परम धर्म शरणागति सत्य निरोध और सत्य चित्त मार्गों में है
शरणागति ग्रहण करना तीन दुर्लभ तथा बहुमूल्य रत्नों, अर्थात बुद्ध, धर्म और संघ द्वारा दर्शाए गए अनुसार अपने जीवन को एक सुरक्षित और सार्थक दिशा देने की सक्रिय प्रक्रिया है। इन तीनों का बोध प्राप्त करने के अनेक स्तर है, किन्तु गूढ़तम स्तर पर धर्म रत्न का आशय सत्य निरोध तथा सत्य चित्त मार्ग से होता है, बुद्ध रत्न वे हैं जिन्होंने धर्म रत्न को पूरी तरह से प्राप्त कर लिया है, और संघ रत्न वे हैं जो इसे आंशिक तौर पर हासिल कर चुके हैं।
तीसरे आर्य सत्य अर्थात गहनतम धर्म रत्न की पहली विशेषता का सम्बंध अपने सभी दोषों, अशांतकारी मनोभावों, प्रवृत्तियों, भ्रम, और हमारे मानसिक क्रियाकलाप से उत्पन्न होने वाली कर्म की अप्रतिरोध्यता का सत्य निरोध करने से होता है। इसका यह मतलब होता है कि ये इस प्रकार समाप्त हो जाते हैं कि दोबारा फिर उत्पन्न न हो सकें। ऐसा कर पाना इसलिए सम्भव होता है क्योंकि हमारा मानसिक क्रियाकलाप सहज रूप से मिथ्या दृष्टि पर आधारित अशांतकारी पक्ष से दूषित नहीं होता है।
इस गहनतम धर्म रत्न, जो चौथा आर्य सत्य है, के एक अन्य पहलू का सम्बंध सत्य मार्ग से होता है। इसका आशय बोध, ज्ञान, और प्रेम तथा करुणा जैसे उन सभी सद्गुणों की सिद्धि से होता है जिन्हें हमारे मानसिक क्रियाकलाप में विकसित कर पाना सम्भव होता है। ऐसा इसलिए सम्भव है क्योंकि हमारे मानसिक क्रियाकलाप में किसी भी विषय का बोध हासिल करने, सभी के प्रति प्रेम और फिक्रमंदी का भाव धारण करने की सभी सम्भाव्यताएं और क्षमताएं मौजूद होती हैं। यह स्थिति होती है, हालाँकि हमारे सीमित हार्डवेयर – हमारी सीमित शारीरिक और मानसिक क्षमताओं – के कारण हमें थोड़ा ही बोध हो पाता है, और वह बोध भी अक्सर भ्रमयुक्त होता है। और हम आम तौर पर केवल अपने बारे में ही सोचते हैं। हो सकता है कि हम अपनी सोच के दायरे को अपने परिजनों और प्रियजनों तक बढ़ा लें, लेकिन हम हर किसी को अपनी सोच के दायरे में शामिल नहीं करते हैं। उसका दायरा सीमित ही रहता है।
जब हम मानसिक क्रियाकलाप और अपने निजी अनुभव की प्रकृति की दृष्टि से इस सबके बारे में चर्चा करते हैं, तब हमें इस बात के प्रति आश्वस्त होने के लिए बहुत सोच-विचार करने की आवश्यकता होती है कि इन सत्य निरोधों और सत्य चित्त मार्गों को प्राप्त करना सम्भव है। ऐसा करके ही हम यह मान सकेंगे कि बुद्धजन वे हैं जिन्होंने इन्हें पूरी तरह से प्राप्त कर लिया है और आर्य संघ वे हैं जो इन्हें अंशतः हासिल कर चुके हैं। वर्ना यदि हम ऐसा सोचेंगे कि इन्हें हासिल कर पाना असम्भव है, तो फिर ऐसे बुद्धजन और आर्य संघ कैसे सम्भव हो सकते हैं जिन्होंने ये सिद्धियाँ हासिल की हैं? और यदि इन लोगों को धर्म रत्न की प्राप्ति नहीं हुई है, तो फिर हमें उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है?
मानसिक क्रियाकलाप की प्रकृति
यह देखने के लिए कि धर्म रत्न को प्राप्त कर पाना सम्भव है या नहीं, मानसिक क्रियाकलाप की प्रकृति को समझना आवश्यक है, क्योंकि सत्य निरोध और सत्य चित्त मार्ग मानसिक क्रियाकलाप के साथ घटित होते हैं। मानसिक क्रियाकलाप, या चित्त किसी चीज़ की आत्मपरक, व्यक्तिगत, क्षण-प्रतिक्षण की अनुभूति है। भले ही निद्रा, या अचेतनता, या यहाँ तक कि मृत्यु की अनुभूति हो, हमें हमेशा किसी न किसी चीज़ की अनुभूति होती रहती है। अधिक सटीकता से कहें तो, यह किसी वस्तु या विचार के साथ-साथ उस वस्तु या विचार के प्रति किसी सीमा तक सुख या दुख और मिले-जुले मनोभावों की अनुभूति के जटिल मानसिक होलोग्राम की उत्पत्ति होती है। यह उत्पत्ति उस वस्तु या विचार के साथ किसी प्रकार की संज्ञानात्मक प्रक्रिया के समतुल्य होती है और यह उस प्रक्रिया को उत्पन्न करने वाले या उसका प्रेक्षण करने वाले किसी पृथक “मैं’ या “चित्त” से स्वतंत्र रहते हुए उत्पन्न होती है। यह मानसिक क्रियाकलाप की पारम्परिक प्रकृति है।
हमारे आत्मपरक, व्यक्तिगत मानसिक क्रियाकलाप का वर्णन एक भौतिक दृष्टिकोण से भी किया जा सकता है। इसका एक ऊर्जा सम्बंधी या भौतिक आधार होता है, जैसे एक मस्तिष्क और एक शरीर। यह ऊर्जा किसी प्रकार से बाहर की ओर विकीर्ण होती है और इस प्रकार हम संदेश संचार करते हैं। बौद्ध शब्दावली में इसे वाक् कहते हैं। लेकिन वाक् का अर्थ केवल शब्द ही नहीं होता है। इसमें संवाद के सभी रूप शामिल होते हैं।
यदि मानसिक होलोग्रामों की उत्पत्ति करना मानसिक क्रियाकलाप की सहज प्रकृति है, तो इसका यह अर्थ है कि वह किसी भी चीज़ के मानसिक होलोग्राम की उत्पत्ति कर सकता है। वस्तुतः वह सभी चीज़ों के मानसिक होलोग्राम उत्पन्न कर सकता है। निःसंदेह संज्ञानात्मक प्रक्रिया भ्रम के रूप में हो सकती है, लेकिन वह पूर्ण बोध, पूर्ण प्रेम और धैर्य, और दूसरे सभी सकारात्मक गुणों के रूप में भी हो सकती है।
जब हम चित्त की सहज पारम्परिक प्रकृति की बात करते हैं, तब हम यह चर्चा कर रहे होते हैं कि वह किसी मानसिक होलोग्राम और किसी मानसिक प्रक्रिया के साथ किस प्रकार क्रिया करता है। “सहज” का अर्थ है कि वह इस मानसिक क्रियाकलाप का अभिन्न अंग होता है। यहाँ हम वास्तविक अन्तर्वस्तु के बारे में या इस बारे में चर्चा नहीं कर रहे हैं कि वह किस प्रकार के होलोग्राम को उत्पन्न करता है, या उसमें किस प्रकार की संज्ञानात्मक प्रक्रिया होती है।
यह अन्तर्वस्तु सीमित प्रकार की हो सकती है, जैसे हम केवल उसी चीज़ को अनुभव कर सकते हैं जो प्रत्यक्ष तौर पर हमारे सामने होती है। अक्सर इसमें बहुत सारी कल्पनाएं होती हैं और इस प्रक्रिया में काफी भ्रम भी हो सकता है। लेकिन, ये तो अन्तर्वस्तु की सीमाओं के उदाहरण हैं। ये मानसिक क्रियाकलाप के साथ घटित हो रही बातों के ढांचे को सीमित या प्रभावित नहीं करते हैं। अन्तर्वस्तु जो भी हो, ढांचा यथावत बना रहता है।
क्या पहले कभी कोई बुद्ध हुए होंगे?
