सुरक्षित दिशा और बोधिचित्त की पुनःपुष्टि

भूमिका

छः प्रारंभिक अभ्यासों में से इस तीसरे अभ्यास की रूपरेखा देते हुए, ग्रंथ कहते हैं कि सर्वप्रथम आप साष्टांग प्रणाम करते हैं, फिर आप बैठते हैं, फिर आप श्वास पर ध्यान केंद्रित करके मन को निर्मल करते हैं, और उसके बाद ही आप शरणागति (सुरक्षित दिशा) और बोधिचित्त की अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि करते हैं। परन्तु मैंने अपने अनुभव से यह पाया है कि जब लोग, किसी शिक्षण अथवा ध्यान-साधना से पहले, किसी भी प्रारम्भिक तैयारी के बिना केवल साष्टांग प्रणाम करते हैं और फिर बैठ जाते हैं, तो वह साष्टांग प्रणाम यांत्रिक होता है। इस प्रकार, क्योंकि यह कहा गया है कि पहले बैठें, फिर श्वास, और उसके पश्चात शरणागति और बोधिचित्त पर ध्यान केंद्रित करें, मुझे लगता है कि यह इस बात की ओर संकेत करता है कि आपको उस प्रारंभिक साष्टांग प्रणाम से पहले अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि करने की भी आवश्यकता होगी; अन्यथा आपके पास कोई प्रेरणा ही नहीं होगी।  

श्वास पर ध्यान केंद्रित करने का उद्देश्य अपने मन को एक तटस्थ अवस्था में लाना है - जिसे अनिर्दिष्ट कहा जाता है (जिसे बुद्ध ने न तो रचनात्मक और न ही विनाशकारी निर्दिष्ट किया है) - और उस आधार पर, आप चित्त की एक सकारात्मक दशा उत्पन्न कर सकते हैं। यदि आप अपने दिन की व्यस्तता या अपने तक पहुँचने के यातायात इत्यादि से अस्तव्यस्त मन से प्रारम्भ करते हुए एक सकारात्मक स्थिति उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं, तो यह अत्यंत कठिन है। तो पहले एक तटस्थ अवस्था, जो केवल श्वास पर ध्यान केंद्रित करने से प्राप्त होती है, और फिर सकारात्मक प्रेरणा। इसलिए, जिस प्रकार मैं पढ़ाता हूँ, आरंभिक साष्टांग प्रणाम एवं आसन ग्रहण करने से पहले मैंने श्वास पर ध्यान केंद्रित करने एवं प्रेरणा निर्धारित करने के इस प्राथमिक या प्रारंभिक चरण को जोड़ा है। निश्चित रूप से आप उचित क्रम में इसकी पुनरावृत्ति भी कर सकते हैं। मुझे लगता है कि इसे दो बार करने में कोई दोष नहीं है।

हम जिससे बचना चाहते हैं, वह है हमारे अभ्यास का यांत्रिक हो जाना, और यह अत्यधिक सरल है - एक भावनारहित अभ्यास। आप बस इसे शीघ्रता से पार कर लेना चाहते हैं क्योंकि आपको लगता है - चाहे कोई भी कारण हो - इसे करना बाध्यकारी है, यदि आप इसे नहीं करते तो आप अपराध-बोध ग्रस्त हो जाते हैं, या यह इतना प्रबल अभ्यास बन जाता है जिसे नहीं करने की बात ही नहीं सूझती, जैसे अपने दाँतों को ब्रुश करना, परन्तु फिर भी इसमें कोई भावना नहीं रहती। एक बार जब आपका अभ्यास यांत्रिक हो जाता है और आप यंत्रवत अभ्यास करने की आदत डाल लेते हैं, तो उस आदत को त्यागना बहुत कठिन हो जाता है।

