श्वास पर ध्यान केंद्रित करके शांत हो जाना
अंतर्दृष्टि के प्रति अधिक ग्रहणशील होने के लिए किसी भी ध्यान अभ्यास को शुरू करने या किसी शिक्षण में भाग लेने से पूर्व हमें सबसे पहले शांत हो जाना चाहिए। हम इसे श्वास पर ध्यान केंद्रित करके करते हैं। हम नाक से सामान्य रूप से श्वास लेते हैं, न बहुत तीव्र गति से, न बहुत धीरे-धीरे, न बहुत गहरी, न बहुत हलके से, और हम श्वास के चक्रों को गिनते हैं। गिनती की कई विधियाँ हैं। मानक विधि यह है कि चक्र की शुरुआत श्वास बाहर की ओर छोड़ने के साथ की जाए, फिर बिना रुके अंदर की ओर, और श्वास अंदर लेने के बाद गिनती की जाए, परन्तु श्वास को रोके बिना। अब अधिकांश लोगों को श्वास खींचना, स्वाभाविक रूप से श्वास छोड़ना, फिर श्वास छोड़ने के बाद कुछ देर रुकना और इसके पश्चात चक्र की गिनती शुरू करना सरल लगता है। इन दोनों विधियों में से किसी एक का पालन करते हुए हम ग्यारह तक गिनते हैं और फिर अपनी गति के आधार पर ग्यारह के चक्र को दो या तीन बार दोहराते हैं। कृपया इसे करें।
वैसे तो हम श्वासों की गिनती तभी करते हैं जब हमारा मन विचलित होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो गिनने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम केवल श्वास के अंदर और बाहर जाने की अनुभूति पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। हम या तो नीचे फ़र्श की ओर देख सकते हैं या अपनी आँखें बंद कर सकते हैं, परन्तु बेहतर होगा कि आँखें खुली रखें। यदि आँखें कुछ-कुछ खुली रहेंगी तो हम अन्य लोगों से विच्छिन्न होकर परीलोक में भ्रमण करने के बजाय सचेत रह सकते हैं। महायान लोगों से जुड़े रहने पर बल देता है। यही कारण है कि महायान पद्धतियाँ आँखें बंद करके नहीं अपितु खोलकर ध्यान करने पर बल देती हैं।
अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि करना
इसके बाद, हम अपनी प्रेरणा की जाँच और पुनःपुष्टि करते हैं। बौद्ध धर्म में, "प्रेरणा" का अर्थ मात्र वह नहीं है जो हमारी पश्चिमी भाषाओं में है। हमारी पश्चिमी भाषाओं में, यह प्रायः हमारे कृत्यों के पीछे सक्रिय भावनात्मक कारणों का ही अर्थ ध्वनित करता है। तो अधिकतर मनोवैज्ञानिक या भावनात्मक कारणों पर ही बल दिया जाता है। हमारा मनोवैज्ञानिक अभिमुख भाव महत्त्वपूर्ण है, परन्तु बौद्ध धर्म में प्रेरणा मूल रूप से हमारे उद्देश्य को ध्वनित करती है। हमारा प्रयोजन क्या है? हम अपनी ध्यान-साधना करके या शिक्षण में उपस्थित होकर क्या प्राप्त करना चाहते हैं? जब हम ध्यान-साधना करने या अध्ययन करने बैठते हैं, या कक्षा में जाते हैं, तो हमें यह पुनःपुष्टि करने की आवश्यकता है कि हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त, हम अपने उद्देश्यों के समर्थन में इसे सिद्ध करने की इच्छा के तर्कसंगत और भावनात्मक दोनों ही कारणों की पुनःपुष्टि करते हैं।
शिक्षण को सुनकर या ध्यान-साधना करके जो हम सीखते हैं वह उस पूरी प्रक्रिया का एक हिस्सा है जिसे मैं "अपने जीवन में एक सुरक्षित और सकारात्मक दिशा में जाना" कहता हूँ। इसे प्रायः "शरणागति" कहा जाता है। यहाँ हममें से अधिकांश लोगों के जीवन की यही दिशा है, जिसे हमने सोच-समझकर चुना है। इस दिशा को धर्म इंगित करता है। धर्म किसी भी बुद्धजन की पूर्ण सिद्धावस्था को निर्दिष्ट करता है, जिसमें मन के सभी दोषों और बाधाओं को दूर कर दिया गया हो और सभी सकारात्मक गुणों और क्षमताओं को पूर्ण रूप से सिद्ध कर लिया गया हो। यही अवस्था है जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं। शिक्षाएँ तो केवल संकेत भर देती हैं कि इसे किस प्रकार प्राप्त करना है।
