बोधिचित्त विकसित करने हेतु 7 भागों वाली कारण और प्रभाव सम्बंधी शिक्षा

दूसरों की अधिक से अधिक भलाई करने के उद्देश्य से बुद्धचित्त प्राप्ति का ध्येय ही बोधिचित्त है। इस ध्येय को विकसित करने के लिए 7 भागों वाली कारण तथा प्रभाव की विधि को अपना कर, और उसे विकसित करने के बाद और अधिक सुदृढ़ बनाकर हम समवृत्ति से शुरुआत करते हुए, सभी को पूर्व में रही हमारी माताओं के रूप में मानते हुए उनके प्रेम को स्मरण करने और कृतज्ञता का भाव रखते हुए उनकी उस दयालुता को वापस लौटाने की इच्छा लिए हम मनोभावों और बोधों के एक क्रम से होकर गुज़रते हैं। इसके परिणामस्वरूप सभी के प्रति समान रूप से प्रेम और करुणा का भाव, एक असाधारण संकल्प, और कारण सम्बंधी इस क्रम के परिणामस्वरूप बोधिचित्त ध्येय विकसित होता है।

परिचय

हमें एक बहुमूल्य मानव जीवन मिला है जिसमें हमें ऐसी सभी राहतें और समृद्धियाँ हासिल हैं जो बौद्ध मार्ग का अनुकरण करने में हमारी सहायता करते हैं। लेकिन ये स्वतंत्रताएं और अवसर हमेशा नहीं बने रहने वाले हैं। इसलिए हमें जो भी अवसर हासिल हैं हमें उनका भरपूर लाभ उठाना चाहिए।

हमें मिले बहुमूल्य जीवन का लाभ उठाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम इसका उपयोग बोधिचित्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिए करें। बोधिचित्त लक्ष्य एक ऐसा चित्त और हृदय होता है जो हमारे अपने उस व्यक्तिगत ज्ञानोदय पर केंद्रित होता है जो अभी घटित नहीं हुआ है, लेकिन जो बाद में हमारे उन बुद्ध धातु कारकों के आधार पर हमारे मानसिक सातत्यों में घटित माना जा सकता है जो ज्ञानोदय की प्राप्ति में सहायक होंगे। इन कारकों में हमारी सकारात्मक नैतिक शक्ति और गहन बोध के समूह, हमारे विभिन्न प्रकार के सद्गुण, और चित्त की सहज निर्मलता शामिल होते हैं। बोधिचित्त लक्ष्य के साथ दो प्रयोजन जुड़े होते हैं: कि प्रबोधन जितना शीघ्र सम्भव हो प्राप्त किया जाए और उसकी सहायता से सभी जीवों की भलाई की जाए।

बोधिचित्त लक्ष्य को विकसित करते समय हम इन दो प्रयोजनों को विपरीत क्रम में विकसित करते हैं। पहले तो हम सभी जीवों की भलाई करने का उद्देश्य रखते हैं, केवल मनुष्यों की ही नहीं। ऐसा हम अपने प्रेम, करुणा और असाधारण संकल्प की सहायता से करते हैं जिसके बारे में हम इस व्याख्यान में बाद में चर्चा करेंगे। और फिर उनकी सबसे प्रभावी ढंग से भलाई करने के लिए हम ज्ञानोदय प्राप्ति और बुद्धत्व प्राप्ति के लिए पूरी तरह लक्षित रहते हैं। हमें अपनी सभी सीमाओं और कमियों से मुक्ति के लिए ज्ञानोदय प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, क्योंकि हम देख पाते हैं कि ये सीमाएं और कमियाँ हमें दूसरों की अधिक से अधिक भलाई करने से रोकती हैं। उदाहरण के लिए यदि हम दूसरों पर क्रोधित हों तो फिर हम उस स्थिति में उनकी सहायता कैसे कर सकते हैं? इसके अलावा, हमें अपनी पूरी क्षमताओं को विकसित करने के लिए भी ज्ञानोदय प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। हमें इन्हें पूरी तरह विकसित करने की आवश्यकता इसलिए होती है ताकि हम दूसरों की भलाई के लिए उनका उपयोग कर सकें। इसलिए, बोधिचित्त लक्ष्य को विकसित करते समय ऐसा नहीं है कि पहले हम बुद्धत्व को इसलिए प्राप्त करना चाहते हों क्योंकि वही सबसे ऊँची अवस्था है और फिर उसके बाद किसी अनचाहे टैक्स का भुगतान करने के समान हमें दूसरों की भलाई करनी पड़े।

बोधिचित्त लक्ष्य को विकसित करने की दो प्रमुख विधियाँ हैं। एक विधि 7 भागों वाली कारण और प्रभाव सम्बंधी शिक्षा का तरीका है, दूसरी विधि स्वयं अपने बारे में और दूसरों के बारे में अपने दृष्टिकोणों को एक समान करने और उनकी अदला-बदली करने की विधि होती है। यहाँ हम पहली विधि के बारे में चर्चा करेंगे।

स्थितप्रज्ञता विकसित करना

7 भागों वाली कारण तथा प्रभाव सम्बंधी शिक्षा के 6 चरण होते हैं जो सातवें चरण, यानी बोधिचित्त लक्ष्य के वास्तव में विकसित होने के लिए कारण के रूप में कार्य करते हैं। इसकी शुरुआत एक प्रारम्भिक चरण से होती है जिसे सात चरणों की गिनती में गिना नहीं जाता है। हम स्थितप्रज्ञता के भाव को विकसित करके कुछ जीवों के प्रति आकर्षित होने या आसक्त होने, दूसरे जीवों के प्रति विकर्षित होने, और कुछ के प्रति तटस्थ या उदासीन रहने के के भाव पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रारम्भिक चरण के पीछे का उद्देश्य यह है कि हम सभी के प्रति समान रूप से उदार बन सकें।

सभी को बराबर समझने का भाव, जो सभी के प्रति समान रूप से उदार बनने के लिए आवश्यक होता है, इस बात को समझने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है कि मानसिक सातत्य या चित्त-प्रवाह का कोई आदि या अन्त नहीं होता है। इसलिए हर कोई किसी न किसी समय पर हमारा मित्र रह चुका है, हर कोई कभी न कभी हमारा शत्रु रह चुका है, हर कोई कभी न कभी हमारे लिए अजनबी रह चुका है, और यह स्थिति हमेशा बदलती रहती है। इस दृष्टि से हर कोई एक जैसा ही है।