इस तर्क के आधार पर हम यह विश्वास हासिल कर सकते हैं कि धर्म शरणागति होती है, कि सत्य निरोध और सत्य चित्त मार्ग होते हैं, और यह कि इन्हें हासिल कर पाना सम्भव है। हाँ, यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि इन्हें हासिल करना सम्भव है, तो क्या इसका यह अर्थ है कि किसी ने वास्तव में इन्हें हासिल करके दिखाया है? मैं कहना चाहूँगा कि इस प्रश्न का उत्तर देना आसान नहीं है। यही असल प्रश्न है। क्या कभी कोई बुद्ध हुए होंगे और ऐसा क्यों है कि आजकल बहुत से बुद्ध क्यों नहीं होते हैं? हालाँकि तिब्बती लोग यह कह सकते हैं कि वर्तमान समय में भी बहुत से बुद्ध हैं, लेकिन क्या हम सचमुच इस बात पर विश्वास कर सकते हैं? कहना पड़ेगा कि इसका उत्तर देना कठिन है।
अब हमें कुछ विश्लेषण करने की आवश्यकता है। परम पावन दलाई लामा और महान आचार्य गण हमेशा इस बात पर बल देते हैं हमें विश्लेषण करना चाहिए। मैं इतने विस्तार से इसलिए चर्चा कर रहा हूँ क्योंकि यदि हम दैनिक जीवन में शरणागति के व्यावहारिक प्रयोग की बात करते हैं, यदि हम सचमुच यह विश्वास नहीं करते हैं कि बुद्ध हैं, इस गूढ़तम स्तर पर धर्म और संघ हैं, तो फिर हम इस शरणागति को वास्तव में अपने जीवन में कैसे उतार पाएंगे? हमारा एक लक्ष्य है, मुक्ति या ज्ञानोदय की प्राप्ति, लेकिन हम इस बात पर यकीन तक नहीं करते हैं कि यह सम्भव है। यदि हमें यह दृढ़ विश्वास न हो कि बुद्ध, धर्म और संघ वास्तव में हैं और हम इनके द्वारा दिखाई गई सुरक्षित दिशा में जा सकते हैं, तो फिर यह पूरी बात ही एक पाखंड बन कर रह जाती है।
मेरे विचार से यही बात इस शरणागति को हमारे जीवन की केंद्रीय और सबसे महत्वपूर्ण चीज़ बनाने की पूरी प्रक्रिया को नाकाम कर देती है। या तो हमें इस बात की कोई जानकारी ही नहीं होती है कि वास्तव में शरणागति का क्या अर्थ है, या फिर यदि हम उसका अर्थ भी जानते हों तब भी हमें इस बात पर विश्वास नहीं होता है कि शरणागति की इन अवस्थाओं को प्राप्त करना वास्तव में सम्भव है। यही कारण है कि मैं इस विश्लेषणात्मक पक्ष के बारे में थोड़ा अधिक विस्तार से चर्चा कर रहा हूँ, और बुद्ध, धर्म और संघ के सभी गुणों को सूचीबद्ध करने के बारे में विस्तार से चर्चा नहीं कर रहा हूँ।
देखें कि हम अपने अभी तक के विश्लेषण के आधार पर क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं। हमने यह अभिनिश्चित किया है कि जो अभिरंजक हमारे मानसिक क्रियाकलाप को मैला करते हैं – इसके लिए बौद्ध शब्दावली में इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया जाता है – को हमेशा-हमेशा के लिए दूर किया जा सकता है और हमारे मानसिक क्रियाकलाप के सभी सकारात्मक गुणों और क्षमताओं को पूरी तरह सिद्ध किया जा सकता है। इसके साथ ही हमें अनादि समय के बौद्ध अभिकथन को भी जोड़ने की आवश्यकता है। अब यदि हम इसके लिए वैज्ञानिक शब्दावली का प्रयोग करें – जो सम्भवतः बहुत सटीक न हो – तो इन अभिकथनों के आधार पर एक सांख्यिकीय सम्भावना है कि किसी व्यक्ति ने इन सभी सत्य निरोधों और सत्य चित्त मार्गों को प्राप्त कर रखा है। इस बात को देखते हुए कि सैद्धान्तिक तौर पर ऐसा होने की सम्भावना है, और समय अनादि है, हम यह नहीं कह सकते हैं कि ऐसा हुआ होने की कोई सम्भावना नहीं है।
इस तर्क के आधार पर इस बात की बहुत अधिक सम्भावना है कि बुद्ध हुए होंगे, और कोई ऐसा रहा होगा जिसे सभी ग्रंथों में “बुद्ध” कहा गया है। इसके बाद हम यह पता लगाते हैं कि इन बुद्ध ने इस सम्बंध में क्या उपदेश दिए कि उन्होंने किस प्रकार सत्य निरोधों को प्राप्त किया और किस प्रकार उन सत्य चित्त मार्गों को हासिल किया जिनकी सहायता से वे ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध हो गए। जब हम उनकी शिक्षाओं पर अमल करते हैं तो हमें उन परिणामों की अनुभूति होने लगती है जिनके बारे में बुद्ध ने कहा था कि उन परिणामों को हासिल किया जा सकता है। इस तर्क के आधार पर हम यह विश्वास करना शुरू कर सकते हैं कि बुद्ध वास्तव में हुए थे।
बौद्ध धर्म इस दृष्टि से कई दूसरे भारतीय दर्शनों से भिन्न है कि बोद्ध धर्म यह नहीं कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति आवश्यक रूप से मुक्ति और ज्ञानोदय के स्तर तक पहुँचेगा। हर कोई मुक्ति और ज्ञानोदय के स्तर तक पहुँच सकता है क्योंकि हमारे वैयक्तिक मानसिक क्रियाकलाप की मूल प्रकृति निर्मल होती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हर कोई आवश्यक रूप से मुक्ति और ज्ञानोदय के स्तर तक पहुँचेगा ही। इसका कारण यह है कि अनन्त, अनादि समय के दृष्टिगत यदि हर कोई मुक्ति और ज्ञानोदय के स्तर पर पहुँच सकने वाला होता तो अभी तक पहुँच चुका होता। लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसा है नहीं। इसलिए, हालाँकि हर कोई मुक्ति और ज्ञानोदय के स्तर पर पहुँच सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हर कोई आवश्यक रूप से वहाँ पहुँचेगा ही।
लेकिन यदि इस बात की सांख्यिकीय सम्भावना है कि किसी ने शुद्धिकरण की इस पूरी प्रक्रिया को पार करके बुद्धत्व को प्राप्त किया, तो फिर इस बात की भी सांख्यिकीय सम्भावना है कि ऐसे भी लोग हैं जो अंशतः उस मार्ग को पार कर चुके हैं, हालाँकि उन्होंने अभी उस प्रक्रिया को पूर्ण नहीं किया है। ये सभी आर्य संघ हैं। यदि दूसरे लोग ऐसा कर पाए, तो फिर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि बौद्ध धर्म भी यह कहता है कि हम सभी एक बराबर हैं, इस बात की भी सांख्यिकीय सम्भावना है कि हम भी मुक्ति और ज्ञानोदय को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए अपने जीवन को इस दिशा में मोड़ना, स्वयं अपने मानसिक सातत्य में धर्म रत्नों को प्राप्त करने की दिशा में उसी प्रकार प्रयत्नरत होना जैसा बुद्धजनों ने किया था और जिस प्रकार आर्य संघ कर रहे हैं, यह कोई अभिलाषा कल्पित चिंतन मात्र नहीं है।
यह सम्भावना कि कोई ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध कभी हुए ही नहीं
क्या कभी बुद्ध हुए थे या नहीं, इस सम्बंध में अपनी चर्चा के बारे में मैं एक और बात कहना चाहता हूँ। सांख्यिकीय सम्भावना की दृष्टि से इस बात की भी सम्भावना है कि कभी कोई बुद्ध हुए ही नहीं। इससे एक बड़ी रोचक समस्या उत्पन्न हो जाती है। हम उसका विश्लेषण कई दृष्टियों से कर सकते हैं।
सम्भावनाओं की दृष्टि से यह सम्भावित है कि केवल एक ही बुद्ध हुए हों, या दो बुद्ध हुए हों, या फिर तीन बुद्ध हुए हों, चार, पाँच हुए हों – या असंख्य सचेतन जीवों के बराबर बुद्ध हुए हों। तो इस सम्भावना की तुलना में कि कभी कोई बुद्ध हे ही नहीं, इन सभी सम्भावनाओं की दृष्टि से एक व्यापक सम्भावना उत्पन्न हो जाती है।
यह तो इसे देखने का एक नज़रिया है, लेकिन एक दूसरे ढंग से भी इसका विश्लेषण किया जा सकता है। किसी भी बुद्ध की एक विशेषता यह होती है कि कोई भी ज्ञानोदय प्राप्त सत्व शिक्षाप्रद प्रभाव उत्पन्न करता है जो किसी चुम्बक की भांति दूसरों को भी मुक्ति और ज्ञानोदय के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रेरित करते हुए उन्हें अपनी ओर आकर्षित करता है। इसके अलावा, हम सभी के भीतर बुद्ध धातु का एक यह गुण भी होता है कि हमारे मानसिक सातत्य इसके शिक्षाप्रद प्रभाव से प्रेरित होते हैं। इसलिए, यदि कभी कोई बुदध न हुए होंगे, और इसलिए कभी किसी बुद्ध का शिक्षाप्रद प्रभाव भी नहीं रहा होगा, तो फिर कोई भी व्यक्ति बौद्ध मार्ग पर आध्यात्मिक प्रगति किस प्रकार कर सका होगा? लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने बौद्ध मार्ग की साधना की है और आध्यात्मिक प्रगति भी की है। यदि हम भी शिक्षाओं के अनुसरण का प्रयास करें तो हम स्वयं अपने भीतर भी इस प्रगति को महसूस कर सकते हैं।
ज़ाहिर है कि इसके लिए इस बात की गहरी समझ की आवश्यकता होती है कि प्रेरणा क्या है और किसी और के उदाहरण या शिक्षाओं से प्रेरित होकर अपनी स्थिति को सुधारने के लिए प्रयास करने का क्या अर्थ होता है। क्या इसके बिना प्रगति कर पाना सम्भव है? हमें इसके बारे में बहुत सोच-विचार करने की आवश्यकता है। यदि हम ऐसा कहें कि जिन्होंने प्रगति की है उन्हें शिक्षाप्रद प्रभाव ऐसे शिक्षकों से प्राप्त हुआ होगा जो स्वयं बुद्ध नहीं थे – यदि ऐसा है, तो फिर उन ज्ञानोदय प्राप्त न किए हुए शिक्षकों को ज्ञानोदय का प्रभाव कहाँ से प्राप्त हुआ? क्या ऐसे बुद्ध हमेशा से ही मौजूद थे जो ज्ञानोदय के इस प्रभाव को प्रदान करते रहते थे या फिर क्या ज्ञानोदय का यह प्रभाव उन आध्यात्मिक आचार्यों से प्राप्त हुआ जिन्हें स्वयं ज्ञानोदय की प्राप्ति नहीं हुई थी? इस प्रकार विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कभी कोई प्रथम बुद्ध नहीं हुए, विशेष तौर पर इस कारण से क्योंकि समय तो अनादि है।
