तिब्बती बौद्ध तथा बॉन परम्पराओं का तुलनात्मक विवेचन

तिब्बत की पाँचवीं परम्परा के रूप में बॉन परम्परा का महत्व

अधिकांश लोग तिब्बत की चार परम्पराओं की बात करते हैं: न्यिंग्मा, काग्यू, शाक्य, और गेलुग, जहाँ गेलुग को पूर्ववर्ती कदम परम्परा के शोधित रूप में देखा जाता है। लेकिन दिसम्बर 1988 में परम पावन दलाई लामा द्वारा भारत के सारनाथ में आहूत तुल्कु (पुनर्जन्मे लामा) और मठाधीशों के संप्रदायनिरपेक्ष सम्मेलन में परम पावन दलाई लामा ने तिब्बत की बौद्ध धर्म से पूर्व की बॉन परम्परा को इन चारों के साथ जोड़े जाने और हमेशा इन्हें पाँच परम्पराओं के रूप में देखे जाने के महत्व पर बल दिया। उन्होंने कहा कि हम बॉन को बौद्ध परम्परा मानते हैं या नहीं यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। ग्यारहवीं शताब्दी के समय से विकसित हुई बॉन परम्परा में तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के साथ इतनी समानताएं हैं कि हम इन पाचों को परम्पराओं को एक इकाई मान सकते हैं।

वीडियो: तेन्जिन वांग्याल रिनपोशे – बॉन बौद्ध धर्म
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पुरोहिताधिपत्य और विकेंद्रीकरण

तिब्बत की इन पाँच परम्पराओं की समानताओं और अन्तरों के बारे में चर्चा करने से पहले हमें यह बात ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि किसी भी तिब्बती परम्परा में कैथोलिक चर्च जैसी संगठित पुरोहित व्यवस्था नहीं है। इनमें से किसी भी परम्परा में ऐसा केंद्रीय संगठन नहीं है। इन परम्पराओं के प्रमुख, मठाधीश आदि मुख्यतः मठीय दीक्षा देने और मौखिक संचरण तथा तांत्रिक अभिषेक देने का कार्य करते हैं। प्रशासनिक विषयों को देखना उनका मुख्य कार्य नहीं है। पदक्रम का सम्बंध अधिकांशतः इस बात से होता है कि बड़े-बड़े अनुष्ठानों (पूजाओं) में कौन कहाँ बैठेगा; कितनी गद्दियों पर बैठेगा; उन्हें चाय किस क्रम में परोसी जाएगी; आदि। विभिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक कारणों से तिब्बती लोग बहुत ही स्वतंत्र हैं और प्रत्येक मठ के अपने अलग तौर-तरीके होते हैं। मठों का दूर-दराज़ क्षेत्रों में स्थित होने, उनके बीच की लम्बी दूरियाँ, और यात्रा तथा संचार की कठिनाइयों के कारण उनके बीच विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है।

समानताएं

पाँचों तिब्बती परम्पराओं के बीच बहुत सी समानताएं हैं, सम्भवतः उनकी अस्सी प्रतिशत या उससे भी अधिक बातें समान हैं। इनका इतिहास बताता है कि इन गुरु परम्पराएं अलग-अलग और एकाश्मी नहीं हैं जिनके बीच कोई परस्पर सम्पर्क न रहा हो। ये परम्पराएं अपने-अपने संस्थापक आचार्यों से उद्भूत होकर पाँच अलग-अलग परम्पराओं के रूप में स्थापित हुई हैं और इनमें विभिन्न संचरणों का मेल हुआ है जिनमें से अधिकांश भारत से तिब्बत पहुँचे थे। पारम्परिक तौर पर इन परम्पराओं के अनुयायियों ने अपने-अपने संचरणों के संश्लिष्ट रूप को “गुरु परम्परा” का नाम दे दिया, लेकिन समान संचरणों वाली कई परम्पराएं दूसरी परम्पराओं के मिले-जुले स्वरूप का हिस्सा भी बनी हैं।

गृहस्थ तथा मठीय परम्पराएं

पाँचों परम्पराओं की पहली समानता यह है कि प्रत्येक परम्परा में गृहस्थ तथा मठीय साधना की परम्पराएं मौजूद हैं। उनकी गृहस्थ परम्पराओं में गहन ध्यानसाधना करने वाले योगी और योगिनियाँ होती हैं और सामान्य गृहस्थ लोग भी होते हैं जिनकी धर्म साधना में मुख्यतः मंत्रोच्चार करना, मंदिरों में और घर पर भेंट-चढ़ावा चढ़ाना, और धार्मिक स्मारकों की प्रदक्षिणा करना शामिल होता है। सभी पाँचों परम्पराओं की मठीय परम्पराओं में पूर्ण दीक्षित और नवसाधक भिक्षुओं और नवसाधक भिक्षुणियों के दीक्षासंस्कार की व्यवस्था है। भिक्षुणियों की पूर्ण दीक्षा की परम्परा कभी तिब्बत पहुँची ही नहीं। लोग सामान्यतया लगभग आठ वर्ष की उम्र में मठों में प्रवेश लेते हैं। सभी परम्पराओं में मठों की वास्तुकला और साजसज्जा अधिकांशतः एक जैसी ही है।

चारों बौद्ध संप्रदायों में भारत से आए मूलसर्वास्तिवाद के एक जैसे ही संवर धारण किए जाते हैं। बॉन परम्परा के संवर थोड़े भिन्न हैं, किन्तु इनमें से अधिकांश संवर बौद्ध संवरों के जैसे ही हैं। एक प्रमुख अन्तर यह है कि बॉनपो मठवासी शाकाहारी रहने का संवर लेते हैं। सभी परम्पराओं के मठवासी अपना सिर मुंडवाते हैं; ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं; और स्कर्ट तथा शॉल वाली एक जैसी लाल पोशाक पहनते हैं। बॉन मठवासी अपने अंगरखे को मध्य में पीली पट्टी के स्थान पर नीली पट्टी धारण करते हैं।