अनादि चित्त ही इस प्रकार के दृष्टिकोण के पीछे समझने वाली प्रमुख बात है। बौद्ध धर्म की यह एक बुनियादी पूर्वधारणा है। पुनर्जन्म का सम्बंध अनुभूति के सातत्यों से होता है। मानसिक सातत्य अनुभूति के नैरन्तर्यों से बनता है। ये अलग-अलग होते हैं और मनुष्य, पशु, नर या मादा के रूप में उनकी कोई अन्तर्जात पहचान नहीं होती है। किसी विशिष्ट पुनर्जन्म में किसी जीव रूप और लिंग के रूप में किसी मानसिक सातत्य का प्रकट होना उसके पिछले कर्म व्यवहार और उसके उत्तर-प्रभावों पर निर्भर करता है।

बोधिचित्त को विकसित करने के लिए अनादि चित्त की यह अवधारणा एक बुनियादी, आवश्यक बोध है, क्योंकि इसी बोध के आधार पर समस्त जीवों के प्रति प्रेममय करुणा का भाव विकसित कर पाना सम्भव होता है। हम दूसरे जीवों को केवल इस दृष्टि से नहीं देखते हैं जैसे कि यह एक मच्छर है। बल्कि हम इस जीव को चिरंतन रूप से दीर्घ किसी विशिष्ट मानसिक सातत्य के रूप में देखते हैं जो अपने कर्मों के प्रभाव से इस जन्म में एक मच्छर के रूप में उत्पन्न हुआ है; वह अपने आप में मच्छर नहीं है। इससे हमारा हृदय किसी मच्छर के प्रति भी उतना ही उदार हो जाता है जितना वह किसी मनुष्य के प्रति होता है। बोधिचित्त की शक्ति इस तथ्या से उद्भूत होती है कि उसकी सहायता से हम समस्त जीवों की भलाई करने की इच्छा रखते हैं। बेशक, ऐसा करना आसान नहीं है।

सभी जीवों को पूर्व में रहीं हमारी माताओं के रूप में देखना

एक बार जब हम स्थितप्रज्ञ होकर सभी जीवों को अलग-अलग अनादि मानसिक सातत्यों के रूप में देख पाते हैं – जिसमें इस जीवनकाल में उनके रूपों को अस्वीकार नहीं किया जाता है – तो फिर हम 7 भागों वाली कारण तथा प्रभाव सम्बंधी साधना के पहले चरण के लिए तैयार हो जाते हैं। वह पहला चरण यह समझना होता है कि किसी न किसी समय पर प्रत्येक जीव हमारी माता रह चुका है। इसके पीछे का तर्क यह है कि जिस प्रकार इस जीवनकाल में हमारी एक माता है, उसी प्रकार प्रत्येक जीवनकाल में जहाँ हम किसी गर्भ से या डिम्ब से उत्पन्न हुए होंगे, वहाँ भी हमारी कोई माता रही होगी। अनादि पुनर्जन्म के तर्क के दृष्टिगत और इस बात को ध्यान में रखते हुए कि जीवों के असंख्य होते हुए भी उनकी संख्या सीमित है, प्रत्येक जीव असंख्य बार हमारी माता रह चुका है – और हम भी उनकी माता रह चुके हैं। वे हमारे पिता, हमारे घनिष्ठतम मित्र आदि भी रह चुके हैं।

प्रत्येक जीव को पूर्व में रह चुकी हमारी माता के रूप में देखते समय हमें सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है कि हम हमारी माता रह चुकने के गुण को किसी की अन्तर्जात पहचान के रूप में न देखें, क्योंकि इसके कारण भी थोड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम शून्यता, निश्चित अन्तर्जात पहचान के अभाव की अवस्था, को कभी अपने ध्यान से ओझल न होने दें।

यह मान्यता कि हर कोई पूर्व में हमारी माता रह चुका है, दूसरों के साथ हमारे सम्बंध की दृष्टि को पूरी तरह बदल देती है। यहाँ हम सभी दूसरों के प्रति समवृत्ति के भाव से भी आगे बढ़ जाते हैं। हम यह देखते हैं कि हर किसी के साथ हमारा बहुत ही घनिष्ठ, हार्दिक और प्रेममय सम्बंध रहा है और यह सम्बंध आगे भी हो सकता है।

मातृसुलभ प्रेम की दयालुता को याद रखना

7 चरणों में से दूसरा चरण मातृसुलभ प्रेम की दयालुता को याद रखना होता है। पश्चिम जगत के बहुत से लोगों के लिए साधना के क्रम में यह एक मुश्किल चरण होता है, क्योंकि भारत और तिब्बत के लोग हमेशा इस जीवनकाल में अपनी माता का उदाहरण लेते हैं। ऐसा लगता है कि वहाँ के समाजों में अधिकांश लोगों का अपनी माताओं के साथ रिश्ता पश्चिम के समाजों की तुलना में कम पागलपन भरा और कम कठिनाई भरा होता है। यह बात सही है या नहीं, यह तो अलग-अलग व्यक्तियों के मामलों पर निर्भर करता है। लेकिन तिब्बत और भारतीय समाजों में 29 वर्षों तक रह चुकने के बाद मैंने जो पाया है उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि वहाँ बड़े हो चुके बच्चों और उनकी माताओं के बीच के रिश्ते पश्चिम की तुलना में कहीं कम अस्थिर होते हैं।

साधना के इस चरण में याद करना होता है कि हमारी माता कितनी दयालु हैं या, यदि वह गुज़र चुकी हैं तो थीं – और हम उनके उस समय तक के उपकार को याद करते हैं जब उन्होंने हमें अपनी कोख में पाला था। फिर, हम इस प्रकार की सोच का विस्तार करके सोचते हैं कि किस प्रकार से प्रत्येक जीव पिछले जन्मों में हमारे साथ इसी प्रकार की दयालुता का व्यवहार कर चुका है।

बहुत से लोग पश्चिम जगत के लोगों को इस बात की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि ठीक है, यदि आपकी माता के साथ आपका रिश्ता मुश्किल भरा रहा हो तो आप उसके बजाए अपने पिता के बारे में सोच सकते हैं, किसी घनिष्ठ मित्र, या किसी भी ऐसे व्यक्ति के बारे में सोच सकते हैं जिसने आपके साथ बड़ी दयालुता का व्यवहार किया हो। इस प्रकार आप इस ध्यान साधना को करते हुए बीच में अटकेंगे नहीं। मैं समझता हूँ कि यह एक उपयोगी तरीका है। लेकिन, मुझे लगता है कि यह बहुत महत्वपूर्ण है कि यदि अपनी माताओं के साथ हमारे रिश्ते में कड़वाहट हो तो उसे दूर किया जाए और उसकी अनदेखी न की जाए। यदि हम अपनी माता के साथ ही स्वस्थ रिश्ता नहीं रख सकते हैं तो फिर किसी भी दूसरे व्यक्ति के साथ स्वस्थ प्रेममय रिश्ता बनाए रखने में हमें बहुत कठिनाई होगी। उसमें हमेशा कोई न कोई समस्या बनी रहेगी। इसलिए मुझे लगता है कि यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम अपनी माताओं के साथ अपने सम्बंध की वास्तविक स्थिति पर ध्यान दें, और उसकी दयालुता को पहचानने का प्रयास करें, भले ही हमारा रिश्ता कितनी ही कठिनाइयों से क्यों न गुज़रा हो या गुज़र रहा हो।

