उपयुक्त आसन, दण्डवत प्रणाम एवं बैठने की मुद्रा

तीसरा प्रारंभिक अनुशीलन है बैठने की व्यवस्था करना, एक सकारात्मक चित्त की अवस्था के साथ किसी सुरक्षित दिशा या शरणावस्था में अष्टांग मुद्रा में बैठना, और अपने बोधिचित्त की पुनः पुष्टि करना।

उपयुक्त आसन की व्यवस्था करना

ग्रन्थ के अनुसार, यह अत्युत्तम होगा (यदि संभव हो तो) कि ध्यान का आसन काष्ठ से बनी पीठिका हो जो फ़र्श से थोड़ी उठी हुई हो ताकि वायु-संचार बना रहे। आप ने भारत में रह रहे लगभग सभी तिब्बतियों को देखा होगा, वे साधारणतया अपने पलंग पर बैठकर ध्यान करते हैं, ताकि उसके नीचे वायु-संचार हो। उनके पास कोई अलग ध्यान-कक्ष नहीं होता। और, यद्यपि मंगल कारणों से पीठिका के नीचे कुशा घास को सजाने की आवश्यकता है, हम में से अधिकाँश लोगों के लिए वह असुविधाजनक होगा।

यदि हम गद्दी पर पालथी मारकर बैठते हैं, तो यह संस्तुत किया जाता है कि वह गद्दी भी पीछे की ओर से ज़रा उठी हुई हो ताकि आपकी टाँगो पर दबाव न पड़े और वे जल्दी सुन्न न हो जाएँ। मुझे यह अविश्वसनीय लगता है कि परम पावन दलाई लामा सहित कई तिब्बती लोग पालथी मारकर बैठते हैं – बिना पीछे का हिस्सा उठाए हुए – और उनकी टाँगें सुन्न नहीं होतीं। मुझे स्वयं यह बात कुछ असंभव-सी लगती है।

इस विषय में मेरे साथ एक लज्जाजनक घटना घटित हुई थी। एक बार जब परम पावन दलाई लामा किसी को दर्शन दे रहे थे तो मुझे अनुवाद करने के लिए बुलाया गया। मुझे समतल फ़र्श पर बैठना पड़ा, और मेरी दोनों टाँगें सुन्न हो गईं। और जब दर्शन समाप्त हो जाता है, तो आपको जल्दी से उठकर कमरे से बाहर जाना होता है। तो मैंने जल्दी से उठने का प्रयास किया पर मैं गिर रहा था, मुझे दीवार का सहारा लेकर धीरे-धीरे बाहर की ओर सरकना पड़ा। परम पावन हँस-हँस के बेहाल हो गए। यह आश्चर्यजनक बात थी कि न तो मैं गिरा और न ही मुझे उपहास का पात्र बनना पड़ा।

तो, हम अपनी पीठ सीधी करके बैठ सकते हैं, पर ध्यान रहे कि हमारी टाँगें सुन्न न पड़ जाएँ।

मैंने यहाँ नहीं देखा है, परन्तु कई धर्म केंद्रों में ये ज़ेन ज़फू  हैं, जो बहुत ही सख़्त और मोटे होते हैं। इनपर हम पालथी मारकर नहीं बैठ सकते। ये जापानी आसन (अपनी टाँगों को पीछे मोड़कर) बैठने के लिए होते हैं और यह आपके नीचे होता है अर्थात आप उससे ऊँचे हो जाते हैं। यदि आप उसपर पालथी मारकर बैठने का प्रयास करते हैं तो आपकी स्थिति भयंकर हो जाती है और आप लगभग गिरने को हो जाते हैं। यदि हम ध्यान-समाधि के लिए अपने आसन के बारे में सोचते हैं, तो यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम एक ऐसी गद्दी चुनें जो पर्याप्त मोटाई की हो, पर्याप्त ऊँचाई, एवं पर्याप्त रूप से ठोस हो जो हमारे लिए उपयुक्त हो। बड़ी बात यह है कि हमारी टाँगें सुन्न न पड़ जाएँ, और यह सब लोगों के लिए थोड़ा-बहुत अलग होगा।

साष्टांग प्रणाम

फिर, बैठने से पहले साष्टाँग प्रणाम करना है। वास्तव में गेशे ङ्गवांग धार्गेय सदैव इस बात पर बल देते थे कि जब आप प्रातः उठते हैं तो, आधी नींद में कॉफ़ी पीने के लिए अपनेआप को घसीटते हुए ले जाने के बजाय बिस्तर से उठते ही बुद्ध के किसी भी प्रतिरूप या जो भी आपके पास हो, उसके समक्ष तीन बार साष्टाँग प्रणाम करें। इसे आप रात को सोने से पहले, दिन के अंतिम कार्य के रूप में भी करें तो अच्छा है। और इसे आधी नींद में अचेत अवस्था में न करें। मुख्य बात यह है कि जब आप इसे सुबह-सुबह करते हैं तो आप अपने पूरे दिन का ध्येय निश्चित कर लेते हैं। परम पावन कहते हैं कि वे सुबह आँख खुलते ही यह करते हैं: सबसे पहला विचार यही होता है कि दिन का ध्येय निश्चित कर लें।

इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता कि सुबह इस विचार से उठें कि "हाय यह अलार्म! मुझे बाहर जाना पड़ेगा और दिन का मुक़ाबला करना पड़ेगा"। यह उचित नहीं है। अपितु जब आप सोने के लिए लेटें तो ऐसा सोचें कि, "मैं आतुर हूँ कि मैं कब सुबह उठूँ और अपने अभ्यास या मैं दूसरों के कल्याण के लिए जो भी कर रहा हूँ, उस में लग जाऊँ"। और आप वास्तव में खुश होते हैं कि चलो रात ख़त्म हुई और आप उठ सकते हैं। मैं किसी अनिद्रा ग्रस्त व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहा हूँ। पर वास्तव में खुश होना कि "चलो यह ख़त्म हुआ। और समय नष्ट नहीं करना होगा।" (दरअसल मैं अपनी वेबसाइट के साथ ऐसा ही करता हूँ। मुझे उसपर काम करना अच्छा लगता है। यह इतना लाभदायक है कि मैं अधीरता से सुबह उठकर उसपर काम करने की प्रतीक्षा करता हूँ।) तो यह एक व्यावहारिक और आनंदपूर्ण तपस्या है। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि आप जो भी करें उसे पसंद करें क्योंकि आप उसे इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आप उसकी सकारात्मकता को देख रहे हैं, और आप उसमें आनंदित होते हैं; आप वास्तव में उसे करते हुए सकारात्मकता एवं संतोष का अनुभव कर रहे हैं।

तो अब हमारे पास बैठने के लिए एक अच्छा आसन है। और बैठने से पहले हम साष्टांग प्रणाम करते हैं। यह किसी भी ध्यान-साधना सत्र से पहले होता है। इस आदत को अपनाना बहुत अच्छी बात है।