सूत्रों का अध्ययन

सभी तिब्बती परम्पराओं में अनुष्ठानों और ध्यानसाधना के साथ-साथ सूत्र और तंत्र के मिलेजुले मार्ग का अनुसरण करती हैं। मठवासी बालकों की भांति बहुत से विद्वतापूर्ण और आनुष्ठानिक ग्रंथों को कंठस्थ करते हैं और उत्तेजनापूर्ण शास्त्रार्थ के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हैं। बौद्ध और बॉनपो साधकों के लिए सूत्र के अध्ययन के विषय एक समान ही होते हैं। इन विषयों में मार्ग के चरणों से सम्बंधित प्रज्ञापारमिता (व्यापक सविवेक बोध), यथार्थ के सही बोध (शून्यता) से सम्बंधित माध्यमक (मध्यम मार्ग), प्रत्यक्ष ज्ञान और तर्क से सम्बंधित प्रमाण (बोध ग्रहण के प्रामाणिक तौर-तरीके), और तत्वविज्ञान से सम्बंधित अभिधर्म (ज्ञान के विशेष विषय) शामिल होते हैं। पाँचों परम्पराओं प्रत्येक विषय के तिब्बती पाठ्यग्रंथों की व्याख्याओं में तो थोड़ा अन्तर होता ही है, प्रत्येक परम्परा के अलग-अलग मठों की व्याख्याओं में भी अन्तर होता है। इन अन्तरों के कारण शास्त्रार्थ और अधिक रोचक हो जाता है। अध्ययन की लम्बी अवधि की समाप्ति पर सभी पाँचों परम्पराओं में गेशे या खेंपो की उपाधि प्रदान की जाती है।

तिब्बती बौद्ध धर्म के चारों सम्प्रदायों में भारतीय बौद्ध दर्शन के चारों मतों – वैभाषिक, सौतांत्रिक, चित्तमात्र, और माध्यमक – का अध्ययन किया जाता है। हालाँकि इन सम्प्रदायों में इन मतों की व्याख्या थोड़े अलग-अलग ढंग से की गई है, लेकिन प्रत्येक सम्प्रदाय में यह स्वीकार किया गया है कि माध्यमक में स्थिति को सबसे उन्नत और सटीक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। चारों सम्प्रदायों में मैत्रेय, असंग, नागार्जुन, चंद्रकीर्ति, शांतिदेव आदि के भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों का ही अध्ययन किया जाता है। और प्रत्येक सम्प्रदाय की अपनी-अपनी तिब्बती टीकाएं हैं, और ये सभी टीकाएं एक दूसरे से थोड़ी-थोड़ी भिन्न हैं।

तंत्र का अध्ययन और साधना

वर्गीकरण के आधार पर सभी चारों या छहों प्रकार के तंत्र का अध्ययन और साधना की जाती है। बौद्ध धर्म की चारों परम्पराओं में अनेक प्रकार की बुद्धाकृतियों में से एक जैसी ही बुद्धाकृतियों (यिदम) जैसे अवलोकितेश्वर, तारा, मंजूश्री, चक्रसंवर (हेरुका), और वज्रयोगिनी (वज्रडाकिनी) की साधना की जाती है। ऐसी कोई बुद्धाकृति नहीं है जिसकी साधना जिसकी साधना किसी एक ही परम्परा में अनन्य रूप से ही की जाती हो। गेलुग्पा प्रमुख शाक्य आकृति हेवज्र की भी साधना करते हैं, और शांग्पा काग्यूपा प्रमुख गेलुग आकृति वज्रभैरव (यमांतक) की साधाना करते हैं। बॉन परम्परा की बुद्धाकृतियाँ बौद्ध धर्म की बुद्धाकृतियों वाले ही भाव दर्शाती हैं – उदाहरण के लिए ये आकृतियाँ करुणा या ज्ञान को दर्शाती हैं – बस उनके नाम अलग होते हैं।

ध्यानसाधना

पाँचों तिब्बती परम्पराओं की ध्यानसाधना में लम्बे एकान्तवास, अक्सर तीन वर्ष और चंद्रमा की तीन कलाओं के एकान्तवास का प्रावधान है। एकान्तवास से पहले गहन प्रारम्भिक साधनाएं की जाती हैं जिनमें लाखों साष्टांग प्रणाम, मंत्रोच्चार आदि की साधनाएं शामिल होती हैं। प्रारम्भिक साधनाओं की संख्या, उन्हें करने की विधि, और तीन वर्ष के एकान्तवास के ढंग में एक मत से दूसरे मत में थोड़ा-थोड़ा अन्तर होता है। किन्तु फिर भी मूलतः सभी एक जैसी ही साधना करते हैं।

अनुष्ठान

सभी पाचों परम्पराओं की अनुष्ठान साधना में भी बहुत समानताएं हैं। सभी साधक पानी के प्याले, मक्खन के दीपक, और धूप-सुगंध अर्पित करते हैं; सभी पालथी मार कर बैठते हैं; वज्र, घंटी, और डमरू का प्रयोग करते हैं; एक ही प्रकार की तुरही, झांझ, और नगाड़े बजाते हैं; ऊँचे स्वर में भजन गाते हैं; विशेष समारोहों (त्सोग) के अवसर पर पवित्रीकृत मांस और मदिरा अर्पित करते हैं और उसका सेवन करते हैं; और सभी आनुष्ठानिक सभाओं में मक्खनयुक्त चाय परोसते हैं। मूल बॉन प्रथाओं का पालन करते हुए वे सभी तोरमा (जौ के आटे में मक्खन मिलाकर बनाए गए शंकु) अर्पित करते हैं; अपनी रक्षा के लिए स्थानीय प्रेतात्माओं की सहायता लेते हैं; बुरी आत्माओं को दूर करने के लिए विस्तृत अनुष्ठान करते हैं; विशेष अवसरों पर मक्खन से मूर्तियाँ बनाते हैं; और रंगबिरंगी विनय पताकाएं बांधते हैं। सभी महान आचार्यों के अवशेषों को स्तूप स्मारकों में सहेजते हैं और उन स्तूपों की प्रदक्षिणा करते हैं – बौद्ध लोग दक्षिणावर्ती प्रदक्षिणा करते हैं तो बॉनपा वामावर्ती प्रदक्षिणा करते हैं। उनकी धार्मिक कला की शैलियाँ भी बेहद मिलती-जुलती हैं। चित्रों और मूर्तियों में आकृतियों के अनुपात भी हमेशा एक ही प्रकार के होते हैं।