बुद्धजन इस दिशा की ओर इंगित करते हैं, क्योंकि उन्होंने इस निर्मल और सिद्ध अवस्था को सम्पूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया है। संघ का तात्पर्य उच्च सिद्धि प्राप्त सत्व, अर्थात आर्यों, से है जिनके पास शून्यता का साक्षात निर्वैचारिक बोध है। उन्होंने वास्तव में कुछ हद तक शुद्धता प्राप्त कर ली है। उन्होंने कुछ बाधाओं से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया है और कुछ मानसिक सकारात्मक संभावनाओं को प्राप्त का लिया है। वे वास्तव में एक विशिष्ट स्तर पर पहुँच गए हैं।
मठवासी समुदाय संघ का प्रतीक है। धर्म केंद्र में जाने वाले लोगों का उल्लेख करने के लिए संघ शब्द का उपयोग पूर्ण रूप से एक पश्चिमी परंपरा है। यह इस बौद्ध शब्दावली का "चर्च की सभा" के रूप में केवल अनुवाद है। इसका पारंपरिक बौद्ध धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। यद्यपि धर्म केंद्र का समुदाय महत्त्वपूर्ण है, तथापि शरणागति का अभिप्राय यह बिल्कुल नहीं है। धर्म केंद्र में आनेवाले लोग अत्यंत व्याकुल हो सकते हैं। धर्म केंद्र लोगों का केवल एक समूह है और यह आवश्यक नहीं कि वे सब मोक्ष और बुद्धत्व की ओर ही जा रहे हों। संघ रत्न वे हैं जो वास्तव में उस दिशा में कुछ दूर आगे बढ़ चुके हैं। इस बात को समझना अत्यंत आवश्यक है।
यह एक अत्यंत रोचक बात है कि विशेष रूप से यह कहा जाता है कि जब हम शरण लेते हैं तो यह बुद्ध या आर्यों के व्यक्तित्व के प्रति नहीं होती है। व्यक्तित्व तो सतत परिवर्तनशील है। जबकि उनकी सिद्धियाँ और उनकी दोष-रहित अवस्थाएँ, जो उन्होंने प्राप्त की हैं, वे ही शरणागति प्रदान करने वाले तत्व हैं।
साथ ही, शरण के तिब्बती सूत्र में, जिसमें हम गुरु को सम्मिलित करते हैं, वहाँ हम कभी भी गुरु के व्यक्तित्व की शरण नहीं लेते। अपितु गुरु बुद्ध-धातु तथा उसपर सुधार करने, उसे निर्मल बनाने, और उसको सम्पूर्ण रूप से साकार करने की संभावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। यही है जिसका प्रतिनिधित्व बुद्ध करते हैं। यह इतना महत्त्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यदि यह स्पष्ट हो जाए कि हमारे जीवन की दिशा का व्यक्तित्व, धर्म की राजनीति, इस संसारी कचरे से कोई लेना-देना नहीं है, तो हमारी शरणागति सुदृढ़ हो जाती है। इसका श्रेय बुद्ध, धर्म, और उच्च सिद्धि प्राप्त सत्त्वों को ही जाता है। जैसा कि मैं बार-बार कहता हूँ: संसार से आप क्या अपेक्षा करते हैं? संसार हमें कचरा और दुःख ही देगा। हमारे जीवन की दिशा संसार तय नहीं कर सकता। यह बिल्कुल स्पष्ट होना अत्यंत आवश्यक है।
तो, ध्यान-साधना करना या किसी शिक्षण-सत्र में आना हमारी सकारात्मक दिशा की ओर एक कदम है; हम अपनी शरणागति की पुनःपुष्टि करते हैं। हम अपने चित्त से सारे कचरे को हटाकर उसे पूरी तरह शुद्ध करना चाहते हैं और अपनी सभी शक्तियों को बुद्धजन की तरह पूर्ण रूप से सिद्ध करना चाहते हैं, जिस प्रकार आर्यों ने करना प्रारम्भ किया है। इसके लिए भावनात्मक सम्बल है हमारा अनियंत्रित ढंग से आवर्ती संसार के प्रति भय एवं घृणा, तथा यह विश्वास कि शरणागति की इस सुरक्षित दिशा में जाने से हम इससे बाहर निकल सकेंगे।
हम अपने बोधिचित्त की भी पुनःपुष्टि करते हैं। उदाहरण के लिए, कर्म के बारे में उपदेश सुनने और उसे सीखने का हमारा उद्देश्य है कि हम दूसरों की यथासंभव सहायता कर सकें। वह क्या है जो हमें दूसरों की यथासंभव सहायता करने से रोक रहा है? वह है ये सारे कार्मिक कचरे जिनका हम अनुभव करते हैं। इसलिए, हम यह सीखना चाहते हैं कि इसे किस प्रकार समझा जाए और इससे किस तरह उबरा जाए ताकि हम दूसरों की अधिक सहायता कर पाएँ। यही हमारा उद्देश्य है। इसी की हम पुन:पुष्टि करते हैं। गौण रूप से हमें अपने प्रेम और करुणा की भी पुनःपुष्टि करनी होगी जो दूसरों को सर्वोत्तम लाभ पहुँचाने हेतु हमारे ज्ञानोदय प्राप्ति के उद्देश्य का भावनात्मक सम्बल हैं।