पहले तो हमें आदर्श मातृसुलभ प्रेम के बारे में विचार करना चाहिए। हमारे प्राचीन ग्रंथ इसके विवरणों से भरे पड़े हैं: उदाहरण के लिए ऐसा प्रेम कई प्रकार के पशुओं में भी देखा जा सकता है। मादा चिड़िया कितनी ही तेज़ सर्दी या बारिश में भी अपने अंडों पर ही बैठी रहती है, और जब अंडों में से बच्चे निकल आते हैं तो वह अपनी चोंच से कीड़े-मकोड़े पकड़ कर उन्हें चबाती है, लेकिन उन्हें निगलती नहीं है, और उस भोजन को अपने बच्चों को ही खिलाती है। यह सचमुच बड़ी असाधारण बात है।

बेशक, पशु और पक्षी जगत में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जहाँ माताएं अपने ही बच्चों को खा जाती हैं, लेकिन फिर भी वे उन्हें जन्म देने की तकलीफों से होकर तो गुज़रती ही हैं। फिर भले ही हमें जन्म देने वाली माँ हो या स्थानापन्न माँ हो, किसी न किसी ने तो हमें अपने गर्भ में पाला ही था। भले ही हमारा जन्म किसी टैस्ट-ट्यूब में क्यों न हुआ हो, किसी न किसी ने उस टैस्ट-ट्यूब का ध्यान रखा होगा और उसको सही तापमान पर बनाए रखा होगा। यह बात महत्वहीन है कि हमारी माता को हमें अपने गर्भ में धारण करके रखना पसंद था या नहीं, यह उनकी असाधारण दयालुता थी कि उन्होंने हमें धारण किया और गर्भपात न करने का फैसला किया; उनके लिए ऐसा करना बिल्कुल भी सुविधाजनक नहीं था। हमारे वास्तविक जन्म के समय उन्होंने बहुत अधिक पीड़ा को सहन किया। इसके अलावा, जब हम छोटे शिशु थे, तब भी किसी न किसी को आधी रात को उठना पड़ता था, हमें खिलाना पड़ता था और हमारी देखभाल करनी पड़ती थी; यदि ऐसा न किया गया होता तो हम जीवित न बच पाते। प्राचीन ग्रंथों में इस प्रकार की बातों के महत्व को दर्शाया गया है।

यदि अपनी माताओं के साथ हमारे रिश्ते परेशानी भरे रहे हों तो मैं समझता हूँ कि हम पाँचवें दलाई लामा के ला-रिम ग्रंथ में दी गई गुरु ध्यानसाधनाओं में से संकेत ले सकते हैं कि आगे किस प्रकार बढ़ा जाए। कई पुराने ग्रंथों में इस बात को कहा गया है कि किसी ऐसे आध्यात्मिक गुरु को तलाश कर पाना लगभग असम्भव है जिसमें केवल अच्छाइयाँ ही अच्छाइयाँ हों। कोई भी आध्यात्मिक गुरु आदर्श नहीं हो सकता है; सभी के भीतर अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनों विद्यमान होती हैं। आध्यात्मिक गुरु की ध्यानसाधना में हम गुरु की अच्छाइयों और उनकी अनुकंपा पर ध्यान केंद्रित करते हैं ताकि हम उनके प्रति अगाध सम्मान, उनसे प्रेरणा ग्रहण करने और उनके प्रति आभार का भाव विकसित कर सकें। इससे हमें स्वयं अपने भीतर इन अच्छाइयों और इस प्रकार की दयालुता को विकसित करने की प्रेरणा मिलेगी।

पाँचवें दलाई लामा ने स्पष्ट किया है कि ऐसा करने की प्रक्रिया में हमें अपने शिक्षक की कमियों और उनके दोषों को नकारने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा करना हमारी नासमझी होगी। हम दोषों को स्वीकार करते हैं, लेकिन कुछ समय के लिए उन्हें अलग करके रख देते हैं, क्योंकि शिक्षक की कमियों के बारे में विचार करने से हमें उनके प्रति शिकायत होगी और उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण नकारात्मक होगा। और उससे तो हमें प्रेरणा मिलने से रही। हमें प्रेरणा तो उनकी अच्छाइयों और करुणा या दयालुता पर अपने ध्यान को केंद्रित करने से मिलेगी।

इसलिए पहले तो हम त्रुटियों को स्वीकार करते हैं। लेकिन हमें ईमानदारी पूर्वक जाँच करनी चाहिए कि ये त्रुटियाँ वास्तविक हैं या हमारे द्वारा की गई कल्पना मात्र हैं। यदि कमियाँ केवल काल्पनिक हों और वास्तविक न हों तो हम उन्हें पूरी तरह से छोड़ देते हैं। इसके बाद हमें यह जाँच करनी चाहिए कि शिक्षक की ये गैर-काल्पनिक त्रुटियाँ वर्तमान समय की हैं या पुराने समय से सम्बंधित हैं जिन्हें हम भुलाना न चाहते हों। यदि त्रुटियाँ वर्तमान समय से सम्बंधित न हों तो हम उनके बारे में विचार करना बंद कर देते हैं: वे त्रुटियाँ अब प्रासंगिक नहीं हैं। एक बार जब हम स्पष्ट तौर पर जान लेते हैं कि वास्तविक वर्तमान त्रुटियाँ क्या हैं तो हम तय कर लेते हैं कि ये हमारे शिक्षक या शिक्षिका की वर्तमान त्रुटियाँ हैं। फिर हम उन्हें भी उस समय के लिए दरकिनार कर देते हैं और त्रुटियों के बजाए शिक्षक की केवल अच्छाइयों पर ही अपने ध्यान को केंद्रित करते हैं।

