारण और लक्ष्य की पुनःपुष्टि करते हैं। इन समस्याओं पर विजय पाने के लिए हम विधियाँ सीखना और फिर उनका अभ्यास करना चाहते हैं।

आनंदित होना

चौथा चरण है आनंदित होना, जिससे अपनी समस्याओं, भूलों, और चुनौतियों को स्वीकार करने से किसी भी प्रकार की उत्पन्न हुई हीन आत्म-प्रतिष्ठा की भावना से जूझने में सहायता मिलती है। हमें अपनी कमियों के प्रति अनभिज्ञता और अपने सद्गुणों की पुनःपुष्टि के बीच संतुलन बिठाने की आवश्यकता है। हम सभी में कुछ सद्गुण होते हैं और कुछ ऐसे सकारात्मक कृत्य जो हमने किए होते हैं। उदाहरण के लिए, हमें पता चल सकता है कि हमने सहायता करने का प्रयास किया है; हमने धैर्यवान होने का प्रयास किया है; हमने उदार होने का प्रयास किया है; या अन्य कुछ भी। हम उसे याद करते हैं और आनंदित होते हैं। हम अपनी बुद्ध-धातु के कारण भी प्रसन्न होते हैं: हमारे भीतर विकसित होने की संभाव्यताएँ और क्षमताऍं हैं। हमारे समक्ष एक सक्रिय आधार है; आशा है। हम दूसरों के सद्गुणों और सुकृत्यों के उदाहरण देखकर उनमें भी, ईर्ष्या किए बिना, आनंदित होते हैं। यह अद्भुत बात है कि ऐसे अन्य लोग भी हैं, विशेषतः महान गुरु, जो इतने सकारात्मक और सहायक हैं। इसका अभिप्राय केवल वे जीवित आध्यात्मिक गुरु नहीं हैं, अपितु बुद्धजन और शान्तिदेव भी हैं। हम सोचते हैं कि यह कितनी अच्छी बात है कि शान्तिदेव ने इस ग्रन्थ की रचना की। मैं इसमें आनंदित होता हूँ। धन्यवाद, शान्तिदेव। यह एक महत्त्वपूर्ण चित्तावस्था है।

शिक्षाओं के लिए विनती करना

महान गुरुओं के सद्गुणों में आनंदित होने और इस ग्रन्थ की रचना के लिए शान्तिदेव के प्रति आभार प्रकट करने के पश्चात्, हम शिक्षाओं के लिए विनती करने के लिए तैयार हैं, जो इसका पाँचवाँ चरण है। हम सोचते हैं, शान्तिदेव, यह कितनी अद्भुत बात है कि आपने इस ग्रन्थ की रचना की। मुझे इसमें से कुछ शिक्षा दीजिए; मैं सीखना चाहता हूँ। यह याचना उस मनोदृष्टि का प्रतिकार करती है जिससे हम इस ग्रन्थ से कुछ पढ़ते या सुनते हैं और केवल अपवादों के विषय में सोचते हैं, जैसे हिटलर के अत्याचारों के सन्दर्भ में संयम की शिक्षाओं का पालन कर पाना किस प्रकार संभव है? यद्यपि शिक्षाओं की वैधता को परखना महत्त्वपूर्ण है, तथापि हमें पहले यह सोचना चाहिए कि हमारे दैनिक जीवन में ये किस प्रकार प्रासंगिक होंगी। जब हम एक बार समझ लें कि ये किस प्रकार प्रासंगिक हैं, तब हम यह सोच सकते हैं कि इनके कोई अपवाद हैं या नहीं। तब हम विश्लेषण कर सकते हैं कि हिटलर जैसे अतिवादी उदाहरणों में संयम की ये शिक्षाएँ काम आएँगी या नहीं या ऐसे मामलों में केवल उच्च स्तरीय शिक्षाएँ लागू होंगी। कोई भी नई शिक्षा सुनते ही, "परन्तु" का त्वरित उत्तर कुछ सीखने की उन्मुख प्रवृत्ति के लिए प्रतिकूल हो सकता है। इसलिए "मुझे कुछ सिखाइये" के रवैये से ग्रन्थ की ओर अग्रसर होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस मनोदृष्टि से, हमने पहले जो पढ़ा या सुना है, हम उसका प्रयोग करने का प्रयास करते हैं। हम शांतिदेव के ग्रन्थ को एक व्यावहारिक शिक्षा के रूप में देखते हैं, जो हमपर लागू हो सकती है - हमारे घरों में, हमारे कार्यालयों में, हमारे परिवारों और मित्रों पर।

यदि हम ध्यान-साधना सत्र से पहले प्राथमिक सप्तांग का अभ्यास कर रहे हैं, तो हम गुरुओं और ग्रंथों से विनती करते हैं कि वे हमें अधिक शिक्षा दें, अर्थात हम अपनी ध्यान-साधना के द्वारा अधिक उन्नति करना चाहते हैं। हम विनती करते हैं कि वे जो कुछ हमें सिखा रहे हैं, उससे अधिक अंतर्दृष्टि, अधिक ज्ञान, अधिक बोध प्राप्त करने के लिए वे हमें प्रेरित करें।

