क्या सामान्य जीवन संतोषजनक है?
लाम-रिम क्रमिक स्तरीय मार्ग के अनुसरण में सबसे महत्त्वपूर्ण है उसका गंभीरता से पालन करना। गंभीरता से पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि उसके अध्ययन के समय हँसी-मज़ाक न करें, उसको लेकर प्रसन्न न हों और सदा मुँह लटकाए रहें। उसका यह अर्थ नहीं है। अपितु उसका अर्थ है, कि यदि हम इस आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करें, तो न केवल उस मार्ग और उसपर सफल हुए लोगों का भरपूर आदर करें, बल्कि अपना भी आदर करें।
इसके अतिरिक्त, उसे हल्के में न लें, बल्कि सोचें, "यदि मैं इस मार्ग पर चलकर अपना कल्याण करना चाहता हूँ, तो मैं ऐसा अत्युत्तम ढंग से करूँ।" इसका आधार है इसके महत्त्व को समझना, और यह महत्त्व केवल "पवित्र, पवित्र लामा" या "पावन, पावन" या कुछ ऐसे पर आधारित नहीं है।
यह मात्र श्रद्धापूरित अभ्यास नहीं है। बल्कि, हम अपने और अपने आसपास सब लोगों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं, जिन्हें हम जानते हैं, और जिन्हें हम नहीं भी जानते, वे निर्धन लोग जिन्हें हम सड़कों पर देखते हैं और आवारा कुत्ते भी। हम उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो निरंतर आजीवन काम करते रहते हैं और उनकी समस्याएँ समाप्त ही नहीं होतीं और अंत में वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। हम जितने भी लोगों को जानते हैं, जब हम उनसे अधिक परिचित हो जाते हैं तो हम देखते हैं कि चाहे वे कितने भी समृद्ध क्यों न हों, सतही तौर पर हमेशा चाहे कितने भी प्रसन्न क्यों न दिखें, उन सबका अपना-अपना संसार है, अपने-अपने दुःख हैं। समस्याएँ भिन्न हैं, परन्तु कुछ समस्याएँ एक जैसी भी हैं - जैसे बढ़ती आयु के साथ तरह-तरह की वेदना और कष्ट इत्यादि। वह सब भयावह है।
क्या जीवन का निचोड़ यही है? यदि हाँ, तो यह तो भयंकर है, नहीं क्या? परन्तु, यदि हम इसके बारे में कुछ कर पाएँ, यदि इस अवस्था से निकल पाना संभव हो, तो वह अद्भुत होगा। और तो और यदि सभी इस अवस्था से उबर पाएँ, तो वह और भी अद्भुत होगा। हमें ढूँढ़ने की आवश्यकता है कि क्या इसका कोई उपाय है? केवल हाथ पर हाथ रखकर न बैठना, झुंड की भेड़ की भांति जो अपने वध की प्रतीक्षा कर रही हो। हमें सोचना चाहिए कि क्या कोई उपाय है, और यदि है, तो क्या ऐसा वास्तव में संभव है?
पहले हम स्थिति को गंभीरता से परखते हैं: हम यह देख रहे हैं, ऐसा हो रहा है,"क्या मैं ऐसा होते रहने दूँ, या इससे निकलने का प्रयास करूँ?" यह उन तीन मार्गों में से पहला है जिसकी हम बात कर रहे हैं, निःसरण। लेकिन, जब हम एक मार्ग की बात करते हैं, तो इसका अर्थ क्या है? हम राह पर पड़े पत्थरों की बात नहीं कर रहे, अपितु एक चित्तावस्था की और सम्प्रेषण व व्यवहार के ऐसे ढंग की जो ऐसी मनःस्थिति से उद्भूत होता है जिसपर चलकर हम अपने लक्ष्य तक पहुँचेंगे। यहाँ, हमारा पहला लक्ष्य है इस सबसे छुटकारा पाना।
