अपनी क्षमताओं को पहचानना
हमने अभी तक इस विषय पर अधिक चर्चा नहीं की है कि क्या हमें सचमुच लगता है कि इन सभी बातों को कर पाना सम्भव है, और क्या मैं इसे हासिल करने की क्षमता रखता हूँ। इस चर्चा से बुद्ध धातु का मुद्दा उठता है, जिसका आशय मूलतः उन कारकों से होता है जो हम सभी के भीतर विद्यमान होते हैं और हमें अपने आपको बुद्ध के रूप में रूपांतरित करने में सहायक होते हैं। इसका सम्बंध मूलतः चित्त की प्रकृति से होता है।
क्या हम विषयों को समझ पाने की क्षमता रखते हैं? हाँ। क्या हमारे पास यह क्षमता है कि हम किसी बात के प्रति सदैव जाग्रत बने रहें? देखिए, हम एक निश्चित अवधि तक किसी चीज़ के प्रति जागरूक बने रह सकते हैं, तो क्या उस अवधि को बढ़ाया जा सकता है? हाँ। हम इस अवधि को ध्यानसाधना और अभ्यास की विधियों के माध्यम से बढ़ा सकते हैं, लेकिन सबसे बुनियादी बात यह है कि ऐसा कर पाने में हमारी सफलता हमारी अपनी रुचि और प्रेरणा पर निर्भर करती है। बस वह अभ्यास हमारे लिए महत्वपूर्ण और प्रासंगिक होना चाहिए।
यह स्थिति वैसी ही है जैसे आप खरीददारी के लिए जा रहे हों तो आपको ध्यान बना रहता है कि आपकी जेब में कितने पैसे हैं, क्योंकि आप उतनी मात्रा से ज्यादा तो खर्च कर ही नहीं सकते हैं। लेकिन बाकी समय, जब आप घर पर बैठे होते हैं तो आपको कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आपकी जेब में कितने पैसे हैं। यह प्रश्न अप्रासंगिक होता है और आप उसकी परवाह भी नहीं करते हैं। इसी प्रकार जब हम शिक्षाओं के बारे में चिंतन करते हैं तो वे शिक्षाएं हमारे लिए प्रासंगिक होनी चाहिए। यह समझने के लिए कि वे प्रासंगिक हैं, हमें यह समझना होगा कि वे कौन सा कार्य करती हैं और क्यों महत्वपूर्ण हैं। इसे निष्कर्षतः हम एक ऐसी आधारभूत चित्तावस्था के रूप में देख सकते हैं जिसे “फिक्रमंदी का दृष्टिकोण” कहा जाता है, जहाँ हम स्वयं के बारे में फिक्रमंद होते हैं, और अपने साथ घटित होने वाले अनुभवों और अनुभूतियों के बारे में फिक्रमंद होते हैं।
स्वयं अपने बारे में फिक्रमंद होना
हम फिक्रमंदी के इस दृष्टिकोण के प्रयोजन को उस स्थिति में ज़्यादा आसानी से समझ सकते हैं जब यह दूसरों के प्रति लक्षित हो। यदि मुझे दूसरों की कोई परवाह ही न हो तो फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं क्या करता या कहता हूँ, या दूसरों को वह बात पसंद है या नहीं। लेकिन यदि मैं दूसरों को महत्व देता हूँ तो फिर मुझे इस बात की परवाह होगी कि मेरा व्यवहार दूसरों को किस प्रकार से प्रभावित करता है। हमें वैसा ही फिक्रमंदी का भाव स्वयं अपने प्रति भी विकसित करना चाहिए, कि यदि मैं अपना पूरा समय व्यर्थ गँवा देता हूँ और अपने बहुमूल्य मानव जीवन का लाभ नहीं उठाता हूँ, तो फिर एक ऐसा समय आएगा जब मृत्यु के समय मुझे अपने समय के इस अपव्यय के लिए बहुत ज़्यादा अफसोस होगा।
