दीवारों को ढहा देना

आगे बढ़ने का ढंग

मैं इस गोष्ठी का संचालन ऐसे करना चाहूँगा मानो मैं आपको नमूने वाली चॉकलेटों का एक डिब्बा भेंट कर रहा हूँ | इसका अर्थ है कि थोड़ा बौद्ध विषयों का स्वाद हो और थोड़ा कुछ और | इसलिए गोष्ठी इतने सुसंगत रूप से नियोजित नहीं होगी | मेरे मन में क्या है, आइए मैं आपको उसकी एक झलक दिखाऊँ | उदाहरण के लिए, किसी भी बौद्ध-धर्मी शिक्षा के आरम्भ में मानक रूप से हमारी प्रेरणा स्थापित अथवा वर्णित की जाती है | वास्तव में, यह कर पाना सरल नहीं है | मुझे यह सरल नहीं लगता, क्योंकि शब्दों को केवल अपने मन में दोहराने और अपने शरीर व हृदय में उसे वास्तव में अनुभव करने के बीच एक सूक्ष्म संतुलन होता है |

मेरे विचार में हम में से अधिकांश के लिए, स्पष्ट रूप से यह निर्धारित कर पाना अत्यंत कठिन है कि कुछ महसूस करने, विशेषतः प्रेरणा की अनुभूति, का अर्थ क्या है | मेरा अभिप्राय है कि हम उदास महसूस कर सकते हैं - उस अनुभूति की हमें पहचान है | परन्तु प्रेरणा अनुभव कर पाना - यह जानना सरल नहीं है कि उससे क्या अभिप्राय है | मेरे विचार में इस प्रकार के मुद्दों को इस सप्ताहांत समझने का प्रयास करना रोचक सिद्ध होगा | ये जटिल मामले हैं, सरल नहीं | मेरे विचार में यह इससे अधिक लाभकारी सिद्ध होगा कि मैं पूछूँ, "एक बुद्ध में ज्ञानोदय के कितने लक्षण होते हैं?" और मैं आपको अंक दूँ - उस प्रकार का प्रश्न नहीं | परन्तु फिर, जैसे मैंने आरम्भ में कहा, ऐसे मामलों को तर्कसम्मत क्रम में व्यवस्थित करने में मुझे बहुत कठिनाई हुई है | मुझे व्यवस्था पसंद है और यह सरल नहीं रहा है |

इससे एक अत्यंत रोचक बात सामने आती है जो मेरे विचार में शायद कई लोगों के लिए प्रासंगिक है। और वह यह है कि प्रायः हमारी सामान्य पूर्वधारणाएँ तो होती ही हैं, जैसे सबकुछ एक तर्कसम्मत क्रम में होना चाहिए, किन्तु, एक गहनतम स्तर पर, हम सबकुछ अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। जब सबकुछ हमारे नियंत्रण में और "सुव्यवस्थित" होता है अथवा हमें ऐसा लगता है कि हमारे नियंत्रण में है, तब हम थोड़ा-बहुत निश्चिंत महसूस करते हैं। हमें लगता है कि हम भविष्य की जानकारी दे सकते हैं।  परन्तु जीवन ऐसा नहीं होता। हम सदैव सबकुछ नियंत्रित और "सुव्यवस्थित" नहीं रख सकते। इसका दूसरा पक्ष यह है कि हम किसी और को यह नियंत्रण देना उत्तम समझते हैं ताकि वह हमें या हमारी परिस्थिति को नियंत्रण में रख सके। मामला वही नियंत्रण का ही है।

परन्तु जीवन में क्या होगा यह किसी के नियंत्रण में नहीं है - न हमारे और न ही किसी और के। जो होता है उसपर किसी एक व्यक्ति का नहीं अपितु लाखों कारकों का प्रभाव पड़ता है। अतः आवश्यक है कि हम इस रूप में ढील दें कि हम इस मूर्त "मैं" को जकड़कर न रखें, जिसका स्वतंत्र अस्तित्व है, और जो नियंत्रण पाना चाहता है, बिना परवाह किए कि उसके आसपास क्या हो रहा है। यह मूर्त "मैं" सोचता है कि नियंत्रण पाने से वह अपना सुरक्षित अस्तित्व स्थापित कर लेगा। यह ऐसा सोचने के समान है, "यदि मेरे पास नियंत्रण है, तो मैं अस्तित्वमान हूँ। यदि मेरे पास नियंत्रण नहीं है, तो वास्तव में मेरा अस्तित्व नहीं है।" जब हम बौद्ध-धर्मी मार्ग का अनुसरण करते हैं, तो हमें कई प्रकार से "नियंत्रण के अधीन" होने के इस विचार को त्यागना आवश्यक है। इसका अर्थ यह भी है कि हम इस मामले के दूसरे पक्ष को भी त्याग दें, जो है किसी और को यह नियंत्रण देना, विशेषतः गुरु, शिक्षक, ताकि नियंत्रण उनके हाथ में हो। मुद्दा वही है। दोनों प्रकार के नियंत्रण पर विजय पानी होगी।

चूँकि हम मानव-सम्बन्धी मामलों पर चर्चा करेंगे, मेरे विचार में इस सप्ताहांत अत्यंत आवश्यक है कि हम मनुष्यों की भाँति एक दूसरे से बातचीत करें। इसलिए मैं आपसे इस प्रकार बात करूँगा जैसे एक मनुष्य दूसरे से करता है। मेरी आशा है कि मैं सदा इस प्रकार बातचीत करूँ जैसे एक मनुष्य दूसरे से करता है, बजाय इसके कि जैसे कोई आधिकारिक विद्वान मंच-पीठिका के पीछे खड़ा हो जिसके पास सभी उत्तर हों।

मेरे विचार में, बजाय इसके कि सबकुछ अपने नियंत्रण में रखकर पाठ्यक्रम की प्रगति एक तर्कसम्मत क्रम में हो, अच्छा होगा कि इस सप्ताहांत को एक चित्र रंगने की भाँति उभरने दिया जाए। एक अत्यंत व्यवस्थित प्रस्तुति देने की चेष्टा करने की तुलना में हम थोड़ी-सी कूची इधर फेरेंगे और थोड़ी-सी उधर। इस सप्ताहांत हम जिन विषयों पर चर्चा करेंगे उनमें से अनेक विषय परस्पर व्याप्त तथा अन्तःसम्बद्ध होंगे, अतः इस ढंग से आगे बढ़ना सबसे उचित होगा।

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