मध्यम और उन्नत स्तरीय लाम रिम महापुरुष के लिए मानसिक प्रशिक्षण

श्लोक 8 से 37

हमारी प्रेरणा और समीक्षा की पुनःपुष्टि

अपने आस-पास के सभी लोगों पर ग़ौर करें, चाहे वे आपके करीबी हों या अनजान, अमीर हों या गरीब, हम सभी सुख की प्राप्ति और दुःख से मुक्ति की इच्छा में समान हैं। इसे प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है धर्म का अभ्यास। हमें पूर्ण रूप से संपन्न मानव शरीर प्राप्त हुआ है, हमने नैतिक अनुशासन, महायान और तंत्र की संपूर्ण शिक्षाएँ प्राप्त की हैं, और इसी प्रकार सुयोग्य गुरुओं से भी मिले हैं। इसलिए, हमें अपनी सभी अशांतकारी भावनाओं और दृष्टिकोणों को दूर करने, सभी सद्गुणों को प्राप्त करने और ज्ञानोदय तक पहुँचने के लिए एक पूर्ण महायान प्रेरणा निर्धारित करने की आवश्यकता है।

मूल बात है एक स्नेही और दयालु हृदय विकसित करना। यह हमारे लिए और दूसरों के लिए, सतही और अंतिम, सभी सुखों की जड़ है। यह बोधिचित्त संकल्प का मूल है, जो हमें ज्ञानोदय और इस प्रकार सभी को सुख प्रदान करने की क्षमता प्रदान करती है। इसलिए, जितना हो सके, हमें एक दयालु हृदय विकसित करने की आवश्यकता है।

केवल "मैं एक दयालु हृदय विकसित करूँ" जैसी शब्दावली का प्रयोग न करें। हमें वास्तव में इसे प्राप्त करने के चरणों का प्रशिक्षण और अभ्यास करना होगा। हमें विधियों को जानना होगा और फिर उन्हें व्यवहार में लाना होगा। पूर्ण धर्म शिक्षाएँ बुद्ध के कांग्यूर वचनों के सौ खंडों और भारतीय आचार्यों द्वारा रचित तेंग्यूर भाष्यों के दो सौ खंडों में पाई जाती हैं। मन को प्रशिक्षित करने और अपने दृष्टिकोणो को शुद्ध करने के पूर्ण लाम-रिम क्रमिक चरणों को तिब्बत में लाने वाले मुख्य लामा अतिश थे। उनका बोधिपथप्रदीप (तिब्बती: लाम-सग्रोन, संस्कृत: बोधिपथप्रदीप) नामक ग्रंथ, 37 बोधिसत्त्व अभ्यास, का मूल स्रोत है। चूँकि 37 बोधिसत्त्व अभ्यास संक्षिप्त है और समझने में आसान है, इसलिए हमें इसे कंठस्थ करने का प्रयास करना चाहिए और फिर अर्थ पर विचार करते हुए बार-बार इसका पाठ करना चाहिए और इसे व्यवहार में लाना चाहिए।

अब इस ग्रंथ पर आगे की शिक्षाएँ सुनें। सबसे पहले, हमें अपने अनमोल मानव शरीर को पहचानना होगा और उसका लाभ उठाने के बारे में सोचना होगा। चूँकि यह निश्चित है कि हमारी मृत्यु होगी और हम इसे खो देंगे, इसलिए हमें इस जीवन के प्रति अपने मोह से और अंततः भविष्य के जीवन के प्रति अपने मोह से भी विमुख होना होगा।

ऐसा करने के लिए, हमें सबसे पहले मृत्यु और अनित्यता के बारे में सोचना होगा, और यह भी कि जब हमारी मृत्यु होती है तो हम तीन निम्नतर पुनर्जन्म अवस्थाओं में से किसी एक में पुनर्जन्म ले सकते हैं। हम आनंदहीन लोकों (नरक) में फँसे हुए प्राणियों या भोगी भूतों (भूखे भूतों) को नहीं देख सकते, लेकिन हम पशुओं और उनके कष्टों के बारे में जानते हैं। हम देखते हैं कि कैसे उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, उन्हें मारा-पीटा जाता है, उनके श्रम के लिए उनका शोषण किया जाता है, चिकित्सा प्रयोगों में क्रूरता से उनका इस्तेमाल किया जाता है, उनके मांस के लिए उनकी बलि दी जाती है, इत्यादि। बौद्ध धर्म में, हमें उनके प्रति दया का भाव विकसित करना होगा। कुछ अन्य धर्मों में, माना जाता है कि जानवरों को मारना किसी पेड़ को काटने या सब्जी तोड़ने से बहुत अलग नहीं है। लेकिन बौद्ध धर्म में यह अलग है। हम वास्तव में जानवरों के कष्टों को गंभीरता से लेते हैं और विचार करते हैं कि कैसे हम आसानी से उनमें से एक के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं।

वह व्यक्ति जो पशु के रूप में पुनर्जन्म से बचने का मार्ग सिखाता है, वह पूर्णतः प्रबुद्ध बुद्ध हैं। उन्होंने व्यावहारिक कारण और प्रभाव का मार्ग सिखाया, कि किन कर्मों को छोड़ना है और किन कर्मों को अपनाना है। हमें बुद्ध की उत्तम शिक्षाओं से यथासंभव सीखने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि वे दोषरहित हैं और जीवन में पूर्णतः सुरक्षित और सुदृढ़ दिशा प्रदान करती हैं। जैसा कि हम कल कह रहे थे, बुद्ध, धर्म और संघ सुरक्षित दिशा के त्रिरत्न हैं। केवल ये तीनों ही जीवन में कभी न चूकने वाली सुरक्षित, संरक्षित और स्थिर दिशा प्रदान करते हैं। हालाँकि सांसारिक देवताओं से मित्र के रूप में सहायता लेने में कोई दोष नहीं है, फिर भी उनमें अपनी अंतिम शरण लेना अनुचित है।

थाईलैंड और बर्मा के मठों के भिक्षुओं को देखिए; वे सचमुच श्रेष्ठतम हैं। उनके मंदिरों में केवल बुद्ध शाक्यमुनि की ही प्रतिमाएँ हैं, अन्य किसी की नहीं। तिब्बती मंदिरों में, हमारे पास बुद्ध शाक्यमुनि का एक चित्र हो सकता है, लेकिन वहाँ विभिन्न अनोखे दिखने वाले रक्षक आदि भी होते हैं। जापान में, केवल मुख्य शिक्षकों के चित्र हैं और शाक्यमुनि बुद्ध की लगभग कोई प्रतिमा नहीं है। निस्संदेह, यह तथ्य है कि बुद्ध गुरुओं से अविच्छेद्य हैं और अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, लेकिन यह कुछ अलग है। मुद्दा यह है कि प्रेरणा और ज्ञानवर्धक प्रभाव के लिए हमें जिस मुख्य व्यक्ति की ओर मुड़ना चाहिए, वह बुद्ध शाक्यमुनि हैं। अक्सर लोग हमारी आलोचना करते हैं और कहते हैं कि हम तिब्बती लोग बुद्ध को भूल जाते हैं और केवल रक्षकों के चित्रों के सामने ढोल बजाते हैं। इसमें बहुत खतरा है। इसलिए, सावधान रहें। लेकिन, इस मुद्दे पर इतना ही काफ़ी है।

