हमने देखा है कि ध्यानसाधना एक त्रिस्तरीय प्रक्रिया है जिसमें शिक्षाओं का श्रवण किया जाता है, उनके बारे में चिंतन किया जाता है, और फिर उनकी ध्यानसाधना की जाती है। इस तीसरे चरण की दृष्टि से ध्यानसाधना का अर्थ है कि शिक्षाओं को अपने जीवन में कैसे समाहित किया जाए, जोकि अभ्यास की पुनरावृत्ति से सम्भव होता है। मूलतः हम किसी सकारात्मक चित्तावस्था को उसकी पुनरावृत्ति करके विकसित करते हैं ताकि हम उसके प्रति अभ्यस्त हो जाएं।
हम शिक्षाओं का श्रवण करते हैं, और ऐसा करने से हमें सविवेक बोध की प्राप्ति होती है जिससे युक्त होकर हम भेद कर पाते हैं, “हाँ, यह बुद्ध की शिक्षा है” और उसके प्रति निश्चय भाव से युक्त हो जाते हैं। हमने यह भी देखा है कि हम शिक्षाओं को समझने के लिए पूर्वधारणाओं का सहारा लेते हैं; यह आवश्यक नहीं होता है कि हमने सभी शिक्षाओं को समझ ही लिया हो, लेकिन हमारी प्रेरणा और रुचि के कारण हम कम से कम उन्हें तब तक सही मान कर चलते हैं जब तक कि हम यह सिद्ध न कर दें कि वे सत्य नहीं हैं। यदि हमें लगता है कि कोई बात सत्य नहीं है तो हम उसे छोड़ सकते हैं। लेकिन चित्त कम से कम इतना ग्रहणशील होना चाहिए कि वह मान कर चल सके कि कोई बात सत्य है और यह जाँच करने का फैसला कर सके कि वह बात वास्तव में सत्य है या नहीं। और हमें यह पूर्वधारणा भी रखनी होगी कि वह बात लाभप्रद है, जैसे विटामिन हमारे लिए लाभकारी होते हैं। आप यह सोचकर ज़हर नहीं खाएंगे कि, “चलो देखते हैं कि क्या इससे सचमुच मेरी मृत्यु हो जाएगी,” लेकिन विटामिन के मामले में आप ऐसा करते हैं। इस प्रकार हम यह पूर्वधारणा रखते हैं कि यह लाभकारी है, क्योंकि बहुत से लोगों का कहना है कि यह लाभकारी है, और इसलिए हम इसे आज़मा कर देख सकते हैं।
जब हम शिक्षाओं के बारे में चिंतन करते हैं तो हम “चिंतन से उत्पन्न होने वाले सविवेक बोध” की प्रक्रिया के अंत तक पहुँचने की दृष्टि से शिक्षाओं की परख कर रहे होते हैं। इस अवस्था में पहुँचने के बाद हम पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं कि हमने उस शिक्षा को समझ लिया है, कि बुद्ध की वह शिक्षा सत्य है, कि वह पूरी तरह से लाभकारी है, और यह कि हम जिस लक्ष्य को हासिल करन चाहते हैं उसे हासिल करना वास्तव में सम्भव है। जब लोग ऊपर बताए गए चरणों को छोड़ देते हैं, जैसाकि बहुत से लोग करते हैं, तो फिर कुछ समय तक आगे बढ़ने के बाद “अनिश्चय की दुविधा” यानी संदेह उत्पन्न हो जाता है जिसके कारण वे तय नहीं कर पाते हैं कि वास्तव में लक्ष्य को प्राप्त करना सम्भव है या नहीं। और फिर वे अपना प्रयास बीच में ही छोड़ देते हैं।
मुक्ति क्या है?
