स्मृति: सम्मिलित चित्त संस्कार

स्मृति की साधना पारंपरिक बौद्ध स्रोतों से व्युत्पन्न है। उन्हीं स्रोतों से हम स्मृति की साधना-पूर्ति में आवश्यक विभिन्न सहवर्ती मानसिक कारकों को समझते हैं। चित्त संस्कार या तो आलम्बनों का बोध कराने के तरीके हैं, या फिर उनके बोध में सहायता करने की क्षमता रखते हैं। उनमें अभिरुचि जैसे बोध उत्पन्न करने वाले कारक, एकाग्रता जैसे बोध को बनाए रखने वाले कारक, और प्रेम या क्रोध जैसे बोध पर रंग चढ़ाने वाले मनोभाव, सम्मिलित हैं। इससे अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए अपनी सचेतन साधना में प्रसंगोचित कारकों को सम्मिलित करना तथा उनके बारे में सीखना होगा।

आधुनिक पश्चिमी समाज में "स्मृति" का अभ्यास तनाव को कम करने, पीड़ा प्रबंधन, और व्यवसाय या सामान्य जीवन से प्रभावपूर्ण ढंग से निपटने की विधि के रूप में अपनाया जाता है। स्मृति साधना, जो विभिन्न बौद्ध-धर्मी ध्यान-साधना के अभ्यासों से व्युत्पन्न हैं, हमारे चित्त को शांत करने और श्वास, विचार, चित्त वृत्ति, सुख या दु:ख की भावनाओं, शारीरिक अनुभूतियों इत्यादि को नियंत्रित करने में सहायता करती है। इसके प्रशिक्षण को प्रायः सामान्य रूप में प्रस्तुत किया जाता है जैसे हमारे चित्त के परिवर्तनशील आलम्बनों के सतत-परिवर्तनशील क्षणों पर ध्यान केंद्रित करना।

भारतीय बौद्ध-धर्मी स्रोत 

स्मृति की थेरवाद प्रस्तुति (पालि: सती ) उपतिस्सा के विमुक्तिमार्ग  (पालि: विमुत्तिमग्गा) और बुद्धघोष के विशुद्धिमार्ग  (पालि: विशुद्धिमग्गा ) पर आधारित है। इन ग्रंथों में स्मृति को कई मिश्रित ध्यान-साधनाओं के एक अभिन्न आयाम के रूप में वर्णित किया गया है। ध्यान-साधना के अंतर्गत स्मरण अथवा अनुस्मरण स्मृति की विलक्षणता है, जैसे श्वसन या मृत्यु का सदा स्मरण रहना। इसका काम है कभी विस्मरण न करना, और यह चित्त को बचाने के रूप में प्रकट होता है, कि कहीं वह अपने आलम्बन खो न दे। एक तरह से देखा जाए तो स्मृति एक प्रकार का "मानसिक गोंद" है जो अपने संकेंद्रित आलम्बन को पकड़कर रखता है और उसे जाने नहीं देता। और एक बार जब वह किसी आलम्बन पर स्थिर हो जाती है, तो स्मृति को उस आलम्बन की अनित्यता जैसे किसी लक्षण की प्रज्ञा (सविवेकी स्मृति) के सहगत होना चाहिए।

वसुबंधु, हीनयान वैभाषिक सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने ग्रन्थ अभिधर्मकोश में स्मृति  को उन दस चित्त संस्कारों में से एक के रूप में सूचीबद्ध करते हैं जो बोध के प्रत्येक क्षण के सहगामी हैं। वह उनके सहगामी हैं चाहे वे बोध अन्य चित्त संस्कारों के सहगामी हों, जैसे कुशल, अकुशल, या अव्यकृत (नैतिक रूप से तटस्थ)। इस प्रकार चित्त संस्कार केवल ध्यान-साधना के दौरान ही नहीं अपितु सदैव उपस्थित रहता है।