हम फिक्रमंदी के इस भाव को दिन-प्रतिदिन के जीवन के सामान्य कार्यकलापों की ओर भी लक्षित कर सकते हैं। मैं इस बात की फिक्र कर सकता हूँ कि मैं अपने बच्चों का लालन-पालन किस तरह करता हूँ, अपने काम-काज को किस तरह से करता हूँ; मैं अपने सामान्य मानसिक और शारीरिक कल्याण की फिक्र कर सकता हूँ। इस प्रकार के दृष्टिकोण के साथ हम अपने लिए शिक्षाओं के महत्व के बारे में विचार करेंगे। धीरे-धीरे हम शिक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें याद रखने का प्रयास करेंगे, यदि हम हर समय उन्हें याद नहीं रख सकते हैं तो अधिकतर समय उन्हें याद रखने का प्रयत्न करेंगे। ध्यानसाधना वह विधि है जिसकी सहायता से हम अपने आपको शिक्षाओं के प्रति अभ्यस्त बनाते हैं ताकि सहज रूप से हमारी चित्तवृत्ति का हिस्सा बन जाएं, जहाँ हमें उन्हें याद रखने के लिए कोई प्रयास न करना पड़े।
यदि हम आश्वस्त हों कि हम ऐसा परिज्ञान हासिल करने के लिए सक्षम हैं, तो फिर हम पूरे मनोयोग से ऐसा करने का प्रयत्न करेंगे। यदि हम इसके प्रति आश्वस्त न हों तो हमारा प्रयास ऐसा होगा जैसे हम अपनी बाहें फड़फड़ा कर उड़ने का प्रयत्न कर रहे हों: आपको उसके परिणाम की परवाह ही क्यों होगी? शुरुआत में हो सकता है कि हमें मुक्ति या ज्ञानोदय का अर्थ भी न मालूम हो, लेकिन हम इसका बोध हासिल करने का दीर्घावधि का लक्ष्य तय करते हैं और उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं, और मृत्यु का बोध हमें अपने जीवन को व्यर्थ गँवाने से रोकने के लिए प्रेरित करता है।
करुणा सम्बंधी ध्यानसाधना
अब हम इस प्रक्रिया के तीसरे चरण यानी ध्यानसाधना के बारे में विचार करने के लिए तैयार हो चुके हैं। इस विषय से हमारा परिचय कराने के उद्देश्य से तिब्बत के महान बौद्धाचार्य त्सोंग्खापा ने एक बहुत ही सुंदर सलाह दी है। सूत्र तथा तंत्र सम्बंधी व्यावहारिक उपदेश पत्र में उन्होंने लिखा है कि ध्यानसाधना करने के लिए हमें “यह बोध हासिल करना चाहिए कि हम जिस चित्तावस्था को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं वह किन कारणों से उत्पन्न होती है।“ इसलिए यदि हम करुणा का भाव विकसित करना चाहते हैं तो हमें मालूम होना चाहिए कि कौन से कारण उसकी उत्पत्ति में परिणत होंगे।
यह निर्भरता की कसौटी है – दूसरों के दुख और दुख के कारणों से मुक्त होने की कामना (बौद्ध धर्म में करुणा को ऐसे ही परिभाषित किया गया है) को विकसित करने के लिए हमें यह समझना होगा कि दूसरों के साथ हमारा अन्तर्सम्बंध है। नहीं तो हम उनके बारे में बिल्कुल भी परवाह ही नहीं करेंगे। इसलिए हमें यह विचार करना चाहिए कि हमारा पूरा अस्तित्व किस प्रकार सभी दूसरों की कड़ी मेहनत और उनके दयाभाव पर निर्भर है – वे लोग जो हमारे लिए भोजन तैयार करते हैं, हमारे लिए सड़कों का निर्माण करते हैं आदि। जब हम यह याद रखते हैं कि उन्होंने हमारे जीवन को सम्भव बनाने के लिए क्या-क्या काम किया है, हमारे भीतर उनके लिए आभार और सराहना का भाव उत्पन्न होता है। जब हम इस बात को ईमानदारी से और गहराई से महसूस करते हैं तो हमारी कृतज्ञता के भाव से सहज रूप में स्नेह का भाव उमड़ता है जिसके कारण हम उन्हें बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं और यदि उनके साथ कुछ बहुत बुरा घटित हो तो हमें बुरा लगता है। इससे प्रेम का भाव जाग्रत होता है: यह कामना कि वे सुखी हों और उन्हें सुख के साधनों की प्राप्ति हो। किन्तु जब हम देखते हैं कि वे सुखी नहीं हैं, बल्कि तमाम तरह के दुखों से त्रस्त हैं, तो हमारे भीतर करुणा का भाव उत्पन्न होता है। करुणा भाव जाग्रत कर पाने में हमारी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम सही क्रम में इन सभी चरणों से होकर गुज़रें।
