यह जानना ठीक रहेगा कि अर्हत बनने के परिणाम क्या हैं। अर्हत क्या है, इसके बारे में कई अलग-अलग निश्चयात्मक कथन हैं, परन्तु क्योंकि हम महायान पथ के अनुयायी हैं, हम हीनयान के अभिकथनों को स्वीकार नहीं करते कि अर्हत बन जाने के बाद जब हम मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं तो हमारा मानसिक समतान समाप्त हो जाता है। यह अर्हत की हमारी अवधारणा नहीं है।
बोधिचित्त के विकास के अनुसार दो प्रकार के अर्हत
अर्हत या मुक्त सत्त्व दो प्रकार के होते हैं। एक है जो अर्हत बनना चाहता है और विमुक्ति के बाद उसके बोधिचित्त का विकास होता है और बोधिसत्त्व के पथ पर चलने लगता है। दूसरा है "निश्चित वंश-परंपरा युक्त बोधिसत्त्व अर्हत", जिसका अर्थ है कि उन्होंने बोधिचित्त को विकसित कर लिया था और अर्हत बनने से बहुत पहले ही बुद्धजन बनने का लक्ष्य बना लिया था; और वे बुद्धत्त्व के मार्ग पर चलते-चलते अर्हत्त्व प्राप्त कर चुके थे। पहले प्रकार के अर्हत को हम "हीनयान-प्रकार के अर्हत" कह सकते हैं। उनकी मृत्यु के बाद उनके मानसिक समतान शुद्ध क्षेत्र में बने रहते हैं। दूसरी ओर, निश्चित वंश-परंपरा युक्त बोधिसत्त्व अर्हत या तो शुद्ध क्षेत्र में बने रह सकते हैं या हमारे अस्तित्व के सामान्य स्तरों में प्रकट हो सकते हैं। हमारे "अशुद्ध" सांसारिक लोकों के विपरीत, शुद्ध क्षेत्र दु:ख-रहित होते हैं। परन्तु वे उन स्वर्ग लोकों की तरह नहीं हैं जैसा कि अन्य धर्मों में बताया जाता है। वे ऐसे स्थान हैं जहाँ परिस्थितियाँ उच्च धर्म-अध्ययन एवं ध्यान-साधना के लिए अत्यंत अनुकूल होती हैं।
दोनों प्रकार के विमुक्त सत्त्व त्रिधातु (सांसारिक अस्तित्व) और संसार (अनियंत्रित रूप से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म) से मुक्त हो गए हैं परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वे अपने पुनर्जन्मों को स्वतः नियंत्रित कर सकते हैं। निश्चित रूप से यह शब्द यहाँ सर्वोत्कृष्ट नहीं है क्योंकि "नियंत्रण" शब्द में "शक्ति" का भाव निहित है। बात मूलतः यह है कि वे फिर कभी अपने क्लेशों और कर्मों के कारण दोबारा जन्म नहीं लेंगे।
शुद्ध क्षेत्रों में अर्हत
जब किसी शुद्ध क्षेत्र में कोई विमुक्त सत्त्व (अर्हत) होकर रहता है, तो वह "उपादान स्कंध" से युक्त नहीं होता। ये वे स्कंध हैं जो प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वादश निदान की प्रक्रिया से क्लेश तथा कर्मों के कारण संचित होते हैं। अर्हत भी शरीर तथा चित्त दोनों ही से युक्त होते हैं, परन्तु ये शरीर एवं चित्त क्लेश जनित कर्मफल के कारण प्राप्त नहीं होते।
अर्हत का शरीर सूक्ष्म तत्त्वों से बना होता है। यहाँ बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण से ये तत्त्व हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु, जो पश्चिमी शब्दावली में ठोस, तरल, बाष्प, और ऊर्जा कहलाते हैं। शुद्ध क्षेत्र में ये सूक्ष्म तत्त्व अन्य अर्हतों को ही दिखाई पड़ते हैं, सामान्य मनुष्यों को नहीं। इन सूक्ष्म तत्त्वों के शरीर को "मानसिक शरीर" भी कहा जाता है, परन्तु ऐसा नहीं है यह मात्र काल्पनिक है। यह शरीर अलौकिक रूपधातु के निवासी सत्त्वों के शरीर के समान होते हैं। ये बीमारी, बुढ़ापा, या मृत्यु से ग्रस्त नहीं होते और अनंतकाल तक बने रहते है। वे वहाँ "शांतान्त" (संतुष्टि की चरम सीमा) नामक स्थिति में रह सकते हैं, जहाँ वे शून्यता या चार आर्य सत्यों के किसी भी अन्य विषयों पर ध्यान-साधना कर सकते हैं, या बोधिचित्त को विकसित कर महायान का अध्ययन और साधना करते हुए शुद्ध क्षेत्र में रह सकते हैं, या फिर हमारे सामान्य लोकों में प्रकट हो सकते हैं।
