इस मार्ग का सम्पूर्ण ऊर्जा से अनुसरण करने के लिए, हमें इसके विषय में गंभीर होना होगा। इसकी तैयारी, निस्संदेह, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ताकि ज्ञानोदय के क्रमिक स्तरों यानी लाम-रिम के इन त्रिविधम् मार्गों के विकास के लिए हमारी मनोदशा उपयुक्त हो। तैयारी से अधिक बुनियादी है वह जो हम आरम्भ में करते हैं, यानी प्रेरणा निर्धारित करना। उस प्रेरणादायक मनोदशा के भीतर होती है प्रेरणादायक अनुभूति या मनोभाव, और होता है प्रेरणादायक लक्ष्य। किन्तु, इस सब को गंभीरतापूर्वक समझने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है इस विश्वास का होना कि उस लक्ष्य की प्राप्ति संभव है।
निस्संदेह, हमें उस लक्ष्य को समझना होगा - केवल यह नहीं कि "ज्ञानोदय" जैसा एक सुन्दर शब्द हो परन्तु इसकी रत्ती-भर भी समझ न हो कि उसका अर्थ क्या होता है। यदि हमें ज्ञानोदय की सही समझ होगी, तब हम दूसरे चित्तमार्ग का विकास कर पाएँगे, जो है बोधिचित्त; जिसका लक्ष्य है उसकी प्राप्ति।
उदाहरण के लिए, यदि हम एक यात्रा पर जाना चाहते हैं और हमें ठीक से पता नहीं है कि हम कहाँ जा रहे हैं, तो हमारा वहाँ पहुँचना लगभग असंभव है, है न? हो सकता है कि हम सड़क पर सही दिशा में भी न जा रहे हों। उस मंज़िल को अपना लक्ष्य बनाने के लिए हमें उसे ही नहीं बल्कि यह भी विश्वास के साथ समझना होगा कि वहाँ पहुँच पाना संभव है; वर्ना यात्रा करने का लाभ ही क्या है? इसके अलावा, हमें इस बात पर भी दृढ़ विश्वास करना होगा कि सैद्धांतिक रूप से उस लक्ष्य की प्राप्ति केवल संभव ही नहीं बल्कि हम उस लक्ष्य तक पहुँचने में सक्षम हैं। यद्यपि हम में से कई लोग बौद्ध धर्म और बौद्ध परम्पराओं से जुड़े हुए हैं, हमने बहुत गहनता से यह विचार नहीं किया है, "क्या मैं सच में समझता हूँ कि ज्ञानोदय संभव है? क्योंकि यदि यह संभव नहीं है, तो मैं आखिर यहाँ क्या कर रहा हूँ? मैं अपने घुटनों को कष्ट देकर, बैठकर ध्यान-साधना करने का प्रयास क्यों कर रहा हूँ?"
यह विश्वास होने के लिए कि ज्ञानोदय प्राप्त करना संभव है, इस तीसरे चित्तमार्ग का होना अनिवार्य है, जो है यथार्थ या शून्यता का बोध। जब हम इन त्रिविधम् मार्गों की बात करते हैं - निस्संदेह, हम इनका विकास क्रमिक रूप में करते हैं - पहले आता है निःसरण, फिर बोधिचित्त, और फिर शून्यता का बोध। यदि हम किसी ग्रन्थ की रचना कर रहे हैं और लोगों की विकास के मार्ग पर अगुवाई करते हैं, तो एक समय पर हम केवल एक के विषय में चर्चा और उसका पालन कर सकते हैं। फिर भी, जब हमें इन तीनों का सामान्य ज्ञान हो जाए, तो हमें इन तीनों को साथ रखकर शुरू से आरम्भ करना चाहिए, और हर छोटे कदम पर इन तीनों को लागू करना चाहिए।
हम अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि से आरम्भ करते हैं, जिसमें, जैसा मैंने कहा, एक प्रेरणादायक लक्ष्य और प्रेरणादायक मनोभाव शामिल हैं जो इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें प्रेरित करते हैं। सभी प्रमुख त्रिविधम् मार्ग यहाँ प्रासंगिक हैं। हम और अन्य सभी जिस कष्टदायी स्थिति में हैं उसे हमें त्यागने की आवश्यकता है, जिसका अर्थ है कि हम सोचें, "मैं इसे त्यागने के लिए तत्पर हूँ क्योंकि यह न केवल भयावह और घृणित है, बल्कि उबाऊ भी।" यह गोल -गोल चक्कर काटने जैसा है। हम एक से दूसरी समस्या की ओर बढ़ते जाते हैं, एक के बाद एक अस्वास्थ्यकर सम्बन्ध, एक के बाद एक आपा खो बैठने की घटना। यह कितना उबाऊ है!