वसुबंधु ने अपने अभिधर्मकोश-भाष्य  में स्मृति को अपने आलम्बन को न त्यागने या न भूलने के चित्त संस्कार के रूप में परिभाषित किया है, और इस प्रकार यह अपने आलम्बन की कामना करने या उसका संज्ञान लेने का कारण बनता है। अपने आलम्बन की कामना करने या उसका संज्ञान लेने के कारण स्मृति उसे बाद में स्मरण करने का हेतु बन जाती है।

अपने महायान चित्तमात्र ग्रन्थ, पंचस्कंध-प्रकरण, में वसुबंधु ने स्मृति को विशेष रूप से किसी आलम्बन का अनुस्मरण करने के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में वे कहते हैं कि स्मृति किसी सुपरिचित आलम्बन को न त्यागने तथा दोबारा संज्ञान लेने की चित्त की अवस्था है। इस ग्रन्थ के अपने भाष्य में स्थिरमति कहते हैं कि "सुपरिचित आलम्बन" वह पदार्थ है जिसका हमने पहले अनुभव किया है। इस प्रकार, किसी आलम्बन का अनुस्मरण उस आलम्बन की ध्यान-साधना, या किसी पदार्थ का निरा स्मरण करने की दैनिक घटनाओं में हो सकता है।

असंग ने अपने चित्तमात्र ग्रन्थ, अभिधर्मसमुच्चय, में स्मृति को पाँच विषयनियत चित्त संस्कारों में एक के रूप में प्रस्तुत किया है। इन पाँचों में से एक के रूप में, स्मृति वह चित्त संस्कार है जो केवल कुशल बोध में होता है, और वह भी जो अपने आलम्बन को समझ सके; दूसरे शब्दों में ऐसा बोध जो अपने आलम्बनों को सटीक और निर्णायक रूप से समझ सके। इसका आलम्बन ऐसा होना चाहिए जो कुशल हो और जिससे हम सुपरिचित हों; उसकी दृष्टि ऐसी होनी चाहिए कि वह इस आलम्बन पर केंद्रित हो और उसका विस्मरण न करे और न ही उसे गँवा दे; इसका कार्य है मानसिक भटकाव को रोकना।

त्सोंगखपा की प्रस्तुति

पथ के क्रमिक चरणों की भव्य प्रस्तुति  में, समाधि  और शमथ  को विकसित करने वाले खंड में, असंग की स्मृति की परिभाषा का तिब्बती गुरु त्सोंगखपा सविस्तार वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि शमथ ध्यान-साधना के सन्दर्भ में स्मृति की तीन विशेषताएँ हैं:

  • यह एक ऐसे आलम्बन पर केंद्रित है जिससे हम पहले से ही सुपरिचित हैं, न कि किसी अपरिचित आलम्बन पर। इस प्रकार इसका आलम्बन वह है जिसके बारे में हम सुनिश्चित हैं और वह या तो रचनात्मक हो सकता है, जैसे बुद्ध की काल्पनिक छवि, या शरीर जैसा कोई अनिर्दिष्ट (नैतिक रूप से तटस्थ) आलम्बन।
  • आलम्बन पर उसकी मानसिक पकड़ ऐसी होती है कि हम उसे नहीं भूलते। "नहीं भूलने" का अर्थ केवल यह नहीं है कि जब कोई हमसे पूछे तो हमें याद आ जाए कि साधना के निर्देश क्या हैं या हमारी एकाग्रता ऐसी है या वैसी है। इसका अर्थ यह है कि जैसे ही हम अपने चित्त को केंद्रित आलम्बन से जोड़ देते हैं, उसे तुरंत ही, मानसिक भटकाव के लेशमात्र विपथन के बिना, मानसिक रूप से पकड़ लेते हैं। यदि हमारा ध्यान ज़रा भी भटक जाए, तो हम अपनी स्मृति खो देते हैं। तो, अपना ध्यान किसी संकेंद्रित आलम्बन पर लगाने और इस विचार को पैदा करने के बाद, कि मैंने अपने चित्त को इस आलम्बन से इस तरह से बाँध लिया है, फिर, किसी नई बात का तर्कमूलक (मौखिक) रूप से चिंतन न करने वाली उस मन:स्थिति से युक्त होकर, और इस विचार के एक अटूट बल के सातत्य का विकास करके ही हम स्मृति के मार्ग पर अपनेआप को सौंप सकते हैं। तो, स्मृति के मार्ग पर अपनेआप को सुपुर्द करना वैसा ही है जैसे हम स्वयं को किसी चिकित्सक या आध्यात्मिक गुरु के सुपुर्द कर देते हैं। हम अपनेआप को डॉक्टर या आध्यात्मिक गुरु को तभी सौंपते हैं जब हमें यह विश्वास हो जाता है कि वह व्यक्ति पूरी तरह से योग्यता-प्राप्त है। इसी तरह, हम अपनेआप को स्मृति के मार्ग पर केवल तब सौंपते हैं, जब हमारी मन:स्थिति वास्तव में स्मृति के मार्ग पर चलने के लायक हो गई हो।
  • इसका काम होता है हमारे मन को आस-पास के किसी अन्य पदार्थ से विचलित न होने देना। अधिक विस्तार से कहा जाए तो स्मृति हमारे ध्यान से संकेंद्रित आलम्बन को विस्मृत होने से या उसके खो जाने से बचाती है; यह इस आलम्बन पर हमारा ध्यान मज़बूती से जमाए रखती है; और यह इस आलम्बन की परिचितता के सातत्य को बनाए रखती है।

स्मृति ध्यान-साधना

शमथ की निश्चल एवं व्यवस्थित मनोदशा को प्राप्त करने का अभ्यास करते समय ध्यान- साधना का संकेंद्रित आलम्बन अपरिवर्तनशील रहता है, उदाहरण के लिए बुद्ध की काल्पनिक छवि पर ध्यान केंद्रित करते समय। जैसे आधुनिक पश्चिमी समाज में सिखाया जाता है, स्मृति साधना में आलम्बन हमारे मानसिक या शारीरिक संज्ञान के सतत परिवर्तनशील आलम्बन का सतत परिवर्तनशील वर्तमान क्षण होता है। अपने आलम्बन के सन्दर्भ में यह स्मृति की थेरवाद प्रस्तुति के अनुरूप है, और वसुबंधु की वैभाषिक प्रस्तुति के अनुसार भी, कि संज्ञान के सभी क्षणों में स्मृति रहती है। यद्यपि आलम्बन वह नहीं है जिसे वसुबन्धु तथा असंग ने अपने चित्तमात्र ग्रंथों में उल्लिखित किया है, जिससे हम पहले ही परिचित हो चुके हैं, जैसे किसी बुद्ध का कायिक प्राकट्य। इसके बजाय हम इस बात पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करते हैं कि हम प्रत्येक क्षण में क्या अनुभव कर रहे हैं - शारीरिक अनुभूति, विचार, मनोभाव, या भावना। परन्तु, जैसा कि असंग ने विशेषित किया है, हम सटीकता और निर्णायकता के साथ उनपर ध्यान केंद्रित करते हैं।

वास्तव में वर्तमान क्षण की स्मृति जिसे हम विकसित करने का प्रयास करते हैं अनेक चित्त संस्कारों का सम्मिश्रण है। हम जिन चित्त संस्कारों का मुख्य रूप से उपयोग करते हैं वे हैं स्वयं स्मृति, सतर्कता, और अप्रमाद। स्मृति की अधिक प्रभावी ढंग से साधना करने के लिए इनमें से प्रत्येक कारक को पहचानना सहायक होगा ताकि यदि किसी में कोई कमी हो तो हम उसे समायोजित कर सकें।

