इस सप्तांग अभ्यास की कई व्याख्याएँ हैं। कदाचित सबसे प्राचीन व्याख्या वह है जो गंडव्यूह सूत्र के अंत के समन्तभद्र की प्रार्थना में वर्णित है। फिर एक नागार्जुन की बहुमूल्य रत्नमाला में है। एक सामान्य रूप से अभ्यास में आने वाली व्याख्या शांतिदेव के बोधिचर्या में संलग्न होना में से है।
साष्टांग प्रणाम
साष्टांग प्रणाम। आप यह कल्पना करते हैं कि आपका शरीर अनंत संख्या में गुणा हो रहा है और वे सभी शरीर साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं। इन सातों अंगों का प्रत्येक अंग एक निश्चित प्रकार के अशांतकारी मनोभाव पर विजय प्राप्त करता है। तो यह हमारे मद और दंभ को दूर करने या उनका प्रतिरोध करने में सहायता करता है। "मैं बहुत अद्भुत हूँ। मैं नहीं झुकूँगा।" इस प्रकार का मनोभाव।
अर्पण करना
हम समंतभद्र प्रकार की अर्पण सामग्री के साथ ऐसा करने का प्रयास करते हैं। तो हम हम अंतःकरण से एक समन्तभद्र को प्रकट करते हैं जिनके हाथ में एक रत्न है, और वे अपने अंतःकरण से दो अन्य समंतभद्र प्रकट करते हैं (उनमें से प्रत्येक के हाथ में एक-एक रत्न है), और उनमें से प्रत्येक समंतभद्र से दो और समंतभद्र निकलते हैं, और फिर यह बृहत् हो जाता है, जैसे सूक्ष्म योग में अनुत्तरयोग तंत्र के उत्पत्ति स्तर पर होता है। हम उन्हें क्रम में प्रकट करते हैं और क्रम में वापस लाते हैं। त्सेनझाब सरकाँग रिन्पोचे बातों को हमेशा इस जटिल "वास्तविक" स्तर पर समझाते थे, हमेशा इस विचार के साथ कि यह अधिक उन्नत अभ्यास के साथ संयुक्त है। तो हमें समंतभद्र अर्पण सामग्री के लिए इस प्रकार का मानस दर्शन ऐसे मिलता है।
मुझे लगता है कि यह वस्तुतः हितकारी है क्योंकि यह अहंकार के लिए सहायक सिद्ध होगा, यह सोचकर कि "ओह, यह तो अत्यंत सरल होने वाला है। मैं ऐसा कर सकता हूँ।" आप कुछ ऐसा प्रस्तुत करते हैं जो वास्तव में करना कठिन है, और यह न केवल एक चुनौती है अपितु "इसे सही प्रकार से करने में हो सकता है मेरा पूरा जीवन ही बीत जाए।" तो इसे प्रतिदिन करना मूर्खता नहीं है, क्योंकि यह करना कठिन है और इसलिए आपको चाहिए कि आप अधिकाधिक अभ्यास करें ताकि आपका उत्तरोत्तर विकास हो। यह इस वीर्य, इस हर्षित वीर्य को विकसित करता है, जो, जैसा कि परम पावन दलाई लामा कहते हैं - उन्हें जो सबसे प्रबल शक्ति देता है वह है सकारात्मक शक्ति के संचयन हेतु लगने वाले असंख्य युगों के बारे में सोचना। यदि आप यह सोचते हैं कि "ठीक है, मैं केवल एक जीवनकाल या तीन वर्षों में ज्ञानोदय प्राप्त कर लूँगा" - इसे वे "बौद्ध प्रचार" कहते हैं। यह सोचना अत्यंत सरल है कि "मुझे एक लाभ का सौदा चाहिए। मैं इतनी अधिक मेहनत नहीं करना चाहता। और इसलिए मैं सस्ते में ज्ञानोदय प्राप्त कर लूँगा।" मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि कोई तीन वर्षों में ज्ञानोदय प्राप्त कर ले यह संभव है - यह सर्वथा निरर्थक नहीं है - परन्तु इसे लोगों को आकर्षित करने के लिए प्रचार के रूप में उपयोग किया जा सकता है क्योंकि उन्हें लगता है कि यह सरल है। यह सरल नहीं है। यह प्रचार शब्द - यह परम पावन का है; मैंने इसे नहीं रचा।