जब हम इससे मुँह मोड़ लेंगे और उसे त्यागने के लिए तैयार हो जाएँगे, तथा उससे मुक्त होने का दृढ़ संकल्प ले लेंगे, तो वह होगा निःसरण। फिर हम सोचते हैं, "मैं क्या पाना चाहता हूँ? मेरा लक्ष्य क्या है? मेरी मंज़िल क्या है?" यह केवल इससे निकलना नहीं है। असली लक्ष्य है ज्ञानोदय तक पहुँचना ताकि हम दूसरों की इससे निकलने में मदद कर सकें; वह है बोधिचित्त।
उसे लक्षित करने के लिए, हमारे भीतर यह विश्वास होना चाहिए कि उसे प्राप्त कर पाना संभव है। इसके लिए, शून्यता के बोध की आवश्यकता है, कि ये सब स्वैर कल्पनाएँ और प्रक्षेपण इत्यादि जो हमारी समस्याएँ पैदा कर रहे हैं - इनमें से कोई भी यथार्थ से मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए, यह स्वैर कल्पना कि "कहीं सफ़ेद घोड़े पर एक मोहक राजकुमार या राजकुमारी है जो मेरे लिए अत्योचित जीवनसाथी है। वे हर प्रकार से मेरे पूरक हैं, और उन्हें जीवन में केवल मुझमें रुचि है; मुझमें और मेरा पूरक बनने में और अपने पूरा समय और ध्यान मुझे देने में। वे सम्पूर्ण हैं।"
या तो हमें अब तक ऐसा कोई मिला नहीं है और हम निरंतर किसी ऐसे को खोज रहे हैं, या यदि हमें जीवनसाथी मिल भी गया है, तो हम उससे हमेशा अपेक्षा करते हैं कि वह वैसा ही हो, और हम क्रुद्ध हो जाते हैं जब वह वैसा व्यवहार नहीं करता। यह एक स्वैर कल्पना है। इसका यथार्थ से कोई मेल नहीं है। यह सांता क्लास या ईस्टर बनी में विश्वास करने से बहुत भिन्न नहीं है। यह बच्चों के लिए एक सुन्दर परिकथा है, परन्तु क्षमा कीजिए, ऐसा कुछ नहीं होता।
लेकिन, अपने अज्ञान, अपनी अनभिज्ञता के कारण हम समझते हैं कि ऐसा कोई व्यक्ति है - हम केवल यह नहीं जानते कि ऐसा कोई व्यक्ति विद्यमान ही नहीं है। क्योंकि ऐसा कोई व्यक्ति किसी यथार्थ आलम्बन के सदृश नहीं है, तो हमारे विश्वास का कोई आधार नहीं है कि ऐसा वास्तव में है। क्योंकि यह किसी भी प्रकार की छानबीन के आगे टिका नहीं रहता, तो अपनी इस भ्रांत धारणा को खंडित किया जा सकता है।
वैसे यह शून्यता के मुद्दे को देखने का एक बहुत सतही ढंग है; फिर भी, यह एक अच्छी शुरुआत है। हमें कहीं तो शुरू करना है, तो हम यह सोचना शुरू कर सकते हैं, "हो सकता है कि जिस भ्रान्ति से मेरी सब समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं उससे पीछा छुड़ाना संभव हो। हो सकता है कि मैं बहुत गहन स्तर पर यह न समझता हूँ कि इनका एक से दूसरे जीवनकाल पर कैसे प्रभाव पड़ता है और ये इस प्रकार गोलाकार रूप में कैसे घूमती हैं... परन्तु ज़रा ठहरिए, क्या मैं सचमुच पुनर्जन्म पर विश्वास करता हूँ?"