लघु साष्टांग प्रणाम

साष्टाँग प्रणाम के कई प्रकार होते हैं। लघु साष्टाँग प्रणाम वह है जहाँ हम अपने हथेलियों को जोड़ते हैं। यथाकथित विधि और प्रज्ञा के लिए दोनों अंगूठे अंदर की ओर होते हैं। और फिर आप अपने शरीर के चार स्थानों का स्पर्श करते हैं। ध्यान दें, इसके कई और रूप-भेद भी होते हैं – मेरा मतलब बौद्ध धर्म में हर कार्य के कई रूप-भेद होते हैं – परन्तु लाम-रिम ग्रन्थ में आपको यही मिलेगा। आप चार स्थानों का स्पर्श करते हैं:

  1. सिर का ऊपरी भाग। यह एक बुद्ध की ऊष्णीषा को विकसित करने की इच्छा से करते हैं। किसी बुद्ध के सिर पर एक गाँठ-सी होती है जो इसके कायिक लक्षणों में से एक है। मुझे याद मैं एक तिब्बती लामा से मिला था जिसके सिर पर वास्तव में वह थी। वह अति विस्मयकारी थी (और मुझे नहीं लगता है कि वह किसी प्रकार का अर्बुद – ट्यूमर – था)। तो, हमें बुद्ध के इस गुण को विकसित करना चाहिए।
  2. फिर आप अपने ऊर्णकेश को विकसित करने के लिए अपने माथे का स्पर्श करते हैं। आपकी भौहों के बीच एक छोटा-सा घूंघर होता है, और वह घुंघराला होता है। कथित रूप से वह एक अतिशय लम्बी माप पट्टी की तरह होता है – यदि आप उसे खींचते हैं तो वह लंबा होता जाता है और उसे छोड़ने पर वापस अपने स्थान पर आ जाता है।

    हो सकता है आपको यह विनोदी लगे, परन्तु विभिन्न संकेतों, बुद्ध की शारीरिक विशिष्टताओं, के बारे में कई शिक्षा व्याख्यान हैं, और सभी किसी न किसी कारण को इंगित करते हैं। अपने आध्यात्मिक गुरु के प्रति हमेशा सम्मान व्यक्त करने से लेकर, उन्हें अपने सिर के ऊपरी भाग में विद्यमान होने की कल्पना करना, यह एक वेदिका-सी है जिसपर गुरु विराजते हैं। और जो भौहों के बीच होती है वह ज्ञान चक्षु, तीसरे नेत्र जैसा है - किसी लोबसांग राम्पा जैसी निरर्थक बात नहीं, परन्तु वह केंद्रीय नाड़ी का ऊपरी सिरा है, जहाँ आप अमूर्त रूप को सबसे पहले बनाते हैं।
  1. फिर बुद्ध की वाणी को विकसित करने के लिए अपने हाथ से अपने कंठ का स्पर्श करते हैं। 
  2. और फिर अपने चित्त के गुणों के लिए हृदय का।

फिर आपको झुककर धरती का स्पर्श इन सात अंगों से करना होता है - दोनों हथेलियाँ, दोनों घुटने, दोनों पाँव, और अपना माथा। कहने का अर्थ है कि अपने माथे से धरती का स्पर्श अवश्य करें।

इसके बाद, वे कहते हैं कि, वहाँ से अति शीघ्र उठ जाना अति आवश्यक है। आपको भूतल पर पड़े रहने के अभ्यास को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, किसी निम्न योनि में जन्मे रूप की भाँति। तो शीघ्र उठ जाएँ।

और सीधे खड़े हो जाएँ। मैं अपनी माँ को यह कहते सुन पा रहा हूँ, "सीधे खड़े हो। वर्ना कुबड़े बन जाओगे।" तो आपको कुबड़ा नहीं बनना है; सीधे खड़े हो जाएँ। और फिर एक प्रकार से यह अधिक सम्मानजनक होता है। आप सीधे खड़े होकर विमुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्त करना चाहते हैं – न कि झुककर। 

तीसरी बार के बाद आप इन्हीं स्थानों का फिर से स्पर्श करें।

सात स्थान और सात आर्य रत्न

आप फ़र्श या धरती पर अपने सात अंगों का स्पर्श करना चाहते हैं, और यह प्रतीक है ... अच्छा, सात के कई समुच्चय हो सकते हैं जिनका यह प्रतीक बन सकता है। हम कई बार आर्य रत्नों के बारे में सुनते हैं। यही हैं वे बहुमूल्य वस्तुएँ जो आर्य – जिन्हें चार आर्य सत्यों का निर्वैचारिक बोध प्राप्त हुआ है – अत्यंत बहुमूल्य मानते हैं। ये उनपर किसी रत्न के समान होती होते हैं। वस्तुतः प्राप्त करने योग्य रत्नों में सबसे अधिक मूल्यवान रत्न के बारे में जब हम सोचते हैं तो एक रोचक सूची बन जाती है:

  1. तथ्यों में विश्वास – कभी-कभी तो हम इसे आस्था भी कह देते हैं, परन्तु यदि आप उसकी परिभाषा को ध्यान से देखें, तो पता चलता है कि किसी भी तथ्य को परखना, जो तथ्य सत्य है, और फिर उसपर विश्वास करना कि वह सत्य है, यही विश्वास है। उसके विषय में सोचिए। हम किसी काल्पनिक बात पर विश्वास नहीं कर रहे। हम किसी फ़ादर क्रिसमस या ईस्टर बनी के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। हम यह विश्वास नहीं कर रहे हैं कि शेयर बाज़ार उठेगा, या हो सकता है कि कल बारिश हो। हम बात कर रहे हैं वास्तविकता को स्वीकार करने की। "यह वास्तविकता है, यह तथ्य है, और मैं इसे स्वीकार करता हूँ। मैं इसे अत्यधिक आत्मविश्वास के साथ मानता हूँ कि यह वास्तविकता सही है।" अब, याद रहे, हो सकता है कि वास्तविकता के बारे में हमारी धारणा विचित्र हो, पर हम तो उसके बारे में बात कर रहे हैं जो वास्तव में सही है।