इसके बाद हमें यह विचार करने की आवश्यकता है कि शाक्यमुनि बुद्ध ने क्या उपदेश दिया। यदि हम किसी भी स्तर पर उन शिक्षाओं पर अमल कर पाएं तो हमें अपने अनुभव के आधार पर यह बात समझ आती है कि शिक्षाएं वास्तव में उन परिणामों को हासिल करने के लिए कारगर हैं जिनके बारे में बताया गया है। ये हमारे दुखों और समस्याओं को दूर करने में सहायक सिद्ध होती हैं। यहाँ हम एकाग्रता आदि को हासिल करने सम्बंधी ऐसी विधियों के बारे में चर्चा नहीं कर रहे हैं जो दूसरी लगभग सभी भारतीय दर्शन पद्धतियों में पाई जाती हैं। ये शिक्षाएं अनन्य रूप से बौद्ध शिक्षाएं नहीं हैं। लेकिन सामान्य दृष्टि से चार आर्य सत्य हीनयान और महायान दोनों के लिए अनन्य रूप से बौद्ध शिक्षाएं हैं – और महायान के संदर्भ में शून्यता की शिक्षाएं अनन्य रूप से बौद्ध शिक्षाएं हैं। जब हम इन शिक्षाओं पर अमल करते हैं तो हमें यह अनुभव होता है कि हमें शून्यता का जितना अधिक बोध होता है और हम उस बोध को अपने दैनिक जीवन में जितना अधिक व्यवहार में लाते हैं, हमारी समस्याएं उतनी ही कम होती जाती हैं। ये शिक्षाएं सचमुच कारगर हैं।
इसके अलावा यदि हम बुद्ध द्वारा मुक्ति और ज्ञानप्राप्ति के लिए सिखाए गए क्रमिक उपायों को देखें तो हम अपने अनुभव से यह पाते हैं कि यदि हम उनमें से जितने भी उपायों पर अमल करके देखें तो वे सभी बताए गए परिणामों को देने वाले हैं। यदि यह बात सही है तो फिर जैसा कि हम बौद्ध ग्रंथों में इसके बारे में की गई चर्चा में पाते हैं, क्या बुद्ध के पास पूरे मार्ग और ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए बताए गए इसके बाद के उपायों के बारे में असत्य कहने का कोई कारण रहा होगा? आखिरकार बुद्ध के ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए उनके पास सभी सीमित क्षमताओं वाले सत्वों के लिए समान और असीमित करुणा की ही प्रेरणा थी। उस स्तर की करुणा के बिना उनका ज्ञानोदय प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं हो पाता। सभी जीवों को उनके दुखों से मुक्ति दिलाने क लिए इतनी करुणा से प्रेरित बुद्ध के लिए अपनी इस घोषणा में हमें छलने का कोई कारण नहीं हो सकता था, “मैंने ज्ञानोदय को प्राप्त किया है; पृथ्वी मेरी मेरी साक्षी है।“ बुद्ध के लिए असत्य कहने का कोई कारण नहीं है। यह एक पारम्परिक तर्क है। इसके अलावा यदि हम बुद्ध के समस्त क्रियाकलाप को देखें तो यह बात सही नहीं लगती है कि बुद्ध ने इस सम्बंध में असत्य कहा, क्योंकि उन्होंने और भी जो कुछ किया वह लाभकारी और उचित है।
लेकिन यदि हम इसका और अधिक विश्लेषण – और मैं अभी बात करते हुए इसका विश्लेषण कर रहा हूँ – तो हमें एक और आपत्ति दिखाई देगी। यदि हम मार्ग की अन्तिम अवस्था को देखें तो हमें पता चलता है कि यदि हम शून्यता का पूर्ण बोध निर्वैचारिक रूप से हर समय के लिए हासिल कर सकें तो फिर हमारा अज्ञान, हमारी अनभिज्ञता दोबारा फिर कभी उत्पन्न नहीं होगी। इस प्रकार हम अपने दुखों के गहनतम कारण के सत्य निरोध और मुक्ति को प्राप्त करते हैं। और यदि शून्यता का हमारा निर्वैचारिक बोध बोधिचित्त से समर्थित और सुदृढ़ हो तो हम सभी क्लेशावरणों के सत्य निरोध प्राप्त करके ज्ञानोदय को हासिल कर सकते हैं।
अब, मेरी आपत्ति यह है। क्या होता यदि बुद्ध को शून्यता का यह निर्वैचारिक बोध लम्बे समय के लिए होता – हम अभी तक जितना बोध हासिल कर पाते उससे कहीं बहुत अधिक होता – और उन्हें यह पता चलता कि उन्हें निर्वैचारिक बोध जितना अधिक होता, उनका भ्रम, अशांतकारी मनोभाव और अप्रतिरोध्यकारी कार्मिक व्यवहार उतना ही कम होता और उन्हें उतना ही कम दुख भोगना पड़ता। उस स्थिति में क्या होता यदि वे केवल यही निष्कर्ष निकालते कि यदि उन्हें हर समय शून्यता का यह निर्वैचारिक बोध बना रहे तो वे समस्त दुख के सत्य कारण से स्वयं को हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त हो सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें वास्तव में इस परम अवस्था की प्राप्ति हो ही गई थी। उन्हें केवल उसके अस्तित्व का अनुमान हुआ होगा, और यह अपने आप में एक मान्य आनुमानिक बोध है। उन्हें स्वयं ज्ञानोदय प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रही होगी। मुझे तो मेरे विश्लेषण से यही लगता है, क्योंकि मुझे उस आपत्ति का कोई उत्तर नहीं मिला है।
लेकिन मुझे लगता है कि यह एक महत्वपूर्ण आपत्ति है जिसका समाधान किया जाना चाहिए, विशेष तौर पर हमारे दैनिक जीवन में शरणागति की प्रासंगिकता की दृष्टि से। यही कारण है कि यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या कभी कोई वास्तव में बुद्धत्व को प्राप्त कर सका है? क्या वास्तव में बुद्धत्व को प्राप्त कर पाना सम्भव है? और यदि पहले कभी कोई बुद्ध हुआ ही नहीं, और यदि ज्ञानोदय को प्राप्त करना असम्भव है, तो फिर हम बुद्ध, धर्म और संघ की शरण लेकर क्या कर रहे हैं? क्या हम सुरक्षित दिशा के स्रोत के रूप में किसी असम्भव चीज़ को ग्रहण कर रहे हैं? क्या यह मिक्की माउस बनने का प्रयास करने जैसा है? या, यह आखिर क्या है? क्या हमारी बौद्ध साधना केवल स्थिति को यथासम्भव सीमा तक सुधारने तक ही सीमित है? और यदि ऐसा है, और यदि हम इस बात पर यकीन किए बिना बौद्ध मार्ग का अनुसरण करते हैं कि हमें कभी पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्त हो सकता है, या हम मुक्त हो सकते हैं, तो ठीक है। लेकिन मैं समझता हूँ कि हमें यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि हम बौद्ध साधना करके क्या कर रहे हैं और हम अपने आप को मूर्ख न बनाएं: हम दरअसल क्या हासिल करना चाहते हैं और हमारी राय में क्या वास्तव में सम्भव है?
शरणागति को लेते समय इस दिशा को चुनना आवश्यक होता है कि यह शरणागति हमारे चित्त में स्थिर हो, उसके बारे में कोई संदेह न हो। यहाँ मैं उल्लेख कर रहा हूँ कि किस-किस तरह के संदेह उत्पन्न हो सकते हैं। मैं मानता हूँ कि हममें से बहुत से लोग कभी भी मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्त करने की सम्भावना के बारे मे प्रश्न ही नहीं उठाते हैं। हम एक प्रकार से उसे स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन कुछ समय के बाद हम प्रश्न उठाना शुरू कर देते हैं। फिर ऐसा होता है कि या तो हम प्रयास करना छोड़ देते हैं और कहने लगते हैं कि हम जो हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं वह असम्भव है। उसे कभी कोई भी हासिल नहीं कर सका है, तो फिर यह सोच कर मैं किसे मूर्ख बना रहा हूँ कि मैं उसे हासिल कर सकता हूँ। और हम प्रयास करना छोड़ देते हैं। या हम स्वीकार कर लेते हैं कि ज्ञानोदय प्राप्त करना वास्तव में असम्भव है, लेकिन हम इस दिशा में जहाँ तक सम्भव हो सके आगे बढ़ने में संतोष हासिल करते हैं। तर्क के आधार पर हमें यह विश्वास हो सकता है कि सैद्धान्तिक तौर पर मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्त करना सम्भव है। निष्कर्ष के आधार पर यह मान्य बोध हासिल करने के लिए कि सैद्धान्तिक दृष्टि से ज्ञानोदय की प्राप्ति सम्भव है, ये तर्क और विधियाँ पर्याप्त हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि व्यावहारिक स्तर पर क्या ऐसा कर पाना सचमुच सम्भव है? लेकिन सैद्धान्तिक तौर पर सम्भव होने और वास्तव में सम्भव होने के बीच यह एक दिलचस्प द्वंद्व है।
अपने आप को इस बात का विश्वास दिलाने का कि ज्ञानोदय प्राप्त करना सम्भव है यही एक तरीका है कि हम स्वयं उसे प्राप्त करके दिखाएं। आखिर ग्रंथों में कहा गया है कि केवल एक बुद्ध ही दूसरे बुद्ध को पहचान सकता है। तो हमें यह कैसे पता चले कि कोई व्यक्ति वास्तव में बुद्ध है? बहुत से बावले लोग अपने आप को बुद्ध बताते हैं। हम केवल निष्कर्ष के आधार पर ही जान सकते हैं कि कोई अन्य व्यक्ति बुद्ध है, क्योंकि जब तक कि हम स्वयं बुद्ध न हों, हम इस बात को प्रत्यक्ष तौर पर नहीं जान सकते हैं।
हम कह सकते हैं, “सैद्धान्तिक तौर पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बुद्ध हुए होंगे।“ लेकिन सही अर्थ में यकीन कर पाने के लिए हमें स्वयं बुद्ध बनने की आवश्यकता होती है, और इसलिए हम उस दिशा में प्रयास करने का निश्चय करते हैं। क्या कभी कोई बुद्ध हुए हैं या नहीं और क्या ज्ञानोदय सम्भव भी है या नहीं, हमारी इन सभी आपत्तियों का यह एक समाधान हो सकता है।
बौद्ध धर्म कोई साधारण मनोवैज्ञानिक पद्धति नहीं है