मैं मानता हूँ कि अपनी माता की दयालुता के बारे में विचार करते समय भी इसी प्रकार की प्रक्रिया को अपनाना बहुत उपयोगी साबित हो सकता है। किसी की भी माता आदर्श नहीं होती है। यदि हम स्वयं माता या पिता हों तो हम जानते हैं कि आदर्श माता या पिता होना बेहद कठिन है, इसलिए हमें अपनी माता या पिता से भी आदर्श होने की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। इसके बाद हम देखते हैं कि हमारी माता में क्या दोष या कमियाँ हैं या थीं, और उन कारणों और परिस्थितियों को समझने का प्रयास करते हैं जिनकी वजह से वे त्रुटियाँ उत्पन्न हुई हों। वह अपने आप में कोई बुरी व्यक्ति नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे कोई भी मानसिक सातत्य अन्तर्जात रूप में मच्छर नहीं होता है (जो अन्तर्जात रूप में कष्टकारी नहीं होता है)। हम यह सुनिश्चित करते हैं कि हम अपनी माता की त्रुटियों के बारे में कल्पना तो नहीं कर रहे हैं या उनके पुराने समय के बारे में तो नहीं सोच रहे हैं, और फिर हम सभी काल्पनिक त्रुटियों को दरकिनार कर देते हैं, और उस समय के लिए, पुरानी और वर्तमान त्रुटियों को भी भुला देते हैं। हम कहते हैं कि ठीक है, उनके भीतर त्रुटियाँ हैं या थीं, लेकिन हमारी माता भी तो दूसरे किसी भी व्यक्ति की भांति एक व्यक्ति ही तो है: हम सभी में दोष होते हैं। उसके बाद हम उनकी अच्छाइयों और हमारे प्रति उनकी दयालुता के बारे में विचार करते हैं।

एक पाश्चात्य धर्म शिक्षक – मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है कि वे कौन थे – ने ध्यानसाधना की एक विधि सुझाई है जो मुझे लगता है कि बहुत उपयोगी है। यहाँ हम अपनी माता के बारे में नकारात्मक बातों को अनदेखा करते हुए अपने जीवन काल को 5 या 10 वर्ष की इकाइयों में बाँट कर उसकी पड़ताल करते हैं। हम 5 मिनट, आधा घंटा, एक घंटा या जितना भी समय हम इस कार्य के लिए देना चाहें, यह जाँच करते हैं और याद करने का प्रयास करते हैं कि हमारी माता ने हमारे जीवन के उन 5 या 10 वर्ष के समय में हमारे लिए क्या-क्या किया है। पहले हम गर्भावस्था काल से लेकर अपनी 5 वर्ष तक की उम्र के बारे में विचार करते हैं, हम याद करते हैं कि वह किस तरह से हमारे गंदे डायपर को बदलती थी, हमें खिलाती-पिलाती थी, नहलाती और सभी प्रकार से हमारी देखभाल करती थी। उसके बाद हम 5 वर्ष से 10 वर्ष तक की उम्र के बारे में, और फिर उससे भी आगे की उम्र के बारे में विचार करते हैं। वह हमें स्कूल छोड़ने के लिए जाती थी, हमारे कपड़े धोती थी। जब हम किशोर हो गए तब सम्भव है कि वह हमें खर्च करने के लिए पैसे देती हो। हमारी माता कितनी भी बुरी क्यों न रही हो, इसमें संदेह नहीं है कि उसने हमारे जीवन की हर अवस्था में हमारे लिए दयालुता के बहुत से कार्य किए हैं।

इसके बाद हम अपने पिता और दूसरे सम्बंधियों, मित्रों आदि के बारे में भी इसी प्रकार से विचार कर सकते हैं। इस तरह से विचार करना खास तौर पर उस स्थिति से तनावमुक्ति का बहुत कारगर उपाय हो सकता है जब हम अवसाद में होते हैं और सोचते हैं कि, “कोई भी मुझसे प्रेम नहीं करता।” इस प्रकार यदि हम समझ पाएं कि इस जीवन में हमारी माता ने हमारे साथ दयालुता का व्यवहार किया है, तो फिर हम यह भी जान सकते हैं कि हर कोई इसी प्रकार से हमारे प्रति दयावान रहा है। कोई भी आदर्श माता सिद्ध नहीं हुआ है – बेशक, हो सकता है कि उसने किसी समय पर किसी जन्म में हमें खाया भी हो, लेकिन उसने हमारे साथ दयालुता का व्यवहार भी तो किया है।

मातृतुल्य प्रेम का बदला चुकाना

7 चरणों वाली महत्वपूर्ण शिक्षा का तीसरा चरण यह है कि हम उस मातृतुल्य प्रेम की दयालुता का बदला चुकाएं जो हमें प्राप्त हुआ है। इसके लिए हम स्वयं को प्राप्त हुई मातृतुल्य दयालुता को याद रखने वाली अभी बताई गई ध्यानसाधना में आगे थोड़ा सा और बदलाव कर सकते हैं। एक बार फिर हम 5 या 10 वर्षों के खंडों में अपने जीवन के बारे में विचार करते हैं और पता लगाते हैं कि हमने अपनी माता से प्राप्त दयालुता के बदले किस प्रकार अपनी माता के प्रति दयालुता का व्यवहार किया है। यही प्रक्रिया हम अपने पिता, अपने मित्रों, सम्बंधियों आदि के साथ भी दोहराते हैं।

यदि हम तुलना करके देखें कि हमें कितना प्रेम और सहायता मिली है और हमने उसमें से कितना लौटाया है, तो हममें से अधिकांश पाएंगे कि हमें जो मिला है वह हमारे द्वारा लौटाए गए से कहीं बहुत अधिक है। इसके पीछे का भाव यह नहीं है कि ऐसा करके हम स्वयं को दोषी समझें, यह तो एक सामान्य पाश्चात्य प्रतिक्रिया होगी। इसका आशय यह है कि हम स्वयं को प्राप्त हुई दयालुता के महत्व को पहचानते हुए गहरे आभार भाव के साथ और उस दयालुता का बदला चुकाने की इच्छा से बोधिचित्त साधना के अगले चरण के लिए स्वयं को तैयार कर सकें।

मैं मानता हूँ कि अभी जिस ध्यानसाधना के बारे में बताया गया है उसमें यह बदलाव करना अपने हृदय को अनुकूल बनाने की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। मुझे लगता है कि यह बहुत महत्वपूर्ण है। मैंने ऐसे बहुत से पाश्चात्य बौद्धों को देखा है जो प्रेम और करुणा विकसित करने की इस सभी ध्यानसाधनाओं को करते हैं और दूसरों की सहायता भी करते हैं, लेकिन फिर भी अपने माता-पिता के साथ उनके सम्बंध बहुत खराब होते हैं और वे उसी में उलझे रह जाते हैं। मैं मानता हूँ कि उन सम्बंधों को सुधारना बहुत उपयोगी है और इसलिए उन्हें सिर्फ इस कारण से अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उन सम्बंधों को सुधारना कठिन है।

