अस्तित्व एवं कर्म के विभिन्न लोक

मानव या पशु से इतर अन्य जीव रूपों में पुनर्जन्म का बोध होना

एक विषय जो प्रायः छूट जाता है वह है तीन निचले लोकों के दुःखों का, जिसे मैं "तीन अधम लोक" कहना पसंद करता हूँ। तिब्बती में इन्हें "तीन नारकीय लोक" कहते हैं, परन्तु "नारकीय" कुछ भारी लगता है, इसलिए मैं उन्हें अधम कहता हूँ। ऐसा कोई शब्द नहीं है जो इन क्षेत्रों का "निचला" के रूप में उल्लेख करता हो।

कुछ लोग अधम लोकों के ही नहीं अपितु वास्तव में सभी छहों लोकों (षड्गतियों) के प्रति सरलीकृत धर्म के दृष्टिकोण से अपनी-अपनी अवधारणाएँ बनाना पसंद करते हैं। हम इस बात को स्वीकार तो कर लेते हैं कि मनुष्य और पशु अस्तित्वमान हैं, और कुछ लोग यह भी स्वीकार कर लेते हैं कि भूत और प्रेत भी विद्यमान हैं। परन्तु अन्य जीव रूपों को मानना कुछ जटिल-सा है। सरलीकृत धर्म कहता है कि ये सभी लोक वास्तव में मनुष्यों की मनोवैज्ञानिक या मानसिक अवस्थाओं का उल्लेख करते हैं। शिक्षाओं के एक आयाम के अनुसार किसी भी सत्त्व का इनमें से किसी एक लोक में पुनर्जन्म होने के बाद यदि उसका अगला पुनर्जन्म मानव देह में होता है तो पिछले पुनर्जन्म के अनुभवों के कुछ अवशेष उस मानव पुनर्जन्म के अनुभवों में रह जाते हैं। तो वास्तव में मानव जन्म में इसके कुछ समरूप अनुभव होते हैं, परन्तु यह सम्पूर्ण धर्म की षड्गति की अवधारणा नहीं है।

सम्पूर्ण धर्म में सब कुछ उस अनादि-अनंत मानसिक समतान पर आधारित होता है। दृश्य, ध्वनि, भौतिक संवेदना, सुख-दु:ख इत्यादि के अनुभवों की जाँच करने पर हमें यह पता चलता है कि हमारे अनुभव, अभिरुचि, विरूचि, ध्यान तथा उसके अभाव, इत्यादि को प्रभावित करने और विशिष्ट रूप प्रदान करने के कई अलग-अलग मानदंड हैं। और प्रत्येक मानदंड का एक सम्पूर्ण पैमाना है जो पूर्ण अभिरूचि से पूर्ण विरूचि तक, पूर्ण ध्यान से पूर्ण अनवधान तक,  पूर्ण क्रोध से क्रोध के पूर्ण लोप, इत्यादि तक फैला हुआ है। हम सदा इसी तरह के पैमाने पर ही सबकुछ अनुभव करते हैं।

उदाहरण के लिए दृष्टि को ही देख लीजिए, जहाँ प्रकाश का पूरा वर्णक्रम है पर हमारी आँखें उसका केवल एक छोटा-सा अंश ही ग्रहण कर पाती हैं। हम अपनी कोरी आँखों से अवरक्त या पराबैंगनी प्रकाश नहीं देख पाते हैं, अपितु उन्हें देखने के लिए यंत्रसामग्री का उपयोग करना पड़ता है। परन्तु उल्लू को ही ले लीजिए, अपनी यंत्रसामग्री से वह उस अँधेरे में भी वस्तुओं को देख सकता है जहाँ हम नहीं देख पाते।

कुत्ते अपने कानों की यंत्रसामग्री से मानव कान की तुलना में अधिक उच्च आवर्तन संख्या की ध्वनि सुन सकते हैं। कुत्ते की नाक हमारी मानव नाक की तुलना में गंध को जल्दी पहचान लेती है। ये सारी बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं। मानव शरीर की ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विषयों के सम्पूर्ण सातत्य को आंशिक रूप से ही ग्रहण पर पाती हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि उस सातत्य का मनुष्य द्वारा अग्राह्य भाग किसी और के लिए भी अग्राह्य हो। ठीक वैसे ही जैसे हम पराबैंगनी और अवरक्त नहीं देख सकते हैं, इसका यह अर्थ नहीं होता कि वे विद्यमान नहीं हैं। उनके लिए बस अलग यंत्रसामग्री की आवश्यकता होती है।

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