पुनर्जन्मे लामाओं की तुल्कु व्यवस्था

पाँच तिब्बती परम्पराओं में से प्रत्येक परम्परा में तुल्कु प्रणाली का भी प्रचलन होता है। तुल्कु पुनर्जन्मे लामाओं, महान साधकों की ऐसी धाराएं हैं जो अपने पुनर्जन्मों को निर्धारित कर सकते हैं। जब उनकी मृत्यु हो जाती है, सामान्यतया एक विशेष मृत्यु संधि की साधना में, तब उनके शिष्य एक उपयुक्त अवधि के बीत जाने के बाद विशेष विधियों का प्रयोग करके शिशुओं के बीच उनके अवतारों को तलाश कर उनका पता लगाते हैं। शिष्य उन नन्हे अवतारों को वापस उनके पुराने परिवार में लेकर आते हैं और सर्वोत्कृष्ट शिक्षकों की देखरेख में उन्हें शिक्षा प्रदान करते हैं। सभी पाँचों परम्पराओं के मठवासी और गृहस्थ साधक इन तुल्कुओं को सर्वोच्च सम्मान देते हैं। वे अक्सर अपने जीवन के महत्वपूर्ण विषयों के बारे में तुल्कुओं और दूसरे महान आचार्यों से मो (शकुन विचार) के लिए परामर्श करते हैं, जोकि आम तौर पर किसी बुद्धाकृति का आह्वान करते हुए तीन पासे फेंक कर किया जाता है।

हालाँकि सभी तिब्बती परम्पराओं में ग्रंथों के अध्ययन, शास्त्रार्थ, कर्मकांड, और ध्यानसाधना का अभ्यास किया जाता है, लेकिन इनका महत्व एक ही तिब्बती मत के अलग-अलग मठों में और एक ही मठ में अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग होता है। इसके अलावा, उच्चासीन लामाओं और बुज़ुर्गों या रोगियों को छोड़कर बाकी सभी भिक्षु और भिक्षुणियाँ बारी-बारी से मठों के कामकाज में सहायता करने के लिए सभागृहों की सफाई करने, चढ़ावों को व्यवस्थित करने, पानी और ईंधन जुटाने, भोजन पकाने, और चाय परोसने जैसे मेहनत-मशक्कत के कामों को करने में हाथ बंटाते हैं। हालाँकि कुछ भिक्षु या भिक्षुणियाँ मुख्यतः अध्ययन, शास्त्रार्थ, अध्यापन, या ध्यानसाधना ही करते हैं; लेकिन फिर भी हर किसी के दिन का एक बड़ा हिस्सा सामुदायिक प्रार्थनाओं, भजन-कीर्तन, और अनुष्ठानों में बीतता है। यह कहना एक अगम्भीर सामान्यीकरण होगा कि गेलुग और शाक्य में अध्ययन पर बल दिया जाता है, जबकि काग्यू और न्यिंग्मा में ध्यानसाधना को अधिक महत्व दिया जाता है।

मिलीजुली गुरु-परम्पराएं

पाँचों तिब्बती परम्पराओं में शिक्षाओं की कई गुरु-परम्पराएं आपस में घुली-मिली हुई हैं। उदाहरण के लिए गुह्यसमाज तंत्र की गुरु-परम्परा अनुवादक मारपा के माध्यम से काग्यू और गेलुग मतों तक पहुँची थी। हालाँकि चित्त की प्रकृति से सम्बंधित महामुद्रा की शिक्षाओं को आम तौर पर काग्यू की गुरु परम्परा से जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन शाक्य और गेलुग मतों की गुरु परम्पराओं का संचरण भी इन्हीं से हुआ है। जोग्चेन (अतियोग) एक और ऐसी ध्यानसाधना पद्धति है जो चित्त की प्रकृति से सम्बंधित है। हालाँकि इसे आम तौर पर न्यिंग्मा परम्परा से जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन तीसरे कर्मापा के समय से यह कर्मा काग्यू मत और द्रुग्पा काग्यू और बॉन परम्पराओं की भी एक महत्वपूर्ण पद्धति है। पाँचवें दलाई लामा गेलुग के महान आचार्य तो थे ही, साथ ही वे जोग्चेन और शाक्य परम्पराओं के भी महान आचार्य थे, और उन्होंने इनमें से प्रत्येक के बारे में कई ग्रंथों की भी रचना की। यदि हम उदार दृष्टिकोण अपनाएं तो हमें यह समझ में आएगा कि तिब्बती मत एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। उदाहरण के लिए, कई काग्यू मठों में गुरु रिंपोशे की पूजा की जाती है, हालाँकि वे न्यिंग्मा नहीं हैं।

अन्तर

तकनीकी शब्दावली का प्रयोग

पाँचों तिब्बती परम्पराओं के बीच प्रमुख अन्तर कौन-कौन से हैं? एक प्रमुख अन्तर तकनीकी शब्दावली के प्रयोग से सम्बंधित है। बॉन परम्परा में बहुत सारे उन्हीं विषयों के बारे में चर्चा की गई है जिनका वर्णन बौद्ध धर्म में भी किया जाता है, लेकिन इनमें से बहुत से विषयों के लिए बॉन में अलग शब्दावली या नामों का प्रयोग किया जाता है। चारों बौद्ध परम्पराओं में भी समान शब्दों का प्रयोग अलग-अलग परिभाषाओं के साथ किया जाता है। सामान्य अर्थ में तिब्बती बौद्ध धर्म को समझने की दृष्टि से दरअसल यह एक बड़ी समस्या है। यहाँ तक कि एक ही परम्परा में अलग-अलग ग्रंथकार कभी-कभी एक ही शब्द को अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते हैं; और एक ही लेखक कभी-कभी एक ही शब्द को अपने-अलग ग्रंथों में अलग-अलग ढंग से परिभाषित करता है। जब तक कि हमें लेखकों द्वारा तकनीकी शब्दों के लिए प्रयुक्त सटीक परिभाषाओं की जानकारी न हो तो हम बहुत भ्रमित हो सकते हैं। मैं यहाँ कुछ उदाहरण देना चाहूँगा।

गेलुगपा मानते हैं कि चित्त, यानी वस्तुओं का बोध अनित्य है, जबकि काग्यूपा और न्यिंग्मापा कहते हैं कि वह स्थायी है। ये दोनों दृष्टिकोण परस्पर विरोधी और एक-दूसरे से अलग दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में ये अलग-अलग नहीं हैं। “अनित्य” से गेलुगपाओं का आशय यह है कि वस्तुओं का बोध क्षण प्रति क्षण बदलता रहता है, यानी हमें जिन वस्तुओं का बोध होता है वे हर क्षण बदलती रहती हैं। “स्थायी” से काग्यूपाओं और न्यिंग्माओं का आशय यह है कि वस्तुओं का बोध सदा-सदा के लिए कायम रहता है; उसकी मूल प्रकृति किसी भी चीज़ से प्रभावित नहीं होती है और इसलिए वह कभी बदलती नहीं है। प्रत्येक पक्ष दूसरे पक्ष के विचार से सहमत होगा, लेकिन उनके द्वारा भिन्नार्थी शब्दों का प्रयोग किए जाने के कारण ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे एक-दूसरे से पूरी तरह से असहमत हैं। काग्यूपा और न्यिंग्मापा निश्चित तौर पर यही कहेंगे कि चीज़ों के बारे में किसी व्यक्ति का बोध अलग-अलग चीज़ों को हर क्षण अनुभव करता है; जबकि गेलुगपा निश्चित तौर पर इस बात से सहमत होंगे कि अलग-अलग चित्त अनादि और अनन्त रूप से वस्तुओं के बोध के सातत्य होते हैं।