जब हम मुक्ति या ज्ञानोदय और उन्हें प्राप्त करने के तरीकों के बारे में पढ़ते हैं, तब हमें मुक्ति के अर्थ को बिल्कुल ठीक-ठीक समझ लेना चाहिए। ज्ञानोदय प्राप्त कर लेने का वास्तविक अर्थ क्या है? और ज्ञानोदय प्राप्ति के बाद क्या होता है? शिक्षाओं में कहा गया है कि जो बुद्ध हो जाता है वह सर्वदर्शी होता है, उसे एक ही समय में सभी बातों का पूरा और सही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ऐसा बुद्धजन प्रत्येक जीव की समान रूप से परवाह करता है, और प्रत्येक जीव के साथ अच्छी तरह से संवाद कर सकता है। इस प्रकार कोई भी बुद्ध उत्तम से उत्तम विधि से सभी की सहायता करता है।
क्या ऐसा कर पाना सम्भव है, या यह सिर्फ एक कपोल-कल्पना है। यदि हम ऐसा मानते हैं कि यह हास्यास्पद है, तो फिर हम उसे हासिल करने का प्रयास ही क्यों कर रहे हैं? यदि हमें यह एक परी-कथा जैसा लगता है तो ज़ाहिर है कि हम ऐसा विश्वास नहीं करते हैं कि इसे हासिल करना सम्भव है। हमें बौद्ध धर्म में वर्णित लक्ष्यों के गुण-दोषों की विवेचना करनी चाहिए, और स्वयं अपनी प्रेरणा की भी जाँच करनी चाहिए।
हमारा लक्ष्य क्या है?
बौद्ध धर्म के संदर्भ में “प्रेरणा” शब्द का एक बहुत विशिष्ट अर्थ होता है। हम अक्सर कहते हैं, “अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि कीजिए या प्रेरणा को विकसित कीजिए,” तो उस प्रक्रिया के दो भाग होते हैं। एक तो उद्देश्य – हमारा लक्ष्य – होता है, और दूसरा वह मनोभाव या भावना होती है जो हमें उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रेरित करती है। सामान्यतया अंग्रेज़ी भाषा में “मोटिवेशन” शब्द का निहितार्थ मुख्यतः दूसरे भाग, हमें किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करने वाले मनोभाव, से ही सम्बंधित होता है।
मैं बौद्ध शिक्षाओं, “धर्म” का अनुसरण करने वाले बहुत से लोगों के बारे में सोचता हूँ। यदि हम इस कार्य को ईमानदारी से करें तो हम पाते हैं कि वास्तव में हमारा लक्ष्य इस जीवन को और अधिक सुगम और सुखी बनाना है। और इसमें कोई बुराई नहीं है – इसे मैं “रीयल थिंग धर्म” के बजाए “धर्म-लाइट” कहना पसंद करता हूँ। यह एक पहला कदम है। असल बात यह है कि हम बेहतर पुनर्जन्म की प्राप्ति के लिए प्रयास करें, ताकि हमें जन्म दर जन्म मनुष्य के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त होते रहें। लेकिन यदि आप पुनर्जन्म में विश्वास ही न करते हों तो फिर आप निष्ठापूर्वक बेहतर पुनर्जन्म प्राप्ति के लक्ष्य को कैसे साध सकेंगे? पुनर्जन्म को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि पुनर्जन्म किसका होता है, चित्त के सातत्य की प्रकृति क्या है, आत्म क्या है, आदि। दरअसल बेहतर पुनर्जन्म की प्राप्ति को लक्ष्य बनाना विशिष्ट तौर पर बौद्ध विचार नहीं है। ईसाई और दूसरे धर्मों में भी इस लक्ष्य की कामना की जाती है; ईसाई धर्म में स्वर्ग में पुनर्जन्म की बात की जाती है।
