ध्यान साधना कक्ष को बुहारना और साफ़ रखना

भूमिका

छः प्रारंभिक अभ्यास अतिश से प्राप्त होते हैं, जिन्होंने उन्हें इंडोनेशिया में अपने शिक्षक, सर्लिंगपा से सीखा, और फिर उन्हें तिब्बत भेजा। हम जो ध्यान सत्र कर रहे हैं यह उसकी तैयारी है। हम इन्हें लाम-रिम क्रमिक पथ के मानक ग्रंथों में पाते हैं जिनमें उनकी चर्चा की गई है। पथ के क्रमिक स्तर: मंजुश्री की ओर से व्यक्तिगत अनुदेश  में, पाँचवें दलाई लामा सुबह के प्रत्येक ध्यान सत्र से पहले इन सभी छः प्रारंभिक अभ्यासों को करने के लिए कहते हैं। फिर यदि आप दिन में और अधिक ध्यान साधना सत्र करते हैं, तो केवल अंतिम चार ही करें।

ये छः हैं:

  1. ध्यान कक्ष की स्वच्छता एवं शुद्धि करना और बुद्ध की काया , वचन, और चित्त प्रतिरूपों को प्रतिष्ठित करना 
  2. ढोंग रहित चढ़ावे को सुलभ कराना एवं उन्हें सुन्दरता और शिष्टता से सजाना 
  3. साधना के लिए एक उचित आसन बिछाकर अष्टांगी मुद्रा में बैठना और फिर सकारात्मक चित्तावस्था में, शरणागत (सुरक्षित दिशा) होते हुए अपने बोधिचित्त के लक्ष्य की पुनःपुष्टि करना 
  4. आध्यात्मिक विकास के लिए एक विपुल प्रदेश का मानस दर्शन करना - लोग प्रायः एक पुण्य-भूमि या गुरु-वृक्ष के नाम से इसका उल्लेख करते हैं, परन्तु वस्तुतः यह एक ऐसी भूमि है जिसमें, एक अर्थ में, हम ऐसे बीज बोते हैं जिससे हमारा आध्यात्मिक विकास होता है 
  5. सप्तांग प्रार्थना और मंडल-अर्पण 
  6. प्रार्थना करने हेतु अपने मानसिक सातत्य को विनिर्दिष्ट मार्गदर्शी अनुदेश के अनुसार गुरुजनों की वंश परंपरा की प्रेरणा से अनुप्राणित करना।

इसमें अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि केवल इन छहों को करना ही आपके बौद्ध अभ्यास को प्रारम्भ करने के लिए पर्याप्त होगा।

ध्यान कक्ष की स्वच्छता एवं शुद्धि करना

छः प्रारंभिक अभ्यासों में से पहले अभ्यास का पहला भाग है अभ्यास-स्थल को झाड़ू लगाकर स्वच्छ करना और कूड़े को बाहर फेंकना। यह ऐसा विषय है जिसपर बार-बार बल दिया जाता है। आप अपना कमरा क्यों साफ़ करना चाहेंगे? यह सम्मान प्रदर्शन का एक माध्यम है। इससे आप शिक्षाओं को, जो आप वास्तव में कर रहे हैं उसे, तथा ऐसा करने के लिए आप अपने को भी सम्मान देते हैं। यदि आपके आस-पास जो कुछ भी है वह अस्त-व्यस्त और गंदा होगा, तो वह आपके चित्त को प्रभावित करेगा, और इससे आपका चित्त भी कुछ अव्यवस्थित हो जाता है। यदि सब कुछ व्यवस्थित तथा साफ़-सुथरा है, तो आपका मन भी अधिक व्यवस्थित और निर्मल हो जाता है।

ज़रा सोचिए। क्या यह सच है? देखिए, यही वह प्रक्रिया है जो आपको हमेशा करनी ही चाहिए। ऐसा न करें कि शिक्षण का केवल एक बिंदु लें और कहें "हाँ, ठीक है, ठीक है" या बहुत से बहुत कहीं लिख लें - अधिकांश लोग इसे लिखते भी नहीं हैं (और न ही इसे लिखित सन्देश के रूप में किसी को भेजते हैं)। परन्तु यह सोचें: “क्या यह सच है? क्या इसका कोई अर्थ बनता है?" हमें हर एक बिंदु को देखने और यह जाँच करने की आवश्यकता है कि: "क्या इसका कोई अर्थ है, या यह केवल अनर्गल है?" यदि आप इसे अनर्गल मानते हैं, या आप यह भी नहीं सोचते कि क्या यह अनर्गल है या तर्कसंगत, तो इसका लाभ क्या है? आप इसका अध्ययन क्यों कर रहे हैं?

