भूमिका
यदि हमने तंत्र की दीक्षा ग्रहण की है तो सामान्यतया हम वचनबद्ध होते हैं अपने शेष जीवन के लिए, प्रतिदिन सहायक साधनाएँ करने के लिए। अनेक तिब्बतवासी ये अभिषेक अपने भावी जीवनकालों के लिए बीज बोने की प्रेरणा से ग्रहण करते हैं । अपने जीवन में तंत्र की गहन साधना उनका लक्ष्य बिल्कुल नहीं होता सिवाय प्रतिदिन कुछ मन्त्रों का उच्चार करने के। पश्चिमवासियों के रूप में हममें से अधिकाँश पुनर्जन्म को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हैं और इसलिए हम केवल इस जीवन के विषय में ही सोचते हैं। यद्यपि हम अपनी दैनिक साधना कर रहे होते हैं परन्तु प्राय: ऐसा अनुभव होता है कि हम कहीं पहुँच नहीं पा रहे। यह एक खोखली रस्म बनकर रह सकता है जिसमें हम कुछ शब्द दोहराते चले जाते हैं चाहे वह अंग्रेजी में हों अथवा तिब्बती भाषा में – जो भाषा हम बिलकुल नहीं जानते।
यदि हमने प्रतिदिन साधना करने का वचन दिया है, तो हमें प्रयास करना चाहिए कि हम यथासंभव उसे प्रभावी बनाएं और पूरे मनोयोग से उसे सम्पादित करें।
कहा जाता है कि तंत्र की साधना से – विशेषतया तंत्र की उच्चतम श्रेणी से – इसी जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्ति संभव है। वस्तुत: यह तीन वर्ष और तीन पखवाड़ों तक में संभव है। यह अत्यंत मोहक प्रतीत होता है और यद्यपि सैद्धांतिक रूप से यह संभव है, पर हमें समझना चाहिए कि इसकी संभावना बहुत कम है। तंत्र साधना अत्यंत कठिन है और हो सकता है कि महायान सूत्र साधना की भांति इसमें असंख्य कल्प अपेक्षित न भी हों तो भी तंत्र के माध्यम से ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए असाधारण जीवनकाल की सघन साधना अपेक्षित है। सघन साधना से तात्पर्य है प्रतिदिन 24 घंटे, कोई अवकाश नहीं – तंत्र साधना में आलस्य का कोई स्थान नहीं!
अधिकाँश अभिषेक संस्कारों में, तांत्रिक आचार्य तंत्र के मूलभूत सिद्धांत की व्याख्या करते हैं और समझाते हैं कि वह तंत्र में किस प्रकार सहायक होता है, इस प्रेरणा के साथ कि इस परिष्कृत पद्धति के प्रति साधक उत्साहित हो और उनमें गहन सम्मान उत्पन्न हो। हमें वास्तव में इसका सम्मान करना चाहिए – यदि हम इस युग के हजारों बुद्धजन की सूची पर ध्यान दें, तो बहुत कम तंत्र की शिक्षा दे सकते हैं। तत्परिणाम हम तंत्र से गंभीरतापूर्वक होने के लिए प्रेरित होते हैं ।
“गंभीरतापूर्वक” संसक्त होने का वास्तव में क्या अभिप्राय है? यह केवल अपनी दैनिक वचनबद्धताओं को पूरा करना नहीं है जो कुछ लोग बाद में छोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें यह उबाऊ लगने लगता है अथवा उनके पास समय नहीं होता। यदि हम युवावस्था में दीक्षित होते हैं तो हम आदर्शवादी होते हैं और तब यह नहीं सोच पाते कि परिवार और जीवनवृत्ति के लिए कितना समय और दायित्व–निर्वाह अपेक्षित होगा। यदि हम जीवनभर दैनिक साधना कर पाते हैं तो हमें लाम-रिम के सभी स्तरों का अभ्यास करना चाहिए। हमें सच्चे मन से और भावात्मक रूप से अपने जीवन में क्रमिक स्तरों को समेकित करना चाहिए।
हमें इसे सरल नहीं मानना चाहिए। दूसरा स्तर पहले स्तर पर निर्भर है तथा तीसरा स्तर दूसरे स्तर पर निर्भर है। हम छोड़-छोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकते। जब तक कि हमने पिछले स्तर दृढ़तापूर्वक स्थिर न कर लिए हों अन्यथा हमारी पूरी साधना पूरी तरह डगमगा जायेगी। इन भिन्न-भिन्न स्तरों का महत्व यह है कि ये हमारी दैनिक साधना में सहायक होते हैं और हमें प्रभावी रूप से तंत्र साधना में सहायता करते हैं।