एक दूसरा उदाहरण “प्रतीत्यसमुत्पाद” शब्द का है। गेलुगपा कहते हैं कि हर चीज़ का अस्तित्व प्रतीत्यसमुत्पाद की दृष्टि से होता है, यानी वस्तुएं उन्हें “यह” या “वह” के रूप में मान्य रूप से लेबल कर पाने की शब्दों और अवधारणाओं की क्षमता पर निर्भर रहते हुए “यह” या “वह” के रूप में अस्तित्वमान होती हैं। ज्ञेय परिघटनाएं वही होती हैं जो शब्द या अवधारणाएं उन्हें दर्शाती हैं। कोई भी चीज़ ज्ञेय परिघटनाओं के रूप में इस प्रकार अस्तित्वमान नहीं है जो अपनी ही सत्ता से खुद को अपना अस्तित्व और पहचान प्रदान करती हो। इस प्रकार, गेलुगपाओं के लिए प्रतीत्यसमुत्पाद की दृष्टि से अस्तित्व शून्यता: असम्भव तरीकों से अस्तित्वमान होने के असम्भव तरीकों का पूर्ण अभाव है।

वहीं दूसरी ओर काग्यूपा मानते हैं कि परम प्रतीत्यसमुत्पाद से परे है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वे कह रहे हों कि परम तत्व का स्वतंत्र अस्तित्व है जो स्वयं अपनी ही सत्ता से स्थापित है, उसका अस्तित्व अवलंबित उत्पत्ति पर आधारित नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है। यहाँ काग्यूपा “प्रतीत्यसमुत्पाद” का प्रयोग का प्रयोग अवलंबित उत्पत्ति के द्वादश निदानों की दृष्टि से कर रहे हैं। परम या गूढ़तम सत्य गोचर वस्तुएं इस दृष्टि से अवलंबित उत्पत्ति से परे हैं कि उनकी उत्पत्ति यथार्थ की अनभिज्ञता (अज्ञान) पर निर्भर रहते हुए नहीं होती है। वे सिर्फ “प्रतीत्यसमुत्पाद” शब्द का प्रयोग एक अलग परिभाषा के साथ करते हैं। तिब्बती मतों की बहुत सी बातों में बहुत सी असंगतियाँ महत्वपूर्ण अभिव्यक्तियों की परिभाषाओं के इन अन्तरों के कारण उत्पन्न होती हैं। भ्रम और भ्रामक बोध का यह एक प्रमुख कारण है।

व्याख्या का दृष्टिकोण

तिब्बती परम्पराओं के बीच एक और अन्तर गोचर वस्तुओं की व्याख्या करने में उनके दृष्टिकोण से सम्बंधित है। राइमी (गैर-सम्प्रदायवादी आन्दोलन) आचार्य काटोग क्येंत्से जामयांग चोक्यी लोद्रो, के अनुसार गेलुग्पा आधार यानी साधारण तत्वों, गैर-बुद्धों की दृष्टि से व्याख्या करते हैं। शाक्यपा मार्ग, अर्थात उनकी दृष्टि से व्याख्या करते हैं जो ज्ञानोदय के मार्ग पर बहुत अधिक आगे बढ़ चुके हैं। काग्यूपा और न्यिंग्मापा परिणाम, यानी किसी बुद्ध की दृष्टि से व्याख्या करते हैं। चूँकि इस को समझना बहुत गूढ़ और जटिल है, इसलिए मैं इस विषय को समझने के लिए शुरुआती बिन्दु की चर्चा करना चाहूँगा।

आधाररिक दृष्टिकोण से हम केवल शून्यता या प्रतीति पर एक-एक करके ही ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। इसीलिए गेलुग्पा किसी आर्य की शून्यता की ध्यानसाधना की व्याख्या भी इसी दृष्टिकोण से करते हैं। आर्य शून्यता का स्पष्ट, निर्वैचारिक बोध रखने वाले उच्च सिद्धि प्राप्त सत्व होते हैं। काग्यूपा और न्यिंग्मापा शून्यता और प्रतीति के दो सत्यों की अवियोज्यता पर बल देते हैं। किसी बुद्ध के दृष्टिकोण से हम केवल शून्यता या केवल प्रतीति की बात नहीं कर सकते हैं। इसलिए वे प्रत्येक वस्तु के पूर्ण और परिपूर्ण होने की दृष्टि से बात करते हैं। बॉन की जोग्चेन प्रस्तुति इस प्रकार की व्याख्या के अनुरूप है। मार्ग की दृष्टि से शाक्य व्याख्या का एक उदाहरण यह है कथन है कि निर्मल-प्रकाश चित्त (प्रत्येक सत्व का गूढ़तम बोध) आनंदमय है। यदि आधारिक स्तर पर यह बात सत्य होती तो मृत्यु के समय प्रकट होने वाला निर्मल-प्रकाश चित्त आनंदमय होता, जोकि होता नहीं है। किन्तु, मार्ग पर हम अपने निर्मल-प्रकाश चित्त को आनंदमय चित्त बना लेते हैं। इसलिए, जब शाक्यपा निर्मल-प्रकाश चित्त की बात कर रहे होते हैं तो वे मार्ग के दृष्टिकोण से ऐसा कहते हैं।