एक बढ़िया उदाहरण: यहाँ मास्को की शहरी यातायात की स्थिति कदाचित संसार के निकृष्टतम स्थितियों वाले शहरों जैसी है। जब आप यातायात में फँस जाते हो और चारों ओर अराजकता फ़ैली हो और कुछ भी नहीं चल रहा हो और गाड़ियाँ लेन बदलने का प्रयास कर रही हों, इत्यादि, तब आपकी मनोदशा क्या होगी? क्या आप शान्ति और ग्रहणशीलता और समझदारी का अनुभव कर सकते हैं? या फिर यह आपके मन को प्रभावित करता है? उस बारे में सोचिए। मुझे ऐसा लगता है कि तब आपके सामने यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जब आपके आसपास की परिस्थिति अराजकतापूर्ण हो, तो आपका मन भी अराजक हो जाता है, आप घबरा जाते हैं - बाहरी या आंतरिक रूप से स्थिति शांत नहीं रहती - वे एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। और भले ही हम परेशान न हों और न ही हम यातायात में भ्रान्तचित्त हो जाएँ, आप घुटन अनुभव करते हैं; आप बोझिल अनुभव करते हैं। ऐसा नहीं है कि यातायात आपको हल्का और उत्प्रेरित अनुभव करवाता हो, है न?

तो कमरे को बुहारें, उसे साफ़ करें - या वैक्यूम क्लीनर का प्रयोग करें, या जो भी आप करते हैं - और सब कुछ साफ़-सुथरा और व्यवस्थित रखें। मैं जिस कमरे में ध्यान-साधना करता हूँ तथा जो मेरा कार्यालय है जहाँ मैं काम करता हूँ, उन दोनों को प्रतिदिन साफ़ करता हूँ। प्रतिदिन बिना चूके, जैसे आप अपने दाँतों को ब्रुश से माँजते हैं वैसे। और जब आप ऐसा करते हैं, तो केवल एक सफ़ाईवाला बनकर न करें; उसे बदलने का भी प्रयास करें। आप कोई सफ़ाईवाली नहीं हैं। तो हम ऐसे कल्पना करते हैं कि गंदगी या धूल हमारी अचेतनता - तथाकथित अज्ञानता - वास्तविकता, कारण और प्रभाव आदि की अनभिज्ञता है, तथा झाड़ू शून्यता का बोध। तब जब आप फिर एक बार सारी धूल इकट्ठा कर लेते हैं, तो आप इसे ओम अह हुम  के साथ गहन अभिज्ञता के अमृत और तत्पश्चात शून्यता के बोध में बदल देते हैं, और फिर आप इसकी आहुति यम, मृत्यु के भगवान, को दे दें। यम एक कूड़ादान हैं।

यह इसका वास्तविक रूप है जिस प्रकार त्सेनझाब सरकॉंग रिन्पोचे सिखाते थे, परन्तु स्पष्टतः ऐसा करना सरल नहीं हैं। यदि हमें शून्यता का ज्ञान नहीं है और न ही तंत्र में रूपांतरण प्रक्रिया का बोध, तो हो सकता है कि हमें यह कुछ मूर्खतापूर्ण या कृत्रिम लगे। तो इसका अधिक स्वीकार्य प्राथमिक रूप, धर्म-लाइट रूप, क्या हो सकता है? ठीक। तो आप अपने चित्त एवं मनोभावों में स्थित नीरसता और अराजकता को मैल मान लें, और जिसे हम सटीक बोध से मिटा रहे हैं, और फिर एक अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण रखने की चेष्टा कर रहे हैं।

यदि आप बाधाओं इत्यादि को एक भयानक शत्रु के रूप में देखते हैं और बढ़ा-चढ़ाकर सोचते हैं कि यह कितना भयावह है और "मैं कितना कठोर हूँ जो ऐसा हूँ", तो यह एक बड़ी समस्या का कारण बन सकता है। यह अपराध-बोध है। यह गंदगी की तरह है। "गंदगी बहुत भयानक है। छी! इसे निकालो यहाँ से।" ठीक? यहाँ जो संकेत किया जा रहा है वह यह कि किसी भी तरह से आप इसे रूपांतरित करें। तो आप कहते हैं कि "ठीक है, मेरे सामने ये बाधाएँ हैं, और यह खिन्नता है," इत्यादि, परन्तु एक अर्थ में आपके पास...इसे मैं कैसे कहूँ? यह समचित्त भाव की भाँति है। समचित्त भाव का यह अर्थ नहीं है कि आप इसके बारे में कुछ भी न करें, अपितु यह है कि आप इस विषय को लेकर चिंतित न हों।