इस लम्बी चर्चा के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि हम इस बात के प्रति आश्वस्त हुए बिना कि बौद्ध धर्म के चरम लक्ष्यों को हासिल कर पाना सम्भव है, हम उस दिशा को सिर्फ यह मानते हुए अपने जीवन में अपना सकते हैं कि यदि हम अपनी मौजूदा स्थिति से आगे बढ़ें तो यदि हम अपने लक्ष्य तक न भी पहुँचें तब भी हमारी स्थिति में सुधार होगा। लेकिन यदि हम केवल सुधार के बारे में ही सोचते हैं और पूरे मार्ग को यह सोचते हुए तय नहीं करते हैं कि ऐसा करना असम्भव है, तो हमारी बौद्ध साधना का विकास नहीं हुआ है बल्कि उसमें गिरावट ही आई है। वह एक प्रकार के मनोविज्ञान के स्तर पर नीचे उतर आई है। बौद्ध शिक्षाएं मनोविज्ञान की कोई साधारण पद्धति बन जाती हैं और बौद्ध साधना एक नए प्रकार की मनश्चिकित्सा बन कर रह जाती है। लेकिन निश्चित तौर पर ऐसा नहीं है। हालाँकि हम उस स्तर पर बौद्ध धर्म की साधना कर सकते हैं जिसे मैं “धर्म-लाइट” कहता हूँ। वह वास्तविक धर्म नहीं है। हाँ उसके अपने फायदे अवश्य हैं। हम यह तो नहीं कह सकते हैं कि केवल इस जन्म को सुधारने की दृष्टि से आत्मविकास करने के कोई लाभ नहीं हैं, लेकिन शरणागति में केवल इतना ही नहीं कहा गया है।
शरणागति के बारे में हमें यह सोचने की अतिशयता से बचना चाहिए कि बुद्ध हमारे व्यक्तिगत उद्धारक हैं। लेकिन एक दूसरी अतिशयता यह सोचना है कि बौद्ध धर्म किसी प्रकार की मनश्चिकित्सा की तरह हमें केवल अपने मनोभावों और व्यवहार को नियंत्रित करना मात्र ही सिखाता है। “बस आत्मसुधार के लिए अभ्यास कीजिए।“ यह किसी प्रकार की मनश्चिकित्सा जैसा लगता है, है न? हमें इस अतिशयता से बचना चाहिए क्योंकि इसमें एक प्रकार से इस बात की अनदेखी की जाती है कि तीन बहुमूल्य रत्न भी हैं और सिर्फ धर्म के बारे में ही विचार किया जाता है। लेकिन बुद्ध भी हैं और आर्य संघ भी है। बुद्ध और आर्य संघ कोई उपचारक न होकर हमारे आदर्श हैं। हम उनके जैसे बनना चाहते हैं। उपचारक पूरी तरह से हमारा आदर्श नहीं होता है। यदि हम उपचारक को व्यक्तिगत तौर पर जानते हों तो हमें पता चलेगा कि सम्भवतः उसकी भी अपनी बहुत सी समस्याएं हैं। इसके अलावा बौद्ध धर्म नीतिशास्त्र की भी बात करता है। मनश्चिकित्सा में आवश्यक रूप से नीतिशास्त्र की साधना शामिल नहीं होती है। दरअसल मनश्चिकित्सा की कुछ पद्धतियों में किसी भी प्रकार की नैतिक सलाह से दूर रहने का प्रयास किया जाता है।
शरणागति का धार्मिक पक्ष
बौद्ध धर्म का एक भक्ति पक्ष होता है जो शरणागति लेने में हमारी सहायता कर सकता है। हमें इस पक्ष को नकारने या उसका खंडन करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इस धार्मिक पक्ष का सम्बंध प्रेरणा ग्रहण करने और अपनी सकारात्मक भावात्मक अवस्थाओं को किसी प्रकार के अनुष्ठानों के माध्यम से व्यक्त करने से है। हम अपनी धार्मिक साधनाओं को बुद्धजन और संघ का प्रतिनिधित्व करने वाले तारा और चेनरेज़िग आदि जैसे बोधिसत्वों को सम्बोधित कर सकते हैं। लेकिन हमें इन्हें संत या अपने निजी उद्धारक बनाने लेने के खतरे से बचना चाहिए।
हममें से बहुत से ऐसे लोग जो स्वयं बुद्ध, ऐतिहासिक शाक्यमुनि बुद्ध या चेनरेज़िग, से नहीं जुड़ सकते हैं तो उनका प्रतिनिधित्व करने वाले आध्यात्मिक गुरुजन – गुरु रिंपोशे और मिलारेपा जैसे ऐतिहासिक गुरुजन, या वर्तमान समय के गुरुजन उपलब्ध हैं। हम किसी भी ऐसे व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहे हैं जो स्वयं के आध्यात्मिक गुरु होने का दावा करता है। हो सकता है कि वह बहुत अधिक योग्य न हो। हम यहाँ अत्यंत योग्य गुरुजन, जैसे परम पावन दलाई लामा, के बारे में बात कर रहे हैं। कोई भी स्वयं को “लामा” बता सकता है और दूसरों को भी यकीन दिला सकता है कि वे उसे लामा कहें, लेकिन इससे उनके सद्गुणी होने का पता नहीं चलता है। इससे बस इतना भर पता चलता है कि ऐसे गुरु करिश्माई व्यक्तित्व वाले हो सकते हैं और दूसरों के प्रभावित करने वाले और महत्वाकांक्षी हो सकते हैं।
बहरहाल, प्रेरणा के इस कारक का अनुवाद अक्सर “आशीष” के रूप में किया जाता है और मुझे लगता है कि यह अनुवादक भ्रामक हो सकता है। प्रेरणा हमें अपने जीवन को इस दिशा में ले जाने के लिए ऊर्जा और प्रोत्साहन प्रदान करती है। इसमें कुछ भी आध्यात्मिक नहीं है। और यह प्रेरणा हमें आध्यात्मिक गुरुओं से मिलती है। वे हमें बुद्धजन और आर्य संघ के बारे में ज्ञान देते हैं। उन्हीं से हमें शिक्षाओं की व्याख्या का ज्ञान मिलता है। हालाँकि हम धर्म के बारे में पुस्तकों में और इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं, लेकिन अक्सर वह जानकारी स्पष्ट नहीं होती है। हमें किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो व्याख्या कर सके और हमारे प्रश्नों के उत्तर दे सके। इसके अलावा, हमें किसी ऐसे व्यक्ति भी आवश्यकता होती है जो उस आदर्श को मूर्त रूप में प्रस्तुत करता हो जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं, ताकि हमें व्यावहारिक तौर पर यह बोध हो सके कि इन शिक्षाओं में क्या बताया गया है।
किसी को अपना आदर्श उदाहरण बनाना
मैं मानता हूँ कि अपने दैनिक जीवन के व्यवहार में इस सुरक्षित दिशा को धारण करने के लिए यह आवश्यक होता है कि हमारे सामने कोई ऐसा आदर्श हो जिसका हम अनुसरण कर सकें। कुछ लोगों के लिए अनुसरणीय व्यक्ति के रूप में गुरु रिंपोशे के साथ जुड़ पाना कदाचित कठिन होगा। गुरु रिंपोशे का जन्म एक कमल से हुआ था और वे बिना किसी क्षति के आग आदि से होकर गुज़र सकते थे। अनुकरणीय व्यक्ति के रूप में इस सब का अनुसरण कर पाना सचमुच कठिन है, है न? मैं किसी भी दृष्टि से गुरु रिंपोशे के महत्व को कम नहीं कर रहा हूँ, और गुरु रिंपोशे बहुत से लोगों को प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर कुछ लोगों के लिए इस सब से जुड़ना बहुत कठिन हो सकता है। मैं क्या-क्या कर सकता हूँ उसके आदर्श के रूप में ये बातें मेरे लिए किस प्रकार प्रासंगिक हो सकती हैं? यही कारण है कि हमारे सामान्य आध्यात्मिक गुरुजन, और बहुत अधिक विकसित गुरुजन, ऐसे आदर्श हैं जिनसे हम अधिक बेहतर ढंग से जुड़ सकते हैं। यदि हम परम पावन दलाई लामा जैसे गुरुओं के साथ न जुड़ सकते हों, तब भी अपेक्षाकृत कम सिद्धियों वाले ऐसे गुरुजन उपलब्ध हैं जिनके साथ शायद हम अधिक आसानी से जुड़ सकते हैं।
मुझे जो बात बहुत दिलचस्प लगती है कि परम पावन दलाई लामा ने कहा है कि स्वयं शाक्यमुनि बुद्ध उनके आदर्श रहे हैं और वे उन्हीं का अनुसरण करने का प्रयास करते हैं और उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त करते हैं। परम पावन आम तौर पर एक लाख लोगों की सभाओं को उपदेश देते हैं। ज़ाहिर है कि स्वयं हमें कभी इस प्रकार का अनुभव नहीं हुआ है। वे दुनिया भर में इतने सारे लोगों को प्रेरित और प्रभावित करते हैं और ऐसा कर पाने के लिए वे सभी जीवों को एक ही समय पर शिक्षा देने की क्षमता रखने वाले बुद्ध के और भी विकसित आदर्श से प्रेरणा हासिल करते हैं। जैसे-जैसे हम प्रगति करते चले जाते हैं, हम बुद्ध के स्तर तक के और अधिक विकसित आदर्श उदाहरण चुनते जा सकते हैं। स्वयं परम पावन दलाई लामा के लिए भी उनके आध्यात्मिक गुरुओं या बुद्ध से ग्रहण की गई प्रेरणा की भूमिका महत्वपूर्ण और केंद्रीय महत्व की होती है।
हमारे जीवन में शरणागति की क्या भूमिका है?
अभी तक हमने क्या प्रमाणित किया है? हमने उस सर्वश्रेष्ठ सुरक्षित दिशा को प्रमाणित किया है जिसे हम अपने जीवन में ग्रहण करने का प्रयास कर रहे हैं। सरल शब्दों में कहा जाए तो हम इस उद्देश्य से आत्मसुधार के लिए प्रयत्नरत हैं ताकि हम अपने दोषों और अशांतकारी मनोभावों से मुक्त हो सकें और अपनी पूरी क्षमताओं को हासिल कर सकें। मैंने कुछ संकेत दिए कि किस प्रकार हम विचार और विश्लेषण शुरू करके यह यकीन हासिल कर सकते हैं कि हमारे लिए इस पूरे मार्ग को तय कर पाना सम्भव है। हम अपने मानसिक क्रियाकलाप के पूरे नकारात्मक पक्ष से मुक्त हो कर उसके सकारात्मक पक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। यह सम्भव है। ऐसे बुद्धजन के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने ऐसा करके दिखाया है, और इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी सिखाया है कि हम स्वयं ऐसा किस प्रकार कर सकते हैं। आर्य संघ भी हैं जिन्होंने इस मार्ग को अंशतः तय किया है और वे अन्तिम लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे आध्यात्मिक गुरुजन मौजूद हैं जो अभी सत्य निरोध और सत्य चित्त मार्ग की अवस्थाओं तक भले ही न पहुँचे हों, लेकिन फिर भी वे इस मार्ग पर हमसे कहीं अधिक आगे हैं। हम अपने स्तर के आधार पर इन सभी से प्रेरणा हासिल कर सकते हैं और प्रामाणिक आदर्श चुन सकते हैं। हम सभी इस पूरे मार्ग को तय करने की क्षमता रखते हैं। आध्यात्मिक गुरुजन की सहायता और कड़े परिश्रण से हम मुक्ति, और महायान के अर्थों में ज्ञानोदय को प्राप्त करने की योग्यता को हासिल कर सकेंगे।
जब हम इस सबके प्रति आश्वस्त हो जाते हैं तो शरणागति या सुरक्षित दिशा हमारे जीवन का प्रमुख उद्देश्य बन जाती है और वही हमारे लिए हर समय महत्वपूर्ण बनी रहती है। लेकिन इसके लिए हमें वास्तव में आश्वस्त होने और अपने आदर्शों के उदाहरणों से प्रेरित होने की आवश्यकता होती है। यह आवश्यक है कि शरणागति हमारे जीवन के लिए सचमुच प्रासंगिक हो। यदि हमारे जीवन में कोई कठिनाई उत्पन्न हो जाए, तो हमें उसके कारण हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। हमें यह बोध होना आवश्यक है कि हम उस स्थिति से निपट सकते हैं। हम उससे निपट सकेंगे। हो सकता है कि अभी हमारे लिए ऐसा करना आसान न हो, लेकिन अपने जीवन में इस सुरक्षित दिशा को ग्रहण करने पर, उदाहरण के तौर पर, हम अपने क्रोध को नियंत्रित कर सकेंगे। हम अपने सामने उत्पन्न होने वाली सभी कठिनाइयों पर विजय पा सकते हैं। हम इस दिशा में काम करेंगें।
