बहुमूल्य मानव जीवन सम्बन्धी ध्यान-साधना

भूमिका

आज की संध्या का विषय है विश्लेषणपरक ध्यान-साधना | आत्म-शोधन की दृष्टि से जीवन तथा बोधिचित्त में सुरक्षित, एवं सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ने के तीन चरण हैं:

  • प्रवचन का श्रवण करना
  • फिर उनका चिंतन अथवा स्मरण करना
  • इसके पश्चात उनकी ध्यान-साधना करना

सभी इस पर सहमत हैं | यह सर्वस्वीकृत बौद्ध-धर्मी शिक्षा है |

शांत होना

श्वास पर ध्यान केंद्रित करना - जिसे कुछ लोग शमथ का पूर्ण रूप मानते हैं - इन तीनों के लिए केवल एक प्रारम्भिक तैयारी है | प्रवचन का श्रवण करने से पहले हमें शांत होना चाहिए; उनपर चिंतन एवं स्मरण करने से पहले हमें शांत होना चाहिए; हमें ध्यान-साधना करने से पहले शांत होना चाहिए, और श्वास पर ध्यान केंद्रित करके ऐसा किया जा सकता है | केवल शांत होने से ही हम एकाग्रचित होकर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकते हैं, और न ही उससे हमारी समस्याओं के कारणों का तिरोभाव होता है (यद्यपि उससे इन बाधाओं का सामना करने के लिए हमारा मन निर्मल हो जाता है) |

निस्संदेह, श्वास पर ध्यान केंद्रित करना पूर्ण एकाग्रता को प्राप्त करने का एक उद्देश्य माना जा सकता है, परन्तु, मन को शांत करने के लिए किया गया केन्द्रीकरण पूर्ण एकाग्रचित्त अवस्था तक नहीं पहुँचाता है | और, वास्तव में, यदि इस पर गहराई से विचार करें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल थेरवाद में कहा गया है कि श्वास पर ध्यान केंद्रित करने से हम पूर्ण रूप से एकाग्रचित्त हो सकते हैं | श्वास पर ध्यान केंद्रित करना एक अनुभूति है -  यह भौतिक संवेदन का अवबोधन है - और महायान प्रथा के अनुसार, जिसे तिब्बती परम्परा में मान्यता प्राप्त है, पूर्ण रूप से एकाग्रता प्राप्त करने के लिए ऐन्द्रिक बोध की नहीं, अपितु चित्त बोध की आवश्यकता है |

अतः, तिब्बती बौद्ध परंपरा के अनुसार हमें श्वास पर ध्यान केंद्रित करके शांत होने से भी आगे बढ़ना है | यह तो प्राथमिकी है |

श्रवण

अच्छा, तो हमें प्रवचन सुनना है, तथा उनका मनन, एवं तत्पश्चात ध्यान-साधना  भी करना है | इन तीनों चरणों के प्रत्येक चरण से हम सविवेकी सचेतनता प्राप्त करते हैं (इसे साधारणतया विज़डम  (प्रज्ञा ) कहते हैं, परन्तु विज़डम  बहुत ही अस्पष्ट है) | पहले हमें किसी वस्तु का विभेद करना है | इसे प्रायः "अभिज्ञान" कहते हैं | जैसे चाक्षुषेन्द्रिय क्षेत्र में  होता है - दीवार पर लगे चित्र में किसी के चेहरे का विभेद उसके रंग-रूप से किया जाता है, जिससे हम उसके सभी सम्बद्ध तत्वों से निपट सकें तथा गहन प्रकृति का बोध प्राप्त कर सकें |  इस प्रकार, वह प्रथम चरण है, विभेदन | और  सविवेकी सचेतनता उसमें निश्चयात्मकता का सन्निवेश करती है: "यह निश्चित रूप से यह  है, वह  नहीं |" सविवेकी सचेतनता का यही अर्थ है (जैसे में कहता हूँ, अनुवाद में यह प्रायः विज़डम  हो जाता है, परन्तु हम जिस विषय का उल्लेख यहाँ कर रहे हैं, विज़डम  उसका सही तात्पर्य व्यक्त नहीं कर पाता) |

इन शिक्षाओं को सुनने से हमारे भीतर श्रवण की सविवेकी सचेतनता का उदय होता है, अर्थात हम बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं को पहचान पाते हैं | इसका अर्थ यह है कि हम बौद्ध धर्मी कथन तथा अन्य कथनों (हम उन्हें ग़ैर-बौद्ध कथन भी कह सकते हैं ) के अंतर को समझ सकते हैं, और दृढ़ता से कह सकते हैं: "यह बौद्ध-धर्मी शिक्षा है |" इस शिक्षा से यदि हमें किसी लक्ष्य को प्राप्त करना है, तो हमें यह निश्चित रूप से तय करना होगा कि ये बौद्ध शिक्षाएँ हैं, नहीं क्या?

अतः, इस चरण में हमारा धर्म के शब्दों से परिचय होता है, परन्तु हमें यह नहीं पता कि उनका अर्थ क्या है | उदाहरण के  लिए, मैं एक अमूल्य मानव शरीर से युक्त हूँ | हम इस कथन को ग़ैर-बौद्ध कथनों से विलग कर सकते हैं | यथा, हम अमूल्य मानव शरीर से युक्त हैं, और हम यह मानते हैं कि यह सत्य है क्योंकि हमारे भीतर बौद्ध-जनों के लिए आदर है, परन्तु हमें अभी इसका वास्तविक बोध नहीं हुआ है | हम यह जानते हैं कि बौद्ध सिद्धांत यह नहीं कहते कि मानव जीवन निरर्थक है, उसका कोई उद्देश्य नहीं हैं, तथा जीवन का प्रयोजन नहीं है | हमने समझा: "ठीक है, बौद्ध कथन के अनुसार हमारे पास एक बहुमूल्य मानव जीवन है |"