इसलिए यदि आप नव-साधक हैं, तो सावधान रहने की चेष्टा करें कि बिना किसी भावना के यंत्रवत साधना करने की आदत न डालें। क्योंकि उस अभ्यास में पड़ जाना अत्यंत सरल होता है। क्यों? क्योंकि हमारा जीवन बहुत व्यस्त है। हमारे पास अधिक समय नहीं है। आपको सुबह तैयार होकर काम पर जाना है या बच्चों की देखभाल करनी है। आप अभ्यास को शीघ्रता से पार करना चाहते हैं, और भले ही आपकी यह प्रबल प्रेरणा है कि आप हमेशा इस अभ्यास को प्रतिदिन करेंगे, प्रवृत्ति यह होती है कि आप इसे त्वरित गति से करके शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करना चाहते हैं क्योंकि आपको दिनभर में अनेक कार्य करने होते हैं। यही वह वास्तविकता है जिससे हमें निपटना होगा। यही कारण है कि प्रेरणा, उद्देश्य, भावना आदि को तुरंत विकसित करने में सक्षम होना आवश्यक है, यद्यपि, निश्चय ही यह दीर्घ अनुभव और ध्यान-साधना के बाद ही प्राप्त हो सकता है। यद्यपि हम अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि करते हैं, हमारी प्रेरणा एक प्रकार से लगभग अचेतन स्तर पर निरंतर रहनी चाहिए। तो, साष्टांग प्रणाम करने और बैठने से पहले, शरणागति हेतु हम अपने सामने किसी आलम्बन का मानस-दर्शन करते हैं और फिर सुरक्षित दिशा लेकर अपनी बोधिचित्त प्रेरणा की पुनःपुष्टि करते हैं।

सुरक्षित दिशा (शरणागति)

यद्यपि शरणागति और बोधिचित्त के विषय में विस्तार से व्याख्या का यह कोई अवसर नहीं है, परन्तु इनके महत्त्व को गौण भी नहीं समझा जा सकता। मैं शरणागति  के स्थान पर सुरक्षित दिशा  शब्द पसंद करता हूँ क्योंकि यह कुछ अधिक सक्रिय है। शरणागति  अत्यंत अकर्मण्य शब्द है, कम-से-कम अंग्रेज़ी में। ऐसा नहीं है कि हम केवल निष्क्रिय होकर कहते रहें "हे बुद्ध, धर्म, संघ, मुझे बचाओ!" अपितु हम उस दिशा में चलकर अपनी रक्षा करते हैं जिस दिशा में बुद्ध, धर्म और संघ - त्रिरत्न - जाने का निर्देश करते हैं।

इन तीन दुर्लभ और अनमोल रत्नों के विभिन्न स्तर हैं। तिब्बती लोग रत्न का अनुवाद इस प्रकार से करते हैं - दुर्लभ एवं सर्वोच्च। तो यह है अर्थ-ध्वनि। सरल शब्दों में, धर्म रत्न का गहनतम स्तर तीसरा और चौथा आर्य-सत्य है। यह दुख-सत्य का निरोध एवं उसके कारणों का वर्णन करता है। और जब हम सत्य मार्ग के बारे में बात करते हैं, तो यह वह मार्ग नहीं है जिसपर आप चलते हैं; यह मनोदशा है - एक बोध, एक गहन सचेतनता - जो हमें लक्ष्य तक ले जाने के मार्ग के रूप में कार्य करेगी । तो हम बात कर रहे हैं उन अनुभूतियों के बारे में जो सत्य-निरोध की प्राप्ति कराएँगी तथा बोध अथवा चित्त के उन स्तरों के बारे में जो सत्य-निरोध की प्राप्ति के प्रतिफल स्तर हैं।

त्रिरत्नों के विषय में अत्यंत जटिल और सारगर्भित बात यह है कि हमें यह समझना है कि दुःख-सत्य एवं उनके कारणों का निरोध वास्तव में साध्य है - मेरा मतलब है कि निश्चय ही हमें कार्य और कारण को समझना होगा - कि मन की मूल प्रकृति इस अर्थ में निर्मल है कि इस वास्तविक निरोध की प्राप्ति संभव है। कई भिन्न स्तर हैं जिनके द्वारा हम इसे समझने का प्रयास कर सकते हैं:

  • परम पावन दलाई लामा ने अपनी सत्रह नालंदा पंडितों को स्तुति  (Praise to the Seventeen Nalanda Pandits) में इस प्रकार उल्लेख किया है: यदि आप दोनों सत्यों - वस्तुओं के गहनतम सत्य तथा पारंपरिक सत्य - को समझ लेते हैं, तो आप चार आर्य सत्यों को समझ पाएँगे, और यदि आप चार आर्य सत्यों को समझ लेते हैं तो आप त्रिरत्नों को समझने में सक्षम होंगे।
  • इसे समझने का एक और मार्ग है, जैसे अवलोकितेश्वर एवं आध्यात्मिक गुरु के मध्य अविच्छेद्यता  (The Inseparability of Avalokiteshvara and the Spiritual Master) - में वर्णित है, चार बुद्ध कायाओं को समझने से इस शरणागति, इस सुरक्षित दिशा, के विषय में हमारी अवधारणा दृढ़ हो जाएगी।
  • या, चित्त की स्वाभाविक निर्मल प्रकृति, महामुद्रा या द्ज़ोगचेन, के दृष्टिकोण से सत्य-निरोध और सत्य-मार्ग की संभाव्यता में विश्वास बढ़ाने के मार्ग पर चलकर हम इसे समझ सकते हैं।