साधना को लागू करने के लिए सुझाई गई विधि

इन सभी चरणों एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अधिक उदार हों और अपनी साधना का विस्तार सभी जीवों तक करें। प्रत्येक चरण में हम शुरुआत छोटे स्तर पर कर सकते हैं, लेकिन बाद में हमें उसके दायरे का विस्तार करना चाहिए। यह साधना हम स्थितप्रज्ञता या समवृत्ति के आधार पर करते हैं और प्रत्येक जीव को एक अलग मानसिक सातत्य के रूप में देखते हैं। मैंने पाया है कि इसे करने का प्रभावी तरीका यह है कि हम केवल आँखें मूंदकर बैठे हुए ध्यानसाधना में केवल “सभी सचेतन जीवों” के बारे में कल्पना ही न करते रहें। इसका अधिक प्रभावी तरीका मेरी राय में यह है कि हम उसी प्रकार से साधना करें जैसाकि मैंने संतुलित मनोभावों को विकसित करने के लिए संवेदनशीलता के अभ्यास में सुझाया है।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, पहले तो आप विभिन्न लोगों – मित्रों, हमें पसंद न आने वाले लोगों, और अजनबियों के साथ उनके चित्रों पर ध्यान केंद्रित करते हुए इन सकारात्मक दृष्टिकोणों को विकसित करने का प्रयास करें। उसके बाद किसी ध्यानसाधना समूह में हमारे आसपास बैठे वास्तविक लोगों को देखते हुए इन्हें विकसित करने का प्रयास करें। इसके बाद भूमिगत रेल में या किसी बस में बैठे लोगों के साथ इसका अभ्यास करें। इस प्रकार हम जिन सकारात्मक दृष्टिकोणों को विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें हम वास्तव में दूसरे लोगों पर आज़माने लगते हैं।

इसी प्रकार हम इस साधना को पशुओं, कीड़े-मकोड़ों आदि पर भी लागू करने का प्रयास करते हैं – और केवल अपने चित्त में सैद्धांतिक तौर पर ही नहीं बल्कि जब हम उन्हें वास्तव में देखते हैं तब इसे लागू करने का प्रयास करते हैं। ऐसा करते समय हमें इस प्रकार की अति करने से बचना चाहिए जैसा हम उदाहरण के लिए तिब्बतियों के मामले में देखते हैं – कि किसी मनुष्य की तुलना में किसी कीड़े के प्रति दयालुता का व्यवहार करना अधिक सरल होता है। यदि मंदिर के बीचोंबीच कोई चींटी घूम रही हो तो हर कोई अत्यधिक ध्यान रखता है कि उसे चोट न पहुँचे। लेकिन अक्सर वे लोग ऐसी फिक्रमंदी और दयालुता का भाव मनुष्यों के प्रति नहीं प्रदर्शित करते हैं, उदाहरण के  लिए उन भारतीय या विदेशियों के प्रति नहीं दिखाते हैं जो उनके मंदिरों में जाते हैं और वहाँ के बारे में कुछ जानकारी हासिल करना चाहते हैं। हमें यहाँ चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता होती है।

कुछ लोग यह कह सकते हैं कि किसी चींटी की सहायता करना किसी मनुष्य की सहायता करने से कहीं आसान होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि चींटी तो पलट कर आपको जवाब नहीं देने वाली है और आपके लिए मुश्किल नहीं करने वाली है जैसाकि कुछ लोग अक्सर करते हैं। किसी चींटी को तो आप उठाकर बाहर छोड़कर आ सकते हैं, लेकिन यदि लोग आपको परेशान कर रहे हों तो उनके साथ तो आप वैसा नहीं कर सकते हैं। खैर, मेरे कहने का आशय यह है कि बहुत से लोग इन ध्यानसाधनाओं को बड़े ही अमूर्त भाव से करते हैं – “सभी सचेतन जीव” – और उसे कभी “वास्तविक जगत” में वास्तविक लोगों पर लागू नहीं करते हैं। इस कारण मार्ग में आगे कोई प्रगति नहीं होने के कारण बड़ी समस्या होती है।

असाधारण प्रेम

जब हम इस बात को समझ लेते हैं कि हर कोई पूर्व में हमारी माता रह चुका है, जब हम मातृतुल्य प्रेम की दयालुता को जान लेते हैं, और आभारपूर्वक उस दयालुता का बदला चुकाने का विचार करते हैं तो फिर हमारा हृदय सहज ही प्रेम की ऊष्मा से भर जाता है। जब हम किसी भी व्यक्ति से मिलते हैं तो स्वतः ही उसके प्रति घनिष्ठता और स्नेह का भाव जागृत होता है। इस भाव को विकसित करने के लिए अलग से कोई ध्यानसाधना करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसे दूसरों को महत्व देना, फिक्रमंदी पर आधारित प्रेम भी कहा जाता है, ऐसा प्रेम भाव जहाँ हम किसी को महत्वपूर्ण मानते हैं, उसकी कुशलता को लेकर फिक्रमंद होते हैं, और यदि उस व्यक्ति के साथ कुछ बुरा हो जाए तो हमें बहुत दुख होता है।

स्नेहयुक्त प्रेम के साथ हम चौथे चरण, असाधारण प्रेम की ध्यानसाधना की ओर बढ़ते हैं। प्रेम किसी अन्य व्यक्ति, सामान्यतया कोई ऐसा व्यक्ति जिसे हम पसंद करते हैं, के सुखी होने की कामना है। किंतु असाधारण प्रेम सभी के सुखी होने और सभी को सुखी होने के साधन उपलब्ध होने की कामना है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इसका सम्बंध सुख और सुख के साधन दोनों से है। इसका मतलब है कि हमें इस बात का पूरा बोध होता है कि सुख कारणों से उत्पन्न होता है, वह दैवी कृपा या सौभाग्य के कारण नहीं है – और उसका कारण मैं नहीं हूँ।

कर्म सम्बंधी शिक्षाओं में सुख के कारणों के बारे में बताया गया है: यदि लोग अनासक्त भाव से, क्रोध आदि से मुक्त हो कर सकारात्मक कृत्य करते हैं तो वे सुखी होंगे। इसलिए हमें यहाँ इस प्रकार से विचार करना चाहिए, “आपको सुख और सुख के कारणों की प्राप्ति हो। आप सकारात्मक और गुणकारी व्यवहार करें ताकि आपको सुख की प्राप्ति हो।”

इस चरण से यह बात स्पष्ट है कि बोधिचित्त की इन ध्यानसाधनाओं में हम दूसरों की भलाई करने के उद्देश्य से बुद्धत्व को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नरत हैं, लेकिन हम उन लोगों की सहायता करने में अपनी भूमिका का प्रसार नहीं कर रहे हैं। हम उन्हें मार्ग दिखा सकते हैं, लेकिन सुख के लिए कारण निर्मित करने के लिए उन्हें स्वयं ही श्रम करना होगा।