करुणा निवृत्ति होने पर भी निर्भर करती है, इसका अर्थ है कि हम स्वयं अपने दुखों को पहचानते हैं, उनसे मुक्त होने का निश्चय करते हैं, और फिर यह बोध भी हासिल करते हैं कि दूसरे सब लोग भी उन्हीं दुखों से त्रस्त हैं और उनसे मुक्ति की वही कामना रखते हैं। यही निवृत्ति है – दुख से मुक्ति पाने का संकल्प। दूसरों के दुख की ओर लक्षित वैसे ही दृढ़ निश्चय वाली करुणा स्पष्ट तौर पर इस बात पर निर्भर करती है कि वैसा दृढ़ निश्चय पहले स्वयं अपने प्रति होना चाहिए।
त्सोंग्खापा आगे कहते हैं हमें “पहलुओं को समझना चाहिए,” जिसका मतलब यह है कि यदि हम करुणा विकसित करना चाहते हैं, यदि हम कामना करते हैं कि सभी अपने समस्त दुखों से मुक्त हो जाएं, तो हमें दुख के विभिन्न पहलुओं और दुख के कारणों के विभिन्न पहलुओं को समझना चाहिए। यह बात सिर्फ उन्हें कोई नौकरी पाने में सहायता करने या खाने के लिए कुछ अच्छा देने की नहीं है – यहाँ हम अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म (संसार) के सर्वव्यापी दुख, और उस आधारभूत अनभिज्ञता और भ्रम के बारे में बात कर रहे हैं जिसके कारण सांसारिक अस्तित्व और उसकी नित्यता उत्पन्न होती है। प्रेम और करुणा की ध्यानसाधना के लिए आप बैठकर सिर्फ यह विचार नहीं करते हैं, “वाह, कितना अच्छा है, मैं सभी से प्रेम करता हूँ।“ यह बात कुछ ज़्यादा ही अस्पष्ट है – हम चित्त की जिन अवस्थाओं को विकसित करना चाहते हैं वे एकदम स्पष्ट होती हैं। त्सोंग्खापा ने उन सभी बातों का उल्लेख किया है जो उस अवस्था को स्पष्ट तौर पर बताने में सहायक होती हैं जिसे हम विकसित करने के लिए प्रयत्न कर रहे होते हैं।
ऐसी स्थिति में जब हम किसी चित्तावस्था को विकसित करने के लिए प्रयास कर रहे होते हैं तो हमारे लिए यह जानना बहुत महत्वपूर्ण होता है कि हम किस बात पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। हमारे चित्त में क्या बात प्रकट होनी चाहिए? करुणायुक्त होकर हम दूसरे जीवों और उनके दुख पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं। और यह केवल करुणा नहीं होती है, बल्कि “महाकरुणा” होती है जो सभी को समभाव से देखती है। और जीवों की संख्या तो बहुत ज़्यादा है – हम सचमुच सभी के बारे में सोचते हैं। यह एक अविश्वसनीय रूप से विशाल दायरा होता है जब हम सोचते हैं, “मैं इस ब्रह्मांड के प्रत्येक कीड़े-मकोड़े की सहायता करूँगा।“ हम यहाँ ऐसे प्रत्येक मानसिक सातत्य की बात करते हैं जो इस समय किसी कीट के रूप में प्रकट दिखाई देता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह हमेशा ही कीट रहा हो – हम उस जीव को मुक्त करने वाले हैं जो इस जन्म में तो कीट के रूप में है, किन्तु पिछले जन्म में हमारी माता रह चुका है। और मैं अपनी माता को, जो अपने पिछले जन्म में कोई कृमि रह चुकी हो सकती है, इस जन्म में मुक्ति दिलाऊँगा।