साधकों के प्रकार को महत्व दिया जाना

एक और अन्तर इस आधार पर उत्पन्न होता है कि दो प्रकार के साधक होते हैं: एक वे जो चरणों में धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं और दूसरे वे जो मानते हैं कि सब कुछ एक ही बार में एक ही समय पर घटित होता है। गेलुग्पा और शाक्यपा अधिकांशतः उन लोगों की दृष्टि से चर्चा करते हैं जो चरणों में विकसित होते हैं; काग्यूपा, न्यिंग्मापा, और बॉनपा, विशेष तौर पर सर्वोच्च स्तर की तंत्र की अपनी प्रस्तुतियों में, अक्सर उन लोगों की दृष्टि से बात करते हैं जिनके लिए सब कुछ एक ही बार में घटित हो जाता है। हालाँकि परिणामी व्याख्याओं में यह आभास मिलता है कि प्रत्येक पक्ष मार्ग पर आगे बढ़ने की एक विधि की ही चर्चा करता है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे अपनी व्याख्याओं में कौन सी विधि को महत्व देते हैं।

सर्वोच्च तंत्र में शून्यता की ध्यानसाधना के प्रति दृष्टिकोण

जैसाकि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, सभी तिब्बती मत माध्यमक को गहनतम शिक्षा के रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन भारतीय बौद्ध पद्धतियों के दार्शनिक सिद्धांतों समझने और उनकी व्याख्या करने के उनके तरीकों में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है। यह अन्तर उनके द्वारा सर्वोच्च तंत्र में माध्यमक को समझने और उसकी साधना करने के उनके तरीकों में सबसे स्पष्ट तौर पर सामने आता है। चूँकि यह विषय भी बहुत जटिल और गूढ़ है, इसलिए हम यहाँ इसका आरम्भिक बोध हासिल करने का प्रयास करेंगे।

सर्वोच्च तंत्र साधना से सूक्ष्मतम निर्मल-प्रकाश चित्त सहित से शून्यता के स्पष्ट निर्वैचारिक बोध की प्राप्ति होती है। इस प्रकार दो घटक आवश्यक होते हैं: शून्यता का निर्मल-प्रकाश बोध और शून्यता का सही बोध। ध्यानसाधना में इनमें से किसे महत्व दिया जाता है? “आत्म-शून्यता” के दृष्टिकोण के साथ ध्यानसाधना में निर्मल-प्रकाश के बोध द्वारा शून्यता के लक्ष्य का बोध हासिल किया जाता है। आत्म-शून्यता का मतलब गोचर वस्तुओं को उनकी पहचान प्रदान करने वाली स्वतः-अस्तित्वमान प्रकृति का पूर्ण अभाव। सभी गोचर वस्तुएं इस प्रकार के असम्भव तरीके से अस्तित्वमान होने की योग्यता से रहित होती हैं। गेलुग्पा, अधिकांश शाक्यपा, और द्रिगुंग काग्यूपा इस दृष्टिकोण को महत्व देते हैं; हालाँकि गोचर वस्तुओं के असम्भव तरीकों से अस्तित्वमान होने की योग्यता से रहित होने के बारे में उनकी व्याख्याओं में थोड़ा अन्तर होता है।

दूसरा दृष्टिकोण स्वयं निर्मल-प्रकाश चित्त, जो चित्त या बोध के सभी निम्नतर स्तरों से रहित होता है, की ध्यानसाधना को महत्व दिए जाने से सम्बंधित होता है। इस संदर्भ में निर्मल-प्रकाश चित्त को “अन्य-शून्यता” कहा जाता है; यह चित्त के दूसरे सभी निम्नतर स्तरों से रहित होती है। अन्य-शून्यता कर्म, द्रुग्पा, और शांग्पा काग्यूपा, न्यिंग्मापा, और कुछ शाक्यपाओं का प्रमुख दृष्टिकोण है। इसीलिए इनमें से प्रत्येक के व्याख्या करने और ध्यानसाधना करने के तरीके में थोड़ा अन्तर होता है। तिब्बती मतों के बीच एक प्रमुख अन्तर इस बात को लेकर है कि वे आत्म-शून्यता और अन्य-शून्यता को किस प्रकार परिभाषित करते हैं; कि वे किसी एक प्रकार की शून्यता को स्वीकार करते हैं या दूसरे प्रकार की शून्यता को स्वीकार करते हैं, या दोनों को स्वीकार करते हैं; और शून्यता का निर्मल-प्रकाश बोध हासिल करने के लिए वे ध्यानसाधना में किस को महत्व देते हैं।

आत्म-शून्यता और अन्य-शून्यता के इस अन्तर के बावजूद सभी तिब्बती मत निर्मल-प्रकाश बोध, या जोग्चेन पद्धतियों, उसके समतुल्य: रिग्पा, की शिक्षा देते हैं। यहाँ एक और महत्वपूर्ण अन्तर उत्पन्न होता है। गैर-जोग्चेन काग्यूपा, शाक्यपा, और गेलुग्पा निर्मल-प्रकाश चित्त हासिल करने के लिए चित्त या बोध के निम्नतर स्तरों को खत्म करने की शिक्षा देते हैं। इन्हें सूक्ष्म ऊर्जा नाड़ियों, प्राणों, चक्रों आदि की साधना करके समाप्त किया जाता है, या फिर शरीर के सूक्ष्म नाड़ी तंत्र में धीरे-धीरे बोध की अधिक आनन्दमयी अवस्थाओं को विकसित करके खत्म किया जाता है। न्यिंग्मापा, बॉनपा, और जोग्चेन की काग्यूपा गुरु परम्पराओं के साधक पहले निम्नतर स्तरों को समाप्त किए जाने की आवश्यकता के बिना बोध के निम्नतर स्तरों के नीचे के रिग्पा को पहचानने और उसका उपयोग करने का प्रयास करते हैं। वैसे भी, चूँकि वे अपने पूर्व के अभ्यास में नाड़ियों, प्राणों, और चक्रों का अभ्यास कर चुके होते हैं, इसलिए उन्हें यह अनुभूति होती है कि अन्ततः जब उन्हें रिग्पा का बोध होता है तब उनके बोध के निर्मतर स्तर किसी अतिरिक्त प्रयास के बिना स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।

क्या शून्यता को शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है

एक और अन्तर इस दृष्टि से उत्पन्न होता है कि शून्यता को शब्दों या अवधारणाओं की सहायता से व्यक्त किया जा सकता है या नहीं या फिर यह इन दोनों से परे है। यह विषय संज्ञान सिद्धान्त के एक अन्तर के साथ सादृश्य उपस्थित करता है। गेलुग्पा कहते हैं कि देखने जैसे निर्वैचारिक संवेदी बोध में हमें केवल आकारों और रंगों की ही अनुभूति नहीं होती है, बल्कि फूलदान जैसी वस्तुओं का भी बोध होता है। शाक्यपा, काग्यूपा, और न्यिंग्मा कहते हैं कि निर्वैचारिक दृश्य बोध में केवल आकृतियों और रंगों का ही बोध होता है।