असाधारण करुणा

अब हम पाँचवे चरण, असाधारण करुणा पर आते हैं: कि हर कोई दुख और दुख के कारणों से मुक्त हो। यहाँ भी हम पूर्ण बोध विकसित करते हैं कि उनका दुख कारणों से उत्पन्न होता है और उन्हें अपने दुख को समाप्त करने के लिए दुख के कारणों को समाप्त करना होगा। यह भी एक बहुत ही व्यावहारिक दृष्टिकोण है। असाधारण प्रेम और असाधारण करुणा केवल इस प्रकार के मनोभाव नहीं हैं कि, “मुझे इस बात का बहुत दुख है कि हर कोई कष्ट भोग रहा है।” बल्कि इन मनोभावों के साथ व्यवहारगत कारण और प्रभाव का बोध भी जुड़ा होता है।

वीडियो: खांद्रो रिंपोशे — करुणा कैसे विकसित करें
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कई दृष्टियों से असाधारण करुणा सामान्य करुणा से श्रेष्ठतर होती है।

  • एक तो यह कि यह कुछ जीवों तक सीमित न होकर सभी सीमित जीवों की ओर समान रूप से लक्षित होती है।
  • दूसरे, असाधारण प्रेम की ही भांति इसमें प्रत्येक जीव को महत्व देने और उसके प्रति फिक्रमंदी का भाव उसी प्रकार शामिल होता है जैसे प्रेमभाव से युक्त कोई माँ अपनी इकलौती संतान का खयाल रखती है और उसकी सुरक्षा का खयाल रखते हुए उसकी हिफाज़त करती है।
  • तीसरे, यह उन सभी जीवों के लिए कामना है कि वे बार-बार और अनियंत्रित ढंग से पुनर्जन्म के सर्वव्यापी दुख से मुक्त हों जहाँ दुखों के समूह भ्रम के कारण उत्पन्न होते हैं और अधिक भ्रम से मिलकर और भी अधिक दुख उत्पन्न करते हैं, और इस प्रकार अविरत दुख को बनाए रखते हैं। इस प्रकार यह कामना केवल दूसरों के पीड़ा के दुख या परिवर्तन के दुख से मुक्त होने भर की कामना नहीं है। परिवर्तन का दुख तो सामान्य भौतिक सुख के रूप में होता है जो कभी भी स्थायी नहीं होता और कभी भी संतुष्टि प्रदान करने वाला नहीं होता है। असाधारण करुणा जीवों के किसी स्वर्ग लोक में जाकर समस्याओं से बच जाने भर के लिए कामना नहीं होती है।
  • चौथे, असाधारण करुणा इस दृढ़ विश्वास पर आधारित होती है कि सभी सीमित क्षमतावान जीवों के लिए यह सम्भव है कि वे अपने सर्वव्यापी दुख से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। यह मात्र एक सदेच्छा भर नहीं है।

करुणा को हमेशा ही त्याग, मुक्त होने के लिए दृढ़ संकल्प से मिलते-जुलते दृष्टिकोण के रूप में बताया जाता है। त्याग एक ऐसा दृष्टिकोण है जो हमारे अपने ही दुख, उसके कारणों और स्वयं अपने लिए उससे मुक्त होने की कामना पर लक्षित होता है। अपने दुख और उसके कारणों से मुक्त होने के अपने संकल्प के आधार पर हम दूसरों के प्रति समानुभूति का भाव विकसित कर सकते हैं। हम उसी दृष्टिकोण की दिशा को बदलकर दूसरों की ओर, उनके दुखों और उन दुखों के कारणों, और दूसरों के उन दुखों से मुक्त होने की कामना के साथ उसी प्रबलता के साथ मोड़ देते हैं जितनी प्रबलता से हम स्वयं अपने लिए कामना करते हैं।

हमेशा ऐसा कहा जाता है कि हमारे लिए दूसरों के प्रति समानुभूति का भाव रखना और उनके प्रति वास्तविक करुणा भाव रखना तब तक कठिन होता है जब तक कि हमने स्वयं अपने दुख के बारे में विचार न किया हो और स्वयं अपने लिए उससे मुक्ति की कामना न की हो। हमें यह समझना होगा कि दूसरों को उनके दुख से सचमुच पीड़ा पहुँचती है और उनका दुख उन्हें उतना ही कष्ट पहुँचाता है जितना कि स्वयं हमारा दुख हमें कष्ट पहुँचाता है। इस बात का बोध हासिल करना इस बात पर निर्भर करता है कि हम यह स्वीकार करें कि स्वयं हमारा दुख हमें कष्ट देता है। वरना हम दूसरों के दुख को गम्भीरता से नहीं लेते हैं। याद रखना चाहिए, कि हम अपनी माताओं के लिए कामना कर रहे हैं, जो हमारे प्रति इतनी दयालु रही हैं, कि वे सुखी हों और दुख से मुक्त हों। हम ध्यानसाधना की शुरुआत अपनी माता और दूसरे निकट सम्बंधियों से करते हैं ताकि ध्यानसाधना में वास्तविकता की अनुभूति बनी रहे।

वीडियो: त्सेनझाब सरकांग रिंपोशे द्वितीय — करुणा क्या है?
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हीन भावना को नियंत्रित करने के लिए इस विधि का उपोयग

जैसाकि ग्रंथों में कहा गया है कि करुणा तभी निष्ठापूर्वक विकसित हो सकती है जब हम स्वयं के दुख और उसके कारणों से मुक्त होने के बारे में कामना करते हैं, उसी तरह मेरा मानना है कि हम प्रेम के मामले में भी ऐसा ही सिद्धांत अपना सकते हैं। यह बात हममें से उन लोगों पर विशेष तौर पर लागू होती है जो हीन भावना से पीड़ित होते हैं। हीन भावना विशेष तौर पर पाश्चात्य जगत में दिखाई देने वाली घटना है, यह तिब्बती, या भारतीय लोगों में भी इतनी अधिक नहीं पाई जाती है। इससे पहले कि हम दूसरों के लिए ईमानदारीपूर्वक यह कामना कर पाएं कि वे सुखी हों और उन्हें सुख के कारणों की प्राप्ति हो, हमें स्वयं अपने लिए ईमानदारीपूर्वक यह कामना करनी होगी कि हम सुखी हों और हमें सुख के कारणों की प्राप्ति हो। यदि हम यह महसूस करेंगे कि हमें सुख प्राप्त करने का अधिकार नहीं है, तो फिर किसी अन्य को ही सुखी होने का अधिकार क्यों हो?