जैसे मैं कहता हूँ, हमें इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए। "यदि मैं ऐसा कर पाता हूँ और इस दिशा में बढ़ता हूँ, तो इससे मेरा जीवन सार्थक होता है। मैं अपना जीवन सार्थक ढंग से व्यतीत कर रहा हूँ, केवल चक्कर काट-काटकर मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं कर रहा, छोटे-छोटे सुखदायक अनुभवों इत्यादि से संतुष्ट होकर, जो आरम्भ में अच्छे लगते हैं, परन्तु वास्तव में संतोषजनक नहीं होते।" यदि वे संतोषजनक होते, तो हमें उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके अतिरिक्त, यह सुख फीका पड़ जाता है; इस बात की कोई निश्चितता नहीं होती कि हम अगले क्षण क्या महसूस करेंगे, या भविष्य में क्या होने वाला है। यह बहुत संतोषजनक नहीं है; बहुत निश्चित नहीं है।
हमने अपने जीवनकाल में जो भी खिलौने, भौतिक वस्तुएँ आदि एकत्रित की हैं, उनका हमारी मृत्यु के समय क्या होगा? कुछ विशेष नहीं। पैसा केवल काग़ज़ के कुछ टुकड़े हैं जिनपर कुछ नंबर लिखे हुए हैं। हमने कई लोगों की मृत्यु के पश्चात देखा है कि जो उनकी वांछित वस्तुएँ थीं, वे तुरंत कूड़ा हो जाती हैं और फेंक दी जाती हैं। तो लाभ क्या हुआ? माना कि अच्छा था, परन्तु क्या जीवन का उद्देश्य यही है? निस्संदेह, हमें एक अच्छे वातावरण और सुखमय परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, परन्तु हमारी बुनियादी ज़रूरतों के पूरा होने के बाद, हमें और अधिक नहीं चाहिए होता। जैसा तिब्बती कहते हैं, हम अपना पेट केवल उसकी अधिकतम क्षमता तक ही भर सकते हैं; अपने अंदर ठूँसने की सीमा होती है।
त्रिविधम् मार्गों का विकास
इस मार्ग का सम्पूर्ण ऊर्जा से अनुसरण करने के लिए, हमें इसके विषय में गंभीर होना होगा। इसकी तैयारी, निस्संदेह, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ताकि ज्ञानोदय के क्रमिक स्तरों यानी लाम-रिम के इन त्रिविधम् मार्गों के विकास के लिए हमारी मनोदशा उपयुक्त हो। तैयारी से अधिक बुनियादी है वह जो हम आरम्भ में करते हैं, यानी प्रेरणा निर्धारित करना। उस प्रेरणादायक मनोदशा के भीतर होती है प्रेरणादायक अनुभूति या मनोभाव, और होता है प्रेरणादायक लक्ष्य। किन्तु, इस सब को गंभीरतापूर्वक समझने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है इस विश्वास का होना कि उस लक्ष्य की प्राप्ति संभव है।
निस्संदेह, हमें उस लक्ष्य को समझना होगा - केवल यह नहीं कि "ज्ञानोदय" जैसा एक सुन्दर शब्द हो परन्तु इसकी रत्ती-भर भी समझ न हो कि उसका अर्थ क्या होता है। यदि हमें ज्ञानोदय की सही समझ होगी, तब हम दूसरे चित्तमार्ग का विकास कर पाएँगे, जो है बोधिचित्त; जिसका लक्ष्य है उसकी प्राप्ति।
उदाहरण के लिए, यदि हम एक यात्रा पर जाना चाहते हैं और हमें ठीक से पता नहीं है कि हम कहाँ जा रहे हैं, तो हमारा वहाँ पहुँचना लगभग असंभव है, है न? हो सकता है कि हम सड़क पर सही दिशा में भी न जा रहे हों। उस मंज़िल को अपना लक्ष्य बनाने के लिए हमें उसे ही नहीं बल्कि यह भी विश्वास के साथ समझना होगा कि वहाँ पहुँच पाना संभव है; वर्ना यात्रा करने का लाभ ही क्या है? इसके अलावा, हमें इस बात पर भी दृढ़ विश्वास करना होगा कि सैद्धांतिक रूप से उस लक्ष्य की प्राप्ति केवल संभव ही नहीं बल्कि हम उस लक्ष्य तक पहुँचने में सक्षम हैं। यद्यपि हम में से कई लोग बौद्ध धर्म और बौद्ध परम्पराओं से जुड़े हुए हैं, हमने बहुत गहनता से यह विचार नहीं किया है, "क्या मैं सच में समझता हूँ कि ज्ञानोदय संभव है? क्योंकि यदि यह संभव नहीं है, तो मैं आखिर यहाँ क्या कर रहा हूँ? मैं अपने घुटनों को कष्ट देकर, बैठकर ध्यान-साधना करने का प्रयास क्यों कर रहा हूँ?"
