हमारे दैनिक जीवन में कर्म की प्रासंगिकता

कर्म-बोध

आज मैं हमारे दैनिक जीवन में कर्म की प्रासंगिकता के विषय में बोलूँगा| इसके लिए, आरम्भ में, हमें समझना होगा कि कर्म से क्या अभिप्रेत है| सामान्यतया इसकी दो व्याख्याएं हैं| एक यह कि कर्म से अभिप्राय उन बाध्यकारी आवेगों से है जो हमें विभिन्न प्रकार के कृत्यों की ओर खींचते हैं, चाहे वह शारीरिक हो, मौखिक रूप से कुछ कहना, अथवा मन में कुछ सोचना| दूसरी व्याख्या में भिन्न बात पर बल दिया गया है, शारीरिक एवं मौखिक कृत्यों के सम्बन्ध में| इस प्रकार के कृत्यों के लिए, कर्म हमारे शारीरिक क्रियाओं का बाध्यकारी रूप होते हैं, हमारे मौखिक कृत्यों की बाध्यकारी ध्वनि, तथा दोनों प्रकार के कृत्यों के साथ चलने वाली बाध्यकारी सूक्ष्म ऊर्जा हमारे मानसिक सातत्य में बाद में भी बराबर चलती रहती है| यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दोनों ही व्याख्याओं में कर्म अपने-आप में कृत्य नहीं है, बावजूद इस तथ्य के कि कर्म के लिए तिब्बती भाषा का शब्द बोल-चाल का शब्द है जिसका अर्थ होता है “कृत्य”|

एक बार जब कोई कृत्य इस बाध्यकारी कार्मिक शैली में किया जाता है, तो वह हमारे मानसिक सातत्य पर एक प्रकार का कार्मिक परिणाम छोड़ता है| इस समय हम ऐसे बहुचर्चित कृत्यों पर चर्चा करेंगे, सकारात्मक या नकारात्मक कार्मिक सम्भाव्यताएं तथा कार्मिक प्रवृत्तियां| इन दोनों के बीच मामूली सा अंतर है, परन्तु इस समय उनके तकनीकी ब्योरे में पड़ना आवश्यक नहीं| इन कार्मिक संभाव्यताओं और प्रवृत्तियों का एक पक्ष यह है कि पर्याप्त परिस्थितियां उपस्थित होने पर इनमें कोई प्रभाव या परिणाम उत्पन्न करने की क्षमता होती है| विशिष्ट पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो, जैसे कि एक फल, वह “पकता” है| 

कार्मिक सम्भाव्यताओं तथा प्रवृत्तियों से क्या परिपक्व होता है?

इन कार्मिक सम्भाव्यताओं तथा प्रवृत्तियों से अनेक प्रकार के परिणाम सामने आते हैं| इनमें सबसे सामान्य हैं हमारे अनुभव के प्रत्येक पल में सुख या दुःख की अनुभूति का कोई स्तर| यदि यह दुःख है, तो वह विनाशकारी व्यवहार का परिणाम है, और यदि यह सुख है, तो वह रचनात्मक व्यवहार का परिणाम है| 

इसके अतिरिक्त एक मनोभाव जागृत होता है अपने पिछले कृत्यों को दोहराना| कर्म प्रत्यक्ष रूप से कार्मिक परिणामों से परिपक्व नहीं होते| पहले एक भाव जागृत होता है, जैसे किसी पर चीखने-चिल्लाने या गले लगाने की अनुभूति| उस भावना के आधार पर, एक ललक उत्पन्न होगी उसे वास्तव में करने की जो हमें उस कृत्य की ओर ले जाती है| उस अनुभूति और आवेग में उल्लेखनीय भेद है| कुछ करने की भावना चाहना या इच्छा के समान है| परन्तु मेरे विचार में “भावना”, कम से कम अंग्रेजी में, चाहने या इच्छा करने की तुलना में किंचित अधिक विवरणपरक है| यह कम सायास है| हमें लगता है कि हमने जो पहले किया कुछ वैसा ही दोहराएं और हम चाहते हैं कि हम ऐसी स्थिति में पदार्पण करें जिसमें दूसरा व्यक्ति भी हमारे साथ कुछ वैसा ही करे| हालांकि, यह निश्चित रूप से हमारी कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों का परिणाम नहीं है कि दूसरा व्यक्ति हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा कि हमने किया था| अर्थात, क्योंकि वह उसकी कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों से जन्म लेगा हमारी से नहीं| हमारी ओर से केवल यही परिपक्व होगा कि हम वैसी स्थिति में हों, उस व्यक्ति से मिलना, इत्यादि| 

इस प्रसंग में विशेष रूप से हमारी कार्मिक सम्भाव्यताओं से एक अन्य वस्तु परिपक्व होती है, जो है वास्तविक जीव आकार, शरीर तथा हमारा मानसिक क्रियाकलाप| उदाहरण के लिए, हम भिन्न-भिन्न क्षमताओं का अनुभव करेंगे यदि हमारे पास कुत्ते का मस्तिष्क हो अथवा मनुष्य का मस्तिष्क हो| कार्मिक सम्भाव्यताएं वास्तव में मानसिक सातत्य को जन्म देती हैं, एक स्तनपायी जीव के रूप में जन्म लेने पर एक विशिष्ट माता-पिता के युग्म के शुक्राणु और अंडे से जुड़कर| इस रूप में हम जिस प्रकार के जीव आकार एवं शरीर को धारण करते हैं, वह इन कार्मिक कार्मिक सम्भाव्यताओं का प्रतिफल है|

इस जीवनकाल में कार्मिक परिपक्वता प्रायः पूर्व जन्म कालों के कृत्यों से जन्म लेती है|

जब हम अपने रोजमर्रा के जीवन को देखते हैं, तो हम सोचते हैं कि हमें सुख या दुःख की जो भी अनुभूतियां तथा अन्य भावनाएं होती हैं वह हमारे जीवन के पूर्व कृत्यों फलस्वरुप हमारी कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों की परिपक्वता हैं| परन्तु इस जीवनकाल में केवल कुछ ही प्रकार का कार्मिक व्यवहार हमारी सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों को परिपक्व करता है| इनमें अत्यंत उत्कट प्रेरणा से संचालित नकारात्मक और सकारात्मक व्यवहार शामिल है, विशेष रूप से यदि वे उन लोगों के प्रति है जो हमारे प्रति विशेष रूप से कृपालु रहे हैं, जैसे हमारे अध्यापक अथवा अभिभावक| इस जीवनकाल में अधिकांशतः जो परिपक्व होता है और जिसके परिपक्व होने की हमें अनुभूति होती है वह पूर्व जीवनकालों में किए गए कृत्यों से निर्मित कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों का प्रतिफल होता है|