इसलिए मैं मानता हूँ कि यदि हम हीन भाव से ग्रसित हों तो फिर हमें स्वयं अपने लिए सुख की कामना करने के चरण को अपनी ध्यानसाधना में शामिल कर लेना चाहिए। मैं मानता हूँ कि यह बहुत महत्वपूर्ण है। यह सोचने का अभ्यास विकसित करने के लिए कि प्रत्येक जीव को सुखी होने का अधिकार है, हमारे लिए बुद्ध-धातु को ध्यान में रखना उपयोगी रहेगा। हम पूरी तरह से बुरे नहीं होते हैं; कोई भी पूरी तरह से बुरा नहीं होता। हम सभी के भीतर बुद्धत्व को प्राप्त करने की, दूसरों की भलाई करने, सुखी होने आदि की क्षमताएं विद्यमान हैं।

एक और बात: थेरवाद और महायान मतों में भी प्रेम और करुणा को विकसित करने का अभ्यास किया जाता है। लेकिन वहाँ ध्यानसाधना की विधियाँ यहाँ के सात चरणों वाली इस विधि की भांति क्रमिक चरणों में नहीं होती हैं जिसके चरण हमें मातृतुल्य दयालुता को याद रखने जैसे कारणों के आधार पर प्रेम और करुणा के भावों को विकसित करने में सहायता करते हैं। लेकिन हमें यह नहीं समझना चाहिए कि थेरवाद परम्परा में प्रेम और करुणा की ध्यानसाधना नहीं की जाती है। बस बोधिचित्त ध्यानसाधना के अगले चरण उसमें शामिल नहीं होते हैं।

असाधारण दृढ़ संकल्प

अलग-अलग अनुवादक छठे चरण को अलग-अलग तरीकों से व्यक्त करते हैं। कुछ इसे “शुद्ध निस्स्वार्थ कामना” कहते हैं। परम पावन दलाई लामा इसके लिए “सार्वभौमिक उत्तरदायित्व” शब्द का प्रयोग करते हैं। हालाँकि मैंने स्वयं इसका अनुवाद विभिन्न तरीकों से किया है, लेकिन फिलहाल मैं इसके लिए “असाधारण दृढ़ संकल्प” अभिव्यक्ति का प्रयोग करना पसंद करूँगा। असाधारण करुणा के साथ हमारे भीतर सभी जीवों की भलाई करने की पूर्ण कामना और इच्छा होती है। यहाँ हम एक दृढ़ निश्चय करते हैं, कि हमें निश्चित तौर पर यह कार्य करना ही है। हम अपने ऊपर यह दायित्व ले लेते हैं कि हम दूसरों के दुख को दूर करने के लिए असल में कुछ करेंगे। यदि कोई तालाब में डूब रहा हो तो हम किनारे पर खड़े रहकर बस यही नहीं कहते रह सकते हैं कि, “अरे, अरे, मैं कामना करता हूँ कि ऐसा न हो रहा होता।” हमें आवश्यकता इस बात की होती है कि हम तालाब में छलाँग लगा कर उस व्यक्ति की मदद करने का प्रयास करें। इसी प्रकार यहाँ बोधिचित्त की ध्यानसाधना में भी हम सभी जीवों की अधिक से अधिक सहायता करने का सार्वभौमिक दायित्व अपने ऊपर लेने का निश्चय करते हैं।

बोधिचित्त लक्ष्य

6 चरणों वाले इस विकास क्रम के आधार पर आगे बढ़ते हुए सातवाँ चरण इनके परिणामस्वरूप बोधिचित्त लक्ष्य को विकसित करने का होता है। जब हम इस बात की जाँच करते हैं कि अपनी मौजूदा सीमाओं और अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों के बावजूद हम दूसरों की अधिक से अधिक भलाई किस प्रकार कर सकते हैं, तो हम पाते हैं कि हम बहुत अधिक सहायता नहीं कर पाएंगे। यदि मैं स्वार्थी हो गया, और अधीर हो गया, कुछ लोगों के प्रति आकर्षित हो गया या कुछ दूसरे लोगों पर क्रोधित हो गया, या फिर यदि मैं अपने विचारों को दूसरों तक ठीक ढंग से प्रेषित न कर सका, या यदि मैं दूसरे लोगों से डर गया, दूसरे लोगों द्वारा नापसंद कर दिए जाने या अस्वीकार कर दिए जाने की आशंका से भयभीत हो गया – तो ये सब बातें में मुझे जितना सम्भव है उस सीमा तक दूसरों की सहायता करने से रोक लेंगी। चूँकि मैं सचमुच दूसरों की सहायता करना चाहता हूँ, इसलिए मुझे इस प्रकार की बाधाओं से स्वयं को मुक्त करना ही होगा। मुझे आत्मसुधार करना होगा और स्वयं को इन दोषों से मुक्त करना होगा ताकि मैं अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं तथा बुद्ध-धातु के गुणों का उपयोग दूसरों की भलाई करने के लिए कर सकूँ। हम “जितना अधिक हो सके” वाली बात को हमेशा ध्यान में रखते हैं – हम कोई सर्वशक्तिशाली ईश्वर नहीं बनने जा रहे हैं। इस प्रकार की सोच के साथ हम अपने चित्त और हृदय को बुद्धत्व प्राप्ति के कार्य में लगा देते हैं ताकि हम जितना अधिक सम्भव हो दूसरों की सहायता कर सकें। यही बोधिचित्त लक्ष्य का विकास है। इस लक्ष्य के साथ हम अपने उस ज्ञानोदय पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो अभी घटित नहीं हुआ है किन्तु हम उसे यथाशीघ्र हासिल करने की पूरी मंशा रखते हैं ताकि हम अपनी उस उपलब्धि का उपयोग करके दूसरों की सहायता कर सकें।

बोधिसत्व आचरण

एक बार जब हम बोधिचित्त को विकसित कर लेते हैं तो फिर हम अपनी सीमाओं के बावजूद दूसरों की यथासंभव सहायता करने का प्रयास करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम सहायता करने की जिम्मेदारी लेने का असाधारण संकल्प लेते हैं जिसे हम 7 चरण वाली कारण और प्रभाव सम्बंधी बोधिचित्त साधना के पिछले चरणों के माध्यम से विकसित करते हैं।

