अप्रमाद विकसित करने की आवश्यकता और चित्त को शांत करना

हमारे लिए संतुलित संवेदनशीलता को विकसित करना क्यों आवश्यक है?

हम देख चुके हैं कि “संतुलित संवेदनशीलता का विकास” एक ऐसा अभ्यास कार्यक्रम है जिसका सम्बंध इस बात से है कि हम अपनी दत्तचित्तता के संतुलन को किस प्रकार विकसित करें: हम किस प्रकार स्थितियों पर और हमारे व्यवहार से दूसरों पर और स्वयं हमारे अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभाव पर किस तरह ध्यान देते हैं, और किस प्रकार प्रतिक्रिया करते हैं। इन सभी मामलों में हम या तो अतिशय कर देते हैं या फिर बहुत कम ध्यान देते हैं। आत्मसुधार करने के लिए किसी प्रकार के अभ्यास कार्यक्रम में यह मालूम करना महत्वपूर्ण होता है कि हमारी समस्याएं दरअसल क्या हैं। हम किस चीज़ का सुधार करना चाहते हैं और हमें क्या करने की आवश्यकता है?

हमें इन बातों के बीच अन्तर करना आना चाहिए कि हम क्या करना चाहते हैं, हमें क्या करने की आवश्यकता है और हमारी क्या करने की इच्छा है। हम में से अधिकांश कुछ नहीं करना चाहते हैं। यह एक प्रकार से भौतिक विज्ञान के सिद्धांत के जैसा है, हमारी ऊर्जा का स्तर सबसे निचले स्तर पर पहुँच जाता है। लेकिन यदि हम अपने जीवन को देखें, यदि हम दूसरों के साथ अपने सम्बंधों को देखें, तो हमें पता चलेगा कि इनकी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है। हम बहुत सुखी लोग नहीं हैं और हमें इस स्थिति को सुधारने के लिए कुछ करने की आवश्यकता है।

शुरुआत में हम इसलिए कुछ करना चाहते हैं क्योंकि हमें दिखाई देता है कि, “मैं दुखी हूँ,” और जब हम एक कदम और आगे बढ़ते हैं तो “सचमुच, मुझे ऐसा करना चाहिए, नहीं तो स्थिति और भी खराब हो जाएगी।“ क्योंकि हम अतिसंवेदनशील होते हैं और सब चीज़ों के बारे में अत्यधिक प्रतिक्रिया करते हैं, इसलिए लोग हमारे साथ रहना पसंद नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह सब बहुत ज्यादा है। यदि हम दूसरों के प्रति पूरी तरह से असंवेदनशील हों और किसी आत्ममुग्ध व्यक्ति की तरह अपनी ही छोटी सी दुनिया में मगन रहें, तब इसका क्या प्रभाव होगा? हम अपने आप को बहुत अलग-थलग महसूस करते हैं, और उस स्थिति में भी कोई भी व्यक्ति हमारे साथ रहना पसंद नहीं करता है क्योंकि हम पूरी तरह से उदासीन होते हैं।

अशांतकारी मनोभावों पर नियंत्रण पाना

जब तक कि हम सचमुच अपने आप को बदलना न चाहें और यह न समझ लें कि हमें अपने जीवन की स्थिति को सुधारने के लिए अपने आप को बदलने की आवश्यकता है, हम इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ नहीं करने वाले हैं। हमें कुछ न करने की भावना को नियंत्रित करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहना चाहिए क्योंकि यदि हम स्वयं को प्रेरित भी महसूस करें तब भी यही भावना हमें प्रयास करने से रोकेगी, “बस मेरी इच्छा नहीं है।“ हम इस बात को शारीरिक व्यायाम करने के लिए जाने के उदाहरण की सहायता से समझ सकते हैं। हम सभी जानते हैं कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमें व्यायाम करना चाहिए, लेकिन अधिकांशतः हमारी ऐसा करने की इच्छा नहीं होती है, बावजूद इसके कि हम व्यायाम करना चाहते हैं और समझते हैं कि हमें व्यायाम करना हमारे लिए आवश्यक है।

इस स्थिति से निपटने का तरीका यह है कि हम विश्लेषण करें कि किन कारणों से मैं व्यायाम नहीं करना चाहता हूँ? मेरे ऐसा न चाहने के पीछे कौन से कारण हैं, कौन से मनोभाव हैं? मैं किस भावना के प्रभाव में रहना चाहता हूँ? क्या मैं आलस्य के प्रभाव में रहना चाहता हूँ, जिसके कारण मुझे व्यायाम करने की इच्छा नहीं होती है? या क्या मैं किसी ऐसी चित्तावस्था के प्रभाव में रहना चाहता हूँ जहाँ मैं अपने आप में सुधार करना चाहता हूँ? मेरे लिए इनमें से क्या ज्यादा महत्वपूर्ण है? आलस्य या अपना सुधार करने की इच्छा?

भारत के महान बौद्धाचार्य शांतिदेव हमेशा इसी बात पर बल देते थे, वे कहते हैं कि आलस्य जैसे ये अशांतकारी मनोभाव ही वास्तविक शत्रु हैं। हमें इनके खिलाफ लड़ने की आवश्यकता है, हमें इनका दास नहीं बनना चाहिए। यदि आपकी ऐसा करने की इच्छा न भी हो, तब भी उस कार्य को कर लीजिए। एक बार मन मार कर ऐसा कर लेने से, जब आप वास्तव में उसकी शुरुआत कर देते हैं तो आपको पता चलता है कि अपने आप को इसका अभ्यस्त करना सचमुच लाभकारी है। यदि हम इस अभ्यास को दूसरों के साथ अपने सम्बंधों को सुधारने के लिए कर रहे हैं, खात तौर पर तब जब हम दूसरों के साथ बहुत संवाद करते हों, तो हमारी प्रेरणा और उत्साह बहुत प्रबल होते हैं।

यदि आपका छोटा शिशु हो, तो आपको यह अच्छा नहीं लगता है कि आपको रात में उठकर बच्चे को खिलाने-पिलाने के लिए जाना पड़े। आपकी बिस्तर से उठने की इच्छा ही नहीं होती है, लेकिन फिर शिशु की आवश्यकता को देखते हुए आप ऐसा करते हैं। यह बात केवल शिशु की ही नहीं है। यदि आपने कुत्ता पाल रखा है, तो आपकी इच्छा नहीं होती है कि आप उसे दिन में दो बार टहलाने के लिए ले जाएं, लेकिन आपको ऐसा करने की आवश्यकता है और यदि आप उसे नहीं ले जाएंगे तो कुत्ता शिकायत करेगा, इसलिए आप उस कार्य को कर ही लीजिए। यही बात हमारे कामकाज पर भी लागू होती है, अधिकांशतः हमारी काम पर जाने की इच्छा नहीं होती है और काम करने की इच्छा तो होती ही नहीं है, लेकिन फिर भी आप उसे करते ही हैं।

इसके बाद आप उस कार्य को या तो शिकायत करते हुए, मुखर स्वर में या अपने मन में, कर सकते हैं, और उसे करते हुए स्वयं को बहुत दुखी अनुभव कर सकते हैं, या आप उस कार्य में अपना मन लगाने का प्रयास कर सकते हैं। यह समझें कि इस कार्य को करने से कुछ लाभ होगा, या तो स्वयं आपको या फिर दूसरों को लाभ होगा, और उसके बाद आप अपने आप को उस कार्य में तल्लीन कर सकते हैं। और कुछ समय के बाद वह कार्य आपको ठीक लगने लगता है और हो सकता है कि आपको उसमें आनन्द भी आने लगे। मेरे एक मित्र हैं जो बहुत ही मोटे हैं और उन्हें कसरत करना पसंद नहीं है, लेकिन उन्होंने एक कुत्ता पाल रखा है। और हालाँकि उन्हें कुत्ते को बाहर घुमाने ले जाना पसंद नहीं है, लेकिन यही कार्य उनका व्यायाम है। जब वे कुत्ते के साथ घूमने के लिए जाते हैं तो वे जानते हैं कि इससे स्वयं उन्हें भी लाभ पहुँच रहा है, क्योंकि इस बहाने कम से कम उनका कुछ व्यायाम तो हो ही जाता है।