यह आसान नहीं होता है कि हम प्रत्येक जीव के बारे में कल्पना कर सकें किन्तु उदारचित्त महायान बौद्ध साधना में हम साधना करते समय अपने आसपास जीवों के एक विशाल समूह की कल्पना करते हैं, और कल्पना करते हैं कि हम उनमें से प्रत्येक के दुखों को कम कर रहे हैं। कई महायान सूत्रों की शुरुआत में हज़ारों करोड़ जीवों के आसपास उपस्थित होने का वर्णन आता है जिससे साधना के दायरे की विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है।
दरअसल समान रूप से प्रत्येक जीव के प्रति इस प्रकार की सार्वभौमिक करुणा का भाव रख पाना अविश्वसनीय लगता है। समवृत्ति इस प्रकार की करुणा का आधार है, जहाँ हम दूसरे सभी जीवों के प्रति उदारता का भाव रखते हैं। उचित प्रकार से करुणा की ध्यानसाधना करने के लिए यह आवश्यक है कि हम इन सब बातों को जानें।
इसके अलावा, हमें यह भी जानना चाहिए कि जिस बात पर हम ध्यान केंद्रित कर रहे हैं उसे हमारा चित्त किस प्रकार से समझता है। जब हम करुणा की ध्यानसाधना करते हैं तो हम कामना करते हैं कि सभी जीव दुख से मुक्त हो जाएं और उनके दुख के समस्त कारण नष्ट हो जाएं। यह कामना ऐसी नहीं होती है कि कोई और उनकी सहायता करने के लिए आएगा, या कि दुख सामान्य तौर पर समाप्त हो जाएगा, बल्कि यह कि हम स्वयं उनकी सहायता करने का प्रयास करेंगे ताकि वे अपने दुखों पर विजय पा सकें।
त्सोंग्खापा आगे कहते हैं कि हमें यह जानना चाहिए कि करुणा के भाव को विकसित करने की दृष्टि से कौन सी बातें लाभकारी होंगी और हमारी सहायक सिद्ध होंगी और कौन-कौन सी बातें इसके प्रतिकूल और नुकसानदेह होंगी। केवल यही नहीं कि कौन सी बातें करुणा के भाव को विकसित करने में हमारी सहायता करेंगी, बल्कि इस बात के प्रति आश्वस्त होना नितांत आवश्यक है कि दुख से मुक्ति पाना वास्तव में सम्भव है। यदि हम समझते हैं कि ऐसा सम्भव नहीं है, तो फिर हम उसकी कामना ही क्यों करेंगे और उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न ही कैसे कर पाएंगे? मैं अपने दुख से मुक्ति प्राप्त कर सकता हूँ, और मैं इतना सक्षम हूँ कि दूसरों को अपने दुखों से मुक्ति पाने में उनकी सहायता कर सकता हूँ, यह दृढ़ विश्वास ही इसका आधार है। इसके लिए हमें अपनी क्षमताओं का, और किसी बुद्ध की भी क्षमताओं का यथार्थ बोध होना चाहिए। इसलिए, करुणाभाव विकसित करने में हमारे सामने आत्मकेंद्रिकता और स्वार्थपरायणता तो बाधक बनते ही हैं, साथ ही साहसहीनता और आत्मविश्वास का अभाव भी इसमें बाधक होते हैं। आखिर बुद्ध ने भी तो कहा था कि दुख को इस तरह नहीं दूर किया जा सकता है जैसे किसी व्यक्ति के पैर से काँटा निकाला जाता है। कोई बुद्ध भी केवल मार्ग ही दिखा सकता है, आगे का परिश्रम दूसरों को स्वयं करना होता है। हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि हम बुद्ध से भी बेहतर कर पाएंगे?
