अप्रमाद विकसित करने के लिए अभ्यास

चित्त को शांत करना

हमने साधना की शुरुआत चित्त को शांत करने के एक संक्षिप्त अभ्यास के साथ की थी। जब हम ‘चित्त को शांत’ करने की बात करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम सब कुछ वैसे ही बंद करके बैठ जाएं जैसे हम किसी बजते हुए रेडियो को बंद कर देते हैं, बल्कि इसका मतलब होता है कि हम अपने चित्त में चल रही अनावश्यक हलचल को शांत करें ताकि हम और अधिक उदार और सकारात्मक बन सकें। लेकिन, जैसाकि पहले कहा गया था, यदि हम केवल इतना भर ही करते हैं, या यदि इसे गलत ढंग से करते हैं तो इस बात की आशंका बढ़ जाती है कि हम दूसरों से अलग-थलग हो जाएं, और भावनाशून्य हो जाएं। यदि हम सब कुछ बंद कर देने के नाम पर इस सीमा तक पहुँच चुके हों, तो समझिए कि हम बहुत अधिक दूर निकल आए हैं।

जब हम अपने चित्त की असम्बद्ध, समस्या उत्पन्न करने वाली बातों को शांत करना चाहते हैं, तो उसके साथ ही हम अपनी घबराहट, चिन्ताओं और भयों को भी शांत करना चाहते हैं। ज़ाहिर है कि कुछ लोगों के लिए ऐसा कर पाना इतना आसान नहीं होता है। लेकिन यदि हम किसी ऐसे समूह में शामिल हों जिसका हर सदस्य इस बात पर सहमत हो कि हम एक-दूसरे के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण नहीं रखेंगे, तो इससे बहुत मदद मिल सकती है।

अप्रमाद

अब हम अप्रमाद या दूसरों की परवाह करने के बारे में चर्चा करेंगे; और एक बार फिर हम अपने पोस्टर पर चिपके हुए लोगों के चित्रों को देखेंगे और इसकी शुरुआत सबसे पहले चित्त को शांत करने के साथ करेंगे – यही पहला चरण है – और फिर एक-एक करके इन लोगों के बारे में विचार करेंगे। बस सिलसिलेवार ढंग से एक-एक करते हुए चित्रों के देखें और एक बार जब आप तर्क की दिशा पर चलते हुए अप्रमाद के इस भाव को विकसित कर लेते हैं, तो फिर आप अपने ध्यान को हटाकर अगले व्यक्ति के चित्र पर ले जाते हैं।

सबसे पहले तो हम अपने असम्बद्ध विचारों को शांत करते हैं। “असम्बद्ध विचारों” से आशय हमारे मन में चलते रहने वाली बकबक से होता है। यदि हम इस बकबक को शांत करना चाहते हैं तो हम अपने श्वास पर ध्यान को केंद्रित करते हैं। श्वास की साधना का यह एक विशिष्ट प्रयोग है। थेरवादी परम्परा, जोकि विपशयना आंदोलन का मूल है, में श्वास ही विभिन्न प्रकार की ध्यानसाधनाओं का केंद्रीय लक्ष्य है। लेकिन यदि हम महायान परम्पराओं को देखें, तो वहाँ श्वास को ध्यान केंद्रीय लक्ष्य विशिष्टतः उन्हीं लोगों के लिए माना जाता है जो बहुत अधिक असम्बद्ध विचारों की समस्या से ग्रस्त होते हैं। ऐसे लोगों के चित्त बहुत अधिक सक्रिय होते हैं; उनके मन में हर समय कोई न कोई बात चल रही होती है। श्वास पर ध्यान केंद्रित करने से ऐसे लोगों का चित्त शांत हो जाता है।

यदि आप इसका अभ्यास करके देखें तो आप पाएंगे कि बेशक आप अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित कर पाते हैं, लेकिन फिर भी आंशिक तौर पर उनके चित्त में असम्बद्ध विचार चलते रहते हैं। फिर भी, यह तरीका बहुत उपयोगी होता है, विशेष तौर पर यदि आपको भी वही समस्या हो जो अक्सर मुझे होती है, कि किसी न किसी प्रकार का संगीत या कोई गीत मेरे चित्त में अनवरत चलता रहता है। आप कोई गीत आदि सुनते हैं और वह आपके मन में बस जाता है और फिर आप दिन भर उसे गुनगुनाते रहते हैं, जोकि निपट मूर्खता है। इसे रोक पाना बड़ा कठिन होता है। इससे निपटने के लिए हम अनेक प्रकार की विधियों को अपना सकते हैं।

चित्त को शांत करने के तरीके

तंत्र में प्रयोग की जाने वाली एक विधि यह होती है कि किसी मंत्र का उच्चार किया जाए ताकि आप अपनी उस शाब्दिक ऊर्जा को किसी अन्य कार्य में लगा सकें, और इसलिए आप मंत्र का जाप करते हैं। एक दूसरी विधि यह है कि आप किसी चीज़ का विश्लेषण करना शुरू कर दें, इसलिए आप किसी चीज़ को समझने का प्रयास करते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यदि आप सुडोकू जैसी किसी पहेली को सुलझाने या वैसा ही कोई दूसरा कार्य करें तो आप अपने चित्त को किसी ऐसे कार्य में लगा देते हैं जिसमें आपको अपनी बुद्धि को किसी प्रकार का विश्लेषण करने की आवश्यकता होती है। ऐसा करने से आपके मन में वह गीत गूँजना बंद हो जाएगा, और ऐसा होता भी है। या फिर गणित की किसी समस्या को हल करें। मन ही मन कुछ संख्याओं को जोड़कर देखें।

तीसरी विधि, जिसके बारे में हमें अनेक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है, श्वास पर ध्यान केंद्रित करने की होती है। इसलिए हमें अपने चित्त को शांत करने के लिए किसी ऐसी विधि का प्रयोग करने की आवश्यकता होती है जो हमारे चित्त को शांत करने में सहायक हो – यहाँ मैं इस बात पर बल देता हूँ कि अनेक प्रकार की विधियाँ हों ताकि यदि कोई एक विधि कारगर न हो, तो आप किसी दूसरी विधि को अपना सकें।