संवेदनशीलता के अभ्यास के फायदे

हमने देखा कि संवेदनशीलता का अभ्यास दरअसल यह है कि हम यह अपनी जाँच करके देखें कि “मैं दूसरों पर किस प्रकार ध्यान देता हूँ? मैं अपनी प्रतिक्रिया किस प्रकार व्यक्त करता हूँ? मैं अपने आप पर ध्यान किस प्रकार देता हूँ और किस प्रकार प्रतिक्रिया करता हूँ?” हमें पता चलता है कि इसमें बहुत असंतुलन है और हम ऐसी प्रेरणा विकसित करते हैं कि, “मैं सचमुच बदलाव करना चाहता हूँ; मुझे बदलने की आवश्यकता है।“ और जब हम किसी समूह में अभ्यास करते हैं, भले ही समूह बहुत छोटा क्यों न हो, आम तौर पर लोग पाते हैं कि उनकी अभ्यास के लिए जाने की इच्छा अपने आप घर पर अभ्यास करने की तुलना में अधिक होती है क्योंकि वहाँ सामाजिक मेलमिलाप भी हो जाता है। लेकिन यह कोई सामाजिक क्लब जैसा आयोजन नहीं होना चाहिए जहाँ आप एकत्र हों और गप्पें हाँकते और चाय आदि पीते हुए समय बिताया जाए। बल्कि कुछ ऐसा हो जैसे आप दूसरों की भलाई के लिए कुछ सकारात्मक कर रहे हों। इससे पूरे समूह को और भाग लेने वाले व्यक्ति को भी बहुत ऊर्जा मिलती है।

संवेदनशीलता के अभ्यास के स्तर

हमने सामान्य संक्षिप्त विवरण में यह बात कही थी कि जब हम कोई भी अभ्यास करते हैं तो उसकी प्रगति उत्तरोत्तर होती है। ऐसा ही होता है जब हम कोई वाद्य यंत्र बजाना सीखते हैं; जब हम किसी प्रकार का शारीरिक अभ्यास करते हैं तब भी यही स्थिति होती है। यही बात यहाँ भी लागू होती है जब हम संवेदनशीलता के अभ्यास की साधना कर रहे होते हैं। इस संरचना को समझना आवश्यक होता है कि यह अभ्यास किस प्रकार क्रमिक चरणों में आगे बढ़ता है ताकि हम अपने अभ्यास के बारे में थोड़ा विश्वास हासिल कर सकें; हम देख सकें कि अभ्यास किस ओर बढ़ रहा है। हम जान पाते हैं कि यहाँ ध्यान देना और प्रतिक्रिया करना महत्वपूर्ण बिन्दु होते हैं; यही बुनियादी बिन्दु हैं।

हम जान पाते हैं कि इन मुद्दों से निपटने के लिए आधारभूत बात यह होती है कि हम अपने चित्त को शांत कर पाएं ताकि हम आलोचनात्मक दृष्टिकोण न रखें और उदार दृष्टिकोण रखें, और दूसरों का खयाल रख सकें और स्वयं अपना खयाल रख सकें। हम इसमें बुनियादी नैतिक सिद्धांतों का पालन करने वाले हैं और हम यह बोध हासिल करते हैं कि हम इस संतुलन को हासिल करने की क्षमता रखते हैं, कि हमारे पास यह योग्यता है। इसके बाद हम यह सीखते हैं कि हम इन क्षमताओं को किस प्रकार उद्घाटित कर सकते हैं, किस प्रकार हम यह बोध हासिल करके इन योग्यताओं को उपयोग में ला सकते हैं कि हमारा चित्त किस प्रकार काम करता है और हमारे मनोभाव किस प्रकार कार्य करते हैं। फिर हम बोध हासिल करते हैं कि वह क्या है जो हमें इन बुनियादी गुणों का उपयोग कर पाने से रोकता है, वह कारक यह है कि हम अनेकानेक प्रकार की कल्पनाएं करते हैं। हम वास्तविक स्थितियों पर ध्यान नहीं देते हैं क्योंकि हम केवल अपनी कल्पना पर ध्यान केंद्रित रखते हैं और उस कल्पना पर ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, वास्तविक स्थिति पर नहीं। हम सीखते हैं कि इन कल्पनाओं को किस प्रकार विखंडित किया जाए और यथार्थ को समझा जाए, और उसके बाद हम यह सीखते हैं कि हम अपने चित्त और मनोभावों के इन आधारभूत गुणों को किस प्रकार विकसित करें ताकि हम संतुलित संवेदनशीलता को विकसित कर सकें।

यही अभ्यास है, और आप देख पाते हैं कि यह क्रमिक है, यह तर्क पर आधारित है और हमें इस बात का कुछ बोध होता है कि हमारा अभ्यास कैसा चल रहा है और वह आगे कैसा चलने वाला है। जब हमें अपने अभ्यास की संरचना के बारे में यह बोध हासिल हो जाता है, कि हम किस प्रकार इस अभ्यास को कर सकते हैं और हमारा लक्ष्य क्या है, तब आप उस अभ्यास को करने में अपना मन लगा सकते हैं।

यहाँ जो बातें मैं बता रहा हूँ वे मूलतः इस बारे में दिशानिर्देश हैं कि सफल ध्यानसाधना कैसे की जाए। ध्यानसाधना का मकसद यह होता है कि हम अपने भीतर सकारात्मक बदलाव किस प्रकार लाएं, अपने व्यक्तित्व आदि में बदलाव किस प्रकार करें। यही ध्यानसाधना का मर्म है।

आत्मविकास करने की दो विधियाँ

आप क्या कर रहे हैं, इसे कैसे करना चाहिए, यह किस प्रकार प्रभावी हो सकेगा, आपका ध्येय क्या है – इन सब बातों के बारे में समझने के लिए ये बुनियादी दिशानिर्देश हैं, जो किसी भी प्रकार की अभ्यास साधना पर लागू होते हैं क्योंकि किसी भी प्रकार के आत्मविकास को हासिल करने की दो विधियाँ होती हैं।

एक विधि केवल आस्था पर आधारित होती है। “मैं नहीं जानता कि क्या होने वाला है और यह किस प्रकार से काम करेगा, लेकिन मुझे इस पर यकीन है और इसलिए मैं इसे करता हूँ।“ कुछ लोगों के मामले में यह तरीका काम करता है, लेकिन यह विधि बहुत स्थिर या टिकाऊ नहीं होती है क्योंकि यदि कोई शिक्षक आदि निंदाजनक आचरण करता है या यदि वह अजीब ढंग से व्यवहार करता है तो आपका सारा विश्वास तिरोहित हो जाता है।

लेकिन यदि आप आत्म-विकास को, चाहे आध्यात्मकि दृष्टि से या फिर सिर्फ सामान्य सांसारिक दृष्टि से, बोध और विश्वास के नज़रिए से देखते हैं, तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आपका मार्गदर्शन कर रहा व्यक्ति आपके द्वारा किए जा रहे अभ्यास का प्रतिमान है या नहीं क्योंकि आपको अभ्यास की विधि पर भरोसा होता है और आप भली प्रकार जानते हैं कि आप क्या कर रहे हैं। हाँ, यदि आपका मार्गदर्शक एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता हो तो यह अच्छा रहता है, लेकिन ऐसे लोगों को ढूँढ पाना बहुत कठिन होता है जो सचमुच प्रेरणा देने वाले हों और बहुत सिद्ध हों; ऐसे लोग विरले ही होते हैं। ऐसे लोग हैं, लेकिन वे बहुत ही कम मिलते हैं। जब आप किसी चिकित्सा, किसी मनःचिकित्सा के रूप में इसे देखते हैं और जब आप इसे किसी आध्यात्मिक शिक्षक की दृष्टि से देखते हैं, तो इन दोनों बातों के बीच अन्तर होता है। किसी चिकित्सक को उस चीज़ का जीवंत उदाहरण होना आवश्यक नहीं है जिसे हासिल करने में वह आपकी सहायता कर रहा हो, लेकिन किसी आध्यात्मिक शिक्षक का जीवंत उदाहरण होना आवश्यक होता है।

लेकिन समस्या तब होती है जब आध्यात्मिक शिक्षक जीवंत उदाहरण के रूप में स्वयं को प्रस्तुत नहीं करता है। यह स्थिति बहुत निराशाजनक होती है। चूँकि सही अर्थ में किसी अच्छे जीवंत उदाहरण को तलाश कर पाना इतना आसान नहीं है, इसलिए हमें विधि पर विश्वास हासिल करने पर अधिक बल देना चाहिए, क्योंकि संतुलित संवेदनशीलता के इस अभ्यास को किसी आध्यात्मिक मार्ग के रूप में किया जा सकता है, लेकिन इस अभ्यास को किसी चिकित्सा के रूप में भी किया जा सकता है।

आधुनिक प्रौद्योगिकी के अमानवीयकरण करने वाले प्रभाव

चूँकि हमारे पास समय का अभाव होता है, इसलिए आजकल हम इन अभ्यासों की केवल बानगी भर को ही महसूस कर पाते हैं। मैंने जिस अभ्यास को चुना है वह “अप्रमाद विकसित करने का अभ्यास” है या आप इसे जो भी नाम देना चाहें। मैं मानता हूँ कि वर्तमान समय में जैसी सामाजिक स्थिति है, जिस तरह सोशल मीडिया और सोशल नेटवर्क विकसित हो रहे हैं, उसे देखते हुए अप्रमाद विकसित करने की आवश्यकता और अधिक प्रबल होती जा रही है।