अगला लक्ष्य अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्मों से मुक्ति पाने का होता है। हिन्दू धर्म में भी इसे लक्ष्य बनाया जाता है। इसलिए हमें समझना होगा कि बौद्ध धर्म में मुक्ति का वास्तविक अर्थ क्या है, और उसे प्राप्त करने के लिए कौन-कौन से तरीके बताए गए हैं। और उसके बाद स्वाभाविक है कि अंतिम लक्ष्य ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध की अवस्था को प्राप्त करना होता है – यही बात बौद्ध धर्म की दृष्टि से इसे विशिष्ट बनाती है।
क्रमबद्ध प्रगति
यदि हम बौद्ध शिक्षाओं पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि इन्हें क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया गया है। एक विषय का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही दूसरे की बारी आती है, और इस क्रमव्यवस्था को महत्व देना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि हम केवल यह कहें कि, “मैं इसलिए बुद्धत्व को प्राप्त करना चाहता हूँ ताकि में सभी सचेतन जीवों की भलाई कर सकूँ” और यदि ऐसा कहने का कोई आधार न हो तो फिर ये कोरे शब्द मात्र ही होंगे। क्या हम सचमुच इस ब्रह्मांड के हर कीड़े-मकोड़े तक को मुक्ति दिलाने और ज्ञानोदय दिलाने के लिए लक्ष्यबद्ध हैं? शायद नहीं। इतना विशाल लक्ष्य रखने और उसकी प्राप्ति के लिए सचमुच गंभीरता से काम करने के लिए हमारे चित्त का दायरा बहुत ही व्यापक होना चाहिए, और हमें उस दायरे को धीरे-धीरे बड़ा करना होता है। ऐसा करने के लिए हम प्रत्येक शिक्षा को “चार सिद्धप्रमाणों” की कसौटी पर कसते हैं, जोकि किसी बात की जाँच करने के चार दृष्टिकोण होते हैं, और इसकी शुरुआत हम धर्म के सबसे बुनियादी सिद्धांतों से करते हैं।
चार सिद्धप्रमाणों के प्रयोग के उदाहरण के तौर पर हम मृत्यु और नश्वरता के बारे में विचार और ध्यानसाधना कर सकते हैं। मैं इस उदाहरण का प्रयोग कदाचित थोड़े स्वार्थवश कर रहा हूँ, क्योंकि पिछले सप्ताह ही मेरे घनिष्ठतम मित्र का देहांत हुआ है। खैर, ये चार कसौटियाँ इस प्रकार हैं:
- निर्भरता की कसौटी – हम जिस चित्तावस्था को विकसित करना चाहते हैं, यहाँ मृत्यु का बोध, वह किन बातों पर निर्भर करती है?
- व्यावहारिकता की कसौटी – यदि हम उस चित्तावस्था को प्राप्त कर लें, तो वह क्या कार्य करती है और उसके फायदे या नुकसान क्या हैं?
- तर्क की कसौटी – यदि हम यह तय करने के लिए किसी शिक्षा की जाँच करें कि वह सत्य है या नहीं, तो क्या वह बुद्ध की बाकी शिक्षाओं के अनुरूप साबित होती है? क्या वह तर्कसंगत है? यदि हम उसकी आज़माइश करें तो क्या वह बताए गए प्रभाव को उत्पन्न करती है?
- प्रकृति की कसौटी – क्या मृत्यु चीज़ों और जीवों की प्रकृति का लक्षण है? क्या प्रत्येक जीव की मृत्यु होती है?
हम मृत्यु सम्बंधी शिक्षा जैसी किसी शिक्षा को लेते हैं और जितना समय आवश्यक हो उतना समय देते हुए इन चार कसौटियों की दृष्टि से उस शिक्षा का विश्लेषण करते हैं। ऐसा कोई निश्चित सूत्र नहीं है जिसके आधार पर कहा जा सके कि आप इस विषय पर दस मिनट का समय लगाएं और उस विषय पर बीस मिनट का समय लगाएं। लेकिन अच्छा यही है कि इसमें बहुत जल्दबाज़ी न की जाए, क्योंकि उस स्थिति में आप जिस विषय पर ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है। बेहतर यही है कि उस विषय के बोध को समझने का समय दिया जाए, और वास्तव में उसे विकसित करने के लिए प्रयत्न किया जाए।