यदि हम यह सब ध्यान-साधना से पहले करते हैं तो यह हमारे ध्यान को और अधिक सार्थक बनाता है। हम यह जानते हैं कि हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए हमने इसे करने का संकल्प किया है। हम अन्य कारकों के बारे में बात नहीं कर रहे जैसे कि बाध्यता का अनुभव करना या इसे यंत्रवत् करना, ये बातें तो अहम हैं ही। हमारा उद्देश्य महत्त्वपूर्ण है। प्रश्न यह है कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ और क्यों कर रहा हूँ? हमें अपने कारणों को सचेत करना होगा। यदि हम उनके बारे में दृढ़ निश्चयी हैं, तो हम उनकी पुनःपुष्टि करते हैं। यह बहुत ही सार्थक कदम है। यह तुच्छ नहीं है। यह केवल एक श्लोक पढ़ने जैसा नहीं है। आइए क्षणभर के लिए ऐसा करते हैं।
फिर हम सप्तांग प्रार्थना के अभ्यास का वाचन करते हैं।
साष्टांग प्रणाम
सर्वप्रथम हम साष्टांग प्रणाम करते हैं। जिस दिशा में हम जाना चाहते हैं, उसकी पुनःपुष्टि करने के बाद - नामतः, ज्ञानोदय तक पहुँचना ताकि हम दूसरों की अत्युत्तम सहायता कर सकें, न कि केवल आमोद-प्रमोद के लिए - साष्टांग प्रणाम अपनेआप को पूरी तरह से इस दिशा में समर्पित करने का नाम है। हम इस दिशा में स्वेच्छापूर्वक जा रहे हैं उन लोगों के प्रति सम्मान दिखाते हुए जो इस दिशा में पहले ही जा चुके हैं और जिन्होंने इसे प्राप्त कर लिया है, उस ज्ञानोदय के प्रति सम्मान दिखाते हुए जिसे हमने भविष्य में बोधचित्त के सहारे प्राप्त करने का लक्ष्य बनाया है, तथा अपनी बुद्ध-धातु के प्रति सम्मान दिखाते हुए जो हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सक्षम बनाएगा। इस प्रकार, हम परिणामी, मार्गीय, और मूलभूत, तीनों स्तरों के प्रति सम्मान दिखाते हैं।
हम उस प्रतिरूप को देखते हैं जिसका उपयोग हम अपनेआप को शरणागति के स्रोत की याद दिलाने के लिए कर रहे हैं - एक चित्रकारी या मूर्ति, जो प्रायः एक बुद्धजन की होती है - और हम इस बात के प्रति जागरूक रहने का प्रयास करते हैं कि वह किस चीज़ का प्रतिनिधित्व करती है: किसी बुद्धजन की काया, वचन, एवं चित्त के गुण। हम इसको इसलिए प्राप्त करना चाहते हैं कि हम जितना संभव हो सके दूसरों की सहायता करने में सक्षम हो जाएँ। इसी मनोदृष्टि से युक्त होकर हम साष्टाँग प्रणाम करते हैं। तभी यह अत्यंत अर्थपूर्ण होता है। हम अपनेआप को इसमें पूरी तरह से डुबो देते हैं। हम विचारशून्य अवस्था में साष्टांग प्रणाम नहीं करते।
जब हम सप्तांग प्रार्थना करते हैं, तो हम साष्टाँग प्रणाम करने की कल्पना करते हैं। अन्य अवसरों पर हम छंद-वाचन करते हुए शारीरिक रूप से साष्टांग प्रणाम करते हैं - यहाँ भाषा कोई मायने नहीं रखती - और त्रिरत्नों के गुणों को एक प्राप्तव्य के रूप में मानते हैं और अपनी बुद्ध-धातु के आधार पर बोधिचित्त के साथ उसे प्राप्त कर सकेंगे इसका विश्वास भी रखते हैं। इस प्रकार हम अपने वचन, काया, एवं चित्त को इस दिशा में अर्पित कर देते हैं। आइए इसकी कल्पना करें।
समाधि के चढ़ावे से अर्पण करना