आजकल हमारा बहुत सारा सामाजिक मेलमिलाप व्यक्तियों के बीच परस्पर आदान-प्रदान के रूप में न होकर किसी न किसी प्रकार की प्रौद्योगिकी के माध्यम से होता है। यह बहुत ही अमानुषिक हो जाता है क्योंकि इसमें लोग किसी आभासिक यथार्थ वाले कम्पयूटर गेम के पात्रों जैसे बनते चले जाते हैं। अधिक से अधिक आप उन्हें देख सकते हैं – जैसे स्काइप पर, किसी स्काइप टेलीफोन कॉल पर – लेकिन यदि आप टैक्स्ट मैसेज भेजते हैं या सिर्फ फेसबुक आदि के माध्यम से सम्पर्क करते हैं तो आपको वे दिखाई भी नहीं देते हैं। आपको सिर्फ उनकी कुछ तस्वीरें तब देखने के लिए मिलती हैं जब वे कहीं छुट्टियाँ मना रहे हों।

हम फेसबुक पर लोगों की प्रोफाइल के आधार पर उनके बारे में राय बनाते हैं और उन्हें उस प्रोफाइल के दायरे में बंद कर देते हैं और हम स्वयं भी अपनी प्रोफाइल के दायरे में बंद होकर रह जाते हैं और आप उसके पीछे के असल व्यक्ति को नहीं देख पाते हैं। यही कारण है कि यह अप्रमाद का भाव बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि दूसरों का अमानवीयकरण करके देखने की यह प्रवृत्ति जो सोशल मीडिया के कारण विकसित होती है, वह हमें अपने वास्तविक जीवन में भी और अधिक असंवेदनशील बनाती चली जाती है – वास्तविक जीवन से हमारा मतलब आपके कम्पयूटर या सैलफोन के सामने बिताए गए जीवन से नहीं है।

किसी बस में या सबवे-रेल में लोगों के किसी समूह को गौर से देखना बड़ा दिलचस्प होता है। अपने कानों में इयरफोन लगाए कितने सारे लोग अपने-अपने सैलफोन से खेलते हुए अपनी ही दुनिया में तल्लीन होते हैं। या तो वे दूसरे लोगों को टैक्स्ट संदेश भेज रहे होते हैं या फिर कम्प्यूटर गेम्स खेल रहे होते हैं। लेकिन ऐसा कोई वास्तविक भाव नहीं होता है कि आपके नजदीक या उस सबवे-कार में दूसरे लोग भी बैठे हुए होते हैं।

इस सोशल मीडिया और सैलफोन्स के आने से पहले से हमारे सामने यह स्थिति यातायात की भीड़भाड़ के रूप में पहले से ही मौजूद थी। हम ट्रैफिक में फंसे होते हैं और हम यह विचार नहीं करते हैं कि हमारे आसपास की दूसरी सभी कारों में मौजूद दूसरे लोग भी जीते-जागते मनुष्य ही हैं जिनकी अपनी भावनाएं हैं और वे भी हमारी ही तरह तकलीफ और कष्ट उठा रहे हैं। इस प्रकार ट्रैफिक भी दूसरों का अमानवीयकरण कर देता है, है न?

अमानवीयकरण की इस प्रक्रिया का क्या परिणाम होता है? भावनात्मक दृष्टि से इसका परिणाम और प्रभाव यह होता है कि हम अपने आपको और अधिक अलग-थलग और अकेला महसूस करने लगते हैं। इस तकलीफ की भरपाई करने के लिए फिर हमारी यह इच्छा होती है, “यदि मैं एक ट्वीट लिखूँ, यदि मैं एक छोटा सा मैसेज लिखकर अपने फेसबुक पेज पर उसे दुनियाभर में प्रसारित कर दूँ तो मैं कुछ महत्वपूर्ण हो जाऊँगा।“ हम बहुत अकेले होते हैं, हम स्वयं को बहुत अलग-थलग महसूस करते हैं और हमें लगता है कि किसी प्रकार से अपनी भावना को प्रसारित कर देने से मैं दूसरे लोगों के साथ जुड़ जाऊँगा। लेकिन वास्तव में वैसा होता नहीं है, क्या होता है? हम जिस प्रतिक्रया की अपेक्षा कर रहे हैं वह बहुत ही असंतोषजनक है, जोकि हमारे फेसबुक पेज पर मिलने वाले “लाइक्स” की संख्या के रूप में है। यह बिल्कुल अमानवीय है। यह कोई मानवीय प्रतिक्रिया नहीं है, यह तो एक यांत्रिक प्रतिक्रिया है। इसका कोई अर्थ नहीं होता है जब आप यह सोचना शुरू कर देते हैं, “क्या मुझे इससे संतुष्टि मिलती है? 100 लाइक्स से मैं संतुष्ट नहीं हूँ; लेकिन यदि 101 लाइक्स मिल जाएं, तो क्या मैं संतुष्ट हो जाऊँगा? इससे तो बात बनने वाली नहीं है, है न?

अप्रमाद

अप्रमाद का भाव हमें अपने एकाकीपन से मुक्त होने, अपने अकेलेपन की भावना से मुक्त होने में और इस अनुभूति तक पहुँचने में बहुत सहायक होता है कि, “दूसरे सभी लोग भी तो व्यक्ति ही हैं, मनुष्य ही हैं और मेरी ही तरह उनकी भी भावनाएं हैं।“ इस प्रकार हम अकेले नहीं हैं और दूसरों के साथ मेलमिलाप करने के लिए खुल जाते हैं – यह मेलजोल केवल कोई व्यावसायिक मेलजोल नहीं होता है, बल्कि दूसरों के साथ एक भावनात्मक और सकारात्मक मेलमिलाप होता है।

यहाँ अप्रामद की मूल अवधारणा क्या है? पहली चीज़ तो यह है कि हमें अपने चित्त को शांत करना होता है; प्रायः इस प्रक्रिया में अप्रमाद का महत्व इसके बाद आता है। यदि हमारा ध्यान बंटा हुआ हो, यदि हम संगीत सुन रहे हों या यदि हमने इयरफोन न भी लगा रखे हों और संगीत हमारे मस्तिष्क में पहुँच रहा हो या मानसिक बकबक आदि हमारे मस्तिष्क में पहुँच रहा हो, तो अप्रमाद के इस भाव को विकसित करना बहुत कठिन होता है। यदि हम एकाग्रचित्त न हों तो बहुत सी बातें हमारे मस्तिष्क में चल रही होती हैं। यदि हम दूसरों के साथ अपने मेलमिलाप में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं, दूसरों के बारे में पुरानी बातें या किस्से निकाल कर लाते हैं या पूर्वधारणाएं रखते हैं तो इससे भी व्यवधान उत्पन्न होता है, यह भी अप्रमाद के भाव को विकसित करने में बाधक है। इसलिए हमें इस सब को शांत करने की आवश्यकता होती है, जोकि काफी डरावना हो सकता है।

हम अपने बचाव के लिए ढाल कैसे बनाते हैं

यदि आप विचार करें तो यह संगीत जिसे लोग सुन रहे होते हैं आदि एक प्रकार की ढाल या सुरक्षा का उपाय है ताकि उन्हें सोचना न पड़े। ताकि उन्हें इस स्थिति का सामना न करना पड़े या जीवन की समस्याओं से रूबरू न होना पड़े। आप उस सब को संगीत में डुबो देते हैं। आम तौर पर संगीत ऐसा होता है जो आपकी इच्छित मनोदशा को उत्पन्न कर सके। यह टैक्नो संगीत हो सकता है ताकि आपको बहुत सारी ऊर्जा मिल सके, या ऐसा ही कुछ। यहाँ भी हम किसी प्रकार की भावना को विकसित करने के लिए किसी बाह्य व्यवस्था पर निर्भर हैं। इस प्रकार हम अपना और भी अधिक अमानवीयकरण कर रहे हैं। हमारे इस अभ्यास में ऐसा नहीं है कि किसी प्रेमगीत का संगीत चाहते हों जिसमें कोई सुमधुर आवाज़ “प्रेम, प्रेम, प्रेम” गा रही हो। अप्रमाद विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि यह हमारे हृदय से प्रस्फुटित हो।

एक बार जब आप अपने चित्त को शांत कर लेते हैं, जिसके बारे में मैंने कहा कि यह डरावना होता है क्योंकि आपको वह ढाल उपलब्ध नहीं होती है, वह सुरक्षा उपलब्ध नहीं होती है, उस स्थिति में आप अप्रमाद को विकसित करने की शुरुआत कर सकते हैं। इसके लिए आधारभूत आवश्यकता यह है कि हम यह जानें कि वास्तविक यथार्थ क्या है। यथार्थ यह है, “आप एक मनुष्य हैं और आपकी भी भावनाएं हैं ठीक वैसी ही जैसे मैं एक मनुष्य हूँ और मेरी भी भावनाएं हैं। आपकी मनोदशा हमारे बीच के संवाद को प्रभावित करेगी, ठीक वैसे ही जैसे मेरी मनोदशा उसे प्रभावित करेगी।“