यह बात समझना हममें से बहुत से लोगों के लिए अत्यंत कठिन होगा| क्योंकि पश्चिमवासी अर्थात हममें से अधिकांश पूर्व और भावी जीवनकालों के विषय में बिलकुल आश्वस्त नहीं हैं| वह एक बिलकुल अलग विषय है और, दुर्भाग्य से, इस समय यह अवसर नहीं है कि हम पूर्व और भावी जन्मों की जांच-पड़ताल करें और उनके विषय में आश्वस्त हों| फिर भी मैं सोचता हूँ कि पुनर्जन्म में विश्वास किए बिना कर्म सम्बन्धी चर्चा की हमारे जीवन के लिए अत्यंत प्रबल प्रासंगिकता है तथा हम अपने साथ होने वाली स्थितियों का कैसा सामना करें|

अपने बाध्यकारी व्यवहार के संबंध में एकाग्रता, सचेतनता तथा सविवेकी बोध विकसित करना 

हमारे जीवन में जो अनुभव होते हैं उनका सामना करने के लिए, हमें एकाग्रता विकसित करने की आवश्यकता है| एकाग्रता अथवा ध्यान देना, वह मानसिक कारक है जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के साथ हमारे मानसिक क्रिया-कलाप को जोड़ता है| वह वस्तु जिसका हम प्रतिपल अनुभव कर रहे हैं, उसे पश्चिमी समाज में “सचेतनता” कहते हैं| यद्यपि यह “सचेतनता” के मानसिक कारक का बौद्ध धर्मी अर्थ नहीं है| जब हम अपने वैचारिक और भावनात्मक जीवन में घटित होने वाली स्थितियों के प्रति एकाग्र हो जाते हैं तो सचेतनता वह मानसिक कारक है जो कि एक मानसिक गोंद की तरह हमें अपनी एकाग्रता से वंचित होने से रोकता है| जैसे-जैसे हम अधिक से अधिक एकाग्र होते जाते हैं, तो हम अधिक सक्षम हो जाते हैं यह समझ लेने में कि हम कुछ ऐसा करने वाले हैं अथवा कहने वाले हैं| हम समझ पाते हैं जब वह भाव जागृत होने वाला होता है और फिर हम समझ सकते हैं कि उसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति में जबकि हम उसके तदनुरूप एक बाध्यकारी उत्कट इच्छा के वशीभूत होकर तद्नुरूप व्यवहार करते हैं|  

अंग्रेजी बोल–चाल की भाषा में हम कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो मन में आया बिना विचारे बोल देते हैं| उनके पास वे जो कहते हैं और जो करते हैं उसके लिए कोई आतंरिक नियंत्रण नहीं होता| जो भी मन में आता है उसे वह आवेग के वशीभूत होकर कह डालते हैं या कर डालते हैं| परंतु जब हम यह ध्यान देते हैं कि किसी भावना के जागृत होने और उसके अनुरूप व्यहार करने के बीच एक अन्तराल होता है तब हम “ सविवेकी सचेतनता” से काम ले पाते हैं| हम विवेक सहित भेद कर पाते हैं कि हमारा कोई कृत्य सहायक होगा अथवा हमारे लिए बहुत सी समस्याएं उत्पन्न कर देगा? यदि उससे बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न होने वाली हैं तो हम समझ लेते हैं कि वह विनाशकारी है और हम वैसा व्यवहार नहीं करते| उदाहरण के लिए हमें किसी से यह कहने की क्या आवश्यकता है कि “आपने कितनी भद्दी पोशाक पहन रखी है?” क्या यह वाक्य सहायक होगा?

बात यह है कि हम समझ लेते हैं कि कुछ करने या बोलने से जुडी भावनाएं हमारी आदतों का परिणाम हैं- मैं “आदतों” का यहां पर सामान्य रूप में प्रयोग कर रहा हूँ कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों के लिए| ये आदतें इस जन्म की हैं या पिछले जन्मों की यह बात अप्रासंगिक है|   महत्वपूर्ण बात यह है कि हम बाध्यकारी ढ़ंग से पिछले ढर्रों, पिछली आदतों के अनुसार काम कर रहे हैं और कोई कारण नहीं कि हम उनके दास हों| हम मनुष्य हैं, पशु नहीं हैं जो अनियंत्रित रूप से अपनी मूल प्रवृत्तियों के अनुसार चलते हैं| मनुष्य के रूप में हमारे पास बुद्धि है जिसका अर्थ यह हुआ कि हमारे भीतर यह क्षमता है कि हम यह भेद कर सकें कि क्या हितकारी है और क्या अहितकारी| पिछला जन्म होता है या नहीं, हम देख सकते हैं कि अपनी बुरी आदतों के कारण काम करना मूर्खतापूर्ण है, यह हमारे लिए अधिक से अधिक समस्याएँ उत्पन्न करता है| क्योंकि हम बिना सोच-विचार किए काम करके अपने लिए समस्याएँ खड़ी करना नहीं चाहते, हम प्रयास करते हैं कि बुरी आदतों के कारण बाध्यकारी ढ़ंग से काम करना रोकें| 

किसी न किसी तरह, हमें अपने बाध्यकारी व्यवहार के आवर्ती ढ़र्रे को एक व्यसन के रूप में समझना होगा| हमें मदिरा, सिगरेट, अथवा नशीली दवाओं का व्यसन हो सकता है| परन्तु हमें जुआ अथवा यौन-व्यवहार अथवा मात्र लोगों पर चीखने-चिल्लाने की भी लत हो सकती है| बौद्ध धर्मी तथा गैर-बौद्ध धर्मी दोनों ही क्षेत्रों में व्यसन से मुक्ति पाने के लिए बहुत सी विधियां हैं| हमें सचेत रूप से इन विधियों को अपनाने की आवश्यकता है, अन्यथा हम अनियंत्रित हो जाते हैं और अधिक से अधिक समस्याएँ खड़ी कर लेते हैं|  

किसी भी व्यसन मुक्ति कार्यक्रम में पहला चरण होगा कि हम इस बात को पहचानें और स्वीकार करें कि हम व्यसनग्रस्त हैं| यह नितांत आवश्यक है| इसी समस्या को दूर करने के लिए पहले उसे पहचानना आवश्यक होता है| परन्तु कुछ व्यसन मुक्ति कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिनके अधीन लोग यह विश्वास करने लगते हैं कि उनका व्यसनग्रस्त होना ही उनकी सच्ची और अपरिवर्तनीय पहचान है और कोई भी व्यसन मुक्त नहीं हो सकता; हम अपने व्यसनग्रस्त व्यवहार का सत्यनिरोध कभी नहीं कर सकते| बौद्ध धर्मी दृष्टिकोण से यद्यपि हम सभी व्यसनों का सत्यनिरोध हो सकता है जिसमें आप आत्म-विनाशकारी प्रकृति का व्यसन भी शामिल है ताकि ये फिर कभी उत्पन्न न हो सके| एक बौद्ध धर्मी साधक के रूप में यही हमारा लक्ष्य है| 