    परन्तु, तथ्यों में विश्वास करने के लिए जिन प्रसंगों की आवश्यकता है उनके बारे में सोचना वास्तव में सरल नहीं है। उदाहरण के लिए, कार्य और कारण, व्यवहारगत कार्य और कारण: आप ध्वंसात्मक ढंग से व्यवहार करते हैं; वह आपको दुखी करता है। वास्तव में वह सरल नहीं है – केवल कोरी स्वीकृति नहीं कि "मेरे गुरु यह कहते हैं, और ग्रन्थ भी यह कहते हैं" परन्तु निश्चित रूप से विश्वास करना कि यह सत्य है। आर्यों ने निर्वैचारिक रूप से – केवल यह नहीं कि चार आर्य सत्यों की सामान्य श्रेणी के बारे में सोचना और फिर उसका प्रतिरूपण करना (वह तो वैचारिक धारणा है) – यह जाना है कि यह सत्य है, कार्य और कारण। यही चार आर्य सत्यों की संरचना है।
  1. नैतिक अनुशासन - यदि आपके भीतर दृढ़ निश्चय और विश्वास है कि व्यावहारिक कार्य कारण एक तथ्य है, तो आपके पास स्वाभाविक रूप से नैतिक अनुशासन होगा। आप स्वयं को नकारात्मक रूप से, विनाशकारी ढंग से, अशांतकारी मनोभावों अथवा मूढ़ता के अधीन होकर कार्य करने से रोकेंगे। 
  2. उदारता - हमारा ज्ञान, संपत्ति, इत्यादि सबके साथ बाँटना।
  3. श्रवण - इसका संकेत है वास्तव में अध्ययन करना और अत्यंत विशद शिक्षा प्राप्त करना ताकि हम उपदेशों को भली-भाँति समझ सकें। 
  4. इसके प्रति सावधान रहना कि हमारे कर्मों का दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ता है - दूसरे शब्दों में, यदि मैं अमर्यादित और नकारात्मक ढंग से कार्य करता हूँ, तो वह मेरे गुरुओं की बुरी छवि प्रस्तुत करेगा, बौद्ध धर्म की बुरी छवि प्रस्तुत करेगा, तथा उस बृहत् समुदाय की बुरी छवि प्रस्तुत करेगा जिससे मैं सम्बद्ध हूँ  - मेरा परिवार इत्यादि। यह और अगला रत्न नैतिक आचरण के आधार हैं।

    यद्यपि हम यह कह सकते हैं कि यह बहुत ही एशियाई विचार है – "इस प्रकार काम करने से मैं अपने परिवार को लज्जित करूँगा" – मुझे लगता है कि यह हमारे लिए भी उपयुक्त होगा। यदि हम नशे में उन्मत्त होकर शराबखाने में ऊधम मचाते हैं, तो बौद्ध धर्म कलंकित होगा, इत्यादि, और सब जानते हैं कि हम बौद्ध-धर्मी हैं।
  1. नैतिक आत्म-प्रतिष्ठा का बोध – "मैं स्वयं को इतना अधिक सम्मान देता हूँ कि मैं विध्वंसक ढंग से काम नहीं करूँगा।" बर्लिन में मैं जब इस विषय पर बात कर रहा था कि हम विध्वंसक रूप से क्यों कार्य नहीं करते, तब मैंने अपनी कक्षा को एक चुनौती दी थी: आप लोग छल क्यों नहीं करते? आप लोग झूठ क्यों नहीं बोलते, चोरी क्यों नहीं करते, इत्यादि? और बहुत लोग कहते हैं, "वैसा करना ठीक नहीं लगता।" तो वह बिल्कुल ठीक नहीं लगता। हम यहाँ यह बात नहीं कर रहे "अहा, यह नियम है और हम नियम नहीं तोड़ना चाहते," चाहे वह धर्मग्रन्थ का नियम हो या नगर नियम। अपितु वह आत्म-प्रतिष्ठा के बोध का एक मानसिक कारक है, कि "मैं स्वयं को इतना सम्मान देता हूँ कि मैं इस प्रकार के काम नहीं करूँगा। यह बिल्कुल ठीक नहीं लगता।" तो हम स्वयं को इस प्रकार का कार्य करने से इसलिए नहीं रोकते क्योंकि हमें किसी प्रकार का भय है - "मुझे अपराध-बोध होगा" - या "मैं बुरा नहीं बनना चाहता। मैं अच्छा बनना चाहता हूँ।" जैसे हम अंग्रेज़ी में कहते हैं, यह आत्मसम्मान, आत्म-प्रतिष्ठा की एक स्वस्थ मनोदृष्टि है।

    मेरे विचार में आत्म-प्रतिष्ठा की यह विशेषता बौद्ध-धर्म को चिह्नित करने वाले मुख्य लक्षणों में से एक है। इसका प्रारम्भ बुद्ध-धातु की परिचर्चा से होता है। ऐसा नहीं है कि वह प्रमुख छवि जिसे हम विकसित कर रहे हैं वह "मैं एक पापी हूँ, और मैं बुरा हूँ" है। वास्तव में हमारी मूल छवि तो आत्म-प्रतिष्ठा का वह बोध है जो अपने तथा अपनी शक्तियों को विकसित करने की क्षमता इत्यादि का आदर करता है। और जहाँ तक हमारी कमियों का प्रश्न है, हमें ग्लानि है और हमें उनसे उबरना है क्योंकि उनका आधार विभ्रांति है। वह बुरा या नियमों के प्रति अनुशासनहीन होने पर आधारित नहीं है।
  1. सविवेकी सचेतनता - जैसे परम पावन सदा कहते हैं, हमें इस अद्भुत मानव मेधा का उपयोग हितकर और अहितकर, क्या यथार्थ है, क्या कल्पना है इनमें विभेद करने के लिए करना चाहिए। हमें इसे विकसित करना ही होगा। ऐसा नहीं है कि हम छोटे बच्चे हैं और हमें ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो हमें यह बतलाए कि क्या हितकर है और क्या अहितकर। हमें इस क्षमता को विकसित करना चाहिए और पोषित करना चाहिए क्योंकि हमारे पास भेद करने की समझ है।

प्रसरित दण्डवत साष्टांग प्रणाम

फिर एक प्रसरित दण्डवत साष्टांग प्रणाम है। आप बिल्कुल वैसे ही करेंगे, परन्तु जब एक बार आप इन सातों अंगों को छूते हुए ज़मीन पर लेट जाते हैं तो अपनी बाहों को पृथक रखते हुए आगे फैलाएँ और हथेलियों को ज़मीन पर रखें। जब हम इसकी एक पूरी श्रृंखला करते हैं, जैसे 1,00,000 बार, तो हम इस प्रकार के साष्टांग प्रणाम करते हैं। इस अवस्था में आने के बाद कुछ लोग अपने अंगूठों को अंदर करके अपने हाथों को पास लाते हैं, और अपने सिर के ऊपरी भाग को छूते हैं, और फिर अपने हाथों को वापस नीचे रखते हैं।  ग्रन्थ एवं परम पावन सदा कहते हैं कि यह सर्वथा अनावश्यक है; तुरंत उठ जाना ही श्रेष्ठतर है। यद्यपि अनेक लोग वैसा करते हैं, जो अनावश्यक है।

कुछ सूत्र यह कहते हैं कि साष्टांग प्रणाम करते हुए जितने अणुओं या कणों पर आपका शरीर फैला होता है उन्हें यदि आप किसी असाधारण संख्या से गुणा करें तो उसका परिणाम उन पुण्यों अथवा सकारात्मक शक्तियों की संख्या के सम होगा जो आपने इसके परिणामस्वरूप संचित किए हैं। तो इससे ऐसा लगता है कि यदि आप बहुत लम्बे, विशाल शरीर वाले हों तो आप एक छोटे शरीर वाले की अपेक्षा अधिक सकारात्मक शक्ति संचित करेंगे, परन्तु मुझे नहीं लगता कि यहाँ ऐसा कोई अर्थ बताया जा रहा है।

