पुण्य भूमि, सप्तांग प्रार्थना, मंडल एवं अनुनय

चौथा अभ्यास: आध्यात्मिक उन्नति हेतु विपुल क्षेत्र का मानस दर्शन 

छः प्रारंभिक अभ्यासों में से चौथा है आध्यात्मिक विकास के लिए एक पुण्यक्षेत्र का मानस दर्शन करना। इसे प्रायः योग्यता क्षेत्र कहा जाता है, परन्तु इसके लक्ष्यार्थ की एक अर्थध्वनि है: यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें हम अपनी सकारात्मक शक्ति के अधिक से अधिक बीज बोते हैं। यह एक विपुल क्षेत्र है; इससे भरपूर फ़सल मिलेगी। और फिर, यह एक अत्यधिक जटिल मानस दर्शन हो सकता है या सिंहासन पर विराजमान बुद्ध के रूप में हमारे मूल गुरु के संग एक सरल मानस दर्शन हो सकता है, जैसा हमारे पास पहले था।

मैं यहाँ अत्यधिक विस्तार में नहीं जाऊँगा, केवल एक छोटी-सी बात है। बुद्ध की मुद्रा ऐसी है कि दाहिना हाथ भूमि-स्पर्श मुद्रा में है - इसलिए यह नीचे की ओर है, पृथ्वी को छूते हुए, बुद्ध भूमि को ‘मार’ से अपनी पराजय का साक्षी होने के लिए आग्रह कर रहे हैं। ‘मार’ देवताओं की संतान हैं। जब हम मारों की बात करते हैं, तो एक तरह से आप उन्हें राक्षस कह सकते हैं, परन्तु वे बलशाली बाधाकारी हस्तक्षेप भी हैं। मार  का उद्भव वास्तव में संस्कृत शब्द मृत  है, जिसका अर्थ है "मरा हुआ"।

तो एक ओर इन सभी बाधाकारी हस्तक्षेपों के रूप में ‘मार’ है जो बुद्ध के पास तब आया था जब वे बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञानोदय प्राप्त कर रहे थे, जो वैसे एक अद्भुत उदाहरण है। आप सोचते होंगे कि ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए तैयार बुद्ध तब तक इतना विपुल सकारात्मक बल संचित कर चुके होंगे कि ‘मार’ जैसे बलशाली बाधाकारी हस्तक्षेप उनके समक्ष आ ही नहीं सकते थे, जिस प्रकार इसे वर्णित किया गया है - नर्तकियाँ इत्यादि सब कुछ समेत। परन्तु आप जितना अधिक बलशाली सकारात्मक कार्य करने की चेष्टा करते हैं, उतना ही अधिक बाधाकारी हस्तक्षेप उत्पन्न होने की प्रवृत्ति होती है, और एक महान बोधिसत्व वह है जो इन बाधाकारी हस्तक्षेपों पर स्वयं भारी पड़ जाता हो। तो यदि हम कुछ सकारात्मक करने की चेष्टा कर रहे हैं और बाधाकारी हस्तक्षेप होते हैं, तो यह कोई विशेष बात नहीं है। चलिए, बोधिवृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध के उदाहरण के बारे में सोचिए, या फिर परम पावन दलाई लामा और उनके प्रति चीनी नेताओं के रवैये के बारे में सोचिए, कि उन्हें किन कठिनाइयों को झेलना पड़ा और उन्होंने किस प्रकार उन सबसे निपटने का प्रयास किया और किस प्रकार वे अवसादग्रस्त नहीं हुए। तो कभी यह न सोचें "हाय मैं बेचारा। मुझे इतने सारे दुःख हैं।" मान लीजिए कि चीनियों के साथ निपटते परम पावन दलाई लामा की चिंताओं की तुलना में हमारे दुःख तो तुच्छ ही हैं।