जहाँ तक संघ रत्न का संबंध है, थाईलैंड और बर्मा में भी इसकी प्रथा अति उत्तम है। भिक्षुओं के साथ बहुत सम्मान से व्यवहार किया जाता है, गृहस्थों द्वारा उनका भरण-पोषण किया जाता है और उन्हें दान दिया जाता है। यह अति उत्तम है। अक्सर, लोगों को लगता है कि सुरक्षित दिशा के केवल दो ही रत्न हैं: बुद्ध और धर्म, और संघ अनावश्यक है। वे सोचते हैं कि हम उन्हें भूल सकते हैं। सभी के लिए भिक्षु और भिक्षुणी होना आवश्यक नहीं है, लेकिन हमें अपने स्वभाव की जाँच करनी चाहिए, और यदि यह हमें उपयुक्त लगे, तो मठवासी होना सर्वोत्तम है। लेकिन, कम से कम भिक्षुओं और भिक्षुणियों की कभी आलोचना न करें। हमें केवल स्वयं का ही परीक्षण और आलोचना करनी चाहिए। उदाहरण स्थापित करने और बुद्ध की शिक्षाओं को प्रतीकात्मक रूप देने के लिए संघ बहुत महत्त्वपूर्ण है। हमें अपने कर्मों और अपनी वाणी और कर्म के प्रति बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है।

विनाशकारी व्यवहार से बचना

(8) बोधिसत्त्व का अभ्यास है कभी भी कोई नकारात्मक कार्य न करना, चाहे इसके लिए हमें अपनी जान की कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े, क्योंकि मुनि ने घोषित किया है कि पुनर्जन्म की निम्नतर अवस्थाओं के कष्ट, जिन्हें सहना अत्यंत कठिन है, नकारात्मक कार्यों के परिणाम हैं।

सरल भाषा में कहें तो, अगर हम अच्छा करते हैं, तो अच्छाई मिलती है, और अगर हम बुरा करते हैं, तो बुराई मिलती है। यह सीधी-सी बात है। प्रभाव भी कारण की ही श्रेणी में आता है। यह अवश्यम्भावी है। इसके अलावा, छोटे-छोटे कारणों से भी हम व्यापक परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।

देशों में भी, जो भी भयावह परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, वे पिछले विनाशकारी कर्मों से निर्मित नकारात्मक शक्तियों के कारण होती हैं। उदाहरण के लिए, तिब्बत में, कभी सूखा पड़ता है; हमारी फसलें बर्बाद होती हैं; कभी युद्ध होते हैं, आक्रमण होते हैं, इत्यादि। ये सब हमारे पिछले विनाशकारी कर्मों और हमारी सकारात्मक शक्ति के अभाव के कारण होता है। यदि हमारे पिछले कर्मों से कोई सकारात्मक शक्ति निर्मित नहीं हुई है, तो हम चाहे कुछ भी करें, वह अच्छी परिस्थितियाँ नहीं लाएगा। इसलिए, हमें हमेशा दूसरों के सुख की कामना करनी चाहिए। जैसे चीनी लोगों के मामले में, हम केवल उनके कल्याण की कामना कर सकते हैं। हमें यह कामना नहीं करनी चाहिए कि उनका अहित हो। वे जो कुछ भी भोगेंगे, वह उनके अपने कर्मों का परिणाम होगा।

विनाशकारी व्यवहार हमारे अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होता है और इस प्रकार कार्य करके हम नकारात्मक शक्ति का निर्माण करते हैं, जो हमें केवल दुःख ही देती है। विनाशकारी कर्म शरीर, वाणी या मन से संबंधित हो सकते हैं। शरीर से संबंधित ऐसी क्रिया का उदाहरण है हत्या, जिसमें किसी भी व्यक्ति, यहाँ तक कि किसी कीड़े-मकोड़े तक की जान ले ली जाती है। हत्या करना बहुत नकारात्मक है, इसलिए हमें यथासंभव इससे बचना चाहिए।

सभी प्राणियों का अपने जीवन पर समान अधिकार है और वे अपने जीवन को उतना ही महत्त्व देते हैं जितना हम। अगर हमारी उंगली में काँटा चुभ जाए, तो हम कहते हैं, "आह, मुझे दर्द हो रहा है।" सभी प्राणियों को बिल्कुल ऐसा ही महसूस होता है। पशुओं की बलि देना विशेष रूप से भयानक है; कुछ देशों में आज भी ऐसा किया जाता है। अतीत में, किन्नौर, स्पीति, नेपाल, के कुछ स्थानों और यहाँ तक कि तिब्बत के कुछ ज़िलों में भी ऐसा किया जाता था। ऊपरी तौर पर, वहाँ के लोग मेरी, दलाई लामा की, शरण लेते हैं और फिर पशुओं की बलि देते हैं। यह बहुत बुरा है। करुणा का मंत्र "ॐ मणिपद्मे हुं" कहना और फिर बलि देना, यह कभी उचित नहीं होगा।

अगला है चोरी। यह भी बहुत नकारात्मक है। अनुचित यौन व्यवहार है किसी दूसरे व्यक्ति के जीवनसाथी के साथ, या किसी ऐसे व्यक्ति के साथ संबंध रखना जिसका किसी और के साथ संबंध हो, और ऐसा करने में कुछ भी अनुचित न लगे। जब हम ऐतिहासिक साहित्य पर नज़र डालते हैं, तो पाते हैं कि राजघरानों में अधिकतर कलह और झगड़े यौन दुराचार के कारण ही हुए हैं। यह बहुत विनाशकारी है।

अगला है झूठ बोलना। यह भी बेहद नकारात्मक है। निस्संदेह, किसी की जान बचाने के लिए झूठ बोलना एक अलग बात है, लेकिन हमें हमेशा ईमानदार रहना चाहिए। अगर हम झूठ बोलते हैं, तो यह केवल दुख ही लाता है। हम इस डर में बैठे रहते हैं कि कोई हमें पहचान लेगा। इससे हमेशा मन बहुत बेचैन रहता है, है न?

अगला है फूट डालने वाली भाषा, जो दूसरों में फूट डालकर उन्हें अलग-थलग कर देती है। हम किसी के बारे में बुरी बातें सुनते हैं और फिर उन्हें फैलाते हैं; यह बहुत विनाशकारी है। हमें दूसरों को एक साथ लाने का प्रयास करना चाहिए। जब लोग साथ रहते और काम करते हैं, तो उनका सामंजस्य आपसी विश्वास और भरोसे पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, जब हम चीनी लोगों को देखते हैं, तो वे सभी को अपना साथी कहते हैं, लेकिन यह केवल बातचीत की मेज़ पर ही होता है। बाहर, वे एक-दूसरे के साथ साबुन की एक टिकिया भी साझा नहीं करते। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनमें आत्मविश्वास नहीं है; वे एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते। और यह दूसरों के बीच फूट पैदा करने से होता है। इसलिए, कभी भी फूट डालने वाली भाषा का प्रयोग न करें।

इसके बाद आती है अभद्र भाषा, दूसरों को "भिखारी" वगैरह जैसे बुरे नाम देना। इससे उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचती है: इससे उन्हें बिल्कुल भी खुशी नहीं मिलती। गपशप है बकबक करना, हमेशा बेमतलब की बातें करना; यह समय की पूरी बर्बादी है।

फिर आते हैं लालच भरे विचार। किसी और के पास कोई अच्छी चीज़ है, जिसे हम पाना चाहते हैं, और हम अपना सारा ध्यान उसी चीज़ पर लगाए रहते हैं और बस उसे पाने की कामना करते हैं। अगर हम सावधान नहीं हुए, तो हम सीधे दीवार से टकरा जाएँगे!