पूर्ण बोध हासिल करना
मूल बात यह है कि हम इस दृष्टि से आश्वस्त होना चाहते हैं कि हमने किसी विषय को इस तरह से समझ लिया है कि हमें उसके बारे में किसी तरह की दुविधा या संशय न रहे। यही कारण है कि तिब्बत में वाद-विवाद के माध्यम से शिक्षा की विधि को अपनाया जाता है, जो हमें अपने ज्ञान के बारे में प्रश्न पूछने के लिए बाध्य करती है। सभी को ऐसा करना पड़ता है – ऐसा नहीं हो सकता है कि आप कक्षा में पीछे की पंक्ति में चुपचाप बैठे रहें। कोई एक व्यक्ति कोई बात कहता है, और उसके विरोधी को उसे स्वीकार या अस्वीकार करना होता है। इस अभ्यास के पीछे मूल मंशा यह जानने की नहीं होती है कि सही उत्तर क्या है, बल्कि किसी विषय के बोध के बारे में यकीन हासिल करने की होती है। यह विधि बहुत अच्छी है क्योंकि इसमें दूसरे लोग आपकी समझ को जितनी चुनौती दे सकते हैं उतना आप स्वयं कभी नहीं दे सकते हैं। वाद-विवाद के दौरान बहुत ऊर्जा का प्रवाह होता है क्योंकि लोगों को यह बहुत मज़ेदार लगता है और जब वे किसी व्यक्ति से उसकी अपनी ही बात का खंडन करवा लेते हैं तो उन्हें हँसने के मौके भी बहुत मिलते हैं। लेकिन यह सब दोस्ताना माहौल में किया जाता है और हर कोई उसका आनंद उठाता है।
शिक्षा ग्रहण करने की इस शैली का एक और फायदा यह होता है कि आप चाहे कोई भी हों, कहीं न कहीं आप अपनी बात का खंडन कर ही जाएंगे और कोई नासमझी की बात कह जाएंगे, जोकि अहंकार और घमंड को कम करने के लिए फायदेमंद होता है। इससे शर्मीलापन भी दूर होता है – आप शर्मीले बने रहते हुए किसी सभा में बहस करने के लिए तो खड़े नहीं हो सकते हैं।
हमें यह कहते हुए वाद-विवाद को खारिज नहीं करना चाहिए कि, “अरे, यह तो बुद्धिजीवियों का काम है; मैं तो बस सहज बुद्धि के आधार पर ध्यानसाधना करना चाहता हूँ।“ वाद-विवाद ध्यानसाधना करने में सहायक होता है, और यही इसका पूरा प्रयोजन है। वाद-विवाद में भाग लेने के बाद आपको कोई संशय नहीं रह जाता है और आप अपने बोध के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं, और फिर आप इस अभिज्ञान को समाहित करने के लिए पूरे विश्वास के साथ ध्यानसाधना कर सकते हैं। अन्यथा आपकी ध्यानसाधना में इतनी दृढ़ता नहीं होती है। हाँ, यह तो है कि आप आपस में औपचारिक ढंग से वाद-विवाद नहीं करते हैं, लेकिन घमंड या अहंकार से मुक्त होकर, और यह सोचकर रक्षात्मक हुए बिना कि दूसरा व्यक्ति आपके ऊपर व्यक्तिगत प्रहार कर रहा है, शिक्षाओं के बारे में चर्चा करना बहुत उपयोगी होता है।
दो और तकनीकी बौद्ध अभिव्यक्तियाँ हैं “किसी तथ्य को सत्य मानना” और “दृढ़ विश्वास”। हो सकता है कि हम किसी ऐसी बात को सत्य मान लें जो असत्य हों, इसलिए हमें शिक्षाओं की परख करते समय सावधानी बरतनी चाहिए ताकि हम सही बोध हासिल किए बिना ही इस निष्कर्ष पर न पहुँचें कि हमें सही बोध हासिल हो गया है। दृढ़ विश्वास वह होता है जब हम इतने आश्वस्त होते हैं कि कुछ भी हमारे विश्वास को खत्म नहीं कर सकता है, और हमें सचमुच यही विश्वास विकसित करने की आवश्यकता होती है।
आगे बढ़ते रहें