जब हमारे जीवन में समस्याएं उत्पन्न होंगी तो हम उन्हें मानने से इन्कार नहीं करेंगे। ऐसा नहीं है कि हम शराब, नशीली दवाओं, सैक्स, टेलीविजन या दूसरी चीज़ों का सहारा लेकर इन समस्याओं को भुलाने और अपने आपको बेहतर महसूस करवाने का प्रयास करेंगे। बल्कि हम अपने जीवन में इस सुरक्षित दिशा को ग्रहण करेंगे। हम उस स्थिति से निपटने के लिए बौद्ध विधियों का उपयोग करेंगे। यदि हम ऐसा करते हैं तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी हमने अपने जीवन में इस दिशा को अपना लिया है। तब हम वास्तव में शरणागति ग्रहण कर चुके होंगे।
अब हम कुछ मिनटों तक उन चीज़ों के बारे में विचार करेंगे जो हमने अभी तक सीखी हैं। मेरा मानना है कि यह विचार कुछ हद तक इन चीज़ों के बारे में होना चाहिए: यदि हम अपने आप को बौद्ध मानते हैं तो क्या शरणागति का हमारे जीवन में कोई महत्व है? हमारे लिए शरणागति का क्या मतलब है? क्या उसका अर्थ वही है जिसके बारे में हमने चर्चा की है, या फिर क्या वह कोई बहुत ही मामूली चीज़ है या हमारे जीवन का कोई गौण विषय है? क्या उसका कोई विशेष महत्व नहीं है? यदि उसका बहुत अधिक महत्व नहीं है, तो यह बहुत दुखद है। हम एक बड़े सुअवसर को खो रहे हैं।
[विराम]
बौद्ध धर्म विशेष क्यों है: लक्ष्य और विधि
अगली बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि हम किसी भी पद्धति को इस रूप में स्वीकार कर सकते हैं कि वह सत्य का ज्ञान देती है। हम किसी भी परम्परा के किसी भी आकर्षक व्यक्तित्व वाले आध्यात्मिक नेता से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। यहाँ बौद्ध धर्म किस लिहाज़ से अलग है? हमें दो बातों को देखना होगा: बौद्ध लक्ष्य और उन्हें हासिल करने की विधियाँ। ऐसे बहुत से धर्म हो सकते हैं जो स्वर्ग की प्राप्ति के लक्ष्य की शिक्षा देते हैं। हो सकता है कि वे ऐसी विधियों की शिक्षा देते हों जो वास्तव में हमें स्वर्ग प्राप्त करना सिखा सकती हों। हो सकता है कि हमें उस धर्म में आस्था हो, और हम उसकी शिक्षाओं के प्रति आश्वस्त हों, और उनका पालन करते हुए बहुत लाभकारी आध्यात्मिक मार्ग अपना सकते हों। या फिर हम अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले जन्म के चक्र से मुक्ति का लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं – हाँ, इस लक्ष्य में यह पूर्वधारणा शामिल है कि पुनर्जन्म होता है। इसमें इस प्रकार का लक्ष्य है, लेकिन भारत के अधिकांश धर्म इसकी शिक्षा देते हैं। बौद्ध धर्म में ज्ञानोदय की बात की जाती है, यानी हम ज्ञानोदय की प्राप्ति के लिए साधना करते हैं ताकि हम मुक्ति के इस लक्ष्य को प्राप्त करने में दूसरों की अधिक से अधिक सहायता करने के योग्य बन सकें। मुझे नहीं लगता कि दूसरी किसी भी भारतीय धर्म पद्धति में इसकी शिक्षा दी जाती है।
लेकिन इन दूसरी भारतीय पद्धतियों में जिसे मुक्ति कहा गया है, उसकी प्राप्ति की जो विधियाँ हैं, मुक्ति न मिलने के कारण बताए गए हैं, अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म के कारण बताए गए हैं – जिसके लिए इन पद्धतियों में “संसार” शब्द का प्रयोग भी किया जाता है – बौद्ध दृष्टि से यह सब केवल आंशिक है। वे जिस ज्ञान की शिक्षा देते हैं वह पूरी तरह सही नहीं है। सही अर्थ में अपने जीवन में इस शरणागति, इस सुरक्षित दिशा को ग्रहण करने के लिए इतना ही काफी नहीं है कि हम अभी तक चर्चा की गई सभी बातों के प्रति आश्वस्त हों। यह तो उस प्रक्रिया का एक अंश है। इसका अगला हिस्सा, जोकि बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है, यह है कि हमें उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बुद्ध द्वारा सिखाई गई विधि पर यकीन हो। इसकी बौद्ध विधि में “शून्यता” और करुणा को विकसित करने की विभिन्न विधियों का बोध शामिल है। हमें इसका सही बोध होना चाहिए कि ये क्या हैं और यह विश्वास होना चाहिए कि ये विधियाँ वास्तव में कारगर हैं।
इसलिए, दैनिक स्तर पर अपने जीवन को यह दिशा देने के लिए हमें आत्मसुधार के लिए आवश्यक विधियों का ज्ञान होना चाहिए, औह हमें यह यकीन होना चाहिए कि ये विधियाँ वास्तव में प्रभावकारी हैं। इसके अलावा हमें यह स्पष्ट तौर पर मालूम होना चाहिए कि हमारा लक्ष्य क्या है, और जैसे कि हम चर्चा करते आए हैं, यह बोध होना चाहिए कि बुद्ध द्वारा सिखाई गई विधियों की दृष्टि से इस लक्ष्य को प्राप्त कर पाने की अपेक्षा व्यावहारिक है।
नैष्काम्य और शून्यता के सही बोध की आवश्यकता
अब हम उन तीन सिद्धान्तों के बारे में बात करेंगे जिनकी चर्चा त्सोंग्खापा ने की थी। पहला सिद्धान्त मुक्त होने के दृढ़ निश्चय का है, जिसे “नैष्काम्य” कहा जाता है। शरणागति की सुरक्षित दिशा में जाने के लिए हमें अपनी दुखपूर्ण स्थिति और उसके कारणों को पहचानना होगा, और फिर फिर इस बात की आशंका को समझते हुए हमें उसका त्याग करना होगा कि यदि हमने कुछ नहीं किया तो यह स्थिति सदा-सदा के लिए बनी रहने वाली है। हमें यह बोध हासिल करना होगा कि हमें इस स्थिति से बाहर निकलना है और फिर उससे मुक्त होने के लिए दृढ़ निश्चय करना होगा। इस नैष्काम्य के बिना शरणागति का कोई अर्थ नहीं है, है न? केवल उस दिशा को अपने जीवन में धारण कर लेने का कोई अर्थ नहीं है। हम ऐसा कर क्यों रहे हैं?
दूसरा सिद्धान्त है शून्यता का सही बोध। सरल शब्दों में कहा जाए तो शून्यता हमें बताती है कि हम सभी चीज़ों के असम्भव ढंग से अस्तित्वमान होने के बारे में तमाम तरह की कल्पनाएं करते हैं, लेकिन हम जो कल्पनाएं करते हैं और जिन कल्पनाओं को हम सच मान लेते हैं वे दरअसल निरर्थक हैं। उसका वास्तविकता से कोई सम्बंध नहीं होता है। “शून्यता” का अर्थ हमारे मन की कल्पनाओं के किसी वास्तविक वस्तु के साथ सम्बंध का पूर्ण अभाव होता है।
उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति हमारे साथ बहुत बुरा व्यवहार कर रहा हो और उसका आचरण बहुत खराब हो तो हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वह व्यक्ति वैसा ही है। वह एक बहुत खराब व्यक्ति है। हमारे सीमित हार्डवेयर के कारण हमें ऐसा ही प्रतीत होता है। हमारा निर्णय केवल इसी बात पर निर्भर करता है कि हमें हमारी आँखों के सामने प्रत्यक्ष तौर पर क्या दिखाई दे रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि खराब होना ही उसकी असली पहचान है, जो उन लाखों कारकों से स्वतंत्र है जिन्होंने उस व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित किया है – जैसे उसका परिवार, उसके जीवन के अनुभव, विश्व की आर्थिक स्थिति, उस व्यक्ति के पिछले जन्म आदि। और हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वह व्यक्ति हमेशा ही खराब व्यक्ति रहा है और आगे भी रहेगा। हम यह कल्पना और विश्वास कर लेते हैं कि किसी व्यक्ति के वर्तमान व्यवहार के आधार पर उसका अन्तर्जात तौर पर खराब व्यक्ति के रूप में अस्तित्वमान होना ही उसकी मूर्त और वास्तविक पहचान है। वह यथार्थ रूप में खराब व्यक्ति के रूप में स्थापित हो जाता है।
लेकिन, ऐसे किसी व्यक्ति, या किसी ऐसे व्यक्ति की इस प्रकार की प्रतीति का किसी वास्तविकता से कोई सम्बंध नहीं है। कोई भी इस प्रकार से अस्तित्वमान नहीं है। यह तो हमारी कल्पना की उपज है। मानसिक कल्पना यह है कि वह व्यक्ति उसी प्रकार अस्तित्वमान है, जैसा वह दिखाई देता है। लेकिन वह तो हमें वैसा अपने सीमित हार्डवेयर और हमारे भ्रम के कारण दिखाई देता है। और क्योंकि भ्रम और सही बोध न होने के कारण हम अपनी कल्पना पर विश्वास कर लेते हैं कि वह व्यक्ति सचमुच एक खराब व्यक्ति है, और फिर हम उस व्यक्ति पर क्रोधित होते हैं, उस पर चीखते-चिल्लाते आदि हैं। हमारे मन में उसके प्रति किसी प्रकार की सहिष्णुता का भाव नहीं होता है और प्रकार की उदारता का भाव भी नहीं होता है।
शून्यता का बोध शरणागति की दृष्टि से अतिशयताओं से बचने में सहायक होता है
यह बात हमारी शरणागति के विषय पर कैसे लागू होती है? शून्यता का बोध हमें अपने दोषों पर विजय पाने और अपनी पूरी क्षमताओं को हासिल करने की साधना के दौरान उत्पन्न हो सकने वाले आशावादी बनने के खतरे से बचने में सहायक होगा। भूलवश हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक मूर्तिमान “मैं” हैं जो बहुत खराब हालत है। हम कल्पना कर लेते हैं कि वही हमारी असली पहचान है, और उस स्थिति से उबरने के लिए हमें परिपूर्ण होने की आवश्यकता है। इस मूर्त “मैं” का परिपूर्ण होना आवश्यक है। ये सभी त्रुटियाँ बहुत खराब होती हैं। यदि ईसाई धर्म की शब्दावली में कहा जाए तो यह शैतान का काम है। हमें इससे मुक्त होना है। हम अपने दोषों को एक मूर्त रूप दे देते हैं जिनसे उस “मैं” को उबरना है जिसे परिपूर्ण होने की आश्यकता है।