यह एक उपयोगी आरम्भिक अभ्यास है। उद्देश्यपूर्वक अपने चित्त को शांत करने के लिए प्रयास करने से पहले ही यदि हम अपने श्वास पर थोड़ा ध्यान केंद्रित करें और फिर यदि मानसिक भटकन समाप्त हो जाए और असम्बद्ध विचार नियंत्रित हो जाएं तो उस अभ्यास को बंद कर दें। ऐसा करके देखिए।

यहाँ मैं ध्यानसाधना की कुछ सामान्य विधियों का भी उल्लेख करना चाहूँगा कि यदि हम निरुत्साहित महसूस कर रहे हों और हमें किसी व्यक्ति के साथ व्यवहार करना हो तो ऐसी स्थिति में किसी उज्ज्वल प्रकाश की कल्पना करना उपयोगी होता है। ज़ाहिर है कि यदि हमारी दृष्टि के सामने कोई उज्ज्वल प्रकाश हो तो उससे हमारे चित्त को प्रेरणा मिलेगी – लेकिन यदि आप किसी तेज़ प्रकाश की कल्पना भी कर सकें, जो नीचे की ओर न होकर ऊपर की ओर उठा हुआ हो तो उससे ऊर्जा का स्तर उठता है – इससे भी चित्त में थोड़ी स्पष्टता आएगी, चित्त उतना मंद नहीं होगा।

अप्रमाद के भाव को विकसित करने के लिए वास्तविक अभ्यास

यहाँ हम किसी एक चित्र को देखते हैं और यदि कोई और विचार हों, शाब्दिक विचार, कोई धारणा आदि उत्पन्न हो रही हों, तो उन्हें छोड़ देते हैं। इसके बाद हम इस प्रकार से विचार करते हैं:

  • तुम एक मनुष्य हो और तुम्हारी भी भावनाएं हैं।
  • तुम एक मनुष्य हो और मेरी तरह तुम्हारी भी भावनाएं हैं।
  • तुम्हारी मनःस्थिति हमारे बीच परस्पर व्यवहार को उसी प्रकार प्रभावित करेगी जैसे मेरी मनःस्थिति हमारे बीच के व्यवहार को प्रभावित करेगी।
  • मैं तुम्हारे बारे में कोई कहानी-किस्से नहीं गढ़ूँगा, या अपने मन में तुम्हारे बारे में कोई झूठ नहीं गढ़ूँगा।
  • तुम एक मनुष्य हो और मेरी ही तरह तुम्हारी भी भावनाएं हैं।
  • तुम्हारी मनःस्थिति हमारे बीच के परस्पर व्यवहार को उसी प्रकार प्रभावित करेगी जैसे मेरी मनःस्थिति हमारे बीच के व्यवहार को प्रभावित करेगी।
  • इसलिए मैं तुम्हारे साथ जैसा व्यवहार करूँगा और जो मैं कहूँगा वह तुम्हारी भावनाओं को और अधिक प्रभावित करेगा।
  • इसलिए जिस प्रकार मैं यह आशा करता हूँ कि हमारे बीच के परस्पर संवाद में तुम मेरी और मेरी भावनाओं की परवाह करते हो, वैसे ही मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ। मुझे तुम्हारी भावनाओं की परवाह है।
  • मैं तुम्हारे बारे में अपने मन में कोई आलोचनात्मक राय नहीं बनाऊँगा।
  • तुम एक मनुष्य हो और तुम्हारी भी भावनाएं हैं।
  • मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ, तुम्हारी भावनाओं की परवाह करता हूँ।

इसके बाद हम अपनी नज़र चित्र से हटा लेते हैं और नीचे की ओर देखते हैं और उस अनुभूति से उत्पन्न भावना को शांत होने देते हैं।

सचेतनता के बोध को बनाए रखना

यदि आपका चित्त हमेशा भटकता रहता है या इधर-उधर उड़ता रहता है, तो प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है? यह एक दिलचस्प प्रश्न है जिसका उत्तर आपको अपने भीतर तलाश करना चाहिए। ऐसा इसलिए हो सकता है कि आपका चित्त जिस चीज़ की ओर आकृष्ट होता है वह आपको बहुत आकर्षक लगती हो, आप उससे बहुत लगाव रखते हों; उदाहरण के लिए आप किसी प्रियजन के बारे में या ऐसे ही किसी व्यक्ति के बारे में विचार करते हों।

हो सकता है कि आप किसी बात को लेकर चिंतित हों, लेकिन ऐसा भय या किसी व्यक्ति से वास्तविक मुलाकात के कारण असुविधा की वजह से भी हो सकता है और उस स्थिति में चित्त उस विषय से हटकर दूर चला जाता है। यदि हम मानसिक भटकन से प्रभावित हों और विशेषतः यदि ऐसा मन की चंचलता के कारण होता है, यानी चित्त किसी ऐसे लक्ष्य की ओर खिंच जाता है जिससे आपको आसक्ति हो, तब सचमुच हमें जाँच करने की आवश्यकता है कि ऐसा क्यों होता है। ऐसा वास्तव में किस कारण से हो रहा है? ऐसा करना इसलिए महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इससे बहुत व्यवधान होता है, केवल हमारे परस्पर सम्बंधों में ही नहीं, बल्कि हमारे कामकाज में, हमारे दैनिक जीवन में भी व्यवधान उत्पन्न होता है। बौद्ध धर्म में सामान्यतया समस्या का पता लगाया जाता है और फिर उसके कारणों को मालूम करके उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाता है।