आध्यात्मिक शिक्षक
लाम-रिम का आरम्भ आध्यात्मिक गुरु के महत्त्व की व्याख्या से होता है। स्पष्ट ही है कि अभिषेक के लिए हमें किसी गुरु की आवश्यकता होती है। वे हमें बुद्ध से आरम्भ होने वाले आचार्यों के वंशानुक्रम से जोड़ते हैं और हमें साधना की प्रामाणिकता एवं प्रभविष्णुता के विषय में आश्वस्त करते हैं। जब हम संवर तथा वचन धारण करते हैं तो गुरु उसमें एक व्यक्तिगत आयाम भी जोड़ देते हैं। बुद्ध के मानस-दर्शन कराने का वचन वह भावात्मक आयाम प्रदान नहीं कर सकता जैसा कि किसी सामने बैठे हुए व्यक्ति के प्रति हो सकता है।
हमारे आध्यात्मिक गुरु कोई ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जो हमें भावात्मक स्तर तक प्रेरित एवं आंदोलित करें। उनके प्रति हमारे मन में जितना अधिक सम्मान एवं सराहना का भाव होगा हमारे भीतर उतना ही गहन अनुशासन तथा वचनबद्धता होगी। सूत्रों में निर्देश दिया गया है कि हम अपने गुरु को अपने शीश पर अथवा अपने ह्रदय में लघु रूप में आसीन देखें। यदि हम अपने गुरु को इस रूप में पूरे दिन सचेत भाव से देखेंगे तो उनके समक्ष कोई भी दायित्वहीन कृत्य करना कठिन होगा!
सम्मान एवं सराहना जनित जो गहन मनोभाव विकसित होता है उससे हमें न तो अशांत होना चाहिए और न ही आसक्त। इससे बहुत विश्वास जागृत होता है और जब हमसे कुछ अप्रिय करने को कहा जाता है तो हम न तो क्रोधित होते हैं और न ही दुखी। हम दंभ से भरकर यह भी नहीं सोचते कि जो हम सोच रहे हैं वही सर्वोत्तम है। हम अपना अवमूल्यन नहीं करते। स्वयं को अभागा, सद्गुणों से रहित, तुच्छ प्राणी मानकर गुरु को साक्षात वन्दनीय आलंबन नहीं मानते। पांचवे दलाई लामा ने स्पष्ट कहा था कि हमें गुरु के सद्गुणों और उनकी कमियों में सविवेक भेद करना चाहिए। चूँकि गुरु में दुर्गुणों की अपेक्षा सद्गुण अधिक होते हैं, हम उन पर ध्यान केन्द्रित करके कहीं अधिक लाभ अर्जित करते हैं।
मृत्यु एवं अनित्यता
एक बार जब हम अपने बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म का मोल समझ चुके होते हैं, हम मृत्यु एवं अनित्यता पर विचार करते हैं। हमारा जीवन अनित्य है इसलिए एक न एक दिन हमारी मृत्यु अवश्य होगी, हम कभी न कभी मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि मृत्यु वृद्ध अथवा युवा, रोगी अथवा स्वस्थ प्राणी के बीच विभेद नहीं करती। जब हमारी मृत्यु होगी तब कुछ भी सहायक नहीं होगा सिवाय उन सकारात्मक आदतों के जो हमनें धर्म-साधना के माध्यम से विकसित की हैं।
तंत्र साधना का उद्देश्य है मृत्यु एवं पुनर्जन्म से छुटकारा पाना जो कि जन्म दर जन्म कष्ट उठाने का कारण है। तंत्र की उच्चतम श्रेणी में साधनाएँ इस प्रकार बनायी गयी हैं जो कि मृत्यु प्रक्रिया, मध्यवर्ती स्तर और पुनर्जन्म का प्रतिरूप हैं। हम इन साधनाओं को इसलिए करते हैं कि हम बुद्धत्व प्राप्ति के लिए इन साधनाओं का अभ्यास करें ताकि हम साधारण मृत्यु, अन्तराभाव और पुनर्जन्म के स्थान पर इन्हें प्रतिस्थापित कर सकें।