बाध्यकारी व्यवहार के आवर्ती अभ्यास से मुक्ति  

यहीं पर बाध्यकारी व्यवहार के व्यसनकारी ढ़र्रे पर विजय पाने के लिए नेष्यकाम आता है| नैष्यकाम का अर्थ है किसी चीज से मुक्त होने का संकल्प और उसे छोड़ने के लिए सहर्ष प्रस्तुत होना| इसके साथ संलग्न भावानुभूति पूर्ण वितृष्णा और ऊब की है| हम अपने व्यवहारगत व्यसनों से उकता चुके हैं| चाहे वह आत्म-विनाशकारी नकारात्मक व्यसन हो अथवा सकारात्मक भावात्मक संतुलन| उदाहरण के लिए, हम बराबर चिड़चिड़ाने और चीखने-चिल्लाने से अथवा निरंतर हाथ धोते रहने से उकता चुके हैं| इसलिए जब हमें चीखने-चिल्लाने या बराबर हाथ धोने की इच्छा हो चाहे हमारे हाथ धुले ही हुए क्यों न हो, हम अपने संकल्प पर बल देते हैं कि उससे हम मुक्त हों और वैसा सोचें भी नहीं| पहले चरण के रूप में, हम अपने संकल्प पर पुनः बल देते हैं कि हम ऐसी भावनाओं के प्रभाव में कार्य नहीं करेंगे और फिर हम आत्म-नियंत्रण करते हैं और वैसा बिलकुल नहीं करते| परन्तु आत्म-नियंत्रण मात्र पहला क़दम है| हमें गहराई तक जाकर अपने बाध्यकारी व्यवहार के गहनतम कारण को दूर करना होगा|    

कर्म-सम्बन्धी भ्रांतियां   

अपने दैनिक जीवन में कर्म सम्बन्धी शिक्षाओं को लागू करते हुए उन भ्रांतियों पर ध्यान देना होगा जिनका हम अनुभव करते हैं क्योंकि वे हमारे कर्मों का परिपक्व होना है| इस  पराजयवादी दृष्टिकोण के साथ हम सोचते हैं विगत में हम बुरे युवक या युवती रहे हैं और अब जो हो रहा है उसके दण्ड के हम भागी हैं| शांतिदेव की शिक्षाओं में कहा गया है कि यदि हमने एक लक्ष्य बनाकर न छोड़ा होता तो कोई उस पर तीर नहीं मार सकता था| यदि अतीत में हमने विनाशकारी व्यवहार न किया होता तो लोग हमसे क्रुद्ध होकर हमसे बुरा व्यवहार न करते, आदि| शांतिदेव का मत है कि दूसरों पर दोष मढ़ने के स्थान पर अपने को दोषी माना जाए| यद्यपि, इसका अर्थ यह नहीं कि हम उस अतिवाद पर पहुंच जाएं कि हम यह सोचने लगें कि हम इतने बुरे व्यक्ति हैं कि जो कुछ विपदाएं हम पर आ रही हैं, हम उसके पात्र हैं अतः हमें मौन रहना चाहिए, शिकायत नहीं करनी चाहिए और दण्ड स्वीकार करना चाहिए| मेरे विचार में यह कर्म सम्बन्धी शिक्षाओं को समझने का हितकारी मार्ग नहीं है और न ही इन शिक्षाओं को लागू करने का अभिप्राय भी नहीं है| 

भाग्यवादी दृष्टिकोण अपनाने के स्थान पर हमें कर्म संबंधी शिक्षाओं के दूसरे आयामों पर विचार करना चाहिए कि दैनिक जीवन में हम उनसे कैसे लाभ उठा सकते हैं| आज जो कुछ हमारे साथ हो रहा है वह इन शिक्षाओं के अनुसार हमारे विगत व्यवहार का परिणाम है| बहुत सी शिक्षाओं में विस्तार से बताया गया है कि आज जो हम अनुभव कर रहे हैं वह पूर्व व्यवहार से संबंधित है| उदाहरण के लिए, यदि हम अनुभव करते हैं कि हमारे सम्बन्ध दीर्घजीवी नहीं होते, हम अपने प्रिय लोगों के साथ नहीं रह पाते या फिर लोग हमेश हमसे नाता तोड़ लेते हैं, इसका कारण यह है कि हम औरों के बारे में फूट डालने वाली बातें किया करते हैं| हमने लोगों से उनके मित्रों के विषय में बुरी-बुरी बातें की हैं ताकि उनमें फूट पड़ जाए| फिर जब हमारे मित्र हमें छोड़कर चले जाते हैं तो यह हमारे कर्मों का परिपक्व होना है क्योंकि फिर अन्य लोग हमारे साथ वही कर रहे हैं जो हमने औरों के साथ किया| 

फूट डालने वाली बातें करने का एक अन्य परिणाम यह होगा कि ऐसा व्यवहार करने के लिए एक बाध्यकारी भावना बनी रहेगी| इस बात के होते हुए हमें यह समझना होगा कि हम किस प्रकार कर्म को एक रचनात्मक माध्यम बनाएं| इसके लिए हमें ईमानदारी से आत्म-निरीक्षण करना होगा| क्या हमारी प्रवृत्ति उन लोगों के सहकर्मियों, सहपाठियों अथवा मित्रों के बारे में बुरी बातें कहने की है? संभवतः हम पाएंगे कि हम अत्यधिक आलोचना करते हैं| हम कभी-कभार किसी के बारे में कोई अच्छी बात कहते हैं और बराबर बुरी बातें ही कहते रहते हैं| प्रायः ऐसा होता है, नहीं क्या? हम बराबर दूसरों की कमियां खोजने में लगे रहते हैं और दूसरों को उनके बारे में बताने और शिकायत करने के लिए व्यग्र रहते हैं| परन्तु ऐसा कब होता है कि हम दूसरों की विशेषताओं के बारे में ध्यान दें और अन्य लोगों से उनकी प्रशंसा करें? हममें से अधिकांश लोगों के साथ ऐसा बहुत कम होता है|

कर्म सम्बन्धी शिक्षाओं से यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात सीखी जा सकती है जिसे हम अपने दैनिक जीवन में लागू कर सकते हैं| हम देखेंगे कि हमारी आदतों के ढ़र्रे से पूरी तरह मेल खाती हुई बातें स्वंय हमारे साथ भी होती हैं| इसके बाद पराजयवादी दृष्टिकोण अपनाने के बजाय कि “पिछले जीवनकालों में मैं कितना बुरा था, दूसरों की आलोचना करता था, अब जो मेरे साथ हो रहा है ठीक ही हो रहा है,” हमें अपने व्यवहार में सुधार करने पर ध्यान देना चाहिए| जब हमें अनुभव हो कि हम दूसरों के बारे में कोई बहुत ही आपत्तिजनक बात कहने वाले हैं तो हमें उसके स्थान पर उनकी विशिष्टताओं के बारे में सोचकर उनकी प्रशंसा करनी चाहिए|