यह विश्वास होने के लिए कि ज्ञानोदय प्राप्त करना संभव है, इस तीसरे चित्तमार्ग का होना अनिवार्य है, जो है यथार्थ या शून्यता का बोध। जब हम इन त्रिविधम् मार्गों की बात करते हैं - निस्संदेह, हम इनका विकास क्रमिक रूप में करते हैं - पहले आता है निःसरण, फिर बोधिचित्त, और फिर शून्यता का बोध। यदि हम किसी ग्रन्थ की रचना कर रहे हैं और लोगों की विकास के मार्ग पर अगुवाई करते हैं, तो एक समय पर हम केवल एक के विषय में चर्चा और उसका पालन कर सकते हैं। फिर भी, जब हमें इन तीनों का सामान्य ज्ञान हो जाए, तो हमें इन तीनों को साथ रखकर शुरू से आरम्भ करना चाहिए, और हर छोटे कदम पर इन तीनों को लागू करना चाहिए।
हम अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि से आरम्भ करते हैं, जिसमें, जैसा मैंने कहा, एक प्रेरणादायक लक्ष्य और प्रेरणादायक मनोभाव शामिल हैं जो इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें प्रेरित करते हैं। सभी प्रमुख त्रिविधम् मार्ग यहाँ प्रासंगिक हैं। हम और अन्य सभी जिस कष्टदायी स्थिति में हैं उसे हमें त्यागने की आवश्यकता है, जिसका अर्थ है कि हम सोचें, "मैं इसे त्यागने के लिए तत्पर हूँ क्योंकि यह न केवल भयावह और घृणित है, बल्कि उबाऊ भी।" यह गोल -गोल चक्कर काटने जैसा है। हम एक से दूसरी समस्या की ओर बढ़ते जाते हैं, एक के बाद एक अस्वास्थ्यकर सम्बन्ध, एक के बाद एक आपा खो बैठने की घटना। यह कितना उबाऊ है!
जब हम इससे मुँह मोड़ लेंगे और उसे त्यागने के लिए तैयार हो जाएँगे, तथा उससे मुक्त होने का दृढ़ संकल्प ले लेंगे, तो वह होगा निःसरण। फिर हम सोचते हैं, "मैं क्या पाना चाहता हूँ? मेरा लक्ष्य क्या है? मेरी मंज़िल क्या है?" यह केवल इससे निकलना नहीं है। असली लक्ष्य है ज्ञानोदय तक पहुँचना ताकि हम दूसरों की इससे निकलने में मदद कर सकें; वह है बोधिचित्त।
उसे लक्षित करने के लिए, हमारे भीतर यह विश्वास होना चाहिए कि उसे प्राप्त कर पाना संभव है। इसके लिए, शून्यता के बोध की आवश्यकता है, कि ये सब स्वैर कल्पनाएँ और प्रक्षेपण इत्यादि जो हमारी समस्याएँ पैदा कर रहे हैं - इनमें से कोई भी यथार्थ से मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए, यह स्वैर कल्पना कि "कहीं सफ़ेद घोड़े पर एक मोहक राजकुमार या राजकुमारी है जो मेरे लिए अत्योचित जीवनसाथी है। वे हर प्रकार से मेरे पूरक हैं, और उन्हें जीवन में केवल मुझमें रुचि है; मुझमें और मेरा पूरक बनने में और अपने पूरा समय और ध्यान मुझे देने में। वे सम्पूर्ण हैं।"
या तो हमें अब तक ऐसा कोई मिला नहीं है और हम निरंतर किसी ऐसे को खोज रहे हैं, या यदि हमें जीवनसाथी मिल भी गया है, तो हम उससे हमेशा अपेक्षा करते हैं कि वह वैसा ही हो, और हम क्रुद्ध हो जाते हैं जब वह वैसा व्यवहार नहीं करता। यह एक स्वैर कल्पना है। इसका यथार्थ से कोई मेल नहीं है। यह सांता क्लास या ईस्टर बनी में विश्वास करने से बहुत भिन्न नहीं है। यह बच्चों के लिए एक सुन्दर परिकथा है, परन्तु क्षमा कीजिए, ऐसा कुछ नहीं होता।
लेकिन, अपने अज्ञान, अपनी अनभिज्ञता के कारण हम समझते हैं कि ऐसा कोई व्यक्ति है - हम केवल यह नहीं जानते कि ऐसा कोई व्यक्ति विद्यमान ही नहीं है। क्योंकि ऐसा कोई व्यक्ति किसी यथार्थ आलम्बन के सदृश नहीं है, तो हमारे विश्वास का कोई आधार नहीं है कि ऐसा वास्तव में है। क्योंकि यह किसी भी प्रकार की छानबीन के आगे टिका नहीं रहता, तो अपनी इस भ्रांत धारणा को खंडित किया जा सकता है।
वैसे यह शून्यता के मुद्दे को देखने का एक बहुत सतही ढंग है; फिर भी, यह एक अच्छी शुरुआत है। हमें कहीं तो शुरू करना है, तो हम यह सोचना शुरू कर सकते हैं, "हो सकता है कि जिस भ्रान्ति से मेरी सब समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं उससे पीछा छुड़ाना संभव हो। हो सकता है कि मैं बहुत गहन स्तर पर यह न समझता हूँ कि इनका एक से दूसरे जीवनकाल पर कैसे प्रभाव पड़ता है और ये इस प्रकार गोलाकार रूप में कैसे घूमती हैं... परन्तु ज़रा ठहरिए, क्या मैं सचमुच पुनर्जन्म पर विश्वास करता हूँ?"