जिस अकल्पनीय प्रचुर मात्रा की सकारात्मक शक्ति हम संचित कर सकते हैं, उसकी मात्रा लाक्षणिक रूप से गंगा तट के रज कणों से कहीं अधिक होगी। तो यह किसी बृहत् संख्या को प्रस्तुत करने की एक छवि है। फिर भी, यह बात तो है कि ग्रंथों में एक विनिर्दिष्ट संख्या का उल्लेख है जिसका बोध प्राप्त करना बहुत जटिल होता है। आप इन बुद्ध के आगे दण्डवत प्रणाम करते हैं और फिर आपके पास वह संख्या है जिससे आप उसे गुणा करते हैं, और उन बुद्ध की एक पृथक संख्या है, और उन बुद्ध की बिल्कुल ही अलग एक संख्या है। तो मुझे यह कहना पड़ेगा कि इसे समझना अत्यंत कठिन है।

परन्तु इस तथाकथित पुण्य के अंक को बढ़ाने की इस दौड़ में - इसलिए मुझे यह पुण्य  शब्द अधिक पसंद नहीं है, क्योंकि इससे ऐसा लगता है कि आप अंकों का संग्रह कर रहे हैं - तो आप कहेंगे, "ठीक है, मैं त्रिस्कंदधर्मसूत्र के इन बुद्ध को दण्डवत प्रणाम नहीं करूँगा क्योंकि वह एक अच्छा सौदा नहीं है, आपको कम मिलेगा। तो मैं उन बुद्ध का चयन करूँगा जिससे मुझे अधिक लाभ होगा। मैं इन बुद्ध के आगे दण्डवत प्रणाम करूँगा ताकि मुझे अधिक अंक प्राप्त करने के लिए उतने अधिक प्रणाम न करने पड़ें।" तो आप एक सौदा ढूंढ़ रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि उसका अभिप्राय यह नहीं है। मुझे नहीं लगता कि यह उसका उद्देश्य है।

मेरे विचार में इस प्रकार के विषयों की छान-बीन करनी चाहिए। ग्रंथों में जो भी लिखा है उसे कोई प्रश्न उठाए बिना ही नहीं मान लेना चाहिए। बुद्ध ने कहा था कि हर विचार को परखना चाहिए। और बौद्ध पद्धति के अनुसार आप पहले एक परिकल्पना करें और फिर यह देखें कि उसके कोई विरुद्ध हेतु तो नहीं है। सारे ग्रंथों में आपको यही मिलेगा। "कुछ लोग कहते हैं ..." और फिर वे एक काल्पनिक विचार प्रस्तुत करेंगे, और फिर "परन्तु यदि आप ऐसा सोचते हैं तो उसके यह, यह, और वह असंगत निष्कर्ष होंगे।" तो वह है छान-बीन करने की पद्धति। शास्त्रार्थ में लोग यही करते हैं। कोई एक अवधारणा बनाता है, और फिर दूसरा उसके विचार में विसंगति या विरुद्ध हेतु ढूँढ़ने के लिए उसका विरोध करता है।

उदाहरण के लिए, कई महायान सूत्रों के अनुसार बुद्ध के शरीर के प्रत्येक रोम छिद्र में बुद्ध हैं। या संसार प्रणालियाँ असीम हैं, और इन प्रत्येक बुद्ध के प्रत्येक रोम छिद्र में एक-एक संसार प्रणाली है। तो आपके पास यह अद्भुत छवि है जो हमारे चित्त का अतिशय परिधि-विस्तार कर सकती है यदि आप महायान के अनुसार अपने चित्त का परिधि-विस्तार करना चाहते हैं। वास्तव में यदि आप सोचें तो यह उतना विचित्र नहीं है। क्या आपने कभी गम्भीरतापूर्वक इस ब्रह्माण्ड के परिमाण के विषय में और उन सुदूर स्थित छोटे-छोटे बिंदुओं के बारे में सोचा है जिन्हें इन आँखों से देखा नहीं जा सकता बल्कि जिन्हें देखने के लिए अत्यंत शक्तिशाली दूरबीनों की आवश्यकता पड़ती है? वहाँ खरबों नक्षत्रों की एक पूरी आकाशगंगा है और कितने सारे ग्रह भी हैं। यदि आप इस पूरे ब्रह्माण्ड की व्यापकता के बारे में सोचें, तो वह अविश्वसनीय है। और इन प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में यही रूप मिलता है – बुद्ध के प्रत्येक रोम छिद्र में एक पूरा ब्रह्माण्ड स्थित है। यह एक अत्यंत प्रभावशाली चित्रण है जो हम बौद्ध धर्म में पाते हैं। तथापि, मैं यह नहीं जानता कि दण्डवत प्रणाम करते हुए आपके शरीर के नीचे पाए जाने वाले धूल के कणों की संख्या के लिए यह कितना प्रासंगिक है।

इस धूल के विषय को एक व्यावहारिक रूप से देखा जाए, तो मेरे विचार से यह दण्डवत प्रणाम करने की बाधाओं में से एक है – विशेष रूप से जब आप, उदाहरण के लिए, बोधगया जैसे स्थान पर हैं जहाँ इतने बड़े आयोजन के बाद मिट्टी कीचड़ बन जाती है – "ओह, मैं यहाँ दण्डवत प्रणाम नहीं करना चाहता। मैं मैला हो जाऊँगा।" यदि आप ऐसा सोचते हैं कि जितनी मात्रा में आप मिट्टी को छूते हैं उतनी ही अधिक सकारात्मक शक्ति इत्यादि संचित कर लेंगे, तो आप इस संकोच से छुटकारा पा लेंगे कि "मैं पृथ्वी के स्पर्श से अपने कपड़ों को मैला नहीं करना चाहता। मैं अपने हाथों को मिट्टी पर रखकर मैला नहीं करना चाहता" और उसके बाद आप अपने हाथों को साफ़ करते हैं और अपने कपड़ों को झाड़ते हैं। यद्यपि इससे जुड़ने का मेरा ढंग भले ही साधारण हो, मैं इसे बहुत ही व्यावहारिक रूप से समझता हूँ – किसी प्रकार का जादू-मंतर नहीं।

आप उन तीर्थयात्रियों के बारे में सोचिए जो हर पग पर दण्डवत प्रणाम करते हुए हज़ारों किलोमीटर दूर जाते हैं और वे कितने मैले होते होंगे। तो यह साफ़ है कि यदि वे धूल से डरते तो ऐसा कभी न करते। तो यदि आप इसे ऐसे देखते हैं कि "वाह, मैं इतनी सारी धूल से इतनी अधिक सकारात्मक ऊर्जा संचित कर रहा हूँ," तो इस काम के प्रति आपका भाव ही बदल जाएगा, नहीं क्या? जो भी हो, यह मेरे सोचने का ढंग है। 

साष्टांग प्रणाम की मुद्रा शैलियाँ

फिर दण्डवत प्रणाम की हस्त-मुद्रा शैलियाँ भी हैं:

  • दोनों हाथों से, अंगूठों को अंदर की ओर रखते हुए, अपने हृदय भाग का स्पर्श करना 
  • अथवा, अपने दाहिने हाथ को उठाकर, अंगूठे को अंदर की ओर रखकर तथा सभी उँगलियों को फैलाते हुए अपनी नाक के बराबर रखकर सिर को झुकाना 
  • अथवा तीसरा रूप-भेद है एक उंगली को इस प्रकार फैलाकर, परन्तु इसे सामान्य रूप से कोई नहीं करता।