विभिन्न प्रकार के कार्मिक संलक्षणों के अनेक उदहारण हैं जिन्हें हम समझ सकते हैं| उदाहरण के लिए हो सकता है कि हम निर्धन हों| आत्म-निरीक्षण करने के बाद हो सकता है कि हमें लगे कि हम हमेशा दूसरों से लाभ उठाते रहते हैं और उनकी चीज़ें इस्तेमाल करते रहते हैं, उनका शोषण करते हैं, कभी उनके ऊपर खर्च नहीं करते, सदा यही आशा करते हैं कि वे हमारा खर्चा उठाएं इत्यादि| मैं यहां विशेष रूप से दूसरों की अनुमति के बिना उनकी चीजें इस्तेमाल करने, जैसे उनसे पूछे बिना उनके फ्रिज में से खाना निकालने आदि की बात कर रहा हूँ| हम देख सकते हैं कि आज हमारे साथ जो कुछ भी हो रहा है उसका संबंध स्वंय उसी प्रकार की अनुभूतियों एवं प्रवृत्तियों से है| भारतीय आचार्य धर्म रक्षित ऐसे बहुत से सह-संबंधों के विषय में अपने चित्त-सुधार संबंधी ग्रन्थ तीखे शस्त्रों का चक्र में उल्लेख किया है|  

इसके अतिरिक्त, हमें यह समझना होगा कि किसी एक कारण से परिणाम उत्पन्न नहीं होते| बुद्ध ने कहा कि कोई बाल्टी पहली या अंतिम बूंद से नहीं भरती, वह बूंदों के संचय से भरती है| आज हम जो कुछ कष्ट भुगत रहे हैं वह केवल एक बुरी बात का परिणाम नहीं है जो हमने अतीत में की थी अथवा वह अनेक पिछली बुरी बातों का परिणाम भी नहीं है| अपितु ऐसे असंख्य कारण और परिस्थितियां होती हैं जो एकत्रित होकर ऐसे परिणामों को जन्म देती हैं| 

मान लीजिए कोई कार हमें टक्कर मार देती है| ऐसा नहीं है कि हमने किसी को कभी चोट पहुंचाई हो गाड़ी से टक्कर मारकर या किसी और प्रकार से| केवल इतना ही नहीं है, बल्कि इसमें उस व्यक्ति की कार्मिक सम्भाव्यताएं भी शामिल हैं जिसने हमें टक्कर मारी| बहुत सी बातें हैं जैसे मौसम, यातायात की परिस्थितियां और वे कारण जिनके होते हम घर से निकले| वे लोग जिन्होंने सड़क बनाई| ऐसे असंख्य कारण और परिस्थितियों का मेल होने से हमें गाड़ी की टक्कर भुगतनी पड़ी| 

जब हम कारण और परिणाम संबंधी अपने दृष्टिकोण को विस्तृत करते हैं तथा समझ जाते हैं कि अनेक कारण और परिणाम मिलकर एक विशिष्ट परिणाम को जन्म देते हैं तो फिर हम उस मूर्त “मैं” को विखंडित करना आरम्भ करते हैं जिसे हम दोषी मानकर सोचते हैं कि सारा दोष उसी का है और वह जो भुगत रहा है वह उसी के योग्य है| निस्संदेह, हम उत्तरदायी हैं, परन्तु अपने व्यवहार के लिए अपने को जिम्मेदार मानने और दूसरी तरह अपने को एक मूर्त “अस्तित्वमान” के रूप में पहचानना और सोचना कि वही दोषी है वही बुरा है जिसके परिणामस्वरुप इतने कष्ट भुगत रहा है| 

कर्म के सन्दर्भ में शून्यता को समझना   

कारण और प्रभाव संबंधी अपने दृष्टिकोण को व्यापक करने के साथ-साथ हमें उनसे संबंधित उन “तीन वृत्तों” को भी विखंडित करना होगा| इन तीन वृत्तों को प्रतिपादित करने के अनेक प्रकार हैं, परन्तु कर्म परिपक्वता के सन्दर्भ में हम उन्हें उस “मैं” के रूप में निर्दिष्ट कर सकते हैं जो परिपक्व कर्म अब भोग रहा है| अब हम जिस कर्म परिपक्वता का अनुभव कर रहे हैं वह अतीत में किये गए कर्मों का फल है| जब हम नहीं समझ पाते कि इन तीन वृत्तों की परस्पर अवलंबित उत्पत्ति होती है और वे आत्म-संभव नहीं होते, उन सभी बातों से स्वतंत्र जिनसे उनकी अवलंबित उत्पत्ति होती है, हम एक मूर्त अस्तित्वमान “मैं” की मानसिक छवि गढ़ लेते हैं और उसी से जुड़कर बैठ जाते हैं जो कि अतीत में बहुत दुष्ट था और अब जो हमारे साथ घटित हो रहा है वह ठीक ही हो रहा है| एक तरह से हम दोषी बन जाते हैं अथवा अपराधी बनके रह जाते हैं जो दण्ड पा रहा है और हम उसी मूर्त प्रतीत होने वाली पहचान में अटक के रह जाते हैं| यह बहुत ही दुःखदायी मनोदशा है, नहीं क्या? हम अपने दुखों को अतिरंजित कर लेते हैं और अपने विगत कर्मों की भयावहता को भी बहुत बढ़ा-चढ़ा देते हैं| पूरी स्थिति अपराध-बोध और आत्म-ग्लानि से सराबोर हो जाती है| इसके परिणामस्वरुप हमारा रोज का जीवन निकृष्ट से निकृष्टतर होता जाता है|

अतः शून्यता की थोड़ी समझ पैदा करना अत्यंत महत्वपूर्ण है| उसके अभाव में, चीजें बहुत मूर्त होने लगती हैं और फिर हम अतिवादी होकर अपने लिए अधिक समस्याएं और कष्ट उत्पन्न कर लेते हैं जैसा कि हमने बताया| परन्तु चाहे हमें शून्यता की समझ बिलकुल भी न हो, तब भी कुछ भी करते हुए हमें अपने चित्त में यह धारण करना चाहिए कि हम जो कुछ सोचते, कहते या करते हैं उसके कार्मिक परिणाम अवश्यम्भावी हैं| इस बात को ध्यान में रखते हुए, हमें विनाशकारी व्यवहार से बचते हुए रचनात्मक ढ़ंग से व्यवहार करना चाहिए| 