यह कोई सरल विषय नहीं है। जब हम अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि के इस आरंभिक चरण पर अपने प्रेरणादायक लक्ष्य की बात करते हैं, और यहाँ इन तीन प्रमुख चित्तमार्गों का प्रयोग करते हैं, तो इन प्रेरणादायक लक्ष्यों की प्रस्तुति को हम कितनी गंभीरता से लेते हैं? हम किसका निःसरण कर रहे हैं? केवल इस जीवनकाल की समस्याओं का नहीं। त्सोंगखापा स्पष्ट रूप से बताते हैं कि निःसरण का पहला चरण है एक बेहतर पुनर्जन्म के लिए ध्यान-साधना करना। "परन्तु मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता। मैं इसे नहीं समझता, तो अब मैं क्या करूँ?"
फिर लाम-रिम ग्रंथों में हम इससे एक चरण आगे जाते हैं, और उनमें कहा गया है कि हमें यह लक्ष्य रखना चाहिए कि हम पूर्णतः अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से मुक्त हो जाएँ। परन्तु फिर हम सोचते हैं, "मैं इसे अपना लक्ष्य कैसे बना सकता हूँ जब मैं पुनर्जन्म के इस पूरे मुद्दे को लेकर स्वयं ही बहुत अनिश्चित हूँ?"
हम कुछ आगे बढ़ते हैं, और अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से सबको छुटकारा दिलवाना चाहते हैं - इसीलिए हम ज्ञानोदय प्राप्ति चाहते हैं, है न? तो, "मेरा लक्ष्य क्या है?" क्या केवल यह कहना अच्छा नहीं होगा, "मैं अपने इस जीवनकाल की सभी भावात्मक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से छुटकारा पाना चाहता हूँ। क्या हम इस पुनर्जन्म के चक्कर में पड़े बिना ऐसा नहीं कर सकते? क्योंकि मुझे उसमें बहुत विश्वास नहीं है। मैं उसके विषय में निश्चिन्त महसूस नहीं करता। ठीक है, केवल इस एक जीवनकाल की सीमाओं के भीतर ही हम निःसरण, बोधिचित्त, और शून्यता के बोध को लागू करके देखते हैं।"
यदि हम ईमानदारी से अपने भीतर झाँकें, चाहे हमें विश्वास ही क्यों न हो कि इस जीवनकाल में ऐसा लक्ष्य प्राप्त कर पाना संभव है, तो क्या हम उसे सच मान पाएँगे? यदि यहाँ मानक ग्रंथों में सब पुनर्जन्म की बात कर रहे हैं, तो क्या यह कहना उचित होगा कि, "मुझे यह भाग पसंद नहीं है, तो चलो इसे फेंक दें। क्योंकि मुझे वह पसंद नहीं है यदि उसे मैं फेंक भी दूँ, तो दूसरे भागों का क्या होगा?" क्या हम उन्हें भी फेंक दें? यहाँ हम किस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं?
