बौद्ध धर्म में, जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण के लिए यथार्थ का ज्ञान अनिवार्य है। हमारे चित्त द्वारा रचित प्रतीतियों की दुनिया और कार्य-कारण से बनी यथार्थ दुनिया के बीच ज़मीन-आसमान का अंतर होता है। जब हम भ्रमवश यह मान लेते हैं कि प्रतीतियों की दुनिया ही यथार्थ दुनिया है, और दिखावटी दुनिया यथार्थ से मेल खाती है, तब हम अपने और दूसरों के लिए दुःख और समस्याएँ उत्पन्न करते हैं। परन्तु कोई भी दुखी होकर कष्ट नहीं उठाना चाहता; सभी प्रसन्न रहना चाहते हैं। जीवन का लक्ष्य यही है, और, इस अर्थ में, हम सब एक हैं - चाहे मनुष्य हों या पशु। सभी जीव अपने कुशल-क्षेम और सुख की चेष्टा करते हैं; और सभी धर्म, एक ओर जो एक रचयिता भगवान के होने का दावा करते हैं, और दूसरी ओर, बौद्ध तथा जैन धर्म जैसे जो ऐसा दावा नहीं करते, और सभी धर्मनिरपेक्ष प्रणालियाँ भी, इस लक्ष्य से सहमत हैं और इस प्रकार इस समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपाय सुझाती हैं।
तर्कपूर्ण विश्लेषण पर बौद्ध धर्म में दिया गया बल
इस समान लक्ष्य की प्राप्ति हेतु बौद्ध पद्धति, विशेषतः उसकी भारतीय-तिब्बती परम्पराओं में, इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि हमें आलम्बन किस प्रकार प्रतीत होते हैं और, तर्क तथा विवेक का प्रयोग करके, उन भ्रांत प्रतीतियों को किस प्रकार खंडित किया जाए जो हमारे चित्त प्रक्षेपित कर रहे हैं। फिर, यथार्थ को देखकर और स्वीकार करके, सुख तथा कल्याण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तार्किक, यथार्थवादी उपायों पर बल दिया जाता है।
हमारे इस वर्तमान, तथा-कथित "उत्तर-सत्य" युग में, जहाँ षड्यंत्रकारी परिकल्पनाओं और मिथ्या जानकारी की भरमार है, यह दृष्टिकोण निर्णायक है, चाहे हमारा धर्म या मत प्रणाली कुछ भी हो। यह अनिवार्य है चाहे हम किसी भी धर्म का पालन न करते हों। इसलिए बौद्ध धर्म में, अनियंत्रित रूप से आवर्ती दुःख से सभी प्राणियों की मुक्ति के मूल सरोकार के सम्बन्ध में ईश्वर के अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता। चूंकि भ्रांत प्रतीतियों और यथार्थवादी संसार की व्युत्पत्ति कार्य-कारण पर निर्भर है, इसलिए सभी अनुभव करने वालों की मनोदृष्टियाँ और व्यवहार से प्रभावित होते हैं। अतः, पूर्ववर्ती के यथार्थ पर विश्वास करके उत्पन्न दुःख पर विजय पाकर तथा उत्तरवर्ती के यथार्थ पर विश्वास से उत्पन्न सुख पाकर ही हमारे हेतुक प्रयासों की अवलम्बित उत्पत्ति संभव है। यह मूल बौद्ध-धर्मी मत है।
यथार्थ का जहाँ तक प्रश्न है, हम सभी एक प्रकार के "सत्य या वास्तविक यथार्थ" में रहते हैं, जिसे विज्ञान द्वारा सत्यापित किया जा सकता है, जिससे बौद्ध धर्म सहमत है। अंततः, भगवान् बुद्ध ने कहा था कि उनकी शिक्षाएँ केवल भरोसे पर न अपनाएँ, अपितु जैसे सोना खरीदते समय करते हैं वैसे परखें। इसलिए, बौद्ध धर्म में, परख और विश्लेषण यथार्थ को खोजने और सत्यापित करने के उत्तम उपाय हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब लोग एक वैकल्पिक, मिथ्या यथार्थ रच लेते हैं और उसे सत्य मान बैठते हैं। हम राजनैतिक जगत में ऐसा देखते हैं, पर बौद्ध धर्म इस प्रपंच को एक अधिक व्यापक, सार्वभौमिक स्तर पर देखता है।
मिथ्या यथार्थ कि हम विशिष्ट हैं
कई लोग यह मिथ्या यथार्थ रच लेते हैं कि वे कुछ विशिष्ट हैं। यह एक आत्म-केंद्रित मनोदृष्टि की ओर ले जाता है जिससे हम सोचते हैं कि जो कुछ हमारे साथ घटित हो रहा है, विशेषतः बुरे अनुभव, वह केवल हमारे साथ ही होता है। उदाहरण के लिए, हमें लगता है कि हम ही बीमार होते हैं, अपनी नौकरी से हाथ धो बैठते हैं, अपने प्रियजनों से बिछुड़ जाते हैं, या मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ऐसे लोगों की भगवान बुद्ध ने सच जानने में कैसे सहायता की? आइए एक उदाहरण देखें, जो बौद्ध धर्मी दृष्टिकोण समझने में हमारी सहायता कर सकता है।