इसके बाद आते हैं द्वेषपूर्ण विचार। यह भी बहुत नकारात्मक हैं। यह हमें केवल दुखी करते है। इससे आमतौर पर दूसरे व्यक्ति को कोई नुकसान नहीं होता; इससे केवल हमें ही नुकसान होता है। द्वेष रखना और दूसरों का बुरा चाहना बहुत ही आत्मघाती है। द्वेष रखकर हम कभी भी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। समस्याओं का समाधान केवल करुणा, प्रेम और धैर्य से ही हो सकता है; इसलिए कभी भी द्वेष न पालें। अंतिम है विकृत विरोधी विचार: जो मौजूद है या जो सत्य है उसे नकारना, या ऐसी कोई बात गढ़ना जो मौजूद नहीं है या जो असत्य है।

किसी की जान लेने से लेकर विकृत विरोधी विचार तक, ये दस विनाशकारी कर्म हैं। हमें इनसे होने वाली हानि को समझना होगा और इनसे बचना होगा। वास्तविक अभ्यास है, इनकी कमियों को देखकर, सचेत प्रयास और आनंदमयी दृढ़ता के साथ, हत्या, झूठ आदि से खुद को रोकना। भले ही हम पूरी तरह से न बच सकें, हमें इन्हें यथासंभव कम करने का प्रयास करना चाहिए। सुरक्षित दिशा अपनाने से यही होता है।

अब उन शिक्षाओं पर आते हैं जो हमारी प्रेरणा का दायरा मध्यम या मंद होने पर लागू होती हैं।

विमुक्ति के लिए प्रयासरत होना

(9) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है विमुक्ति की सर्वोच्च, कभी न बदलने वाली अवस्था में गहरी रुचि लेना, क्योंकि बाध्यकारी अस्तित्व के तीन स्तरों के सुख ऐसे क्षणभंगुर प्रपंच हैं जैसे घास की नोक पर ओस की बूंद।

बाध्यकारी अस्तित्व के तीन स्तरों में हम चाहे कहीं भी जन्म लें, यह एक जलती हुई इमारत की अलग-अलग मंज़िलों पर होने जैसा है। हर जगह दुख है, इसलिए हमें हर हाल में इससे मुक्ति प्राप्त करनी होगी। संसार, अनियंत्रित रूप से बार-बार होने वाला अस्तित्व, उन भ्रम-मिश्रित दुखों के समुच्चय का नाम है, जो हमें कर्म और अशांतकारी भावनाओं और दृष्टिकोणों से प्राप्त होते हैं। हमें इस बारे में सोचने की आवश्यकता है। यद्यपि हमें एक बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है, फिर भी यदि हम कर्म और अशांतकारी भावनाओं के वश में हैं और स्वतंत्र नहीं हैं, तो हम केवल और अधिक दुख ही उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए, हमें इन आवर्ती लक्षणों से स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए। हमारे जो भी सांसारिक सुख हैं, वे आत्यंतिक नहीं हैं। वे केवल सतही और अस्थायी हैं। हम किसी भी समय निम्नतर पुनर्जन्म में जा सकते हैं।

यदि हमारा दुख हमारी अपनी ही समग्र शारीरिक और मानसिक क्षमताओं से उत्पन्न होता है, जो कर्म और अशांतकारी भावनाओं के अधीन हैं, तो हम अपने भ्रम से दूषित समुच्चयों से कहाँ भाग सकते हैं? इस पर विचार करें। यदि हमारे अपने समुच्चय स्वयं दुख की प्रकृति के हैं, तो हम उनसे कैसे बच सकते हैं?

दुख का स्रोत हैं हमारी अशांतकारी भावनाएँ और दृष्टिकोण, जिनमें से मुख्य हैं आसक्ति और द्वेष। ये दोनों ही अनभिज्ञता (अज्ञान) से उत्पन्न होते हैं, अन्तर्जात अस्तित्व को अर्जित करने की अनभिज्ञता से, लेकिन यह एक विकृत दृष्टिकोण है। दूसरी ओर, इसके विरोधी, अर्थात् विपरीत दृष्टिकोण को विकसित करके, कि अन्तर्जात अस्तित्व का कोई अस्तित्व ही नहीं है, और स्वयं इसकी आदत डालकर, हम जितने अधिक सही दृष्टिकोण से परिचित होंगे, हमारी अज्ञानता उतनी ही कम होगी।

मन पर लगे अनभिज्ञता के धब्बे क्षणिक होते हैं; इन्हें हटाया जा सकता है। अन्तर्जात अस्तित्व को अर्जित करने की अनभिज्ञता और अन्तर्जात अस्तित्व के अभाव की समझ, दोनों का लक्ष्य एक ही है। इसलिए, जब हमारे पास एक होता है, तो हम एक साथ दूसरे को प्राप्त नहीं कर सकते। इस प्रकार विवेकशील बोध या शून्यता का ज्ञान अनभिज्ञता के प्रतिकारक के रूप में कार्य करता है। इस विवेकशील बोध के साथ, हम राग और द्वेष से मुक्त हो जाते हैं और इस प्रकार दुख से मुक्ति प्राप्त करते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि राग, द्वेष या शत्रुता स्वाभाविक हैं: ये मन की प्रकृति के अंग हैं। वे कहते हैं कि अगर किसी व्यक्ति में ऐसी भावनाएँ न हों, तो ऐसा लगता है मानो वह जीवित ही नहीं है। लेकिन, अगर ये मन की प्रकृति के अंग होते, तो ठीक वैसे ही जैसे हम केवल जागरूकता और स्पष्टता को मन का स्वभाव मान लेते हैं, राग और द्वेष की ये भावनाएँ हर समय मौजूद रहतीं। लेकिन, हम देखते हैं कि क्रोध को शांत किया जा सकता है, यह हमेशा के लिए नहीं रहता। इसलिए, यह सोचना गलत है कि ये जीवन के स्वाभाविक अंग हैं, और राग और द्वेष रखना मन का स्वभाव है।

अतः, दो सत्यों को देखने के लिए हमें सविवेकी सचेतनता की आवश्यकता है: गहनतम दृष्टिकोण से, सब कुछ अन्तर्जात अस्तित्व से रहित है, फिर भी पारंपरिक रूप से, प्रतीत्यसमुत्पाद कभी मिथ्या नहीं होता। यह उच्चतर सविवेकी सचेतनता का अभ्यास है, और इसे प्राप्त करने के लिए, हमें उच्चतर एकाग्रता के प्रशिक्षण को आधार बनाना होगा, ताकि मानसिक भटकाव आदि न हो। इसके लिए, हमें उच्चतर नैतिक आत्म-अनुशासन के प्रशिक्षण की आवश्यकता है, चाहे वह संन्यासी हो या गृहस्थ। उदाहरण के लिए, गृहस्थ संवर हैं, पाँच गृहस्थेतर संवर हैं, और कम से कम इनका पालन करना महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार, हमें तीन उच्चतर प्रशिक्षणों के अभ्यास की आवश्यकता है।

इसके बाद वे शिक्षाएँ हैं जो उस समय के लिए हैं जब हमारे पास प्रेरणा का एक उन्नत दायरा होगा।

बोधिचित्त लक्ष्य का विकास

(10) बोधिसत्त्व का अभ्यास है असीम प्राणियों को मुक्त करने के लिए बोधिचित्त लक्ष्य विकसित करना, क्योंकि, यदि हमारी माताएँ, जो अनादि काल से हमारे प्रति दयालु रही हैं, पीड़ित हैं, तो (केवल) अपनी खुशी किस काम की है?