यह कोई सरल विषय नहीं है। जब हम अपनी प्रेरणा की पुनःपुष्टि के इस आरंभिक चरण पर अपने प्रेरणादायक लक्ष्य की बात करते हैं, और यहाँ इन तीन प्रमुख चित्तमार्गों का प्रयोग करते हैं, तो इन प्रेरणादायक लक्ष्यों की प्रस्तुति को हम कितनी गंभीरता से लेते हैं? हम किसका निःसरण कर रहे हैं? केवल इस जीवनकाल की समस्याओं का नहीं। त्सोंगखापा स्पष्ट रूप से बताते हैं कि निःसरण का पहला चरण है एक बेहतर पुनर्जन्म के लिए ध्यान-साधना करना। "परन्तु मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता। मैं इसे नहीं समझता, तो अब मैं क्या करूँ?"
फिर लाम-रिम ग्रंथों में हम इससे एक चरण आगे जाते हैं, और उनमें कहा गया है कि हमें यह लक्ष्य रखना चाहिए कि हम पूर्णतः अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से मुक्त हो जाएँ। परन्तु फिर हम सोचते हैं, "मैं इसे अपना लक्ष्य कैसे बना सकता हूँ जब मैं पुनर्जन्म के इस पूरे मुद्दे को लेकर स्वयं ही बहुत अनिश्चित हूँ?"
हम कुछ आगे बढ़ते हैं, और अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से सबको छुटकारा दिलवाना चाहते हैं - इसीलिए हम ज्ञानोदय प्राप्ति चाहते हैं, है न? तो, "मेरा लक्ष्य क्या है?" क्या केवल यह कहना अच्छा नहीं होगा, "मैं अपने इस जीवनकाल की सभी भावात्मक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से छुटकारा पाना चाहता हूँ। क्या हम इस पुनर्जन्म के चक्कर में पड़े बिना ऐसा नहीं कर सकते? क्योंकि मुझे उसमें बहुत विश्वास नहीं है। मैं उसके विषय में निश्चिन्त महसूस नहीं करता। ठीक है, केवल इस एक जीवनकाल की सीमाओं के भीतर ही हम निःसरण, बोधिचित्त, और शून्यता के बोध को लागू करके देखते हैं।"
यदि हम ईमानदारी से अपने भीतर झाँकें, चाहे हमें विश्वास ही क्यों न हो कि इस जीवनकाल में ऐसा लक्ष्य प्राप्त कर पाना संभव है, तो क्या हम उसे सच मान पाएँगे? यदि यहाँ मानक ग्रंथों में सब पुनर्जन्म की बात कर रहे हैं, तो क्या यह कहना उचित होगा कि, "मुझे यह भाग पसंद नहीं है, तो चलो इसे फेंक दें। क्योंकि मुझे वह पसंद नहीं है यदि उसे मैं फेंक भी दूँ, तो दूसरे भागों का क्या होगा?" क्या हम उन्हें भी फेंक दें? यहाँ हम किस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं?
निष्कर्ष यह है कि यदि हम इस पूरे विषय और स्वयं को गंभीरता से लेते हैं, तो हमें बुद्ध के कथनों को भी गंभीरता से लेना होगा। वे पुनर्जन्म की चर्चा करते थे; बल्कि उनकी शिक्षाओं में लगभग हर स्थल पर इसका वर्णन है, तो हमें सोचना चाहिए, "मुझे शायद इसे समझने का प्रयास करना चाहिए। शायद यह महत्त्वपूर्ण है।" मेरे विचार में, यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कदम है, एक मुख्य पड़ाव, जो हमें उठाना चाहिए क्योंकि हमारी पाश्चात्य मानसिकता इन शिक्षाओं की कई बातें स्वीकार नहीं करती। हमें कुछ बातों पर निर्णय लेना होगा, और सोचना होगा, "मुझे इसे केवल सतही स्तर पर स्वीकार न करते हुए जाँच करके सचमुच समझने का प्रयास करना होगा कि यहाँ बात क्या हो रही है।"