एक बार एक स्त्री अपना मृत शिशु बुद्ध के पास लाई और उसे पुनः जीवित करने का आग्रह करने लगी। बुद्ध सहमत हो गए, पर बोले कि पहले वह एक ऐसे घर से चावल का एक दाना लेकर आए जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो। स्त्री सारे गाँव में घूमी, ऐसी गृहस्थी की तलाश में हर घर गई, पर शीघ्र उसे पता चला कि प्रत्येक परिवार में किसी न किसी की मृत्यु तो हुई ही है, चाहे वह अवस्था में बड़ा था या छोटा। यह जानकर कि केवल उसने ही अपने प्रियजन को नहीं खोया है, वह यह यथार्थ समझ गई और मान गई कि मृत्यु तो सभी की होती है। इस प्रकार, उसने मोह त्याग दिया और अपने शिशु का दाह-संस्कार होने दिया।
जब लोग किसी कठिन परिस्थिति से जूझ रहे होते हैं - चाहे वह व्यसन हो, कैंसर, डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चा इत्यादि - वे प्रायः अकेला अनुभव करते हैं। हमें लगता है कि केवल हम ही हैं जिसके साथ यह समस्या हो रही है। ऐसी मिथ्या धारणा पर विश्वास करने से हम भावात्मक स्तर पर दूसरों से दूर हो जाते हैं और असीम मानसिक पीड़ा का सामना करते हैं। सच्चाई यह है कि कई लोग इस प्रकार की परिस्थिति का सामना कर रहे होते हैं। यह समझने का एक तरीका है ऐसे सहायता दल का हिस्सा बनना जहाँ लोग ऐसी ही परिस्थिति में हों। यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध किया जा चुका है कि ऐसी समस्याओं से जूझने के लिए ऐसे समूह अत्यंत लाभकारी होते हैं। समस्या चाहे जो भी हो, सत्य यही है।
यह समझने के लिए कि केवल हम ही समस्या से नहीं जूझ रहे हमें किसी सहायता समूह का हिस्सा बनने की भी आवश्यकता नहीं है। यह यथार्थ देखकर हमें दूसरों को समाहित करने के लिए अपना परिप्रेक्ष्य अधिक व्यापक करने में सहायता मिलती है, और, ऐसा करने से हम समझ लेते हैं कि जिस प्रकार हम अपनी समस्या से छुटकारा पाकर प्रसन्न रहना चाहते हैं, अन्य लोग भी यही चाहते हैं। जिस प्रकार हम दुःख नहीं भुगतना चाहते, वे भी ऐसा नहीं चाहते। इससे हमें करुणा विकसित करने में सहायता मिलती है।
करुणा
वह इच्छा कि हम तथा अन्य सभी लोग कष्ट और दुःख से मुक्त हो जाएँ करुणा है। जब हम संकुचित सोच सहित केवल अपने विषय में सोचते हैं, तब हम मानसिक रूप से सिकुड़ जाते हैं और अपनी भावात्मक ऊर्जाओं को घोट देते हैं। इस व्यवधान का अनुभव हम चिंता, क्लेश तथा असुरक्षा के रूप में करते हैं। दूसरों से अपने मन की बात कहने से हम इस लक्षण से मुक्त हो जाते हैं। करुणा, तथा यह अनुभूति कि हम अकेले नहीं हैं, हमें शांत कर देता है। इससे हम अपनी स्थिति की सच्चाई अधिक स्पष्टता से देख पाते हैं और समझ पाते हैं कि अपनी समस्या के निवारण के लिए हम कौन से संभव प्रयास कर सकते हैं। अतः, करुणा हमें समस्याओं का सामना करने का आत्म-विश्वास देती है।
आखिरकार, मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यह यथार्थ है। शैशव काल से लेकर जीवन पर्यन्त हमारा कल्याण दूसरे लोगों पर निर्भर करता है। हमारे द्वारा प्रयोग या उपभोग की गई प्रत्येक वस्तु दूसरे लोगों की मेहनत से मिलती है, और, उनके बिना, हम निर्वाह नहीं सकते। इसके अतिरिक्त, सबके जीवन आपस में कहीं न कहीं जुड़े होते हैं। जिस बात का प्रभाव संसार के एक कोने में किसी पर पड़ता है, वह सभी पर पड़ता है। वैश्विक मुद्दे, जैसे जलवायु परिवर्तन और जिसे परम पावन दलाई लामा "भावात्मक स्वास्थ्य" के प्रति अपर्याप्त ध्यान कहते हैं, इस ग्रह पर सभी को प्रभावित करते हैं। यथार्थ यही है। इसलिए, सबके कल्याण के प्रति करुणामय सरोकार पर आधारित समस्या-निदान की ओर सर्वसमावेशी ढंग से बढ़ना ही हम सब के इच्छित सुख और कल्याण तक पहुँचने का यथार्थवादी मार्ग है। ये बिंदु और यह दृष्टिकोण अनन्य रूप से बौद्ध नहीं हैं, परन्तु जैसा कि परम पावन दलाई लामा बलपूर्वक कहते हैं, ये सहज ज्ञान और सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित हैं।
मिथ्या प्रतीतियों का विखंडन
पर आइए अब हमारे व दूसरे लोगों के लिए समस्याकारी और कष्टदायक मिथ्या धारणाओं की भ्रांत प्रतीतियों का विखंडन करने वाले बौद्ध दृष्टिकोण की ओर देखें।
वास्तव में, भ्रांत प्रतीतियों और मिथ्या यथार्थों का मुद्दा अत्यंत जटिल और बहुस्तरीय है। बौद्ध धर्म पहले विभिन्न प्रकार की मिथ्या धारणाओं का विश्लेषण पहले उन्हें वर्गीकृत करके करता है जिन्हें हम भूलवश यथार्थ से मेल खाता समझ सकते हैं। इसके पीछे सिद्धांत यह है कि हम किसी भी समस्या को पहचाने और समझे बिना उसको हल नहीं कर सकते।