सभी सीमित प्राणी, जो अंतरिक्ष जितने व्यापक हैं, हमारी ही तरह सुख और दुःख से मुक्ति की कामना करते हैं। वे इतने असंख्य हैं कि अगर हम उनकी उपेक्षा करके केवल अपने उद्देश्यों के बारे में सोचें, तो यह अन्यायपूर्ण होने के साथ-साथ दयनीय भी है। हमें अपने को एक ओर और बाकी सभी प्राणियों को दूसरी ओर रखना होगा। हम सभी सुख चाहते हैं, दुःख नहीं; फ़र्क केवल इतना है कि हम एक हैं और वे असंख्य। तो फिर बाकी सब की तुलना में किसी एक व्यक्ति का पक्ष लेना किसे उचित या तर्कसंगत लगेगा?

बोधिसत्त्व केवल दूसरों के सुख की कामना करते हुए कार्य करते हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि, निस्संदेह, उन्हें ज्ञानोदय प्राप्त होता है, लेकिन इसके अलावा, इस मार्ग पर चलते हुए वे दुखी नहीं होते। वे जितना अधिक दूसरों के लिए परिश्रम करते हैं और अपनी उपेक्षा करते हैं, वे उतने ही अधिक सुखी होते हैं, जो उन्हें और भी अधिक परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करता है। लेकिन यदि हम केवल अपने उद्देश्यों के लिए कार्य करते हैं और दूसरों की उपेक्षा करते हैं, तो हमें केवल दुःख, असंतोष और निराशा ही प्राप्त होती है। हास्यास्पद है कि ऐसा होता है। इसलिए हमें अपने स्वार्थ को कम करने और दूसरों के प्रति अपनी चिंता को यथासंभव बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए और ऐसा करने से, हम पाएंगे कि हम अधिक सुखी होते जाएँगे।

यदि हम केवल दूसरों के हित के लिए कार्य कर रहे हैं, जैसा कि बोधिसत्त्वचर्यावतार में वर्णित है, तो हमें कभी भी इस बात का भय नहीं रहेगा कि हमारा पुनर्जन्म कहाँ या किन परिस्थितियों में होगा। हम जहाँ भी हों, हम वहाँ दूसरों की सहायता के लिए कार्य करेंगे। नागार्जुन ने अपनी रत्नावली में इसी बात पर बल दिया है। केवल दूसरों के लिए कार्य करना और अपने लाभ की उपेक्षा करना ही बुद्धत्व प्राप्ति का मार्ग है।

हम कहते हैं कि हम महायानवादी हैं, लेकिन जैसा कि त्सोंग्खापा ने कहा है, महायानवादी कहलाने के लिए हमारा महायान व्यक्तित्व होना आवश्यक है। इसलिए, हमें दूसरों के हित के लिए कार्य करना चाहिए। यदि हम दूसरों की मदद करने के तरीके खोजें और बोधिचित्त संकल्प विकसित करें, तो स्वतः ही सभी के हित में परिणाम सामने आएंगे। इसलिए, जहाँ तक हो सके, हमें महायान प्रशिक्षण और अभ्यास का पालन करना चाहिए। क्या आप समझ रहे हैं?

अब बोधिसत्त्व क्या है? जैसा कि मैंने बुद्ध शब्द के बारे में बताया, तिब्बती भाषा में "बोधि" का पहला शब्दांश "जंग" (ब्यांग) है जिसका अर्थ है दोषों का निवारण, जबकि दूसरे शब्दांश, "चुब" (चुब), का अर्थ है सभी सद्गुणों की प्राप्ति। वास्तव में दो "बोधि" या शुद्ध अवस्थाएँ हैं और यहाँ अर्हतों में से निम्नतर अवस्था की नहीं, बल्कि बुद्ध के ज्ञानोदय की उच्चतर अवस्था की बात की गई है। "सत्त्व" का अर्थ है वह व्यक्ति जिसका मन बोधि, ज्ञानोदय की इस उच्चतर शुद्ध अवस्था की प्राप्ति पर केंद्रित हो, जिससे सभी का कल्याण हो।

इस प्रकार, हमें एक साथ दो लक्ष्यों की आवश्यकता है। हमें सीमित प्राणियों को लाभ पहुँचाने के लिए उन्हें लक्ष्य बनाना होगा और ऐसा करने में सक्षम होने के लिए ज्ञानोदय पर लक्ष्य साधना होगा। यही बोधिचित्त संकल्प है और हमें इसे विकसित करने की आवश्यकता है। हम इसे कैसे करें?

अपने और दूसरों के स्थान की अदला-बदली करना

(11) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है विशुद्ध रूप से अपने व्यक्तिगत सुख का दूसरों के दुखों के साथ अदला-बदली करना, क्योंकि हमारे (सभी) दुख, बिना किसी अपवाद के, हमारे व्यक्तिगत सुख की इच्छा से उत्पन्न होते हैं, जबकि एक पूर्णतः प्रबुद्ध बुद्ध का जन्म दूसरों के लिए मंगल कामना करने के भाव से होता है।

केवल अपने सुख की कामना करने से ही सारे दुख कैसे उत्पन्न होते हैं? ऐसी आत्मकेंद्रित कामना हमें अपने स्वार्थी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनेक विनाशकारी कार्य करने के लिए प्रेरित करती है और इसके फलस्वरूप हमें दुख भोगना पड़ता है। दूसरी ओर, दूसरों की सहायता करने से बुद्धत्व प्राप्त होता है। इसलिए, हमें अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है और अपने निजी सुख की कामना करने तथा दूसरों के दुखों की उपेक्षा करने के बजाय, केवल दूसरों के सुख की कामना करनी चाहिए और अपनी उपेक्षा करनी चाहिए।