तो, जब हम ऐसी परिस्थितियों में होते हैं जहाँ पूर्ण साष्टांग प्रणाम करना विचित्र लगेगा - जैसे आप रेलगाड़ी या हवाई जहाज़ इत्यादि में यात्रा कर रहे हों – तो आप हस्त-मुद्रा का प्रयोग करते हैं। या यदि आप रोगग्रस्त हैं और पूर्ण रूप से साष्टांग प्रणाम नहीं कर सकते, आप पलंग पर ही क्यों न लेटे हों, आप ऐसे कर सकते हैं। विकल्प तो हमेशा होते ही हैं। रूपांतर सदा होते हैं। वे अत्यंत सहायक सिद्ध होते हैं।

यह अत्यंत आवश्यक है कि आप लचीले रहें एवं परिस्थिति के अनुरूप रूपभेद का प्रयोग करें। मुझे लगता है कि अपने अभ्यास में हठी और कट्टर न होने के विषय में पर्याप्त बल देने में मैं स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहा हूँ, परन्तु बहुत ही लचीला होना चाहिए, बहुत ही तनावमुक्त। आप तिब्बतियों को देखें – वे अपना अभ्यास करते हुए पूर्ण रूप से तनावमुक्त रहते हैं। वे उचित ढंग से करते हैं, परन्तु इतने लचीले हैं कि परिस्थिति के अनुसार ढाल लेते हैं।

मैं आपको एक अत्युत्तम उदाहरण देता हूँ। और मेरा आदर्श हमेशा त्सेनझाब सेरकॉंग रिन्पोचे ही हैं। मैंने उनके साथ नौ वर्ष बिताए, तो मुझे उनके दैनिक संपर्क में रहने के अनेक अवसर मिले। जब आपको वज्रयोगिनी का अभिषेक प्राप्त होता है, और कभी-कभी चक्रसंवर के साथ भी, तो आपको महीने में दो बार – तिब्बती महीने के 10वें और 25वें दिन – त्सोग  चढ़ाना होता है, जो एक प्रकार की भेंट होती है, एक अनुष्ठान होता है। किसी ने उनसे पूछा, किसी पश्चिमवासी ने, "यदि हमारे पास तिब्बती पंचांग न हो और हमें यह पता न चले कि चंद्रमास के 10वें और 25वें दिन कब-कब हैं तब क्या किया जाए?" रिन्पोचे ने उत्तर दिया, "क्या आपके पश्चिमी महीनों में 10वें और 25वें दिन नहीं होते?" तो यह बात साफ़ है कि हम परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल सकते हैं। ऐसा नहीं हैं कि, "आप ऐसा नहीं करेंगे तो आप नरक में जाएँगे।" ऐसा नहीं है। तो वे कट्टर बिलकुल नहीं थे – जैसा मैंने कहा, अभिषेक के लिए दूध की शीशी को भव्य रत्नजटित कलश का स्थानापन्न करना। मुझे लगता है कि इसलिए सब लोग उन्हें इतना चाहते थे, क्योंकि वे अति सरल और व्यावहारिक थे। उनका मुख स्टार वार्स  के योडा का प्रतिरूप था। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि वे कैसे दिखते थे।

कायिक, मौखिक, एवं मानसिक साष्टांग प्रणाम

हम जब भी साष्टांग प्रणाम करते हैं तो हमें कायिक साष्टांग प्रणाम, मौखिक साष्टांग प्रणाम, तथा मानसिक साष्टांग प्रणाम करना होता है। 

कायिक साष्टांग प्रणाम

कायिक साष्टांग प्रणाम केवल वह नहीं है जिसका मैं निरूपण कर रहा था, परन्तु, किसी धर्म ग्रन्थ अथवा प्रतिमा को अपने माथे से छूकर त्रिरत्नों का आदर करने का एक मार्ग भी है। आप तिब्बतियों को हमेशा ऐसा करते हुए देखेंगे। और यदि वे ऐसा स्वयं नहीं करते, तो वे चाहेंगे कि कभी-कभी उनके गुरु किसी ग्रन्थ को उनके सिर से छुआ दें। 

मैं एक उदाहरण के बारे में सोच रहा हूँ। 1971 में मैं वहाँ उपस्थित था जब परम पावन ने गुह्यसमाज के संयुक्त भाष्य का प्रसारण किया था। सभी लोग परम पावन की युवावस्था को देखकर विस्मित थे कि इतनी छोटी उम्र में उन्होंने कितना गुरु-गम्भीर भाष्य प्रस्तुत किया। मुझे पता नहीं, परन्तु लगभग पाँच हज़ार या आठ हज़ार भिक्षु वहाँ उपस्थित रहे होंगे। मुझे सही संख्या पता नहीं है। परन्तु चाहे जो भी हो, अपने प्रवचन के पश्चात वे अपने सिंहासन पर आलती-पालथी मारकर बैठे (जो काफ़ी ऊँचा था) और वे आगे की ओर झुके - अविश्वसनीय रूप से कष्टप्रद मुद्रा में, पूरी तरह झुके हुए - ग्रंथों को हाथ में लिए, जो ग्रन्थ कदापि हलके नहीं होते, और बिना हिले, बिना विश्राम किए तब तक वैसे ही झुके रहे जब तक सभी लोग आ-आकर अपने-अपने सिर से ग्रन्थ को छूते हुए निकल नहीं गए। यह पूर्ण रूप से अविश्वसनीय था। तो जब आप परम पावन दलाई लामा के बारे में सोचते हैं, केवल उनकी वाचिक एवं मानसिक विशेषताएँ ही नहीं, अपितु उनकी कायिक विशेषताएँ भी अकल्पनीय हैं।

सेरकॉंग रिन्पोचे कहा करते थे कि जब वे परम पावन के साथ भारत में मोटर गाड़ी से यात्रा करते - वे अलग-अलग बस्तियों इत्यादि में जाते थे - और वे कहते थे कि वे कदाचित बारह या तेरह घंटों की यात्राएँ होती थीं, हिमालय की दुर्गम, घुमावदार सड़कों से होते हुए। वे कहते थे कि यात्रा के अंत में परम पावन बिल्कुल उत्साह से पूर्ण एवं ऊर्जस्वित अवस्था में गाड़ी से निकलते, जबकि सेरकॉंग रिन्पोचे यात्रा से इतना थक जाते कि बड़ी कठिनाई से चल पाते थे।