निष्कर्ष यह है कि यदि हम इस पूरे विषय और स्वयं को गंभीरता से लेते हैं, तो हमें बुद्ध के कथनों को भी गंभीरता से लेना होगा। वे पुनर्जन्म की चर्चा करते थे; बल्कि उनकी शिक्षाओं में लगभग हर स्थल पर इसका वर्णन है, तो हमें सोचना चाहिए, "मुझे शायद इसे समझने का प्रयास करना चाहिए। शायद यह महत्त्वपूर्ण है।" मेरे विचार में, यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कदम है, एक मुख्य पड़ाव, जो हमें उठाना चाहिए क्योंकि हमारी पाश्चात्य मानसिकता इन शिक्षाओं की कई बातें स्वीकार नहीं करती। हमें कुछ बातों पर निर्णय लेना होगा, और सोचना होगा, "मुझे इसे केवल सतही स्तर पर स्वीकार न करते हुए जाँच करके सचमुच समझने का प्रयास करना होगा कि यहाँ बात क्या हो रही है।"
सरलीकृत धर्म की तुलना में सम्पूर्ण धर्म
मेरी वेबसाइट में एक लेख है जो कई स्थानों पर सरलीकृत धर्म की तुलना में सम्पूर्ण धर्म की चर्चा करता है, जैसे असली कोका-कोला और कोका-कोला लाइट।
सरलीकृत धर्म में हम यह सोचते हैं, " पुनर्जन्म इत्यादि रहने देते हैं; यह सब असली बात नहीं है। हम इसी जीवनकाल की पृष्ठभूमि में धर्म का पालन करते हैं।" वस्तुतः, यदि हम अपने प्रति सच्चे हैं, तो हम केवल इतना चाहते हैं कि अपने संसार को थोड़ा बेहतर बनाएँ। वह है सरलीकृत धर्म।
अब, सरलीकृत धर्म की दो व्याख्याएँ हैं। एक व्याख्या कहती है, "पुनर्जन्म तथा नरक इत्यादि के बारे में कही गई बातें केवल एशियाई लोगों के अंधविश्वास हैं, और यह आपके लिए अच्छा नहीं है। इसमें कैफ़ीन और चीनी जैसी चीज़ें हैं। सरलीकृत धर्म - वही उत्तम है।"
सरलीकृत धर्म की दूसरी व्याख्या, जो मेरे विचार में अधिक स्वीकार्य है, कहती है, "ठीक है, मैं मानता हूँ कि धर्म में पुनर्जन्म इत्यादि विषय बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि मैं इसे पूरी तरह नहीं समझता, और जानता हूँ कि, विशेषतः पुनर्जन्म के सन्दर्भ में, वह क्या है जो पुनर्जन्म लेता है और इससे सम्बंधित स्वयं की शून्यता और अन्य ऐसे विषयों की शिक्षाओं को मुझे समझना होगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि, "जब तक मैं वह सब नहीं समझता मैं उसपर गंभीरता से विश्वास नहीं करूँगा, चाहे मैं यह मान भी लूँ कि पुनर्जन्म सच में होता है। इसलिए मुझे अच्छे से समझना होगा कि बौद्ध-धर्म में जब वे पुनर्जन्म की बात करते हैं तो वे क्या कह रहे हैं। वह कोई आत्मा नहीं है जो एक से दूसरे शरीर में उड़कर चली जाती है - वे ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहे। इसलिए मैं सरलीकृत धर्म का सोपान के रूप में प्रयोग करके उसका पालन करूँगा, राह में आने वाले एक पड़ाव की तरह। दूसरे शब्दों में, मैं स्वयं को गंभीरता से लेता हूँ और अपने विकास के इस चरण पर, मैं जिस बात पर गंभीरतापूर्वक कार्य कर सकता हूँ वह है इस जीवनकाल के सन्दर्भ में; केवल वही है जिसमें मैं अपने हृदय की गहराइयों से पूरी शक्ति और भावनाओं सहित कार्य कर सकता हूँ।
इसके अतिरिक्त, "यह कहना अब मेरे लिए केवल शब्द हैं कि मेरा लक्ष्य है पुनर्जन्म से अपने और दूसरों को मुक्त करवाना। मैं ऐसा अनुभव नहीं करता और नहीं कर सकता, तो मैं ऐसा ढोंग नहीं करना चाहता। मैं इसे ठीक से समझता भी नहीं, इसलिए इस समय मैं केवल इस प्रसंग में कार्य करूँगा जिसे मैं भावात्मक और बौद्धिक रूप से समझ पाऊँ क्योंकि मैं निष्ठा से कार्य करना चाहता हूँ। मैं इस सब के विषय में बहुत गंभीर हूँ, परन्तु मैं यह भली-भाँति समझता हूँ कि यह केवल एक चरण है; यह साधना का अंतिम ढंग नहीं है।"