चिंतन

अब हमें दूसरे चरण पर जाना है, जो है अर्थ समझने के लिए उसका चिंतन करना | अर्थात,बहुमूल्य मानव जीवन की परिभाषा पर चिंतन करना - उसका तात्पर्य क्या है - और उसकी तर्क-प्रणाली कि वह बहुमूल्य क्यों है | यदि हम इसे समझ लेते हैं, तो क्या हम वह सिद्धांत नहीं समझ सकेंगे ? तो हमें इससे आगे बढ़ना होगा | हमें बहुमूल्य मानव जीवन के अट्ठारह विशिष्ट लक्षण समझने होंगे | उदाहरणार्थ, मैं एक पशु हूँ | हमारा इस कथन से कोई जैविक तात्पर्य नहीं है - कि हम वनस्पति नहीं हैं; हम पशु हैं | हम उस उद्देश्य से नहीं कह रहे हैं | मनुष्य वह जीव है जो उपयोगी एवं हानिकारक भावों में भेद कर सकता है, और समझ सकता है, विचार-विनिमय कर सकता है, इत्यादि |

तो हमें -  मैं एक पशु नहीं हूँ - इसका तात्पर्य समझना होगा और उसकी तर्क-प्रणाली पर विचार करना होगा, और इस बात को मानना होगा कि यह किसी प्रमेय को सिद्ध करता है | यहाँ प्रमेय यह है कि मानव, न कि किसी ग़ैर-मानव शरीर में जन्म लेना धर्म की साधना और सिद्धि के लिए अनमोल है | प्रमेय का अर्थ है जिसे हम प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं | मानव शरीर में जन्म लेना, पशु योनि में नहीं, धर्म के अनुशीलन और अवबोधन के लिए अमूल्य है | और उसकी तर्क-प्रणाली यह है कि एक पशु के रूप में मैं पाशविक प्रवृत्तियों के शक्तिशाली और दुर्दमनीय प्रभाव के अधीन रहूँगा | पाशविक प्रवृत्तियाँ क्या हैं? शिकार करना और मारना | अपने अधिकार-क्षेत्र की रक्षा करना, एक कुत्ते की तरह, जो अपने अधिकार-क्षेत्र में किसी के आने से, भौंकता है | और अन्य पशुओं के साथ जब मन किया तो विषय-भोग करना | एक पशु होने के कारण हमारी लाभ-हानि के भेद को समझने की दीर्घकालीन शक्ति निर्बल रहेगी | स्पष्टतः अल्पावधि में तो वे भेद कर सकते हैं - आप शेर से दूर भाग जाएँगे क्योंकि वह लाभप्रद है | परन्तु दीर्घकाल में वे लाभदायक और हानिकारक विषयों में भेद नहीं कर पाते | तो यदि मैं ऐसे ही रहूँगा तो धर्म साधना नहीं कर सकूँगा |

आपको उसके बारे में सोचना होगा और कल्पना करनी होगी कि वह क्या कह रहा है।  हम उस परिदृश्य की कल्पना करने का प्रयास करते हैं कि यदि हम पशु होते और स्वयं को उस पाशविक योनि के दोषों के बारे में विश्वास दिलाने का प्रयास करते तो कैसा होता।  यदि मेरे अंदर शिकार करने की सहज प्रवृत्ति होती, यह शक्तिशाली सहज प्रवृत्ति…मेरा मतलब, एक बिल्ली को ही देख लीजिए जो किसी कीड़े या चूहे के पीछे भागती है - उसे खाने के लिए नहीं - उसे केवल यातना देने और पकड़ने के लिए। यदि यह मेरी स्वातः उत्पन्न होने वाली सहज वृत्ति होती, एक तीव्र आवेग, कि जब मैं किसी छोटे जीव को धरती पर चलते देखूँ…यदि मेरी यंत्रवत सहज प्रवृत्ति इतनी दुर्दमनीय होती तो मैं अपना आत्म-सुधार कैसे कर पाता ?

वास्तव में, अपने व्यवहार की समीक्षा करना अत्यंत रोचक है | जब हम किसी मक्खी, या तिलचिट्टे, या मच्छर को कमरे में देखते हैं, तो हम शिकार के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं और हम ध्यान नहीं लगा पाते हैं - हम कुछ भी नहीं कर पाते हैं - जब तक हम अपने शिकार को पकड़कर मार नहीं देते | हम ध्यान-साधना नहीं पाते हैं, हम अध्ययन नहीं कर पाते हैं - हम कुछ भी नहीं कर पाते हैं जब तक - हम उस प्राणी को मार नहीं देते | जैसे मैं कहता हूँ, किसी भी विषय को एक असंगत परिणाम तक ले जाना बहुत लाभदायक होता है | हम अपने हास्यास्पद व्यवहार की परम मूर्खता को तब समझते हैं जब हम अपने को शिकारी टोप पहने हाथ में बन्दूक लिए अफ्रीकी शिकारयात्रा पर जाते हुए कल्पित करते हैं | फिर हम क्यों न मच्छर को कमरे से भगाने के प्रयास को बनाए रखें, कम-से-कम हमारे काम करने की अभिवृत्ति में बदलाव तो आएगा ही।  हम केवल शिकार पर निकले पशु नहीं हैं |

फिर, यदि हम पशु होते, और अन्य पशु हमारा निरंतर शिकार करते जो हम पर किसी भी समय आक्रमण कर सकते थे - तो हमें सदा सतर्क रहना पड़ता - ऐसे में हमें वह अनुकूल परिस्थिति प्राप्त नहीं होती जब हम चिंतन के लिए शांत एवं एकाग्रचित्त हो सकें।

इस प्रकार, यदि हम पशुओं के अन्य विशिष्ट लक्षणों को परखें - उनके लैंगिक व्यवहार, उनकी क्षेत्राधिकारिता, इत्यादि - और समझें कि यदि ये हमारी मूल प्रवृत्ति होती, तीव्र प्रवृत्ति, तो पुनः हमारी प्रगति में बाधा पड़ जाती ।

या फिर, यदि हमें सदा भारी भरकम सामान खींचना होता - जैसे भारत में बैल जिसे भारी भरकम सामान खींचना पड़ता है (और उस पर सदा कोड़े आदि भी बरसाए जाते हैं) - तो उससे भी हमें साधना करने में तकलीफ होती। इस प्रकार, जब हम इस उदाहरण को परखते हैं, पशु होकर जन्म लेने के इस संकेत को, तो हमें इसे प्राचीन भारत के सन्दर्भ से जोड़ना चाहिए। हम बैम्बी या किसी धनवान के घर के कुत्ते की बात नहीं कर रहे हैं। हम एक तिलचट्टे की बात कर रहे हैं। हम सड़क के कुत्ते की बात कर रहे हैं।  हम एक लद्दू जानवर की बात कर रहे हैं। 
तो यहाँ हमें एक निर्धारक लक्षण प्राप्त हुआ है, और हम यह समझते हैं कि हम ऐसे नहीं हैं। अतः मैं इससे मुक्त हूँ। और, चूंकि मैं इससे मुक्त हूँ, मुझे धर्म की साधना करने का अवसर और स्वतन्त्रता है। इसलिए मेरा मानव जीवन अमूल्य है।