विनाशकारी व्यवहार से बचना   

बौद्ध धर्म ग्रंथों में किसी भी प्रकार के विनाशकारी व्यवहार से बचने का कारण यह विचार करना है कि ऐसे कामों के क्या नुकसान हैं| क्योंकि हम उस व्यवहार के कष्टकारी अनुभवों से नहीं गुजरना चाहते| इसलिए जब ऐसा कुछ करने या कहने की भावना जागृत होती है तो हम उससे बचते हैं| परन्तु अधिकांश अवसरों पर, हम वास्तव में इस प्रकार विचार नहीं करते| हम उससे विरत रहते हैं क्योंकि हमें कुछ विनाशकारी करना ठीक नहीं लगता| यह बहुत रोचक हो जाता है क्योंकि कुछ ऐसे नकारात्मक काम हैं जो हमें ठीक प्रतीत नहीं होते जैसे धोखाधड़ी, तोड़-फोड़, ऐसी ही बातें| यदि ऐसा है तो ठीक है| संभवतः हमने उसके नकारात्मक परिणामों के विषय में सक्रिय चिंतन नहीं किया परन्तु फिर भी हम उस प्रकार व्यवहार नहीं कर रहे| 

फिर भी मच्छरों को मारने के बारे में क्या कहा जाए? मैं आपके बारे में तो नहीं जानता, परन्तु मेरा अनुभव यही है कि मच्छर को पटककर मार देना ठीक लगता है अथवा उसका पीछा करना मानो मैं अफ्रीका में सफारी कर रहा हूँ| उस मच्छर का शिकार करते हुए उसे मारना जो मुझे रात भर सोने नहीं देता| यह सही प्रतीत होता है| चाहे हमें मच्छर के साथ सफारी वाला व्यवहार करना कितना ही हास्यास्पद क्यों न लगे, फिर भी, हम उस सफारी को करते हैं, नहीं करते क्या? इस प्रसंग में बेतुके उदाहरणों पर विचार करना अत्यंत सहायक होता है| 

इस प्रकार के विनाशकारी व्यवहार के दुष्परिणामों के बारे में सोचना नितांत आवश्यक है कि सहनशीलता त्यागकर मच्छर को मारना कितना बुरा होगा| अनिवार्यतः उसका अभिप्राय यह नहीं कि हमें मच्छर को अपना खून पिलाना चाहिए बल्कि यह कि मच्छर के साथ निपटने का शांतिपूर्ण तरीका क्या होगा| हम उसके ऊपर कोई मर्तबान रख सकते हैं और जब वह उसमें ऊपर की ओर चढ़े तो हम उस मर्तबान के नीचे एक कागज सरका दें और फिर उसे कमरे से बाहर ले जाएं| यह अत्यंत व्यावहारिक पद्धति है परन्तु हमें ध्यान रखना होगा कि हम फिर भी सफारी वाली भावना से ऐसा न करें| फिर भी हम मानसिक स्तर पर सफारी वाली मनःस्थिति में मर्तबान और कागज के टुकड़े का इस्तेमाल कर सकते हैं| 

वस्तुतः यह स्थिति विश्लेषण की मांग करती है| हम मच्छर को अपने कमरे से बाहर क्या इसलिए निकाल रहे हैं कि हम काटे जाने से होनी वाली खुजली अनुभव नहीं करना चाहते या कि हम मच्छर के बारे में सोच रहे हैं? जाहिर है हम मच्छर को उसके भोजन से वंचित कर रहे हैं| हमें सोचना चाहिए यदि हम मच्छरों या मक्खियों आदि को बराबर मारते रहेंगे तो हम किस तरह की आदत डाल रहे हैं? हम एक ऐसा अभ्यास डाल रहे हैं कि जो भी हमें खिझाए उसे हम तत्काल मार दें| एक ऐसी प्रवृत्ति जिसमें रोष से मुक्त होने के लिए हिंसक माध्यम अपनाने की प्रवृत्ति जागृत हो| इसलिए, जब हम किसी मर्तबान और कागज़ के टुकड़े से मच्छर का शिकार करते हैं तो हम उसके प्रति घृणा भाव नहीं रखते| हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि यह एक अवांछनीय जीव है और हमें इससे पीछा छुड़ाना है क्योंकि यह हमारे घर में घुस आया है| 

निस्संदेह, हम अधिक उन्नत पद्धतियों को अपना सकते हैं, जैसे वह मच्छर हमारे पूर्व जन्म कालों में हमारी माता रह चुका है, आदि परन्तु हममें से अधिकांश के लिए यह पूरी सदाशयता से करना कठिन है| बात ये है कि कुछ बातें ऐसी हैं जहां हमें विनाशकारी ढ़ंग से व्यवहार करना ठीक नहीं लगता परन्तु अन्य बातें ऐसी हैं जिनमें हम सचेत रूप से अपनी प्रेरणा को बलवती करते हैं| 

ऐसे कारक जो कार्मिक प्रवृत्तियों तथा सम्भाव्यताओं को उत्प्रेरित करते हैं 

एक अन्य बात मैं उन विशिष्ट कारकों के विषय में कहना चाहूँगा जो हमारी कार्मिक प्रवृत्तियों तथा सम्भाव्यताओं को उत्प्रेरित करते हैं तथा उन्हें परिपक्व करते हैं| इनकी चर्चा प्रतीत्य समुत्पाद के बारह सोपानों संबंधी शिक्षाओं में की गई है उन कारकों के रूप में जो मृत्यु के समय कार्मिक प्रवृत्तियों तथा सम्भाव्यताओं को उत्प्रेरित करते हैं| ये कारक हमारे मानसिक सातत्य का भावी पुनर्जन्म में “प्रक्षेपण” करते हैं| 

इन कारकों में से पहला कारक लालसा संबंधी है| “लालसा” शब्द इस सोपान के लिए तिब्बती का शब्द है, परन्तु इसके लिए प्रयुक्त मूल संस्कृत शब्द का अर्थ वास्तव में “ पिपासा” है| दूसरे कारक का प्रायः अनुवाद “आसक्ति” के रूप में किया जाता है| यह अनुवाद बहुत सटीक नहीं है क्योंकि दूसरे भी भाव हैं जिनका अनुवाद सामान्यतया “आसक्ति” किया जाता है| जैसे “सत्य अस्तित्व की आसक्ति” और ये बिलकुल समान अर्थ में प्रयुक्त नहीं होते| यहां इस शब्द का शाब्दिक अर्थ “कुछ प्राप्त करना” अथवा “कुछ लेना” है| मैं “उपादान” बेहतर समझता हूँ|” यह एक उपादान का मनोभाव, मनोदृष्टि है, जिसका यदि विकास किया जाए तो वह हमारे भावी पुनर्जन्म के लिए उपादान हो सकती है| यद्यपि बारह सोपानों के सन्दर्भ में इनकी व्याख्या उप्रेरक के रूप में की गई है जो प्रक्षिप्त कर्मों को भावी पुनर्जन्म के लिए उत्प्रेरित करते हैं, एक वैकल्पिक प्रस्तुति यह है कि ये प्रत्येक क्षण हमारी कार्मिक प्रवृत्तियों तथा सम्भाव्यताओं को उत्प्रेरित करते हैं|