स्मृति

स्वयं स्मृति एवं तथाकथित "मानसिक गोंद" को दो अन्य चित्त संस्कारों के साथ होना चाहिए: संज्ञा (पहचान) और मनसीकार (मन में लाना)।

"संज्ञा" हमारे अनुभव के प्रत्येक क्षण के विभिन्न घटकों की अभिलाक्षणिक विशेषताओं पर ध्यान केंद्रित करती है। यह इन्हें अन्य विषयों से चुन-चुनकर अलग करती है। उदाहरण के लिए, संज्ञा पीड़ा की शारीरिक संवेदना को अन्य सभी शारीरिक संवेदनाओं से अलग करती है जो हम सामानांतर अनुभव कर रहे हैं, जैसे इस कमरे का तापमान जिसमें हम अभी बैठे हैं। सही विचार से ही हम आलम्बन को सटीक रूप से पहचान सकते हैं - पीड़ा केवल एक शारीरिक संवेदना है, न कुछ ज़्यादा, न कुछ कम।

संज्ञा एवं मनसीकार युक्त स्मृति से हम सतत परिवर्तनशील वर्तमान क्षण की अंतर्वस्तु पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करते हैं। हम अविचलित भाव से वर्तमान क्षण की अंतर्वस्तु रुपी केंद्रित आलम्बन को खोए बिना ऐसा करने का प्रयास करते हैं। चित्त की चंचलता प्रायः इसलिए होती है क्योंकि हम इस बारे में सोच रहे होते हैं कि हमने पूर्ववर्ती क्षणों में क्या अनुभव किया है या आगामी क्षणों में क्या अनुभव कर सकते हैं। तब यह तथ्य दृष्टि से ओझल हो जाता है कि अतीत या भविष्य के ये विचार केवल वही हैं जो वर्तमान की घटनाओं से सम्बंधित हैं। हम उन्हें अपने अनुभव के वर्तमान क्षण की अंतर्वस्तु के रूप में अलग करना बंद कर देते हैं, और उसके स्थान पर उनके "कथा-क्रम" में लीन हो जाते हैं। परिणामतः इन विचारों की संज्ञा के कारण हम अपना केंद्रित आलम्बन खो बैठते हैं। परन्तु, यदि हम अपनी अविचल मनोदशा को बनाए रखने में सफल हो जाते हैं तो हम स्थिर स्मृति को प्राप्त कर लेते हैं जो अपने केंद्रित आलम्बन को कभी नहीं भूलती। इस तरह, स्मृति हमारे अनुभव के सतत परिवर्तनशील वर्तमान क्षण पर ध्यान की पकड़ को बनाए रखने में एक मानसिक गोंद की तरह काम करती है।

असंग की रचना, मध्यांतविभाग, की अपनी टिप्पणी में स्थिरमति प्रतिपादित करते हैं कि स्मृति को बनाए रखने के साधन के रूप में हमें समय-समय पर अपनेआप को अपने केंद्रित आलम्बन की याद दिलाते रहना होगा। इसका अर्थ है बीजशब्द को अपने मन में कहना ताकि हम अपनी स्मृति की पकड़ को मज़बूत बनाए रख सकें। यह वसुबंधु के इस दावे के अनुरूप है कि स्मृति में अपने आलम्बन पर ध्यान बनाए रखना निहित है। इस बिंदु पर त्सोंगखपा विस्तार से यों बताते हैं: "यदि आप इसका खंडन करते हुए यह कहते हैं कि यह तर्कमूलक सोच है और इसलिए मौखिक रूप से अपनेआप को याद दिलाने की आवश्यक्ता नहीं है, तो सबल स्मृति और सतर्कता को विकसित करना बहुत ही कठिन काम होगा।"