इसका मतलब यह हुआ कि हम जब भी दूसरों से मिलते हैं और देखते हैं कि वे किसी प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं, जैसे किसी व्यक्ति के पास अपना घर न होना, तो फिर हम उस व्यक्ति को केवल बेघर व्यक्ति के रूप में ही नहीं देखते हैं। जब हम ऐसे व्यक्तियों को देखते हैं तो हम उनके बारे में यह राय नहीं बना लेते हैं कि वे सहज तौर पर गरीब, आलसी आदि नहीं हैं। बल्कि हम इस बात को समझते हैं कि इस जीवनकाल में और इस समय वह व्यक्ति ऐसा है। लेकिन उन लोगों के मानसिक सातत्य अनादि हैं और किसी न किसी समय पर वे हमारी माताएं रह चुके हैं और उन्होंने दयालुतापूर्वक हमारी देखभाल की है। उन्होंने हमें अपने गर्भ में धारण किया है, हमारे गंदे डायपर बदले हैं आदि, और मैं सचमुच उनका आभारी हूँ और उनकी कृपा का बदला उसी प्रकार चुकाना चाहूँगा। हम कामना करते हैं कि वे सुखी हों और उन्हें सुख के कारण प्राप्त हों, और वे अपनी समस्याओं और उन समस्याओं के कारणों से मुक्त हों। हम इस सम्बंध में कुछ करने का प्रयास करने का जिम्मा अपने ऊपर उठाते हैं।

हमें क्या करना होगा? ऐसा नहीं है कि हम अपने दोषों पर विजय पाने के लिए घर जाकर ध्यानसाधना करें, और ऐसे लोगों की सहायता करने के लिए कोई वास्तविक कार्य न करें। बेशक, हमें और ज्यादा ध्यानसाधना करनी चाहिए, इससे हमें उस समय अपने शर्मीलेपन, संकोच, और कृपणता पर विजय पाने में सफलता मिलती है और हम उन्हें कुछ दे पाते हैं, कम से कम उन्हें देख कर मुस्करा देते हैं – कुछ न कुछ करते हैं।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हम अपने असाधारण संकल्प का प्रयोग तत्क्षण अपनी सीमाओं पर जहाँ तक सम्भव हो सके विजय पाने की दृष्टि से प्रेरित करने के लिए और दूसरों की सहायता करने के लिए अपनी क्षमताओं का उपयोग करते हैं। बेशक, जब हम घर लौटें तो हमें आत्मसुधार करने की आवश्यकता होगी, लेकिन हमें उन बेघर लोगों को नहीं भूलना चाहिए और घर लौटकर केवल ध्यानसाधना ही नहीं करनी चाहिए। यदि हमारे संकल्प में ईमानदारी है तो वह हमें सचेतन बनाए रखता है।

प्रत्येक क्षण आत्मसुधार करने के लिए सबसे प्रबल प्रेरणा हमें उस समय मिलती है जब हम दूसरे ऐसे जीवों से मिलते हैं जिन्हें सहायता की आवश्यकता है। हम सर्दियों में किसी बूढ़ी महिला को किसी भूमिगत रेल के स्टेशन पर ठंडे फर्श पर बैठए हुए भीख मांगते देखते हैं और सोचते हैं कि यदि यह महिला मेरी अपनी माँ रही होती तो? यदि वह इस जन्म की हमारी माँ रही होती जो वहाँ ठंडे फर्श पर बैठी भीख मांग रही होती तो क्या हम वहाँ से ऐसे ही गुज़र जाते? या वह युवक जो बेघर है और अखबार बेचकर गुज़ारा चलाता है, यदि वह हमारा बेटा रहा होता तो हमें कैसा महसूस होता? उस युवक के भी माता पिता हैं। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। भारत में हमें कोढ़ी और दूसरी तरह के विकलांग लोग दिखाई देते हैं और अक्सर हम कभी विचार ही नहीं करते कि इन कोढ़ियों के भी अपने परिवार हैं। उनके परिवार होते हैं। उनके साथ मानवोचित व्यवहार करने की आवश्यकता है।

निःसंदेह हमें इन बेघर लोगों की पारम्परिक स्थिति को समझने के लिए सविवेक बोध की आवश्यकता होती है। उनमें से कुछ तो सड़क पर सिर्फ इसलिए बैठे होते हैं कि वे लोगों के आसपास भीड़ लगा कर उनसे नशीली दवाएं या शराब खरीदने के लिए पैसे ऐंठ सकें। ऐसे मामलों में हमें वह तरीका अपनाना चाहिए जिसे बौद्ध धर्म में “कुशल उपाय” कहा जाता है। हमारे भीतर उनकी सहायता करने की इच्छा होती है, हमें इस बात का भी कुछ अंदाज़ा होता है कि उनके दुख का क्या कारण हो सकता है, और उनके सुख का क्या कारण बन सकता है। उसके बाद हम वह करने का प्रयास करते हैं जो उनके लिए उपयोगी हो सकता है। शायद उन्हें पैसे देना बिल्कुल भी उनके काम न आ सके क्योंकि उसका प्रयोग वे नशीली दवाएं या शराब खरीदने के लिये ही करेंगे, और इसलिए हम उन्हें पैसे नहीं देते हैं। यदि हमारे पास खाने की चीज़ें हों तो हम वे चीज़ें उन्हें दे सकते हैं। लेकिन हम उन्हें अपनी फिक्रमंदी का भाव तो दे ही सकते हैं और उन्हें बुरा, घृणास्पद नशाखोर और शराबी न मानते हुए उन्हें सम्मान तो दे ही सकते हैं। वे मनुष्य हैं, दुख भोग रहे मनुष्य हैं।

किसी की मदद करने का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा, यह तय करना आसान नहीं होता है। हम पाते हैं कि अभी हमारी क्षमताएं सीमित हैं। हमें मालूम नहीं है कि कौन सा तरीका सबसे अच्छा है। यह जान पाने के लिए हमें बुद्धत्व को प्राप्त करना होगा, लेकिन इस समय भी हम इस बात को ध्यान में रखते हुए अपना भरसक प्रयास करते हैं कि हम से गलतियाँ हो सकती हैं। फिर भी हम कम से कम प्रयास तो करते हैं।

सारांश

जब हम 7 भागों वाली कारण और प्रभाव सम्बंधी विधि के माध्यम से बोधिचित्त लक्ष्य विकसित कर लेते हैं, तो दूसरों की अधिकाधिक सहायता करने के उद्देश्य से बुद्धत्व प्राप्त करने के हमारे लक्ष्य को बहुत सी दूसरी अनुभूतियों के साथ मिलने वाली एक सुदृढ़ मनोदशा से सहायता मिलती है। इन अनुभूतियों में सभी के साथ समान रूप से घनिष्ठता और जुड़ाव, दूसरों के द्वारा प्रदर्शित दयालुता के प्रति प्रशंसा का भाव, गहरा कृतज्ञता का भाव, फिक्रमंदी, प्रेम और करुणा के साथ-साथ दूसरों की जितना अधिक सम्भव हो सके सहायता करने की जिम्मेदारी लेने का दृढ़ संकल्प शामिल हैं। इस प्रकार की भावनाओं पर आधारित हमारा बोधिचित्त लक्ष्य दृढ़, हार्दिक और टिकाऊ होगा।

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