वैचारिक बोध में आकृतियों और रंगों का फूलदान जैसी वस्तु के रूप में बोध एक नैनोसेकंड बाद होता है।

गेलुग्पाओं का कहना है निर्वैचारिक और वैचारिक बोध के बीच इस अन्तर की दृष्टि से शून्यता को शब्दों और अवधारणाओं की सहायता से दर्शाया जा सकता है: शून्यता वही है जिसे “शून्यता” शब्द से दर्शाया जाता है। शाक्यपा, काग्यूपा, और न्यिंग्मापा कहते हैं कि शून्यता – चाहे वह आत्म-शून्यता हो या अन्य-शून्यता हो – शब्दों और अवधारणाओं से परे हैं। उनका दृष्टिकोण चित्तमात्र की व्याख्या के अनुरूप है: वस्तुओं के लिए प्रयुक्त शब्द और अवधारणाएं मानसिक धारणाएं हैं। जब आप “माता” के बारे में विचार करते हैं तो वह शब्द या अवधारणा वास्तव में आपकी माता नहीं है। वह शब्द तो आपकी माता को दर्शाने के लिए प्रयुक्त होने वाला एक प्रतीक मात्र है। आप अपनी माता को किसी शब्द में नहीं रख सकते हैं।

चित्तमात्र की शब्दावली का प्रयोग

दरअसल, शाक्यपा, काग्यूपा, और न्यिंग्मापा अपनी माध्यमक की व्याख्याओं, विशेष तौर पर उच्चतम तंत्र में भी चित्तमात्र की बहुत सी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। गेलुग्पा शायद ही कभी ऐसा करते हैं। लेकिन, जब गैर-गेलुग्पा उच्चतम तंत्र माध्यमक की व्याख्याओं में चित्तमात्र की तकनीकी शब्दावली का प्रयोग करते हैं तो उस समय वे उन्हें उस स्थिति से अलग ढंग से परिभाषित करते हैं जब वे उन्हें केवल चित्तमात्र सूत्र के संदर्भों में करते हैं। उदाहरण के लिए, आलयविज्ञान (आधार चेतना) सूत्र चित्तमात्र पद्धति में आठ प्रकार की सीमित चेतना में से एक प्रकार की चेतना है। उच्चतम तंत्र माध्यमक के संदर्भों में आधार चेतना निर्मल-प्रकाश चित्त का एक पर्याय है जो बुद्धत्व की अवस्था तक कायम रहती है।

अन्तरों का सारांश

गूढ़ दार्शनिक और ध्यानसाधना के विषयों की दृष्टि से कुछ प्रमुख बातों में अन्तर पाए जाते हैं। हम इनके बारे में बहुत विस्तार से चर्चा कर सकते हैं, लेकिन यहाँ इस बात को ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है कि तिब्बती मतों की अस्सी प्रतिशत या इससे अधिक विशेषताएं समान ही हैं। इन मतों के बीच अन्तर इन बातों को लेकर होते हैं कि वे तकनीकी शब्दों को किस प्रकार परिभाषित करते हैं, वे किस दृष्टि से व्याख्या करते हैं, और शून्यता का निर्मल-प्रकाश बोध हासिल करने के लिए वे ध्यानसाधना का कौन सा तरीका अपनाते हैं।

प्रारम्भिक साधनाएं

इसके अलावा, साधकों को इन परम्पराओं में एक समान शिक्षा दी जाती है। बस कुछ साधनाओं की शैलियों में अन्तर होता है। उदाहरण के लिए अधिकांश काग्यूपा, न्यिंग्मापा, और शाक्यपा अपनी शिक्षा के शुरुआत में एक बड़े अभ्यास के रूप में तंत्र साधना के लिए आरम्भिक साधनाओं (एक लाख साष्टांग प्रणाम आदि), जिन्हें अक्सर एक अलग एकांतवास के रूप में किया जाता है, पूरा करते हैं। गेलुग्पा इन एकांतावसों को अपना आधारभूत अध्ययन खत्म कर लेने के बाद एक-एक करके पूरा करते हैं। लेकिन सभी परम्पराओं के साधक तीन वर्षों के एकांतवास की शुरुआत में सभी प्रारम्भिक साधनाओं को दोहराते हैं।

त्रि-वर्षीय एकांतवास

काग्यूपा, न्यिंग्मापा, और शाक्यपा आम तौर पर तीन वर्षों के एकांतवास में कई प्रकार के सूत्र धयानसाधना के अभ्यास करते हैं और उसके बाद अपनी गुरु परम्परा के प्रमुख बुद्ध-रूपों की बुनियादी आनुष्ठानिक साधना करते हैं, और वे इनमें से प्रत्येक साधना के लिए कई महीनों का समय लगाते हैं। इसके साथ ही वे आनुष्ठानिक वाद्य यंत्रों को बजाना और गढ़े हुए तोरमा चढ़ावे बनाना भी सीखते हैं। गेलुग्पा प्रारम्भिक साधनाओं की ही भांति अपनी साधना के कार्यक्रम में एक-एक करके उन्हीं आधारभूत ध्यानसाधनाओं और आनुष्ठानिक साधनाओं को शामिल करते हैं। गेलुग परम्परा के तीन वर्ष के एकांतवास में केवल एक ही बुद्ध रूप की गहन साधना पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। गैर-गेलुग्पा सामान्यतया अपने दूसरे या तीसरे त्रि-वर्षीय एकांतवास में तीन या अधिक वर्ष का समय किसी एक तंत्र की साधना में ही व्यतीत करते हैं, वे शुरुआती एकांतवास में ऐसा नहीं करते हैं।

किसी भी बुद्ध रूप के पूर्ण मठीय अनुष्ठान में भाग लेने के लिए अनेक प्रकार के मंत्रों का लाखों बार उच्चार करने के कई महीनों के एकांतवास को पूरा करने की आवश्यकता होती है। इस अभ्यास को पूरा किए बिना आत्म-दीक्षा नहीं की जा सकती है। चाहे गेलुग्पा अपने आप ही कई महीनों का एकांतवास करके इस अपेक्षा को पूरा करते हों या गैर-गेलुग्पा इसे अपने तीन वर्ष के एकांतवास के भाग के रूप में पूरा करते हों, लेकिन सभी परम्पराओं के अधिकांश मठवासी ऐसे एकांतवास करते हैं। लेकिन हर एक परम्परा के केवल उच्च योग्यता प्राप्त साधक ही केवल एक बुद्ध रूप पर केंद्रित गहन त्रिवर्षीय एकांतवास की साधना करते हैं।