ऐसा करने के लिए, हम "लेना और देना" (टोंगलेन) नामक अभ्यास का प्रशिक्षण लेते हैं, अर्थात दूसरों के दुख अपने ऊपर लेकर उन्हें अपना सुख प्रदान करते हैं। ऐसा करने में हमारी सहायता के लिए, एक बहुत ही अच्छा और उपयोगी मानस-दर्शन है। हमें दाईं ओर अपने साधारण रूपों में, स्वार्थी और केवल अपने सुख की कामना करते हुए, स्वयं की कल्पना करनी होगी। बाईं ओर, अनंत, असंख्य प्राणियों की कल्पना करनी होगी जो सभी सुख चाहते हैं। फिर, हमें अपने मन में एक साक्षी के रूप में खड़े होकर निर्णय करना होगा, "कौन अधिक महत्त्वपूर्ण है, यह स्वार्थी व्यक्ति या अन्य सभी?" सोचें कि हम किसका पक्ष लेंगे और किसके साथ जुड़ना चाहेंगे - स्वार्थी व्यक्ति का या इन सभी दयनीय प्राणियों का, जो समान रूप से सुख के पात्र हैं? बोधिसत्त्वचर्यावतार में वर्णित इस प्रकार के और अन्य अभ्यास अत्यंत लाभकारी हैं।

बोधिसत्त्व आचरण: हानि से निपटना

(12) बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि यदि कोई व्यक्ति तीव्र इच्छा के वशीभूत होकर हमारी सारी संपत्ति चुरा ले या दूसरों से चुराने का कारण बने, तब भी हम उसे अपने तीनों कालों के शरीर, संसाधन और रचनात्मक कर्म समर्पित कर दें।

अब हमने बोधिचित्त संकल्प विकसित कर लिया है। हालाँकि, ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए, हमें बोधिसत्त्व आचरण में संलग्न होना होगा। यदि कोई हमसे चोरी करता है, तो क्रोधित होने का खतरा है। लेकिन, यदि हम ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए अभ्यास कर रहे हैं और अपना सब कुछ दूसरों को दे रहे हैं, तो यह तथाकथित चोर पहले से ही हमारी पूर्व संपत्ति का स्वामी है। उसने उन्हें अब ले लिया है क्योंकि वास्तव में वे पहले से ही उसकी है। इसलिए, हमें न केवल उन संपत्तियों को समर्पित करना चाहिए जो उसने छीन ली हैं, या जिनके बारे में हमें लगता है कि उसने हमसे चुराई हैं, बल्कि इससे भी आगे, हमारे शरीर और तीनों कालों के सकारात्मक कर्मों को भी समर्पित करना चाहिए।

(13) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि यदि हमारा कोई दोष न भी हो, तो भी यदि कोई हमारा सिर काट दे, तो हमें करुणा की शक्ति से उसके नकारात्मक परिणामों को अपने ऊपर ले लेना चाहिए।

यदि दूसरे हमें हानि पहुँचाते हैं, तो हमें उनके प्रति करुणा रखनी चाहिए और दूसरों द्वारा पहुँचाए गए सभी कष्टों को अपने ऊपर ले लेना चाहिए।

(14) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि यदि कोई हमारे बारे में हज़ारों, लाखों, अरबों लोकों में तरह-तरह की अप्रिय बातें प्रचारित करे, तो भी हम प्रेम के भाव से उसके गुणों का बखान करें।

जब कोई हमें गाली दे या हमारे बारे में बुरी बातें कहे, तो हमें बदले में कुछ भी बुरा नहीं कहना चाहिए। कभी भी बदले में बुरी बातें न कहें, बल्कि उनके बारे में केवल दयालुता से बोलें, जैसा कि शांतिदेव ने बोधिसत्त्वचर्यावतार में समझाया है।

(15) बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि यदि कोई व्यक्ति अनेक विचरण करने वाले प्राणियों की सभा में हमारे दोषों को उजागर करे या (हमारे लिए) अपशब्द कहे, तो भी हमें उसे आदरपूर्वक प्रणाम करना चाहिए, यह समझते हुए कि वह हमारा आध्यात्मिक गुरु है।

यदि दूसरे हमें औरों के सामने अपमानित या शर्मिंदा भी करें, तो भी हमें अपनी मनोवृत्तियों को शुद्ध करने (मन को प्रशिक्षित करने) की विधियों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि दूसरे हमें अपमानित करते हैं या हमारी गलतियाँ बताते हैं, तो वे वास्तव में हमारे गुरु हैं। इसलिए, हमें अपनी कमियों से अवगत कराने के लिए उनका धन्यवाद करना चाहिए और उनके प्रति गहन सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए।

(16) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि यदि कोई व्यक्ति जिसकी हमने अपने बच्चे की तरह पालते हुए देखभाल की है, वह हमें अपना शत्रु माने, तब भी हम उसके प्रति विशेष स्नेह रखें, जैसे एक माँ अपने बीमार बच्चे के प्रति रखती है।

यदि कोई बच्चा बीमार होने पर शरारत करता है, तो चाहे वह कितना भी बुरा क्यों न हो, उसकी माँ फिर भी उससे स्नेह करेगी। हमें सभी प्राणियों को इसी दृष्टिकोण से देखना चाहिए।

(17) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि यदि कोई व्यक्ति, चाहे वह हमारा समतुल्य हो या निम्नस्तरीय, अपने अहंकार के कारण हमारे साथ अपमानजनक व्यवहार करे, तो उसे गुरु के समान आदरपूर्वक अपने सिर पर बिठाना चाहिए।

यही बात तब भी लागू होती है जब दूसरे हमसे प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश करते हैं। हमें धैर्य विकसित करने की आवश्यकता है। जैसा कि बोधिसत्त्वचर्यावतार में कहा गया है, यदि हमारे कोई शत्रु न हों, तो हम धैर्य विकसित नहीं कर सकते। इसलिए, हमें किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो हमें कष्ट दे, जिसके प्रति हम सहनशील रवैया विकसित कर सकें। हम अपने गुरुओं या किसी बुद्ध पर ध्यान केंद्रित करके धैर्य विकसित नहीं कर सकते। हमें एक शत्रु की आवश्यकता है जिस पर हम अपना ध्यान केंद्रित कर सकें।

उदाहरण के लिए, मैं अपने बारे में सोचता हूँ। अगर कोई अखबार में लिखता है या दलाई लामा को कमज़ोर शरणार्थी कहता है, वगैरह, और अगर मैं ईमानदारी से अभ्यास कर रहा हूँ, तो मैं उसके साथ धैर्य विकसित करने की कोशिश करता हूँ। चूँकि हमें धैर्य का प्रशिक्षण देने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है, इसलिए एक शत्रु या हमसे घृणा करने वाला व्यक्ति इस गुरु के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।

अगर हम इसके बारे में और सोचें, तो शत्रु अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं, है न? अगर हम महायान का अभ्यास कर रहे हैं, तो हमें धैर्य विकसित करने और कठिन परिस्थितियों को सहने की आवश्यकता है। हम वास्तव में शत्रुओं के बिना महायान का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? संक्षेप में, स्वयं और दूसरों के प्रति अपने दृष्टिकोण का आदान-प्रदान करने के लिए, हमें कई परीक्षणों और क्लेशों, कई चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। इसलिए, शत्रु या ऐसे लोग जो बहुत कष्टप्रद और कठिन होते हैं, अत्यंत महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान होते हैं।