इस प्रकार की विरूपित सोच हठधर्मिता और वैचारिक संकीर्णता का रूप ले सकती है। हमें गलत बोध हो जाता है और हम इतने हठी हो जाते हैं कि हमारे विचारों को कोई दुरुस्त नहीं कर सकता है – कभी-कभी इसका अनुवाद “गलत दृष्टिकोण” के रूप में किया जाता है। हम किसी गलत बात को सही मान बैठते हैं और उसे लेकर इतने हठी हो जाते हैं कि यदि कोई व्यक्ति उससे अलग कोई विचार व्यक्त करने का प्रयास करे तो उसके प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं और उस पर हमला करने के लिए भी तत्पर हो जाते हैं।
जब तक कि हम स्वयं बुद्ध न हो जाएं, हमें विषयों को अधिक से अधिक गहराई के साथ समझने का प्रयास करना चाहिए। इसलिए हमें हमेशा बताया जाता है, “अपने ज्ञान, अपनी सिद्धि के स्तर से कभी संतुष्ट न हों, क्योंकि जब तक आप बुद्धत्व को प्राप्त न कर लें तब तक आप विषयों को और अधिक गहराई से जान सकते हैं, और अधिक ऊँची सिद्धि हासिल कर सकते हैं।“ इसलिए, भले ही हमने सही बोध हासिल कर लिया हो तब भी हो सकता है कि हमारा बोध गहनतम न हो। परम पावन दलाई लामा के शिक्षकों में से एक त्रिजांग रिंपोशे कहा करते थे, “मैंने लाम-रिम चेन-मो (त्सोंग्खापा द्वारा रचित एक आधारभूत बृहत ग्रंथ मार्ग के क्रमिक स्तर सम्बंधी भव्य व्याख्यान) को सौ बार पढ़ा है, और हर बार जब मैंने उसे पढ़ा है तो मुझे एक अलग और गहरा बोध हासिल हुआ है।“ यह एक अच्छा उदाहरण है जो दर्शाता है कि किस प्रकार शुरुआत में ही सही ज्ञान हासिल कर लेने के बाद भी हमें उस विषय को और अधिक गहराई से समझने का प्रयास करते रहना चाहिए।
मृत्यु सम्बंधी ध्यानसाधना
अब हम उन चार कसौटियों को मृत्यु सम्बंधी ध्यानसाधना की दृष्टि से देखेंगे ताकि हम जान सकें कि इनका क्या आशय है और इन्हें किस प्रकार प्रयोग में लाया जाए। बेशक हम इन्हें लागू करने का कार्य मृत्यु और मृत्यु सम्बंधी ध्यानसाधना के बारे में शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही कर सकेंगे। मृत्यु के बारे में विचार करते समय हम तीन बुनियादी तथ्यों पर ध्यान देते हैं:
- मृत्यु अवश्यंभावी है।
- मृत्यु का समय अनिश्चित है।
- मृत्यु की घड़ी में धर्म के अलावा और कोई सहायक नहीं होगा।
हम सभी की मृत्यु होना निश्चित है। वह अवश्यंभावी है – मेरी, आपकी, हमारे सभी परिचितों की, और दूसरे सभी लोगों की भी मृत्यु होगी। हमें इस बात का भी कुछ पता नहीं है कि कब मृत्यु हमें अपने शिकंजे में ले लेगी, और जब हमारी मृत्यु होगी तब हमारी उन सकारात्मक आदतों के अलावा जिन्हें हमने विकसित किया हो और अपने मानसिक सातत्य का हिस्सा बना लिया हो, कोई दूसरी चीज़ हमारी सहायक नहीं होगी।
मृत्यु अवश्यंभावी है, किन्तु वह किन बातों पर निर्भर है (निर्भरता की कसौटी)? इसका विश्लेषण हम अनेक स्तरों पर कर सकते हैं। पहली बात यह है कि मृत्यु जीवन पर निर्भर करती है। जीवित हुए बिना किसी व्यक्ति की मृत्यु नहीं हो सकती है। हर दिन हमारी उम्र बढ़ रही है और हमारा शरीर, जो शुरुआत में काफी सुदृढ़ होता है, दुर्बल होता चला जाता है। इस प्रकार मृत्यु उस शरीर पर भी निर्भर करती है जो रोगग्रस्त हो सकता है, किसी कार दुर्घटना आदि का शिकार हो सकता है।
मृत्यु के बारे में चिंतन क्यों आवश्यक है?