उदाहरण के लिए यह बुढ़ापे के कष्ट जैसा है - जो मैं अनुभव कर रहा हूँ - और क्या होता है? आपकी दृष्टि धुंधली पड़ जाती है। आपकी सुनने की शक्ति कम हो जाती है। आपकी अल्पकालिक स्मृति का ह्रास हो जाता है। आप एक कमरे में जाते हैं और आप यह भूल जाते हैं कि आप उस कमरे में क्या लेने गए थे। और लोगों के नाम, अब इसे तो भूल ही जाइए! वे मुश्किल हैं। आप तो लोगों के नाम याद नहीं रखने वाले हैं। तो आप यह सोच सकते हैं "ओह, यह अत्यंत भयानक है" और "मैं कितना बुरा हूँ कि मैं सब कुछ भूल रहा हूँ और ऐसा बन गया हूँ", और आप स्वयं पर क्रोधित हो जाते हैं, और यह एक बहुत ही नकारात्मक मनःस्थिति है। यह अवसाद की ओर ले जाती है। तो आप क्या करते हैं? यहाँ जो मनोदृष्टि उपयोगी सिद्ध हो सकती है वह है “ऐसी कोई विशेष बात नहीं है। मैं वृद्ध होने की प्रक्रिया से और क्या अपेक्षा कर रहा हूँ?" और उसके प्रति मैत्रीपूर्ण मनोदृष्टि के साथ, आप उससे निपटते हैं और उसकी प्रतिपूर्ति करते हैं और याद रखने के लिए छोटी-छोटी युक्तियों को अपनाते हैं, इत्यादि।

मेरा निजी मार्गनिर्देशी अनुदेश यह है कि लोगों के नामों को याद रखने के लिए - मैं हर समय इसका उपयोग करता हूँ - मैं वर्णमाला दोहराता हूँ और अपने मन में उस वर्णमाला के अक्षर बोलता हूँ, और प्रायः जिस अक्षर से उस व्यक्ति का नाम प्रारम्भ होता है वह सुपरिचित लगने लगता है, और फिर मुझे वह नाम याद आ जाता है (सदैव नहीं किन्तु अधिकांशतः)। मैंने सोचा कि मैं इसे आपके साथ साँझा करूँ।

बात यह है कि आप उससे एक मैत्रीपूर्ण मनोदृष्टि के साथ निपटें। आप किसी प्रकार के विलोम का प्रयोग करें। कमरे की सफ़ाई में भी यही लागू होता है। "मैं अपने चित्त से इस नीरसता को दूर कर रहा हूँ और अपने चित्त को तीक्ष्ण बनाने का प्रयास कर रहा हूँ, इत्यादि। और ठीक है, मैं इसे स्वीकार करता हूँ। प्रतिदिन ऐसा होता रहेगा।" और आप इससे निपटते हैं; इसे त्याग देते हैं। यह इसे इतना भयानक और गंदा होने के भाव से एक अधिक हितकारी मनोदशा में रूपांतरित कर देता है। तो आप सिर्फ़ एक सफ़ाईवाली  न बनें। 

ग्रंथों में पाँच लाभ बताए गए हैं:

  1. आपका अपना चित्त निर्मल और सुव्यवस्थित और साफ़-सुथरा हो जाता है। मैं यही समझा रहा था।
  2. और इसी प्रकार दूसरों के चित्त भी, जो आपके कमरे में, आपके स्थान में प्रवेश करते हैं। तो यह आपसे मिलने वालों के प्रति आपकी शिष्टता का प्रदर्शन है। आप उन्हें अराजकता और धूल में आमंत्रित नहीं करते।
  3. देवी-देवता और संरक्षक-गण प्रसन्न भाव से सहर्ष प्रवेश करेंगे। दूसरे शब्दों में, यदि आप किसी विशेष अतिथि को आमंत्रित करते हैं - आपका शिक्षक या कोई बहुत ही विशिष्ट व्यक्ति (जैसे आपकी माँ) - तो आप अपने घर को साफ़ करना चाहेंगे। उन्हें आने में अधिक प्रसन्नता होगी। यह उनके प्रति सम्मानजनक होगा। ठीक? यदि आपकी माँ आपके घर आती हैं, जो घृणित रूप से मैला-कुचैला और अव्यवस्थित है, तो उन्हें प्रसन्नता नहीं होगी, इसी प्रकार यदि आप बुद्ध को अपने मानस-दर्शन में आमंत्रित करते हैं तो वे भी प्रसन्न नहीं होंगे।