अब हम केवल इस चरण पर कुछ समय बिताते हैं । पशुओं के सन्दर्भ में हम इस बात को समझते हैं, और हम यह भी समझते हैं कि हम उससे मुक्त हैं, और चूंकि हम उससे मुक्त हैं हमारे पास साधना करने का अवसर है।

ठीक है। हम यह समझते हैं कि हम पाशविक सहज वृत्ति के पूर्णतया अधीन नहीं हैं:

  • मुझे धरती पर चलने वाले किसी भी जीव पर झपट्टा मारने और कुचलने की आवश्यकता नहीं है।
  • जब अन्य सभी पशु भौंकते हैं तो मुझे भी भौंकने की या उनका किसी भी प्रकार अनुकरण करने की आवश्यकता नहीं है।
  • मुझे किसी भी पशु को दबोचने की आवश्यकता नहीं है - जैसे ही मुझे किसी पशु ने आकृष्ट किया, तो मुझे उसे दबोचना ही है |

मेरे भीतर इस प्रकार की पाशविक प्रवृत्तियों के होने पर भी मुझे उन्हें कर डालने की आवश्यकता नहीं है। मैं एक मनुष्य हूँ। मेरे भीतर उचित-अनुचित का भेद करने की शक्ति है | यह कारण है मेरे अमूल्य मानव जीवन का, और मेरे अमूल्य मानव जीवन का उद्देश्य | वह उद्देश्य है धर्म का अध्ययन और उसकी साधना करने में समर्थ होना, न कि बहुत सारा धन इकट्ठा करना।

तो, इस चरण में हम क्या कर रहे हैं? धर्म का चिंतन और मनन। हम केवल शब्दों पर निर्भर नहीं हैं | यह पहला कदम है | परन्तु, एक बहुमूल्य मानव जीवन के विशिष्ट अथवा पारिभाषिक लक्षणों और हमारी अपनी स्थिति पर भरोसा करके, तथा एक वैचारिक दिशा पर पर निर्भर होकर, हमें एक आनुमानिक बोध प्राप्त होता है | अनुमान  का तात्पर्य है एक वैचारिक दिशा पर निर्भर करना - इसके  कारण मैं वह  जानता हूँ।  और हमें सविवेकी सचेतनता प्राप्त होती है जो चिंतन से उदित होती है, और वह एक सार्थक सिद्धांत पर केंद्रित होती है, न कि किसी निरर्थक शब्दों वाली राय पर। तो यहाँ वह सार्थक सिद्धांत है, "मेरा जीवन अमूल्य है क्योंकि मुझे पशु बनने से मुक्ति मिल गई है” और यह निश्चित है। यह इसमें विभेद करता है। यह इसका अन्य कारणों तथा अनिश्चित परिभाषाओं आदि से विभेद करता है। और यह इस विषय पर निश्चित है।

आइए हम उस सविवेकी सचेतनता पर ध्यान केंद्रित करते हैं: "मेरा जीवन अमूल्य है क्योंकि मुझे पशु बनने से मुक्ति मिल गई है।" हम उस ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वास्तव में इसका क्रम उलटा होना चाहिए: "मुझे पशु बनने से मुक्ति मिल गई है। इसलिए मेरा जीवन अमूल्य है"।   दूसरे शब्दों में, हम एक वैचारिक दिशा पर निर्भर करते हैं, तत्पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, और हमें उसी वैचारिक दिशा पर बार-बार निर्भर करना होता है।
इन पहले दो चरणों, श्रवण और स्मरण, में बहुत बड़ा अंतर है। इन दोनों से हमें प्राप्त होने वाली सविवेकी सचेतनता काफ़ी भिन्न होती है।

  • पहला: "मेरे पास अमूल्य मानव जीवन है।" आप जानते हैं कि वह एक बौद्ध सिद्धांत है - उसमे कोई संदेह नहीं - परन्तु हम केवल उसका अनुमान लगा सकते हैं। हमें उसका कारण नहीं पता। हमें उसका वास्तविक अर्थ नहीं पता।
  • परन्तु, दूसरे से हम यह जानते हैं कि अमूल्य मानव जीवन का अर्थ क्या है, हमें पता है वह हमें क्यों मिला है (उसका कारण क्या है), तथा यह भी पता है कि उसके अमूल्य होने का उद्देश्य क्या है (कि हम उससे धर्म की साधना कर सकें)। और इस प्रकार उसे बिना समझे ही सत्य मानने के बदले, हम इस निष्कर्ष पर पहुँच पाते हैं और अनुमान के द्वारा प्रामाणिक रूप से जान पाते हैं। इसका अर्थ है कि हम इस बात पर निर्विवाद हैं।  हमारा दृढ़ मत है कि, “मेरे पास वास्तव में अमूल्य मानव जीवन किन्हीं निश्चित कारणों और उद्देश्यों के लिए है"।

शास्त्रार्थ

अब यहाँ शास्त्रार्थ इस दृढ़ मत को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगा, क्योंकि, शास्त्रार्थ अनिर्णायक अस्थिरता अथवा अस्पष्ट अर्थ या विचार को समाप्त करने में सहायता करता है। हम अनिश्चित नहीं होंगे।  हम विचलित नहीं होंगे: क्या मेरे पास यह है? क्या मेरे पास नहीं हैं? क्या इसका अर्थ यह है? क्या इसका अर्थ वह है? क्योंकि दूसरे लोग हमारे सिद्धांतों में हमसे अधिक त्रुटियाँ ढूँढ़ लेंगे। यदि आप अकेले में अपने ज्ञान को परखेंगे तो आपको सहज रूप से उत्त्तर मिलेगा, "अब बहुत हो चुका ।" दूसरे लोग हमारे सिद्धांतों में दोष और त्रुटियाँ बहुत प्रभावी ढंग से ढूँढ़ लेंगे, और वे उसपर हम से कहीं अधिक दृढ़-प्रतिज्ञ होकर उत्साहपूर्वक डटे रहेंगे। शास्त्रार्थ में कभी-कभी आप भावावेश की उस स्थिति तक पहुँचते हैं जहाँ आप कहते हैं, "बहुत हो गया। मुझे अकेला छोड़ दो।" यदि आप इसे ध्यान-साधना में स्वयं करते होते, तो निःसंदेह आप बहुत पहले ही हार मान चुके होते। यही कारण है कि तिब्बती परंपरा में शास्त्रार्थ की पद्धति पर बल दिया जाता है। उसका उद्देश्य है कि हम सिद्धांत को बिना किसी अनिश्चित्तता के दृढ़ मत होकर समझें।

