मार्ग को गंभीरता से लेना

क्या सामान्य जीवन संतोषजनक है?

लाम-रिम क्रमिक स्तरीय मार्ग के अनुसरण में सबसे महत्त्वपूर्ण है उसका गंभीरता से पालन करना। गंभीरता से पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि उसके अध्ययन के समय हँसी-मज़ाक न करें, उसको लेकर प्रसन्न न हों और सदा मुँह लटकाए रहें। उसका यह अर्थ नहीं है। अपितु उसका अर्थ है, कि यदि हम इस आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करें, तो न केवल उस मार्ग और उसपर सफल हुए लोगों का भरपूर आदर करें, बल्कि अपना भी आदर करें।

इसके अतिरिक्त, उसे हल्के में न लें, बल्कि सोचें, "यदि मैं इस मार्ग पर चलकर अपना कल्याण करना चाहता हूँ, तो मैं ऐसा अत्युत्तम ढंग से करूँ।" इसका आधार है इसके महत्त्व को समझना, और यह महत्त्व केवल "पवित्र, पवित्र लामा" या "पावन, पावन" या कुछ ऐसे पर आधारित नहीं है।

यह मात्र श्रद्धापूरित अभ्यास नहीं है। बल्कि, हम अपने और अपने आसपास सब लोगों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं, जिन्हें हम जानते हैं, और जिन्हें हम नहीं भी जानते, वे निर्धन लोग जिन्हें हम सड़कों पर देखते हैं और आवारा कुत्ते भी। हम उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो निरंतर आजीवन काम करते रहते हैं और उनकी समस्याएँ समाप्त ही नहीं होतीं और अंत में वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। हम जितने भी लोगों को जानते हैं, जब हम उनसे अधिक परिचित हो जाते हैं तो हम देखते हैं कि चाहे वे कितने भी समृद्ध क्यों न हों, सतही तौर पर हमेशा चाहे कितने भी प्रसन्न क्यों न दिखें, उन सबका अपना-अपना संसार है, अपने-अपने दुःख हैं। समस्याएँ भिन्न हैं, परन्तु कुछ समस्याएँ एक जैसी भी हैं - जैसे बढ़ती आयु के साथ तरह-तरह की वेदना और कष्ट इत्यादि। वह सब भयावह है।

क्या जीवन का निचोड़ यही है? यदि हाँ, तो यह तो भयंकर है, नहीं क्या? परन्तु, यदि हम इसके बारे में कुछ कर पाएँ, यदि इस अवस्था से निकल पाना संभव हो, तो वह अद्भुत होगा। और तो और यदि सभी इस अवस्था से उबर पाएँ, तो वह और भी अद्भुत होगा। हमें ढूँढ़ने की आवश्यकता है कि क्या इसका कोई उपाय है? केवल  हाथ पर हाथ रखकर न बैठना, झुंड की भेड़ की भांति जो अपने वध की प्रतीक्षा कर रही हो। हमें सोचना चाहिए कि क्या कोई उपाय है, और यदि है, तो क्या ऐसा वास्तव में संभव है?

पहले हम स्थिति को गंभीरता से परखते हैं: हम यह देख रहे हैं, ऐसा हो रहा है,"क्या मैं ऐसा होते रहने दूँ, या इससे निकलने का प्रयास करूँ?" यह उन तीन मार्गों में से पहला है जिसकी हम बात कर रहे हैं, निःसरण। लेकिन, जब हम एक मार्ग की बात करते हैं, तो इसका अर्थ क्या है? हम राह पर पड़े पत्थरों की बात नहीं कर रहे, अपितु एक चित्तावस्था की और सम्प्रेषण व व्यवहार के ऐसे ढंग की जो ऐसी मनःस्थिति से उद्भूत होता है जिसपर चलकर हम अपने लक्ष्य तक पहुँचेंगे। यहाँ, हमारा पहला लक्ष्य है इस सबसे छुटकारा पाना।

जैसे मैं कहता हूँ, हमें इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए। "यदि मैं ऐसा कर पाता हूँ और इस दिशा में बढ़ता हूँ, तो इससे मेरा जीवन सार्थक होता है। मैं अपना जीवन सार्थक ढंग से व्यतीत कर रहा हूँ, केवल चक्कर काट-काटकर मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं कर रहा, छोटे-छोटे सुखदायक अनुभवों इत्यादि से संतुष्ट होकर, जो आरम्भ में अच्छे लगते हैं, परन्तु वास्तव में संतोषजनक नहीं होते।" यदि वे संतोषजनक होते, तो हमें उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके अतिरिक्त, यह सुख फीका पड़ जाता है; इस बात की कोई निश्चितता नहीं होती कि हम अगले क्षण क्या महसूस करेंगे, या भविष्य में क्या होने वाला है। यह बहुत संतोषजनक नहीं है; बहुत निश्चित नहीं है।

हमने अपने जीवनकाल में जो भी खिलौने, भौतिक वस्तुएँ आदि एकत्रित की हैं, उनका हमारी मृत्यु के समय क्या होगा? कुछ विशेष नहीं। पैसा केवल काग़ज़ के कुछ टुकड़े हैं जिनपर कुछ नंबर लिखे हुए हैं। हमने कई लोगों की मृत्यु के पश्चात देखा है कि जो उनकी वांछित वस्तुएँ थीं, वे तुरंत कूड़ा हो जाती हैं और फेंक दी जाती हैं। तो लाभ क्या हुआ? माना कि अच्छा था, परन्तु क्या जीवन का उद्देश्य यही है? निस्संदेह, हमें एक अच्छे वातावरण और सुखमय परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, परन्तु हमारी बुनियादी ज़रूरतों के पूरा होने के बाद, हमें और अधिक नहीं चाहिए होता। जैसा तिब्बती कहते हैं, हम अपना पेट केवल उसकी अधिकतम क्षमता तक ही भर सकते हैं; अपने अंदर ठूँसने की सीमा होती है।

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