फिर, "मैं इनमें से कुछ अधिक कठिन आयामों को समझने की चेष्टा करूँगा, जिनमें पहले होगा पुनर्जन्म, क्योंकि यह बहुत महत्त्वपूर्ण है - अनमोल मानव जीवन, अनादि जीवन, और यह तथ्य कि हमारी मृत्यु होगी और हम पुनः जन्म लेंगे - यह शिक्षाओं में सर्वविद्यमान है। अनादि जीवन के सन्दर्भ में, यह तथ्य कि इस अमूल्य मानव जीवन के रूप में हमें यह दुर्लभ अवसर मिला है, इसका पुनर्जन्म के बिना कोई अर्थ नहीं है; यह सब पुनर्जन्म पर आधारित है। मैं अवश्य इसे समझने का प्रयास करूँगा।"
यदि मैंने इन तीन प्रमुख मार्गों का अध्ययन कर भी लिया है, फिर भी यह जानने के लिए कि मैं इसे कितना समझा हूँ, मुझे वापस लौटकर पुनर्जन्म जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों को समझना होगा। मैं यह भली-भाँति समझता हूँ कि यह एक क्रमिक आध्यात्मिक मार्ग होगा। मैं आगे उन कदमों की ओर देख रहा हूँ जो मैं रखना चाहता हूँ और जो मुझे रखने हैं। इसी प्रकार, अभी मैं सरलीकृत धर्म की साधना कर रहा हूँ, क्योंकि अभी मैं इसे संभाल सकता हूँ, और मैं आगे बाकी सब की ओर देख रहा हूँ।" यह उत्तम है। इस रवैये के साथ, सरलीकृत धर्म बिल्कुल सही है; यह बिल्कुल उपयुक्त है।
आज की शाम हमारी पहली भेंट में मैं इसपर चर्चा करना चाहता था। क्योंकि, जैसा मैंने कहा, इससे हमारे विचारों की दिशा निर्धारित होती है, "ठीक है, मैं इस स्तर पर हूँ। या तो मैं नवसाधक हूँ, या मैंने थोड़ा अध्ययन कर रखा है, और मैं उसके विषय में गंभीर हूँ, और इस प्रसंग में मैं देखता हूँ कि मैं कहाँ हूँ और क्या कर रहा हूँ।" क्योंकि यदि हम यह सब अपने दैनिक जीवन में लागू करेंगे, तो हमें इस विषय में ईमानदार होना होगा। हमें इसे अपने भीतर महसूस करना होगा और स्थिरता से महसूस करना होगा।
यह अद्भुत होने के स्वाँग और घमंडी और शेख़ीबाज़ होने पर आधारित नहीं है, "मैं सभी सचेतन जीवधारियों की मुक्ति के लिए कार्यरत हूँ।" हम जाँचते हैं, "क्या मैं सचमुच ब्रह्माण्ड के प्रत्येक झींगुर को अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से मुक्त करने के लिए प्रयास कर रहा हूँ? क्या मैं सच्चाई से ऐसा अपने हृदय की गहराइयों से महसूस करता हूँ?" हम इस विचार को आँकने लगते हैं कि हम सच में इस विचार से प्रेरित हैं कि हमें विश्वास है कि प्रत्येक झींगुर किसी पिछले जन्म में हमारी माता रहीं थी। हम इसके बारे में कितने खरे हैं? क्या हम इसलिए उन्हें मुक्त कराना चाहते हैं क्योंकि वे सब पिछले जन्मों में हमारी माता थीं?
यदि हम अपने कृत्यों के पूरे सन्दर्भ को समझें और पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से स्वयं से पूछें, "अब मैं किस स्तर पर हूँ?" तो - जैसे जैसे हम इस सबको अपने दैनिक जीवन पर लागू करते हैं - फिर इसका कुछ परिणाम निकलता है; इसका कुछ प्रभाव होता है। इसके विषय में यथार्थवादी होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। संसार की एक अत्यंत सामान्य लक्षण है कि उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, और यह तब तक होता रहेगा जब तक हम अर्हत नहीं बन जाते, जो अभी बहुत दूर है। कभी हमारा साधना करने का मन करेगा, और कभी नहीं। कभी यह ठीक से हो पाएगी, और कभी नहीं। संसार से हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं?