सामान्यतः, कुछ भ्रांत यथार्थ विद्यमान आलम्बनों की विकृत या भ्रामक प्रतीतियों पर आधारित होते हैं, जबकि अन्य केवल कल्पना के प्रक्षेपण होते हैं। कुछ भ्रामक प्रतीतियाँ इन्द्रिय-जनित होती हैं, और इसलिए उन्हें निर्वैचारिक रूप में समझा जाता है, जबकि कुछ शुद्ध रूप से वैचारिक होती हैं। कुछ की व्युत्पत्ति भ्रांत सूचना के भ्रामक सूत्रों से होती है, और कुछ स्वतः उत्पन्न होती हैं, जैसे अभ्यास-जनित क्रोध से उत्पन्न विकृतियाँ। चलिए इनमें से कुछ विकृतियों का सर्वेक्षण करते हैं।
मिथ्या यथार्थ की इन्द्रिय-ग्राही प्रतीतियों का विखंडन
इन्द्रिय-ग्राही प्रतीतियाँ चार भिन्न स्रोतों से उत्पन्न हो सकती हैं: उनका आधार, उनका आलम्बन, वे जिस परिस्थिति में घटित होती हैं और चित्त की तात्कालिक अवस्था जो उन्हें प्रक्षेपित करती है:
- मिथ्या इन्द्रिय-ग्राही प्रतीति का आधार वह संज्ञानात्मक सामग्री होती है जिससे वह उत्पन्न होती है और अनुभव की जाती है। मिथ्या इन्द्रिय-ग्राही प्रतीति सत्य का विकृत रूप हो सकती है। उदाहरण के लिए, दृष्टिवैषम्य के कारण, हो सकता है कि हमें छवियाँ धूमिल दिखें, और दोषपूर्ण सुनने की शक्ति के कारण, लोगों की स्पष्ट बोली गई बातें भी हमें अस्पष्ट सुनाई दें। ये मिथ्या इन्द्रिय-ग्राही प्रतीतियाँ उनकी भी हो सकती हैं जो विद्यमान ही नहीं है। उदाहरण के लिए, अंग-विच्छेदन के पश्चात, हम एक आभासी अंग की अनुभूति अनुभव कर सकते हैं या कृत्रिम अंग में अनुभूति अनुभव कर सकते हैं।
- आलम्बन से उत्पन्न मिथ्या प्रतीतियों में रंग और रौशनी के चाक्षुष भ्रम की आकृतियाँ मस्तिष्क को भ्रमित कर सकती हैं, और इसके अतिरिक्त ऐसे आलम्बन भी जैसे तेज़ी से घूमती टॉर्च जो गोलाकार रौशनी प्रतीत हो।
- परिस्थितियों से उत्पन्न मिथ्या प्रतीतियाँ बाह्य परिस्थितियों के कारण भी हो सकती हैं जैसे धुंध या अन्धकार, या देखनेवाले की परिस्थिति के कारण, जैसे उसका चलती ट्रेन से बाहर की वस्तुएँ देखना जो पीछे को चलती महसूस होती हैं।
- चित्त की तत्कालीन अवस्था से उत्पन्न मिथ्या प्रतीतियाँ हो सकती हैं जिनका कारण विभ्रम हो सकता है, जैसे ज्वर, नशीले पदार्थ अथवा भय।
ये मिथ्या इन्द्रिय-ग्राही प्रतीतियाँ यथार्थ से मेल नहीं खातीं, यह साबित करने का बौद्ध ढंग है इस तथ्य पर निर्भर करना कि जिन्हें ये भ्रम नहीं होते उनका वैध इन्द्रिय-ग्राही बोध इस बात का खंडन करता है। जब हम ऐनक पहन लेते हैं, तब हमें धुंधला दिखाई नहीं देता। जब ट्रेन रुक जाती है, तब खिड़की से बाहर की चीज़ें पीछे को नहीं भागती दिखतीं। इसके अतिरिक्त, जैसे वैज्ञानिक प्रक्रिया में होता है, यथार्थ की सही समझ को कई लोगों के कई बार दोहराए गए दृष्टिकोण द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिए, केवल हमारे द्वारा नहीं और केवल एक बार नहीं।
शून्यता
बौद्ध धर्म में शून्यता की बहुत चर्चा की जाती है, जिसे प्रायः "खालीपन" भाषांतरित किया जाता है। शून्यता से अभिप्राय है किसी चीज़ की अनुपस्थिति, नामतः उसकी पूर्ण अनुपस्थिति जो इन मिथ्या प्रतीतियों से मेल खाती हो जिसे हमारा चित्त रच लेता है। आलम्बन अस्तित्वमान होते हैं, पर उस असत्य रूप में नहीं जिस तरह हमारा चित्त उन्हें दिखलाता है।
उदाहरण के लिए, हमारी भागती ट्रेन के बाहर पेड़ तो है, परन्तु जो पेड़ हमें पीछे की ओर जाता प्रतीत होते है वह किसी वास्तविक चीज़ से मेल नहीं खाता। पीछे की ओर जाते पेड़ों जैसा कुछ नहीं होता; पर इसका अर्थ यह नहीं है कि पेड़ नहीं होते। अतः, शून्यता नहीत्ववादी दृष्टिकोण नहीं है; वह किसी भी बात को नकारता नहीं है। वह यह भी नहीं नकारता कि ऐसी मिथ्या प्रतीतियाँ लोगों के चित्त में उत्पन्न होती हैं और लोग बोध का अनुभव प्राप्त करते हैं और उस अनुभव के आधार पर प्रतिक्रिया भी करते हैं। शून्यता केवल असम्भाव्यता का खंडन करती है - अर्थात, एक असली यथार्थ जो हमारे चित्त द्वारा रचित मिथ्या, भ्रामक प्रतीतियों से मेल खाता है।
मिथ्या यथार्थ की अवधारणापरक प्रतीति का विखंडन