जब हम भेंट चढ़ाते हैं, तो उसका मुख्य प्रसंग शरणागति और बोधिचित्त ही होता है। शरणागति की ओर जाने के लिए, ज्ञानोदय को प्राप्त करने के लिए, और दूसरों को लाभ पहुँचाने में सक्षम होने के लिए हम क्या समर्पित करने के लिए तैयार हैं? पानी का एक कटोरा तो बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है। पानी केवल किसी वस्तु का प्रतिनिधित्व करता है। वास्तव में हम स्वयं अपनेआप को ही अर्पित करने के लिए तैयार हैं। इस दिशा में अग्रसर होने की ओर साधना करने के लिए हम अपना समय, अपनी ऊर्जा, अपना सारा प्रयास, अपना हृदय, सब समर्पित करने के लिए तैयार हैं ताकि हम दूसरों की अधिक से अधिक सहायता कर सकें।
इसे विस्तृत रूप से या सूक्ष्म रूप से किया जा सकता है। प्रायः हम पानी के सात कटोरे अर्पित करते हैं। ये सप्तांग अभ्यास के सात अंगों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। दूसरे स्तर पर, एक क्रिया है जिसे बाह्यार्पण कहा जाता है, जिसमें जल, फूल, धूप इत्यादि की भेंट चढ़ाई जाती है। परन्तु महान शाक्य गुरु, चोग्याल पगपा, की एक अत्यंत उत्तम शिक्षा है। वे कुबलई ख़ान के गुरु थे। उन्होनें तेरहवीं शताब्दी के मध्य में बौद्ध धर्म को मंगोलों के बीच प्रस्तुत किया। उन्होंने सिखाया कि इन सात अर्पण-वस्तुओं का एक गहनतर प्रतिनिधित्व है, जिसे उन्होंने "समाधि के अर्पण, तल्लीन एकाग्रता" का नाम दिया। दूसरे शब्दों में, हम इनकी भेंट चढ़ाते हुए इस बात का ध्यान रखते हैं कि ये किन वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। मुझे इससे सप्तांग अभ्यास करने में बहुत सहायता मिलती है। यह इसे और अधिक सार्थक बनाता है।
पहली भेंट है जल। पानी हमारे पढ़ने, हमारे अध्ययन का प्रतिनिधित्व करता है। हम जो कुछ भी पढ़ते हैं या अध्ययन करते हैं उसका उपयोग हम दूसरों की सहायता करने में सक्षम होने के लिए करेंगे। हम कोई हास्य पुस्तक नहीं पढ़ रहे कि चलो कुछ अच्छा समय बीत जाए, बल्कि ऐसी बातें हैं जो अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जो हमें दूसरों की सहायता करना, अपने को समझना, अपना आत्म-सुधार करना सिखाती हैं। हम इसी की भेंट चढ़ा रहे हैं। और ऐसा नहीं कि हम इसे केवल बुद्धजन को ही चढ़ा रहे हों; हम इसे हर किसी को अर्पित कर रहे हैं, हम उन्हें अर्पित कर रहे हैं जिनकी हम सहायता करना चाहते हैं। हमने जो कुछ भी सीखा है, हम सभी को अर्पित करते हैं। हम सब की सहायता करने के लिए इसी का उपयोग करेंगे।
अगला है फूल। फूल पानी से विकसित होते हैं। हमारी पढ़ाई एवं अध्ययन से जो विकसित होता है वह है हमारा ज्ञान। हम इसे फूलों के रूप में चढ़ाते हैं।
धूप नैतिक अनुशासन का प्रतिनिधित्व करती है, वह नैतिक अनुशासन जिसका उपयोग हम दूसरों की मदद करने के लिए करेंगे। हम इसे केवल नाम के वास्ते नहीं कर रहे। हम लाभकारी, सहायक तरीके से कार्य करने के लिए अपनेआप को अनुशासित कर रहे हैं, न कि किसी को चोट पहुँचाने के लिए। हम बुद्धजन, अपने शिक्षकों, और सभी को यह वचन देते हैं। बुद्धजन को हमारे अनुशासन की आवश्यकता नहीं है। हम बुद्धजन और अपने गुरुओं से यह कह रहे हैं कि, "यही है जो मैं करनेवाला हूँ।" हम अपना अनुशासन और सेवा उन्हीं को अर्पित करते हैं। वैसे, धूप की बहुत मधुर सुगंध होती है। जब कोई शुद्ध नैतिक अनुशासन से युक्त होता है, तो उनमें से एक अद्भुत प्यारी सुगंध आती है, जिसे "नैतिक अनुशासन की सुगंध" के रूप में जाना जाता है। यही कारण है कि धूप शुद्ध नैतिक अनुशासन के अर्पण का प्रतिनिधित्व करती है।
अगली भेंट है प्रकाश, जिसके प्रतीक घी के दीये, मोमबत्तियाँ, इत्यादि हैं। यह उस अंतर्दृष्टि का प्रतिनिधित्व करता है जो हमने प्राप्त की है, जिसका उपयोग हम दूसरों को रौशन करने के लिए करना चाहते हैं।