निष्कर्ष

पाँचों तिब्बती परम्पराओं और बॉन के सम्बंध में गैर-साम्प्रदायिक दृष्टिकोण अपनाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। जैसाकि परम पावन दलाई लामा हमेशा ज़ोर देकर कहते हैं, इन अलग-अलग परम्पराओं का एक ही चरम लक्ष्य है: ये सभी परम्पराएं दूसरों की अधिक से अधिक सहायता कर पाने की दृष्टि से ज्ञानोदय प्राप्ति की शिक्षा देती हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति में साधकों की सहायता करने की दृष्टि से इनमें से प्रत्येक परम्परा समान रूप से प्रभावशाली है और इसलिए ये सभी एक-दूसरे के अनुकूल हैं। पाँचों परम्पराओं का प्रारम्भिक तुलनात्मक अध्ययन करने पर हमें अपनी परम्परा की अच्छाइयों का पता चलता है और हम जान पाते हैं कि इनमें से प्रत्येक परम्परा की अपनी-अपनी विशिष्ट खूबियाँ हैं। यदि हम बुद्धत्व को प्राप्त करना और दूसरों की भलाई करना चाहते हैं तो हमें सभी बौद्ध परम्पराओं के बारे में सीखने और यह समझने की आवश्यकता है कि ये सभी परम्पराएं किस प्रकार एक-दूसरे के अनुकूल हैं ताकि हम अलग-अलग रुचियों और क्षमताओं वाले लोगों को शिक्षा प्रदान कर सकें। अन्यथा हमें “धर्मच्युत” हो जाने का खतरा बना रहेगा, यानी हम बुद्ध की किसी प्रामाणिक क्षिक्षा का अनादर करेंगे, और इस प्रकार स्वयं को उन लोगों की भलाई कर पाने के योग्य नहीं बना सकेंगे जिनके लिए बुद्ध ने उस शिक्षा को उपयुक्त माना था।

यह महत्वपूर्ण है कि हम अपनी निजी साधना में केवल किसी एक गुरु परम्परा का ही अनुसरण करें। कोई भी व्यक्ति एक ही समय पर पाँच अलग-अलग सीढ़ियों पर चढ़कर किसी इमारत के ऊपर तक नहीं पहुँच सकता है। लेकिन, यदि हमारी क्षमता इसकी अनुमति देती हो तो इनमें से प्रत्येक परम्परा की अच्छाइयों का अध्ययन करना उपयोगी रहेगा। इसके परिणामस्वरूप हमें अपनी परम्परा के उन विषयों को अधिक स्पष्टता से समझने में मदद मिल सकती है जिन्हें हमारी अपनी परम्परा में अधिक विस्तार से न समझाया गया हो। परम पावन दलाई लामा और दूसरे सभी महान आचार्य हमेशा इस बात पर बल देते हैं।

इस बात को ध्यान में रखना बहुत महत्वपूर्ण है कि हम जो कुछ भी करते हैं – चाहे वह अध्यात्म के क्षेत्र में हो या फिर भौतिक क्षेत्र में हो – उसी काम को करने के दस, बीस, या तीस अलग-अलग तरीके हो सकते हैं। इससे हमें किसी काम को करने के अपने तरीके के प्रति आसक्ति से बचने में मदद मिलती है। हम सार की बात को ज़्यादा स्पष्टता से समझ पाते हैं, बजाए इस बात में उलझने के कि, “इस काम को करने का यह सही तरीका है, क्योंकि इस काम करने का मेरा यह सही तरीका है!” 

प्रश्नोत्तर

आप कौन सी परम्परा का अनुसरण करते हैं?

परम पावन दलाई लामा और उनके एक शिक्षक, सरकांग रिंपोशे, जो मेरे प्रमुख आध्यात्मिक मार्गदर्शक थे, ने हमेशा मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया है कि मैं उनके उदाहरण का अनुसरण करूँ, यानी गेलुग परम्परा पर प्रमुखतः बल देते हुए सभी तिब्बती परम्पराओं का अधिक से अधिक अध्ययन और अनुसरण करूँ। मैंने अपनी क्षमता के अनुसार इस मार्गदर्शन का अधिक से अधिक पालन करने का प्रयास किया है।

क्या अलग-अलग परम्पराओं की ध्यानसाधना करने से भ्रम नहीं उत्पन्न होता है? किसी एक ही परम्परा के विभिन्न बुद्ध रूपों की साधना का अभ्यास करने से भी क्या भ्रम नहीं उत्पन्न होता है?

बौद्ध साधना करने, विशेष तौर पर तंत्र की साधना करने के अलग-अलग तरीके हैं। एक तिब्बती कहावत है, “भारतीयों ने एक बुद्ध रूप की साधना की और वे सौ बुद्धों का बोध हासिल कर पाए; जबकि तिब्बती लोग सौ बुद्ध रूपों की साधना करते हैं और एक भी बुद्ध का बोध नहीं हासिल कर पाते हैं!” इस कहावत का तात्पर्य यह है कि यदि हम बहुत सी साधनाओं में किसी प्रकार की प्रगति करना चाहते हैं तो किसी एक साधना को गहराई से करना आवश्यक है। हमारे अभ्यास की सीमा हमारी व्यक्तिगत क्षमताओं पर निर्भर करती है। अपनी क्षमताओं का आकलन करने के लिए हमें ईमानदारी से अपना मूल्यांकन करना चाहिए और साथ ही अपने शिक्षकों की सलाह पर भी ध्यान देना चाहिए।

यदि हम विभिन्न तिब्बती गुरु परम्पराओं के अनुसार तंत्र की साधनाएं करने की योग्यता रखते हों, तो जैसा कि परम पावन चेताते हैं, हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम उनका घालमेल न कर दें। हमें प्रत्येक अभ्यास को अलग से, उसकी अपनी परम्परा और रीति के अनुसार ही करना चाहिए। यदि हमें ऐसा लगता हो कि बहुत सारे अभ्यास करने से भ्रम उत्पन्न हो रहा है, तो परम पावन की सलाह यह है कि उन सभी साधनाओं को समान रूप से महत्व न दिया जाए। यदि हमने कई गुरु परम्पराओं के अभिषेक प्राप्त किए हों या किसी एक ही गुरु परम्परा के कई बुद्ध रूपों के अभिषेक प्राप्त किए हों और हमें वह भ्रामक लग रहा हो, तो हम दिन में तीन बार मंत्रोच्चार करते हुए उनमें से कुछ के साथ अपने कार्मिक सम्बंध को बनाए रख सकते हैं। इसके बाद हम केवल उन्हीं साधनाओं का विस्तारपूर्वक अभ्यास कर सकते हैं जिनकी हमें सबसे अधिक समझ है, और जिनके साथ हमें सबसे अधिक जुड़ाव महसूस होता है।