सम्प्रजन्य 

सम्प्रजन्य, या सतर्कता, वह चित्त संस्कार है जो संकेंद्रित आलम्बन पर स्मृति की पकड़ की अवस्था का अनुश्रवण एवं नियंत्रण करती है। यह हमारे केंद्रित आलम्बन - हमारे वर्तमान क्षण की अनुभूति की विषयवस्तु - पर स्मृति को बनाए रखने के सन्दर्भ में कार्य करती है। एक प्रकार से देखा जाए तो, सम्प्रजन्य सबल स्मृति का एक अंश है। जैसा कि त्सोंगखपा ध्यान दिलाते हैं, हमारी स्मृति जितनी अधिक सबल होती जाती है, हम बिना मानसिक भटकाव के सचेतन रहने के उतने ही अधिक अभ्यस्त हो जाते हैं। परिणामतः जब हमारा चित्त भटक जाता है तो हम उस भटकाव को पहचानने में और अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। इस प्रकार हमारी स्मृति जितनी अधिक सबल होगी, हमारा सम्प्रजन्य उतना ही अधिक सबल होगा।

हमें सम्प्रजन्य को द्वैतवादी रूप में नहीं देखना है जैसे कि कोई स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान चौकीदार चित्त किसी प्रशिक्षणार्थी चित्त पर सम्पूर्ण रूप से पृथक इयत्ता होकर ध्यान दे रहा हो। अपितु, त्सोंगखपा इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि हमें स्मृति एवं सतर्कता के अंतर को ध्यानपूर्वक समझना चाहिए। वे चेतते हैं, "यदि आप इन सभी चित्त की अवस्थाओं को एक साथ मिलाकर स्वयं भ्रमित हो जाते हैं, जैसा कि आजकल तिब्बत में कई साधक कर रहे हैं, तो सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा और मुझे संदेह है कि वे लोग वास्तव में समाधि की अवस्था को प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।"

सतर्कता न केवल हमारी स्मृति में भटकाव पर ध्यान देती है, अपितु, एक अर्थ में यह हमारी आतंरिक "चेतावनी प्रणाली" को भी सक्रिय करती है, ताकि एकाग्रता बहाल करके हम अपने केंद्र बिंदु को दुरुस्त कर सकें तथा स्मृति को पुनःस्थापित कर सकें। परन्तु, अपने-अपने काम करने में सक्षम होने के लिए सतर्कता एवं सावधानी को बहाल करने के लिए हमें स्मृति साधना के तीसरे प्रमुख घटक, अर्थात अप्रमाद, को उपयोग में लाने की आवश्यकता है।

अप्रमाद

अप्रमाद (सावधानी, सद् असद् विवेकशीलता) वह चित्त संस्कार है जो हमारे चित्त की अवस्था के बारे में ध्यान रखता है और उसके प्रति सावधान रहता है। यह हमारे चित्त को विनाशकारी पक्ष की ओर झुकने से बचाता है और उसे रचनात्मक, सकारात्मक पक्ष की ओर लगाए रखता है। इस प्रकार अप्रमाद-युक्त होकर हम अपने चित्त की अवस्था को गंभीरता से लेते हैं; हम उसकी "परवाह" करते हैं। इस संबंध में, अप्रमाद एक प्रकार से संकेंद्रित आलम्बन के प्रति अभिध्या (संजोकर रखने) के चित्त संस्कार से मिलता-जुलता है, और जिसे वसुबन्धु ने स्मृति के अंश के रूप में व्याख्यायित किया है।