अगला है इत्र या कोलोन, सुगंधित जल जिसे शरीर को तरोताज़ा करने के लिए उसपर छिड़का जाता है। यह दृढ़ विश्वास को दर्शाता है। हमने पढ़ा और अध्ययन किया (जल), ज्ञान (फूल) प्राप्त किया, हम उसपर ध्यान-साधना करने और दूसरों की सहायता करने के लिए अनुशासन (धूप) का उपयोग कर रहे हैं, और इस अनुशासन से हमने अंतर्दृष्टि और समझ (प्रकाश) प्राप्त की है। अब हमें उन शिक्षाओं पर दृढ़ विश्वास (कोलोन) हो गया है। यह हमें संशय और चंचल भटकाव से दूर रखकर हमें ताज़गी देता है। यह एक महान उपहार है। अगर हमारा दृढ़ विश्वास केवल कट्टरता से नहीं, बल्कि वास्तविक समझ और अनुभव पर आधारित है, तो यह दूसरों को कुछ आत्मविश्वास, सुरक्षा, और दृढ़ता भी प्राप्त करने में सहायक बन जाता है।
भोजन तल्लीन एकाग्रता का प्रतिनिधित्व करता है। जब हम ध्यान-साधना की अति उच्च अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं, तो हमारी तल्लीन एकाग्रता हमारा भरण-पोषण करती है और हमें भोजन की आवश्यकता नहीं रहती। जब हम शिक्षाओं में दृढ़ विश्वास रखते हैं, केवल तभी हम अपनी तल्लीन एकाग्रता को उनपर संकेंद्रित कर सकते हैं। यदि हम संशयग्रस्त हैं तो तल्लीन एकाग्रता नितांत असंभव हैं। जब हम दूसरों की मदद कर रहे होते हैं, तो हमें एकाग्रचित्त होने की आवश्यकता होती है, न कि किसी और चीज़ के बारे में सोचने या सो जाने की। हमें मन से वहाँ उपस्थित होना चाहिए। यह दूसरों को भेंट देने के लिए बहुत उत्तम उपहार है।
अंतिम भेंट संगीत है, जो दूसरों को सिखाने और समझाने का प्रतीक है। यह अनिवार्य नहीं है कि शिक्षण औपचारिक या गहरा और गंभीर हो। यह केवल सार्थक, हार्दिक बातचीत भी हो सकती है जिसमें अतिशयोक्ति या संकोच का कोई स्थान न हो। वही सबसे बड़ा संगीत है जो हम दूसरों को दे सकते हैं।
यह भेंट बहुत दूरगामी हो सकती है। यह कोई हल्की-फुल्की भेंट नहीं है। यह सच है कि हम एक अच्छा वातावरण बनाने के लिए फूल, जल, और धूप भी दे सकते हैं। अर्थ का वह स्तर भी होता है, परन्तु हमें यह समझना होगा कि धर्म के प्रत्येक आयाम के अनेक अर्थ स्तर होते हैं। गहन स्तरों तक जाने के लिए कहीं न कहीं से शुरुआत करना सहायक होता है।
जैसा कि मैंने समझाया, सामान्य रूप से हम यह कहते हैं कि हम अपना सबकुछ देने को तैयार हैं, अपना समय, अपनी ऊर्जा, या दूसरों की सहायता करने के लिए जो कुछ भी ज़रूरी है वह सबकुछ। महान भारतीय गुरु, शांतिदेव, उदारता की अभिवृत्ति को "देने की इच्छा" के रूप में परिभाषित करते हैं, चाहे हमारे पास देने के लिए कुछ हो या न हो। अन्यथा, गरीब लोग इसे विकसित नहीं कर पाते। दूसरों की अधिक सहायता करने में सक्षम होने के लिए हम अपनी ऊर्जा, समय और चित्त को निश्चित रूप से अर्पित कर सकते हैं ताकि हम अपने आत्म-सुधार हेतु शरणागति की ओर जा सकें।
भूलों और कमियों की मुक्त स्वीकृति
अभ्यास के तीसरे अंग का प्रायः "स्वीकारोक्ति" के रूप में अनुवाद किया जाता है। लेकिन यह ग़ैर-बौद्ध दर्शन प्रणालियों की विचारधारा से अनावश्यक और शायद भ्रामक समानता पैदा करता है। जबकि हम खुलकर यह स्वीकार कर रहे हैं कि ऐसा नहीं है कि हम हमेशा दूसरों की सहायता करने में सक्षम होते हैं; जब-तब हम आलसी, विचलित, स्वार्थी इत्यादि भी हो जाते हैं। कर्म के संदर्भ में हम यह मानते हैं कि हम कभी-कभी अत्यंत विनाशकारी कार्य कर लेते हैं, लेकिन हमें इसका पछतावा होता है और हम वास्तव में चाहते हैं कि काश हम ऐसे न होते। ऐसा नहीं है कि हमें स्वयं को दोषी महसूस करना ही है। वास्तव में हम ऐसे नहीं होना चाहते। यह अपराध बोध से बिल्कुल अलग है।