जब हमारी मृत्यु होती है, निस्संदेह हमारी चेतना विलीन हो जाती है जो कि चित्त के अत्यधिक सूक्ष्म स्तर के लिए रास्ता बनाती है। यदि तब भी हमारे भीतर सचेतन भाव का अभाव है तथा अशान्तकारी मनोभावों जनित कार्मिक सम्भाव्यताएं हैं तो वे संभवत: प्रकट होकर हमें निम्न पुनर्जन्म में ले जायेंगी। सांसारिक छवि एवं अस्तित्व को जन्म देने के स्थान पर तंत्र के माध्यम से हम एक ज्ञानोदय प्राप्त अस्तित्व का निर्माण करेंगे, शून्यता के बोध एवं बोधिचित्त प्रेरणा सहित। तंत्र की इस उच्चतम श्रेणी के पहले स्तर में हम कल्पना करते हैं कि हम चित्त के सूक्ष्मतम स्तर तक पहुँच गए हैं जो कि ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध छवि से उत्पन्न होता है, सामान्य सांसारिक रूप के स्थान पर। यह रूप सामान्य भी हो सकता है जैसे कोई अंतराभाव छवि जो कि बुद्ध की सम्भोग काया छवि के समकक्ष हो अथवा वह निर्माण काया समतुल्य जटिल छवि भी हो सकती है जो पुनर्जन्म के समरूप हैं।
हम ऐसे मानस-दर्शन से अभ्यास करते हैं आरम्भिक “सृजन स्तर” का, तत्पश्चात “पूर्ण स्तर” का जिसमें पूरी तैयारी हो जाती है अपनी सूक्ष्म ऊर्जा प्रणाली के अभ्यास हेतु। सूक्ष्मतम ऊर्जा में से हम वास्तव में एक सूक्ष्म रूप का सृजन करते हैं – सांसारिक रूप के स्थान पर – जिसे “काल्पनिक काया” कहते हैं। यह अभ्यास ध्यान साधना में किया जाता है और इसके इतर यह संभव नहीं है। फिर भी, अपनी सूक्ष्म ऊर्जा प्रणाली पर एकाग्र होकर शुद्ध रूपों का मानस-दर्शन इस रूप में कर पाना संभव होता है, स्वयं को अन्तत: एक ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध के रूप में निर्मित करके।
यदि हम मृत्यु, अंतराभाव एवं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते और यदि हमें अनित्यता पर भरोसा नहीं है तो हमारी साधना निरर्थक हो जाती है। हमें दृढ़ता से सोचना चाहिए “एक न एक दिन मेरी मृत्यु होगी और मेरी इच्छा है कि वह सामान्य मृत्यु, अंतराभाव एवं पुनर्जन्म न हो।” आधारभूत स्तर पर हमारी मृत्यु किसी निकृष्ट पुनर्जन्म को जन्म दे सकती है जिसमें यह बहुमूल्य मानव जीवन और उससे संसक्त स्वतंत्रता नहीं होगी। पूर्णतया आश्वस्त होना कि एक दिन किसी अनिश्चित समय में हमारी मृत्यु हो जायेगी हमें प्रेरित करता है कि हम नकारात्मकता का सृजन करने से बचें। यदि हम चार आर्यसत्यों की सरंचना के रूप में मृत्यु, अंतराभाव एवं पुनर्जन्म के विषय में सोचें, तो प्रथम दो सत्यों की गंभीर ध्यान साधना करके – सत्य समस्या तथा समस्या का सत्य कारण – उस कामना को जन्म देगा कि हम अपने कष्टों से छुटकारा पाने के लिए अभ्यास करें।
मृत्यु एवं अनित्यता के विषय में हम जितना अधिक सचेत होंगें, हमारी दैनिक साधना उतनी ही प्रभावी होगी। मृत्यु के अनेक कारण होते हैं – ट्रक से टकराकर, ह्रदयघात होकर, दूषित भोजन करके – और फिर ऐसी निम्न गतियाँ हैं जिनमें हमारा जन्म हो सकता है जिनमें असंख्य जीव कष्ट पा रहे हैं। जीवन के अनादि होने का अभिप्राय यह है कि हमने निस्संदेह ऐसी नकारात्मक संभाव्यताओं का निर्माण किया है कि हमारा पुनर्जन्म किसी तिलचट्टे या उससे भी निकृष्ट योनि में हो। यद्यपि यह समझ पाना कठिन होगा कि एक भूखे प्रेत या नरकवासी की गति कैसी होगी परन्तु हम उन लोगों के जीवन पर विचार कर सकते हैं जो निर्धनतम देशों में रहते हैं। पूरे विश्व में ऐसे लोग हैं जो भूख से दम तोड़ रहे हैं, जिन्हें गदला पानी भरने के लिए मीलों चलकर जाना पड़ता है और जिनका अब भी शोषण हो रहा है। यदि हम गंभीरतापूर्वक ऐसे अनुभवों पर विचार करें तो हमारे भीतर इनसे बचने की उत्कट प्रेरणा जागृत होगी।