हमारे भ्रम की ये आदतें हमारे उस लक्ष्य, जो त्रिरत्नों को प्राप्त करना है, को किसी बाहरी असाधारण मूर्त वस्तु में बदल देती हैं। या तो मैं उस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता हूँ क्योंकि वह इतना असाधारण है, या फिर वह मेरी क्षमता से इतना दूर और असम्भव है कि मैं सम्भवतः उसे हासिल ही नहीं कर सकता हूँ।
यह एक आम तौर पर उत्पन्न होने वाला खतरा है जो कुछ धर्म साधकों के सामने उत्पन्न होता है। वे धर्म की साधना को किसी परिपूर्णतावादी की दृष्टि से देखते हैं और बहुत कड़ा और अड़ियल दृष्टिकोण अपना लेने के कारण बहुत दुखी हो जाते हैं। वे हर बात का शाब्दिक अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। वे अपने साथ बहुत अधिक सख्ती बरतते हैं। अक्सर इसके साथ आत्म-विश्वास का अभाव होता है कि “मैं ज्यादा काबिल नहीं हूँ” और वे मनोवैज्ञानिक स्तर पर अपने आपको कोसते रहते हैं। धर्म की साधना करने का यह एक बहुत ही मूर्खतापूर्ण तरीका है जिससे बहुत दुख उत्पन्न होता है। इस भ्रमित दृष्टि के कारण हम अपनी प्रेरणा को भी एक मूर्त रूप दे देते हैं। “हाँ, मैं सभी के प्रति प्रेम का भाव रखता हूँ!” आदि। “मुझे प्रेममय और अद्भुत बनना है।“ और फिर हम वैसा कर नहीं पाते हैं और फिर हम परिपूर्ण न बन पाने पर अपने आप को कोसने लगते हैं।
बेशक, विश्लेषणात्मक ध्यानसाधना की दृष्टि से हम इस सबके बारे में चर्चा कर सकते हैं, लेकिन व्यवहार के स्तर पर इस सब का क्या अर्थ है? मैं समझता हूँ कि एक बहुत ही व्यावहारिक स्तर पर हम अपनी धर्म साधना को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर नहीं देखते हैं। बस, अपनी ध्यानसाधना करते हैं। हम आत्मसुधार के लिए अभ्यास करते हैं। हम अधिक धैर्यशील बनने का प्रयास करते हैं। हम उस “मैं” की कल्पना के बिना साधना करते हैं जिसे परिपूर्ण होना चाहिए और किसी भी दृष्टि से परिपूर्ण होने के विचार के बिना साधना करते हैं। जब भी ऐसे विचार उठें तो बस यह समझने का प्रयास करें कि ये विचार निरर्थक हैं। ऐसा करने का मतलब धर्म को दुख में बदलना है और हम नहीं चाहते हैं कि धर्म की साधना हमारे लिए आत्मतुष्टि का साधन बन कर रह जाए, क्योंकि परिपूर्णतावाद की परिणति अक्सर इसी रूप में होती है।
जब हम कहते हैं कि “बस अपनी साधना कीजिए,” तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप भावरहित होकर यंत्रवत साधना करें, क्योंकि यह भी एक अतिशयता है। उदाहरण के लिए हो सकता है कि हमें यंत्रवत तीन बार दंडवत प्रणाम करने या सुबह जागने के बाद पानी के कटोरे भर कर रखने की आदत हो। हो सकता है कि हम यह सब किसी यंत्र की भांति कर रहे हों। हम किसी मूर्तिमान “मैं” के बारे में विचार नहीं कर रहे होते हैं और यह नहीं सोच रहे होते हैं कि, “मैं कितना धार्मिक साधक हूँ। मैं पानी के ये प्याले भरता हूँ और अगरबत्ती भी लगाता हूँ।“ हम अपनी साधना को यंत्रवत करते रहते हैं। हमें किसी प्रकार की प्रेरणा की आवश्यकता होती है, और हम उस प्रेरणा के महत्व को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं देखते हैं। यही कारण है कि हमने इस सकारात्मक दिशा, अपने जीवन की इस सुरक्षित दिशा को अपनाने का अभ्यास करने की दृष्टि से किए जाने वाले कार्यों की एक पूरी सूची तैयार की है।
[देखें: शरणागति के लिए अभ्यास साधना]
लेकिन, शुरुआती तौर पर इन कार्यों में से एक कार्य यह है कि हम कोई आध्यात्मिक शिक्षक चुनें। इससे हमें प्रेरणा मिलती है और अनुकरण करने के लिए कोई आदर्श मिलता है। इसके अलावा, हम दरअसल अपने आपको प्रतिदिन इस दिशा का स्मरण कराते हैं, और अपने जीवन में इस दिशा को चुनने के लाभों के बारे में स्मरण कराते हैं ताकि हमें प्रेरणा मिलती रहे। इस प्रकार हम उन अतिशयताओं से बचने का प्रयास करते हैं जो हमें अपने जीवन में सुरक्षित दिशा को ग्रहण करने में बाधक हो सकती हैं। हम इस दिशा को व्यावहारिक ढंग से ग्रहण करते हैं, और किसी प्रकार की विक्षिप्तता में या हल्के ढंग से उसे ग्रहण नहीं करते हैं। हम इसे कट्टरपंथी ढंग से भी ग्रहण नहीं करते हैं। कट्टरपन भी इस कल्पना और विश्वास पर आधारित होता है कि एक मूर्तिमान “मैं” है और “मेरी मूर्तिमान परम्परा है जो बहुत महत्वपूर्ण है। मैं सही मार्ग का अनुसरण कर रहा हूँ; आप सही मार्ग पर नहीं चल रहे हैं।“
मेरे कुछ छात्रों ने बौद्ध होने पर अहंकार और घमंड होने की समस्या के बारे में चर्चा की है: “मुझे प्रकाश मिल गया है! मैंने सत्य मार्ग खोज लिया है! मैं स्कूल के समय के अपने मित्रों से कहीं बहुत अच्छी स्थिति में हूँ, जबकि मेरे वे मित्र दुनियावी चीज़ों में ही उलझे हुए हैं।“ हम उन्हें हेय समझ सकते हैं। यहाँ भी शून्यता का बोध न होने के कारण समस्या होती है। ऐसा हो सकता है कि हम “मैं” को बहुत महत्वपूर्ण समझने लगें और अपनी उपलब्धियों, अपने जीवन की चुनी हुई दिशा को बहुत महत्वपूर्ण समझते हुए उसके बारे में घमंड करने लगें। दूसरों के पास यह दिशा नहीं है, इसलिए वे एक दृष्टि से हमसे हेय हैं। यदि हम सावधानी न बरतें तो यह प्रवृत्ति इस दिशा में जा सकती है: “मैंने ज्ञान के प्रकाश को पा लिया है। मैं तो बच जाऊँगा लेकिन तुम नरक में जाओगे।“ इस प्रकार के अहंकारी दृष्टिकोण के कारण हमें अनेक प्रकार की समस्याएं हो सकती हैं।
शरणागति ग्रहण करने में नैष्काम्य का महत्व
यदि पुनरावलोकन किया जाए तो हमें अपने आप को स्थिर रखने और विक्षिप्तता से बचने की दृष्टि से अपने जीवन में इस सुरक्षित दिशा को ग्रहण करने के लिए हमें नैष्काम्य और शून्यता का बोध होने की आवश्यकता होती है। नैष्काम्य का अर्थ यह नहीं है कि हम केवल अपनी कुछ ही समस्याओं और उनके कारणों का त्याग करें और हमारे आक्रामकता और विवादप्रियता जैसे कुछ व्यवहारों को बनाए रखें क्योंकि ये जीवन को अधिक रोचक बनाते हैं। ऐसा दृष्टिकोण मूर्खतापूर्ण होगा। एक अन्य दृष्टिकोण यह हो सकता है कि हम कुछ आसक्तियों को छोड़ना नहीं चाहते हैं जैसे सैक्स, सोशल मीडिया, टेलीविजन आदि।
बेशक, यहाँ भी हम कट्टरतावादी दृष्टिकोण अपनाने और पूरी तरह से हर उस चीज़ो को त्याग देने से बचना चाहते हैं जो हमारे लिए जीवन में कठिनाई उत्पन्न करती हैं और जिन्हें हम त्यागना नहीं चाहते हैं। याद रहे, नैष्काम्य का यह मतलब नहीं है कि हम अपनी पसंद की इन चीज़ों का उपयोग ही न करें, बल्कि यहाँ हम इन चीज़ों के प्रति मोह या आसक्ति को त्यागने और यह सोचने की आदत को त्यागने की बात कर रहे हैं कि ये चीज़ें परम आनन्द की प्राप्ति का स्रोत हैं। हम इस दोषपूर्ण सोच को त्याग देना चाहते हैं और धीरे-धीरे लेकिन दृढ़तापूर्वक इस बदलाव को करने के लिए संकल्पित होते हैं।
हो सकता है कि हम अभी पूर्ण नैष्काम्य विकसित करने की क्षमता न रखते हों, लेकिन उसकी प्राप्ति को हम अपना लक्ष्य बनाना चाहते हैं। इसीलिए मैंने “दिशा” शब्द का प्रयोग किया। हम इसी दिशा में आगे बढ़ रहे होते हैं – भले ही हम इस जन्म में इस मार्ग को पूरी तरह तय न कर पाएं, लेकिन हम भविष्य के किसी जन्म में उसे तय कर लेने का संकल्प लेते हैं। हम उसके लिए प्रयासरत होते हैं।
बोधिचित्त की आवश्यकता
जहाँ तक तीन मुख्य मार्गों में से तीसरे मार्ग यानी बोधिचित्त का सम्बंध है, शरणागति ग्रहण करने के लिए यह तब प्रासंगिक होता है जब हम महायान साधक के रूप में इस दिशा को अपने जीवन में धारण करते हैं। लेकिन, परम्परागत दृष्टि से शरणागति की चर्चा मुक्ति के लक्ष्य के संदर्भ में की जाती है। हम हीनयान या महायान में से किसी भी मार्ग का अनुसरण कर रहे हों, दोनों में ही इसकी साधना की जाती है। शरणागति के संदर्भ में लक्षित सत्य निरोध और सत्य चित्त मार्ग से आशय उन्हीं सत्य निरोधों और सत्य चित्त मार्गों से होता है जिनका अभ्यास अनियंत्रित ढंग से बार-बार घटित होने वाले संसार चक्र से मुक्ति के लिए किया जाता है। अर्हत वह होता है जिसने मुक्ति को प्राप्त कर लिया है और अर्हत बनना ही हीनयान का लक्ष्य होता है। लेकिन पूर्ण ज्ञानोदय की प्राप्ति के लिए बोधिचित्त का लक्ष्य निर्धारित करने की स्थिति में भी हम शरणागति ग्रहण कर सकते हैं।