वसुबंधु इस बात पर बल देते हैं कि यदि किसी भी क्षण विशेष में अपने संकेंद्रित आलम्बन के प्रति हमारे भीतर लगाव नहीं होता, अर्थात यदि हम उसे अपने सीने से लगाकर नहीं रखते, एक तरह से एक अविस्मरणीय आलम्बन के रूप में, तो हम उसका अनुस्मरण करने में असमर्थ हो जाएँगे। परन्तु, अप्रमाद में अभिध्या (संजोकर रखने) से कुछ अधिक निहित होता है। यह केवल इतना नहीं है कि हम अपने संकेंद्रित आलम्बन के प्रति उतना ही ध्यान रखें ताकि हम उसे स्मरण कर सकें। अपितु, हमारे अप्रमाद के कारण हम अपना ध्यान बहाल करने के लिए प्रेरित हो जाते हैं ताकि हम अपनी स्मृति की मानसिक पकड़ को सही कर सकें जब सतर्कता से हम यह जान लेते हैं कि वह दोषयुक्त हो गई है। अप्रमाद के बिना हम इस बात की परवाह ही नहीं करते कि हमने अपने संकेंद्रित आलम्बन को, वर्तमान क्षण को, भुला दिया है, भले ही हम इस बात के प्रति सचेत हो गए हों कि हमारा चित्त भटक गया है। तो, अप्रमाद नैतिक आत्म-अनुशासन का आधार है, जिसके द्वारा हम अकुशल व्यवहार से परहेज़ करते हैं।

अप्रमाद के लिए तिब्बती शब्दावली है बाग-योद, जिसका शाब्दिक अर्थ है "सावधान रहना।" इसके विपरीत है बाग-मेद, सावधानी नहीं बरतना, असावधान हो जाना। परन्तु, मूल संस्कृत शब्द, जिसका तिब्बती में बाग-योद  के रूप में अनुवाद किया गया है, वह है अप्रमाद, जिसका अर्थ है "प्रमाद  न होना।" प्रमाद  का अर्थ है इस प्रकार मदमत्त या मानसिक रूप से अस्थिर हो जाना कि हम इस बात की परवाह ही न करें कि हम क्या कह या कर रहे हैं, और न ही इन दोनों में से किसी की भी सुध लें। तो फिर, अप्रमाद से हम मदमत्त व्यक्ति की भाँति नहीं रहते। हम शांत, संयमी और ज़िम्मेदार होते हैं, और इस तरह अपने चित्त की अवस्था का ध्यान रखते हैं।

सारांश

स्मृति साधना चित्त संस्कारों के एक जटिल समूह को उपयोग में लाती है जो हमारी अनुभूति के वर्तमान क्षण की सतत परिवर्तनशील विषय-वस्तु पर संकेंद्रित होता है। स्मृति, सतर्कता, एवं अप्रमाद के इन तीन संस्कारों के अतिरिक्त स्मृति साधना में विभेद करना (संज्ञा), सटीक मनसीकार, नैतिक आत्मानुशासन, तथा, आवश्यकता पड़ने पर ध्यान बहाल करना भी निहित होता है। इस प्रकार, हमें इनमें से प्रत्येक कारक का निश्चित रूप से विभेद करने के लिए प्रज्ञा (सविवेकी सचेतनता) की आवश्यकता होती है। तो, स्मृति साधना के सन्दर्भ में प्रज्ञा अपने केंद्रित आलम्बन के केवल कुछ गिने-चुने आयामों, जैसे हमारे अनुभव के प्रत्येक क्षण की अनित्यता, पर ही ध्यान केंद्रित करने तक सीमित नहीं है। जब हम ध्यान-साधना कर रहे होते हैं तो यह हमारे चित्त की अवस्था के विभिन्न आयामों पर भी ध्यान केंद्रित करती है।

त्सोंगखपा शमथ को विकसित करने की अपनी चर्चा में महान भारतीय बौद्ध आचार्यों के आधिकारिक ग्रंथों पर निर्भर होने की आवश्यकता पर बल देते हैं। उनका परामर्श है कि:

अपनी आशा को केवल अंध उत्साह आधारित कठोर परिश्रम पर ही न टिकाए रखें। जैसा कि आर्यशूर ने अपने ग्रन्थ पारमितासमास  में लिखा है, " निरे उत्साह से आपको केवल थकावट ही हाथ लगेगी। परन्तु यदि आप प्रज्ञा की सहायता से अपनेआप को विकसित करते हैं, तो आप महान उद्देश्यों को निष्पादित कर पाएँगे।"
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