धर्म साधना की आवश्यकता वाली दो महत्त्वपूर्ण परिस्थितियाँ

(18) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि, भले ही हम जीविका-रहित हों और लोगों द्वारा हमेशा अपमानित हों, या भयंकर रोगों से ग्रस्त हों, या भूत-प्रेतों से पीड़ित हों, फिर भी हमें सभी भटकते प्राणियों की नकारात्मक शक्तियों और कष्टों को अपने ऊपर ले लेना चाहिए और निराश नहीं होना चाहिए।

धर्म साधना के लिए दो अत्यंत विकट परिस्थितियाँ होती हैं। एक वह जब हम अतीत के कारणों से अत्यंत कठिन परिस्थितियों, गरीबी आदि में होते हैं। तब हम हतोत्साहित हो जाते हैं। दूसरी वह जब हम अत्यंत सुखी और समृद्ध होते हैं। तब हम अभिमानी और अहंकारी हो जाते हैं।

हमें दोनों ही स्थितियों में सावधान रहने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, यदि हम बहुत बीमार हैं, तो यदि हम दूसरों के साथ आदान-प्रदान करने और लेने-देने का अभ्यास करें, तो हम इस बात से भी प्रसन्न होंगे कि हम बीमार हैं। वास्तव में, हम दूसरों की बीमारी और पीड़ा को अपने ऊपर लेना चाहेंगे।

(19) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि भले ही हमारी मधुर स्तुति हो, अनेक विचरण करने वाले प्राणी हमें प्रणाम करें, या हमें वैश्रवण (धन के संरक्षक) के समान धन प्राप्त हो, फिर भी हमें कभी अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि हम यह समझते हैं कि सांसारिक समृद्धि का कोई महत्त्व नहीं है।

यह दूसरी चरम सीमा है, दूसरी संभावित रूप से खतरनाक स्थिति। यदि हमारा बहुत सम्मान किया जाता है और हमारे साथ सब कुछ ठीक चलता है, तो हम उससे बहुत अभिमानी, आलसी और अहंकारी हो सकते हैं। चूँकि यह हमारी साधना में बाधा डालता है, इसलिए हमें यह समझना होगा कि ऐसे सांसारिक सौभाग्य का कोई महत्त्व नहीं है।

शत्रुता और आसक्ति पर विजय

(20) एक बोधिसत्त्व की साधना प्रेम और करुणा की सशस्त्र शक्तियों से अपने मानसिक सातत्यों को वश में करना है, क्योंकि यदि हमने अपने शत्रु को, जो कि हमारी अपनी शत्रुता है, वश में नहीं किया है, तो भले ही हमने किसी बाहरी शत्रु को वश में कर लिया हो, शत्रु आते रहेंगे।

क्रोध से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है। यदि हम विश्व पर नज़र डालें, उदाहरण के लिए द्वितीय विश्व युद्ध की स्थिति पर, तो हम देख सकते हैं कि यह सब क्रोध और घृणा के कारण ही हुआ। उस समय, पश्चिमी राष्ट्र और रूस मित्र थे और यद्यपि उन्होंने युद्ध जीत लिया, फिर भी वे अपनी शत्रुता पर विजय नहीं पा सके! चूँकि अब भी उनमें यह विष शेष है, हम सोवियत संघ को पश्चिम के विरुद्ध शत्रु के रूप में खड़ा पाते हैं। यदि भविष्य में पुनः युद्ध होता है, तो वह क्रोध और घृणा के कारण ही होगा। लेकिन, यदि हम शांति और सुख चाहते हैं, तो यह इस नकारात्मक दृष्टिकोण के उन्मूलन के बिना कभी नहीं आ सकता। शांति और सुख तभी आएंगे जब हम प्रेम और करुणा का विकास करेंगे। इसलिए, घृणा पर विजय पाने के लिए हमें प्रेम और करुणा की युद्ध कला का अभ्यास करने की आवश्यकता है।

(21) बोधिसत्त्व का अभ्यास उन सभी वस्तुओं को तुरंत त्यागना है जो हमारी निर्भरता और आसक्ति को बढ़ाती हैं, क्योंकि इच्छा की वस्तुएं खारे पानी की तरह हैं: जितना अधिक हम उनमें लिप्त होते हैं, हमारी प्यास उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है।

हम चाहे किसी भी वस्तु की ओर आकर्षित हों, हम उससे कभी संतुष्ट नहीं होते; हमारे पास कभी पर्याप्त नहीं होता। यह खारा पानी पीने जैसा है: जैसा कि "द प्रेशियस गारलैंड" में वर्णित है, हमारी प्यास कभी बुझती नहीं। एक उदाहरण पर विचार करें: जैसे, जब हमारे शरीर पर दाने निकलते हैं। अगर हम उसे खुजलाते हैं, तो अच्छा लगता है। लेकिन, अगर हम उस अच्छे एहसास से जुड़े हैं, तो जितना ज़्यादा हम खुजलाते हैं, वह और भी बदतर होता जाता है। दाने में दर्द होता है, खून बहने लगता है, संक्रमण हो जाता है, और गंदगी फैल जाती है। सबसे अच्छा यही है कि दानों को जड़ से ठीक कर दिया जाए, ताकि हमें खुजलाने की बिल्कुल भी इच्छा न हो।

गहनतम बोधिचित्त का विकास, शून्यता का बोध

(22) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास ग्रहण की गई वस्तुओं और उन्हें ग्रहण करने वाले मन की अन्तर्जात विशेषताओं को ध्यान में न रखकर, यह बोध प्राप्त करना है कि वस्तुएँ कैसी हैं। वस्तुएँ चाहे जैसी भी दिखाई दें, वे हमारे अपने मन से हैं; और मन स्वयं, शुरू से ही, मानसिक कल्पना की अति से मुक्त है।

यह स्वातंत्रिक दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है कि अन्तर्जात विशेषताएँ पारंपरिक रूप से विद्यमान होती हैं, लेकिन गहनतम सत्य के दृष्टिकोण से उनका अस्तित्व बिल्कुल नहीं होता, लेकिन ऐसा आवश्यक नहीं है। जब यहाँ कहा जाता है कि आभास "हमारे अपने मन से" हैं, तो इसका अर्थ है कि वे हमारे मन का खेल हैं, इस अर्थ में कि हमारे मन द्वारा संचित कर्म ही सभी आभासों को जन्म देते हैं। मन स्वयं, आरंभ से ही, अन्तर्जात अस्तित्व की अति से मुक्त है।

यदि हम इसे समझ लेते हैं, तो हम यह नहीं मानेंगे कि "यह" वह चेतना है जो शून्यता को समझती है और "वह" इस चेतना का विषय है, अर्थात शून्यता। बल्कि, हम अपने मन को शुद्ध, अव्यक्त शून्यीकरण (अपुष्टिकारी निषेध) पर पूर्ण रूप से केंद्रित कर देंगे, जो शून्यता है - अस्तित्व के सभी असंभव तरीकों का पूर्ण अभाव। यहाँ उल्लिखित अभ्यास यही है।

(23) बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि जब हमें मनभावन वस्तुएं मिलें तो उन्हें वास्तविक अस्तित्व न मानें, भले ही वे ग्रीष्म ऋतु के इन्द्रधनुष के समान सुन्दर दिखाई दें, और (इस प्रकार) हम अपने आप को आसक्ति और मोह से मुक्त कर लें।