समंतभद्र अर्पण का एक सरलतर मानस दर्शन यह है कि आप एक समंतभद्र को प्रकट करें। उसके हाथ में एक रत्न है। और उस रत्न से, प्रकाश की अनंत किरणें निकलती हैं, और उनमें से प्रत्येक के पास विभिन्न अर्पण सामग्री हैं - पानी के कटोरे, फूल, सुगंध, आदि। यह कुछ अधिक सरल है।
कृपणता के प्रत्युत्तर के रूप में अर्पण करना उपयोगी होता है।
त्रुटियों को स्वीकार करना
इसके बाद है उन दोषों और अवगुणों की खुली स्वीकृति करना जो हमने अतीत में किए हैं, हमारे पिछले विनाशकारी व्यवहार, एवं चार विरोधियों को प्रयोग में लाना। इन चारों का आह्वान करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है:
- खेद - हमारे पिछले त्रुटिपूर्ण व्यवहार का। यह अपराध बोध नहीं अपितु खेद है। "काश कि मैंने ऐसा न किया होता।" यह अपराध बोध नहीं है, अपराध बोध वह है कि मैंने जो किया है ("यह बहुत बुरा है"), और मेरे स्वयं के लिए भी कि मैंने वह किया है, "मैं बहुत बुरा हूँ," उसको तूल देना और फिर उससे मुक्त न होना।
- उस कृत्य को फिर से न करने का दृढ़ संकल्प - इसके दिशानिर्देशों में एक है प्रतिज्ञा न करना: "अपने शेष जीवन में मैं यह काम फिर कभी नहीं करूँगा," क्योंकि हो सकता है आप उसे निभा न पाएँ। धीरे-धीरे प्रारम्भ करें: "अगले सप्ताह मैं उसे नहीं करूँगा।" फिर अगले महीने, अगले साल, और इसी प्रकार अपने अतीत के उस विनाशकारी व्यवहार को न दोहराने की अवधि को बढ़ाते जाएँ।
- अपने जीवन की सकारात्मक दिशा एवं बोधिचित्त लक्ष्य की पुनःपुष्टि करें।
- सकारात्मक कार्यों से नकारात्मकता का प्रतिसंतुलन स्थापित करें - ऐसे विविध प्रकार के कार्यों का एक संचय है जिसका उपयोग किया जा सकता है।
यह हमारी तीन विषैली मनोदृष्टियों से उबरने में सहायता करता है:
- उत्कट लालसा - किसी ऐसी वस्तु के लिए जो आपके पास नहीं है; आसक्ति - यदि आपके पास वह वस्तु है तो उसे त्यागने की इच्छा न होना; और लोभ - और अधिक पाने की चाह रखना
- क्रोध या द्वेष
- कार्य और कारण अथवा वास्तविकता के प्रति मूढ़ता, समय के बारे में मूढ़ न होना।
हमारे विनाशकारी व्यवहार का यही आधार है। हम इन विषैली मनोदृष्टियों के प्रभाव के अधीन काम करते हैं, जो हमारे चित्त को विषाक्त करती हैं।
आनंद मनाना
सात शाखाओं में से चौथी है उन सकारात्मक कार्यों में आनन्दित होना है जो दूसरों ने और हमने किए हैं। दूसरों से तात्पर्य है वे सामान्य जीव, श्रावक, प्रत्येकबुद्ध, बोधिसत्व और बुद्ध। यह हमें ईर्ष्या और द्वेष से उबार सकता है।
जब हम इन अशांतकारी मनोभावों से उबरने की बात करते हैं, तो आप स्वयं को जॉंचने का प्रयास करते हैं - क्या मेरे भीतर ये अशांतकारी मनोभाव हैं? - और उन्हें देखने की चेष्टा करते हैं और इस प्रकार के अभ्यासों से युक्त साधना करते हैं, केवल यहाँ ध्यान-साधना में ही नहीं। जब आप किसी के सफल होने आदि के बारे में सुनते हैं, तो ध्यान दें कि क्या आपके भीतर ईर्ष्या करने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है: "ओह, काश मैंने ऐसा किया होता" या "काश ऐसा उनके साथ न होता। काश यह मेरे साथ होता,” इत्यादि। ऐसे समय में आपको आनंद मनाकर उसका प्रतिकार करना चाहिए। उनके लिए आनंदित होइए। शांतिदेव कहते हैं: यदि आप यह चाहते हैं कि सभी ज्ञानोदय प्राप्त कर लें, तो यदि वे किसी संसारी कार्य में सफल हो जाते हैं तो इससे आपको क्या समस्या है?