जैसाकि हम कह चुके हैं, यह एक बहुत ही तर्कपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें सचेतनता को बनाए रखा जाता है, जो किसी गोंद की भांति चित्त को ध्यान के लक्ष्य पर जमाए रखती है, जिसमें यदि आप उस लक्ष्य को भूलने लगें या आपका चित्त भटकने लगे तो आप अपने आपको उसका स्मरण कराते रहते हैं, “वापस लौटो, वापस लौटो।“ इस बात पर ध्यान दें कि सामने वाला व्यक्ति क्या कह रहा है; वह भी एक मनुष्य है। वह नहीं चाहता है कि उसकी अनदेखी की जाए, ठीक वैसे ही जैसे मैं नहीं चाहता हूँ कि मेरी अनदेखी की जाए।

दूसरों के बारे में अपनी दिलचस्पी को बढ़ाना

जब आप किसी व्यक्ति से बात कर रहे हों और कोई ऐसी बात समझा रहे हों जो आपकी दृष्टि में महत्वपूर्ण है, और जब आप कुछ वाक्य बोल चुके हों उसके बाद वह व्यक्ति कहे, “हुँ? क्या? आपने क्या कहा? मैं आपकी बात सुन नहीं रहा था,” तो आपको बहुत बुरा लगता है। हाँ, उस व्यक्ति की भी भावनाएं हैं और उसे भी तब बहुत बुरा लगता है जब हम उसकी बात को इसलिए ध्यानपूर्वक न सुन रहे हों क्योंकि हमें उसकी बात दिलचस्प नहीं लग रही होती है। ऐसी स्थिति में हमें अपने आपको यह स्मरण कराने से अपने ध्यान को विषय पर वापस लाने और केंद्रित करने में मदद मिलती है, “तुम्हारी भी भावनाएं हैं, ठीक वैसे ही जैसे मेरी भावनाएं हैं।“ यही संवेदनशीलता के इस अभ्यास का मर्म है।

ऐसी स्थिति में हमें अपनी रुचि को बढ़ाने की आवश्यकता होती है। मैं दूसरे व्यक्ति और उसके द्वारा कही जा रही बात में रुचि प्रदर्शित करता हूँ, फिर भले ही निष्पक्ष भाव उसके द्वारा कही जा रही बात उबाऊ और मूर्खतापूर्ण ही क्यों न हो। लेकिन, जब दूसरे लोग हमसे बात कर रहे होते हैं तब उनकी मंशा यह नहीं होती है, “मैं तुम्हें कोई ऐसी बात कहने जा रहा हूँ जो सचमुच बहुत उबाऊ होगी और तुम्हारे मन में ऊब उत्पन्न करेगी।“ वह व्यक्ति अपने द्वारा कही जाने वाली बात के बारे में ऐसी राय नहीं रखता है, क्या ऐसा होता है?

कल्पना कर लेने के कारण उत्पन्न होने वाली समस्या

अपने चित्त को शांत करने के प्रयास में एक और समस्या इस कारण से उत्पन्न होती है कि हम दूसरे लोगों के बारे में पूर्वधारणाएं बना लेते हैं। एक सबसे परेशान करने वाली समस्या किसी व्यक्ति के बारे में यह कल्पना कर लेना है कि वह व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की भांति व्यवहार करेगा। ऐसा सबसे अधिक उन व्यक्तिगत सम्बंधों में देखा जा सकता है जहाँ आप किसी दूसरे व्यक्ति के साथ सम्बंध में होते हैं जैसे आप किसी महिला मित्र या पुरुष मित्र के साथ सम्बंध में हो सकते हैं, और उस व्यक्ति के साथ आपका सम्बंध विच्छेद हो जाता है और आप किसी दूसरे व्यक्ति से मित्रता कर लेते हैं। आप उस व्यक्ति के बारे में यह कल्पना कर लेते हैं कि वह व्यक्ति आपके साथ पहले वाले मित्र की भांति ही व्यवहार करेगा, और आपको छोड़ देगा या वैसा ही कुछ करेगा। या फिर आप कल्पना कर लेते हैं कि इस व्यक्ति में भी वैसे ही गुण होंगे जो पिछले मित्र में थे और उसकी पसंद-नापसंद भी वैसी ही होगी, और इस प्रकार आप इस व्यक्ति से नहीं जुड़ रहे होते हैं, बल्कि आप उस व्यक्ति पर किसी और व्यक्ति की कल्पना को आरोपित करके उसके साथ जुड़ रहे होते हैं।

यह एक बहुत ही आम बात है, खास तौर पर उन लोगों के मामले में जिनके साथ बुरा व्यवहार किया गया हो या जिनके साथ दूसरों ने दुर्व्यवहार किया हो और फिर उस प्रकार के व्यवहार की कल्पना को दूसरे लोगों पर आरोपित कर लेते हैं, जोकि पूरी तरह से अनुचित है।

यह चित्त को शांत करने की एक उपश्रेणी है, “मैं तुम्हारे इतिहास के बारे में कहानी-किस्से नहीं गढ़ूँगा और ऐसी पुरानी बातें नहीं उठाऊंगा जो इस समय अप्रासंगिक हैं। लेकिन साथ ही मैं तुम्हारे ऊपर दूसरों से सम्बंधिक कहानी-किस्से भी आरोपित नहीं करूँगा। मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी वर्तमान स्थिति के आधार पर व्यवहार करूँगा।“ और यह नहीं कहूँगा, “तीस साल पहले तुमने मुझसे ऐसा-ऐसा कहा था,” मानो आप अभी भी वहीं के वहीं हों; ऐसा नहीं है। या, “तीस साल पहले किसी ने मेरा साथ छोड़ दिया था और अब तुम भी मुझे छोड़ दोगे।“ यह तो वर्तमान में जीने वाली बात नहीं हुई।

किसी व्यक्ति को किस प्रकार से देखें

चित्त को शांत करने की प्रक्रिया के अगले चरण में हम एक गोल घेरे में बैठते हैं और चित्त को शांत रखते हुए एक-दूसरे को देखने का प्रयास करते हैं। चित्रों के देखने की तुलना में यह करना कहीं अधिक चुनौती भरा होता है।