यद्यपि वस्तुएँ इन्द्रधनुष की तरह सुन्दर दिखाई देती हैं, फिर भी हमें यह समझना चाहिए कि वे अन्तर्जात अस्तित्व से रहित हैं और उनपर आसक्त नहीं होना चाहिए।

(24) बोधिसत्त्व का अभ्यास है, प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते समय, उन्हें भ्रामक समझना, क्योंकि विभिन्न कष्ट स्वप्न में हमारे बच्चे की मृत्यु के समान हैं और (ऐसे) भ्रामक आभासों को सत्य मानना एक व्यर्थ थकाने वाला काम है।

इसलिए, हमें हर चीज़ को भ्रामक आभास के रूप में देखना चाहिए और कठिन परिस्थितियों से निराश नहीं होना चाहिए। ये पारंपरिक और गहनतम बोधिचित्त विकसित करने की शिक्षाएँ हैं। इसके बाद छह व्यापक मनोवृत्तियों (छह पारमिताओं) का अभ्यास है।

छह व्यापक दृष्टिकोण

(25) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है उदारतापूर्वक दान करना, बदले में कुछ पाने और कर्म फल की प्राप्ति की आशा किए बिना, क्योंकि यदि ज्ञान प्राप्ति की इच्छा रखने वालों को अपना शरीर का भी दान कर देना चाहिए, तो भौतिक संपत्ति की तो बात ही क्या है।

यह दूरगामी उदारता का अभ्यास है।

(26) बोधिसत्त्व का अभ्यास सांसारिक उद्देश्यों के बिना नैतिक आत्म-अनुशासन की रक्षा करना है, क्योंकि, यदि हम नैतिक अनुशासन के बिना अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकते, तो दूसरों के उद्देश्यों को पूरा करने की इच्छा करना एक मज़ाक ही होगा।

सबसे ज़रूरी है नैतिक आत्म-अनुशासन, विशेष रूप से विनाशकारी कार्यों से दूर रहने का अनुशासन। इसके बिना हम किसी की मदद कैसे कर सकते हैं?

(27) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है किसी के प्रति शत्रुता या घृणा के बिना, धैर्य को अपनी आदत बनाना, क्योंकि सकारात्मक शक्ति के धन की कामना करने वाले बोधिसत्त्व के लिए, सभी नुकसान पहुंचाने वाले, रत्नों के ख़ज़ाने के समान हैं।

हमें बहुत धैर्य की आवश्यकता है। आत्मज्ञान प्राप्त करने हेतु सकारात्मक शक्ति का निर्माण करने की इच्छा वाले एक बोधिसत्त्व के लिए, जो हमारे शत्रु, जो हमें हानि पहुँचाते हैं, रत्नों के समान मूल्यवान होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके साथ, हम धैर्य का अभ्यास कर सकते हैं। इससे हमारी सकारात्मक शक्ति का जाल निर्मित और सुदृढ़ होता है, जिससे हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी।

(28) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है दृढ़ता का प्रयोग करना, जो सभी भटकते प्राणियों के उद्देश्यों के लिए सद्गुणों का स्रोत है, क्योंकि हम देख सकते हैं कि श्रावक और प्रत्येकबुद्ध, जो केवल अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहते हैं, उनमें भी ऐसी दृढ़ता होती है कि वे अपने सिर पर लगी आग से भी मुँह मोड़ लेते हैं।

इसका तात्पर्य है रचनात्मक व्यवहार के लिए उत्साहपूर्ण ऊर्जा के साथ दृढ़ता का प्रयोग करना। यदि हीनयान साधक अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इतनी मेहनत कर सकते हैं, तो हम महायानियों को, जो सभी के लिए काम कर रहे हैं, और भी अधिक मेहनत करने की आवश्यकता है।

(29) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है एक ऐसी मानसिक स्थिरता को आदत के रूप में विकसित करना जो चार निराकार (अवशोषण) से भी बढ़कर हो, यह समझकर कि मन की एक असाधारण बोधगम्य अवस्था, जो पूरी तरह से शांत और स्थिर अवस्था से संपन्न हो, अशांतकारी भावनाओं और मनोवृत्तियों को पूरी तरह से परास्त कर सकती है।

सूत्र के संदर्भ में यह मानसिक स्थिरता (एकाग्रता) की व्यापक भावना को दर्शाता है। इस प्रकार, विपश्यना (विशेष अंतर्दृष्टि) की एक असाधारण बोधगम्य मनःस्थिति को प्राप्त करने के लिए, हमें पहले से ही शमथ (मानसिक शांति, शांतचित्तता) की एक स्थिर अवस्था प्राप्त करनी होगी। तब हमारे पास शमथ और विपश्यना का संयुक्त युग्म होगा, जो अविच्छेद्य है।

(30) बोधिसत्त्व का अभ्यास है सविवेकी सचेतनता को एक आदत के रूप में विकसित करना जो विधियों से मेल खाती है और जिसमें तीन चक्रों के बारे में कोई अवधारणा नहीं है, क्योंकि सविवेकी सचेतनता के बिना, पाँच व्यापक दृष्टिकोण पूर्ण ज्ञानोदय की प्राप्ति नहीं ला सकते हैं।

हम केवल विधि पक्ष, अर्थात् प्रथम पाँच व्यापक दृष्टिकोणों से ही ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। हमें विवेक पक्ष की भी आवश्यकता है। इसलिए, हमें अविच्छेद्य विधि और विवेक का विकास करना होगा। हमें सविवेकी सचेतनता की आवश्यकता है ताकि हम देख सकें कि इन व्यापक दृष्टिकोणों पर आधारित किसी भी रचनात्मक क्रिया के तीनों वृत्त - अर्थात् कर्ता, आलम्बन और स्वयं क्रिया - सभी अन्तर्जात अस्तित्व से रहित हैं।

अगला विषय है एक बोधिसत्त्व का दैनिक अभ्यास।

एक बोधिसत्त्व का दैनिक अभ्यास

(31) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है निरंतर अपनी आत्म-प्रवंचना की जाँच करना और फिर उससे मुक्ति पाना, क्योंकि यदि हम स्वयं अपनी आत्म-प्रवंचना की जाँच नहीं करते, तो यह संभव है कि किसी धार्मिक (बाह्य) रूप में हम कुछ अधार्मिक कार्य कर बैठें।

दूसरे शब्दों में, हमें प्रतिदिन अपने अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों की जाँच करनी चाहिए, क्योंकि जैसा कि यहाँ कहा गया है, यह पूरी तरह संभव है कि हम बाह्य रूप से ठीक प्रतीत हों, किन्तु वास्तव में ठीक न हों।

(32) बोधिसत्त्व का अभ्यास महायान में प्रवेश कर चुके व्यक्ति के दोषों के बारे में बात करना नहीं है, क्योंकि यदि हम अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों के प्रभाव में आकर अन्य बोधिसत्वों के दोषों के बारे में बात करते हैं, तो हम स्वयं पतित हो जाएँगे।