तो कुछ भी हो, कायिक दण्डवत प्रणाम - आदर-सूचक ढंग से ग्रंथों और प्रतिमाओं को छूना - फिर कहूँगा कि इस में आडम्बर मत रचाइए। यदि आप अपने परिवार या माता-पिता के साथ हों और उन्हें यह अत्यंत विचित्र लगे तो उनके सामने ऐसा न करें। मेरा कहना है कि नीति-शास्त्र के इस पक्ष का यही तो उद्देश्य है - इस बात पर ध्यान देना कि आपके कृत्य किस प्रकार प्रतिबिंबित होते हैं। आप बौद्ध-धर्म की कोई विचित्र छवि प्रस्तुत करना नहीं चाहते - कि यह कोई ऐसी पूजा-पद्धति है, यह कोई ऐसा अनोखा पंथ है जिसमें मेरे बच्चे रूचि दिखा रहे हैं - विशेष रूप से आपके माता-पिता के समक्ष। तो, जैसा कहते हैं, शांत रहें।

जब हम तंत्र सम्बन्धी शिक्षाओं के बारे में बात करते हैं, तो हम उससे सम्बद्ध गोपनीय  शब्द भी सुनते हैं। मेरे विचार में अनेक प्रसंगों में निजी  एक उत्तमतर शब्द होगा। वह एकांत में करने का विषय है, न कि सबके सामने दिखाकर करने का। यदि उनकी इसमें रूचि नहीं है या वे उस समाज के अंग नहीं हैं जो ऐसी विधियाँ करते हैं, तो उनके मन में विचित्र भावनाएँ उत्पन्न होंगी। इसलिए ऐसा सुझाव है कि आप अपने कमरों में, जहाँ आपके बच्चे, या अतिथि अथवा उनके बच्चे इत्यादि आते हों, वहाँ निर्वस्त्र देवताओं, निर्वस्त्र देवी-देवताओं के चित्र अथवा छायाचित्र न रखें जिनमें वे पूर्ण रूप से अनावृत हैं, अथवा आलिंगनबद्ध या किसी अन्य मुद्रा में हैं, क्योंकि लोग सोचेंगे, "हाय, यह तो एक विकृत अश्लील पंथ है।" अथवा पैशाचिक-वृत्ति है - सींग-युक्त यमांतक और भैंसे का सिर और ज्वाला, इत्यादि - "यह तो पिशाच-पूजा है।" तो आप उन्हें अपनी भित्तियों पर न छोड़ें जिससे कि आने-जानेवालों के मन में इस प्रकार की प्रतिकूल भावनाएँ उत्पन्न हों।

तिब्बती थंकाओं के सामने सामान्य रूप से परदे होते हैं, जिन्हें आप गिरा सकते हैं जब आप अपना अभ्यास एकांत में नहीं कर रहे होते। यदि आप थंका लगाना ही चाहते हैं तो आप बुद्ध की थंका लगाएँ, या सुखद शांतिपूर्ण आकृतियों जैसे अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, तारा, इत्यादि की। और साथ ही आप थंकाओं को अपने स्नानगृह - अर्थात शौचालय में न लगाएँ - वह अत्यंत अनादरसूचक माना जाता है।

वाचिक साष्टांग प्रणाम

फिर वाचिक साष्टांग प्रणाम। ग्रंथों में लिखा गया है कि: आप कल्पना करें कि आपके शरीर पर अनेकानेक सिर हैं, एवं प्रत्येक मुख पर अनेकानेक मुँह हैं, तथा ये सभी मुँह त्रिरत्नों का गुणगान कर रहे हैं।

मुझे यह कहना पड़ेगा कि हमेशा से गुणगान का यह सिद्धांत मुझे कुछ अटपटा-सा लगा है। " हे बुद्ध, आप अत्यंत महान हैं। आप अद्भुत हैं" इत्यादि। आप इसे अन्य धर्मों में भी पाएँगे, इस प्रकार का गुणगान भरा हुआ। "ओह, आप पहुँच से कहीं दूर हैं, बुद्ध।" ऐसा नहीं है। मेरे विचार से हमें यह समझना चाहिए कि यहाँ प्रसंग क्या है। यदि आप संसार के आठ धर्मों को देखें, ये आठ क्षणभंगुर वस्तुएँ, वहाँ गुणगान है या फिर दोषारोपण है। उसके प्रति समभाव, उसी प्रकार की मनोदृष्टि। तो बुद्ध को हमारा गुणगान नहीं चाहिए, और वे ऐसा नहीं सोचेंगे कि "ओह मैं बहुत आनंदित हूँ कि तुमने मेरा गुणगान किया। मैं कितना महान हूँ।" हम गुणगान कर रहे हैं अपने लाभ के लिए, न कि बुद्ध के लाभ के लिए। इसका उद्देश्य है कि हम इन अच्छे गुणों का स्मरण करें और इस बात के प्रति अत्यधिक आदर, आभार एवं श्रद्धा विकसित करें कि यही हैं जिन्हें हम अपने अंदर विकसित करना चाहते हैं। गुणगान का यही उद्देश्य है।

मानसिक साष्टांग प्रणाम

फिर चित्त के सम्बन्ध में, हम फिर बुद्ध, धर्म, एवं संघ के अच्छे-अच्छे गुणों के बारे में चिंतन करते हैं। इन मुँहों और मुखों इत्यादि की कल्पना कीजिए - ये सभी हमारे सद्गुणों की अनुभूति में वृद्धि करेंगे तथा उन्हें स्मरण करने में सहायता करेंगे। वे भी गुणगान कर रहे हैं। एक प्रकार से यह इन अत्युत्तम गुणों में आनंदित होने के समान है। ठीक।

आसीन मुद्रा: वैरोचन की अष्टांग मुद्रा

फिर आती है मुद्रा। तो आप बैठ जाएँ। और अब है वैरोचन की अष्टांग मुद्रा। इसे कमलशील ने अपनी समाधि के मध्यवर्ती एवं परवर्ती चरण  में वर्णित किया है।

  1. टाँगें – वज्रासन में पैर पर पैर रखकर बैठ जाएँ। हिन्दू योग में इसे पद्मासन कहते हैं। बौद्ध परम्परा में इसे वज्रासन कहते हैं। आपकी टाँगें इस प्रकार आपकी जाँघों पर औंधी रखी हुई हैं। यह एक वज्र के समान है।

    हममें से अधिकाँश लोगों के लिए यह करना उतना सरल नहीं है, और छोटी अवस्था में इसमें प्रशिक्षित होना लाभप्रद होगा ताकि हम अधिक से अधिक लचीले बन पाएँ। यह केवल उस समय उपयोगी होगा जब आप अपने शरीर की शक्तियों के साथ विविध पूर्णस्तरीय अभ्यास कर रहे हों। तब आपको ऐसे बैठना होगा। अन्यथा यह वैकल्पिक है। तब आप एक जांघ पर दूसरे पैर को रखकर यथाकथित अर्धकमल मुद्रा में बैठ सकते हैं।

    जब आप इन लामाओं को देखते है जो लम्बे समय से इस प्रकार वज्रासन में बैठते आए हैं तो वह अत्यंत हास्यजनक होता है। यदि आप एक पैर ऊपर नहीं रख सकते तो आप पालथी मारकर ऐसे ही बैठते आए हैं। परन्तु यदि वे इस प्रकार अपने जीवन के अधिकाँश समय बैठे हैं तो आप देखेंगे कि उनके पैर एक प्रकार से टेढ़े हैं - जब वे अपने पैर नीचे रखते हैं तो उनके पैर बाहर की ओर मुड़े हुए होते हैं। जापानी लोग अपने पैरों को अंदर की ओर मोड़ते हुए अपने नीचे दबाकर बैठते हैं। आप एक जापानी को देखकर पहचान जाएँगे क्योंकि जब वे खड़े होते हैं तो उनके पैर अंदर की ओर मुड़े होते हैं।