फिर बुद्ध की गोद में भिक्षापात्र है जिसे उन्होंने अपने बाएँ हाथ में पकड़ रखा है, और इसमें तीन अमृत हैं। अमृत शब्द का अर्थ क्या है? यह शब्द उसके वास्तविक स्वाद को अभिव्यक्त नहीं करता। स्मरण करें कि सरकाँग रिन्पोचे ने प्रत्येक शब्द का दोहन करने की बात कही थी, जैसे गाय को दुहना - इच्छापूरक गाय की भारतीय छवि - ताकि आपको इससे सभी विलक्षण वस्तुएँ मिले। अमृत  एक संस्कृत शब्द है। फिर से कह दूँ, मृत  का अर्थ है “मरा हुआ”, और   उपसर्ग के साथ यह हो जाता है अभिभूत हो जाना - तो ये राक्षस-विरोधी अमृत हैं। और तिब्बती इसका अनुवाद दो अक्षरों वाले शब्द से करते हैं; मार  के लिए एक शब्दांश है (ब्दुद )।

ये अमृत हैं:

  • औषध - स्कंध के मार (इसलिए व्याधि) पर विजय प्राप्त करना
  • दीर्घ जीवन का अमृत - मृत्यु के मार पर विजय प्राप्त करना
  • गहन सचेतनता का अमृत - अशांतकारी मनोभावों की मार पर विजय प्राप्त करना।

आप जितनी गहराई में प्रत्येक वस्तु के प्रतिरूप में जाते हैं, आप उतना अधिक देखते हैं कि इन सभी लघु आयामों में मार्ग का कितना कुछ सम्मिलित है।

पाँचवाँ अभ्यास: सप्तांग प्रार्थना एवं मंडल अर्पण

इस सप्तांग अभ्यास की कई व्याख्याएँ हैं। कदाचित सबसे प्राचीन व्याख्या वह है जो गंडव्यूह सूत्र  के अंत के समन्तभद्र की प्रार्थना  में वर्णित है। फिर एक नागार्जुन की बहुमूल्य रत्नमाला  में है। एक सामान्य रूप से अभ्यास में आने वाली व्याख्या शांतिदेव के बोधिचर्या में संलग्न होना  में से है।

साष्टांग प्रणाम

साष्टांग प्रणाम। आप यह कल्पना करते हैं कि आपका शरीर अनंत संख्या में गुणा हो रहा है और वे सभी शरीर साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं। इन सातों अंगों का प्रत्येक अंग एक निश्चित प्रकार के अशांतकारी मनोभाव पर विजय प्राप्त करता है। तो यह हमारे मद और दंभ को दूर करने या उनका प्रतिरोध करने में सहायता करता है। "मैं बहुत अद्भुत हूँ। मैं नहीं झुकूँगा।" इस प्रकार का मनोभाव।

अर्पण करना 

हम समंतभद्र प्रकार की अर्पण सामग्री के साथ ऐसा करने का प्रयास करते हैं। तो हम हम अंतःकरण से एक समन्तभद्र को प्रकट करते हैं जिनके हाथ में एक रत्न है, और वे अपने अंतःकरण से दो अन्य समंतभद्र प्रकट करते हैं (उनमें से प्रत्येक के हाथ में एक-एक रत्न है), और उनमें से प्रत्येक समंतभद्र से दो और समंतभद्र निकलते हैं, और फिर यह बृहत् हो जाता है, जैसे सूक्ष्म योग में अनुत्तरयोग तंत्र के उत्पत्ति स्तर पर होता है। हम उन्हें क्रम में प्रकट करते हैं और क्रम में वापस लाते हैं। त्सेनझाब सरकाँग रिन्पोचे बातों को हमेशा इस जटिल "वास्तविक" स्तर पर समझाते थे, हमेशा इस विचार के साथ कि यह अधिक उन्नत अभ्यास के साथ संयुक्त है। तो हमें समंतभद्र अर्पण सामग्री के लिए इस प्रकार का मानस दर्शन ऐसे मिलता है।