शिक्षाओं का अनुरोध
फिर पाँचवाँ है बुद्ध एवं शिक्षकों से शिक्षा देने का अनुरोध करना। इससे हमें शिक्षाओं को त्यागने या ठुकराने की प्रवृत्ति से बचने में सहायता मिलती है। "मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है। मुझे सब पता है।"
शिक्षकों से विनती करना कि वे मृत्यु को प्राप्त न हो जाएँ
फिर शिक्षकों से विनती करना कि वे मृत्यु को प्राप्त न हो जाएँ। इससे हम अपने शिक्षकों को अपशब्द कहने या तुच्छ समझने के दोष से बच सकते हैं - "मुझे आप नहीं भाते" या "मुझे आपके पढ़ाने की विधि नहीं भाती", इत्यादि - तब तो वे निश्चित रूप से ही चले जाएँगे। शिक्षक की उपेक्षा करना। "मुझे इस शिक्षक की आवश्यकता नहीं है।"
समर्पण
फिर सभी जीवों के ज्ञानोदय के लिए समर्पण। यह क्रोध को रोकने में हमारी सहायता करता है। क्रोध हमारी संचित सकारात्मक शक्ति का विनाश कर देता है। आप सकारात्मक शक्ति को संचित करते हैं, और एक अर्थ में, इसे मुक्ति या ज्ञानोदय की पुस्तिका में सहेजना चाहेंगे, न कि सांसारिक पुस्तिका में, और न ही इसे क्रोध से निर्बल करना चाहेंगे।
महान भारतीय आचार्यों के ग्रंथों में इसके बारे में दो कथन हैं:
- शांतिदेव रचित बोद्धिसत्त्वाचार्य-अवतार में वे कहते हैं कि बोधिसत्व पर क्रोध करने से सहस्त्रों युगों की संचित सकारात्मक शक्ति का विनाश हो जाता है। इसके भाष्यों में यह समझाया गया है कि यह विशेष रूप से ज्ञानोदय प्राप्ति में हमसे उच्च स्तर पर स्थित बोधिसत्व पर क्रोधित होने की ओर संकेत करता है।
- चंद्रकीर्ति, अपने माध्यमकावतार में कहते हैं कि क्रोध सैकड़ों युगों की संचित सकारात्मक शक्ति का विनाश कर देता है। टीकाओं के अनुसार, यह तब होता है जब हम स्वयं एक बोधिसत्व हैं और हम अपने क्रोध को उसी स्तर के दूसरे बोधिसत्व की ओर लक्षित करते हैं।
इस प्रकार यदि बोधिसत्व उच्च कोटि के हैं तो सहस्त्रों, और यदि वे समान स्तर के हैं तो सैकड़ों । इन दो ग्रंथों में संख्या की इस विसंगति का कारण यही है।
यह एक बहुत ही कठिन विषय बन जाता है। सबसे पहले, ग्रंथों से ऐसा लगता है कि यह बोधिसत्वों की ओर लक्षित क्रोध के बारे में बात हो रही है। और इसलिए प्रश्न यह है: क्या यह उस सकारात्मक शक्ति को नष्ट कर देता है जिसे मैंने सामान्य रूप से सभी वस्तुओं के लिए संचित किया है? और मैंने एक व्याख्या सुनी है कि यह केवल उस सकारात्मक शक्ति का विनाश करता है जो उस विशिष्ट बोधिसत्व के साथ संचित है - कि अब, उस विशिष्ट बोधिसत्व पर क्रोधित होने के कारण, उस सकारात्मक बल को नष्ट कर देता है। वास्तव में यही मुख्य व्याख्या थी जो मैंने सुनी है। अनादि जीवनकाल और सीमित संख्या में जीवों को देखते हुए, हमने सब के साथ अतिशय मात्रा में कर्म संचित किया है। तो यहाँ कर्म अति विशिष्ट है।
इसलिए आपको किसी ग्रन्थ की किसी विशेष पंक्ति की टीका में दी गई व्याख्या और सामान्य परामर्श के बीच अंतर करने की आवश्यकता है। सामान्य परामर्श: दूसरों पर क्रोध न करें, क्योंकि यह साधारणतः आपकी सकारात्मक शक्ति को विनष्ट कर देगा। जब ग्रन्थ ये अद्भुत संख्याएँ दे रहा है, तो यह अति विशिष्ट बात है। तो उन दोनों में विभेद करें; अन्यथा आप घबरा जाएँगे। "ओह, मुझे अपने कुत्ते पर गुस्सा आया, और अब मेरा सबकुछ बर्बाद हो गया। मैंने अपने सहस्त्रों युगों की संचित सकारात्मक शक्ति को नष्ट कर दिया है।" यहाँ, यह विभेद करने के लिए मानव मेधा का उपयोग नहीं हो रहा कि कब कोई शिक्षा लागू होती है और कब नहीं। किसी विशिष्ट शिक्षा के लागू होने या न होने का प्रसंग क्या है? शिक्षाओं के लागू होने के प्रसंग को जानें। एक मतान्ध व्याख्या को न अपनाएँ - कि केवल एक मच्छर पर गुस्सा करने से सहस्त्रों युगों की संचित सकारात्मक शक्ति का विनाश हो जाएगा। यदि ऐसा होता, तो हम में से किसी के लिए कोई उम्मीद न होती।
जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है (ब्कोम ) उसका अभिप्राय है सकारात्मक शक्ति को विनष्ट करना। इसका तात्पर्य उसे समूल मिटा देना नहीं है। इसका आशय है कि इसके परिपक्व होने में बहुत अधिक समय लगेगा, और जब यह परिपक्व हो जाएगा तो यह अति लघुतर बल के साथ परिपक्व होगा। इस शब्द का यही भाव है। तो फिर आपको सदैव प्रयोग किए गए शब्दों के अर्थ को देखना होगा, परन्तु प्रायः उनका अनुवाद ऐसे शब्दों से किया जाता है जो सही अर्थ को व्यक्त नहीं करते। इसलिए जब आप किसी शब्द से उलझन में पड़ जाएँ, तो सदैव शिक्षक से यह पूछें कि उस शब्द की परिभाषा क्या है। यदि वे वाद-विवाद की विधि में ठीक से प्रशिक्षित हों तो तिब्बती गेशे आपको उचित परिभाषाएँ दे सकते हैं। उन्हें सभी परिभाषाओं को कंठस्थ करना होता है।