आपको इसके बारे में सोचने की आवश्यकता है, क्या यह वास्तविक यथार्थ है? और यही यथार्थ है, है न? आप एक मनुष्य हैं, मैं भी एक मनुष्य हूँ। एक वास्तविक संवाद में, वास्तविक जीवन में, आभासिक संवाद में नहीं, यदि आपकी मनोदशा अच्छी न हो तो आप मशीन को बंद कर देते हैं, है न? लेकिन वह तो वास्तविक जीवन नहीं है। यदि यह किसी एस.एम.एस. संदेश पर आधारित हो जो बहुत सांकेतिक और संक्षिप्त होता है, या किसी ट्वीट पर आधारित हो जो 160 अक्षरों का संदेश होता है, तो उसमें आपकी मनोदशा किसी आइकॉन या स्माइली फेस से भी सही ढंग से संप्रेषित नहीं हो पाती है। वहाँ दरअसल मनोदशा, भावनाओं का महत्व नहीं होता है। आप बस कुछ बुनियादी सूचना को प्रेषित कर रहे होते हैं। जैसाकि मैंने कहा, यह बड़ा डरावना होता है क्योंकि हम अपनी प्रौद्योगिकी की ढाल के पीछे छिपे रहने के इतने आदी हो जाते हैं कि वास्तविक जीवन में किसी व्यक्ति का सामना नहीं करना चाहते हैं। हो सकता है कि हम अभी इसे महसूस न कर रहे हों, लेकिन हम देख सकते हैं कि दुनिया में यही चलन चल रहा है।

कारण और प्रभाव

असल में मैं किसी दूसरे मनुष्य का सामना करने से क्यों डरता हूँ? यह एक बड़ा दिलचस्प सवाल है। हम अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं या फिर हमें सुझाई नहीं देता कि हम क्या करें। हम अपने सामाजिक कौशल को गंवा चुके हैं और इसलिए यह अप्रमाद का भाव, दूसरों के लिए फिक्रमंदी का भाव यह समझने के लिए और भी आवश्यक हो जाता है कि डरने की कोई बात नहीं है। आपकी भावनाएं हैं, मेरी भी भावनाएं है, हम एक दूसरे को प्रभावित करने वाले हैं, लेकिन यहाँ एक और बात यह है कि मैं आपके साथ जैसा व्यवहार करूँगा और आपसे जो कहूँगा वह सब आपकी भावनों को आगे और प्रभावित करेगा। इसलिए यहाँ एक नैतिकता का बोध आ जाता है जहाँ हम किसी दूसरे मनुष्य के साथ अपनी इस मुलाकात को अप्रिय नहीं बनाना चाहते हैं; यही “कारण और प्रभाव” है।

आप एक निश्चित प्रकार की मनोदशा में हैं, मेरी भी एक निश्चित मनोदशा है। मुझे इस बात का सम्मान करना होगा, इसे स्वीकार करना होगा, लेकिन हम एक दूसरे के साथ जिस तरह का व्यवहार करेंगे वह हमें एक-दूसरे को प्रभावित करेगा। मैं आपके साथ जैसा व्यवहार करूँगा वह आपकी मनोदशा को प्रभावित करेगा और आप मेरे साथ जैसा व्यवहार करेंगे वह मेरी मनोदशा पर प्रभाव डालेगा। मुझे इस बात की परवाह है। परवाह... मैं इसके लिए तिब्बती शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ, एक संस्कृत शब्द जिसका मैं यहाँ अनुवाद दे रहा हूँ... उसका अर्थ है कि ऐसा नहीं है कि मैं चिंतित हूँ, बल्कि मैं इस बात को बहुत गम्भीरता से लेता हूँ।

मैं किस बात को गम्भीरता से लेता हूँ? कि आप एक मनुष्य हैं जिसकी अपनी भावनाएं हैं। कि मैं आपके साथ जैसा व्यवहार करूँगा वह आपको प्रभावित करेगा, इसलिए मैं इसे गम्भीरता से लेता हूँ। और इसलिए मैं इस इस बात को लेकर फिक्रमंद हूँ कि हमारा परस्पर बर्ताव कैसी होगी और वह आपको किस प्रकार प्रभावित करेगी और मुझे किस प्रकार प्रभावित करेगी। इस शब्द से सावधान रहने का अर्थ भी ध्वनित होता है। “फिक्र” और “फिक्रमंद होना” – ये दोनों शब्दों के बीच परस्पर सम्बंध है। मैं आपके साथ अपने बर्ताव को लेकर सावधानी बरतता हूँ। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तनाव में हूँ, यह इसका मतलब नहीं है, बल्कि वैसे ही सावधान हूँ जैसे तब सावधान होते हैं जब आप किसी बहुत ही पतली पगडंडी पर चल रहे हों और आप फिक्रमंद होते हैं कि आप गिर न जाएं, इस प्रकार आप सावधान होते हैं। फिक्रमंदी और परवाह और सावधान होने के ये भाव एकसाथ मिलकर काम करते हैं।

इसलिए यहाँ हम यह निष्कर्ष निकालते हैं, “जिस प्रकार मैं यह आशा करता हूँ कि हमारे बीच की परस्पर क्रिया में आप मेरा और मेरी भावनाओं का खयाल रखेंगे, मैं आशा करता हूँ आप वैसा ही व्यवहार करेंगे और ऐसा नहीं करेंगे कि हमारी बातचीत के बीच में ही कोई एस.एम.एस. करने लगें या अपने फोन पर बात करने लगें और मेरी अनदेखी करें। मैं आपकी परवाह करता हूँ, आपकी भावनाओं की परवाह करता हूँ; मैं आपको गम्भीरता से लेता हूँ। मैं वास्तव में किसी मनुष्य के साथ हूँ, मैं अकेला किसी कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने नहीं बैठा हूँ।“ ठीक, क्या आपको मोटी बात समझ में आई?

तर्क की दिशा

जब हम तर्क की इस दिशा में आगे बढ़ते हैं, “आप एक मनुष्य हैं और मेरी ही तरह आपकी भी भावनाएं हैं” आदि – तो तर्क की इस दिशा से आप एक निष्कर्ष या परिणाम पर पहुँच सकते हैं। किसी प्रकार की चित्तावस्था और किसी भावना को विकसित करने की एक प्रक्रिया होती है। बेशक, बाद में उस चित्तावस्था या भावना को विकसित करने के लिए हमें उस प्रक्रिया और उसके चरणों से होकर नहीं गुजरना पड़ता है, हम इतने सक्षम हो जाते हैं कि हरदम उस अवस्था में बने रह सकें। बस हमें अपने आप को स्मरण कराते रहना होता है और फिर हम चित्त की उस अवस्था को विकसित कर लते हैं।

लेकिन शुरुआत में हमें यह अवस्था आसानी से प्राप्त नहीं होती है, इसलिए आपको किसी निश्चित भावना को विकसित करने के लिए अपने आप को तैयार करना पड़ता है। यही कारण है कि मैं इसे “तर्क की दिशा” कहता हूँ। “आप एक मनुष्य हो। आप एक मनुष्य हो और मेरी ही तरह आपकी भी भावनाएं हैं। आपकी मनोदशा हमारे बीच की परस्पर क्रिया को उसी तरह प्रभावित करेगी जैसे मेरी मनोदशा उसे प्रभावित करेगी।“ इस प्रकार यह एक तर्क की दिशा है जो हमें किसी भावना को विकसित करने के लक्ष्य की ओर लेकर जाएगी। वह परिणाम, या वह चित्तावस्था जिसे हम विकसित करना चाहते हैं और वह इच्छित भावना है, “मैं आपकी परवाह करता हूँ, मैं आपकी भावनाओं की परवाह करता हूँ।“

सचेतनता

महान बौद्ध ध्यानसाधना ग्रंथों में एकाग्रता के लिए जो निर्देश दिए गए हैं, वहाँ सचेतनता के लिए विशेष तौर पर दिशानिर्देश दिया गया है। सचेतनता एक मानसिक कारक है जो मूलतः एक प्रकार का मानसिक गोंद होता है। आजकल “सचेतनता” शब्द के बजाए विपश्यना सचेतनता आन्दोलन का चलन हो गया है जहाँ उसका अर्थ संस्कृत के शब्द से भिन्न होता है, यानी केवल श्वास, स्थितियों, शारीरिक संवेदनाओं, भावनाओं आदि के प्रति सचेतनता की बात की जाती है। दरअसल संस्कृत और तिब्बती भाषाओं में इसके लिए अलग शब्द है। ठीक, लेकिन यहाँ शब्दावली की पहचान में थोड़ी गबड़बड़ी हो जाती है और थोड़ी सटीकता खत्म हो जाती है। सचेतनता के लिए प्रयोग किया जाने वाला मूल वास्तविक शब्द “स्मृति” है। इसका मतलब किसी बात को चित्त में धारण किए रहना होता है। यह एक प्रकार का मानसिक गोंद है। जब आप किसी चीज़ पर अपने ध्यान को केंद्रित कर रहे होते हैं तो यह गोंद आपके ध्यान को उस चीज़ पर बनाए रखता है ताकि आप उसे भूलें नहीं।