गुरुओं से विनती करना कि वे मृत्यु को प्राप्त न हों

फिर हम छठे चरण के लिए तैयार हैं, जो है गुरुओं से विनती करना कि वे मृत्यु को प्राप्त न हों। हम सोचते हैं, कभी भी हमारी शिक्षा बंद न करें; निरंतर शिक्षा देते रहें! हम यह विनती अपने गुरुओं के प्रति लगाव के कारण नहीं कर रहे हैं। बल्कि, हम यह पुनःपुष्टि कर रहे हैं कि हम अपनी साधना के प्रति गंभीर और ईमानदार हैं। "मैं सबकी सहायता के लिए ज्ञानोदय तक जाना चाहता हूँ। तो, कृपया जाऍं नहीं! मुझे अभी शिक्षा ग्रहण करनी है।" हम शिक्षाओं को भी अपने लिए सम्बोधित करते हैं, मुझे शिक्षा देते रहें - शान्तिदेव और आपका ग्रन्थ। मुझे अधिक से अधिक शिक्षा दें। मैं इस शिक्षा सामग्री द्वारा उत्तरोत्तर और अधिक ज्ञान प्राप्त करूँ और प्रगति करूँ। तब तक कभी मत रुकिए जब तक मैं ज्ञानोदय प्राप्त न कर लूँ - जब तक सब ज्ञानोदय प्राप्त न कर लें।

समर्पण

सातवाँ और अंतिम चरण है समर्पण। हम सोचते हैं कि मैं जो कुछ सीखूँ, जो कुछ समझूँ, वह ज्ञानोदय प्राप्ति का कारण बने और इस प्रकार उससे दूसरों को अधिकाधिक लाभ मिले। मेरा ज्ञान गहनतर होता जाए। मैं इसे आत्मसात कर लूँ ताकि ज्ञानोदय प्राप्ति के मार्ग पर मैं इसका धीरे-धीरे प्रयोग कर पाऊँ। विशेषतः, मैं जो कुछ सीखूँ उसे मैं अपने दैनिक जीवन में लागू कर पाऊँ ताकि इसका प्रभाव मेरे औरों के साथ किए गए व्यवहार पर पड़े और मैं उन्हें अधिक सुख प्रदान कर पाऊँ।

शांतिदेव की सप्तांग साधना

यदि हमारी इच्छा हो तो, फिर हम इन सप्तांगों के विषय में शान्तिदेव के छंदों का पाठ कर सकते हैं, उन पहले दिए गए छंदों के साथ जिनसे हम प्रेरणा स्थापित करते हैं और बाद में दिए गए मंडल अर्पण के छंदों के साथ:

मैं संघ, धर्म, तथा बुद्धजन से, अपनी बोधि अवस्था तक शरणागति लेता हूँ। अपने दान की सकारात्मक शक्ति इत्यादि से, मैं भटके हुए लोगों की बुद्धत्व प्राप्ति द्वारा सहायता कर पाऊँ।
हर ओर धरती हथेली जैसी सपाट हो, कंकड़ों आदि से मुक्त, सौम्य, और फ़ीरोज़े की बनी हो।
  1. मैं धर्म को, संघ को, और उन बुद्धजन को साष्टांग प्रणाम करता हूँ जिन्होंने त्रिकाल दर्शन किया है, संसार में जितने अणु हैं उतनी कायाओं से शीश झुकाता हूँ।  
  2. जिन, जिस प्रकार मंजुश्री और अन्यों ने आपके समक्ष भेंट चढ़ाई है, उसी प्रकार मैं भी, हे तथागत, आपको और आपके आध्यात्मिक बोधिसत्त्वों को भेंट चढ़ाता हूँ। 
  3. मेरे अनादि सांसारिक अस्तित्व में, वर्तमान तथा अन्य जीवनकालों में, मैंने जाने-अनजाने नकारात्मक कृत्य किए हैं, या दूसरों को करने के लिए उकसाया है, और तो और, मूढ़ता की उद्भ्रांत अवस्था से त्रस्त होने के कारण, उन कृत्यों में आनंद पाया है - मैंने जो कुछ भी किया है, मेरे गुरुओं, मैं उन्हें, अपने हृदय की गहराई से, अपनी भूलों के रूप में देखता हूँ और आपके सामने स्वीकार करता हूँ।
  4. आपने प्रत्येक जीव को आनंद प्रदान करने के लिए जो बोधिचित्त लक्ष्य विकसित किए हैं, और आपके जिन कृत्यों ने सत्त्वों का मार्गदर्शन किया है, उस सकारात्मक शक्ति के महासागर में मैं, आनंदमग्न होकर, हर्षित होता हूँ।
  5. मैं हाथ जोड़कर, प्रत्येक दिशा के बुद्धजन से विनती करता हूँ: कृपया अन्धकार में रास्ता टटोल रहे पीड़ित सत्त्वों के लिए धर्म की ज्योति प्रज्ज्वलित करें।
  6. जिन, जो दुःख से परे है, मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूँ: मैं आपसे भीख माँगता हूँ, अनंत युगों तक रहें ताकि अन्धकार में भटकते इन गामिनों का साथ न छूटे।
  7. इन सबसे मैंने जो भी सकारात्मक शक्ति अर्जित की है, उससे मैं सभी  का दुःख दूर कर पाऊँ।
बुद्ध-क्षेत्रों के रूप में इसकी कल्पना करते हुए, सुगन्धित जल से अभिषिक्त, फूलों से लदा, और मेरु पर्वत, चतुर्द्वीपों, सूर्य, चन्द्रमा से सजा यह पत्तर भेंट करके, वे सभी जो भटक रहे हैं पवित्र क्षेत्रों की ओर अग्रसर हों |
ओम् इदम गुरु रत्न मण्डल-काम नीर-यत्यामि| अमूल्य गुरुओं, मैं आपको यह मंडल भेंट करता हूँ |