संक्षेप में, यदि हमें करुणा जैसी किसी चित्तावस्था को विकसित करने की प्रक्रिया की विशिष्ट जानकारी न हो, तो हम ज्यादा दूर तक नहीं जा सकेंगे। इस प्रकार हम यह शुरुआती बोध हासिल कर सकते हैं कि ध्यानसाधना वास्तव में कितनी विशिष्ट और जटिल प्रक्रिया है; हम इसे “चित्त का विज्ञान” भी कह सकते हैं।
ध्यानसाधना सत्रों के बीच की समयावधि
त्सोंग्खापा कहते हैं कि ध्यानसाधना सत्रों के बीच की अवधि भी बहुत महत्वपूर्ण होती है। उनकी सलाह है कि इस अवधि में हमें उस विषय से सम्बंधित विभिन्न धर्मग्रंथों को पढ़ना चाहिए जिसकी हम ध्यानसाधना कर रहे हों। एक तरफ जहाँ उससे यह पुष्टि होगी कि हम जो साधना कर रहे हैं वह वही है जिसकी बुद्ध ने शिक्षा दी थी, वहीं दूसरी ओर हमें महान आचार्यों की उपलब्धियों के बारे में पढ़ने से प्रेरणा हासिल होगी। इससे भी बढ़कर, त्सोंग्खापा कहते हैं कि हमें शुद्धिकरण के अभ्यासों के माध्यम से अपने सकारात्मक बल को विकसित करना चाहिए और शुद्धि करके नकारात्मक शक्तियों को दूर करना चाहिए।
मैं “पुण्य” शब्द के स्थान पर “सकारात्मक शक्ति” का प्रयोग करता हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि पुण्य से एक गलत अर्थ प्रतिध्वनित होता है। पुण्य शब्द से ऐसा लगता है मानो आप कुछ अंक जमा कर रहे हों और यदि आप सौ अंक जमा कर लेंगे, तो आप जीत जाएंगे। हम तो दरअसल एक प्रकार का सकारात्मक आवेश जमा कर रहे होते हैं जिससे हमें वैसे ही ऊर्जा मिलती है जैसे किसी सैल फोन को चार्ज करने से काम करने की ऊर्जा मिलती है। इसी तरह हमारे चित्त के मामले में हमें भी अपनी मानसिक बाधाओं को पार करने के लिए अपमार्जक साधनाओं की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि इन बाधाओं के उत्पन्न होने की स्थिति में हमें कुछ भी समझ नहीं आता है। इसके अलावा भावात्मक बाधाएं भी हो सकती हैं। सकारात्मक बल विकसित करने और विभिन्न प्रकार की अपमार्जक साधनाएं करने से हमें इन बाधाओं को पार करने और ज्ञान तथा बोध को प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
व्यावहारिक स्तर पर इन सब बातों का क्या अर्थ है? व्यवहार के स्तर पर इनका अर्थ है: जब हम किसी बात को समझने का प्रयास कर रहे होते हैं, और अपने कामकाज के सिलसिले में भी, और वह बात हमें समझ नहीं आती है, तो हम कुछ समय का अवकाश ले लेते हैं। हम बदलाव के लिए कुछ ऐसा करने का प्रयास करते हैं जो किसी न किसी रूप में दूसरों के लिए उपयोगी हो सके। ऐसा करने के बाद जब हम वापस लौटते हैं तो अक्सर तो हमारा चित्त और ज्यादा सकारात्मक होता है, प्रसन्न होता है, हम कुंठित होने के बजाए आत्मसम्मान के भाव से युक्त होते हैं, हम चीज़ों को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं। इसलिए, हमारा ओहदा जो भी हो, हमें कोई न कोई ऐसा काम करना चाहिए जो दूसरों के लिए फायदेमंद हो, भले ही वह काम अपने बच्चों के साथ और ज्यादा समय बिताने का हो, एकाकी जीवन बिताने वाले किसी बीमार रिश्तेदार से मिलने जाने का हो या कोई और काम हो। कुछ न कुछ सकारात्मक करते रहना बहुत महत्वपूर्ण होता है। हालाँकि हम कई तरह की अनुष्ठान साधनाएं भी कर सकते हैं, लेकिन असल जीवन में की गई साधना कहीं ज्यादा फलदायक होती है।
अपनी प्रगति पर नज़र रखना
हममें से अधिकांश लोगों के पास अपना कोई व्यक्तिगत शिक्षक नहीं होता है जिससे हम अपनी प्रगति के बारे में पूछ सकें, लेकिन लोजोंग या चित्त-साधना की शिक्षाओं में हमेशा यही कहा जाता है कि अपनी प्रगति के सबसे अच्छे साक्षी तो हम स्वयं ही होते हैं। हमें अपने आप से यह प्रश्न पूछते रहना चाहिए कि हम अपने ध्यान को एकाग्र कर पाते हैं या नहीं, या कहीं हमारा चित्त बहुत अधिक भटकता तो नहीं है – हमारे लिए इस बात का फैसला कोई दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता है! सभी शिक्षाओं और साधनाओं का उद्देश्य यही होता है कि हम अपनी चित्तावस्थाओं को बेहतर बना सकें, अपने आप में सुधार ला सकें। इसलिए इस बात का सबसे अच्छा फैसला हम स्वयं ही कर सकते हैं कि क्या हमें अभी भी बहुत क्रोध आता है, या अब हमें कम क्रोधित होते हैं आदि।