बोधिचित्त चित्त की वह अवस्था है जिसमें ध्यान को उस व्यक्तिगत ज्ञानोदय की प्राप्ति पर केंद्रित किया जाता है जिसे हम अपने मानसिक क्रियाकलाप की सहज शुद्धता के आधार पर प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। यह बोधिचित्त सभी सत्वों की भलाई के उद्देशय से ज्ञानोदय की अवस्था के सत्य निरोधों और सत्य चित्त मार्गों को प्राप्त करना चाहता है। सादृश्य के लिहाज से हम अपनी उस मुक्ति पर ध्यान को केंद्रित कर सकते हैं जो अभी घटित नहीं हुआ है, और जिसे हासिल करने की हम क्षमता रखत हैं, और जिसे हम सांसारिक पुनर्जन्म के कारण उत्पन्न होने वाले अपने समस्त दुख का अन्त करने के लिए अपना लक्ष्य बना सकते हैं। इसे केवल हीनयान में बताए गए अनुसार शून्यता का बोध हासिल करके ही प्राप्त नहीं किया जा सकता है बल्कि प्रेम और करुणा के माध्यम से भी प्राप्त किया जा सकता है। हीनयान मार्ग पर हम यथासंभव दूसरों की सहायता करेंगे क्योंकि इस मार्ग पर भी हमें सकारात्मक सम्भाव्यता या पुण्य संचित करने की आवश्यकता होती है। ऐसा प्रेम और करुणा की साधना के माध्यम से सम्भव होता है। इसलिए हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हीनयान मार्ग में इस प्रकार की साधनाएं नहीं होती हैं। ऐसा नहीं है।
लेकिन हम महायान की दृष्टि से भी अपने जीवन में इस दिशा को ग्रहण कर सकते हैं। हमारा लक्ष्य केवल मुक्ति नहीं है; हमारा लक्ष्य ज्ञानोदय की प्राप्ति है। हमारा लक्ष्य केवल इतना भर नहीं है कि हम इस मार्ग पर चलते हुए प्रेम और करुणा की अधिक से अधिक साधना करेंगे, बल्कि जब हमें ज्ञानोदय प्राप्त हो जाएगा तो हम वास्तव में दूसरों की यथासंभव सहायता करेंगे।
पुनरावृत्ति के तौर पर हम कह सकते हैं कि नैष्काम्य हमारी साधना में यह पहलू जोड़ देता है कि हम किन चीज़ों से मुक्त होना चाहते हैं, हम इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए किन चीज़ों पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं। मुक्ति या बोधिचित्त के साथ ज्ञानोदय का ध्येय रखने से हमें अपना लक्ष्य प्राप्त होता है। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हम क्या करेंगे? एक तो यह है कि हम और अधिक प्रेम और करुणा का भाव विकसित करें, और दूसरी बात यह है कि हम शून्यता का सही बोध प्राप्त करें। इनसे हमें वे विधियाँ प्राप्त होती हैं जिनकी सहायता से हम इन लक्ष्यों को व्यावहारिक ढंग से प्राप्त कर सकते हैं और हम जान सकते हैं कि हम अपने दोषों पर किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकते हैं। हम इन विधियों का अभ्यास संतुलित ढंग से किस प्रकार कर सकते हैं? यह अभ्यास हम अपने प्रेरक आध्यात्मिक गुरुजन के मार्गदर्शन में करते हैं – ध्यान रहे, आध्यात्मिक शिक्षक समुचित योग्यता वाले हों।
शरणागति ग्रहण करने में निकृष्टतर दुख के भय की भूमिका
मुझे एक और बात ध्यान आ रही है जिसे मैं आपको बताना चाहूँगा। जब हम शरणागति या अपने जीवन में सुरक्षित दिशा को ग्रहण करने के कारणों की पारम्परिक प्रस्तुति को देखते हैं, तो वह भविष्य में मिलने वाले और अधिक दुख का भय और यह विश्वास है कि स्थिति को और अधिक खराब होने से बचाने का एक मार्ग उपलब्ध है। हम चर्चा कर चुके हैं कि इस मार्ग को संतुलित ढंग से किस प्रकार विकसित किया जा सकता है। जब हम महायान के संदर्भ में यह अभ्यास करते हैं तो इस दिशा में अग्रसर होने का एक तीसरा कारण भी है: दूसरों के प्रति करुणा का भाव। हम इस सुरक्षित दिशा में इसलिए अग्रसर होना चाहते हैं क्योंकि हम दूसरों की सहायता करना चाहते हैं कि वे अपने दुखों पर विजय प्राप्त कर सकें।
बर्लिन में जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ मैं लाम-रिम (मार्ग की क्रमिक अवस्थाएं) पर एक साप्ताहिक पाठ्यक्रम आयोजित करता हूँ। आप उसे सुन सकते हैं। वह मेरी वैबसाइट पर है और पॉडकास्ट के रूप में भी उपलब्ध है। जब हमने कर्म के विषय को सिखाना शुरू किया तो मैंने लोगों को कहा कि वे ईमानदारी से अपने बारे में विचार करें: “आप बेईमानी क्यों नहीं करते हैं? आप ईमानदार क्यों हैं? आप बेईमान क्यों नहीं हैं? क्या ऐसा उस कारण से है जो धर्म के ग्रंथों में दिया गया है: क्योंकि आप बेईमानी के नकारात्मक परिणामों से डरते हैं, जैसे निम्नतर अवस्थाओं के पुनर्जन्म और इसी तरह के दूसरे भयंकर परिणाम आदि? वास्तव में क्या कारण है कि आप बेईमानी नहीं करते हैं? ज़ाहिर है कि यह बात ऐसा मानते हुए कही गई है कि वे बेईमानी, चोरी आदि नहीं करते हैं।
इसी प्रकार हम अपने आप से प्रश्न पूछ सकते हैं कि हमें अपने आप में सुधार करने की क्या आवश्यकता है। क्या ऐसा इसलिए है कि यदि हम आत्मसुधार नहीं करेंगे तो हमें निम्नतर अवस्थाओं के पुनर्जन्मों का दुख झेलना पड़ेगा? कुछ समय के लिए इसके बारे में ईमानदारी से सोचिए।
[विराम]
मुझ सहित अधिकांश लोगों ने जवाब दिया कि हम इसलिए ईमानदारी बरतते हैं और बेईमानी नहीं करते क्योंकि ऐसा करना ही सही है। इससे अच्छा महसूस होता है। धोखाधड़ी करने या झूठ बोलने या बेईमानी करने पर अच्छा नहीं लगता है। ऐसा करने पर हम स्वयं को असहज महसूस करते हैं। ईमानदारी का बर्ताव करके हम ज्यादा आरामदेह स्थिति में होते हैं। आत्मसुधार करने के लिए प्रयास करने की क्या आवश्यकता है? जीवन में करने के लिए और है भी क्या? यही एक चीज़ ठीक दिखाई देती है। यही करना सही लगता है। बाकी सभी चीज़ें तो बस समस्याएं उत्पन्न करने वाली दिखाई देती हैं। मैं अपना जीवन किस तरह बिताना चाहता हूँ? क्या और अधिक समय टेलीविजन देखते हुए, या और कुछ?
यह बात दरअसल बहुत ही दिलचस्प है। भविष्य में अपने आचरण के परिणामों के भय, और इस विश्वास की दृष्टि से कि इससे बचने का एक मार्ग है, धर्म की चर्चा करना कितना प्रासंगिक है? कहना पड़ेगा कि इसका उत्तर देना आसान नहीं है? हो सकता है कि भले हमने इन सब चीज़ों के बारे में सोचा ही न हो फिर भी इस दिशा में जाना ही हमें उचित लगता हो। लेकिन हम इस दिशा में स्थिर गति से बढ़ सकें इसके लिए मुझे लगता है कि हमें बताई गई पारम्परिक प्रेरणाओं की प्रासंगिकता और व्यावहारिकता को भी देख-समझ लेना चाहिए। क्या हमें सचमुच ऐसा ही महसूस होता है? यह सब कैसे होता है?
केवल इस कारण से बुद्ध, धर्म और संघ की दिशा में आगे बढ़ना क्योंकि ऐसा करना एकदम सही दिखाई देता है, इतना भर भी कारगर हो सकता है। लेकिन मैं मानता हूँ कि यहाँ हमने जिन बातों की चर्चा की है: कि एक लक्ष्य है – मुक्ति और ज्ञानोदय की प्राप्ति – और उसे प्राप्त करना सम्भव है और उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास करना उपयोगी है, इसके साथ ही हमें इन बातों पर विश्वास भी होना चाहिए। ऐसा कर पाने के लिए हमें अपने चित्त को उन सभी परेशानी उत्पन्न करने वाले दृष्टिकोणों और अशांतकारी मनोभावों से मुक्त होना होगा जो इन सिद्धियों की प्राप्ति में बाधक हैं। यदि हमें इन सभी बातों पर विश्वास हो तो इस यकीन के आधार पर कि इस दिशा में आगे बढ़ना उचित प्रतीत होता है, मैं समझता हूँ कि हमें सफलता मिल सकती है। वरना केवल इस कारण से इस दिशा में बढ़ने में कोई बहुत गंभीरता नहीं दिखाई देती है कि ऐसा करना सही प्रतीत होता है।
मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं जो कह रहा हूँ उसका अर्थ यह है कि किसी प्रकार के बोध, किसी प्रकार की भावात्मक प्रेरणा के बिना, प्रेरित होने के इस आस्था वाले पक्ष तो छोड़ ही दीजिए, केवल इस कारण से इस दिशा में आगे बढ़ना कि “यह सही प्रतीत होता है”, इसमें वह गहराई और बल नहीं है जो इसे प्रबलित करने वाले इन दूसरे कारकों के प्रभाव से हो सकता है। किसी चीज़ को केवल इस कारण से करना कि वैसा करना सही या उचित प्रतीत होता है आपको अच्छा करने और अच्छा व्यक्ति बनने की दिशा में ले जा सकता है। लेकिन इसके कारण कट्टर परिपूर्णतावादी बनने का खतरा उत्पन्न हो सकता है, जिसके बारे में हम पहले चर्चा कर चुके हैं।
यदि हम थोड़ी और गहराई से विश्लेषण करें कि किसी चीज़ के उचित प्रतीत होने का क्या मतलब है, तो हमें यह कहना होगा कि इस प्रकार आचरण करने से हमें ज़्यादा खुशी होती है। यदि हम धोखाधड़ी और बेईमानी करें, या यदि हमें ऐसा महसूस होता हो कि हम अपने जीवन को व्यर्थ गँवा रहे हैं और हम कोई प्रगति नहीं कर रहे हैं, तो हमें बेचैनी और दुख अनुभव होगा। इससे बौद्ध धर्म के एक सबसे बुनियादी सिद्धान्त की पुष्टि होती है: हर कोई सुख चाहता है और कोई भी दुख नहीं चाहता है। अपने जीवन में इस सुरक्षित दिशा को रखने से हमें और अधिक सुख मिलता है; जबकि जीवन में सुरक्षित और सही दिशा के अभाव या जीवन में कोई भी दिशा न होने के कारण हमें और अधिक दुख भोगना पड़ता है। धर्म का पालन करना और ईमानदारी का व्यवहार करना ही वह सुरक्षित दिशा है।
यहाँ हम यह कहते हुए आपत्ति कर सकते हैं कि कुछ अपराधी होते हैं जो बेईमानी करते हैं और सभी तरह के गैर-कानूनी काम करते हैं, और वे अपने जीवन की इस दिशा से बहुत खुश होते हैं। वे अपराध करके बच निकलते हैं। लेकिन हमें गहराई विश्लेषण करके यह देखना होगा कि नकी यह खुशी कितने समय तक चलती है और क्या खुशी का यह भाव व्यवहारगत कारण और प्रभाव के मान्य बोध पर आधारित है।
शरणागति ग्रहण करने वाला पारम्परिक “मैं”