मिथ्या यथार्थ की अवधारणापरक प्रतीतियों के विखंडन और सुधार के लिए, बौद्ध धर्म उसी प्रकार की प्रक्रिया का प्रयोग करता है जिसका प्रयोग मिथ्या, निर्वैचारिक इन्द्रिय-ग्राही प्रतीतियों के विखंडन के लिए किया जाता है। जिन आलम्बनों से ये प्रतीतियाँ मेल खाती हैं, यदि अवलोकन या तर्क द्वारा इन प्रतीतियों को वैध बोध के विरुद्ध पाया गया, तो ये प्रतीतियां एक मिथ्या यथार्थ की हैं। ये मिथ्या प्रतीतियाँ स्थूल से अत्यंत सूक्ष्म तक हो सकती हैं और, जैसे प्याज़ को छीला जाता है, उसी प्रकार इनका परत दर परत विखंडन करना अनिवार्य हो जाता है। पर पहले हमें यह समझने की आवश्यकता है कि अवधारणापरक बोध क्या होता है।
एक मित्र का उदाहरण
अवधारणापरक बोध केवल मानसिक होता है और यह एक श्रेणी के माध्यम से घटित होता है। उदाहरण के लिए, हम "मित्र" की अवधारणपरक श्रेणी को शब्दकोष में दी गई मित्र की परिभाषा से या उस परिभाषा के हमारे अपने रूप-भेद से समझते हैं। पश्चिमी सन्दर्भ में कहा जाए तो, हम कहेंगे कि हमारा एक "विचार" है कि मित्र क्या होता है और, असल में, एक "दृढ़ विचार" है। यदि हमें एक मित्र के बारे में सोचने के लिए कहा जाए तो हम उस श्रेणी को उसके मानसिक चित्र के रूप में देखेंगे, जैसे कोई मानसिक होलोग्राम हो, जो उस विवरण को दर्शाता है - एक आदर्श अच्छा मित्र। हो सकता है कि मानसिक होलोग्राम किसी विशेष मित्र का मानसिक चित्र न हो, और यह मानसिक चित्र स्पष्ट भी न हो, बल्कि यह एक भावात्मक अनुभूति जैसा हो, या "मित्र" शब्द के स्वर की मानसिक छवि हो।
आइए देखते हैं कि मित्र की ऐसी धारणा में बोध किस प्रकार होता है। जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जिसे हम मित्र मानते हैं और हम उस में कुछ ऐसा देखते या अनुभव करते हैं जो अप्रियकर है, जैसे हमारे द्वारा कहा गया कोई काम पूरा न करना, तो हमें दुःख होता है और हम उनसे क्रोधित भी हो जाते हैं। उस क्रोधवश, हम उन्हें कटु शब्दों में डाँट भी देते हैं। यदि हम अपनी इस प्रतिक्रिया का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि हमने अपने मित्र को मित्र की अपनी मानसिक श्रेणी में देखा और समझा कि एक अच्छा मित्र कैसा होता है और उसे क्या करना चाहिए। क्योंकि इस समय वे इस श्रेणी में नहीं आते और हमारी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते, तो हम दुखी और क्रोधित हो जाते हैं। फिर हमारी बुरी आदतें हमपर हावी हो जाती हैं और हम आवेगवश ऐसी बातें कह देते हैं जिनके लिए हमें बाद में पछतावा होता है।
इस बाध्यकारी प्रतिक्रिया से बचने के लिए, हमें यह समझना होगा कि चाहे यह व्यक्ति हमारा मित्र है, एक आदर्श मित्र की हमारी मानसिक छवि - कोई ऐसा जो सदा हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरता है, जो, वास्तव में, हमारी "मित्र" की परिभाषा है - परन्तु वह किसी वास्तविक व्यक्ति से मेल नहीं खाती। अपने मन में यह समझते हुए, हम इस परिस्थिति को कई स्तरों पर विखंडित कर सकते हैं और इस प्रकार क्रोधित होने से या अपने मित्र के प्रति हताश होने से बच सकते हैं; या यदि हमें क्रोध आ भी गया तो हम शीघ्रता से उसे कम करके उसपर काबू पा सकते हैं। ऐसा करने के लिए, हमें अपने चित्त द्वारा रचित किसी भी प्रकार की मिथ्या प्रतीतियों का विश्लेषण करना होगा और जो हुआ है उसका सच ढूँढ़ना होगा।
पहले, सबसे मूल स्तर पर, हमें यह पता लगाना होगा कि हमारी जानकारी सही है भी या नहीं। क्या उन्होंने वास्तव में हमारा कहना नहीं माना, या वे केवल हमें बताना भूल गए, या हम ही उनके कृत्य को देखने या सराहने से चूक गए? किसी भी प्रकार की ग़लतफ़हमी और मिथ्या आक्षेप को सुधारने के लिए, हमें प्रमाण को जाँचना होगा। क़ानूनी सुनवाई में असत्य आरोपों से बचने के लिए भी यही विधि अपनाई जाती है।
यदि, वास्तव में, उन्होंने हमारा कहना नहीं माना, तो हमें उसके कारणों की जाँच करनी होगी। हमारे चित्त ने जो अवधारणापरक प्रतीति रची उसके अनुसार वे अच्छे मित्र नहीं थे, क्योंकि हमारी कल्पना में अच्छे मित्र की परिभाषा है वह जो सदा हमारा साथ दे। यहाँ, हमने अच्छे मित्र की विशिष्टता यह निर्दिष्ट की है जो सदा हमारा साथ दे और सदा हमारा कहना माने। परन्तु क्या यह विशेषता की तर्कसंगत परिभाषा है?