हमें इस सिद्धांत को ध्यान में रखना चाहिए कि जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, इसलिए हमारी प्रगति हमेशा एक सीधी रेखा जैसी नहीं होती है। ऐसा कभी नहीं होने वाला है कि आप हमेशा दिन-प्रतिदिन बेहतर ही होते चले जाएं। जब तक कि हम एक मुक्त सत्व न हो जाएं, तब तक उतार-चढ़ाव आते ही रहेंगे। भले ही हम बहुत लम्बे समय तक अभ्यास कर लें और सामान्य तौर पर क्रोध को नियंत्रित करना सीख लें, फिर भी कभी न कभी हमें क्रोध आ ही जाएगा। लेकिन इसकी वजह से हतोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। जहाँ एक तरफ हमें आत्मसुधार करने के लिए कड़ा परिश्रम करने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर गलती हो जाने पर हमें अपने आपको दंडित करने या अपराधबोध से ग्रस्त होने की भी आवश्यकता नहीं है। परम पावन दलाई लामा कहते हैं कि हमें अपनी प्रगति का आकलन करने के लिए पाँच वर्ष की अवधि का मूल्यांकन करना चाहिए, सिर्फ एक सप्ताह की अवधि का नहीं। यदि हम यह आकलन करें कि अभी की तुलना में हम पाँच साल पहले परिस्थितियों का सामना किस प्रकार से करते थे, तो हम साफ तौर पर देख पाएंगे कि हमने कितनी प्रगति की है।
सारांश
ध्यानसाधना करने के लिए किसी विशेष स्थान की आवश्यकता नहीं होती है, बस कोई भी ऐसी जगह जो अपेक्षाकृत शांत और साफ-सुथरी हो, लेकिन यदि ऐसी जगह भी उपलब्ध न हो सके, तब भी कोई बात नहीं। मेरी एक मित्र अपनी माँ के साथ एक छोटे से अपार्टमेंट में रहा करती थीं। उनके घर में बस एक ही कमरा था, और उसी कमरे में माँ का टेलीविजन और रेडियो था, और यदि मेरी मित्र ध्यानसाधना या वैसा कुछ करने का प्रयत्न करती थीं तो उनकी माँ नाराज़ हो जाती थीं। उनके सामने सिर्फ एक ही सम्भावना थी कि वे उसी समय ध्यानसाधना करें जब वे टॉयलेट सीट पर बैठी हों। हर दिन वे अपना अभ्यास वहीं किया करती थीं, और उनके लिए यही अच्छा था। आपको मोमबत्तियों या अगरबत्तियों या वैसी ही दूसरी चीज़ों की ज़रूरत नहीं होती है, वे तो बस “चीज़ें” ही हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने चित्त को किस तरह विकसित करते हैं, और ध्यानसाधना का सम्बंध किसी विशेष प्रकार की चित्तावस्था को विकसित करने से होता है, और ऐसा हम कभी भी, कहीं भी कर सकते हैं। कुछ प्रकार की चित्तावस्थाओं को विकसित करने का अभ्यास भूमिगत रेल या बस में सफर करते हुए भी किया जा सकता है। जब हम धैर्य का भाव विकसित करना चाहते हैं, यह बोध हासिल करना चाहते हैं कि सभी सुख चाहते हैं और कोई भी दुख नहीं चाहता है, तो इसके लिए अपने कमरे में अकेले बैठे हुए लोगों के बारे में कल्पना करने के बजाए भीड़ भरी किसी बस से बेहतर कौन सी जगह हो सकती है?
ध्यानसाधना के अभ्यास के लिए यह आवश्यक होता है कि अभ्यास हर दिन बेनागा किया जाए। जैसे आप हर दिन दाँतों को ब्रश करना या टॉयलेट जाना नहीं भूलते हैं, वैसे ही आपको ध्यानसाधना करना भी नहीं भूलना चाहिए। हम इसे अपने जीवन का नियमित हिस्सा बना सकते हैं, फिर भले ही वह दिन में केवल पाँच मिनट के लिए ही क्यों न हो। हम कोई भी काम क्यों न करते हों, हम सभी इसे अपनी दिनचर्या में शामिल करने के लिए सुबह पाँच मिनट जल्दी तो जाग ही सकते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए कि यह काम हमारे लिए कोई संघर्ष बन जाए, बल्कि इससे हमारे जीवन में बड़ी स्थिरता आ सकती है – फिर भले ही दिन भर हम कितने ही व्यस्त क्यों न रहने वाले हों, आपको सातत्य प्रदान करने वाला यह समय तो आपको अपने लिए उपलब्ध बना ही रहेगा।