यहाँ हमें जिन बातों का ध्यान रखने की आवश्यकता होती है उनमें सबसे पहली बात यह है कि हम एक-दूसरे को ऐसे न घूर रहे हों जैसे हम किसी चिड़ियाघर में हों और दूसरे जानवरों को देख रहे हों। आप किसी चिड़ियाघर में नहीं हैं! इसके अलावा, घबराहट का भी ध्यान रखना चाहिए। घबराहट हँसी के रूप में प्रकट हो सकती है। आप किसी प्रकार की असुविधा महसूस करते हैं, और उसकी भरपाई करने का एक माध्यम घबराहट भरी हँसी के रूप में होता है, जोकि सामान्य मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, और कुछ समूहों में ऐसा निश्चित तौर पर होता है, खास तौर पर तब जब पहली-पहली बार इसका अभ्यास किया जा रहा हो। इसलिए हम प्रयास करते हैं कि हम कुत्तों के उस समूह की तरह व्यवहार न करें जहाँ यदि एक कुत्ता भौंकना शुरू कर दे तो बाकी के सभी कुत्ते भी भौंकना शुरू कर देते हैं। कोशिश करें कि आप उस हँसी में शामिल न हों, इसका प्रभाव एक से दूसरों तक फैल सकता है। बस संयत रहें।

समूह में कुछ ऐसे लोग होंगे जो असहज महसूस करेंगे और नीचे की ओर देखेंगे या दूसरों को न देखकर अपनी आँखें बंद कर लेंगे। यदि दूसरों की ओर देखते हुए आपको सचमुच असहज महसूस होता है, तो फिर उन्हें न देखें। और ऐसा भी न करें कि आप किसी एक व्यक्ति को ही घूरते रहें; इससे दूसरे व्यक्ति को भी असुविधा होगी। जब आपकी नज़र दूसरों पर पड़े तब अपने चित्त को शांत बनाए रखें।

एक और बात: जब आप किसी समूह में इस अभ्यास को करें तो ऐसा नहीं करना चाहिए कि आप हर व्यक्ति की आँखों में गहराई से देखें, खास तौर पर जब समूह के दो व्यक्ति एक दूसरे से परिचित हों। जब आप अपने आसपास देख रहे हों और आपकी नज़र किसी दूसरे व्यक्ति से मिल जाए तो उस व्यक्ति को घूरने में ही उलझ कर न रह जाएं, बस देखें भर। घूरना बहुत ही, इस शब्द के प्रयोग के लिए मुझे क्षमा करें, प्रलोभनकारी हो सकता है; आप उस व्यक्ति को देखते रहने में ही खो जाते हैं और वह व्यक्ति आपको देखता रहता है। याद रखें कि यह कोई एकाग्रचित्तता का अभ्यास नहीं है जहाँ किसी एक व्यक्ति पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, बल्कि यह अभ्यास तो मात्र किसी समूह में शामिल हो के योग्य बनने और समूह के सदस्यों के बारे में टिप्पणियाँ किए बिना उन्हें देखने का अभ्यास है। इसका उद्देश्य तो बस सभी के प्रति उदारचित्त बने रहना है।

जब आप आमने-सामने किसी व्यक्ति से साथ इस अभ्यास को करते हैं, जैसे हम किसी व्यक्ति से बात करते हैं, तो हमें एक-दूसरे की ओर किस प्रकार देखना चाहिए? यह एक बड़ा दिलचस्प प्रश्न है। जब आप किसी व्यक्ति के साथ होते हैं और उससे बात कर रहे होते हैं, उस समय यदि आप उस व्यक्ति की आँखों में घूर कर देखें और वह व्यक्ति भी आपकी आँखों में घूरकर देखे, तो आप एक प्रकार से खो जाते हैं। आपका ध्यान खो जाता है और आपके बीच का संवाद रुक जाता है। वहीं दूसरी ओर यदि आप किसी व्यक्ति से बात कर रहे हों और जब वह व्यक्ति के आपके पास हो लेकिन आप और कहीं देख रहे हों और उस व्यक्ति की ओर देखें ही नहीं, यह स्थिति बहुत असहज होती है। “अरे! मैं यहाँ हूँ, मैं वहाँ नहीं हूँ।“ दरअसल ऐसा संतुलन कायम कर पाना आसान नहीं होता है जहाँ आप उस व्यक्ति को देख रहे हों लेकिन उसे घूर न रहे हों और उस प्रक्रिया में अटक कर न रह जाएं। यदि आप इसका विश्लेषण करना शुरू करें तो यह बात उस व्यक्ति के साथ आपके सम्बंध पर निर्भर करती है। यदि आपके मन में उस व्यक्ति को पाने की बहुत लालसा हो तो इस बात की सम्भावना होती है कि आप “अरे, मुझे प्रेम हो गया है” जैसी स्थिति में खो कर रह जाएं।

यहाँ गुस्से का भाव भी हो सकता है, “गुर्र...” और आप अपने चेहरे पर कठोरता का भाव लिए उस व्यक्ति को घूर रहे होते हैं, “मैं सचमुच तुमसे बहुत नाराज़ हूँ।“ जब आपके मन में उस व्यक्ति के प्रति अप्रमाद का भाव होता है और आप अधिक सहज और उदार होते हैं तो आप उसकी ओर देखते हैं, उसे घूरते नहीं हैं। आप उससे बात करते हुए उसकी आँखों में देख सकते हैं क्योंकि आप सहज होते हैं और उस व्यक्ति की परवाह करते हैं, आप चिंतित नहीं होते हैं। आप अतिसंवेदनशील नहीं होते हैं, चिंतित नहीं होते हैं कि वह व्यक्ति आपको अस्वीकार कर देगा, कि वह आपको पसंद नहीं करेगा। आप केवल “मैं, मैं, मैं,” के बारे में या “लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” के बारे में चिंतित नहीं होते हैं। चूँकि आप सहज होते हैं इसलिए आप दूसरे व्यक्ति की आखों में उलझ कर नहीं रह जाते हैं।