मृत्यु के बारे में ध्यानसाधना करने से पहले हमें निर्भरता की कसौटी की दृष्टि से गहन स्तर पर अपने बहुमूल्य मानव जीवन को समझने की आवश्यकता होती है। मृत्यु का बोध कराने के पीछे हमें इस समय प्राप्त अपने इस बहुमूल्य मानव जीवन के महत्व को समझने के लिए प्रेरित करने की मंशा होती है। यदि हम अपने जीवन और आत्मसुधार करने के लिए हमें मिले इस अवसर के महत्व को नहीं समझेंगे तो हम अपने जीवन के समाप्त होने के बारे में ज्यादा विचार नहीं कर पाएंगे। क्योंकि ज्यादातर लोग इस बात के महत्व को नहीं समझ पाते हैं कि “मैं जीवित हूँ, और मैं अपने इस शरीर और चित्त का उपयोग कुछ सकारात्मक उद्देश्य हासिल करने के लिए कर सकता हूँ,” इसलिए वे अपने जीवन को व्यर्थ ही गँवा देते हैं। इस प्रकार मृत्यु के बारे में बोध जीवन के बोध पर निर्भर करता है।
हम इस बात को समझ पाते हैं कि हमें यह बहुमूल्य मानव जीवन मिला है और हम उन निम्नतर स्थितियों से मुक्त हैं जो हमें जीवित होने की स्थिति का लाभ उठाने से रोक सकती थीं। हमारा जन्म किसी कॉकरोच के रूप में नहीं हुआ है जिसे देखते ही कोई भी व्यक्ति अपने पैरों तले कुचल देना चाहता है। हमारा जन्म किसी ऐसी छोटी मछली के रूप में नहीं हुआ है जिसे कोई बड़ी मछली जीवित ही निगल लेती है। हमारा जन्म किसी मक्खी के रूप में भी नहीं हुआ है। सोच कर देखिए, यदि आपका जन्म किसी मक्खी के रूप में होता तो आप क्या कर पाते और क्या हासिल कर पाते? कुछ जयादा नहीं, हम अपना पूरा जीवन मल और कचरे पर भिनकते हुए बिता देते!
इस प्रकार मृत्यु के प्रति सचेत रहने (व्यावहारिकता की कसौटी) का अर्थ केवल खिन्नचित्त होना ही नहीं है, “ओह, कितना भयानक है! मेरी मृत्यु निश्चित है!” बात यह नहीं है। इसका उद्देश्य तो यह है कि हम अभी उपलब्ध बहुमूल्य समय का लाभ उठाने के लिए तत्पर हो जाएं, क्योंकि हम सचमुच नहीं जानते कि यह समय कब समाप्त हो जाएगा। जैसा पिछले सप्ताह मेरे मित्र के साथ हुआ, उसका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था और उसकी उम्र भी कोई खास ज़्यादा नहीं थी। वह न धूम्रपान करता था और न ही शराब पीता था, उसे उच्च रक्तचाप की समस्या भी नहीं थी, खूब व्यायाम करता था, वह गहन ध्यानसाधना करने वाला साधक था। और पिछले सप्ताह एक दिन सुबह उसने शावर में स्नान किया जहाँ उसे दिल का दौरा पड़ा और गिर कर उसकी मृत्यु हो गई। बस।
निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है कि हमारा यह बहुमूल्य जीवन किस क्षण हमसे छिन जाएगा, और मृत्यु अक्सर बहुत आकस्मिक ढंग से आ धमकती है। मृत्यु के लिए व्यक्ति का बूढ़ा होना, और बीमार होना आवश्यक नहीं है। इसलिए मृत्यु का बोध हासिल करने का मकसद अपने आलस्य और चीज़ों को बाद के लिए टालने की प्रवृत्ति से छुटकारा पाना होता है। मेरा मित्र एलन, जिसकी मृत्यु हुई, एक अच्छा उदाहरण है। उसकी माँ बहुत बूढ़ी हैं और उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता है, और मेरा मित्र सचमुच शरीर और पैसे से उनकी मदद करना चाहता था। इसलिए वह हर सप्ताहांत पर उनकी देखभाल करने के लिए जाता था – उनके लिए खरीददारी आदि जैसे काम करता था। वह हमेशा कहा करता था कि जब उसकी माँ की मृत्यु हो जाएगी तो वह काम से सेवानिवृत्ति ले लेगा और सबसे पहले शुद्धि के लिए एक वर्ष के लिए वज्रसत्व की एकांतसाधना करेगा, और उसके बाद और लम्बे समय की एकांतसाधनाएं करेगा। ऐसा करने का उसका उसने मन बनाया था।
जैसाकि मैंने बताया, वह एक गहन साधक था, लेकिन उसने कभी एकांतवास की ध्यानसाधना नहीं की क्योंकि वह चाहता था कि वह अपनी माँ की सहायता करने और उसकी जरूरतों का खर्च उठाने के लिए उपलब्ध रहे, और इसलिए उसे काम करते रहना पड़ रहा था। तो क्या उसे अपनी माँ की सहायता करने के लिए काम करते रहना चाहिए था, या अवसर रहते एकांतवास के लिए चला जाना चाहिए था, और अपनी माँ की देखभाल करने का काम दूसरों पर छोड़ जाना चाहिए था? ऐसी स्थिति में धर्म हमें क्या करने का निर्देश देगा? मृत्यु सम्बंधी शिक्षाएं हमें क्या करने के लिए प्रेरित करेंगी? यह सोचना उपयोगी रहेगा, यदि मैं उस स्थिति में होता तो क्या करता?