हमें दूसरों को आलोचना करने या उनकी कमियाँ ढूँढ़ने के विचार से देखना बंद कर देना चाहिए। हम कभी नहीं जान पाते कि दूसरे कौन हैं या उनकी उपलब्धि क्या है। विशेष रूप से महायान साधकों के रूप में, हमें केवल दूसरों की मदद और लाभ के बारे में सोचना चाहिए, न कि उनके दोष निकालने के बारे में।

(33) एक बोधिसत्त्व की साधना का अर्थ है अपने आप को रिश्तेदारों, मित्रों और संरक्षकों के घरों के प्रति आसक्ति से मुक्त करना, क्योंकि लाभ और सम्मान की लालसा में हम आपस में झगड़ेंगे और हमारी सुनने, सोचने और ध्यान-साधना करने की गतिविधियाँ कम हो जाएँगी।

यदि हम सदैव संरक्षकों, रिश्तेदारों आदि के घरों में ही रहें, तो इसमें बहुत खतरा है। हम अनिवार्य रूप से तर्क-वितर्क, मतभेद आदि की जटिल परिस्थितियों में उलझ जाते हैं। इसलिए, हमें ऐसे स्थानों के प्रति आसक्ति से बचना चाहिए।

(34) एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है दूसरों के मन को अप्रिय लगने वाली कठोर भाषा से स्वयं को मुक्त करना क्योंकि कठोर शब्द दूसरों के मन को परेशान करते हैं और हमारे बोधिसत्त्व आचरण को क्षीण कर देते हैं।

क्रोध का मूल है अपने पक्ष के प्रति आसक्ति। लेकिन यहाँ, क्रोध पर ही ज़ोर दिया गया है, खासकर जब अपशब्दों का प्रयोग होता है। ऐसे कठोर शब्द हमारी सकारात्मक शक्ति को नष्ट करते हैं, दूसरों को परेशान करते हैं और नुकसान पहुँचाते हैं।

(35) बोधिसत्त्व का अभ्यास यह है कि सचेतनता और सतर्कता के सेवक प्रतिकारक शस्त्रों को पकड़ें और आसक्ति आदि जैसे अशांतकारी मनोभावों और मनोवृत्तियों को, जैसे ही वे उत्पन्न हों, बलपूर्वक नष्ट कर दें, क्योंकि जब हम अशांतकारी मनोभावों और मनोवृत्तियों के अभ्यस्त हो जाते हैं, तो प्रतिकारकों के लिए उन्हें पीछे हटाना कठिन हो जाता है।

जैसे ही आसक्ति या द्वेष उत्पन्न होते हैं, हमें उनका प्रतिकार करने के लिए तुरंत सचेतनता और सतर्कता का प्रयोग करना चाहिए।

(36) संक्षेप में, एक बोधिसत्त्व का अभ्यास है दूसरों के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए निरंतर सचेतनता और सतर्कता बनाए रखते हुए (कार्य करना), यह जानने के लिए कि हमारे मन की स्थिति कैसी है, हम चाहे कहीं भी हों या किसी भी आचरण का अनुसरण कर रहे हों।

जैसा कि बोधिसत्त्वचर्यावतार में कहा गया है, हमें निरंतर अपने मन का परीक्षण करना चाहिए और उसकी स्थिति को देखना चाहिए। फिर, सचेतनता के साथ, हमें तुरंत विभिन्न प्रतिकारकों को उन सभी अशांतकारी भावनाओं और दृष्टिकोणों पर लागू करना चाहिए जो भी विद्यमान हों। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी कारवां में हों और तिब्बत के उत्तरी पठार पर पहुँचें, तो हम बहुत सचेत और सतर्क रहेंगे कि हम कहीं भटक न जाएँ। हम बहुत सावधानी से सही रास्ता चुनेंगे; अन्यथा, हम आसानी से भटक सकते हैं। इसी प्रकार, हमें अपने मन को कहीं भी भटकने नहीं देना चाहिए।

(37) बोधिसत्त्व का अभ्यास, तीनों मण्डलों की पूर्ण शुद्धता के विवेकपूर्ण बोध के साथ, इन प्रयासों द्वारा प्राप्त रचनात्मक शक्तियों को ज्ञानोदय के लिए समर्पित करना है, ताकि असीम भटकते प्राणियों के कष्टों का निवारण किया जा सके।

इस प्रकार, यहाँ वर्णित अंतिम बोधिसत्त्व साधना इन सभी क्रियाओं की सकारात्मक शक्ति को आत्मज्ञान और दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित करना है। इससे पाठ का वास्तविक सार पूरा होता है। इसके बाद, रूपरेखा का तीसरा भाग, निष्कर्ष, आता है।

निष्कर्ष

पवित्र सत्त्वों के वचनों और सूत्रों, तंत्रों और ग्रंथों में घोषित अर्थों का पालन करते हुए, मैंने उन लोगों के लिए, जो बोधिसत्त्व मार्ग में प्रशिक्षण लेना चाहते हैं, सैंतीस बोधिसत्वों की (ये) साधनाएँ व्यवस्थित की हैं।

लेखक ने इन शिक्षाओं को विभिन्न स्रोतों से लिया है और उन्हें इन सैंतीस साधनाओं में संक्षेपित किया है।

चूँकि मेरी बुद्धि क्षीण है और मेरी शिक्षा अल्प है, इसलिए हो सकता है कि ये साधनाएँ उस काव्यात्मक लय में न हों जो विद्वानों को प्रसन्न कर सकें। परन्तु, चूँकि मैंने सूत्रों और पवित्र सत्त्वों के वचनों को आधार बनाया है, इसलिए मुझे लगता है कि (ये) बोधिसत्त्व साधनाएँ भ्रामक नहीं हैं।

इसके बाद, यदि लेखक से कोई गलती हुई हो तो वह क्षमा मांगता है।

फिर भी, चूँकि मुझ जैसे मंदबुद्धि व्यक्ति के लिए बोधिसत्त्व आचरण की महान तरंगों की गहराई को समझ पाना कठिन है, इसलिए मैं उन पवित्र सत्त्वों से अनुरोध करता हूँ कि वे मेरे दोषों के ढेर, जैसे अंतर्विरोध, संगति का अभाव, आदि के प्रति धैर्य रखें।

फिर वह अंतिम समर्पण के साथ समाप्त होता है।

इससे आने वाली रचनात्मक शक्ति से, सभी भटकते हुए प्राणी, सर्वोच्च गहनतम और पारंपरिक बोधिचित्तों के माध्यम से, संरक्षक अवलोकितेश्वर के समान बन सकते हैं, जो कभी भी बाध्यकारी सांसारिक अस्तित्व या निर्वाण की आत्मसंतुष्टि के अतिवादों को स्वीकार नहीं करते। 
इसकी रचना न्गुलचू की रिनचेन गुफा में धर्मग्रन्थ एवं तर्क-शास्त्र के शिक्षक, अनुशासित भिक्षु तोगमे द्वारा अपने और दूसरों के लाभ के लिए की गई है।

तोग्मेज़ांगपो द्वारा लिखित 37 बोधिसत्त्व साधनाएँ यहीं समाप्त होती हैं।

तोग्मेज़ांगपो द्वारा लिखित "37 Bodhisattva Practices" (37 बोधिसत्त्व साधनाएँ)का मूल पाठ पढ़ें और सुनें।

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