मुझे लगता है कि यह वस्तुतः हितकारी है क्योंकि यह अहंकार के लिए सहायक सिद्ध होगा, यह सोचकर कि "ओह, यह तो अत्यंत सरल होने वाला है। मैं ऐसा कर सकता हूँ।" आप कुछ ऐसा प्रस्तुत करते हैं जो वास्तव में करना कठिन है, और यह न केवल एक चुनौती है अपितु "इसे सही प्रकार से करने में हो सकता है मेरा पूरा जीवन ही बीत जाए।" तो इसे प्रतिदिन करना मूर्खता नहीं है, क्योंकि यह करना कठिन है और इसलिए आपको चाहिए कि आप अधिकाधिक अभ्यास करें ताकि आपका उत्तरोत्तर विकास हो। यह इस वीर्य, इस हर्षित वीर्य को विकसित करता है, जो, जैसा कि परम पावन दलाई लामा कहते हैं - उन्हें जो सबसे प्रबल शक्ति देता है वह है सकारात्मक शक्ति के संचयन हेतु लगने वाले असंख्य युगों के बारे में सोचना। यदि आप यह सोचते हैं कि "ठीक है, मैं केवल एक जीवनकाल या तीन वर्षों में ज्ञानोदय प्राप्त कर लूँगा" - इसे वे "बौद्ध प्रचार" कहते हैं। यह सोचना अत्यंत सरल है कि "मुझे एक लाभ का सौदा चाहिए। मैं इतनी अधिक मेहनत नहीं करना चाहता। और इसलिए मैं सस्ते में ज्ञानोदय प्राप्त कर लूँगा।" मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि कोई तीन वर्षों में ज्ञानोदय प्राप्त कर ले यह संभव है - यह सर्वथा निरर्थक नहीं है - परन्तु इसे लोगों को आकर्षित करने के लिए प्रचार के रूप में उपयोग किया जा सकता है क्योंकि उन्हें लगता है कि यह सरल है। यह सरल नहीं है। यह प्रचार  शब्द - यह परम पावन का है; मैंने इसे नहीं रचा।

समंतभद्र अर्पण का एक सरलतर मानस दर्शन यह है कि आप एक समंतभद्र को प्रकट करें। उसके हाथ में एक रत्न है। और उस रत्न से, प्रकाश की अनंत किरणें निकलती हैं, और उनमें से प्रत्येक के पास विभिन्न अर्पण सामग्री हैं - पानी के कटोरे, फूल, सुगंध, आदि। यह कुछ अधिक सरल है।

कृपणता के प्रत्युत्तर के रूप में अर्पण करना उपयोगी होता है।

त्रुटियों को स्वीकार करना

इसके बाद है उन दोषों और अवगुणों की खुली स्वीकृति करना जो हमने अतीत में किए हैं, हमारे पिछले विनाशकारी व्यवहार, एवं चार विरोधियों को प्रयोग में लाना। इन चारों का आह्वान करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है:

  1. खेद - हमारे पिछले त्रुटिपूर्ण व्यवहार का। यह अपराध बोध नहीं अपितु खेद है। "काश कि मैंने ऐसा न किया होता।" यह अपराध बोध नहीं है, अपराध बोध वह है कि मैंने जो किया है ("यह बहुत बुरा है"), और मेरे स्वयं के लिए भी कि मैंने वह किया है, "मैं बहुत बुरा हूँ," उसको तूल देना और फिर उससे मुक्त न होना।
  2. उस कृत्य को फिर से न करने का दृढ़ संकल्प - इसके दिशानिर्देशों में एक है प्रतिज्ञा न करना: "अपने शेष जीवन में मैं यह काम फिर कभी नहीं करूँगा," क्योंकि हो सकता है आप उसे निभा न पाएँ। धीरे-धीरे प्रारम्भ करें: "अगले सप्ताह मैं उसे नहीं करूँगा।" फिर अगले महीने, अगले साल, और इसी प्रकार अपने अतीत के उस विनाशकारी व्यवहार को न दोहराने की अवधि को बढ़ाते जाएँ।
  3. अपने जीवन की सकारात्मक दिशा एवं बोधिचित्त लक्ष्य की पुनःपुष्टि करें।
  4. सकारात्मक कार्यों से नकारात्मकता का प्रतिसंतुलन स्थापित करें - ऐसे विविध प्रकार के कार्यों का एक संचय है जिसका उपयोग किया जा सकता है।