आखिर में हमें यह प्रश्न पूछना होगा कि वह “मैं” कौन है जो सुखी होना चाहता है और दुख नहीं चाहता, और इसलिए वह अपने जीवन में सुरक्षित दिशा को ग्रहण करता है? यह पारम्परिक “मैं” है, मात्र “मैं”। हमारे मानसिक क्रियाकलाप का एक सातत्य होता है। मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि हमारा मानसिक सातत्य है जैसे कोई अलग से “मैं” है जिसका सातत्य उसी प्रकार है जैसे “मेरे पास एक गाय है” या “मेरा एक बाज़ू है” – जैसे किसी चीज़ का मेरे पास होना ऐसे हो कि वह मेरा ही हिस्सा हो या मेरा हिस्सा न हो। बल्कि, ज्यादा सटीकता से हमें यह कहना चाहिए कि मानसिक क्रियाकलाप का एक अलग सातत्य होता है जो व्यवहारगत कारण और प्रभाव या कर्म के आधार पर अनुभूति के निरन्तर क्षणों को उत्पन्न करता है। इसी कारण इस मानसिक क्रियाकलाप के साथ होने वाली अनुभूतियों का एक तार्किक क्रम होता है। वैयक्तिक और व्यक्तिपरक होने के कारण हर मानसिक सातत्य किसी व्यक्ति, किसी आत्म के अभ्यारोपण के आधार के रुप में काम करता है।
इस प्रकार कोई व्यक्ति, कोई पारम्परिक “मैं” मानसिक क्रियाकलाप पर किसी वैयक्तिक सातत्य का अभ्यारोपण होता है, जैसे कोई फिल्म चित्रों के वैयक्तिक सातत्य का अभ्यारोपण होता है। वह पारम्परिक तौर पर इस प्रकार अस्तित्वमान होता है जैसे “मैं क्षण प्रति क्षण घटित हो रही चीज़ों को अनुभव कर रहा हूँ और मैं अपने जीवन को एक सुरक्षित दिशा दे रहा हूँ।“ लेकिन हम यह कैसे प्रमाणित करें कि इस पारम्परिक “मैं” का अस्तित्व है? उसे उसके आधार के किसी हिस्से में तलाश नहीं किया जा सकता है। लेकिन उसे “मैं” की अवधारणा या श्रेणी से मानसिक तौर पर लेबल किया जा सकता है और “मैं” शब्द की सहायता से निर्दिष्ट किया जा सकता है। वह अवधारणा और शब्द पारम्परिक “मैं” को दर्शाते हैं। इस प्रकार, हालाँकि इस पारम्परिक “मैं” को कहीँ भी मूर्त रूप में अस्तित्वमान होते हुए नहीं तलाश किया जा सकता है, लेकिन हम उसके अस्तित्व को केवल “मैं” शब्द और उसके द्वारा दर्शाई जाने वाली अवधारणा के रूप में स्थापित कर सकते हैं।
समस्या यह है कि अवधारणाएं और शब्द उन्हीं चीज़ों के तात्पर्य को व्यक्त कर सकते हैं जो अपनी श्रेणियों के अनुरूप वास्तव में अस्तित्वमान हों। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है जो वास्तव में इस प्रकार अस्तित्वमान हों। वास्तव में अस्तित्वमान आत्म-स्थापित ऐसा कोई “मैं” नहीं है जो “मैं” शब्द के अनुरूप हो। उस स्थिति में यह बहुत महत्वपूर्ण है हम यह भेद करें कि कोई मानसिक लेबल या अवधारणा किस चीज़ को दर्शाती है, और वह क्या है जो किसी मानसिक लेबल या अवधारणा को दर्शाता है।
मैं इस अन्तर को एक उदाहरण की सहायता से समझाना चाहूँगा। हर क्षण हमें किसी न किसी प्रकार की अनुभूति होती है। हम उन अनुभूतियों को किसी अवधारणा किसी श्रेणी “सुख” से मानसिक तौर पर लेबल कर सकते हैं, और “सुख” शब्द से उन सभी अनुभूतियों को निर्दिष्ट कर सकते हैं। वे सभी सुख की अनुभूति के उदाहरण होंगे, हालाँकि हमारी अनुभूतियाँ क्षण प्रति क्षण बदलती रहती हैं। हर क्षण में हमें अनुभव होने वाली सुख की अनुभूति की प्रबलता और उसका गुण बदलता रहता है। जब हम कहते हैं, “मैं सुख अनुभव कर रहा हूँ,” तो उसका किसी चीज़ से सम्बंध होता है। हमें वास्तव में कुछ अनुभूति हो रही होती है, लेकिन मूर्त रूप में अलग से अस्तित्वमान ऐसा कोई “सुख” नहीं है जो इस मानसिक लेबल, अवधारणा, श्रेणी या शब्द के अनुरूप हो, जिसे किसी ऐसे स्थान में तलाश किया जा सकता हो जिसके साथ मैं उसका सम्बंध जोड़ रहा हूँ और इस समय जिसे अनुभव कर रहा हूँ।
श्रेणियों और अवधारणाओं के समतुल्य मानसिक लेबल अपरिवर्ती होते हैं। मानसिक बक्सों की तरह वे किसी चीज़ से प्रभावित नहीं होते हैं; वे निश्चित अवधारणाएं हैं। हालाँकि उन्हें नई अवधारणाओं से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, लेकिन वे संघटित रूप से विकसित नहीं होती हैं। जब हम मानसिक लेबलों के अनुरूप चीज़ों की बात करते हैं – जो निश्चित अवधारणाओं और स्थिर श्रेणियों के अनुरूप हों – तो वे ऐसी चीज़ें होती हैं जो इन निश्चित मानसिक बक्सों के अनुरूप वास्तव में अस्तित्वमान चीज़ें होती हैं। ऐसा लगता है जैसे वे चीज़ें इन बक्सों में रखी हुई हैं, उन्हें इन बक्सों में तलाश किया जा सकता है, लेकिन यह स्थिति वास्तविकता के अनुरूप नहीं है। कोई भी चीज़ इस प्रकार अस्तित्वमान नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे पारम्परिक शब्दों की सहायता से निर्दिश्ट किसी भी चीज़ का अस्तित्व किसी शब्दकोश की प्रविष्टि के रूप में नहीं होता है।
जब हम शून्यता की बात करते हैं तो हम किसी ऐसी चीज़ के अभाव की बात कर रहे होते हैं जो इन मानसिक लेबलों और शब्दों के अनुरूप हो – कोई ऐसी चीज़ जो किसी निर्धारित बक्से में वास्तविक रूप में विद्यमान हो। किन्तु पारम्परिक तौर पर हम कह सकते हैं, “मैं सुखी हूँ,” और हम जिस सुख की बात कर रहे हैं उसका तात्पर्य किसी चीज़ से है। ऐसा नहीं है कि वह बिल्कुल कुछ भी नहीं है। पारम्परिक तौर पर हमें कुछ अनुभूति हो रही है, पारम्परिक तौर पर हम उसे “सुख” कहते हैं और अधिकांश लोग इससे सहमत होंगे और वे भी उसे “सुख” ही कहेंगे। हालाँकि यह बात व्यक्तिनिष्ठ और वैयक्तिक है: उन्हें कैसे मालूम होगा कि मुझे क्या अनुभव हो रहा है?
“मैं” या आत्म, या व्यक्ति – आप उसे जो भी कहना चाहें, की भी यही स्थिति है। वह किसी व्यक्ति, मानसिक क्रियाकलाप के व्यक्तिनिष्ठ सातत्य पर अभ्यारोपित है। हम इस पारम्परिक तौर पर अस्तित्वमान “मैं” को स्वयं की अवधारणा के मानसिक लेबल “मैं” से लेबल कर सकते हैं और उसे “मैं” शब्द से निर्दिष्ट कर सकते हैं। मूर्त रूप में अस्तित्वमान “मैं” जैसी कोई चीज़ नहीं है जिसे अपने बारे में हमारी निश्चित धारणा के मानसिक बक्से के अनुरूप किसी चीज़ के रूप में तलाश किया जा सकता हो। हमें ऐसा प्रतीत हो सकता है कि ऐसा कोई “मैं” हमारे शरीर या चित्त में विद्यमान है जैसे वह किसी घर में रह रहा हो और हम जो कुछ करते, कहते या सोचते हैं उसे देखता और नियंत्रित करता हो, लेकिन यह कोरी मानसिक कल्पना है। पारम्परिक “मैं” इस असम्भव ढंग से अस्तित्वमान नहीं होता है।
तो, वह क्या है जो पारम्परिक तौर पर अस्तित्वमान है? सम्भाव्यताओं, ऊर्जा से युक्त मानसिक क्रियाकलाप के वैयक्तिक सातत्य होते हैं जो दूसरों के साथ, अपने आधार के रूप में किसी शरीर के साथ संवाद करते हैं। वैयक्तिक “मैं” ऐसे सातत्य को आधार मानते हुए उस पर अभ्यारोपित होता है। अपने आधार की ही भांति वह “मैं” भी क्षण प्रति क्षण आगे बढ़ता रहता है, लेकिन उसमें ऐसा कुछ भी मूर्त या स्थैतिक नहीं है जो किसी कन्वेयर बैल्ट पर रखी हुई किसी चीज़ की भांति क्षण प्रति क्षण आगे बढ़ रहा हो।
शरणागति के बारे में हमारी चर्चा के साथ इसे जोड़ते हुए हमें पता चलता है कि पारम्परिक “मैं” ही शरणागति ग्रहण कर सकता है, अपने जीवन में एक सुरक्षित दिशा को चुन सकता है और मुक्ति तथा ज्ञानोदय के स्तर तक पहुँच सकता है। यह पारम्परिक “मैं” अपने ज्ञानोदय की प्राप्ति से परे एक वैयक्तिक, अनादि और अनन्त मानसिक सातत्य पर अभ्यारोपित है। इसे मानसिक तौर पर किसी “मैं” की अवधारणा और “मैं” शब्द से लेबल किया जा सकता है और ये शब्द उस पारम्परिक मैं को निर्दिष्ट करेंगे। लेकिन वह पारम्परिक “मैं” शरणागति ग्रहण करने वाले किसी ऐसी मूर्तिमान स्वतंत्र जीव के रूप में विद्यमान नहीं है जो परिपूर्ण न हो और जिसे अब परिपूर्ण होना शेष हो।
जब मैं शरणागति लेने की बात कर रहा था, कि हम ऐसा करें, अपने आप में सुधार करें, तो मेरा आशय था कि हम यह सोचे बिना ऐसा करें कि मैं एक अलग “मैं” हूँ जिसे इस द्वैत रूप में – जैसे यहाँ दो “मैं” हों – अपने आप में सुधार करने के लिए प्रयास करना है। या ऐसा तो नहीं कि पहले से ही तीन “मैं” हैं? “मुझे अपने आपको स्वयं में सुधार करने के लिए प्रवृत्त करना है।“ यह एक बिल्कुल ही भ्रमित दृष्टिकोण है जैसे कोई अनुशासक “मैं” हो जो किसी आलसी “मैं” को उस “मैं” सुधार करने के लिए कह रहा हो जो दोषपूर्ण है। यह सचमुच भ्रांतिपूर्ण नज़रिया है।
“बस ऐसा कर डालिए” से आशय है कि आप निश्चयपूर्वक, इच्छाशक्ति के साथ, सावधानीपूर्वक, लगनशीलता से अपने जीवन में इस सुरक्षित दिशा को अपनाएं। ये सभी मानसिक कारक हमारे मानसिक क्रियाकलाप के साथ जुड़े होने चाहिए, लेकिन उसमें कोई पृथक “मैं” न हो जो नियंत्रण बोर्ड पर बैठकर बटन दबा रहा हो: “चलो, और मेहनत करो। अब मैं ‘इच्छाशक्ति और आत्मनियंत्रण’ के बक्से से इस चीज़ को निकाल कर वहाँ उस आलसी “मैं” के साथ जोड़ने वाला हूँ।“ यह ऐसे नहीं होता है।
जब हम सहज तौर पर इस कार्य को करते हैं तो सुरक्षित दिशा की ओर हमारा अग्रसर होना इस प्रकार होता है कि उसे करने वाला कोई अलग से “मैं” नहीं होता है। हालाँकि पारम्परिक तौर पर तो मैं ही उसे कर रहा होता हूँ; कोई दूसरा उसे नहीं कर रहा होता है।
इसलिए, अन्त में यही निष्कर्ष निकलता है “बस इसे कर डालिए! बुद्ध, धर्म और संघ के सुरक्षित मार्ग को अपने जीवन में अपनाइए!” इस प्रकार हमारी शरणागति सुदृढ़ होती है।