जब आप सचेतनता को हासिल करने के लिए प्रयत्नरत होते हैं तब यह मानसिक गोंद आवश्यक होता है – ताकि एक बार जब आप किसी चित्तावस्था या भावना को विकसित कर लें तो फिर आप उसे छोड़ें नहीं। यह मानसिक कारक ही सचेतनता है। यह आपको बांधे रखता है ताकि आप उस भावना या बोध से अपने ध्यान को न हटाएं जिस पर ध्यान केंद्रित करने का आप अभ्यास कर रहे हों। उस सचेतनता को कैसे बनाए रखा जाए? प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में हमें यही मार्गनिर्देश मिलता है और इसे हम संकेत शब्दों के प्रयोग से करते हैं।

संकेत-शब्दों का प्रयोग

ग्रंथों में कहा गया है कि संकेत-शब्दों का प्रयोग मानसिक भटकाव नहीं है; इसका मतलब यह नहीं है कि आप अपने मस्तिष्क में फिर से “बकबक” शुरू कर दें। वह तो सिर्फ ध्यान भंग होगा, कि आप ध्यान को केंद्रित नहीं कर रहे हैं। जबकि संकेत-शब्दों का प्रयोग आपको यह स्मरण कराने के लिए होता है कि आप ध्यान बनाए रखें। इसलिए जब आपको ऐसा लगता है कि वह मानसिक गोंद छूट रहा है या क्षीण पड़ चुका है तो आप उस मानसिक गोंद को बनाए रखने के लिए समय-समय पर किसी संकेत-शब्द का प्रयोग करते हैं।

पहले तो आप किसी विचारप्रवाह के माध्यम से किसी चित्तावस्था को विकसित करते हैं। इस अवस्था तक यह सब स्वाभाविक ढंग से नहीं होता है। और उसके बाद जब आप उस चित्तावस्था और उस बोध को कायम रखने का प्रयास करते हैं: “आप एक मनुष्य हो और मेरी ही तरह आपकी भी भावनाएं हैं,” उस समय आप अपने आप को किसी संकेत-शब्द की सहायता से स्मरण कराते हैं: “मनुष्य,” “आपकी भावनाएं हैं,” इस तरह।

यदि हम अपने आप को इसका अभ्यस्त कर लें – “ध्यानसाधना” शब्द का यही अर्थ है, यानी किसी सकारात्मक अभ्यास को विकसित करने के लिए स्वयं को अभ्यस्त बनाना – तो फिर हम अपने सामान्य जीवन में इसे याद रखेंगे। और यही “सचेतनता” शब्द का अर्थ है। हम दूसरों के साथ इसी आधार पर परस्पर क्रिया करना शुरू कर देंगे कि आप एक मनुष्य हैं और आपकी भावनाएं हैं। इसलिए हम दूसरों को गम्भीरता से लेते हैं और हम दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कैसे उनके साथ बात करते हैं, इस सब का प्रभाव पड़ता है; ऐसा नहीं है कि मैं किसी आभासिक यथार्थ वाले कम्प्यूटर गेम का हिस्सा हूँ। इसके परिणामस्वरूप आपकी भावनाएं विकसित होंगी।

और उस परस्पर क्रिया के दौरान जब हमें ऐसा लगे कि हम किसी दूसरे व्यक्ति का अमानवीयकरण कर रहे हैं, तो हमें किसी संकेत-शब्द का प्रयोग करना चाहिए। यदि हम अपने आपको ऐसा करते रहने का अभ्यस्त कर लें तो यदि हमें किसी व्यक्ति पर क्रोध आने लगे और हमें लगने लगे: “मैं इस व्यक्ति से बात नहीं करना चाहता और मैं चाहता हूँ कि चला जाए और मुझे अकेला छोड़ दे,” आदि, तो वह संकेत-शब्द स्वतः ही याद आ जाएगा। किसी संकेत-शब्द का प्रयोग करें – “मनुष्य,” “भावनाएं।“ अपने आप को स्मरण कराएं। यदि आप इस मार्गदर्शन को समझ लें और लागू करें तो सचमुच यह बहुत ही उपयोगी है।

उदाहरण के लिए, मान लें कि आपका कोई बच्चा है, शिशु है, और आप सचमुच उससे बहुत नाराज़ हो रहे हों। बच्चा रो रहा है और शिकायत आदि कर रहा है, लेकिन आप स्वयं को स्मरण कराते हैं, यह तो छोटा बच्चा ही है। इससे मुझे और क्या उम्मीद करनी चाहिए? होता यह है कि आप बच्चे पर इस कल्पना को आरोपित कर रहे होते हैं कि बच्चे को किसी वयस्क जैसा व्यवहार करना चाहिए, और ऐसा करना हास्यास्पद है। आपको स्वयं को स्मरण कराना होगा, यही संकेत-शब्दों का प्रयोग करते हुए सचेतनता का अभ्यास है। यह सचमुच बड़ा ही सारगर्भित दिशानिर्देश है।

वह संकेत-शब्द कोई वाक्यांश हो सकता है, आवश्यक नहीं है कि वह केवल एक शब्द ही हो। पहला संकेत-शब्द पहली प्रस्तावना से है, “मैं तुम्हारे बारे में कोई मनगढ़ंत बातें न तो बनाऊँगा और न ही किसी को सुनाऊँगा।“ यानी, तुम्हारे बारे में आलोचनात्मक दृष्टिकोण नहीं रखूँगा, अपने मन में तुम्हारे बारे में शिकायत और आलोचना का भाव नहीं रखूँगा, “अरे, तुम भी कितने मूर्ख हो,” आदि। हम अपने आप को इस बात का स्मरण कराते हैं, खास तौर पर तब जब उस व्यक्ति के साथ संवाद आदि करते समय हमारे मन में आलोचना के विचार आने लगते हैं। हम इसके लिए “शांत रहो” जैसे शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं। आप अपने संकेत-शब्द स्वयं गढ़ सकते हैं, जो भी आपके लिए उपयोगी और कारगर हों।

इसके बाद फिर “तुम भी एक मनुष्य हो, तुम्हारी भी भावनाएं है,” इसके लिए आप केवल “मनुष्य” संकेत-शब्द का प्रयोग कर सकते हैं, आप केवल “भावनाएं” कह सकते हैं या फिर जो भी आपको सुविधाजनक लगता हो, कह सकते हैं। हो सकता है कि केवल इतना कहना ही काफी हो, हो सकता है कि आप कुछ और भी कहना चाहें, “मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ; मैं तुम्हारी भावनाओं की परवाह करता हूँ।“ अन्ततोगत्वा हो सकता है कि आपको स्वयं को स्मरण कराने के लिए केवल एक ही शब्द “मनुष्य” की आवश्यकता पड़े। यह वैसा ही है जैसे आप अपने आपको अपने हाव-भाव के बारे में स्मरण कराते हैं। आप किसी व्यक्ति के साथ होते हैं और आपके चेहरे पर कोई बुरा भाव होता है और आपके कंधों में तनाव होता है और आप तनाव आदि की स्थिति में दिखाई देते हैं, तो बस अपने आप को इतना ही स्मरण कराएं, “जाने भी दो,” “भाव-भंगिमा,” “शांत रहो।“ दरअसल मुझे यह तरीका बहुत ही उपयोगी लगता है।

यहाँ हम विषय से थोड़ा सा भटक रहे हैं, लेकिन दिन के दौरान मुझे यह तरीका बहुत ही उपयोगी लगता है जब मैं पाता हूँ कि मेरे चेहरे की मांसपेशियों में खिंचाव है – मेरे माथे पर सिलवटें पड़ी हुई हैं और मेरा मुंह कस कर भिंचा हुआ है – तब मैं स्वयं को बस यही याद दिलाता हूँ , “शांत हो जाओ।“ स्वयं को स्मरण कराने के लिए किसी संकेत-शब्द का प्रयोग कीजिए। इस प्रकार आप अपने चेहरे की मांसपेशियों के खिंचाव को कम कर सकते हैं। या यदि आपके दाँत बहुत जोर से भींचे हुए हों तो “शांत हो जाइए।“ आप स्वयं को स्मरण कराने के लिए किसी संकेत-शब्द का प्रयोग करते हैं। और यदि आप अपने आप को इसके लिए अभ्यस्त कर लें तो फिर आपको केवल संकेत-शब्द को ही याद रखने की आवश्यकता होगी। यही ध्यानसाधना है, हम बार-बार किसी एक चीज़ के बारे में चिंतन करते हैं।