कठिनाई तब होती है जब दोनों लोग विकास के समान स्तर पर नहीं होते हैं। यदि कोई एक व्यक्ति, मान लीजिए कि आप – सहज हैं, लेकिन दूसरा व्यक्ति आपकी ओर न देख रहा हो, बल्कि आपसे बात करते समय दीवार की तरफ देख रहा हो। मेरे ग्रेजुएशन के अध्ययन के समय मेरे एक प्रोफेसर थे जो ऐसे ही थे, और वे मेरे सलाहकार थे। जब भी मैं उनसे बात करता था, तो वे कभी भी मेरी तरफ नहीं देखते थे। वे जापानी थे और सम्भवतः उनका ऐसा व्यवहार सम्भवतः सांस्कृतिक कारणों की वजह से था, लेकिन उससे मुझे असुविधा तो होती ही थी।

इसकी दूसरी अतिशय स्थिति वह होती है जब आप किसी व्यक्ति से बात कर रहे हों और वह व्यक्ति इतना प्रचंड हो, आपके इतना अधिक निकट हो कि आपको यह खयाल आने लगे कि वह अपनी उंगली से आपकी आँख फोड़ देगा या वैसा ही कुछ कर देगा। ऐसे लोग आवश्यकता से अधिक प्रचंड होते हैं और उससे भी हमें असुविधा होती है। बात यह है कि जब हम वैसी स्थिति में होते हैं और दूसरा व्यक्ति इस प्रकार से असंतुलित हो तह भी हमें सहज बने रहने का प्रयास करना चाहिए और अपने संतुलन को बिगड़ने नहीं देना चाहिए। ऐसा कर पाना बहुत कठिन होता है। तब आपको समझना होगा, “तुम भी एक मनुष्य हो और तुम्हारी भी अपनी समस्याएं हैं,” आदि। इसके बारे में चर्चा “सौहार्द और समझबूझ में संतुलन कायम करना” के एक अन्य अभ्यास में की जाएगी।

धीरे-धीरे पकड़ को छोड़ना

शुरू-शुरू में जब आप गोल घेरे में बैठे हुए लोगों को देखेंगे तो विचार, धारणाएं और कहानी-किस्से अपने आप ही उत्पन्न होने लगेंगे, लेकिन जैसे-जैसे आप अभ्यास करते चले जाएंगे, आपको यह स्मरण होना शुरू हो जाएगा कि आपको उन पर से अपनी पकड़ को छोड़ना है। धीरे-धीरे आप जिन लोगों को देख रहे होते हैं, उनके बारे में कहानी-किस्सों और मानसिक विचारों को छोड़ते चले जाते हैं। एक बार जब हम इस साधना के थोड़े अभ्यस्त हो जाते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे दैनिक जीवन में भी ऐसा घटित होने लगा है। जब आप किसी व्यक्ति को देखेंगे तो शुरुआत में ऐसा विचार उत्पन्न होगा, “अरे, कितना सुंदर है,” या “इस व्यक्ति ने कितनी खराब पोशाक पहनी है,” या इसी तरह के विचार उत्पन्न होंगे। ये विचार किसी न किसी टिप्पणी के रूप में होंगे जो सामान्यतः आलोचनात्मक होगी, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इन विचारों को खारिज कर दिया जाए। यह ध्यान देना दिलचस्प होगा कि किस प्रकार के लोगों को देखकर दूसरों की अपेक्षा आलोचनात्मक विचार अधिक उत्पन्न होते हैं।

मैंने हाल में अपने आहार को बहुत सख्ती से नियंत्रित किया है और लगभग 14 किलो वजन घटाया है। मैंने पाया है कि जब मैं अपनी टिप्पणियों पर ध्यान देता हूँ तो पाता हूँ सड़क पर मोटे लोगों को देखने पर सबसे अधिक टिप्पणियाँ होती हैं। “वह व्यक्ति कितना मोटा है...” क्यों? क्योंकि मैं अपने भीतर इसी बात से जूझ रहा था, कि मैं अपने बढ़े हुए वजन से छुटकारा पा सकूँ। और फिर आप उस छवि को दूसरे व्यक्ति पर आरोपित कर लेते हैं, और जो बात अपने बारे में जानकर आपको नाराजगी होती है उसी बात को दूसरे लोगों में प्रतिबिंबित होते हुए देखकर भी नाराजगी होगी।

दूसरों का विश्लेषण करना और निष्कर्ष निकालना

कुछ लोग जब दूसरों को देखते हैं तो वे अपने आंतरिक डाटाबेस के आधार पर यह पहचान करने का प्रयास करते हैं कि वह व्यक्ति कैसा है। यह आलोचनात्मक नहीं होता है और हो सकता है कि ऐसा करने के पीछे की उनकी मंशा बहुत अच्छी होती हो, लेकिन फिर भी इस प्रवृत्ति के कारण लोग विचारवान मनुष्य होने के बजाए वस्तुओं के जैसे अधिक महसूस होने लगते हैं।

हो सकता है कि हम इस दृष्टि से लोगों का डाटाबेस जैसा विश्लेषण करते हों कि हम ठीक से समझ पाएं कि उनके साथ कैसा व्यवहार करना है। लेकिन, इसका सही विश्लेषण कर पाने के लिए, जिसके लिए हम बाद की साधनाओं में अभ्यास करेंगे, हमें पाँच प्रकार के गहन बोध की आवश्यकता होती है। इन पाँच प्रकार के गहन बोध की सहायता से हम जानकारी को ग्रहण करते हैं और पैटर्न्स आदि को समझ पाते हैं। दूसरों के साथ हमारे संवाद के लिए यह आवश्यक होता है। इसकी एक पूर्व शर्त यह होती है कि हम तब तक कोई राय कायम न करें जब तक कि हमें सही विश्लेषण करने के लिए पर्याप्त जानकारी न मिल जाए। और हम समय से पहले निष्कर्ष नहीं निकालते हैं।