फिर हम कहते हैं कि हम इसे फिर कभी न करने का पूरा प्रयास करेंगे। हम कोशिश करेंगे। हम यह वादा नहीं कर सकते हैं कि हम फिर कभी भी विध्वंसक नहीं होंगे। यह बेतुकी बात होगी। लेकिन हम कोशिश करेंगे। हम इसपर कैसे नियंत्रण प्राप्त करेंगे? यह शरणागति और बोधिचित्त की दिशा में जाने से ही होगा। हम यह पुनःपुष्टि करते हैं कि हम यही करने वाले हैं। वही हमारी आधारशिला है। फिर अंत में हम अपनी भूलों और कमियों को प्रभावहीन करने के लिए प्रतिकूल शक्तियों का प्रयोग करते हैं, अर्थात हम यहाँ जो कुछ भी सीखते हैं उसका हम प्रतिकारक के रूप में प्रयोग करेंगे। हम इसका इस दिशा में जाने के लिए उपयोग करेंगे, अकारण नहीं। वह है तीसरा अंग, अपनी भूलों और कमियों को खुलकर स्वीकार करना।
हुलसित होना
चौथा है हुलसित होना। मुझे ऐसा लगता है कि, पश्चिमवासी होने के नाते, हमारे लिए इस क्रम को बदलना महत्त्वपूर्ण है। यहाँ प्रायः ऐसा होता है कि हम पहले बुद्धजन में आनंदित होते हैं, और फिर वहाँ से आगे बढ़ते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि हमें, चूँकि हम में से बहुत लोगों को हीनभावना की समस्या है, अपनी कमियों की ओर ध्यान दिलाने के बाद सबसे पहले अपने अच्छे गुणों पर हर्षित होने की आवश्यकता है। हम इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि हम कभी-कभी विनाशकारी और स्वार्थी ढंग से काम करते हैं, परन्तु कभी-कभी हम रचनात्मक रूप से भी काम करते हैं। हमें अपने सभी सकारात्मक और रचनात्मक कार्यों की पुनःपुष्टि करने और उनपर हुलसित होने की आवश्यकता है। अधिक बुनियादी स्तर पर, हम सब में बुद्ध-धातु है, जिसका तात्पर्य है कि हम सब में सहायक, करुणामय, और सहानुभूतिशील होने की क्षमता है। यह अद्भुत है। यह निराला है। यही वह आधार है जिसपर हम अपने सभी सकारात्मक और रचनात्मक कृत्यों के द्वारा आगे बढ़ सकते हैं और बुद्धजन बन सकते हैं। अपनी कमियों को स्वीकार करने के बाद यह आवश्यक है कि हम अपने बारे में और अपनी क्षमताओं के बारे में सकारात्मकता का अनुभव करें।
फिर हम उन बुद्धजन पर हर्षित होते हैं जिन्होंने अपनी बुद्ध-धातु को पहचान लिया है, और इसके अतिरिक्त उनपर भी जो अपने आत्म-सुधार की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। "मैं आपके लिए खुश हूँ! आप सफल हुए! धन्य हो!" परन्तु इससे भी अधिक हम इस बात से प्रसन्न होते हैं कि उन्होंने हमें यह सिखाया कि इसे किस प्रकार करना है। इससे हम गहन रूप से हर्षित होते हैं। “इसे सिखाने के लिए, समझने के लिए, और लिखित रूप में प्रस्तुत करने के लिए, ऐ बुद्धजन और भारत एवं तिब्बत के महान गुरुजन, मैं आप लोगों के प्रति अपना आभार पर्याप्त रूप से व्यक्त नहीं कर सकता। यह अकल्पनीय रूप से अद्भुत एवं दयालुतापूर्ण है! धन्यवाद! मैं इसकी हार्दिक सराहना करता हूँ।" यही भावना हमारे भीतर होनी चाहिए। वे लोग बहुत आसानी से ज्ञानोदय प्राप्त करके विश्राम करने के लिए बुद्ध-प्रदेश में जा सकते थे, और उन्हें हमारे लिए परेशान होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।
शिक्षाओं का अनुरोध करना
अगला अंग है शिक्षाओं का अनुरोध करना। इसे प्रायः "धर्मचक्र को घुमाना" कहा जाता है, परन्तु यह कुछ अमूर्त लगता है। हम बहुत कृतज्ञ हैं कि बुद्धजन ने हमें यह सिखाया है। तो हम यह कह रहे हैं, "कृपया मुझे सिखाइए! मै सीखना चाहता हूँ। मैं पूरी तरह से ग्रहणशील हूँ।" हम इसे कक्षा से पहले, ध्यान-साधना करने से पहले, या फिर घर पर धर्म ग्रन्थ का अध्ययन करने से पहले कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि हम किसी से भीख माँग रहे हैं, परन्तु यह अनुरोध करते हुए हम वास्तव में अपने आपको प्रेरित कर रहे हैं। हम कुछ पाना चाहते हैं, कुछ सीखना चाहते हैं। क्या आप देख पा रहे हैं कि यह किस प्रकार चित्त की अधिक ग्रहणशील अवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है?