एकाग्रता

एकाग्रता एक ऐसा मानसिक कारक है जो ध्यानसाधना का ही भाग होता है। लेकिन एकाग्रता केवल ध्यानसाधना में ही नहीं, बल्कि किसी भी कार्यकलाप में खोजी जा सकती है। ध्यानसाधना में किसी सकारात्मक अभ्यास, चित्त और मनोभावों के स्तर पर किसी सकारात्मक अभ्यास को विकसित किया जाता है; यहाँ हम किसी संगीत वाद्य को बजाने या किसी खेल-कूद के सकारात्मक अभ्यास की बात नहीं कर रहे हैं। किसी अभ्यास को विकसित करने का मतलब स्वयं को किसी चीज़ की आदत डालना या अभ्यस्त करना होता है, और ऐसा किसी चीज़ को बार-बार दोहरा कर किया जाता है। आप किसी विशेष चित्तावस्था को विकसित करते हैं, किसी बोध या प्रेम भाव आदि को विकसित करते हैं और आप इस अभ्यास को बार-बार दोहराते रहते हैं ताकि वह आपकी आदत बन जाए, आपकी सहज आदत हो जाए। या आप बार-बार अपने चित्त को शांत करने के अभ्यास को दोहराते हैं ताकि वह आपकी सहज आदत बन जाए, कि आप अपने चित्त को शांत अनुभव करें।

एकाग्रता एक ऐसा मानसिक कारक है जो उस समय आपके चित्त को एक ही जगह बनाए रखता है जब आप अपने चित्त को किसी बात पर केंद्रित कर रहे होते हैं। वह आपके ध्यान को स्थिर बनाए रखती है। इसके कई स्तर होते हैं। यह हमारे चित्त के काम करने के ढंग का ही हिस्सा है। जब आप सब्ज़ियाँ काट रहे होते हैं तो आपको एकाग्रता की आवश्यकता होती है, वरना आप अपनी उँगली को ही काट लेंगे। यह तो ध्यानसाधना नहीं है। इसलिए हम जो कुछ भी करते हैं उसे करते समय हमें एकाग्रचित्त रहने की आवश्यकता होती है ताकि हमारा ध्यान हमारे काम पर केंद्रित बना रहे। इस एकाग्रता के स्तर में बहुत कम एकाग्रता से लेकर पूर्ण एकाग्रता तक का अन्तर हो सकता है।

जब हम ध्यानसाधना में एकाग्रता को विकसित करने का अभ्यास करते हैं, तब हम मूलतः दो प्रकार की बाधाओं से बचने का प्रयास कर रहे होते हैं। एक बाधा तो यह है कि हमारा ध्यान किसी प्रलोभित करने वाली वस्तु की ओर खिंचता रहता है जिससे हमारा ध्यान भंग होता है: यानी मानसिक भटकाव। दूसरी बाधा उत्साह के मंद पड़ने की होती है जिसके कारण हम ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं, ध्यान के विषय पर हमारी पकड़ बहुत क्षीण हो सकती है या पूरी तरह से छूट भी सकती है।

संवेदनशीलता के इस अभ्यास के लिए एकाग्रता बहुत ही आवश्यक होती है। जब हम किसी व्यक्ति से बात कर रहे हों या कोई अन्य व्यक्ति हमसे बात कर रहा हो तब यह आवश्यक होता है कि हम अपने ध्यान को एकाग्र रख सकें। आपको लगातार उस व्यक्ति द्वारा कही जा रही बातों पर अपने ध्यान को केंद्रित रखना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप किसी और चीज़ के बारे में सोचने लगें और आपका चित्त भटक जाए, या फिर आप मन ही मन टिप्पणियाँ करने लगें। आपको इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि आपका उत्साह इतना मंद न पड़ जाए कि आपको कुछ होश ही न रहे और आप पूछने लगें, “आप क्या कह रहे थे? मेरा ध्यान कहीँ और था।” ऐसा भी नहीं होता है कि आप अपने ही खयालों में खोए हों, बस ऊब आदि के कारण से आपका उत्साह क्षीण पड़ चुका होता है।

आपकी मानसिक पकड़ के क्षीण पड़ने का एक और संकेत यह होता है कि आपको दूसरे व्यक्ति के शब्द तो सुनाई देते हैं लेकिन आप उसकी बात को एक कान से सुनकर दूसरे से बाहर निकाल देते हैं। आप उस व्यक्ति द्वारा कही जा रही बात को कोई महत्व नहीं दे रहे होते हैं।

हम “सचेतनता की साधना” के साथ एकाग्रता की ध्यानसाधना का जो अभ्यास करते हैं उसके लिए हमें श्वास पर ध्यान केंद्रित करना होता है। जैसाकि मेरे एक शिक्षक कहा करते थे कि ऐसा नहीं है कि आप किसी छिपकली के जैसा बनने का अभ्यास कर रहे हों जो किसी चट्टान पर बैठी-बैठी श्वास ले रही हो। बल्कि हम किसी ऐसे कौशल को विकसित कर रहे होते हैं जिसका उपयोग हम दूसरों के साथ संवाद करते समय कर सकते हैं, ताकि हम एकाग्रता को बनाए रख सकें और दूसरे व्यक्ति पर ध्यान दे सकें कि उसे कैसा महसूस हो रहा है, वह क्या कह रहा है, क्या कर रहा है और इस बात पर भी ध्यान दे सकें कि हम स्वयं कैसा व्यवहार कर रहे हैं।

वास्तविक ध्यानसाधना में एकाग्रता होनी ही चाहिए। आप इसका उपयोग अपनी एकाग्रता की क्षमता को विकसित करने के लिए करते हैं और फिर उस एकाग्रता का उपयोग अपने दैनिक जीवन में कर सकते हैं। हम सभी एकाग्रता के बुनियादी मानसिक कारक से युक्त होते हैं, यदि ऐसा न होता तो हम कुछ भी न कर पाएं। पशु जब शिकार कर रहे होते हैं या कोई गड्ढा आदि खोद रहे होते हैं तो वे भी एकाग्रता से काम लेते हैं; वे भी एकाग्रता से युक्त होते हैं। एकाग्रता का यह सामान्य मानसिक गुण चित्त की एक बुनियादी क्षमता है।

अभ्यास के सांस्कृतिक पहलू

अब हम अभ्यास की बात करें तो किसी भी अभ्यास में हम पहले उन लोगों के साथ अभ्यास करते हैं जो प्रत्यक्ष मौजूद न हों क्योंकि वैसा करना भावनात्मक दृष्टि से अधिक आसान होता है। फिर यह बात संस्कृति पर भी निर्भर करती है कि आप पहले दूसरों के साथ व्यक्तिगत तौर पर संवाद करने के बाद स्वयं से संवाद करना चाहेंगे, या फिर पहले अपने आप से संवाद करने के बाद दूसरों के साथ संवाद करना चाहेंगे। कुछ संस्कृतियों में लोगों को दूसरों के साथ संवाद करना बहुत ही कठिन होता है, जैसे जर्मन लोगों का स्वभाव बहुत शर्मीला होता है। और इसलिए ऐसे लोगों के लिए पहले अपना सुधार करने के बाद दूसरों के साथ अभ्यास करना अपेक्षाकृत आसान होता हि। वहीं दूसरी ओर लातिन-अमेरिकी लोग बहुत खुले होते हैं और दूसरों के साथ सहज रहते हैं, लेकिन उन्हें अपने-आप को देखना कहीं अधिक कठिन लगता है। हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए कि अभ्यास को संस्कृति के अनुकूल बनाया जाए और समूह में शामिल अलग-अलग लोगों की सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।

प्रौद्योगिकी के युग में दूसरों के साथ संवाद करना

मैं मानता हूँ कि डिजिटल डिवाइसेज़ की सहायता से बड़े पैमाने पर दूसरों के साथ संवाद करने के चलन को देखते हुए अभ्यासों के पहले चरण में ऐसे लोगों के साथ अभ्यास करना विशेष तौर पर प्रासंगिक होगा जो साधकों के साथ मौजूद न हों। इस संदर्भ में यह समझना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है, “आप एक मनुष्य हैं, मैं यहाँ किसी मनुष्य के साथ व्यवहार कर रहा हूँ; मैं यहाँ किसी स्क्रीन पर प्रदर्शित पिक्सल्स के साथ संवाद नहीं कर रहा हूँ।“ यह प्रश्न बहुत ही दिलचस्प है: “ क्या इस व्यक्ति का अस्तित्व किसी स्क्रीन पर प्रदर्शित पिक्सल्स के रूप में ही है या यह कोई वास्तविक मनुष्य है? क्या इसके पीछे कोई वास्तविक मनुष्य है? यह बात हमें शून्यता की साधना की ओर ले जाती है: क्या हम उस व्यक्ति को स्क्रीन पर प्रदर्शित किसी एस.एम.एस. या इंस्टेंट मैसेज के पिक्सल्स के रूप में पहचान रहे हैं? क्या वही व्यक्ति है? व्यक्ति कौन या क्या है?