उदाहरण के लिए, “मैं इस व्यक्ति को देखता हूँ; वह बहुत मोटा है। वह अपना खयाल नहीं रखता है।“ और फिर मैं उस व्यक्ति को ठीक प्रकार से जाने बिना ही तरह-तरह के निष्कर्ष निकाल लेता हूँ। मेरे मन में जो तुलना आती है वह या तो कम्प्यूटर डेटिंग की या फेसबुक के स्तर वाले परस्पर संवाद की है, जहाँ आप किसी व्यक्ति का मूल्यांकन उस वास्तविक व्यक्ति को जानने के बजाए केवल फेसबुक पर पढ़े हुए उसके प्रोफाइल के आधार पर कर लेते हैं। यहाँ भी आप या तो किसी सतही छवि के आधार पर या फिर किसी सामान्य गुण के आधार पर जल्दबाज़ी में निष्कर्ष निकाल लेते हैं। यह जानकारी केवल उस व्यक्ति द्वारा भरे गए किसी फॉर्म में दी गई सूचना पर आधारित होती है।

चित्त को शांत करने का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि हम दूसरे व्यक्ति की वास्तविकता के प्रति उदार दृष्टिकोण रख सकें। यदि वह व्यक्ति पूरी तरह से अल्पभाषी हो, जैसे आप कोई चिकित्सक हों और किसी ऐसे व्यक्ति का उपचार कर रहे हों जो अपने आप में पूरी तरह से कैद हो, तो मैंने ऐसे चिकित्सकों को भी देखा है जो उस व्यक्ति के साथ संवाद कहाँ से शुरू किया जाए यह समझने के लिए अंकविद्या या ज्योतिषशास्त्र आदि का सहारा लेते हैं। लेकिन यदि हम उस प्रकार की स्थिति में न हों तो केवल उस व्यक्ति की फेसबुक प्रोफाइल को देखकर उसके बारे में राय कायम कर लेना बहुत ही सतही होगा। अक्सर यह राय उस छवि पर आधारित होती है जिसे वह व्यक्ति प्रदर्शित करना चाहता है, लेकिन यह छवि बहुत प्रामाणिक नहीं होती है।

अप्रमादयुक्त शांत चित्त

अब हम इसमें “अप्रमाद भाव” वाले समूह के लोगों को देखने के “शांत चित्त” वाले अभ्यास को जोड़ देते हैं। इस अभ्यास में हम अपने ध्यान को एक-एक करके समूह के प्रत्येक व्यक्ति पर केंद्रित करते हैं, लेकिन किसी ऐसे व्यक्ति के साथ यह अभ्यास न करें जो पलट कर आपके ऊपर ध्यान केंद्रित कर रहा हो, क्योंकि तब यह स्थिति थोड़ी असहज हो जाती है। यह अभ्यास अगले चरण में किया जाएगा जब आप आमने-सामने बैठ कर अभ्यास करेंगे।

इस अभ्यास में हम गोल घेरे में बैठे प्रत्येक व्यक्ति को शांत चित्त के साथ देखते हैं। और फिर अप्रमाद का भाव विकसित करने वाले हर चरण के साथ, जैसे “तुम एक मनुष्य हो और मेरी ही तरह तुम्हारी भी भावनाएं हैं” हम पहले एक व्यक्ति को इस बोध के साथ देखते हैं और फिर अगले व्यक्ति को देखते हुए घेरे में आगे बढ़ते जाते हैं। “तुम एक मनुष्य हो और मेरी ही तरह तुम्हारी भी भावनाएं हैं। और तुम भी एक मनुष्य हो और तुम भी मनुष्य हो और तुम एक मनुष्य हो।“ इस प्रकार हम प्रत्येक प्रमुख बिंदु को ध्यान में रखते हुए गोल घेरे में सभी को देखते चले जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति के प्रति हम अप्रमाद का भाव विकसित कर लेते हैं।

पहले तो हम नीचे की ओर देख कर श्वास पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपने चित्त को शांत करते हैं। यह प्रत्येक अभ्यास में प्रवेश करने के प्रवेशद्वार जैसा होता है और जैसे-जैसे इस अभ्यास की भावनात्मक अनुभूति स्थिर होती जाती है, अभ्यास के निकास द्वारा के रूप में भी कार्य करता है। इन साधनाओं का अभ्यास करने का यह एक अपेक्षाकृत अधिक सौम्य तरीका है।

इसके बाद हम नजरें ऊपर उठाते हैं और चित्त को शांत रखते हुए गोल घेरे में बैठे समूह के लोगों को देखते हैं,

  • मैं अपने मन में तुम्हारे बारे में किस्से-कहानियाँ नहीं गढ़ूँगा; मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा; मैं कोई आलोचनात्मक निष्कर्ष नहीं निकालूँगा।
  • तुम एक मनुष्य हो और मेरी ही तरह तुम्हारी भी भावनाएं हैं।
  • तुम वास्तव में एक मनुष्य हो और तुम्हारी भावनाएं हैं; मेरी ही तरह तुम्हारी भावनाएं वास्तविक हैं।
  • कोई किस्सा-कहानी या टीका-टिप्पणी नहीं।
  • तुम्हारी मनःस्थिति हमारे बीच के संवाद को उसी प्रकार प्रभावित करेगी जैसे मेरी मनःस्थिति उसे प्रभावित करेगी।
  • मैं तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करूँगा या तुमसे कैसे वचन कहूँगा वह तुम्हारी भावनाओं को और अधिक प्रभावित करेगा।
  • इसलिए जैसे मैं यह आशा करता हूँ कि हमारे बीच के संवाद में तुम मेरी और मेरी भावनाओं की परवाह करोगे, उसी तरह मैं भी तुम्हारी परवाह करता हूँ। मैं तुम्हारी भावनाओं की परवाह करता हूँ।
  • मैं तुम्हारे बारे में न तो कोई किस्सा-कहानी गढ़ूँगा और न ही दूसरों को सुनाऊँगा।
  • तुम मनुष्य हो और तुम्हारी भावनाएं हैं।
  • मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ, मैं तुम्हारी भावनाओं की परवाह करता हूँ।