एक तरीका यह हो सकता है कि कम समय वाले एकांतवास किए जाएं और साथ ही साथ माँ की सहायता भी की जाए। यह आवश्यक नहीं है कि एकांतवास पूर्णकालिक आधार पर किया जाए – हम सुबह और शाम के समय का एक-एक सत्र करके दिन के समय जो भी आवश्यक कार्य हो उसे कर सकते हैं। एकांतवास करना अच्छी बात है, लेकिन शिक्षाओं में हमेशा यही कहा जाता है कि सभी जीवों के उपकार, विशेष तौर पर हमें जीवन देने वाली माँ के उपकार का बदला चुकाना बहुत महत्वपूर्ण है। जब आप अपने माता-पिता का की देखभाल करते हैं, विशेष तौर पर इस तरह अप्रसन्नता के बिना कि, “मैं तो चाहता हूँ कि इनकी मृत्यु हो जाए क्योंकि मुझे अपनी नौकरी पसंद नहीं है और मैं सेवानिवृत्त होना चाहता हूँ,” तो आप बहुत बड़ी सकारात्मक सामर्थ्य विकसित करते हैं। यदि हमें अपने माता-पिता की देखभाल करने की चिंता करने की आवश्यकता न हो, तो फिर बेशक हमें जितना अधिक हो सके अपने जीवन के अवसरों का लाभ उठाना चाहिए।
तिब्बती लामा अक्सर पश्चिम जगत के धर्म के छात्रों को गम्भीरता से नहीं लेते हैं क्योंकि हममें से बहुत से लोगों में धर्म के प्रति वैसा समर्पण और प्रतिबद्धता और उसके महत्व की वैसी मान्यता नहीं होती जैसी बहुत से तिब्बतियों में होती है। पश्चिम के लोगों का नज़रिया बहुत आरामपसंद होता है और वे सोचते हैं, “मैं आज बहुत थका हुआ हूँ, मैं उस शिक्षा के लिए अगली बार चला जाऊँगा।“ लेकिन यदि हम सचमुच गम्भीर हों और यदि हमें मृत्यु और अपने इस बहुमूल्य मानव जीवन के महत्व का बोध हो, तो फिर हमें कैसा भी महसूस हो रहा हो, हम उन शिक्षाओं को ग्रहण करने के लिए, जब भी वे उपलब्ध हों, हर दिन अवश्य जाएंगे।
मृत्यु जीवन का तार्किक अंत है
इसके बाद हम तर्क की सहायता से यह तय करते हैं कि हमें दी जा रही शिक्षाएं बुद्ध द्वारा दी गई शिक्षाओं के अनुरूप हैं या नहीं (तर्क की कसौटी)। ऐसा कर पाने के लिए अक्सर हमें इस बात की आवश्यकता होती है कि हमने पर्याप्त शिक्षाएं ग्रहण कर रखी हों, कई बौद्ध पुस्तकों का अध्ययन कर रखा हो। अनेक बौद्ध शिक्षाओं में नश्वरता की उल्लेख आता है, इसलिए यह बात बुद्ध द्वारा दी गई शिक्षाओं के अनुरूप है।
क्या यह तर्कसंगत है? हाँ, हर दिन के साथ हम मृत्यु के निकट पहुँचते चले जाते हैं। कोई एक क्षण ऐसा आएगा जब यह खेल खत्म हो जाएगा। मृत्यु का घटित होना निश्चित है, क्योंकि ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है जो मृत्यु की घड़ी के आ जाने पर उसे टाल सके। हमारे जीवनकाल की अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता है, बल्कि हमारा शेष जीवन दिन प्रति दिन, मिनट दर मिनट, सेकंड दर सेकंड घट रहा है। इस बात को भावनात्मक स्तर पर ग्रहण कर पाना बड़ी प्रकांड घटना है, जब हम इस बात को गम्भीरता से लेते हुए बिल्कुल भी घबराए बिना और शांतचित्त रहते हुए स्वीकार कर सकें। यदि हम जीवित रहते हुए धर्म की साधना के लिए समय न निकाल सके हों तब भी हमारी मृत्यु होना निश्चित है। जिस किसी ने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु अवश्य हुई है।