यह हमारी तीन विषैली मनोदृष्टियों से उबरने में सहायता करता है:

  • उत्कट लालसा - किसी ऐसी वस्तु के लिए जो आपके पास नहीं है; आसक्ति - यदि आपके पास वह वस्तु है तो उसे त्यागने की इच्छा न होना; और लोभ - और अधिक पाने की चाह रखना
  • क्रोध या द्वेष 
  • कार्य और कारण अथवा वास्तविकता के प्रति मूढ़ता, समय के बारे में मूढ़ न होना।

हमारे विनाशकारी व्यवहार का यही आधार है। हम इन विषैली मनोदृष्टियों के प्रभाव के अधीन काम करते हैं, जो हमारे चित्त को विषाक्त करती हैं।

आनंद मनाना

सात शाखाओं में से चौथी है उन सकारात्मक कार्यों में आनन्दित होना है जो दूसरों ने और हमने किए हैं। दूसरों से तात्पर्य है वे सामान्य जीव, श्रावक, प्रत्येकबुद्ध, बोधिसत्व और बुद्ध। यह हमें ईर्ष्या और द्वेष से उबार सकता है।

जब हम इन अशांतकारी मनोभावों से उबरने की बात करते हैं, तो आप स्वयं को जॉंचने का प्रयास करते हैं - क्या मेरे भीतर ये अशांतकारी मनोभाव हैं? - और उन्हें देखने की चेष्टा करते हैं और इस प्रकार के अभ्यासों से युक्त साधना करते हैं, केवल यहाँ ध्यान-साधना में ही नहीं। जब आप किसी के सफल होने आदि के बारे में सुनते हैं, तो ध्यान दें कि क्या आपके भीतर ईर्ष्या करने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है: "ओह, काश मैंने ऐसा किया होता" या "काश ऐसा उनके साथ न होता। काश यह मेरे साथ होता,” इत्यादि। ऐसे समय में आपको आनंद मनाकर उसका प्रतिकार करना चाहिए। उनके लिए आनंदित होइए। शांतिदेव कहते हैं: यदि आप यह चाहते हैं कि सभी ज्ञानोदय प्राप्त कर लें, तो यदि वे किसी संसारी कार्य में सफल हो जाते हैं तो इससे आपको क्या समस्या है?

शिक्षाओं का अनुरोध

फिर पाँचवाँ है बुद्ध एवं शिक्षकों से शिक्षा देने का अनुरोध करना। इससे हमें शिक्षाओं को त्यागने या ठुकराने की प्रवृत्ति से बचने में सहायता मिलती है। "मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है। मुझे सब पता है।"

शिक्षकों से विनती करना कि वे मृत्यु को प्राप्त न हो जाएँ

फिर शिक्षकों से विनती करना कि वे मृत्यु को प्राप्त न हो जाएँ। इससे हम अपने शिक्षकों को अपशब्द कहने या तुच्छ समझने के दोष से बच सकते हैं - "मुझे आप नहीं भाते" या "मुझे आपके पढ़ाने की विधि नहीं भाती", इत्यादि - तब तो वे निश्चित रूप से ही चले जाएँगे। शिक्षक की उपेक्षा करना। "मुझे इस शिक्षक की आवश्यकता नहीं है।"

समर्पण

फिर सभी जीवों के ज्ञानोदय के लिए समर्पण। यह क्रोध को रोकने में हमारी सहायता करता है। क्रोध हमारी संचित सकारात्मक शक्ति का विनाश कर देता है। आप सकारात्मक शक्ति को संचित करते हैं, और एक अर्थ में, इसे मुक्ति या ज्ञानोदय की पुस्तिका में सहेजना चाहेंगे, न कि सांसारिक पुस्तिका में, और न ही इसे क्रोध से निर्बल करना चाहेंगे।