ये ऐसे संकेतशब्द हैं जिन्हें हम स्वयं अपने चित्त में दोहराते रह सकते हैं, आवश्यक नहीं है कि आप मुझे कहते हुए सुनें, “मैं तुम्हारे बारे में कोई कहानी-किस्सा नहीं गढ़ूँगा और न ही दूसरों को सुनाऊँगा। तुम मनुष्य हो और तुम्हारी भी भावनाएं हैं। मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ। मैं परवाह करता हूँ।“

ठीक है, अब इस अनुभूति को स्थिर हो जाने दें।

अलग-अलग प्रकार के लोगों के साथ अभ्यास करने के लाभ

कुछ लोगों को इस प्रकार से बहुत सारे लोगों के साथ ध्यान को केंद्रित करना कठिन होता है, इसलिए किसी छोटे समूह में अभ्यास करना अधिक आसान होगा। लेकिन किसी बड़े समूह में इस प्रकार का अप्रमाद का भाव उस समय उपयोगी होता है जब आपको किसी सभा को सम्बोधित करना हो। कुछ लोगों को ऐसा करने में बड़ी घबराहट और संकोच होता है। लेकिन यदि आप इस बात को समझ लें कि श्रोताओं में मौजूद प्रत्येक व्यक्ति मेरी ही तरह मनुष्य है, तो फिर घबराहट का कोई कारण नहीं रह जाता है।

मैं मानता हूँ कि किसी बस में या सब-वे कार में सवार लोगों के किसी बड़े समूह के लिए इस बात को समझना उपयोगी होता है कि उस वाहन में सवार प्रत्येक व्यक्ति एक मनुष्य है और उसकी भी भावनाएं हैं। लेकिन किसी समूह में अभ्यास की दृष्टि से अपेक्षाकृत छोटे समूह में ऐसा अभ्यास करना आसान होता है। लेकिन मिले-जुले प्रकार के लोगों के समूह में यह लाभ होता है कि हो सकता है कि समूह में कुछ लोग आपके परिचित हों और कुछ लोग अजनबी हों, और यह उपयोगी रहता है। जब हम चित्रों के साथ इस अभ्यास को करते हैं तो इस अभ्यास को श्रृंखलाबद्ध ढंग से करते हैं, केवल किसी पत्रिका से लिए गए अजनबी लोगों के चित्रों के साथ ही नहीं करते हैं। सबसे पहले हम ऐसे लोगों के चित्रों के साथ अभ्यास करते हैं जिन्हें हम नहीं जानते हैं, लेकिन फिर आपके पास कुछ ऐसे लोगों के निजी चित्र भी होते हैं जिन्हें आप जानते हैं, जिनके साथ आपके अच्छे सम्बंध होते हैं, कुछ ऐसे लोगों के चित्र होते हैं जिनसे केवल परिचय होता है – आप उन्हें जानते तो हैं लेकिन बहुत अच्छी तरह से नहीं – और कुछ ऐसे लोगों के चित्र होते हैं जिन्हें आप पसंद नहीं करते हैं। फिर आप इन तीनों प्रकार के लोगों के चित्रों को अपने सामने रखकर उन तीनों के प्रति समान रूप से शांत चित्त और समान रूप से अप्रमाद का भाव विकसित करने का प्रयास करते हैं। यह अभ्यास कहीं अधिक चुनौती भरा होता है, लेकिन यह अभ्यास करना बहुत लाभप्रद होता है।

किसी दर्पण की सहायता से स्वयं अपने प्रति अप्रमाद का भाव विकसित करने का अभ्यास करना

स्वयं अपने प्रति शांत चित्त और अप्रमाद का भाव विकसित करने के लिए हम स्वयं को किसी दर्पण में देखते हुए अभ्यास कर सकते हैं। दर्पण इतना बड़ा होना चाहिए कि उसमें हम अपना पूरा चेहरा देख सकें, केवल अपनी नाक भर नहीं! लेकिन यहाँ हमारे पास दीवार पर लगा एक विशाल दर्पण है जो पूरी दीवार पर लगा है ताकि हम सभी उसके सामने बैठ सकें और एक समूह के भाग के रूप में स्वयं अपने प्रति इन दृष्टिकोणों को लक्षित कर सकें। सबसे पहले तो हम श्वास पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपने चित्त को शांत करते हैं। इसके बाद हम दर्पण में अपने आप को और फिर पूरे समूह को एक शांत चित्त के साथ और अप्रमाद के भाव के साथ देखते हैं।

  • मैं स्वयं अपने बारे में किसी प्रकार की आलोचनात्मक टिप्पणियाँ नहीं करूँगा, और न ही किसी प्रकार के किस्से-कहानियाँ गढ़ूँगा, बस शांत रहूँगा।
  • मैं एक मनुष्य हूँ और मेरी भी भावनाएं हैं ठीक वैसे ही जैसे दूसरे सभी लोगों की होती हैं।
  • मैं अपने बारे में जो दृष्टिकोण रखता हूँ या अपने प्रति जैसा व्यवहार करता हूँ वह मेरी भावनाओं को प्रभावित करता है।
  • मैं अपने बारे में जो दृष्टिकोण रखता हूँ या अपने प्रति जैसा व्यवहार करता हूँ वह मेरी भावनाओं को उसी प्रकार प्रभावित करता है जैसे मेरे प्रति दूसरों का दृष्टिकोण और व्यवहार मेरी भावनाओं को प्रभावित करता है।
  • इसलिए जैसे मैं आशा करता हूँ कि हमारे परस्पर व्यवहार में दूसरे लोग मेरी और मेरी भावनाओं की परवाह करें, वैसे ही मैं अपनी परवाह करता हूँ।
  • मैं अपनी भावनाओं की परवाह करता हूँ।
  • मैं स्वयं अपने प्रति अपनी भावनाओं की परवाह करता हूँ।
  • मैं इस बात की परवाह करता हूँ कि मैं अपने प्रति कैसा व्यवहार करता हूँ।
  • मैं स्वयं अपने बारे में न तो किस्से-कहानियाँ गढ़ूँगा और न ही दूसरों को सुनाऊँगा।
  • मैं अपनी परवाह करता हूँ।
  • दर्पण में दिखाई देने वाले दूसरे प्रत्येक व्यक्ति की ही तरह मैं भी एक मनुष्य हूँ।
  • मैं दूसरों से अलग नहीं हूँ, बस एक मनुष्य हूँ, एंटार्कटिक में पेंग्विन पक्षियों के समूह में शामिल किसी एक पेंग्विन पक्षी की तरह।
  • मैं भी एक व्यक्ति ही हूँ।
  • जैसे मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ, वैसे ही मैं अपनी भी परवाह करता हूँ।
  • जिस तरह तुम्हारी भावनाएं हैं वैसे ही मेरी भी भावनाएं हैं।
  • मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ, मैं स्वयं अपनी परवाह करता हूँ।
  • स्वयं के और दूसरों के बीच संतुलन।