लाभकारी परिणाम
इसका परिणाम क्या है? देखिए, यदि हम सचमुच इस तथ्य के प्रति आश्वस्त हो जाएं कि मृत्यु हमारी ओर बढ़ रही है और हमें यह बहुमूल्य मानव जीवन मिला है, तो परिणाम यह होगा कि इससे हमारा आलस्य कम होगा, और हम सभी प्रकार के उपलब्ध अवसरों का लाभ उठा सकेंगे। हम अपने अनुभव से जान सकेंगे कि ऐसा करना लाभदायक है।
वस्तुओं या जीवों की प्रकृति सम्बंधी चौथी कसौटी यह है कि प्रत्येक जीव की प्रकृति यह है कि जिसका भी जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होती है। चीज़ें ऐसे ही होती हैं, यही वास्तविकता है, और इस हम इस तथ्य को स्वीकार करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते हैं।
इस उदाहरण की सहायता से हम यह जान सकते हैं कि हम शिक्षाओं का विश्लेषण करने के लिए अपने अनुभव से जुड़ी बातों को इन चार कसौटियों पर कस सकते हैं। यह एक निरंतर प्रक्रिया है क्योंकि उनके बारे में शत प्रतिशत आश्वस्त होने और उन्हें अपने जीवन में समाहित करने की प्रक्रिया में बड़ा परिश्रम लगता है। बुद्धि के स्तर इनके प्रति आश्वस्त होना आसान होता है, लेकिन भावात्मक स्तर पर इनके प्रति दृढ़ विश्वास कायम करना बहुत कठिन होता है। चित्त और शरीर के बीच अन्तर भी होता है – उदाहरण के लिए मेरे मित्र की मृत्यु की घटना को ही लें, मानसिक और भावात्मक स्तर पर मैं शांत और स्थिर महसूस करता हूँ, लेकिन मेरे शरीर के स्तर पर ऐसा लगता है जैसे उसकी सारी ऊर्जा खींच ली गई हो।
इसलिए, शारीरिक स्तर पर दुख है क्योंकि “हर किसी की मृत्यु होती है” की उस भावना को शरीर के स्तर पर अनुभव करना कठिन है। और मानसिक स्तर पर दुख समय-समय पर उत्पन्न होता रहेगा क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है। हम लोग बुद्ध नहीं हैं; हम अभी मुक्त नहीं हुए हैं। हम अभी हर प्रकार के अशांतकारी मनोभावों या दुखों से मुक्त नहीं हुए हैं। लेकिन उस मुक्ति को प्राप्त करना ही हमारा लक्ष्य है।
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सारांश
एक बार जब हमें इस बात का वास्तविक बोध हो जाए कि मुक्ति और ज्ञानोदय क्या हैं, तो फिर हम अपना लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं। जब हम तय कर लेते हैं कि हमारा ध्येय क्या है, तो फिर हम वहाँ पहुँचने के लिए अपने उपायों का निर्धारण कर सकते हैं। हम जो करना चाहते हैं उसके बारे में निश्चयवाचक बोध हासिल करने की दृष्टि से ये चार कसौटियाँ बहुत उपयोगी हैं।
जब हम मृत्यु सम्बंधी ध्यानसाधना करते हैं, और सही अर्थ में इस बात को समझ लेते हैं कि हम सभी की मृत्यु अवश्यंभावी है, किन्तु हमें इस बात का कोई इल्म नहीं है कि हमारी मृत्यु कब होगी, तो फिर हम ऐसे विषयों पर ध्यान देने के लिए प्रेरित होते हैं जो सचमुच महत्वपूर्ण हैं। मृत्यु का बोध हमारे भीतर एक बहुत बड़ा बदलाव लेकर आता है, उसके बाद यह सम्भव ही नहीं है कि आप आलस्य करें या निराशा के वशीभूत हो जाएं।