    मुझे कहना होगा कि इससे आपकी शारीरिक मुद्रा एवं चलने के ढंग में समस्या हो सकती है। मेरा तात्पर्य है कि मेरे पैर यों बाहर की ओर जाते हैं, और उन्हें सीधा रखना अत्यंत कठिन और अत्यंत कष्टप्रद है। वास्तव में जीवन में आगे चलकर यह कठिनाइयों को जन्म दे सकता है। जीवन में आगे चलकर कई लोग अपने घुटनों में कठिनाई अनुभव करते हैं। जैसे भी हो, तिब्बती लोग ऐसे ही बैठेंगे। मेरे कहने का अर्थ है कि परम पावन ऐसे ही बैठते हैं और उन्हें घुटनों की समस्या है। परन्तु पश्चिम में वयोवृद्ध एवं अनुभवी ध्यानी, तथा शिक्षकगण इत्यादि, जो अपने जीवन में लम्बे समय तक ऐसे ही बैठते आए हैं, यह पाते हैं कि जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, वे लम्बे समय तक पालथी मारकर बैठने में असमर्थ होते जाते हैं। इससे, उदाहरण के लिए, उन्हें भारत में आकर शिक्षा ग्रहण करने में कठिनाई होती है। मैंने इसका अनुभव किया है। तो, यद्यपि तिब्बती लोग इसपर बिलकुल अधिक बल नहीं देते, तथापि मुझे लगता है कि यदि हम बहुत अधिक ध्यान-साधना करते हैं एवं बहुत अधिक बैठते हैं, तो हमें इसे संतुलित करने के लिए व्यायाम भी करना चाहिए।

    निस्संदेह आप देखेंगे कि यह आलती-पालथी मारकर बैठने की मुद्रा होने पर भी जापानी ऐसा नहीं करते - वे अपने पैरों को अपने पीछे रखकर बैठते हैं - और थाई लोग अपनी टाँगों को एक ओर रखकर बैठते हैं। तो, बैठने की कई मुद्राएँ हैं।
  1. हाथ – अपनी गोद में रखकर, अपनी बाईं हथेली के ऊपर अपनी दाईं हथेली रखकर दोनों अंगूठों को एक साथ रखते हुए - कुछ लोग अपने हाथों को अपनी गोद से ऊपर उठाकर रखते हैं। इससे आपके कन्धों के स्नायु जकड़ जाते हैं और कुछ समय के बाद पीड़ा का अनुभव होने लगता है। तो बेहतर यही होगा कि आप अपने हाथों को अपनी गोद में ही रखें।
  2. रीढ़ की हड्डी – आपकी रीढ़ की हड्डी सीधी होनी चाहिए। यदि आप पूर्ण पद्मासन में बैठते हैं तो आपकी रीढ़ की हड्डी स्वाभाविक रूप से सीधी ही होगी। मैंने यह देखा है कि यदि आप केवल आलती-पालथी मारकर बैठते हैं तो अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखने में कठिनाई होती है।
  3. दाँत, होंठ, तथा जिह्वा  – आप अपने दाँतों को भींचकर नहीं रखना चाहेंगे जैसे आप अभी-अभी चार एस्प्रेसो कॉफ़ी पी चुके हों। अपने होंठों को भी नहीं भींचना चाहिए, अपितु उन्हें ढीला छोड़ देना चाहिए। अपनी जिह्वा को अपने दाँतों के पीछे ऊपरी तालु को छूते हुए वक्र रूप में रखना चाहिए। इसका उद्देश्य है कि कम-से-कम लार निकले। वरना बैठे-बैठे आपकी लार बहती रहे वह अच्छा नहीं लगता। आपको हर बार निगलना पड़ेगा – उससे ध्यान बँट जाता है – क्योंकि आपके मुँह में अधिकाधिक लार बनती रहती है। इससे आपके मुँह में कम लार बनेगी तो आप कम निगलेंगे।
  4. सिर  – किंचित नीचे की ओर झुका हुआ - पूरी तरह नीचे की ओर नहीं, और न ही पूरी तरह ऊपर की ओर। यदि आप पूरी तरह नीचे की ओर झुकाते हैं तो आपका सिर चकराएगा।
  5. आँखें – हमेशा यह संस्तुत किया जाता है कि अपनी नाक की ओर देखते हुए अपनी आँखों को आधा खुला रखें। कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि अपनी नाक की नोंक को देखना भैंगापन है। ऐसा नहीं है। इसका अर्थ है उस दिशा में देखना, अर्थात फ़र्श की ओर देखना।

    अपनी आँखों को बंद करके ध्यान-साधना नहीं करने के कई कारण हैं। सबसे सामान्य कारण तो यह है कि अपनी ऑंखें बंद करने से आपको बड़ी सरलता से नींद आएगी और हो सकता है कि आप सो जाएँ, यद्यपि इससे बाहर की बातों से आपका ध्यान भंग होने से बच सकता है।

    परम पावन कहते हैं कि आँखें बंद करने से आपका अंदर की बातों से ध्यान-भंग हो सकता है। यह अत्यंत विचारप्रेरक है। यदि आप देखें – अभी आपको अत्यंत सावधान रहना पड़ेगा – जब आपकी आँखें बंद होती हैं, तो आपको छोटी-छोटी झिलमिलाती हुई रोशनी दिखाई देगी। वे कहते हैं कि यह आतंरिक अन्यमनस्कता है जिससे बचने के लिए आँखें खुली रखकर ध्यान करना चाहिए विशेषकर जब आप एकाग्रता को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे होते हैं।

    एक और सामान्य बात जिस पर मैं बल देना चाहता हूँ वह यह है कि यदि आपको शांत होने और चित्त की सकारात्मक अवस्था को प्राप्त करने के लिए अपनी आँखें बंद करनी पड़ती हैं, तो साधारण जीवन में ऐसा करने के लिए यह एक बड़ा अवरोध सिद्ध होगा - यदि आप इस अभ्यास में पड़ जाते हैं कि शांत होने के लिए या किसी के प्रति करुणा का अनुभव करने के लिए आपको अपनी आँखें बंद करनी पड़ें। यह वास्तविक जीवन में संभव नहीं हो पाएगा। मुझे कहना होगा कि यद्यपि मैंने इसे किसी भी ग्रन्थ में कभी नहीं देखा है, परन्तु फिर भी मुझे यह अत्यंत अर्थपूर्ण है।
  1. कंधे  - उन्हें नीचे रखें, सतर्क मुद्रा में उचकाए नहीं। यह वास्तव में दैनिक जीवन की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जब हम अत्यंत उत्तेजित एवं तनावग्रस्त होते हैं, तो हमारे कंधे सतर्क होकर उचक जाते हैं, हमारी गर्दन में तनाव बढ़ता है, इत्यादि। यदि आप इस बात से अवगत हो जाएँ कि आप पूरे दिन में अथवा किसी के साथ बातचीत करते समय अपने कंधों को कैसे उचकाकर रखते हैं, तो उन्हें नीचे कर दें।