जब हम विश्लेषण करते हैं तो समझते हैं कि लोगों का व्यवहार कारणों और परिस्थितियों पर आधारित होता है। वह उनके भीतर की किसी विशिष्टता पर निर्भर नहीं करता जो परिस्थितियों से परे उनके व्यवहार को निर्धारित करती है। यह असंभव है अन्यथा हमारे समेत, सभी का व्यवहार सदा बराबर एक जैसा होता, चाहे परिस्थितियाँ कुछ भी हों। उदाहरण के लिए, सड़क दुर्घटना के कारण हुए ट्रैफ़िक जैम के बावजूद हम हमेशा समय पर पहुँचते। हमारे व्यक्तिगत अनुभव सहित सभी प्रमाण इस बात का खंडन करते हैं कि कारणों और परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना लोगों का व्यवहार हमेशा एक जैसा रहेगा।
परिस्थिति के सत्य को जानने और उस मिथ्या यथार्थ के खंडन के लिए जो हमारे चित्त ने रच लिया हो - जैसे उन्होंने हमारे कहे अनुसार कार्य नहीं किया क्योंकि वे हमें पसंद नहीं करते और अब हमारे मित्र नहीं रहे - फिर हम केवल अपने मित्र से हमारी बात न मानने का कारण पूछेंगे। हमारी इच्छा पूरी न करने के उनके पास कई कारण हो सकते हैं। हो सकता है कि वे सफाई दें कि वे बहुत व्यस्त थे या तनावग्रस्त थे, या कोई अन्य अत्यावश्यक काम आ गया था, या वे किसी बात से परेशान थे, या अस्वस्थ थे, भूल गए थे, या आलस्यवश उसे टालते रहे। यह भी हो सकता है कि, सही अथवा ग़लत, उन्हें हमारी बात अनुचित लगी, और इसलिए, हमसे नाराज़ होने के कारण, उन्होंने हमारी बात ठुकरा दी। और गहरा छानने पर हम जानेंगे कि ये सभी कारण कई कारणों और परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुए थे। उदाहरण के लिए, वे बहुत व्यस्त और परेशान थे क्योंकि उनके व्यवसाय में कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम आ गया था जिसे उन्हें एक निर्धारित समय में पूरा करना था।
फिर जो हुआ उसका यथार्थ यह था कि जो हमने उनसे करने के लिए कहा उसे उनके द्वारा न किये जाने को बौद्ध धर्म में "प्रतीत्यसमुत्पाद घटना" कहते हैं। उसकी अवलम्बित उत्पत्ति कई कारणों और परिस्थितियों पर निर्भर थी और उनमें पाए जाने वाली किसी निर्धारक विशिष्टता के कारण नहीं, जिसने उन्हें अपनी शक्ति से, एक "बुरा मित्र" बना दिया। और, ऐसा नहीं है कि चूँकि उन्हें सहज रूप से, "बुरे मित्र" का नाम दे दिया गया था इसलिए वे हमारी अच्छे मित्र की अवधारणा पर खरे नहीं उतर पाए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारी अच्छे मित्र की अवधारणा एक अनुचित निर्धारक विशिष्टता पर आधारित थी और, उसके कारण, उस श्रेणी के लायक कोई नहीं होता। हमारे मन में जो अच्छे मित्र की छवि है वह वास्तव में किसी से मेल नहीं खाती।
इस मिथ्या प्रतीति से मेल खाते किसी आलम्बन का न होना इस प्रतीति की शून्यता है। जब हम उस शून्यता पर ध्यान केंद्रित करते हैं - इस तथ्य पर कि ऐसा कुछ नहीं - है तो वह मिथ्या प्रतीति जन्म ही नहीं लेती। जब हम दुबारा अपने मित्र से मिलते है, चाहे वह शून्यता अब प्रकट नहीं होती, फिर भी हमें उनके प्रतीत्यसमुत्पाद से जन्में व्यवहार को समझकर उसके प्रति सजग रहने की आवश्यकता है। इस प्रकार, हम बिना क्रोधित हुए, शांतिपूर्वक, करुणा और तर्कसंगत रूप से परिस्थिति से निपटते हैं।
यदि वे हमारे द्वारा कहे गए कार्य को अपने व्यक्तिगत जीवन या व्यवसाय की किसी अत्यावश्यक या तनावपूर्ण स्थिति के कारण नहीं कर पाए, तो हम उनके साथ सहानुभूति और करुणा दिखाते हैं कि वे उस समस्या से मुक्त हो जाएँ। यदि वे केवल आलस्य के अधीन थे, तब भी हम उनके प्रति करुणा अनुभव करते हैं, यह कामना करते हैं कि वे इससे मुक्त हो जाएँ, और आलस्य से छुटकारा पाने के लिए परामर्श देते हैं। यदि उन्हें हमारा परामर्श अतार्किक लगे, तो हम उसपर ध्यान देते हैं। यदि हमारा आग्रह वास्तव में अतार्किक था या अनुचित माँग प्रतीत हुई हो, तो हम क्षमा-याचना करते हैं और उस प्रकार का अतार्किक आग्रह या माँग न करने का प्रयास करते हैं। यदि मित्र द्वारा की जा सकने वाली तर्कसंगत माँग की उनकी परिभाषा के आधार पर उन्हें वह आग्रह अनुचित लगा हो तो हम उनके दृष्टिकोण का आदर करते हैं और एक मध्यम-मार्गी परिभाषा ढूँढ़ने के लिए बातचीत करते हैं। सामान्यतः ये सभी उपाय विवाद समाधान के लिए मध्यस्थता करने वालों के साथ सांझा किए जाते हैं।