महान भारतीय आचार्यों के ग्रंथों में इसके बारे में दो कथन हैं:

  • शांतिदेव रचित बोद्धिसत्त्वाचार्य-अवतार  में वे कहते हैं कि बोधिसत्व पर क्रोध करने से सहस्त्रों युगों की संचित सकारात्मक शक्ति का विनाश हो जाता है। इसके भाष्यों में यह समझाया गया है कि यह विशेष रूप से ज्ञानोदय प्राप्ति में हमसे उच्च स्तर पर स्थित बोधिसत्व पर क्रोधित होने की ओर संकेत करता है।
  • चंद्रकीर्ति, अपने माध्यमकावतार  में कहते हैं कि क्रोध सैकड़ों युगों की संचित सकारात्मक शक्ति का विनाश कर देता है। टीकाओं के अनुसार, यह तब होता है जब हम स्वयं एक बोधिसत्व हैं और हम अपने क्रोध को उसी स्तर के दूसरे बोधिसत्व की ओर लक्षित करते हैं।

इस प्रकार यदि बोधिसत्व उच्च कोटि के हैं तो सहस्त्रों, और यदि वे समान स्तर के हैं तो सैकड़ों । इन दो ग्रंथों में संख्या की इस विसंगति का कारण यही है।

यह एक बहुत ही कठिन विषय बन जाता है। सबसे पहले, ग्रंथों से ऐसा लगता है कि यह बोधिसत्वों की ओर लक्षित क्रोध के बारे में बात हो रही है। और इसलिए प्रश्न यह है: क्या यह उस सकारात्मक शक्ति को नष्ट कर देता है जिसे मैंने सामान्य रूप से सभी वस्तुओं के लिए संचित किया है? और मैंने एक व्याख्या सुनी है कि यह केवल उस सकारात्मक शक्ति का विनाश करता है जो उस विशिष्ट बोधिसत्व के साथ संचित है - कि अब, उस विशिष्ट बोधिसत्व पर क्रोधित होने के कारण, उस सकारात्मक बल को नष्ट कर देता है। वास्तव में यही मुख्य व्याख्या थी जो मैंने सुनी है। अनादि जीवनकाल और सीमित संख्या में जीवों को देखते हुए, हमने सब के साथ अतिशय मात्रा में कर्म संचित किया है। तो यहाँ कर्म अति विशिष्ट है।

इसलिए आपको किसी ग्रन्थ की किसी विशेष पंक्ति की टीका में दी गई व्याख्या और सामान्य परामर्श के बीच अंतर करने की आवश्यकता है। सामान्य परामर्श: दूसरों पर क्रोध न करें, क्योंकि यह साधारणतः आपकी सकारात्मक शक्ति को विनष्ट कर देगा। जब ग्रन्थ ये अद्भुत संख्याएँ दे रहा है, तो यह अति विशिष्ट बात है। तो उन दोनों में विभेद करें; अन्यथा आप घबरा जाएँगे। "ओह, मुझे अपने कुत्ते पर गुस्सा आया, और अब मेरा सबकुछ बर्बाद हो गया। मैंने अपने सहस्त्रों युगों की संचित सकारात्मक शक्ति को नष्ट कर दिया है।" यहाँ, यह विभेद करने के लिए मानव मेधा का उपयोग नहीं हो रहा कि कब कोई शिक्षा लागू होती है और कब नहीं। किसी विशिष्ट शिक्षा के लागू होने या न होने का प्रसंग क्या है? शिक्षाओं के लागू होने के प्रसंग को जानें। एक मतान्ध व्याख्या को न अपनाएँ - कि केवल एक मच्छर पर गुस्सा करने से सहस्त्रों युगों की संचित सकारात्मक शक्ति का विनाश हो जाएगा। यदि ऐसा होता, तो हम में से किसी के लिए कोई उम्मीद न होती।

जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है (ब्कोम ) उसका अभिप्राय है सकारात्मक शक्ति को विनष्ट करना। इसका तात्पर्य उसे समूल मिटा देना नहीं है। इसका आशय है कि इसके परिपक्व होने में बहुत अधिक समय लगेगा, और जब यह परिपक्व हो जाएगा तो यह अति लघुतर बल के साथ परिपक्व होगा। इस शब्द का यही भाव है। तो फिर आपको सदैव प्रयोग किए गए शब्दों के अर्थ को देखना होगा, परन्तु प्रायः उनका अनुवाद ऐसे शब्दों से किया जाता है जो सही अर्थ को व्यक्त नहीं करते। इसलिए जब आप किसी शब्द से उलझन में पड़ जाएँ, तो सदैव शिक्षक से यह पूछें कि उस शब्द की परिभाषा क्या है। यदि वे वाद-विवाद की विधि में ठीक से प्रशिक्षित हों तो तिब्बती गेशे आपको उचित परिभाषाएँ दे सकते हैं। उन्हें सभी परिभाषाओं को कंठस्थ करना होता है।

मंडल अर्पण

फिर हम मंडल का निवेदन अर्पण करते हैं [यह भी देखें: मंडल क्या है? ]। यह कैसे करना है इसके बारे में अनेक निर्देश उपलब्ध हैं। यह उन्हें आपके साथ सांझा करने का उचित अवसर नहीं है। परन्तु एक स्तर पर हम पूरे ब्रह्मांड को अर्पित कर रहे हैं। "मैं सब कुछ देना चाहता हूँ ताकि अन्य लोग लाभान्वित हो सकें।" मंडल इसी को द्योतित करता है। यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि ब्रह्मांड की कल्पना या प्रतिनिधित्व हम मेरु पर्वत और महाद्वीपों के रूप में करते हैं या पृथ्वी या सौर-प्रणाली या आकाशगंगा इत्यादि के रूप में। बात यह है कि यह सब कुछ है।

त्सोंगखपा के लाम-रिम चेन-मो  (मार्ग के क्रमिक चरणों की भव्य प्रस्तुति ) में वर्णित दान की पारमिता के अभ्यास पर उनकी अद्भुत शिक्षाओं को याद करें। जब हम एक आकांक्षी बोधिसत्व के रूप में एक तुच्छ अर्पण करते हैं, तो यह सबको सबकुछ देने का एक प्रारूप मात्र है। और इसलिए सबको सबकुछ देने के संदर्भ में, मैं अपने कुत्ते को एक कटोरा-भर जल दे रहा हूँ। वह वस्तु जो मैं अर्पित कर रहा हूँ, सभी वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करती है, तथा कुत्ता सभी जीवों का। इसलिए हम मंडल के अर्पण द्वारा उस क्षेत्र को प्राप्त करने के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करते हैं जहाँ वह अर्पित वस्तु वास्तव में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है और सबके लिए है।

दूसरे स्तर पर, यदि आप मंडल अर्पण छंद के शब्दों को देखते हैं, तो हम यह भी कल्पना कर रहे हैं कि सब पुण्य-क्षेत्र हैं, और इसलिए हम पुण्य-क्षेत्र की परिस्थितियों का अर्पण कर रहे हैं - जैसे वह जो आर्य बोधिसत्वों के पास उनके परिवेश के रूप है जब वे बुद्धजनों से अपने सम्भोगकाय रूप में शिक्षण प्राप्त करते हैं। इसलिए हम कल्पना करते हैं "सभी के पास अध्ययन और अभ्यास के लिए सबसे उत्तम परिस्थितियाँ हों।"

छठा अभ्यास: वंश-परम्परा के आचार्यों से उत्प्रेरित होकर अपने मानसिक सातत्य को अनुप्राणित करना

छठा आरंभिक अभ्यास है विनती करने के दिशानिर्देशों के अनुसार वंश-परम्परा के आचार्यों की प्रेरणा के साथ अपने मानसिक सातत्य को अनुप्राणित करना। इसलिए हम अपने आध्यात्मिक गुरु, बुद्ध, से न केवल अपने ध्यान सत्र-काल में, अपितु सदा सर्वत्र अपने साथ रहने की विनती करते हैं।

