शरणागति: जीवन की सुरक्षित और सार्थक दिशा

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शरणागति लेना समस्त बौद्ध शिक्षाओं और साधनाओं का आधार है। इसे “बौद्ध मार्ग का प्रवेश द्वार” कहते हैं। जब हमें यह बोध हो जाता है कि शरणागति लेने का अर्थ अपने आप में सुधार करना है, तो हम जान पाते हैं कि यह जीवन को सुरक्षित और सार्थक दिशा देने की एक जागृत प्रक्रिया है। हम स्वयं को भ्रम, अशांतकारी मनोभावों और बाध्यकारी व्यवहार से मुक्त करने के लिए और समस्त सद्गुणों को विकसित करने के लिए बुद्ध द्वारा सिखाई गई विधियों का पालन करके अपने आप में सुधार करने के लिए प्रयत्न करते हैं। सभी बुद्धों ने यही किया है और पहुँचे हुए सिद्ध आचार्यगण भी यही कर रहे हैं, और उनके पदचिह्नों पर चलते हुए हम भी वैसा ही करने का प्रयत्न करते हैं।

अपने जीवन में बौद्ध साधना के प्रयोजन के बारे में भ्रम को दूर करना

मुझे दैनिक जीवन में शरणागति की प्रासंगिकता के बारे में व्याख्यान देने के लिए कहा गया है। इससे मुझे भारत के महान आचार्य अतिश का स्मरण हो आया है जो दसवीं शताब्दी के अंत में तिब्बत गए थे। वे उन महान आचार्यों में से एक थे जिन्होंने तिब्बत में भारत के माध्यम से बौद्ध धर्म का परिचय कराए जाने के बाद उसका पतन होने पर तिब्बत में बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित करने में सहायता की थी। उस समय तिब्बत में ऐसी स्थिति थी कि बड़ा भ्रम व्याप्त था, खास तौर पर तंत्र और कुछ और उन्नत शिक्षाओं के बारे में भ्रांतियाँ व्याप्त थीं। वहाँ वास्तविक रूप में योग्य शिक्षक उपलब्ध नहीं थे। सच्चाई तो यह है कि वहाँ ऐसे कोई शिक्षक उपलब्ध ही नहीं थे जो विषयों की स्पष्ट व्याख्या दे पाते। हालाँकि वहाँ कई ग्रंथों के अनुवाद तो हुए, लेकिन ज़ाहिर है कि पढ़ना जानने वाले लोगों की संख्या बहुत कम थी, और उन ग्रंथों की प्रतियाँ भी पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं थीं। यदि कुछ लोग पढ़ भी सकते थे, तो उनके लिए पढ़ी गई बातों के बारे में कोई स्पष्टीकरण प्राप्त कर पाना बहुत कठिन था।

इस स्थिति को सुधारने की दृष्टि से पश्चिमी तिब्बत के एक राजा ने कुछ बहुत ही साहसी छात्रों को इस उद्देश्य के साथ भारत भेजा कि वे इन महान बौद्धाचार्य को अपने साथ तिब्बत लौट कर आने के लिए निमंत्रित करें। उन्हें पैदल यात्रा करनी थी, भाषाओं को सीखना था, और देशप्रकृति की कठिनाइयों का भी सामना करना था। उनमें से कई की तो यात्रा के दौरान रास्ते में ही या फिर भारत पहुँचने के बाद मृत्यु हो गई। लेकिन किसी प्रकार उन्होंने भारत के महान आचार्य अतिश को वापस तिब्बत चलने का निमंत्रण दे दिया। वे कई वर्षों तक वहाँ रहे और इस दौरान उन्होंने मुख्यतः शरणागति और कर्म के बारे में शिक्षाएं दीं। दरअसल वे “शरणागति और कर्म लामा” के रूप में विख्यात हुए। तिब्बतवासियों ने उन्हें यह नाम दिया था।

वर्तमान समय में अतिश का उदाहरण बहुत प्रासंगिक है। इस समय भी बौद्ध धर्म के बारे में और दैनिक जीवन के स्तर पर उसकी साधना के महत्व के बारे में बहुत भ्रांति है। तंत्र और दूसरी उन्नत शिक्षाओं को लेकर भी बड़े भ्रम की स्थिति है। बुनियादी बौद्ध शिक्षाओं के बारे में नाममात्र की समझ या बिना किसी समझ के ही लोग सीधे इन साधनाओं को करना शुरू कर देते हैं। उनकी कल्पना के अनुसार कुछ जादुई अनुष्ठान करना ही बौद्ध साधना है। शरणागति की प्रासंगिकता और हमारे दैनिक जीवन में उसके महत्व को कम आँक कर ये लोग असल मुद्दे को ही चूक रहे होते हैं।

जीवन में हमारी स्थिति जैसी भी हो, बौद्ध साधना का उद्देश्य आत्म सुधार करना है, अपने आप को एक बेहतर व्यक्ति बनाने की दृष्टि से प्रयास करना है। यह कोई शौक या खेल-कूद जैसा गौण कार्य नहीं है जिसे हम हर दिन आधा घंटा, या बहुत थकान हो जाने पर काम खत्म करने के बाद सप्ताह में एक बार करते हों। बल्कि यह तो एक ऐसा व्यावहारिक कार्य है जिसे हम हर समय करते रहने का प्रयास करते हैं – सदैव आत्म सुधार करते रहते हैं। इसका यह मतलब है कि हम अपने दोषों और गुणों को पहचाने, और फिर अपने दोषों के प्रभाव को कम करने वाली और गुणों को सुदृढ़ करने वाली विधियों को सीखें। उद्देश्य यह होता है कि अन्ततः हम अपने आपको अपने समस्त दोषों से मुक्त कर लें और सभी गद्गुणों को पूरी तरह सिद्ध कर लें। ऐसा केवल अपने लाभ के लिए ही नहीं किया जाता है, हालाँकि इससे हमें अधिक सुखी जीवन का लाभ निश्चित तौर पर प्राप्त होगा। इसका यह उद्देश्य भी होता है कि हम दूसरों की सहायता करने में अधिक प्रभावी हो सकें, और इस प्रकार यह दूसरों के लिए भी लाभदायक होगा। यही बौद्ध साधना का उद्देश्य है। इस साधना को बौद्ध स्वरूप उन विधियों के कारण मिलता है जिनका उपयोग इन लक्ष्यों की प्राप्ति के योग्य बनने के लिए किया जाता है, और शरणागति का अर्थ है कि हम उन विधियों की ओर रुख करते हैं और उन्हें अपने जीवन में अपनाते हैं।

वीडियो: रिंगु तुल्कु – धर्म साधना क्या है?
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