धर्म-लाइट के स्तर पर अंतिम दो लाभ कुछ कठिन हैं:

  1. एक सुंदर काया के साथ पुनर्जन्म लेने के लिए आपको सकारात्मक बल बढ़ाना होगा। 
  2. और पवित्र भूमि बुद्ध-क्षेत्र में पुनर्जन्म लेने के लिए आपको सकारात्मक बल बढ़ाना होगा।

दूसरे शब्दों में, यदि आप अपने परिवेश को अत्यंत सुखद बनाते हैं, तो दूसरे लोगों की दृष्टि में भी आप सुखदायी दिखेंगे।  

एक अंतिम बात, ऐसा नहीं है कि परम पावन दलाई लामा ऐसे किसी भी अभ्यास से पहले इस प्रकार की स्वच्छता की आवश्यकता मात्र पर ही बल देते हों, अपितु वे बताते हैं कि वे कभी भी किसी भी पुस्तक को पढ़ने से पहले वे अपने मुख एवं हाथों को धोते हैं। और किसी भी ध्यान-साधना का अभ्यास करने से पहले, उस कार्य के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए, वे अपने मुख और हाथ धोते हैं। यह एक बहुत ही उपयोगी दिशानिर्देश है - सम्मान, व्यवस्था, निर्मलता।

बुद्ध की काया, वाक्, एवं चित्त के प्रतिरूप स्थापित करना

इस पहले प्रारंभिक अभ्यास का दूसरा भाग बुद्ध की काया, वाक्, एवं चित्त के प्रतिरूप स्थापित करना है। इसका अनुवाद प्रायः "वेदी की स्थापना" के रूप में किया जाता है। मुझे यह शब्द वेदी  सदा कुछ विचित्र-सा लगा है। यह या तो ईसाई धर्म से आता है या उन धर्मों से जहाँ वेदी पर किसी पशु या मनुष्य की बलि दी जाती है। इसलिए इसे इस रूप में कल्पित करना कुछ विचित्र-सा लगता है। अपितु जिस शब्द का उपयोग किया जाता है वह चढ़ावे के उद्देश्य से बना हुआ एक पीठिका है, तो हमें चाहिए एक अच्छा, स्वच्छ, सम्मानजनक स्थान। आप लगभग सभी तिब्बती या विभिन्न मंगोलियाई घरों में प्रायः किसी न किसी प्रकार का – वेदी  के अलावा कोई अन्य शब्द ही नहीं है – एक प्रकार का विशेष स्थान पाएँगे।

यह प्रश्न किया जा सकता है कि इसका लाभ या उद्देश्य क्या है। यह उन वस्तुओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है जिनका हम सम्मान कर रहे हैं, जो दिशा-निर्देश दे रहा है - शरणागति, सुरक्षित दिशा - जिसमें हम जाना चाहते हैं, और इसलिए यह एक बहुत अच्छा अनुस्मारक है। और इसलिए भी कि यह सम्मान का आलम्बन भी है, तो - जब तक कि हम अपने व्यवहार में अति अशिष्ट न हों - यह स्वाभाविक रूप से हमें इसकी उपस्थिति में कुछ अधिक सभ्य रूप से व्यवहार करवाता है। आप सिगरेट नहीं पिएँगे और न ही नशा या अन्य प्रकार की अशिष्ट गतिविधियाँ नहीं करेंगे।

अब, यदि आप केवल एक कमरे में या मंगोलियाई गेर  तंबू में रह रहे हैं, तो ध्यान-साधना के लिए एक पृथक कक्ष का होना निश्चित रूप से कठिन है। इसलिए अपने कक्ष का कम-से-कम एक भाग सम्मानजनक स्थल होना चाहिए। परन्तु जिस बात पर सदैव बल दिया जाता है, वह यह है कि हम अपनी वेदी को प्रतिस्पर्धा का विषय न बनाएँ - कि आप दूसरों की तुलना में एक श्रेष्ठतर, अधिक समृद्ध, अधिक आडम्बरपूर्ण वेदी बनाने का प्रयास करें। वास्तव में, परम पावन दलाई लामा विशेष रूप से उन मठों और मंदिरों की सर्वथा आलोचना करते हैं जो एक-दूसरे से आगे निकलने के प्रयास में सबसे बड़ी और सबसे आडम्बरपूर्ण वेदी बनाने और प्रतिमाओं को सबसे अधिक स्वर्ण और आभूषणों से सजाने इत्यादि की होड़ में लगे रहते हैं। निश्चित रूप से ग्रंथों का यह कहना है कि ऐसा करने से आप अतिशय मात्रा में सकारात्मक शक्तियों की वृद्धि कर सकते हैं। फिर भी, अति निर्धन भारतीयों के बीच शरणार्थी बनकर रहते हुए इस प्रकार करना वास्तव में अत्यंत भद्दा और निंदनीय होगा। तो यह संस्तुत किया जाता है कि अलंकृत और आडम्बरपूर्ण बनाने के बजाय वेदियों को सादा और सरल बनाएँ।