ऐसा नहीं है कि हम साधना करते हैं, और प्रत्येक उच्चारित मन्त्र के साथ, संसार अधिकाधिक निखरता जाता है। ऐसा एकरेखीय रूप में बिल्कुल नहीं होता। यदि हम इसके बारे में यथार्थवादी होंगे, तो जब सबकुछ ठीक नहीं भी हो रहा होगा, जो कि होगा ही, तब भी हम प्रयास करते रहेंगे। कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुद्दा यह नहीं है। हमें सोचना चाहिए, "मुझे केवल अथक प्रयास करना है," फिर यह अधिक स्थायी होगा। हम ऐसा केवल इस आधार पर कर सकते हैं कि अभी हम किस स्तर पर हैं।
जैसा परम पावन दलाई कहते हैं, लघु-अवधि के आधार पर अपनी प्रगति को न आँकें, बल्कि कई वर्षों की पृष्ठभूमि में देखें। जो हम तीन या पाँच वर्ष पहले थे, और अब जो हैं यदि उसमें कुछ सुधार हुआ है, चाहे दिन प्रतिदिन उतार-चढ़ाव होते रहते हों, तब हम जान सकते हैं कि कुछ प्रभाव हुआ है। कभी भी चमत्कारों की उम्मीद न करें।
शायद हमारे पास कुछ प्रश्नों के लिए समय है।
प्रश्न
मैं नवसाधक हूँ, परन्तु मैं पूछना चाहता हूँ कि जब आपने कहा, "चमत्कारों की उम्मीद न करें", तब आपका क्या आशय था?
चमत्कार होगा यदि हम जादुई शब्द बोलें, जादुई मन्त्र, या जादुई साधना, और फिर, अचानक, हमारी सारी समस्याएँ सुलझ जाएँ। बिना अथक परिश्रम और प्रयास के हम अपनी सभी आवर्ती समस्याओं से पीछा छुड़ा लेंगे, और या बहुत सरल होगा। या यह विश्वास कर लेना कि कोई बाहरी शक्ति हमें बचा लेगी, और हमें स्वयं कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। ये होते हैं चमत्कार। प्रायः, ये घटित नहीं होते। यह बौद्ध धर्म का केंद्र है: बिना कारण कुछ नहीं होता।
क्या महात्मा बुद्ध के काल में, ये सारी शिक्षाएँ और ज्ञानोदय मार्ग के आयाम थे जिन्होंने उनके ज्ञानोदय में उनकी सहायता की?
इस प्रश्न का उत्तर इतना सरल नहीं है कि आप उसे सहजता से समझकर आत्मसात कर लें। मैं आपको उत्तर दे सकता हूँ, पर संभव है कि आप उससे संतुष्ट न हों। बौद्ध धर्म मानसिक सातत्यों की बात करता है जो अनादि होते हैं। इसे समझने के लिए, हमें कार्य-कारण के विषय को समझना होगा। फिर, सातत्यों की विशुद्ध उत्पत्ति कैसे हो सकती है? इसके अतिरिक्त, जो सातत्य क्षण-प्रतिक्षण बदलते हैं वे शून्य से आरम्भ नहीं हो सकते या उनकी विशुद्ध उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि जब हम कहते हैं कि किसी ने इनकी रचना की, किसी महानतर शक्ति ने रचना की, तो क्या उस महान शक्ति की उत्पत्ति हुई थी? या यदि उस महान शक्ति की कोई शुरुआत नहीं थी, तो फिर कोई आरम्भ बिंदु है ही नहीं। या फिर यह विचार कि पहले कुछ था ही नहीं, क्या उस कुछ नहीं की शुरुआत थी? नहीं, वह हमेशा से था। चाहे हम जिस भी तरह इस पहेली को बूझना चाहें, कोई भी आरम्भ बिंदु नहीं था इस मुद्दे से हम मुँह मोड़ नहीं सकते। इस दृष्टिकोण से, कोई पहले बुद्ध नहीं थे, और इस कारणवश, शिक्षाएँ और विधि हमेशा से विद्यमान थीं।
जैसा मैंने कहा था, यह उत्तर समझने या ग्रहण करने के लिए बहुत आसान नहीं है, पर वही तो प्रश्न है। ऐसा नहीं है कि वे बुद्ध उस समय पर विद्यमान किसी अन्य बुद्ध के पास सीखने के लिए गए थे। निस्संदेह, बुद्ध के शिक्षक थे, परन्तु प्रमुखतः, जिन गुरुओं से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की, उन्हें यह समझ आ गया कि उनका ज्ञान बहुत गहन नहीं था, इसलिए उन्होंने स्वयं वह सब समझा। तो क्या उन्होंने यह सब केवल मन से गढ़ लिया? बौद्ध दृष्टिकोण से यह संतोषजनक उत्तर नहीं है, परन्तु पश्चिमवासी होने के कारण हम उसे इस प्रकार समझकर कह सकते हैं, "उन्होंने सबकुछ स्वयं ही समझा। वे प्रतिभावान थे।"
बौद्ध दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं, "पिछले जन्मों में, उस समय पर जो शिक्षक थे बुद्ध ने उनसे यह ज्ञान प्राप्त किया था। उनके ये विचार, यह बोध किसी कारण के आधार पर उन्हें प्राप्त हुआ था - क्योंकि उन्होंने यह सब पहले सीख रखा था - और अब यह सब उन्हें पूरी तरह समझ में आ गया।"
जब हम बौद्ध धर्म में किसी भी प्रश्न का उत्तर खोजते हैं तो हमें प्रायः सतही उत्तर ही मिलते हैं। पर फिर, जब हमारी खोज गहनतर होती जाती है, सबकुछ अधिकाधिक सारगर्भित होता जाता है। क्या बिजली के बल्ब हमेशा से थे? क्या इसके रचयिता ने इसे किसी पूर्वजन्म में बनाना सीखा था? क्या हम यह कह रहे हैं?