इसके बाद हम दृष्टि को नीचे की ओर झुका लेते हैं और उस अनुभूति को स्थिर होने देते हैं।

अगला चरण: दूसरों के साथ सकारात्मक परस्पर-क्रिया

जब हम शांत चित्त और दूसरों का खयाल रखने वाला हृदय विकसित करने का यह अभ्यास करते हैं तो केवल इतना भर कर लेना काफी नहीं होता है। ये तो वे पाये हैं जिन पर पूरी अभ्यास साधना टिकेगी। इस प्रकार हम स्वयं को इस दृष्टि से विकसित करते हैं कि हम दूसरों के साथ वास्तव में किस प्रकार का व्यवहार करेंगे। इसका अगला चरण दूसरों के साथ संतुलित और संवेदनशील ढंग से व्यवहार करने का होता है। यहाँ लक्ष्य केवल इतना भर नहीं है कि हम दूसरों को गैर-आलोचनात्मक और खयाल रखने के भाव से देख सकें। यह तो केवल शुरुआत है।

दूसरों के साथ हमारा परस्पर व्यवहार कई स्तरों पर हो सकता है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि आप किसी भीड़ भरी बस में या भीड़भाड़ वाली सब-वे कार में सवार हैं। वाहन में बहुत सारे लोग सवार हैं। तब हमें कैसा महसूस होता है? हो सकता है कि हम केवल “मैं, मैं, मैं; मेरे आसपास इतने सारे गंदे, पसीनेदार, बदबूदार लोग हैं,” के बारे में सोच रहे हों और स्वयं को बहुत असुविधाजनक स्थिति में महसूस कर रहे हों। इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने से सफर का अनुभव बहुत अरुचिकर हो जाता है। या हम सोचते हैं, “मैं ऐसा मान लूँगा कि इन सब लोगों का अस्तित्व ही नहीं है और मैं अपने आपको अपने आई-पॉड के संगीत में डुबो लूँगा। यदि मैं अपने हाथ को थोड़ा हिला-डुला सका तो मैं अपने फोन पर कोई गेम खेल लूँगा।“

एक प्रकार से हम स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए अपने आस-पास दीवारें खड़ी कर रहे होते हैं, जोकि दरअसल बहुत ही असुरक्षित होने का भाव होता है। हम असुरक्षा से अपना बचाव कर रहे होते हैं। या फिर हम यह खयाल रखने का भाव विकसित कर सकते हैं कि इस बस या सब-वे कार में सवार प्रत्येक व्यक्ति एक मनुष्य है, हर किसी की अपनी भावनाएं हैं, दूसरे सभी लोगों को भी भीड़ से असुविधा हो रही है। इस साझा अनुभूति के कारण हम स्वयं को दूसरों के साथ जुड़ा हुआ महसूस करते हैं, और हालाँकि इस प्रकार की भीड़-भाड़ का अनुभव अरुचिकर होता है, फिर भी दूसरों से जुड़े होने का भाव हमारे हृदय में स्नेह का भाव उत्पन्न करता है। हम इस भाव के साथ स्वयं को सहज और आराम की स्थिति में अनुभव करते हैं कि इस परिस्थिति में हम सभी एक जैसे ही हैं, बजाए यह सोचने के कि “मैं, मैं, मैं, बेचारा मैं।“ इससे उस भीड़ भरी बस की यात्रा का हमारा अनुभव पूरी तरह से बदल जाता है।

यदि हम तनावमुक्त और आरामदायक स्थिति में हों तो हमारे चेहरे पर एक मुस्कान होती है। वह कोई ऐसी मूर्खतापूर्ण मुस्कान नहीं होती है जिसे देखकर लोग हमें पागल समझें, बल्कि एक निश्चिंत और आरामदायक स्थिति में होने की मुस्कान होती है जिससे हमारे आसापास भीड़ से जूझ रहे लोग भी थोड़ा तनावमुक्त महसूस करते हैं। “यह सफर आखिर इतना बुरा भी नहीं है।“

सारांश

दूसरों के प्रति और स्वयं अपने प्रति संतुलित संवेदनशीलता हासिल करने का अभ्यास हमारे दैनिक जीवन में बहुत ही उपयोगी साबित होगा। जब हम इस बात को समझ लेंगे कि दूसरा प्रत्येक व्यक्ति भी मनुष्य है और मेरी तरह उसकी भी भावनाएं हैं तो हम बहुत सी कठिनाइयों से बच सकते हैं। जब हम दूसरों की भावनाओं के प्रति आवश्यकता से अधिक या कम संवेदनशील नहीं होंगे तो हम उनका ध्यान रखते हुए उनके साथ व्यवहार कर सकेंगे। यही नियम इस बात पर भी लागू होता है कि हम स्वयं अपनी भावनाओं और हमारे व्यवहार से दूसरों पर पड़ने वाले प्रभाव के प्रति आवश्यकता से अधिक या कम संवेदनशील न हों। दूसरों के प्रति और स्वयं अपने प्रति गैर-आलोचनात्मक और अप्रमाद का भाव विकसित कर लेने से एक ऐसे भावनात्मक संतुलन की प्राप्ति का आधार तैयार होगा जो हमें अधिक संतोषप्रद और सार्थक जीवन जीने, और दूसरों की अधिक से अधिक भलाई करने के योग्य बनाएगा।

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