हमारे पास विनती करने के बहुत सारे छंद हैं, और साथ ही बहुत सारे अभ्यास भी, और प्रायः इस या उस के लिए मुझे आशीर्वाद दें  के रूप में इनका अनुवाद किया जाता है। यह अत्यधिक भ्रामक अर्थ-छवि प्रदान करता है। हम जो चाहते हैं वह है प्रेरणा, और हम स्वयं को उद्बुद्ध कर रहे हैं: मुझे प्रेरित करें, मेरा उत्थान करें, मुझे प्रतिभावान बनाएँ। ये सभी ब्यिन-ग्यिस र्लाब्स  के अर्थ हैं जो दुर्भाग्यवश मुझे आशीर्वाद दें  के रूप में अनूदित हुए हैं।

बुद्ध अपनी ज्ञानवर्धक गतिविधि, ट्रिनली  ('फ्रिन-लास ) के कारण प्रेरणा दे रहे हैं। उनकी ज्ञानवर्धक गतिविधि वास्तव में समुदाचार है। ग्रंथ हमेशा यही कहते हैं कि बुद्धजनों को कुछ भी नहीं करना होता; उनका अस्तित्व मात्र ही सभी को प्रेरित कर उनका उत्थान करता है। तो यह है ज्ञानवर्धक गतिविधि, जिसका अनुवाद मैं बुद्ध के समुदाचार के रूप में करना पसंद करता हूँ। ऐसा नहीं है कि बुद्ध यों ही इसकी उसकी सहायता कर रहे हैं - यद्यपि ऐसे भी स्वरूप हैं जो इस प्रकार के कार्य करते हैं - परन्तु बुद्ध के लिए यह एक सहज बात है।

तो ऐसा नहीं है कि हमें इसके लिए विनती करनी होगी क्योंकि यदि हम ने विनती नहीं की होती तो कोई बुद्ध इस समुदाचार का विनियोग नहीं करते। समुदाचार सूर्य के समान है; यह सदैव जाज्वल्यमान रहता है। मुख्य विषय यह है कि विनती करके हम उस समुदाचार को ग्रहण करने के लिए स्वयं को तैयार करते हैं। शिक्षण के संदर्भ में हम यह सुनते हैं कि आपको सदैव शिक्षक से पढ़ाने की विनती करनी पड़ती है - शिक्षक अपनी ओर से यह प्रस्ताव नहीं करने वाला; वह तभी पढ़ाएगा जब पढ़ाने की विनती की जाएगी। आपको यह बात ठीक से समझनी होगी। शिक्षक सदैव पढ़ाता रहता है। बुद्ध हमेशा इस समुदाचार का विनियोग करते रहते हैं। सूरज सदैव चमकता रहता है। परन्तु हम उस शिक्षा को तब तक प्राप्त नहीं करेंगे जब तक हम, एक अर्थ में, विनती नहीं करते, तो अपने मन के द्वार को खोल दें। यही है विनती करने का तात्पर्य।