सरकाँग रिन्पोचे स्वयं इन सभी आलंकारिक अनुष्ठानों के विरुद्ध थे। जब हम पश्चिम की यात्रा करते थे और वे अभिषेक प्रदान कर रहे होते थे, तो अत्यंत आलंकारिक कलश के स्थान पर वे केवल एक दूध की बोतल या जो भी लोगों के पास तब उपलब्ध होता था, उसी का उपयोग करते थे। आपको वैसे भी इसे मानस-दर्शन में रूपांतरित करना है ही, तो यदि आपके पास किसी प्रकार का आधार है, तो किसी भी बहुमूल्य अथवा आलंकारिक वस्तु लाने की आवश्यकता नहीं है। लोग इसे केवल चुराने के लिए ही इसकी ओर आकृष्ट होंगे।

इसके पारंपरिक रूप में बुद्ध का एक प्रतिरूप बीचों-बीच होता है। यह एक चित्र या प्रतिमा हो सकती है, या जो भी हमारे पास हो - कोई तस्वीर, या छायाचित्र। (और आजकल तो यह अत्यंत सरल है। आप इंटरनेट से कुछ भी छाप सकते हैं। इसलिए अब कोई बहाना नहीं चलेगा कि हमें कुछ नहीं मिल सका।) वह मध्य में होगा, और फिर बुद्ध के दाहिनी ओर (बुद्ध के दृष्टिकोण से) एक ग्रन्थ होगा, और बुद्ध की बाईं ओर एक स्तूप या वज्र तथा घंटी होगी। बुद्ध स्वयं काया का प्रतिनिधित्व करते हैं; धर्म का ग्रन्थ, बुद्ध के वाक्य का; तथा स्तूप और वज्र और घंटी, चित्त का। और याद रखें कि आप केवल कोई आलंकारिक वस्तु स्थापित नहीं कर रहे हैं। यह याद रखने का प्रयास करें कि यह किसका प्रतिरूपण करता है।

तिब्बती हमेशा शिक्षकों के चित्र लगाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए कि बुद्ध बीच में हों और गुरु उनके एक ओर हों। आध्यात्मिक गुरु सभी शिक्षाओं के स्रोत हैं, और इसलिए उनकी छवि बीचोंबीच या उच्चतर होनी चाहिए। इसका उद्देश्य यह है कि हमारे पास कुछ ऐसा हो जो कक्ष में प्रवेश करते ही, उसे देखते ही, हमें याद दिलाए कि हम जीवन में किस दिशा में जा रहे हैं और यह भी कि हम स्वयं में बुद्ध की काया, वाक्, एवं चित्त के गुणों को विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं।

यदि आपके पास केवल एक ही कक्ष है जिसमें आप सोते हैं, तो ऐसा न हो कि आप इसे अपने शयनकक्ष में अपने पैताने रखें - अर्थात आपके पैर उनके सम्मुख हों। यह असम्मानजनक माना जाता है। बात सम्मान दिखाने की है। यह महत्त्वपूर्ण है कि आप किसी भी प्रकार से इसके प्रति सम्मान व्यक्त करें।

धर्म-ग्रंथों - या सामान्य रूप से सभी पुस्तकों - के बारे में यह याद रखने की बात है कि वे कोई मेज़ नहीं हैं। आप वस्तुओं को उनपर नहीं रखते, यहाँ तक कि अपनी मालाएँ, या अपनी जप-माला भी नहीं, और न ही आप उन्हें फ़र्श पर रखते हैं। यदि आपको उन्हें फ़र्श पर रखना ही है, तो उनके नीचे कोई वस्त्र या वैसा कुछ बिछाएँ, मूल कारण यह है कि वे मैली न हों।

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