एकाग्रता के लिए अंतिम समायोजन

इस ग्रहणशील चित्तावस्था के साथ, हम अपनी कक्षा या साधना सत्रों के लिए लगभग तैयार हैं। किन्तु, पहले, यह सचेत निर्णय लेना उत्तम होगा कि हम एकाग्रता के साथ सुनेंगे, पढ़ेंगे, अथवा साधना करेंगे। हम निर्णय लेते हैं कि यदि मेरा ध्यान भटकेगा तो मैं पुनः उसे केंद्रित करूँगा और यदि मुझे नींद आएगी, तो मैं अपने को झकझोरकर सचेत करूँगा। जब हम सचेत रूप से ये निर्णय लेते हैं, तब हमारे एकाग्र होने की संभावना बढ़ जाती है।

अंततः, हम अपनी ऊर्जाओं और एकाग्रता में सूक्ष्म समायोजन करते हैं। यदि हम कुछ उनींदा या सुस्त महसूस कर रहे हैं, तो हमें चाहिए कि हम अपनी ऊर्जा का स्तर बढ़ाएँ और अपने को जगाएँ। कालचक्र शिक्षाएँ कहती हैं कि ऐसा करने के लिए हम अपना सिर सीधा रखते हुए, आँखें ऊपर की ओर उठाकर,अपनी भौहों के बीच के बिंदु पर ध्यान केंद्रित करते हैं। फिर यदि हम बोझिल या तनावग्रस्त महसूस कर रहे हों और हमारा चित्त भटक रहा हो, तो हमें अपनी ऊर्जा को साधना चाहिए ताकि वह शांत हो जाए। इसके लिए, फिर हम सिर सीधा रखकर आँखों से नीचे की ओर देखते हुए अपने शरीर के बीच नाभि के कुछ नीचे ध्यान केंद्रित करते हैं। सामान्य रूप से साँस लेते हुए हम अपनी साँस रोकते हैं जब तक हमें साँस छोड़ने की आवश्यकता महसूस न हो।

इसके साथ कक्षा, ध्यान-साधना, या निजी धर्म अध्ययन के लिए प्राथमिक चरणों का पूरा वर्ग समाप्त होता है। दैनिक साधना के आधार के रूप में सप्तांग साधना पर मेरे संपर्क में आए प्रत्येक तिब्बती बौद्ध गुरु ने और शान्तिदेव ने भी इनके लाभ और अनिवार्यता पर बल दिया है। अपनेआप में ये सम्पूर्ण दैनिक साधना हैं। शान्तिदेव के ग्रन्थ में दिए गए छंदों के पाठ द्वारा हम ये प्राथमिक चरण कर सकते हैं, अथवा हम इन्हें छंदों के बिना, केवल अपने शब्दों, या अनुभूति के साथ भी कर सकते हैं। मुख्य बात है प्रत्येक सप्तांग साधना के चरण के लिए किसी अनुभूति का होना। अनुभूति होने से चित्तावस्था ध्यान-साधना अथवा अध्ययन के लिए हितकर बनती है।

इन प्राथमिक चरणों के बाद हमारे वास्तविक ध्यान-साधना सत्रों के लिए, हम श्वास पर, (लाम-रिम) मार्ग के क्रमिक चरणों में से किसी विषय पर, अथवा शान्तिदेव के किन्ही छंदों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। हम अपने वास्तविक सत्र के लिए चाहे कुछ भी चुनें, प्राथमिक चरण हमें एक सही ग्रहणशील चित्तावस्था में ले आते हैं। हो सकता है कि हम प्राथमिक चरण ही करने का निर्णय करें, जो अपनेआप में एक अत्युत्तम साधना है। इन प्राथमिक चरणों पर हम कितना समय लगाते हैं, यह निश्चित न होकर हमारी स्वेच्छा पर निर्भर है। चाहे हम इन्हें तेज़ी से करें अथवा धीरे-धीरे, हमें इन्हें खोखले अनुष्ठान के रूप में करने से बचना चाहिए। हमें इनके अर्थ याद रखते हुए प्रत्येक चरण को निष्ठा से करना चाहिए।

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