    आपके चेहरे के भाव के साथ भी ऐसा ही है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके मुखमण्डल भाव-विहीन होते हैं, उनपर कोई हाव-भाव नहीं होते, जो किसी के साथ बात करते समय उसे अत्यंत क्षुब्ध करता है। फिर कुछ अन्य लोग होते हैं - यद्यपि वे बातचीत का हिस्सा न भी हों, परन्तु वे वहाँ बैठे हुए अपनी भृकुटि तनी हुई रखते हैं और उनका माथा, आँखें, चेहरा, आदि तनावग्रस्त होते हैं। अपनी माँसपेशियों को आराम देने का प्रयास करें। आपकी माँसपेशियाँ जितनी अधिक शिथिल होंगी, आपका मन भी उतना ही अधिक तनावमुक्त होगा। अपने कंधों को नीचे करें। यदि आपका चेहरा भावहीन है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि अब आप सर्कस के भांड की तरह हर प्रकार के कृत्रिम भाव बनाते फिरें, बल्कि कुछ अधिक मानवीय बनने का प्रयास करें।

    और फिर, मैं आपके बारे में तो नहीं जानता, परन्तु यदि आप कंप्यूटर पर माउस का प्रयोग करते हैं और आपकी बाँह इस तरह ऊँची रहती है, और विशेषकर यदि आपका आसन नीचे है और मेज़ ऊँची है, तो यह आपके कंधे और आपकी गर्दन में तनाव पैदा करता है जिसका आप अनुमान नहीं लगा सकते। इसके लिए मैंने जो सबसे श्रेष्ठ उपाय ढूँढ़ा है, वह यह है कि आपकी कुर्सी ऊँची हो ताकि माउस का प्रयोग करते समय आपकी बाँह नीचे की ओर रहे, न कि ऊपर की ओर।
  1. श्वास लेना  - अत्यधिक गहन श्वास संचार न करें, अपितु अपनी नाक से सामान्य रूप से श्वास लें और छोड़ें - न बहुत शीघ्रता से और न ही बहुत धीरे-धीरे।

इसके बाद आप प्राणायाम करें। ऐसे कई प्रायाणाम हैं जो आप कर सकते हैं, या केवल श्वास पर ध्यान केंद्रित करते हुए:

  • यदि आप कुछ शिथिल अनुभव कर रहे हों और केवल अपने श्वास पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहते हों तो नाक से श्वास लें।
  • या नीचे नाभि के पास से, पेट अंदर और बाहर करते हुए, जो आपको अधिक केंद्रित करता है यदि आप तनाव अनुभव कर रहे हों।

केवल श्वास पर ही ध्यान केंद्रित करने के कई मार्ग हैं। श्वासों का गिनना भी इनमें से एक है। बात यह है कि यह केवल गणना का व्यायाम नहीं है। अपितु, सामान्यतः लोग केवल ग्यारह या सात या इक्कीस तक गिनते हैं (इसका वास्तव में कोई महत्त्व नहीं है) और फिर आप इसकी आवृत्ति कर सकते हैं।

फिर श्वास लेने के नौ आवर्तन भी होते हैं, जिसके साथ-साथ एक बहुत ही जटिल मानस दर्शन होता है। जब परम पावन प्रवचन देते समय बड़े समूहों को यह सिखाते हैं, तो वे मानस दर्शन को पूर्ण रूप से छोड़ देते हैं। इसका क्या अभिप्राय है? यह इंगित करता है कि यदि आप मानस दर्शन पर बहुत अधिक बल देते हैं, तो इस क्रिया का उद्देश्य व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि आप यह चिंता कर रहे होते हैं "ओह, मैं उचित रूप से मानस दर्शन नहीं कर पा रहा हूँ। क्या यह नाड़ी वहाँ  जा रही है और वह नाड़ी वहाँ  जा रही है?” और आप घबरा कर बहुत परेशान हो जाते हैं।

हमारे पास मृत्यु की प्रक्रिया की कल्पना करने के ये सभी तांत्रिक चित्रण हैं (हम देवता से प्रारम्भ करते हैं, इत्यादि), और परम पावन कहते हैं कि जब तक आप अति सिद्ध साधक नहीं बन जाते, तब तक आप मृत्यु के समय इस विषय पर ध्यान न दें, क्योंकि आप बहुत अधिक घबरा जाएँगे और परेशान हो जाएँगे कि आप मानस दर्शन सही ढंग से कर पा रहे हैं या नहीं – “मैं मानस दर्शन कैसे कर रहा हूँ? क्या वह ऐसा प्रतीत होता है? और अब यह चरण" - और आप अत्यंत अशांत मनःस्थिति में अपने प्राण त्याग देंगे। वे कहते हैं कि जब आप अपने प्राण त्याग रहे होते हैं, तो बोधिचित्त पर ध्यान करना उत्तम होगा: "ऐसा हो जाए कि मैं इसी मार्ग पर चलता जाऊँ। ऐसा हो जाए कि मैं दूसरों की सहायता करता रहूँ, आध्यात्मिक गुरुओं के संग ही रहूँ", इत्यादि। चिंता न करें। मानस दर्शनों को इतना बड़ा चिंतन का विषय न बनाएँ, क्योंकि वे कठिन हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि मानस दर्शन पूरी तरह से महत्त्वहीन हैं। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि मुख्य रूप से उसपर बल नहीं दिया गया है। 

तो इन नौ आवर्तनों के साथ, परम पावन इसे ऐसे समझाते हैं कि आप अपने हाथों को अपने घुटनों से ऊपर उठाते हुए शुरू करते हैं, और फिर अपने हाथों की मुट्ठी बनाते हुए अपनी बगलों में ज़ोर से ठूँसते हैं। फिर एक उंगली से अपनी एक नासिका को बंद करके दूसरी नासिका से धीरे-धीरे श्वास अंदर की ओर लेते हैं; फिर दूसरी नासिका से श्वास छोड़ते हैं। ऐसा नहीं है कि आप अपने हाथ अदल-बदल रहे हैं - इससे ध्यान भंग होगा - परन्तु ऐसे तीन बार करें। फिर दूसरी नासिका से भी ऐसे ही तीन बार करें। फिर अपने हाथों की मुट्ठी बाँधकर अपनी गोद में रखें, और उन्हें बारी-बारी खोलते और बंद करते हुए दोनों नासिकाओं से श्वास लेते और छोड़ते रहें। और यह पर्याप्त है। एक सकारात्मक मानसिक स्थिति उत्पन्न करने में सक्षम होने के लिए अपने मन को एक अनिर्दिष्ट स्थिति, एक तटस्थ अवस्था, में लाने हेतु – जिसके उपरांत एक सकारात्मक मनःस्थिति का सृजन होगा – यह जटिल मानस दर्शन करने की आवश्यकता नहीं है।

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