मुख्य बात यह है कि यदि हम इस दिशा में जाते हैं, तो हमें इस बात से आश्वस्त होना होगा कि उस दिशा में जाना संभव है, न कि "ठीक है, हो सकता है कि मैं जा पाऊँ और दुःख आदि का निरोध करने की चेष्टा कर पाऊँ, परन्तु मैं लक्ष्य तक पहुँचने में सक्षम नहीं हो पाऊँगा" (ऐसे कई लोग हैं जो इस ओर जाते हैं)। परन्तु वास्तव में इसे दृढ़ करने के लिए हमें आश्वस्त होना पड़ेगा कि मोक्ष तथा ज्ञानोदय वस्तुतः संभव है - सत्य-निरोध।

यह कोई मामूली या सरलता से समझ पाने वाली या तार्किक रूप से सरलता से आश्वस्त होने वाली बात नहीं है, यह कुछ ऐसा है जिसपर हमें वास्तव में डटकर काम करना पड़ेगा। हम में से अधिकांश लोग, आरम्भ में, यह मानकर चलते हैं कि यह सच है - ठीक है, यदि आप इस विषय में सोचते भी हैं, तो आरम्भ में अधिक से अधिक आप इसे सत्य मानकर चलते हैं, आशा करते हैं कि यह सत्य है - और फिर आप उस दिशा में मेहनत करते हैं। परन्तु यदि हम इस विचार, इस सुरक्षित दिशा, को आग्रहपूर्वक अपनाते हैं, तो यह हमारे जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लाता है। केवल इतना ही नहीं कि हम स्वयं को श्रेष्ठतर बनाने में जुटे हुए हैं, जो अपनेआप में एक बड़ा परिवर्तन तो है ही, अपितु हम इस बात को लेकर भी आश्वस्त हैं कि मोक्ष और ज्ञानोदय  प्राप्ति-संभव हैं। तो क्यों कष्ट झेलें? जैसा कि वे कहते हैं: यदि आप जलते हुए घर में हैं और आप जानते हैं कि बाहर निकलना संभव है, तो आप बाहर निकलने की चेष्टा क्यों नहीं कर रहे?

बुद्ध-जन वे हैं जिन्होंने सत्य-निरोध एवं चित्त के सत्यमार्ग को पूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया है और यह इंगित किया है कि इन्हें किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। और संघ से तात्पर्य है आर्य संघ, जो पहले से ही सत्य-निरोध एवं चित्त के सत्यमार्ग की आंशिक प्राप्ति कर चुके हैं परन्तु अभी पूर्ण रूप से नहीं। तो हम निश्चित रूप से संघ शब्द के उस पश्चिमी उपयोग की बात नहीं कर रहे जिससे अभिप्राय केवल वे लोग हैं जो धर्म केंद्र आते हैं। और न ही यह केवल मठवासी समुदाय का पारंपरिक स्तर है। यह आर्य संघ का प्रतिरूपण है, परन्तु इसका वास्तविक दिशा-निर्देश आर्य संघ द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है।

त्रिरत्नों का मानस दर्शन

शरणागत होने के लिए हमें अपने सामने किसी ऐसी वस्तु का मानस दर्शन करना होगा जो उस दिशा का प्रतिरूपण है जिस दिशा में हम जाना चाहते हैं। यह एक अत्यंत विस्तृत मानस दर्शन हो सकता है, परन्तु एक "सर्वसमावेशी रत्न" नामक परंपरा भी है, जिसमें आप केवल शाक्यमुनि बुद्ध का आध्यात्मिक शिक्षक के अविच्छेद्य रूप में मानस दर्शन करते हैं। वे कमल, चंद्रमा, तथा सूर्य  के कुण्डल पर स्थित सिंहासन पर आसीन हैं, जो त्याग, बोधिचित्त तथा शून्यता के बोध को प्रतिरूपित करता है। बुद्ध की काया संघ को प्रतिरूपित करती है, वाक् धर्म है, तथा चित्त बुद्ध है।