विश्लेषणपरक ध्यान-साधना

तो इन शिक्षाओं पर चिंतन-मनन करना होता है। इसके पश्चात उसकी ध्यान-साधना करनी होती है।  मेरा अर्थ यह है कि लोग प्रायः ध्यान-साधना को दूसरा चरण समझते हैं, परन्तु वह वास्तव में इन शिक्षाओं का चिंतन-मनन है। ध्यान-साधना तो उससे परे है। परन्तु, निःसन्देह हम ध्यान-साधना तब तक नहीं कर सकते जब तक इस दूसरे चरण को पार नहीं कर लेते। जब तक आप तत्त्व-ज्ञान को समझ नहीं लेते और उसके यथार्थ को मान नहीं लेते, आप पूर्णतया उसकी ध्यान-साधना नहीं कर सकते। एक ओर आप विषय को समझकर उसे पूर्ण रूप से असत्य मान सकते हैं, परन्तु हम बात कर रहे हैं उसको समझने और सत्य मानने की। क्योंकि ध्यान-साधना इस समझ और दृढ़ मत को हमारे दैनिक जीवन में समेकित करने का चरण है।

तो, पहले हम विश्लेषण-परक ध्यान-साधना करेंगे, जिसे मैं “विवेकी ध्यान-साधना” कहना पसंद करूँगा, और उसके पश्चात स्थिरकारी ध्यान-साधना। ये दोनों शिक्षाओं को समाहित करने और आत्मसात करने के लिए हैं। अब, विवेकी ध्यान-साधना के लिए हम मुख्यतः दो मानसिक कारकों का उपयोग करते हैं (इसपर बल दिया जा रहा है; निःसन्देह अन्य कई मानसिक कारकों का भी उपयोग करना है - जैसे एकाग्रता, आदि )। मैं उनका सकल पहचान (रतोग पा ) तथा सूक्ष्म प्रभेद (दपयोद-पा ) के रूप में अनुवाद करना पसंद करता हूँ। कुछ संदर्भों में इन दो वाक्यांशों का अर्थ "जाँच" एवं "संवीक्षण" होता है। 
इन दो मानसिक कारकों को कैसे समझें? चलिए, हम ग्रन्थ-सम्पादन का उदाहरण लेते हैं।  यहाँ हम अपनी अथवा दूसरों की रचना की त्रुटियों का पता लगाने के लिए पढ़ते हैं। पहले हम मोटे रूप से जाँच करेंगे, और छपे हुए पन्ने में त्रुटियाँ खोज निकालेंगे। आप सतही तौर पर भी त्रुटियों का पता लगा सकते  हैं। फिर आप बारीकी से छान-बीन करके उसके सूक्ष्म अर्थ को पहचानेंगे। क्या आप इस भेद को देख पाते हैं? तो वह है जाँच, जो घटनाओं की सकल पहचान है, और उसके बाद ध्यान से जाँचना, जो घटनाओं का सूक्ष्म विवेकी भेद है।

तो, हमें अपने अमूल्य मानव जीवन की विश्लेषण-परक अथवा विवेकी ध्यान-साधना के लिए क्या करना है? हम अपने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और इस बात की जाँच और संवीक्षा करेंगे कि हमारे पशु न होने के निर्धारक लक्षण क्या हैं। तो हम सतही तौर पर जाँच  करेंगे, और हमारी वैसा होने की स्वतन्त्रता को पहचानेंगे। इस जाँच-पड़ताल से हम क्या पाएँगे? हम यह पाएँगे कि हम ज्ञान अर्जित कर सकते हैं, सम्प्रेषण कर सकते हैं, और पशुओं से अधिक परिष्कृत स्तर पर व्यवहार कर सकते हैं। ठीक? तो वैसा ही कीजिए। इसे व्यक्तिगत रूप से कीजिए, केवल  शब्दों में नहीं । हम ने दूसरा चरण कर लिया। याद है न कि इन शब्दों के अर्थ हैं? हम इन तथ्यों को पहचान सकते हैं, जैसे:

  • मैं ज्ञान अर्जित कर सकता हूँ।
  • मैं सम्प्रेषण कर सकता हूँ।
  • मैं पशुओं से अधिक परिष्कृत भाव से व्यवहार कर सकता हूँ।

ठीक है, तो हमने पशु न होने की स्वतंत्रता को पहचान लिया ।  फिर हम छान-बीन करते हैं और समझते हैं कि यद्यपि हम पशुओं जैसा व्यवहार करते हैं - उदाहरण के लिए, हमारा यौन-व्यवहार जैसे डिस्को जाना, संभावित जोड़ीदार के पृष्ठ भाग को सूंघना, और एक-रात के यौन सम्बन्ध - परन्तु हम ये सब करने के लिए बाध्य नहीं हैं। हम ये सब करने के लिए विवश नहीं हैं।  हम विभेद करके अपने व्यवहार को बदल सकते हैं। अतः हम उस विवेकी-भेद पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि हम पशु नहीं हैं। ये हमारे व्यवहार के सूक्ष्म विवरण हैं । 
हम चाहे किसी जोड़ीदार के लिए भटक रहे हों, या अपने घर में मच्छरों और तिलचट्टों  का शिकार कर रहे हों, या कुछ और कर रहे हों, हम यह समझने का प्रयास करते हैं, "अरे, मैं ऐसा व्यवहार करता तो हूँ, परन्तु मैं वास्तव में ऐसा करने के लिए विवश नहीं हूँ।  मैं चाहूँ तो चयन कर सकता हूँ। यह आवश्यक नहीं है कि मुझे ऐसा ही रहना है। मैं एक मानव हूँ। अंततः मैं पशु नहीं हूँ। मुझे अन्य सभी कुत्तों की भाँति भौंकना नहीं है। यदि कोई यह कहे कि तुम्हें इस  लम्बाई के कपड़े पहनने चाहिए न कि उस  लम्बाई के, तुम्हें अपने बाल ऐसे  रखने चाहिए न कि वैसे, या तुम्हें यह  गाना गाना चाहिए न कि वह  गाना, तो हमें वैसा करने की आवश्यकता नहीं है। हम पशु नहीं हैं कि दूसरों के भौंकने पर हम भी भौकें।" हम एक प्रासंगिक विषय को लेते हैं। जब सब लोग "युद्ध, युद्ध, युद्ध" चीख़ रहे हैं, तो हमें भी "युद्ध, युद्ध" का शोर मचाने की आवश्यकता तो नहीं है न? हम पशु नहीं हैं कि जब सब भौंके, तो हम भी भौंकें।