यहाँ यह समझना बहुत ही आवश्यक है कि जब भ्रमवश हम किसी स्क्रीन पर प्रदर्शित पिक्सल्स को व्यक्ति समझ लेते हैं और मान लेते हैं कि वह पिक्सल्स ही है, तब ऐसा निष्ठुर रवैया अपनाना बहुत आसान हो जाता है कि “दूसरों की या उनकी भावनाओं की कौन परवाह करे?” यदि मेरी दिलचस्पी न हो तो मैं बस एक बटन दबाकर उसे बंद कर सकता हूँ; वह तो बस पिक्सल मात्र है।

अभ्यास की शुरुआत करना

अब हम बोर्ड पर पिन की सहायता से लगाए गए अजनबी लोगों के इन चित्रों के साथ अभ्यास करेंगे। ये चित्र किसी पत्रिका से लिए गए हैं। इसमें कई तरह के लोग शामिल हैं, अलग-अलग उम्र और जातीय पृष्ठभूमि वाले पुरुष और महिलाएं शामिल हैं। पहले तो हमें इनके बारे में मन में टिप्पणियाँ किए बगैर इन्हें केवल देखना आना चाहिए। ऐसा करना इतना आसान भी नहीं होता है। इस अभ्यास में हम एक बार में एक व्यक्ति के चित्र को देखते हुए एक-एक फोटो को देखने का अभ्यास करते हैं।
अधिकांश लोग ऐसा महसूस करते हैं कि वे किसी एक प्रकार के लोगों के बारे में दूसरे प्रकार के लोगों की तुलना में अधिक मानसिक टिप्पणियाँ करते हैं। हो सकता है कि आप छोटे बच्चों के बारे में, महिलाओं के बारे में, पुरुषों के बारे में, किसी अलग जातीय पृष्ठभूमि वाले लोगों या ऐसे लोगों के बारे में अधिक टिप्पणियाँ करते हों जिनके प्रति आप यौनाकर्षण अनुभव करते हों। इस बात पर ध्यान देने से हमें अपने बारे में बहुत कुछ पता तो चलता ही है, साथ ही हमें यह समझने में भी सहायता मिलती है कि हमारे चित्त में किस प्रकार का शाब्दिक शोर चलता है।

अप्रमाद या दूसरों का खयाल रखने वाला दृष्टिकोण विकसित करने के लिए हमें पहले कुछ समय उस आधारिक अभ्यास को करने में लगाना चाहिए जो “चित्त को शांत करने” का अभ्यास है। यदि आप चित्रों में दिखाए गए इन लोगों को देखते हुए उनके बारे में कहानी-किस्से गढ़ते हैं तो फिर आप कभी भी अप्रमाद को विकसित नहीं कर पाएंगे। ‘जाने भी दो’ की विधि ही अपने चित्त को शांत करने का सबसे आसान तरीका है। बस आप अपने चित्त में चलने वाले शाब्दिक शोर से अपने को मुक्त करें। इसमें सहायता करने के लिए हम अपनी मुट्ठी को कसते हैं। आवश्यक नहीं है कि मुट्ठी बहुत कस कर बंद की गई हो। फिर इसके बाद जब आप अपनी मुट्ठी को खोलते हैं, तब साथ ही साथ अपने असंगत विचारों को भी मुक्त कर देते हैं। अपने आप को स्मरण कराने के लिए आप “जाने भी दो” जैसे संकेत-शब्द का प्रयोग कर सकते हैं।

लोगों के चित्रों को देखते हुए कुछ समय के लिए इस अभ्यास को कीजिए जहाँ आप कोई राय कायम न करें, कोई टिप्पणी न करें, बस चित्र में दिखाए गए व्यक्ति के बारे में उदारता और खुलेपन का दृष्टिकोण रखें। हम कुछ मिनटों के लिए इस अभ्यास को करेंगे। किसी एक चित्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए अभ्यास की शुरुआत करें, और फिर उसके बाद अगले चित्र में दिखाए गए व्यक्ति पर ध्यान को केंद्रित करें। यदि आपके चित्त में बहुत शोरगुल हो, तो आप अपने चित्त को शांत करने के लिए पहले अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित करें और फिर उसके बाद आप चित्रों को देखना शुरू कर सकते हैं।

वीडियो: मिन्ग्युर रिन्पोचे - बौद्ध धर्मी ध्यान-साधना आरम्भ कैसे करें
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[विराम]

शांत चित्त और अप्रमाद के बीच संतुलन

कुछ लोगों को यह अनुभव होता है कि जब वे अपने चित्त को शांत कर लेते हैं तब उन्हें कोई बहुत अधिक अनुभूतियाँ नहीं होती हैं। यही कारण है कि इसके बाद के सभी अभ्यास इन दो पायों पर टिके हुए हैं। चित्त को शांत करना एक पाया है तो दूसरा पाया अप्रमाद है। आप ऐसा नहीं कर सकते हैं कि बस अपने चित्त को ही शांत कर लें, क्योंकि तब वह व्यक्ति अप्रासंगिक हो जाएगा, वह व्यक्ति आपके लिए केवल कुछ पिक्सल्स बनकर ही रह जाएगा। वहीं दूसरी ओर यदि आप पहले अप्रमाद को विकसित करने का प्रयास करते हैं तो आप आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने लगते हैं और उस व्यक्ति के बारे में टिप्पणियाँ कर सकते हैं। आप केवल अप्रमाद को ही विकसित नहीं कर सकते हैं, इस प्रकार आपको दोनों की ही आवश्यकता होती है। इनके बीच संतुलन की आवश्यकता होती है। इस अभ्यास में आपको अपने अनुभव से यह समझने से बहुत लाभ होगा कि केवल अपने चित्त को शांत कर लेना ही काफी नहीं है। लेकिन उसके बाद किसी प्रकार के सकारात्मक भाव को विकसित करने का यही आधार है।

समानुभूति

कभी-कभी इन चित्रों को देखते हुए हमें उसी मनोभाव की अनुभूति होने लगती है जो चित्र में दिखाया गया व्यक्ति प्रदर्शित कर रहा होता है। जीवन में भी अक्सर ऐसा होता रहता है। यह सब एक जीववैज्ञानिक व्यवस्था का प्रभाव है जिसे “मिरर न्यूरोंस” कहा जाता है, इसलिए इसमें “कुछ विशेष नहीं” है। यही कारण है कि जब आपके साथ के लोग हँस रहे होते हैं तो आप भी हँसने लगते हैं; जब लोग रो रहे होते हैं तो आप भी रोने लगते हैं। यह एक समानुभूति का भाव होता है, जो ठीक ही है, लेकिन यदि दूसरा व्यक्ति अवसादग्रस्त हो तो हम भी अवसादग्रस्त हो जाएं तो यह स्थिति बहुत लाभकारी नहीं होगी।

यदि आपको याद हो तो हमारी साधना के अभ्यासों की श्रृंखला में एक ऐसा अभ्यास था जिसका सम्बंध भावनाओं से था, जिसमें बताया जाता है कि जब आप किसी अवसादग्रस्त व्यक्ति के साथ हों या किसी ऐसी व्यक्ति के साथ हों जो बहुत ही दुखी हो तो आपको उस दुख को अनुभव करना चाहिए ताकि आप उसके साथ समानुभूति रख सकें और उस स्थिति से डरें नहीं। लेकिन यदि हम पहले से ही अपने आपको इस प्रकार अभ्यस्त कर चुके हों कि अपने चित्त को शांत कर सकें और शांत चित्त के गहनतम स्तर तक पहुँच सकें, तो फिर हमें दूसरे व्यक्ति के जिस दुख और अवसाद की अनुभूति होती है उसे हम अपने भीतर ही आंतरिक तौर पर शमित कर सकते हैं। उस स्थिति में हम अपने सहज प्रेम भाव, बोध और चित्त के दूसरे सकारात्मक गुणों का उपयोग कर पाते हैं जिनकी सहायता से हम दूसरे व्यक्ति को ढाढ़स बंधा सकते हैं। यही इस कार्य को करने का राज़ है। जाहिर है कि ऐसा कर पाने के लिए बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है, लेकिन यदि आप चित्रों में दूसरे लोगों को देखने के बाद कुछ अनुभव करते हैं, तो यह एक महत्वपूर्ण पहला कदम है।