गुरुओं से अनुनय करना कि वे चले न जाएँ
छठा अंग है गुरुओं से परिनिर्वाण में प्रवेश न करने का अनुनय करना, जिसका अर्थ है कि वे प्रस्थान न करें। व्यावहारिक स्तर पर इसका अर्थ क्या है? यह बुद्धजन और शिक्षकों से सविनय अनुरोध है, "मैं गंभीर हूँ। मुझे छोड़कर न जाएँ। मेरी ज्ञानोदय प्राप्ति तक मुझे शिक्षा देते रहें। मैं इस मार्ग के अंत तक जाना चाहता हूँ। मुझे मँझधार में ही न त्याग दें।" यही मुख्य बात है: हम इसे करके ही रहेंगे, चाहे इसके लिए जितना भी समय लग जाए, चाहे जितने भी जीवनकाल बीत जाएँ।
समर्पण
अंतिम चरण है समर्पण। यह सभी चरणों में से सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अभ्यास से जो भी सकारात्मक शक्तियाँ और गहन बोध संचित हुए हैं, उन्हें हम सर्वहितार्थ अपने और सबके ज्ञानोदय की प्राप्ति हेतु समर्पित करते हैं।
सारांश
हम यह प्रारंभिक सप्तांग अभ्यास कक्षा से पहले, अध्ययन करने से पहले, ध्यान-साधना से पहले, या कुछ भी सकारात्मक करने से पहले करते हैं। मुख्य बात यह है कि हम केवल अच्छे कर्म नहीं करना चाहते हैं; हम ज्ञानोदय-वर्धक कृत्य करना चाहते हैं। इसलिए, यदि हम इस सप्तांग अभ्यास को एक ज्ञानोदय-वर्धक क्रिया के रूप में करते हैं, तो यह एक अद्भुत दैनिक अभ्यास होगा। इसमें बहुत अधिक समय नहीं लगना चाहिए। हम इसे एक मिनट में, या आधे घंटे में, या एक घंटे में भी कर सकते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसे किस प्रकार करना चाहते हैं। यदि हम कुछ छंदों का पाठ करना चाहते हैं, तो बहुत बढ़िया। हम अपने चित्त में उन छंदों के अर्थ को समझकर उनका पाठ कर सकते हैं। यदि हम पहले उनके अर्थ समझ लेते हैं, तो वे छंद खोखले नहीं होंगे। भले ही हम कोई अन्य औपचारिक ध्यान-साधना न करें, यह अपनेआप में एक महत्त्वपूर्ण अभ्यास है।
कृपया इस सप्तांग प्रार्थना के अभ्यास को सतही न बनाएँ। इसे सतही बनाना बहुत ही सरल है, उतना ही जितना शरणागति को सतही बनाना।
अर्पण सम्बन्धी प्रश्न
कभी-कभी हम आठ कटोरे लगाते हैं और पहले दो में पानी, फिर फूल, इत्यादि इस प्रकार रखते हैं। ऐसा क्यों है?