तो हम इस गूढ़ विवरण से यह अनुभव करते हैं कि "मैं वास्तव में पशु नहीं हूँ"। ऐसा करो। हम वह पशु नहीं हैं जो एक कुत्ते की तरह एक जगह बैठे रहें जब तक अपने स्वामी की आज्ञा न हो कि "जाओ, वह हड्डी ले आओ"।  हमारे भीतर सोचने की क्षमता है ।

उस जाँच-पड़ताल तथा विवेकी बोध को बनाए रखते हुए, विशेष रूप से उस विवेकी बोध को, कि हम कोई पशु नहीं हैं, हम उस तर्क-प्रणाली की फिर से जाँच करते हैं:

  • यदि हम पशु होते तो हम धर्म का पालन नहीं कर पाते ।
  • हमें पशु न होने की स्वतन्त्रता है।
  • इसलिए हमारे पास धर्म का पालन के लिए अमूल्य मानव जीवन है।

उसके पश्चात हम उस अनुमान-सिद्ध बोध पर ध्यान केंद्रित करते हैं और उस प्रभेद पर चित्त को एकाग्र करते हैं कि हमारे पास एक बहुमूल्य मानव जीवन है।

तो आप कृपया ऐसे ही कीजिए:

  • यदि हम पशु होते तो हम पूरी तरह धर्म का पालन नहीं कर पाते ।
  • हमें पशु न होने की स्वतन्त्रता है। मैं उस बात को अपने विवेकी बोध से समझ सकता हूँ। 
  • इसलिए हमारे पास धर्म का पालन के लिए अमूल्य मानव जीवन है।
  • और उस विश्लेषण-परक बोध से यह समझ पाते हैं कि हमारे पास एक बहुमूल्य मानव जीवन क्यों है।

ठीक। क्योंकि उसके पास यह विवेकी बोध है, वह विवेकी ध्यान-साधना कहलाती है। जैसा मैंने कहा, प्रायः उसका अनुवाद विश्लेषण-परक ध्यान-साधना हो जाता है, परन्तु विश्लेषण-परक से उसका पूर्ण बोध नहीं होता, है न? और यहाँ हम कहते हैं कि विवेकी अभिज्ञता ध्यान-साधना से उत्पन्न होती है। वह सर्वथा निर्णायक है क्योंकि हम इस बात को समझ सकते हैं कि हमारे पास अमूल्य मानव जीवन कई कारणों से है। और हम सावधानी से छान-बीन करते हैं। हम समझते हैं कि निश्चित रूप से हमें वह किन्हीं विशिष्ट कारणों के लिए ही प्राप्त हुआ है।

स्थिरकारी ध्यान-साधना

ध्यान-साधना के दो पद हैं, एक सूक्ष्मदर्शिता और एक स्थिरकारी । स्थिरकारी ध्यान-साधना से हम केवल एक अमूल्य मानव जीवन की मुक्ति पर ही ध्यान देते हैं उसकी बारीक़ियों की ओर सक्रिय रूप से सूक्ष्मदर्शी हुए बिना - यहाँ सक्रिय रूप से  उल्लेखनीय है - यह समझे बिना कि "यह इसलिए है कि मैं एक पशु नहीं हूँ" और "मैं पशु होता तो मैं ध्यान-साधना नहीं कर पाता", इत्यादि। इस प्रकार हम इस अनुभव पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं कि हमारे पास एक अमूल्य मानव जीवन है। अनुभव  का अर्थ है दृढ़ विश्वास - हम उसपर पूरा भरोसा करते हैं। आप इसपर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह केवल बारीक़ियों को समझना नहीं है। यह दृढ़ विश्वास है कि हम अमूल्य मानव जीवन से युक्त हैं। यह निश्चित रूप से उसके अस्तित्व को समझने और उससे अभिज्ञ होने पर आधारित है।

आइए हम कुछ समय के लिए वैसा करते हैं।

इस प्रकार की ध्यान-साधना से ही हम अपने दोषों और कमियों को दूर करते हैं, जैसे समय का अपव्यय, और इस प्रकार की ध्यान-साधना से ही हम अपने अमूल्य मानव जीवन को अनुभव कर उसे रचनात्मक रूप से धर्म के लिए उपयोग करके अपने अच्छे गुणों को विकसित करते हैं। क्योंकि हम अपने बारे में कुछ समझ पाते हैं, हम उसे आत्मसात करके समाहित करते हैं; हम उसे अनुभव करते हैं। इससे बदलाव आता है क्योंकि यह समस्याओं के कारण को मिटाता है और अच्छे गुणों का विकास करता है।

हम इसे बिना समझे केवल श्वास पर ध्यान केंद्रित करके इसकी तुलना कर सकते हैं। यह भले ही हमें शांत करता हो, सोने से और किसी प्रशांतक के सेवन से भी हम शान्ति प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु, यह हमारी समस्याओं का पूर्णतः समापन नहीं करता। इसके विपरीत, यदि हम अपने श्वास पर इस सूक्ष्मदर्शिता और समझ से ध्यान केंद्रित करते हैं - अनित्यता, क्षणिक बदलाव, श्वास के नियंत्रक, अथवा किसी पदच्युत प्रेक्षक के रूप में पुष्ट मैं का न होने के बोध और समझ के साथ - तो वह हमारी समस्याओं के कारणों से छुटकारे के कारण के रूप में काम कर सकता है।

यह सूक्ष्मदर्शिता धर्म के उद्देश्य को साकार करने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है: वह है हमारी समस्याओं से निष्कृत तथा हमारी अन्तर्निहित शक्तियों, हमारी सकारात्मक सम्भाव्यताओं, को साकार करना । 