यदि हम महायान पथ के क्रमिक चरण, लाम-रिम, का अनुसरण करने वालों में से हैं तो हम केवल शुद्ध क्षेत्र में ही नहीं रहना चाहेंगे। निश्चय ही तंत्र में ऐसी साधनाएँ हैं जिनके द्वारा हम अपनी चेतना को शुद्ध क्षेत्र में अंतरित कर सकते हैं, और वहाँ बोधिसत्त्व के रूप में किसी प्रकार के मानसिक भटकाव नहीं होंगे। परन्तु याद रखने की बात यह है कि यह घूमने-फिरने और भोग-विलास करने का स्थान नहीं है, अपितु यहाँ पूरा समय साधना और अध्ययन करने में ही व्यतीत होता है। हम ऐसा या तो अर्हत या बोधिसत्त्व अर्हत बनकर कर सकते हैं, या फिर दूसरों की सहायता करने के लिए संसार में प्रकट हो सकते हैं। संभवतः यह व्यक्तिगत मनोवृत्ति या स्वभाव पर निर्भर है।
हमारे सामान्य संसार में अर्हत का शरीर
जब अर्हत के शरीर के सूक्ष्म तत्त्व सामान्य संसार में प्रकट होते हैं तो उसके अपने माता-पिता के अंडाणु और रजवीर्य के स्थूल तत्त्वों से संबंध ठीक उसी तरह बैठ जाता है जिस तरह बुद्ध के प्राकट्य पर होता है। यह ऐसा नहीं है कि किसी प्रकार की "आत्मा" या भौतिक सूक्ष्म शरीर स्थूल तत्त्वों में प्रवेश करता हो, और न ही यह कोई पृथक वस्तु है जो इस स्थूलतर शरीर का उपयोग करती हो, या उसका स्वामी बनकर नियंत्रण करती हो। इसका अर्थ यह हुआ कि अर्हत या बुद्धजन के शरीर के स्थूल तत्त्व, जो प्रक्षेपण का आधार हैं, जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि के अधीन हैं, परन्तु उनके शरीर के सूक्ष्म तत्त्व नहीं। वे इन सबसे विमुक्त हैं।
कलुषित और अकलुषित स्कंध
गेलुग प्रासंगिक परिभाषा के अनुसार कलुषित स्कंध वे हैं जो सत्यसिद्ध अस्तित्व के स्वरूप का निर्माण करते हैं, जबकि अकलुषित स्कंध इन स्वरूपों का निर्माण नहीं करते। जब अर्हत शून्यता पर पूर्ण रूपेण एकाग्रचित्त हो जाता है और उसका चित्त सत्यसिद्ध अस्तित्व का निर्माण नहीं करता तब उसके उस काल के स्कंध अकलुषित होते हैं। परवर्ती सिद्धिकाल में जब वह अर्हत शून्यता में पूर्ण रूप से एकाग्रचित्त नहीं रहता तो उसके स्कंध सत्यसिद्ध स्वरूपों का निर्माण करते हैं। उस समय वे स्कंध कलुषित होते हैं।
तो सामान्य रूप से कहें तो किसी भी अर्हत के स्कंध कभी कलुषित रहते हैं और कभी नहीं। दूसरी ओर बुद्धजनों के केवल अकलुषित स्कंध होते हैं, क्योंकि वे शून्यता में सदा पूर्णतया मग्न-चित्त रहते हैं। इसलिए बुद्धजन तथा अर्हतों के शरीर के सूक्ष्म तत्त्वों में अंतर होता है। फिर भी जब वे इस संसार में आते हैं तो दोनों ही अपने-अपने माता-पिता के शरीर के स्थूल तत्त्वों, अण्डाणु-रजवीर्य, के आधार पर ही प्रक्षेपित होते हैं।
हम अर्हत बनने का प्रयास करते हैं और यहाँ बहुत अधिक जानकारी है, इसलिए यह ठीक होगा यदि हम जाने लें कि आख़िर इसका अभिप्राय क्या है। अर्हत होकर हम दूसरों की सहायता और लाभ हेतु बोधिसत्त्व पथ पर चलते रहना चाहते हैं। यही कारण है कि हम संसार में प्रकट होते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि लोगों की कोई ऐसी सूची हो जो हमारे माता-पिता बन सकते हैं, और हमारी कोई ऐसी शक्ति हो जिससे हम यह चुन सकें कि हम इस बार किसके यहाँ जन्म लेंगे। परन्तु अनेक प्रतीत्यसमुत्पाद कारकों के कारण हमारे अर्हतीय सूक्ष्म तत्त्वों एवं मानव जोड़ी के अंडाणु-रजवीर्य के स्थूल तत्त्वों के बीच एक सम्बन्ध बन जाता है।
अर्हतों को दु:ख का अनुभव नहीं होता