मुझे यहाँ एक विषय पर बल देना चाहिए: मानस दर्शन में न उलझें। कई लोगों को मानस दर्शन में कठिनाई होती है। यह मुख्य बात नहीं है। मुख्य बात है किसी ऐसी वस्तु का होना जो अपने लक्षित विषय पर ध्यान केंद्रित करने में हमारी सहायता कर सके। त्सोंगखपा बहुत अच्छे से समझाते हैं कि आप मानस दर्शन करने के लिए स्वयं को किस प्रकार प्रशिक्षित कर सकते हैं। वे कहते हैं: सर्वप्रथम कुछ सामान्य, कोई अमूर्त वस्तु को रखें, और जैसे-जैसे आपकी एकाग्रता में सुधार होगा, ध्यान केन्द्रीकरण और विस्तृत विवरण अपनेआप ही आ जाएँगे (स्पष्टतः ऐसा होने के लिए आपको यह जानना होगा कि यह कैसा दिखता है)। तो कृपया मानस दर्शन के विवरण में उलझने और फिर विह्वल और हतोत्साहित होने के जोखिम से बचें क्योंकि आप उनका पूर्वानुमान नहीं कर सकते।

बोधिचित्त

आप जिस दिशा में जाना चाहते हैं उसकी पुनःपुष्टि करने के पश्चात, आप अपनी बोधिचित्त प्रेरणा की पुनःपुष्टि करते हैं। प्रेरणा, अथवा जिसे प्रेरणा  के रूप में अनूदित किया जाता है, उसके दो आयाम हैं। वास्तव में प्रेरणा  के तिब्बती शब्द (कुन- स्लॉन्ग ) का अर्थ है " वह जो आपको एक लक्ष्य की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करता है।" तो इसके दो भाग हैं: एक है लक्ष्य, ध्येय; दूसरा है वह भावात्मक स्थिति जो हमें उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रेरित करेगी। प्रेरणा के ये दो आयाम हैं।

यहाँ लक्ष्य केवल विमुक्ति-पर्यन्त जाने की सुरक्षित दिशा नहीं है, क्योंकि सुरक्षित दिशा के तीन लक्ष्य हैं, या तो:

  • विमुक्ति, जिसका अर्थ है जब बुद्ध की शिक्षाएँ विद्यमान हैं तब एक श्रावक - शिक्षाओं का श्रोता - के रूप में अर्हत बनना, 
  • प्रत्येक-बुद्ध के रूप में विमुक्ति - अंधेर युग में जब बुद्ध विद्यमान नहीं होते और आपको केवल अपनी सहज वृत्ति पर निर्भर रहना पड़ता है
  • या एक बोधिसत्व के रूप में - केवल मुक्ति के लिए नहीं, अपितु ज्ञानोदय प्राप्ति के लक्ष्य को साधने के लिए।  

सुरक्षित दिशा इन तीन सम्भाव्य लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए होती है।

महायान के दृष्टिकोण से हम ज्ञानोदय के लक्ष्य को साध रहे हैं; फिर भी, हमें ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए विमुक्ति की प्राप्ति करनी होगी। तो यह न सोचें कि श्रावक लक्ष्य अप्रासंगिक है। आप प्रेम और करुणा इत्यादि जैसी महायान प्रेरणा के साथ श्रावक लक्ष्य को साध सकते हैं, परन्तु आपको उस लक्ष्य को भी प्राप्त करना होगा। और हो सकता है कि ज्ञानोदय प्राप्ति तक पहुँचने हेतु सकारात्मक शक्ति को संचित करने में असंख्य युग बीत जाएँ, इसलिए हमें कदाचित अंधकार युगों में अभ्यास करना होगा जब शिक्षाएँ विद्यमान नहीं होंगी, और हमें प्रत्येक-बुद्ध की भाँति अभ्यास करने के लिए सशक्त सहजवृत्ति की आवश्यकता होगी। तो यह अप्रासंगिक नहीं है।