यह हमारे विषय के लिए अत्यंत प्रासंगिक है कि किस प्रकार हमारे दैनिक जीवन के लिए कर्म सम्बन्धी शिक्षाएं प्रासंगिक होती हैं| सबसे पहले पिपासा क्या है? तृष्णा क्या है? यह एक मानसिक कारक है जो सुख अथवा दुःख के एक स्तर के लिए लक्षित है और जो उसे अतिरंजित करती है, उसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती है| सुख पर ध्यान केन्द्रित करके हमारे भीतर तृष्णा जागती है कि वह कभी समाप्त न हो, दुःख अथवा कष्ट के मामले में हमारी तृष्णा होती है कि वे समाप्त हों| एक निरपेक्ष अनुभूति के लिए यह उस अनुभव को इंगित करती है जब हम पूर्ण एकाग्रता के उच्चतर स्तर पर होते हैं, जिन्हें “ध्यान” कहते हैं| इन अवस्थाओं में हमारी तृष्णा होती है कि वह निरपेक्ष मनोभाव अपरिवर्तित रहे| जाहिर है, ऐसी तृष्णा और आसक्ति की भिन्न- भिन्न श्रेणियां हो सकती हैं| 

उपादानों में अशांतकारी मनोभावों तथा अशांतकारी मनोदृष्टियों का उल्लेख है| इनमें से एक या अधिक तृष्णा से जुड़कर हमारी कार्मिक प्रवृत्तियों तथा सम्भाव्यताओं को उद्दीप्त करते हैं| इस सूची में से सबसे महत्वपूर्ण है एक वास्तविक अस्तित्वमान “मैं” का अपने शरीर, चित्त, मनोभावों, इत्यादि के समुच्च्य से तादात्म्य करना- अथवा उसे वास्तव में अस्तित्वमान स्वामी मानकर उसे “अपना समझना”| 

सारांशतः तृष्णा केन्द्रित होती है कुछ ऐसे सुख अथवा दुःख के किसी मनोभाव पर तथा यह उपादानकारी मनोदृष्टि केन्द्रित होती है “मैं” पर जो उसका अनुभव करता है| चाहे हमें भावनाओं तथा “मैं” की शून्यता का बोध न भी हो, तब भी हम कार्मिक प्रवृत्तियों तथा सम्भाव्यताओं के उत्प्रेरक के विश्लेषण को अपने दैनिक जीवन में लागू कर सकते हैं| प्रत्येक पल हम सुख अथवा दुःख को किसी स्तर पर अनुभव कर रहे होते हैं| हम उन्हें उदाहरण के लिए “ आठ सांसारिक धर्म” पर लागू कर सकते हैं|

तिब्बती शब्द “जिगतेन” जिसका अनुवाद “सांसारिक” किया जाता है वह “सांसारिक धर्मों” पदावली में दो शब्दांशों से बना है| “तेन” का अर्थ है आधार, और “जिग” का अर्थ है जो खंडित होकर नष्ट हो जाए| आठ सांसारिक धर्म अथवा आठ सांसारिक सरोकार इंगित करते हैं हमारी मनोदृष्टियों के प्रति जो नश्वर प्रसंगों के प्रति हमारे जीवन में बनी रहती है| हम या तो अतिप्रसन्न हो जाते हैं अथवा पूर्णतः निराश हो जाते हैं उन बातों के प्रति जिनका स्थायी आधार नहीं होता और जो अनित्य होती हैं| 

इन कार्मिक संभाव्यताओं के सन्दर्भ में, प्रासांगिक सांसारिक धर्मों पर हमारी प्रतिक्रिया अतिरंजित होती है जिसमें सुख होने पर हम अतिप्रसन्न एवं दुःख होने पर पूर्णतः खिन्न हो जाते हैं| इन प्रसंगों में ऐसा क्या है जिसका आधार अस्थिर है? यह सुख अथवा दुःख की अनुभूति है| स्थायी आधार के अभाव में, ये क्षणभंगुर होते हैं| क्योंकि हम उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं मानो वे मूर्त रूप से अस्तित्वमान हों और सोचते हैं कि वे शाश्वत हैं और इसलिए हमारी प्रतिक्रिया में संतुलन नहीं रह पाता, उनके घटित होने पर हम अतिप्रसन्न या पूर्णतः निराश हो जाते हैं| एक तृषित व्यक्ति की भांति जिसे पानी का केवल एक घूंट मिलता है, हम सुख का आस्वाद पाकर फूले नहीं समाते और चाहते हैं कि वह सदा बना रहे| और जब हम दुखी होते हैं तब एक प्यासे व्यक्ति की भांति जो पानी से पूर्णतः वंचित है, हम बुरी तरह निराश होकर बेचैन हो उठते हैं कि वह किसी प्रकार समाप्त हो|  

सुख एवं दुःख की अनुभूतियों के प्रति समचित्तता 

भारतीय आचार्य शांतिदेव ने ऐसी मनोदृष्टि को बचकाना कहा है| हमें सुख एवं दुःख की अनुभूति में असंतुलित प्रक्रिया व्यक्त करने की प्रवृत्ति पर विजय पानी होगी| ऐसा करने के लिए, हमें समचित्तता विकसित करनी होगी| “समचित्तता” से अभिप्राय है कि हम सुख आदि की अनुभूति के सन्दर्भ में अतिरंजित प्रतिक्रिया न करें क्योंकि सरल भाषा में कहें तो संसार की प्रकृति उत्थान और पतन की है| कभी हम बहुत सुखी होंगे और कभी हम बहुत दुखी हो जाएंगे| यह स्वभाविक है| और यह अनुमान लगाने का कोई रास्ता नहीं है कि हम कब सुखी होंगे और कब दुखी हो जाएंगे| बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के हमारी मनोदशा तत्काल बदल जाएगी| हमारे द्वारा अनुभूत सुख अथवा दुःख का स्तर नाटकीय नहीं होता| यह बहुत सूक्ष्म हो सकता है| यहां संकेत शब्द हैं, हमारी अनुभूति चाहे कुछ भी हो, “कुछ विशिष्ट नहीं”| 