कैंसर पीड़ित होने का उदाहरण
मिथ्या अवधारणपरक प्रतीतियों का उपर्युक्त विश्लेषण हमें पहले बताए गए उदाहरण को समझने में हमारी सहायता करता है कि किस प्रकार हम कल्पना और विश्वास कर लेते हैं कि केवल हमारे साथ ही जीवन में समस्याएँ हो रही हैं, जैसे कैंसर। इस उदाहरण में, हम कैंसर के रोगी की अवधारणा को देखते हैं, और, आरम्भ में, हम यह मानना भी नहीं चाहते कि हम उस श्रेणी में आते हैं। हम स्वीकार नहीं कर पा रहे होते। पर जब हमें वास्तव में कैंसर होता है, तब यह स्पष्टतः एक मिथ्या प्रतीति है कि हम उस श्रेणी में नहीं है जिसमें कैंसर ग्रस्त लोग हैं।
परन्तु मान लीजिए कि अंततः हम स्वीकार कर लेते हैं कि हम इस श्रेणी में आते हैं। यदि हम यह मिथ्या प्रतीति रचते हैं कि हम ऐसे अकेले व्यक्ति हैं, तो यदि हम बौद्धिक रूप से समझते हैं कि यह सच नहीं है, तब भी हो सकता है कि हम भावात्मक रूप से समर्थन करें और, इसके कारण, अकेला महसूस करें तथा आत्मदया और विषाद में डूबे रहें। परन्तु जब हम अपनी सचेतनता को विस्तृत कर इस श्रेणी में आने वाले सभी लोगों को शामिल कर लेते हैं, चाहे ऐसा कैंसर सहायक समूह का हिस्सा बनकर हो या अपने विश्लेषण द्वारा, तब हम अपने द्वारा रचित इस मिथ्या प्रतीति अस्वीकार करने के लिए स्वयं को सशक्त बना लेते हैं। यदि हम अन्य सभी कैंसर पीड़ितों के प्रति करुणा विकसित कर लेते हैं, तो हम अपने विषाद और आत्म-दया को भी दूर भगा पाते हैं।
हम एक और मिथ्या प्रतीति रचते हैं यदि हम किसी कैंसर पीड़ित की श्रेणी में यह निर्धारक विशिष्टता जोड़ दें कि वह अपरिहार्य रूप से मरण के लिए अभिशप्त है। यह मानकर कि हम और सभी कैंसर ग्रस्त लोग इस श्रेणी में आते हैं हम इस रोग के अपने अनुभव में भय का एक भावात्मक अंश जोड़ देते हैं। हम इस अनुपयुक्त विशिष्टता का खंडन कैंसर उत्तरजीवियों के आंकड़ों पर दृष्टि डालकर कर सकते हैं। यह प्रमाण योग्य साक्ष्य हमारे भ्रमपूर्ण मत का खंडन करता है।
प्रतीतियों के दो स्वरूप और वास्तविक यथार्थ के दो स्वरूप
मिथ्या प्रतीतियों और वास्तविक यथार्थ का विश्लेषण बौद्ध धर्म और अधिक गहनता से करता है। इस सन्दर्भ में, बौद्ध धर्म इन दोनों के दो स्वरूप बतलाता है। किसी आलम्बन की एक प्रतीति होती है और एक होता है उसका वास्तविक यथार्थ। फिर यह प्रतीति है कि कैसे किसी आलम्बन की उपस्थिति - उसके अस्तित्व और सामान्यतः वैध ठोस आलम्बन के रूप में - और उसका वास्तविक यथार्थ प्रमाणित होते हैं। दोनों प्रतीतियों के दोनों स्वरूप अविभाज्य हैं; वे सदैव एकसाथ प्रकट होते हैं।
इसके अतिरिक्त, प्रतीतियों की दुनिया के दोनों स्वरूप सटीक हो सकते हैं, और इस सूरत में, वे वास्तविक यथार्थ के दो अविभाज्य एक जैसे स्वरूपों से मेल खाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम अस्वस्थ हैं, तो हो सकता है कि वह कैंसर हो और यह भी हो सकता है कि वह कोई साधारण संक्रमण हो। उसकी कैंसर अथवा किसी अन्य संक्रमण के रूप में प्रमाणित उपस्थिति तभी सही मानी जाएगी यदि यह सत्यापित और पुष्ट किया जा चुका हो कि उसकी अवलम्बित उत्पत्ति कारणों और परिस्थितियों तथा इस परम्परा पर हुई हो कि ये लक्षण कैंसर या किसी संक्रमण की परिभाषाबद्ध विशिष्टताएं हैं। एक अशुद्ध उपाय वह माना जाएगा जब बीमारी के साथ कुछ ऐसा पाया जाए जो अपने स्वरूप के कारण अन्य किसी कारक से मुक्त, कैंसर या अन्य कोई संक्रमण हो। ऐसा प्रायः रोगभ्रमियों के साथ पाया जाता है जिन्हें यह विश्वास होता है कि वे अस्वस्थ हैं और उन्हें केवल इसलिए कैंसर है क्योंकि वे ऐसा सोचते हैं।
आत्म की मिथ्या प्रतीति का विखंडन करना
परन्तु आइए हम एक अन्य विशिष्ट रूप से बौद्ध उदाहरण को और गहनता से देखें, नामतः स्वयं का उदाहरण, जिसे हम "मैं" कहते हैं। बौद्ध धर्म के अनुसार, स्वयं, "मैं" जैसा एक आलम्बन है। जब मैं अस्वस्थ होता हूँ, तो प्रतीत होता है कि "मैं" अस्वस्थ है जो अस्वस्थ व्यक्ति का सही रूप भी है। "तुम" या अन्य कोई अस्वस्थ नहीं होता। इन दोनों रूपों में सोचने का अर्थ है मिथ्या प्रतीति में विश्वास करना। परन्तु यह आत्म क्या है, यह "मैं" कहलाया जाने वाला आलम्बन है क्या, और इसकी उपस्थिति को कैसे सत्यापित किया जाए?