बौद्धिक, सहजानुभूत, अंतरंग, तथा भावानुभूत बोध

अब, यहाँ ध्यान दें कि दोनों सूक्ष्मदर्शी एवं निबद्धकारी ध्यान-साधना अवधारणापरक हैं। जैसा कि हम ने यहाँ समझाया है, दोनों ही अवधारणापरक वैचारिक बोध हैं। ये दोनों अमूल्य मानव जीवन के आशय के द्वारा अस्तित्वमान हैं। अवधारणापरक का यही अर्थ है - एक आशय के द्वारा। विवेकी-बोध ध्यान साधना तर्क प्रणाली पर निर्भर है, स्थिरकारी ध्यान साधना किसी तर्क प्रणाली पर निर्भर नहीं है, परन्तु फिर भी दोनों अमूल्य मानव जीवन के आशय के द्वारा हमारे अमूल्य मानव जीवन पर केंद्रित हैं। तो यह आशय एक निरूपण है।  मेरा मतलब, आशय क्या है? आशय अमूल्य मानव जीवन का निरूपण है। हम या तो उसे शब्दों में, या छवि से, अथवा अनुभूति से प्रस्तुत करते हैं, परन्तु इस निरूपण से एक आशय जुड़ा हुआ है। शब्द से, छवि से, अथवा अनुभूति से एक आशय जुड़ा हुआ है।

मैं इस विषय का उल्लेख कर रहा हूँ क्योंकि हम में प्रायः ध्यान-साधना की बौद्ध प्रणाली के विषय में बहुत विभ्रांतियाँ हैं क्योंकि इसे समझने के लिए हम पश्चिमी शब्दावली का उपयोग करते हैं, जो एक पूर्णतः भिन्न प्रणाली है। अधिकतर पश्चिमी शब्दावली में हम बौद्धिक प्रक्रिया और सहजानुभूत प्रक्रिया में अंतर करते हैं। तो हमारे बौद्ध-धर्मी विश्लेषण में यह किसके सादृश्य होगा?

  • यदि हम किसी वस्तु को शब्दों में वर्णित करते हैं - शब्द-वर्णित आशय - और किसी भी वस्तु पर शब्दों के माध्यम से ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हम उसे बौद्धिक प्रक्रिया कहेंगे।
  • किसी भी वस्तु को अनुभूति अथवा छवि के द्वारा निरूपित करते हैं - आशय जिसका आधार अनुभव अथवा छवि है - और उसपर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हम उसे सहजानुभूत प्रक्रिया कहेंगे।

किन्तु कृपया ध्यान दें कि चाहे हम शब्दों के द्वारा अथवा छवि या अनुभूति के द्वारा निरूपित करते हैं, किसी भी स्थिति में वह निरूपण या तो उपयुक्त निरूपण होगा अथवा अनुपयुक्त निरूपण होगा। और दोनों ही अवधारणापरक हैं, ये बौद्धिक तथा सहजानुभूत प्रक्रियाएँ वैचारिक हैं और दोनों को शब्दों के सटीक अर्थ अथवा अनुभूति या छवि के सही अभिप्राय के साथ ही समझा जा सकता है। आप समझ रहे हैं न?

इसके अतिरिक्त, इस बोध का समावेश करने के लिए हमें इसको मानना होगा, और इस पर दृढ़ विश्वास के साथ ध्यान केंद्रित करना होगा। दृढ़ विश्वास। मैं समझता हूँ कि इसी को पश्चिम में अंतरंग बोध के नाम से जाना जाता है। और जब यह अंतरंग बोध मूल्यांकन जैसे सकारात्मक भावों के साथ जुड़ जाता है - हम अमूल्य मानव जीवन की असुलभता एवं महत्त्व के मूल्यों को समझते हैं - तो, पश्चिम में हम कहते हैं कि हम अपने इस बोध के कारण भावुकता से द्रवित हो गए।

इसलिए एक धार्मिक गुरु के साथ स्वस्थ सम्बन्ध के दो आयाम होते हैं जिनपर ध्यान केंद्रित करना होगा। एक है उस गुरु के सद्गुणों पर दृढ़ विश्वास, और दूसरा है उनके दया-भाव को पहचानना। तो हमें दृढ़ विश्वास है और हम भावात्मक रूप से भी प्रेरित हैं। जब हमारे पास ये दोनों हैं, वह बोध शब्दों से प्राप्त हुआ हो अथवा भावनाओं से, वह महत्त्वपूर्ण नहीं है; उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। तो यह कोई महत्त्व नहीं रखता कि हम पश्चिमी विश्लेषण से या फिर बौद्धिक या सहजानुभूत दृष्टिकोण का अनुसरण करते हैं। जब तक हमें उस पर दृढ़ विश्वास और बोध तथा पहचान है, हम परिवर्तन ला सकते हैं। परन्तु एक बात सदैव याद रखने की है: जब तक हम संसार में हैं, परिवर्तन एक सीधी रेखा में नहीं होता। उसमें ऊँच-नीच होती रहती है । ऐसा नहीं है कि वह प्रतिदिन श्रेष्ठतर होता रहेगा। दीर्घकालिक धारा प्रगति की ओर हो सकती है, परन्तु प्रतिदिन या प्रति घंटा वह ऊपर नीचे होती रहेगी।

हमें याद रखना चाहिए कि जब हम सहजानुभूत दृष्टिकोण इत्यादि को पहचानने का प्रयास करते हैं, तब भी, किसी बोध या धारणा प्राप्त करने के लिए, हमें किसी तर्क-पद्धति पर निर्भर करना पड़ता है। अन्यथा, यदि हमारे पास किसी वस्तु की केवल अनुभूति है, तो वह अत्यंत अस्पष्ट और संदिग्ध हो सकती है, और हमें उसका आशय भी पता नहीं होगा। परन्तु यदि हम यदि किसी तर्क-पद्धति का उपयोग करते हैं, यदि हम अपने भीतर अनेक वस्तुओं को पहचानते हैं, और उन्हें समझते हैं, हमें परिभाषाओं का ज्ञान है, हम उन्हें अपने भीतर पहचान लेते हैं, इत्यादि, यदि हम बौद्धिक प्रवृत्ति के हैं तो हम उसे शाब्दिक रूप देकर उसपर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, अथवा, यदि हम एक सहजानुभूत प्रकृति के व्यक्ति हैं, तो हम छवि या भावात्मक रूप देकर उसपर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। दोनों मान्य हैं और दोनों वैचारिक हैं। परन्तु, हमारे बोध का निर्वैचारिक होना - वह अत्यंत ही जटिल है। वह किसी भी वस्तु का बोध है - यह बोध कि हमारे पास एक अमूल्य मानव जीवन है - उसकी धारणा, उसके अनुभव इत्यादि द्वारा नहीं, बल्कि केवल एक सरल निष्कपट रूप से। वह अत्यंत जटिल है।