वस्तुतः यह अत्यंत सारगर्भित बात है| “कुछ विशिष्ट नहीं” से अभिप्राय है कुछ भी विस्मयकारी नहीं, कुछ भी असाधारण नहीं है| हम क्या आशा करें? निस्संदेह, उतार–चढ़ाव आते रहेंगे तो हमें उनका बतंगड़ बनाने की आवश्यकता नहीं| जीवन के अनुभवों में, कभी हम सुखी होंगे और कभी दुखी| निश्चित रूप से, हम समझ लेते हैं कि विनाशकारी व्यवहार से दुःख उत्पन्न होता है तथा सुख रचनात्मक व्यवहार आदि से जन्म लेता है| परन्तु हमें इन अद्भुत अथवा भयावह प्रतीत होने वाली अनुभूतियों से छिपकर नहीं बैठ जाना चाहिए| और निश्चित रूप से हमें एक महान मूर्तिमान “मैं” से भी नहीं जुड़े रहना चाहिए, जैसे, “मैं कितना सुखी हूँ” या “मैं बेचारा, मैं कितना अभागा हूँ|” 

स्पष्ट रूप से, अभ्यासवश हम सुखी होना चाहते हैं और दुखी होना नहीं चाहते हैं| इसके अतिरिक्त परंपरागत रूप से अपनी बौद्धधर्मी साधना में हम विमुक्ति और ज्ञानोदय का लक्ष्य साधते हैं ताकि हम दुःख एवं कष्टों से मुक्त हों| परन्तु हम उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखते| हमारे दैनिक जीवन में इन कार्मिक शिक्षाओं का यही महत्व है और यही हमें चित्त की शांति प्रदान कर सकती हैं| प्रत्येक दिन अपनी बदलती मनोदशाओं के प्रति समचित्तता चित्त की शांति प्रदान करती है क्योंकि, जाहिर है, कभी हमें सुख की अनुभूति होगी तो कभी दुःख की| यही संसार की प्रकृति है, इससे यही आशा की जा सकती है| हमें अपनी धर्म साधना में जुटे रहना चाहिए| जबकि हम किसी निश्चित क्षण में अत्यंत सुखी नहीं होते, परन्तु क्या अंतर पड़ता है? 

जीवन के उतार-चढ़ाव 

इसका अर्थ यह नहीं है कि हम भाव-शून्य हो जाएं, कि हमें सुख या दुःख की अनुभूति ही न हो और हम संवेदनशून्य हो जाएं| ऐसा बिलकुल नहीं है| सुखी या दुखी होना ठीक है| कुछ अच्छा होता है तो हम सुखी हो जाते हैं| कुछ बहुत अच्छा नहीं होता तो हम उतने सुखी नहीं होते| उदाहरण के लिए हम किसी रेस्त्रां में जाते हैं और अपना मनपसंद पकवान परोसने को कहते हैं परन्तु वह समाप्त हो गया होता है| वह खत्म हो चुका है तो हम उतने प्रसन्न नहीं होते| निराशा होती है परन्तु हम उसको अधिक तूल नहीं देते| दुखी होना भी अपनी जगह ठीक है, परन्तु उसी में उलझकर मनोदशा बिगाड़ लेना ठीक नहीं|

संभवतः यह कुछ बेतुका उदाहरण है, परन्तु अधिक प्रासंगिक उदाहरण यह होगा कि जब हम किसी प्रिय व्यक्ति को खो देते हैं तो उदास होकर दुखी होना स्वाभाविक है| उसमें कुछ भी अनुचित नहीं है| वस्तुतः शोक न मनाना अत्यंत हानिकारक है| परन्तु उसी से चिपककर उस उदासी से अपना तादात्म्य करके उसे कोई महान मूर्त “मैं” मानकर उसे अपनी सही पहचान मत समझिये जो इतनी व्यथित है| एक अन्य परिप्रेक्ष्य से, जब हम किसी के साथ होते हैं और बराबर कहते रहते हैं, मैं कितना सुखी हूँ, कितना आनंद आ रहा है, है न? यह सारी मनोदशा बिगाड़ देता है| ठीक? जीवन के उतार-चढ़ाव का अनुभव कीजिए| हम सुखी हैं या दुखी – कोई बड़ी बात नहीं, कुछ विशिष्ट नहीं|

इस समचित्तता के साथ, एक अन्य रवैया और दृष्टिकोण हम विकसित कर सकते हैं कि जब हम दुखी हों और कुछ भी ठीक न चल रहा हो तो उसे कार्मिक कारण के परिणाम के रूप में देखें| जैसी हम चर्चा कर चुके हैं हम इस अभ्यास-वलय की परख करें और देखें कि हम इसी प्रकार बार-बार कौन सा व्यवहार करते हैं और उस दिशा में आत्म-सुधार करें|

लाम-रिम क्रमिक पथ के तीन स्तर  

अब मैं लाम-रिम, पथ के क्रमिक चरणों में उल्लिखित प्रेरणा के तीन स्तरों का उल्लेख करना चाहूँगा| सामान्यतया कर्म सम्बन्धी शिक्षाएं प्रेरणा के आरंभिक स्तर में की गई हैं| हम विनाशकारी व्यवहार से बचते हैं क्योंकि हमें भय लगता है कि कहीं हमें उसके दुष्परिणाम न भुगतने पड़ें| हम नहीं जानते कि अन्य व्यक्ति हमारे कर्मों का क्या परिणाम भुगतेंगे| उन पर इसका क्या प्रभाव होगा यह बात निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सकती| परन्तु, अपनी ओर से हम नहीं चाहते कि हमें अपने विनाशकारी व्यवहार के परिणामस्वरूप कष्ट और दुःख भुगतना पड़े| हम भयभीत होते हैं, परन्तु उसे हितकारी ढ़ंग से करते हैं| हम दण्ड के भय की बात नहीं कर रहे| बस यही बात है कि हम कष्ट एवं दुःख से बचना चाहते हैं| विशेष रूप से, हम भावी जीवन कालों में कष्ट एवं दुःख से बचना चाहते हैं| यह प्रेरणा का आरंभिक स्तर है| 

मध्य-वर्तीय स्तर पर हम सब प्रकार के बाध्यकारी कार्मिक व्यवहार से बचना चाहते हैं क्योंकि हम विमुक्ति चाहते हैं| यदि हमें विमुक्ति प्राप्त नहीं हुई तो सांसारिक दुःख और सुख के उतार-चढ़ाव का चक्र चलता रहेगा| वह कितना भयावह होगा|