मुझे लगता है कि यह दम्भ न होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि: "ओह, मैं एक बोधिसत्व बनना चाहता हूँ। मैं ज्ञानोदय प्राप्त करना चाहता हूँ। और ये निम्न श्रेणी सत्त्व, ये श्रावक और प्रत्येकबुद्ध, वे न केवल सम्मान के योग्य नहीं हैं, अपितु अप्रासंगिक भी हैं।" वे अप्रासंगिक नहीं हैं, विशेष रूप से प्रत्येकबुद्ध - वे ऐसे लोग हैं जिनकी सब सामान्यतः उपेक्षा करते हैं। परन्तु यदि आप ज्ञानोदय प्राप्ति तक पहुँचने के विषय में गहनता से विचार करें, तो यह जान पाएँगे कि अंधकार युगों में भी हम निश्चित रूप से विद्यमान रहेंगे। अब आप यह कह सकते हैं कि, "ठीक है, बुद्ध अनंत ब्रह्मांडों आदि में शिक्षा देते हैं। तो जब यहाँ अंधकार युग होगा, तब बुद्ध कहीं और पढ़ाएँगे और हम वहाँ पुनर्जन्म ले सकते हैं," परन्तु आपको यह पता नहीं कि कहाँ क्या होने वाला है। आपको यह पता नहीं होगा कि आपका पुनर्जन्म कहाँ होगा। "भले ही बुद्ध विद्यमान न हों और शिक्षाएँ उपलब्ध न हों, मेरी सहज वृत्ति इतनी सशक्त रहे कि मैं किसी भी परिस्थिति में इसी दिशा की ओर आकर्षित होता जाऊँ।"

मुझे लगता है कि जो लोग सर्वाधिक शक्तिशाली निरंकुशतावादी धर्म-विरोधी शासन में रहे हों, वे लोग मेरी इस बात की प्रासंगिकता को थोड़ा-बहुत तो समझ ही गए होंगे।

अब, बोधिचित्त का उद्देश्य आत्मज्ञान की प्राप्ति है। और फिर जिन बुद्ध का हम मानस दर्शन कर रहे हैं, जो आध्यात्मिक शिक्षक से अविच्छेद्य हैं, वे ज्ञानोदय के प्रतिरूप हैं। और जो भावना हमें उस ओर ले जा रही है वह है प्रेम, करुणा, तथा यह असाधारण संकल्प कि हम न केवल जीवन के उतार-चढ़ाव में दूसरों की सहायता करने का उत्तरदायित्व लेते हैं अपितु उन्हें विमुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर ले जाते हैं। यही कारण है कि जब मैं प्रेरणा की बात करता हूँ तब मैं सदैव इस बात पर बल देता हूँ। यह उन्हें न केवल भूख इत्यादि से बचाने की हमारी सामान्य सहायता है, अपितु, दु:ख के लिए जो आधार है, उससे तथा दुःख के आधार और परिवर्तन के दुःख (सामान्य प्रकार का सुख), अर्थात् सर्वव्यापी दुःख (अनियंत्रित आवर्ती पुनर्जन्म) के आधार को मिटाने की सहायता भी है। इसलिए इससे उबरने के लिए उनकी पूरी तरह से सहायता करने का पूर्ण उत्तरदायित्व लें। यही वह असाधारण संकल्प है।

बात यह है कि हमारा लक्ष्य न तो बुद्ध शाक्यमुनि का ज्ञानोदय प्राप्त करना है और न ही सामान्य ज्ञानोदय प्राप्त करना, अपितु हम अपने-अपने व्यक्तिगत ज्ञानदयों को प्राप्त करने के लक्ष्य रखते हैं। परन्तु वह ज्ञानोदय अभी तक नहीं हुआ, किन्तु यह चित्त की नैसर्गिक निर्मलता, चित्त की शून्यता के आधार पर हो सकता है - कि दुःख एवं उसके कारणों का सत्य-निरोध संभव है - और सकारात्मक शक्ति और गहन अभिज्ञता के तथाकथित दो संजाल (दो संग्रह) भी संभव है। यदि हम इस बात से आश्वस्त हैं कि चित्त की नैसर्गिक निर्मलता इत्यादि का लक्ष्य साध्य है, तो उस सम्बन्ध में विभिन्न बुद्ध-धातु कारक स्वयं कारण बन जाते हैं। मूलभूत रूप से, कारण तभी कारण बन पाता है जब वह कार्य के विद्यमान होने की संभावना के सन्दर्भ में होता है।