शरणागति
लाम –रिम का अगला विषय है शरणागति - सुरक्षित दिशा की ओर अपने जीवन को दिशा देना। यहाँ हम दो अंतिम आर्यसत्यों को अपना लक्ष्य बना रहे हैं जिसमें हम उन भ्रमकारी कारकों को पूर्णत: मिटा देते हैं जिनसे पुनर्जन्म और कष्ट होते हैं। इसके साथ ही हमें वास्तविकता का सही बोध होता है और हम अपने सद्गुणों को पूरी तरह समझ जाते हैं। यह गहनतम धर्म रत्न है।
हमें अपने मानसिक सातत्य की मूलभूत शुद्धता को – यानी बुद्ध प्रकृति को – तथा इस बात को समझना होगा कि सभी भ्रमकारी कारक क्षणभंगुर हैं। चूँकि वे अस्थायी हैं इसलिए उन्हें सदा के लिए, पूर्णत: दूर किया जा सकता है। यदि हम इस संभावना के विषय में आश्वस्त नहीं हैं तो फिर हम मृत्यु, अंतराभाव तथा पुनर्जन्म के अनुभवों को दूर करने के विषय में प्रयास ही क्यों करेंगे। यदि हमें पूरी तरह विश्वास नहीं है कि बुद्ध तथा कुछ आर्य संघ यह सिद्ध कर चुके हैं तो हम स्वयं इसे सिद्ध करने की आशा भी कैसे कर सकते हैं?
जब हम समझ जाते हैं कि बुद्ध ने किस प्रकार ज्ञानोदय प्राप्त किया और किस प्रकार आर्य संघ पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए प्रयासरत है तो इससे हमें असाधारण प्रेरणा प्राप्त होती है। इस लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उन्होंने जो किया उससे परिवर्तन आया और हम भी वही दिशा चुन लेते हैं। यही शरणागति है।
विनाशकारी व्यवहार से बचना
प्रेरणा के आरम्भिक विषय विस्तार में अंतिम बिंदु आता है विनाशकारी व्यवहार से बचना क्योंकि यह निम्न पुनर्जन्म को जन्म देता है। इस बोध पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से हमें अपने संवर तथा वचनबद्धताओं का निर्वाह करने की शक्ति मिलती है। कल्पना कीजिये कि हम वास्तव में देख पाते कि विनाशकारी व्यवहार से किस प्रकार के कष्ट और भयावह पुनर्जन्मों की उत्पत्ति होती है तो हम छोटे से छोटा विनाशकारी कृत्य नहीं कर पाएंगे।
निस्संदेह कुछ अधम विनाशकारी आचरण भी हैं जैसे हत्या, चोरी और झूठ बोलना। इनमें घोरतम है एक विकृत प्रतिरोधी मनोदृष्टि होना जिसके अधीन हम सोचते हैं कि नकारात्मकता से बचना मूर्खता है तथा तंत्र की साधना, समय नष्ट करना है। इस प्रकार का चिंतन हमें उन पद्धतियों का त्याग करने के लिए उकसाता है जो वास्तव में कष्ट से बचने में सहायक हैं।
सारांश
यदि हमने लाम-रिम के आरम्भिक विषय विस्तार की एक सुदृढ़ आधारशिला निर्मित नहीं की है तो यह खतरा रहेगा कि हमारी तांत्रिक साधना एक खोखली रस्म बनकर रह जाए और हमारी रूचि धीमे-धीमे समाप्त हो जाए।
इस बात का बोध कि हमारा जीवन कितना बहुमूल्य है और किस प्रकार किसी भी क्षण इसका अंत हो सकता है, हमें प्रेरित करता है कि हम इसका भरपूर लाभ उठायें। मृत्यु के समय हमारे मित्र, हमारा शरीर तथा धन सम्पदा कुछ भी काम नहीं आयेंगे – केवल धर्म की साधना से जो सकारात्मक आदतें हमने सीखीं हैं वही काम आयेंगी। यह बोध हमारे भीतर अपने जीवन को एक सही दिशा में मोड़ने तथा धर्म-साधना में आनंद अनुभव करने के लिए तीव्र इच्छा उत्पन्न करेगा।