प्रेरणा के उन्नत स्तर के साथ हम सभी प्रकार के बाध्यकारी कार्मिक व्यवहार से बचना चाहते हैं जो दूसरों के प्रति सहायक होने की हमारी सामर्थ्य में बाधक होता है| हम दूसरों की सहायता कैसे कर सकते हैं यदि हम निरंतर ऐसे उतार-चढ़ाव से गुजरते रहे और ऐसी अप्रिय बातें सतत रूप से हमारे साथ घटित होती रहें? मुख्य रूप से हमें लगता है कि यह दूसरों की सहायता करने की हमारी क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा| हम यहां मानवतावादी दृष्टिकोण से विचार नहीं कर रहे कि इससे दूसरों को कैसे चोट पहुँचेगी| यहां हम यह सोच रहे हैं कि हमारी परसहायक क्षमता कैसे बाधित होगी| 

नैतिक व्यवहार के प्रति बौद्ध धर्मी रवैये और पश्चिमी मानवतावादी रवैये में बहुत बड़ा अंतर है जिसके अनुसार, “जब तक कि मैं किसी दूसरे को आहत नहीं करता, सब ठीक है”| इस रवैये में भी कोई बुराई नहीं है, सिवाय इस बात के कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हमारे आचरण का अन्य लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? उदाहरण के लिए, हम किसी की कोई चीज चुरा लें पर हो सकता है कि वे बहुत प्रसन्न हों क्योंकि उसकी बहुत बुरी दशा थी और अब वे उस पर बीमा की राशि ले सकते हैं| दूसरी ओर हो सकता है कि हम किसी को बहुत बड़ी धनराशि दें और कोई उसे लूटकर उनकी हत्या कर दे| 

निस्संदेह, बौद्ध धर्म में हम प्रेम और करुणा विकसित करते हैं, हम किसी को क्षति पहुँचाना नहीं चाहते| परन्तु प्रेरणा के उन्नत स्तर में, मुख्य बल इस बात पर रहता है कि हम ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहते जो दूसरों की सहायता करने की हमारी क्षमता को सीमित करे| इस प्रकार की प्रेरणा ज्ञानोदय प्राप्ति तथा दूसरों की यथासंभव सहायता के बौद्ध धर्मी आध्यात्मिक मार्ग से पूरी तरह मेल खाती है| बौद्ध धर्म में कर्म सम्बन्धी चर्चा में इसी बात पर प्रमुख रूप से बल दिया गया है| 

हमारे दैनिक व्यवहार में, इस महायानी प्रेरणा की यह प्रासंगिकता है कि यह हमारे नैतिक आत्म-अनुशासन को सुदृढ़ करती है यदि हम विनाशकारी कृत्य करेंगे तो हम दूसरों की वास्तव में सहायता कैसे कर पाएंगे? उदाहरण के लिए, यदि हम बराबर ढींग मारते रहे या दूसरों को ठगते रहे तो कोई हम पर भरोसा नहीं करेगा| फिर हम किसी की सहायता किस प्रकार कर पाएंगे? अधिक स्पष्ट शब्दों में, शिक्षक के रूप में यदि हम अनुभव करते हैं कि हमारे कर्म इस रूप में परिपक्व हो रहे हैं कि हमारे छात्र सहसा हमें छोड़कर चले जाते हैं- पिछले उदाहरण का उपयोग किया जाए तो हम उनकी कैसे सहायता कर पाएंगे? हमारे छात्र हमारे साथ टिकेंगे नहीं| वे बराबर छोड़कर जाते रहेंगे| स्पष्ट है, इससे हमें दृढ़ प्रेरणा मिलेगी कि हम दूसरों की आलोचना करना बंद करें और दूसरों के गुणों का उल्लेख करें|

रचनात्मक व्यवहार में उपस्थित मानसिक कारक 

एक अंतिम बात, अभिधर्म कोश, ज्ञान विषयक विशिष्ट विषयों की निधि में, महान भारतीय आचार्य वसुबंधु ने उल्लेख किया है कि किसी भी रचनात्मक कृत्य में दो मानसिक कारक अवश्य उपस्थित रहते हैं| यद्यपि असंग ने अपने ग्रन्थ में इन मानसिक कारकों की भिन्न परिभाषा दी है| अतः हमें वसुबंधु की परिभाषा को भी समझना होगा| इसमें पहला कारक है दूसरों के गुणों के प्रति तथा उनके धारकों के प्रति सम्मान का अभाव, दूसरा है निर्लज्ज रूप से विनाशकारी होने से बचना| “निर्लज्ज रूप से” से अभिप्राय है पूरी तरह से बेपरवाह होना| किसी प्रकार का आत्म-नियंत्रण न करना| हम परवाह नहीं करते और इसलिए हम विनाशकारी कृत्यों से नहीं बचते| हमारे जो जी में आता है हम वही करते हैं|

रचनात्मक व्यवहार में, हमारा रवैया ठीक विपरीत होता है: हम सद्गुणों और उसके धारकों के प्रति आदर भाव रखते हैं और आत्म–नियंत्रण करते हैं| हमारे कृत्य निर्लज्ज रूप से विनाशकारी नहीं होते, हम पूरी तरह ध्यान रखते हैं कि हम क्या कह रहे हैं और क्या कर रहे हैं| संभवतः यह हमें याद दिलाता है, “यह बिलकुल उपयुक्त है”| 

यह इंगित करता है कि हमें अपने दैनिक जीवन में किसी बात पर बल देना चाहिए और अपने को याद दिलाते रहना चाहिए| सद्गुणों के प्रति अपने आदरभाव को हमें करते रहना चाहिए जैसे धैर्य और दयालुता तथा उनके प्रति आदरभाव जिनमें ये सद्गुण विद्यमान हैं| वे हमारे लिए असीम प्रेरणादायक हैं| इसके अतिरिक्त, हमें पुनः पुष्टि करनी चाहिए कि हम आत्म-अनुशासन से काम लेंगे तथा इस बात पर ध्यान देंगे कि हम क्या कह रहे हैं और क्या कर रहे हैं तथा कभी भी पूर्णतः विनाशकारी व्यवहार नहीं करेंगे|

उपसंहार 

हमने कर्म तथा उन्हें अपने दैनिक जीवन में प्रासंगिक बनाने संबंधी शिक्षाओं पर अत्यंत विस्तार से चर्चा की है| आईये इन दोनों कारकों को आत्मसात करें| संक्षेप में रचनात्मक रूप से उस पर अमल करते हुए हम ऐसा मात्र इसलिए नहीं करते कि हम अच्छे लड़के या अच्छी लड़की बनना चाहते हैं| यह उसका आधार नहीं है| इसके स्थान पर, हम रचनात्मक रूप से इसलिए व्यवहार करते हैं क्योंकि सद्गुणों और सद्गुण धारकों के प्रति हमारे मन में आदरभाव है और हमें उचित लगता है कि हम आत्म-नियंत्रण छोड़कर खुल्लम-खुल्ला विनाशकारी व्यवहार से बचें| आवश्यकता है कि बस कर डालें और तदनुरूप व्यवहार करें!  

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