हम गुरु से विनती करते हैं कि वे आएँ, हमारे शीर्ष-स्थित पदमचंद्रासन पर विराजें - वैसे तो बुद्ध सर्वव्यापी हैं और यह केवल आलंकारिक है - ग्रहणशील बन जाएँ, मेरे साथ रहें, असीम दयालुता से मेरी सुधि लें, और मुझे काया, वाक्, एवं चित्त की सिद्धियाँ प्रदान करें ताकि मैं भी आप जैसा बन सकूँ। तो सामने से बुद्ध की एक प्रतिछवि आपके शीर्ष पर विराजमान हो जाती है - यह सूक्षम है, प्रकाशमयी है, पारदर्शी है, इसलिए यह ऐसा नहीं है कि "ओह, यह कितना भारी है" - और आप अपने सामने विराजमान बुद्ध से विनती करते हैं कि वे आपकी ओर प्रकाश की किरणों के रूप में प्रेरणा की तरंगें भेजें। यह प्रकाश हमारे अन्तःकरण में प्रवेश करता है, हमारी काया को ज्योतिर्मय बना देता है, हमारी अग्रहणशील मनोदृष्टियों के अंधकार, मानसिक बाधाओं, को दूर कर देता है। तब यह सामने विराजमान बुद्ध हमारे सिर पर स्थित प्रतिछवि में विलीन हो जाते हैं - वास्तविक अनुष्ठान ग्रंथों में हम फिर से एक छोटा-सा सप्तांग अभ्यास तथा मंडलार्पण करते हैं - और फिर यह हमारे पूरे ध्यान-साधना के दौरान वहीं विराजमान रहते हैं, हमारे सिर के ऊपर, यह चेताने के लिए कि अपने ध्यान को केंद्रित करें, मानसिक रूप से न भटकें, अंतर्दृष्टि प्राप्ति हेतु उन्मुक्त और ग्रहणशील बनें रहें, और ध्यान-साधना पर्यन्त अपने मन की विभिन्न अवस्थाओं को वास्तव में जागृत करें या, यदि हम न्गोंद्रो का सत्र कर रहे हैं तो हमारे प्रारंभिक अभ्यास करें।

साधारणतः यदि आप उसके बाद ध्यान-साधना करने जा रहे हैं, तो, प्रेरणा प्राप्ति हेतु, आप मंजुश्री प्रार्थना  करेंगे: सर्वज्ञ की स्तुति - जिसे तिब्बती में गंगलोमा  कहा जाता है - और इसके साथ विभिन्न प्रकार के मानस चित्रण भी हैं ताकि हमारी बुद्धि कुशाग्र बन जाए।

दिन के शेष भाग में हम गुरु को अपने सिर पर विराजमान भी रख सकते हैं। यदि हम बहुत सारे न्गोंद्रो साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं, तो उसे बहुत शाब्दिक मत बनाइए - यदि मैं साष्टांग प्रणाम करूँगा तो गुरु मेरे सिर से लुढ़क जाएँगे। जब आप साष्टांग प्रणाम करते हैं तो आपके बाल आपके सिर से गिर तो नहीं जाते, है न?

जब लोग चिंतित होते तो सरकाँग रिन्पोचे के पास कई अद्भुत उदाहरण होते थे, जैसे: "मैं दिन के कामों में लगा रहता हूँ, तो मैं कैसे कल्पना करूँ कि मैं इन सभी हाथों, पैरों इत्यादि से युक्त इस देवता के रूप में हूँ।" उन्होंने कहा, "तुम दिनभर अपने कपड़े पहने रहते हो, है न?" तो चाहे आप इस बात से अवगत हों या न हों कि आपके कपड़े कैसे दिखते हैं और आप कैसे दिखते हैं, इत्यादि, आप फिर भी दिनभर अपने कपड़े पहने ही रहते हैं, तो इसी प्रकार आप भी बुद्ध-आकृति के इस रूप में ही हैं।

जो भी हो, मानस दर्शन का एक वैकल्पिक मार्ग भी है जिसमें आप यह कल्पना कर सकते हैं कि गुरु, जो आपके सिर पर विराजमान थे, आपके हृदय में प्रवेश कर गए हैं।

निष्कर्ष

यह वह छः-भाग की प्रारम्भिक तैयारी है तथा एक अत्यंत उपयोगी अभ्यास भी जिसे हमारे ध्यान-साधना सत्र के आरम्भ में अथवा प्रारम्भिक अभ्यासों के सत्र के आरम्भ में किसी न किसी रूप में किया जाना चाहिए। आप उनमें से कईयों को सभी लंबी तांत्रिक साधनाओं की शुरुआत में भी देख सकते हैं। शरणागति, बोधिचित्त, कुल-परंपरा प्रार्थना और प्रेरणा की विनती तो सदैव है ही। ये सब हमारी सभी साधनाओं के अनिवार्य अंग हैं।

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