हम खोजबीन करते हैं। हम किसी भी व्याख्या को मान नहीं लेते। हम देखते हैं, "क्या इसमें कोई तुक है?" जैसा मैंने कहा, यह प्रश्न हमें ज्ञान के पूरे मुद्दे और हम कैसे कुछ जान पाते हैं, इनमें गहनतर स्तरों की ओर ले जा सकता है। क्या यह किसी कारण से उत्पन्न होता है अथवा नहीं? मूल प्रश्न यही है।
मैं जानबूझकर इसका उत्तर दे रहा हूँ क्योंकि मैं यह दर्शाना चाहता हूँ कि हम एक प्रश्न पूछते हैं और हमें एक उत्तर मिलता है, और उत्तर बहुत सरल प्रतीत हो सकता है, "अरे हाँ, बुद्ध ने सबकुछ स्वयं ही जान लिया था। वे मेधावी थे, और उन्होंने अथक परिश्रम के बाद सबकुछ स्वयं ही समझ लिया।" परन्तु, हम इस प्रकार के उत्तरों से संतुष्ट नहीं होते। यह सरलीकृत धर्म के समान है, जिसमें हम सोचते हैं, "अच्छा, ठीक है, अब मैं इस भाग को समझ गया हूँ; मैं इस उत्तर को मान सकता हूँ। ठीक है, मैं इससे संतुष्ट हूँ।" याद रखें कि इससे कहीं गहनतर व्याख्याएँ हैं जो बहुत अधिक जटिल हैं, और जिनमें किसी भी विषय पर अनेक मुद्दे जुड़े हुए हैं।"
लेकिन, हमें सोचना चाहिए, "जब मैं बोध के एक अन्य स्तर पर पहुँच जाऊँगा, तब मैं यह प्रश्न पूछ सकता हूँ और उसे गहनतर स्तर पर समझ सकता हूँ।" मैं यह बताना चाहता हूँ। धर्म में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है कि जब तक हम सिद्धि-प्राप्ति के अत्यंत उच्च स्तर तक न पहुँच जाएँ, तब तक हम अपने बोध के स्तर से संतुष्ट न हों। हम हमेशा इसे एक गहनतर स्तर पर समझ सकते हैं। हमेशा एक गहनतर स्तर होता है। यदि हम तिब्बतियों में महानतम बौद्ध गुरुओं को देखें - और हो सकता है कि वे पहले ही बहुत वृद्ध हों - तो वे भी अपने से महान गुरुओं के पास शिक्षा प्राप्त करने जाते हैं। वे तब भी और शिक्षा प्राप्त कर रहे होते हैं, प्रगति कर रहे होते हैं, गहनतर जा रहे होते हैं।
बस एक अंतिम बात, एक उदाहरण और है। परम पावन दलाई लामा के दिवंगत अवर गुरु त्रिजांग रिन्पोचे अपनी वृद्धावस्था में त्सोंगखापा के ज्ञानोदय के क्रमिक स्तर की भव्य प्रस्तुति के बारे में कहते थे, "मैंने यह पुस्तक सैंकड़ों बार पढ़ी है, और जितनी बार मैं इसे पढ़ता हूँ, मुझे यह और गहराई से समझ आती है।" उन्होंने यह पुस्तक अपने जीवनकाल में सैकड़ों बार पढ़ी, धर्म के अध्ययन का ढंग यही है।