बौद्ध धर्म के अनुसार, आत्म एक व्यक्ति है, एक निरंतर परिवर्तित होने वाला दृश्य-प्रपंच जो न तो किसी प्रकार का कायिक दृश्य-प्रपंच है और न ही किसी प्रकार का आभास। इस सन्दर्भ में वह आयु की तरह है। इसे कभी-कभी "आरोपण दृश्य-प्रपंच" कहा जाता है। इसका अर्थ है कि न ही आत्म और न ही आयु अपनेआप में विद्यमान हो सकते हैं परन्तु ये ऐसे दृश्य-प्रपंच हैं जो सदैव किसी अन्य से जुड़े और इस कारणवश उसपर आश्रित होते हैं। आयु का सम्बन्ध सदा किसी वस्तु से होता है; आयु किसी आलम्बन की होनी चाहिए। इसी प्रकार, आत्म का सम्बन्ध व्यक्ति से होता है, एक जीवंत शरीर और चित्त का निरंतर बदलता सातत्य जो उस शरीर के कायिक आधार पर क्रियाशील होता है। अन्य शब्दों में, आत्म वह विशिष्ट व्यक्ति है, व्यक्तिपरक ढंग से अनुभव किया गया "मैं", जो उस सातत्य को अपना आधार बनाकर उसके सन्दर्भ में निर्भर रूप से विद्यमान होता है।
बौद्ध धर्म यह भी दावा करता है कि प्रत्येक व्यक्तिगत आत्म एक से दूसरे जीवनकाल तक, बिना आदि और अंत के, जारी रहता है, केवल अपना स्थूल रूप बदलता हुआ जिससे वह उस जीवनकाल में जुड़ा हुआ होता है। परन्तु जीवनकालों के बीच भी, उसका आधार होता है - नामतः, अत्यंत सूक्ष्म चेतना और जीवनदायी ऊर्जा।
कारण और प्रभाव के विश्लेषण का तार्किक निष्कर्ष यह तथ्य है कि अत्यंत सूक्ष्म चेतना, अत्यंत सूक्ष्म जीवनदायी ऊर्जा और आत्म का कोई आदि और अंत नहीं होता। जो प्रतिपल बदलता हो वह, बिना कारण, शून्य से नहीं उपज सकता और जिन कारणों से उसकी उत्पत्ति होती है उन्हें भी प्रतिपल बदलते रहना होगा ताकि वे उसे जन्म दे सकें। इसका अर्थ है कि पूर्व परिस्थितियों का ऐसे कारणों पर प्रभाव अवश्य पड़ता होगा जिनसे कुछ उपजता हो। इसके अतिरिक्त, दृश्य-प्रपंच की समान श्रेणी से ही कुछ रूपांतरित होकर, क्रम में, उसी श्रेणी की किसी वस्तु को जन्म दे सकता है। क्रोध अंकुर को जन्म नहीं दे सकता, केवल एक बीज दे सकता है। अतः, केवल सूक्ष्मतम चेतना का एक पूर्व क्षण, सूक्ष्मतम जीवनदायी ऊर्जा और एक वैयक्तिक आत्म जिनसे वे जुड़े हैं अगले जीवन काल में उनके पहले क्षण को जन्म दे सकते हैं।
सर्वशक्तिमान ईश्वर अथवा महाविस्फोट से सृजित न केवल ऊर्जा और द्रव्य, बल्कि चेतना और आत्म के बौद्ध-धर्मी विश्लेषण से उत्पन्न होने वाली तर्कसंगत बातों में से कुछ बातें ये हैं। जो वस्तु पल-पल परिवर्तित होती हो उसकी शून्य से शुद्ध शुरुआत तर्क-विरोधी है। यह दावा कि इसकी संभाव्यता हमारी समझ के परे एक पहेली है बौद्ध सिद्धांतों से मेल नहीं खाता।
और अधिक विश्लेषण करने पर, हम देखते हैं कि आत्म न तो अपने आधार के समरूप है और न ही पूर्णतः विलग एवं असम्बद्ध। हम एक मिथ्या प्रतीति में विश्वास करते हैं जब, उदाहरण के रूप में, हम अपनी स्वस्थ, युवा काया को सच मान लेते हैं जबकि वास्तव में हम बूढ़े और कैंसर ग्रस्त हैं, अथवा जब हम यह मानने से इंकार करते हैं कि हम जिस कैंसर से ग्रस्त हैं वह "मैं" को नहीं हुआ है।
इसके अतिरिक्त,कायिक दृश्य-प्रपंच न होने के कारण, आत्म का अपना कोई रूप नहीं होता, और इसलिए अपने आधार के किसी आयाम के साथ ही साथ प्रकट हुए और पहचाने गए बिना इसकी पहचान नहीं की जा सकती। मैं अपने शरीर का कोई अंग देखे बिना स्वयं को नहीं देख सकता; मैं "मैं" शब्द की मानसिक ध्वनि को सोचे बिना अपने बारे में नहीं सोच सकता। मैं अपने विषय में कुछ जाने बिना स्वयं को नहीं "जान सकता"।परन्तु, चाहे मैं स्वयं को देखूँ या नहीं या अपने बारे में सोचूँ या न सोचूँ, मेरा अस्तित्व मिट नहीं सकता। मेरा अस्तित्व स्वयं को देखने या अपने बारे में सोचने पर निर्भर नहीं करता।
हम ये कैसे निर्धारित करें कि आत्म जैसी एक इयत्ता है, एक "मैं" नामक विशिष्ट व्यक्ति? यदि हम शरीर, मस्तिष्क, यहाँ तक कि चित्त का भी विच्छेदन करें, तब भी आत्म को पा नहीं सकते। हम आत्म में या उसके आधार के किसी अंग में एक परिभाषाबद्ध विशिष्टता भी नहीं ढूँढ़ सकते, जो, आत्म की परिभाषाबद्ध विशिष्टता निर्दिष्ट हुए बिना स्वतंत्र रूप से, स्वतः आत्म की परिभाषाबद्ध विशिष्टता हो।
मानसिक नामकरण
आइए इसे और ध्यान से देखें। हम सभी "मैं" शब्द से आत्म की धारणा को निर्दिष्ट करते हैं। वर्ग की दृष्टि से, यह अवधारणा स्वतः तब उत्पन्न होती है जब हम ऐसे किसी भी विचार का चिंतन करते हैं जिसमें "मैं" शब्द की ध्वनि का मानसिक चित्र होता है, जैसे जब हम अपने जीवन में हमारी खींची गई तस्वीरें देखते हैं और उनमें से प्रत्येक के बारे में सोचते हैं, "यह मैं हूँ"। इन "मैं" की प्रत्येक मानसिक ध्वनि "मैं" वर्ग की अवधारणपरक छवि होती है।
जैसे कि पहले बताया गया है, सभी प्रतीतियों के दो आयाम होते है: जैसी वे प्रतीत होती हैं और उनकी उपस्थिति किस प्रकार प्रमाणित की जाती है। याद रखें कि दोनों आयाम अभिन्न होते हैं। जब हम उन सभी चित्रों के विषय में "वह मैं हूँ" के सन्दर्भ में सोचते हैं, तो यह सही हो भी सकता है और नहीं भी कि प्रत्येक शाब्दिक रूप से सोचा गया "मैं" वास्तव में मेरी ओर संकेत कर रहा है और मेरे भाई या बहन की ओर नहीं जो शिशु रूप में बहुत-कुछ मुझ जैसे दिखते थे। परन्तु उन सभी "मैं" की छवियों का अस्तित्वमान होना कैसे स्थापित किया जाए?