बौद्ध परंपराओं में प्रत्येक क्रिया को करने की कई विधियाँ होती हैं, तो इसलिए कोई एक "सही" विधि नहीं होती। इस बात को समझना बहुत ज़रूरी है। पश्चिम में हमारी प्रवृत्ति बाइबिल की मानसिकता है: एक सत्य, एक भगवान, एक सही मार्ग, और शेष सब अनुचित है, अधर्म है। पानी के आठ कटोरों में जल की दो भेंट होती हैं; नौ में तीन जल की भेंट; दस में चार जल की भेंट, इत्यादि।
शाब्दिक स्तर पर, हम बुद्धजन और बोधिसत्वों को अपने घर आने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं मानों वे धूल-भरी, गर्म भारतीय सड़कों पर नंगे पाँव चलकर आ रहे हों। तो सबसे पहले हम उन्हें पीने के लिए पानी देते हैं। फिर उनके पैर धोने के लिए थोड़ा पानी। यह तब जब हम पानी के केवल दो कटोरों की भेंट चढ़ा रहे हैं। तीसरा, हम उनपर कुछ जल छिड़कते हैं। इसके बाद, हम उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित करते हैं, इसलिए पानी का चौथा कटोरा मुख प्रक्षालन हेतु आमंत्रित करने के लिए होता है।
मेज़ पर बहुत सुंदर फूल रखे जाते हैं। कोई भी सम्मानित अतिथि जब मेज़ की ओर बढ़ते हैं तो भारत में प्रायः उनके आगे फ़र्श पर फूल बिखेरे जाते हैं। या फिर वे अपने अतिथि को गेंदे की फूलों की माला पहनाते हैं। फिर वे धूप जलाते हैं। गुरु के लिए वे प्रायः धूप जलाकर मेज़ की ओर उनकी अगुवाई करते हैं या मेज़ के पास कुछ धूप रख देते हैं ताकि उसकी सुगंध आती रहे। फिर वे मेज़ पर एक मोमबत्ती जलाकर रख देते हैं। इत्र के लिए एक सुगन्धित रूमाल का उपयोग किया जाता है। हमारे यहाँ भी कुछ ऐसा ही रिवाज है, है न? फिर हम उन्हें स्वादिष्ट भोजन भेंट करते हैं और साथ ही सुन्दर संगीत भी। इन चढ़ावों का यही शाब्दिक मूल है - ये वही हैं जो हम अपने घरों में बुद्धजन और बोधिसत्वों का स्वागत करते समय चढ़ाएँगे ताकि उन्हें आराम मिले।
इस प्रकार की भेंट देने से हम न केवल गुरुओं और बुद्धजन को सुख देते हैं, बल्कि हम इसकी कल्पना-मात्र से स्वयं आनंदित होने का प्रयास करते हैं, और उस आनंद का विघ्न-रहित रीति से अनुभव भी करते हैं। हमें कोई शिकायत नहीं रहती कि फूल पर्याप्त नहीं हैं, धूप से हमें खाँसी होगी, खाना हमें मोटा कर देगा, इत्यादि। इनमें से कोई भी चिंता नहीं रहती, बस केवल शुद्ध निर्मल सुख और आनंद रहता है। यह बहुत ही अद्भुत अनुभव है जिसे हम विकसित कर सकते हैं: कोई शिकायत न होना।
सभी कटोरों में पानी नहीं होता। कुछ में चावल होते हैं। चावल का तात्पर्य क्या है? फूल वाली कटोरी में पानी होना चाहिए या चावल?
दोनों ही ठीक हैं। तिब्बती लोग जिन फूलों का उपयोग करते हैं, वे प्रायः सूखी फलियाँ होती हैं जो दक्षिण भारत में पाई जाती हैं। वे पानी में बहुत देर तक नहीं रह पातीं। हम इन फलियों को या सुलगती धूप को पानी के कटोरे में तो नहीं डालना चाहेंगे। अतः केवल व्यावहारिक कारणों से हम उन्हें चावल वाली कटोरी में डालते हैं। वैसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
इस बात पर जितना बल दिया जाए वह कम है कि एक ही काम करने की कई विधियाँ हैं। हम जब किसी अन्य केंद्र में जाते हैं या भारत के किसी अलग मठ में जाते हैं और यह देखते हैं कि वहाँ की प्रक्रिया कुछ अलग है, तो हमें केवल अपने को ठीक मानने का दम्भ पालकर चौंकने की आवश्यकता नहीं है कि वे "ग़लत" कर रहे हैं और हमारी विधि ही "सही" है। एक ही परंपरा में भी अलग-अलग मठ अलग-अलग प्रकार से काम करते हैं। भेंट चढ़ाने की प्रक्रिया में जो बात महत्त्वपूर्ण है वह है चित्त की स्थिति और किसी रूपाकार या संरचना का होना जो सम्मान-दायक अवश्य हो और सौंदर्य की दृष्टि से मनभावन हो, क्योंकि हम अपने चित्त को आनंदमय बनाना चाहते हैं।