निश्चित रूप से स्थूल तत्त्व अनित्यता आदि के सभी नियमों के अधीन होते हैं और इसलिए वे दोष या रोग से ग्रस्त हो सकते हैं। वे जीर्ण हो जाएँगे और एक अर्हत के रूप में अपने मन का आधार बनने की उनकी क्षमता भी समाप्त हो जाएगी। यद्यपि स्थूल तत्त्व भौतिक शास्त्र के नियमों के अधीन होते हैं, वे कर्म के नियमों के अधीन नहीं हैं। उनके साथ जो भी होता है वह क्लेश एवं कर्म के कारण नहीं होता। परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारा सूक्ष्म शरीर रोग, जरा, और मृत्यु के अधीन नहीं रहेगा।
इसके अलावा, एक अर्हत होने के नाते स्थूल तत्त्वों के साथ तीन प्रकार के दुःखों के सन्दर्भ में जो भी होगा उसका हम अनुभव नहीं करेंगे। अप्रिय स्थितियों का दुःख, सामान्य सुख, तथा संस्कारदु:खता (सर्वव्यापी प्रभावशाली दुःख) कुछ भी नहीं होगा। हम सबकुछ या तो सहर्ष या स्थितप्रज्ञ होकर भोगेंगे, और दोनों में से एक भी सत्यग्राह तथा स्नेह (आसक्ति) से मिश्रित नहीं होगा। एक अर्हत के रूप में हम किसी उच्च स्तर के ध्यान में समाधिस्थ हो सकेंगे जहाँ केवल समचित्तता ही होती है। परन्तु एक बुद्धजन के रूप में हमें केवल उस आनंद की प्राप्ति होगी जो किसी भी प्रकार के क्लेश से मुक्त हो। इसे तंत्र में सुख (आनंदप्रद सचेतनता) के नाम से वर्णित किया गया है।
हमने अभी इसे समझने में कुछ समय बिताया है, परन्तु यदि हम संसार को त्यागने का उद्देश्य रखते हैं तो आगे क्या होगा? यदि हमें इस बात की कोई भनक भी नहीं है कि आगे क्या होने वाला है या हमारा लक्ष्य क्या है, तो फिर यह कहना बहुत मुश्किल होगा कि, "वाह, मैं सांसारिक पुनर्जन्म से मुक्त होना चाहता हूँ।"
एक अर्हत का सूक्ष्म शरीर एक बुद्ध के रूपकाय के समान नहीं है
एक और बात ध्यान में रखने की यह है कि अर्हत का सूक्ष्म शरीर बुद्ध के सूक्ष्म शरीरों, बुद्ध की भौतिक काया, के समान नहीं होता। हमें दोनों के बीच का अंतर याद रखना चाहिए। बुद्ध के सूक्ष्म शरीरों को निर्माणकाय और सम्भोगकाया कहा जाता है, और एक अर्हत की सूक्ष्म काया, या "मानसिक काया" की तुलना में ये कहीं अधिक सूक्ष्म होते हैं। परन्तु जिस तरह से वे माता-पिता के स्थूल तत्त्वों पर आरोपित होते हैं, वह एक-समान है।
करुणा और प्रार्थना, कर्म नहीं
अर्हत होने से पहले इस सांसारिक अस्तित्व में हमारे साथ जो होता है वह हमारे तथा अन्य सत्त्वों के मानसिक समतानों पर अनेकानेक कारकों के प्रभावों के परिणामस्वरूप होता है। उदाहरण के लिए, हम अपनी गाड़ी चला रहे हैं और कोई दूसरा उसके सामने आ गया और हमारी उससे टक्कर हो गई। यह मेरे और उसके कर्मों के संयुक्त परिणामस्वरूप हुआ है, न कि केवल मेरे अकेले के। परन्तु जब हम बोधिसत्त्व अर्हत या बुद्धजन हो जाते हैं तो हमारे साथ जो भी होता है वह हमारी परहित करुणा एवं प्रार्थना का परिणाम होता है। जबकि दूसरों के मामले में यह उनके कर्मों का फल है। परन्तु यह निश्चित रूप से हमारे अपने कर्मों का परिणाम नहीं है, क्योंकि इन कर्मों का मुख्य उद्देश्य है दूसरों को लाभ पहुँचाने की हमारी इच्छा। इसलिए हम अनगिनत सत्त्वों को अपने चारों ओर होने का मानस-दर्शन करने की महायान साधना करते हैं ताकि हम उन सबसे अपना संबंध स्थापित कर सकें।
बोधिसत्त्व अर्हत या बुद्धजन के रूप में जब हम किसी से मिलते हैं या उनके साथ व्यवहार करते हैं तो हमारे भीतर उस व्यक्ति के प्रति कोई क्लेश की भावना नहीं होती। किसी प्रकार का राग या द्वेष नहीं होता। परन्तु हो सकता है उस दूसरे व्यक्ति के भीतर अपने कर्मों तथा अन्य कारकों के कारण हमारे प्रति आसक्ति या द्वेष की भावना हो। हमारे व्यवहार की बाह्य एवं आतंरिक प्रेरणा शक्ति भिन्न हो सकती है परन्तु हमारे भीतर सबके प्रति पूर्ण करुणा एवं समतुल्यभाव ही रहेगा।