यदि यह बात स्पष्ट हो गई है, तो हमें पता चलेगा कि हम बौद्धिक प्रवृत्ति के हैं अथवा सहजानुभूत, फिर भी आगे बढ़ने के लिए हमें ज्ञान प्राप्ति के इन वैध तरीकों को समझना होगा: आप कुछ सुनते हैं और अनुमान लगाते हैं कि वह सत्य है। फिर आपको समझना होगा, पहचानना और मानना होगा; आपको अनुमान-सिद्ध बोध प्राप्त करना होगा। फिर उसपर ध्यान केंद्रित करना होगा। ठीक, तो हम इस पथ पर ऐसे आगे बढ़ पाएँगे। वह है श्रवण, स्मरण, और ध्यान-साधना  । यह होती है विश्लेषणपरक ध्यान-साधना।  
इसमें समय लगेगा। संभवतः आपने इसे अभी-अभी पहली बार सुना होगा। तो आपको इसपर मनन और चिंतन करना होगा। हो सकता है कि इससे पहले आपको विश्लेषणपरक ध्यान-साधना के बारे में अपूर्ण ज्ञान रहा हो, तो आपने अभी कुछ अधिक परिष्कृत हुआ विचार सुना है। तो इसपर मनन करना होगा। समय लगाकर इस पर चिंतन कीजिए।

प्रश्न

मैंने विश्लेषणपरक ध्यान-साधना का महत्त्व समझ लिया है और यह भी समझ लिया है कि यह गुरुओं से कैसे सम्बद्ध है, परन्तु मेरी समझ में यह नहीं आता कि हमसे यह क्यों कहा जाता है कि गुरुओं से प्रश्न नहीं पूछना चाहिए, तथा हमें उनकी बातों और उनके आचरणों को चुपचाप बिना तर्क बुद्धि के स्वीकार कर लेना चाहिए।

अब, यह बौद्ध धर्म की वास्तविक शिक्षा नहीं है। यदि गुरु का आचरण विनय, अर्थात नैतिक अनुशासन के विरुद्ध है, तो हमें उस ओर ध्यान दिलाना चाहिए। हमें उसका साथ नहीं देना चाहिए। यदि गुरु हमसे नैतिक अनुशासन के विरुद्ध, संवारों के विरुद्ध, कुछ करने को कहते हैं, तो यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आप मना कर दें।

और यदि हम सूत्र और तंत्र ज्ञान की गहराई में जाएँ: यदि गुरु का कथन उनके प्रवचन से मेल नहीं खाता, तो हम पूछते हैं, "मैं इसे समझा नहीं। यह आपके पूर्व कथन से मेल नहीं खाता। क्या आप कृपा करके अधिक गहराई से समझा सकते हैं?" "यह इस विशिष्ट मूलशब्द का खंडन करता है।  क्या इसकी कृपया और अधिक गहराई से व्याख्या कर सकते हैं?" इत्यादि। क्योंकि, अन्य लोगों की तरह, गुरु से भी बोलने में भूल हो सकती है।

जैसे बुद्ध के पिछले जन्म के एक चिरसम्मत उदाहरण की तरह: जब गुरु ने बुद्ध और अन्य विद्यार्थियों से बाहर जाकर चोरी करने के लिए कहा तो बुद्ध ने वैसा नहीं किया। तो गुरु ने उनसे सफाई माँगी, और बुद्ध ने कहा, "चोरी करने से किसी को क्या लाभ हो सकता है?" गुरु ने कहा, "अहा, केवल तुम ने इस पाठ को भली-भाँति समझा है।“

सर्वोच्च तंत्र की दृष्टि से: यदि हम गुरु में अन्तर्विरोध पाते हैं, और गुरु धर्म के विरुद्ध आचरण करते हैं, इत्यादि, और जब हम गुरु से प्रश्न करते हैं - यदि हम ऐसे दोषों को देखते हैं, तो चाहे हमने उनसे तंत्र की दीक्षा प्राप्त की हो, हमसे यह कहा गया है कि दूरी बनाए रखो । उन गुरु से और अधिक पढ़ने या उनके साथ रहने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु अपना मुँह बंद रखो।  सम्मानजनक दूरी बनाए रखो। अफ़वाहें मत फैलाओ। और यह मत सोचो, "यह गुरु कितना निंदनीय है।" हमने जो सीखा है हम उसका मूल्य समझते हैं, अपनी शिक्षा के गुणों को मानते हैं, और फिर शेष बातों के प्रति समचित्तता बनाए रखो।

जब हम कहते हैं कि हम प्रश्न नहीं करते तो इसका अर्थ क्या है? आप इस बात का अविश्वास नहीं करते कि गुरु में बुद्ध-धातु है - उसपर आप संदेह नहीं करते - परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जब गुरु की आज्ञा अनुपयुक्त हो, तब भी आप उसपर संदेह प्रकट न करें । हम उन उदाहरणों को देखते हैं जैसे जब तिलोपा ने नारोपा को एक खड़ी चट्टान से छलांग लगाने की आज्ञा दी और उन्होंने उसका पालन किया: जैसे परमपूज्य दलाई लामा कहते हैं, अपनी बुद्धि लगाओ। तिलोपा ऐसी अवस्था प्राप्त कर चुके थे कि वह एक जीवित मछली को खा जाते, उसकी हड्डियों को धरती पर रखते, चुटकी बजाते, और वह मछली पुनः जीवंत हो जाती। और नारोपा अपने समय के प्रबुद्ध मठाधीश थे। तो, यदि हमारे गुरु तिलोपा के स्तर के हैं, और हम नारोपा के स्तर के, तो नारोपा की जीवनकथा का उदाहरण प्रासंगिक होता। यदि हम उस स्तर के नहीं हैं, और न ही हमारे गुरु उस स्तर के हैं - जिस श्रेणी में लगभग सभी लोग आते हैं - तो वह सम्पूर्ण रूप से अलग अवस्था है। तो हमें निरंतर परखना होगा। गुरु क्या कर रहे हैं, और क्या वह धर्म के अनुकूल है ? गुरु का प्रवचन क्या है, और क्या वह धर्म के अनुकूल है ? हम सदा परखते हैं। यदि हमें नहीं पता तो हम परखते हैं ।