लेकिन आपको सावधान रहना होगा कि अतिसंवेदनशीलता के कारण अत्यंत असंतुलन की स्थिति न बनने पाए। यदि ऐसा हो जाए तो हम भावनाओं में बह जाते हैं। यदि दूसरा व्यक्ति घायल हो, चीख रहा हो और बहुत घबराया हुआ हो, तब हम भी घबरा जाते हैं और उस व्यक्ति की मदद नहीं कर पाते हैं। यह स्थिति ऐसी है जैसे आप किसी घबराए हुए और अशांत व्यक्ति के साथ हों और यदि आप भी घबरा जाएं तो फिर स्थिति और भी खराब हो जाएगी। आप उस व्यक्ति की घबराहट को महसूस कर सकते हैं, लेकिन यदि आपने अच्छी तरह अभ्यास किया हो तो आप अपने भीतर की किसी भी प्रकार की घबराहट को शांत करने की आंतरिक क्षमता से युक्त होते हैं, और फिर आपकी शांतचित्तता किसी दर्पण की तरह दूसरे व्यक्ति को भी शांत रहने में मदद करेगी। यह तरीका प्रभावी है।

यह स्थिति उस स्थिति से बहुत अलग है जहाँ आप किसी घबराए हुए अशांत व्यक्ति के साथ होते हैं और आप स्वयं कुछ भी महसूस नहीं करते हैं। यदि आप कुछ भी महसूस न कर रहे हों, बिल्कुल भावशून्य हों तो इससे दूसरे व्यक्ति को स्वयं को शांत करने में मदद नहीं मिलती है। यदि आप चित्त की मूलभूत शांति को उपयोग में लाने की योग्यता रखते हैं तो फिर आप स्नेहभाव, उदारता, प्रेम आदि जैसे दूसरे सकारात्मक गुणों का भी उपयोग कर सकते हैं।

हाँ, कुछ लोग दूसरे लोगों की तुलना में आपके ऊपर अधिक प्रभाव छोड़ सकते हैं। ऐसा उस व्यक्ति के साथ आपके सम्बंध, पृष्ठभूमि, कार्मिक कारणों, और बहुत से कारकों की वजह से होता है। सभी पेंग्विन एक जैसे नहीं होते हैं! आम तौर पर हमारे अपने परिवार के लोगों के साथ परस्पर व्यवहार सबसे ज्यादा चुनौती भरा होता है।

दूसरों के साथ संवाद करते समय चित्त को शांत रखना

कुछ संस्कृतियों में यदि आप दूसरे लोगों के साथ बात करते समय खामोश रहते हैं तो इसे अशिष्टता माना जाता है। उदाहरण के लिए, लातिन-अमेरिकी लोगों के साथ मनोभावों का अधिक प्रदर्शन करने की आवश्यकता होती है। लेकिन औचित्य के अनुसार शांतचित्त होने और भावुक होने के बीच संतुलन को कैसे बनाए रखा जाए? मुझे एक प्रकार के अभ्यास का स्मरण है जिसे मैं बर्लिन में एक मार्शल आर्ट के एक समूह के साथ किया करता था। यह एक ऐसा समूह था जो निंजुत्सु का अभ्यास कर रहा था, जोकि एक बहुत ही आक्रामक किस्म की युद्ध कला है। मैं उन लोगों को यह सिखाने का प्रयास कर रहा था कि वे भीतर से बहुत शांत रहें, किन्तु बाहर से बहुत दृढ़ और मजबूत बनें। मैं उनसे अभ्यास करवाता था कि वे “हा!” की हुंकार भरते हुए भीतर की ऊर्जा को शांत बनाए रखें। मार्शल आर्ट में सफल होने का यही एक तरीका है: कि आप भीतर से शांत बने रहें, जबकि बाहर से ताकतवर बनें। लेकिन ऐसा कर पाने के लिए बहुत साधना और अभ्यास करने की आवश्यकता होती है।

जहाँ तक लातिन-अमेरिकी लोगों के साथ भावनात्मक व्यवहार करने की आवश्यकता का प्रश्न है, मुझे ऐसे लोगों के साथ भी काफी अनुभव है। मुझे लगता है कि इन दो चीजों के बीच अन्तर होता है: हमें शांत होने और भावशून्य चेहरा बनाए रखने के बीच अन्तर करके देखने की आवश्यकता है। शांतचित्तता दरअसल लाभकारी होती है; इससे लोग संयत महसूस करते हैं। जब वे लोग उत्तेजित होते हैं, और आप यदि आप शांतचित्त बने रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने चेहरे से भावों को व्यक्त करते हैं कि आप मनोभावों को ही प्रदर्शित कर रहे होते हैं – लेकिन ये मनोभाव शांत मनोभाव होते हैं। आप उस तरह से उत्तेजित नहीं होते हैं जैसे वे लोग उत्तेजित हो रहे होते हैं।

लेकिन आपके मनोभाव सहज और वास्तविक होने चाहिए। यदि आप केवल दिखावा कर रहे हों और वे इस बात को समझ जाएं कि आप केवल दिखावा कर रहे हैं तो बहुत अप्रिय स्थिति उत्पन्न हो सकती है। और, आप जितने अधिक शांत और संयत होंगे, आप भावनात्मक मनोभावों को उत्पन्न करने में उतने ही अधिक सक्षम होंगे। यही इस कला का सार है: आप जितने अधिक शांत होते हैं, उतनी ही सहजता से आपकी भावनाएं व्यक्त होती हैं, यदि आप सामान्यतया रोते नहीं हैं तब भी आप सहजता से रो पाएंगे। इसके अलावा आप शांत और संयत भी बने रहते हैं; आपकी भावनाएं आपके भीतर घुट नहीं रही होती हैं।

हमारे परिवार के लोगों के साथ व्यवहार करते समय यह अप्रमाद या खयाल रखने का भाव बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि वे ही ऐसे लोग होते हैं जो हमें सबसे ज्यादा अशांत कर सकते हैं या परेशान कर सकते हैं। यदि आप उनके साथ थोड़े शांत बने रहें तो इससे बहुत मदद मिलती है। और उस शांतचित्तता के बारे में यहाँ हम केवल सतही स्तर पर चर्चा कर रहे हैं, और वह स्तर भी कोई आसान स्तर नहीं होता है: कि हम अपने मन में शिकायत करना बंद कर दें और उन्हें भला-बुरा आदि कहना बंद कर दें। यदि हम इस सबको शांत कर सकें, हो सकता है कि हम भावनात्मक स्तर पर शांत न हो पाएं, लेकिन यदि हम इतने को भी रोक सकें, तो हम इस अप्रमाद या खयाल रखने के भाव को विकसित कर सकते हैं। इस अप्रमाद को अपनी माता या पिता या दूसरे किसी ऐसे सम्बंधी की ओर लक्षित करके, जो हमारे लिए भावनात्मक समस्या उत्पन्न कर सकता हो, हम इस तरह विचार करते हैं, “तुम एक मनुष्य हो और तुम्हारी भी भावनाएं हैं। तुम सुख चाहते हों, तुम दुखी होना नहीं चाहते। तुम अपनी ओर से इसके लिए भरसक प्रयास कर रहे हो। हो सकता है कि तुम अपने आपको सुखी बनाने के लिए जो करने का प्रयास कर रहे हो उसमें तुम सफल न हो पाओ, लेकिन फिर भी आखिर तुम एक मनुष्य हो। तुम भी उसी तरह अधिक से अधिक प्रयास कर रहे हो जैसे मैं स्वयं कर रहा हूँ।“

पूर्वधारणाओं से मुक्ति पाना

बाद के एक अभ्यास में, जहाँ हम केवल अपने मन के शोर को शांत कर लेने के बजाए और अधिक गहरे स्तर पर स्वयं को शांत कर लेते हैं, तब हमें एक और चीज़ से मुक्ति पाने की आवश्यकता होती है यानी अपनी पूर्वधारणाओं को छोड़ना होता है, विशेष तौर पर इस दृष्टि से कि हम दूसरों से किस भूमिका की अपेक्षा करते हैं और स्वयं अपने आप से कैसी भूमिका की अपेक्षा करते हैं। “आप तो माँ हो, आप तो पिता हो, और माता और पिता को ऐसा होना चाहिए, जैसाकि आप नहीं हो” और यह स्थिति बहुत ही खीझ उत्पन्न करने वाली होती है। यही कारण है कि हमारे परिवार के लोगों से हमें अजनबी लोगों या सामान्य मित्रों की तुलना में अधिक खीझ होती है क्योंकि हम कल्पना कर लेते हैं कि उन्हें कैसी भूमिका निभानी चाहिए। किसी व्यक्ति के साथ वास्तविक मानवीय स्तर के परस्पर व्यवहार के लिए हमें ऐसी पूर्वधारणाओं का त्याग करना होगा।

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