स्थूलतम स्तर पर, ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से प्रत्येक चित्र में जो "मैं" है वह वही "मैं" है जो घटनाओं से प्रभावित हुए बिना, जीवन के अंशों या अंगों के बावजूद, मेरे पूरे जीवन वही रहा है, और इस जीवनकाल में तथा उसके बाद भी, शरीर या चित्त से स्वतंत्र, ऐसी ही चलता रहेगा। परन्तु विश्लेषण करने पर, हमें समझ में आता है कि इसमें कोई तुक नहीं है। हो सकता है कि हमें सिखाया गया हो कि हम इस प्रकार विद्यमान रहते हैं, पर इसका यथार्थ से कोई मेल नहीं है। ऐसा कोई आत्म नहीं है जिसकी ऐसी उपस्थिति प्रमाणित की गई हो। परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं होता।
सूक्ष्मतर स्तर पर, वह जो स्वतः उद्भूत होता है, ऐसा प्रतीत होता है, जब मैं, इन चित्रों को देखकर केवल "मैं" के विषय में सोचता हूँ, कि मैं केवल "मैं" सोच सकता हूँ बिना उसी समय "मैं" के किसी आधार के बारे में सोचे हुए, चाहे वह केवल "मैं" शब्द की मानसिक ध्वनि हो। ऐसा आत्म असंभव है जो प्रत्यक्ष भी हो और जिसके विषय में केवल उसी के आधार पर सोचा जा सके। ऐसी कोई इयत्ता नहीं होती।
इससे भी अधिक सूक्ष्मतर स्तर पर, इन पुराने चित्रों को देखते हुए हमारा वैचारिक बोध "मैं" श्रेणी को, उनमें से प्रत्येक के आधार पर जो मानसिक ध्वनि "मैं" से चिन्हित होती है, मानसिक रूप से वर्गीकृत करता है। यदि ये सभी चित्र वास्तव में हमारे ही हैं, और इसलिए हमारा इन्हें मानसिक रूप से "मैं" वर्गीकृत करना यथार्थ से मेल खाता है, तो यह कैसे स्थापित किया जाए कि ये सब "मैं" हैं? वे "मैं" प्रतीत होते हैं, पर हम इस बात को प्रमाणित कैसे करें?
जब हम प्रत्येक चित्र का विश्लेषण करते हैं, तब हमें प्रत्येक चित्र में ऐसी कोई अपरिवर्तनशील निर्धारक विशिष्टता नहीं मिलती जो अपने दम पर यह निर्धारित अथवा प्रमाणित करे कि चित्र वाला व्यक्ति "मैं" ही है। प्रत्येक चित्र भिन्न लगता है। हम उन सभी को "मैं" नामित करते हैं, परन्तु ऐसी कोई पाई जा सकने वाली अपरिवर्तनशील इकाई नहीं है जो जिसका चित्र खींचा गया हो और जो इन मानसिक ध्वनियों "मैं" में से प्रत्येक से समान रूप से मेल खाती हो। तो, प्रत्येक में किसका चित्र खींचा गया? परम्परागत रूप से, हमें उत्तर देना पड़ेगा, "मैं"।
जहाँ तक यह निर्धारित करने का प्रश्न है कि वे सभी चित्र "मैं" के हैं, तो यह केवल इस बात से निर्धारित अथवा प्रमाणित होता है कि उन्हें मानसिक तौर पर "मैं" की चिप्पी लगाकर वर्गीकृत किया गया है और उनकी बात को न टालकर जो हमें जन्म से जानते हैं और इस बात की पुष्टि करते हैं। "यह व्यक्ति "मैं" मात्र वह है जिसे इन चित्रों के आधार पर श्रेणी और शब्द-संदर्भित करते हैं, उनके साथ एक ये "मैं" के अभाव में जो उन सब चित्रों के द्वारा पहचाने जाने वाला "मैं" को जो उनसे मेल खाता हो। आत्म के बोध, यहाँ तक कि निर्वैचारिक संवेदी बोधों का समर्थन करने वाली ज्ञेय परिभाषित करने वाली विशेषता के साथ ऐसी ज्ञेय सत्ता का पूर्ण अभाव, शून्यता का गहनतम दृष्टिकोण है।
परन्तु शून्यता यथार्थ का केवल एक आयाम है, क्योंकि हम सभी विद्यमान हैं, और कार्य-कारण के नियम संचालित होते रहते हैं। अतः, सभी वैध रूप से ज्ञेय आलम्बनों का परम्परागत अस्तित्व उन कारणों, परिस्थितियों, अंगों और धारणाओं की अवलम्बित उत्पत्ति है जिन्हें वे संदर्भित करते हैं। यथार्थ के इस कृत्रिम और वास्तविक विश्लेषण के बाद बौद्ध धर्म को किसी रचइता ईश्वर की भूमिका को शामिल करने की आवश्यकता नहीं है।
सारांश
सारांश में, यथार्थ से कल्पना को अलग करने की बौद्ध पद्धति है तर्क और विवेकपूर्ण विश्लेषण पर निर्भर करना। सबके सुख और कल्याण का मार्ग इस बात पर निर्भर करता है कि सब यथार्थ को देखें और स्वीकार करें तथा, एकजुट होकर, हम सबको व्यथित करने वाली व्यापक समस्याओं के निदान के यथार्थवादी उपाय खोजें व उन्हें लागू करें।