मैं प्रथम श्रेणी का शिष्य हूँ। मैं केंद्र में, इस अध्यापन के लिए, एक नवागत हूँ। और निश्चित रूप से मैं जानता हूँ कि मेरी त्रुटियों और बोधाभाव के कारण ही मुझे यह दुःसाध्य लग रहा है, परन्तु मुझे पुनर्जन्म और क्रमिक जीवनकाल को स्वीकार करने में अत्यधिक कठिनाई होती है, और मैं समझता हूँ कि यह बौद्ध प्रशिक्षण में बहुत महत्त्वपूर्ण है। तो, उदाहरण के लिए, जब मैं अमूल्य मानव जीवन पर चिंतन करता हूँ - जो चिंतन मैंने अपनी आवश्यकतानुसार गहराई में किया है - और उसे एक उपहार, एक संभाव्यता, परिवर्तन के अवसर, के रूप में देखता हूँ, मैं समझता हूँ कि मुझे आने वाले जन्मों को भी ध्यान में रखना होगा, जो मेरे लिए अत्यंत जटिल है। मैं अपने अमूल्य मानव जीवन का चिंतन करता हूँ क्योंकि आने वाले जन्मों को समझे बिना मेरे अमूल्य मानव जीवन का पूर्ण मूल्यांकन अपूर्ण रहेगा। तो यह है मेरा धर्मसंकट। इसका मैं कैसे सामना करूँ?

आपकी टिप्पणी अत्यंत उत्तम है। एक तंत्र संवर यह है कि जब तक ज्ञानोदय नहीं हो जाता अपने बोध से तृप्त नहीं होना है। और उसका अर्थ है कि जैसे-जैसे हम इस पथ पर आगे बढ़ेंगे, अमूल्य मानव जीवन सहित, प्रत्येक वस्तु सम्बन्धी हमारा बोध गहरा होता जाएगा। तो, यद्यपि हम पुनर्जन्म को अभी समझते हैं, तथापि आप अमूल्य मानव जीवन को समझने के परिप्रेक्ष्य में और अधिक गहराई में जा सकते हैं। उसका अर्थ यह नहीं है कि पूर्व बोध लाभकारी नहीं है। प्रत्येक चरण लाभदायक है, विशेषकर जब हम इस बात का निरंतर ध्यान रखते हैं कि हमारा वर्तमान बोध उच्चतर बोध का प्रथम सोपान है। तो, इस विनम्रता के साथ यह उत्तम है।

शिक्षाओं में यह स्पष्ट है: यह कभी मत मान लेना कि तुम ने उसे उचित गहराई तक समझ लिया है। "अच्छा ठीक है, मेरी समझ में आ गया है, अब मुझे अमूल्य मानव जीवन का और अधिक चिंतन करने की आवश्यकता नहीं है।" वह बहुत बड़ी भूल होगी। आप और अधिक गहराई में जा सकते हैं। 

जैसे आपने व्याख्या की, मनुष्य के रूप में हमारे पास विवेक से काम लेने की क्षमता है। हमारे पास न भौंकने तथा वे सारे काम न करने के विकल्प हैं, जिनका आपने उल्लेख किया। परन्तु, यदि हमारे पास इस विवेक की क्षमता है, तो इसका अर्थ है कि हमारे पास कुछ तो सामर्थ्य है। तो ऐसा क्यों है कि जब हम पशु योनि में जन्म लेते हैं तो वे सारे सामर्थ्य हमसे छूट जाते हैं ? मेरा कहने का अर्थ यह है कि मुझे यह तर्कहीन और असंगत लगता है कि वह विवेक जो अभी हमारे पास है, यदि हम पशु योनि में जन्म लेते हैं तो हम उन सामर्थ्यों को खो देते हैं । वहाँ क्या हो जाता है?

आपको संभाव्यता और प्रत्यक्ष व्यक्त क्षमता के विभेद को समझना होगा। एक बच्चे के पास कई सम्भाव्यताएँ हैं। उसके पास गाड़ी चलाने की संभाव्यता है, परन्तु उसके पास उसकी वास्तविक क्षमता नहीं है। और जब हम अस्वस्थ हैं, तो हमारे पास स्पष्टता से चिंतन, कार्य, आदि करने की संभाव्यता है, परन्तु उस समय एक अवरोध उत्पन्न हो जाता है और इसलिए हमारे पास प्रत्यक्ष क्षमता नहीं होती। वैसे ही, एक पशु के रूप में भी वे सारी सम्भाव्यताएँ हैं - बुद्ध-तत्त्व की सम्भाव्यताएँ तब भी अस्तित्वमान हैं - परन्तु वास्तविक प्रत्यक्ष क्षमताएँ नहीं (और यदि हैं तो वे मनुष्यों की तुलना में बहुत ही निम्न स्तर पर हैं)।

समर्पण

हम इसे एक समर्पण से संपन्न करते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि श्रवण और ध्यान आदि के कर्मों से जो सकारात्मक शक्ति हमने यहाँ उत्पन्न की है - यदि हम उसे ज्ञानोदय के प्रति समर्पित नहीं करते, तो वह बिना कुछ किए ही, एक प्रकार की अकारक परिस्थिति कह सकते हैं, सांसारिक वृद्धि का कारण बन सकती है। उदाहरण के लिए, हम अपने अमूल्य मानव जीवन का गुण-ग्रहण अधिकाधिक धन कमाने के लिए उपयोग करेंगे। अतः इसे ज्ञानोदय प्राप्ति का कारण बनाने के लिए हमें उसे उस कारण के लिए वस्तुतः समर्पित करना होगा। इसलिए हम यह कार्य विचारपूर्वक करते हैं। हम कहते हैं, "सर्वहितार्थ मुझे बुद्ध के मन, शरीर, वाक्, आदि प्राप्त करने में यह सहायक सिद्ध हो।" और "यह बोध एवं गुण-ग्रहण गहन से गहनतर होता जाए कि ज्ञानोदय तक मेरे व्यवहार को ऐसा प्रभावित करता जाए जिससे सबका लाभ हो।"

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