वास्तव में आप जितना गहनतर विचार करते हैं आप पाते हैं कि, करुणा, प्रेम, इत्यादि के संपूर्ण भावात्मक पक्ष के अतिरिक्त, बोधिचित्त लक्ष्य के लिए गहनतम बोध की आवश्यकता होती है - जिसके आधार हैं सत्य-निरोध एवं इसे फलीभूत होने की ओर ले जाने वाले सत्य मार्ग की सुरक्षित दिशा - कार्य एवं कारण तथा कार्य-कारण की शून्यता को इस सन्दर्भ में समझना कि किस प्रकार विभिन्न कारक मेरे अपने मानसिक सातत्य पर कारणों के रूप में उसे फलीभूत करने के लिए कार्य कर सकते हैं। यह अति गूढ़ एवं गंभीर विषय बन जाता है, जिस पर चर्चा करने के लिए दुर्भाग्यवश हमारे पास समय नहीं है। परन्तु जब हम बोधिचित्त के सन्दर्भ में बात करते हैं, पारंपरिक बोधिचित्त और गहनतम बोधिचित्त, तो शून्यता का बोध ही गहनतम बोधिचित्त है। वास्तव में हमारे व्यक्तिगत ज्ञानोदय को लक्ष्य बनाने के लिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने पारम्परिक बोधिचित्त को दृढ़ बनाएँ।

अब, हमारे सामने गुरु और बुद्ध, जो परस्पर अविच्छेद्य हैं, उस लक्ष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसकी प्राप्ति की हम चेष्टा कर रहे हैं। यह अत्यंत रोचक है। आपके पास गम्पोपा की यह टिप्पणी है: "जब मुझे अपने चित्त और अपने आध्यात्मिक गुरु और बुद्ध की अविभाज्यता की अनुभूति हुई, तब मैंने महामुद्रा को समझा।"

अपनी सुरक्षित दिशा और बोधिचित्त लक्ष्य की पुनःपुष्टि करने के बाद, सरकॉंग रिन्पोचे के निर्देशों से, हम निम्नलिखित में से एक कार्य कर सकते हैं:

  • हम यह कल्पना कर सकते हैं कि बुद्ध शाक्यमुनि का समरूप हमारे भीतर विलीन हो जाता है।
  • हम अपने अंतःकरण में हुम् के साथ शाक्यमुनि बुद्ध में रूपांतरित हो जाते हैं।
  • हम प्रकाश की विभिन्न किरणें उत्सर्जित करते हैं, और ये सभी जीवों को शुद्ध करती है तथा बुद्धत्व की अवस्था में रूपांतरित करती हैं, और वे सभी शाक्यमुनि में रूपांतरित हो जाते हैं (इस प्रकार हम उन सभी को शाक्यमुनि बुद्ध के रूप में कल्पित करते हैं)।

तब हमें यह पूर्ण अनुभव होता है, हम समझते हैं, कि यह केवल मानस दर्शन है: वे अभी तक ज्ञानसम्पन्न नहीं हैं (वैसे तो हम भी नहीं हैं)। तो वे ज्ञानसम्पन्न क्यों नहीं हैं? क्योंकि पहले तो उनके पास समचित्त भाव नहीं है। तो यह हमें, तार्किक अनुक्रम में, चार अप्रमाणों की ध्यान-साधना की ओर ले जाता है:

  1. अपरिमित समचित्तता - "कितना अद्भुत होता यदि उनमें समचित्त भाव होता। उनमें समचित्त भाव हो जाए। मैं इसे निश्चित रूप से उन तक पहुँचाऊँगा। हे बुद्धजन, मुझे इसे संपन्न करने के लिए प्रेरित करें।
  2. अपरिमित प्रेम - "वे सभी सुखी रहें और उनके पास सुख के कारण हों।"
  3. अपरिमित करुणा - "वे सभी दुःख तथा दुःख के कारणों से मुक्त हों।"
  4. अपरिमित आनंद - न केवल सामान्य प्रकार के दुःख और सुख, अपितु "वे ज्ञानोदय का आनंद प्राप्त करें और उससे कभी वंचित न हों।"

और फिर कुछ सामान्य अनुदेश - और फिर अनुवर्ती, अगला चरण:

  • हमारे सामने जो मानस-दर्शित बुद्ध हैं, वे लघु से लघुतर होते जाते हैं और हमारी भौहों के बीच में प्रवेश करते हैं और पिघलते मक्खन की भाँति हमारे भीतर विलीन हो जाते हैं। इस अभ्यास में तांत्रिक गुण कम है।
  • इसका वैकल्पिक मानस दर्शन यह है कि बुद्ध आरोहण करते हैं, और जब हम अगले चरण में विपुल प्रदेश का मानस दर्शन करते हैं, तब बुद्ध वापस नीचे आते हैं और विलय हो जाते हैं। 

तो ये दो प्रकार हैं।

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