मैं मानता हूँ कि बहुत सारी साधनाओं को करने की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि हम तंत्र के सामान्य सिद्धान्त को कितनी अच्छी तरह समझते हैं। यदि हम इस सिद्धान्त को सही ढंग से समझते हैं तो हम समझ पाएंगे कि कोई भी एक साधना किस प्रकार दूसरी साधनाओं के अनुकूल है। यदि ऐसा न हो तो हमें तंत्र की साधना के खंडित मनस्क हो जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।

क्या आप साधनाओं को आपस में न मिलाने के बारे में परम पावन दलाई लामा की सलाह को विस्तार से समझा सकते हैं?

गुरु परम्परा के प्रति सम्मान दिखाना साधनाओं को आपस में न मिलाने का एक कारण है। इन्हें आपस मिलाना वैसा ही होगा जैसे हम किसी कैथोलिक चर्च में जाएं और वेदी के सामने तीन बार साष्टांग प्रणाम करें जबकि वहाँ मौजूद बाकी लोग घुटनों पर झुक कर क्रॉस का चिह्न बना रहे हों। पाँचवे दलाई लामा विभिन्न परम्पराओं का ज्ञान हासिल करने वाले लोगों का एक अच्छा उदाहरण हैं, जिन्होंने परम्पराओं को कभी आपस में गड्डमड्ड नहीं किया। जब उन्होंने गेलुग ग्रंथों की रचना की तो उन्होंने इन्हें पूरी तरह गेलुग शैली में रचा; जब उन्होंने शाक्य ग्रंथ लिखे, तो वे शुरू से अन्त तक शाक्य शैली में लिखे गए; और जब उन्होंने न्यिंग्मा ग्रंथ लिखे, तो उनकी शैली पूरी तरह न्यिंग्मा शैली थी। न्यिंग्मा ग्रंथों में पद्मसम्भव का स्तवन किया जाता है, त्सोंग्खापा का नहीं।

प्रत्येक साधना की शुद्धता को बनाए रखने का एक और कारण यह है कि किसी एक परम्परा के साधना के मानसचित्रण के अभ्यास में उस साधना के अवयव, शब्दावली, और अभिव्यक्ति का तरीका आदि सभी एकरूप होते हैं। वे एक-दूसरे के साथ ऐसे ही फिट होते हैं जैसे किसी एक ही मेक और मॉडल के वाहन के पुर्ज़े आपस में तालमेलपूर्वक फिट होते हैं। उदाहरण के लिए हेवज्र की साधना की शाक्य परम्परा में सप्तांग प्रार्थना में बुद्ध से मृत्यु को प्राप्त न होने के आग्रह को छोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि लामद्रे (मार्गों और परिणामों) की शाक्य शिक्षाओं में बुद्ध के संभोगकाय रूपों को महत्व दिया जाता है, जबकि निर्माणकाय रूपों में मृत्यु के रूप में अनित्यता की शिक्षा दी जाती है। संभोगकाय को दिया जाने वाला महत्व इस रूप में भी परिलक्षित होता है कि साधक बुद्ध रूप के तौर पर स्वयं के मानसदर्शन को किस प्रकार स्थिर करता है और किस प्रकार अभिषेक प्राप्त करता है। शाक्य लामद्रे अभ्यास में गेलुग शैली की सप्तांग प्रार्थना, जिसमें बुद्ध से मृत्यु को प्राप्त न होने की प्रार्थना की जाती है, को मिलाना वैसा ही होगा जैसे किसी फॉक्सवैगन कार के किसी पुर्जे को किसी फोर्ड कार के इंजन में फिट करने का प्रयास किया जा रहा हो। यह तो नहीं चलेगा।

क्या कोई ऐसे उदाहरण नहीं है जहाँ अलग-अलग परम्पराओं के अभ्यासों को आपस में मिलाया गया हो?

कुछ मामलों में जहाँ किसी एक गुरु परम्परा के अभ्यासों को दूसरी गुरु परम्परा में शुरू किया गया है, वहाँ इन्हें उनके मूल रूप में ही रखा गया है। उदाहरण के लिए, पाँचवें दलाई लामा के ग्रंथों में उल्लिखित हयग्रीव यांगसांग का गेलुग अभ्यास शुद्ध रूप से न्यिंग्मा साधना के किसी अभ्यास की शैली में ही है।

कुछ मामलों में किसी एक साधना के किसी एक हिस्से को उस गुरु परम्परा के अनुसार बदला गया है जिसमें उसे शामिल किया गया है। उदाहरण के लिए, शाक्य से गुलुग में लाई गई वज्रयोगिनी की साधना में बहुत सारी बातें किसी सामान्य गेलुग साधना के जैसी ही हैं। उसमें केवल शाक्य शैली की शून्यता की ध्यानसाधना के स्थान पर गेलुग शैली की साधना को प्रतिस्थापित कर दिया गया है।

लेकिन कभी-कभी हमें इनके मिले-जुले स्वरूप देखने के लिए मिल जाते हैं। उदाहरण के लिए गुरु रिंपोशे की कर्म काग्यू साधना में अधिकांश हिस्से किसी न्यिंग्मा साधना से लिए गए हैं, लेकिन कर्म काग्यू की विशिष्ट शब्दावली और शून्यता की ध्यानसाधना के प्रति दृष्टिकोण का प्रयोग किया गया है। कर्मा पाक्षी (दूसरे दलाई लामा) के साधना अभ्यास में हालाँकि गुरु रिंपोशे कर्मा पाक्षी के हृदय में विराजमान हैं और एक चढ़ावा न्यिंग्मा शैली से मिलता-जुलता है, लेकिन बाकी के अभ्यास का अधिकांश भाग विशिष्टतः कर्म काग्यू शैली का है। प्रमुख मिली-जुली विशेषता स्वयं का गुरु परम्परा के किसी महान आचार्य के बुद्ध रूप में मानसदर्शन करना है। लेकिन इनका संश्लेषण करने के लिए साधक को व्यापक बोध युक्त महान साधक होने की आवश्यकता होती है। ऐसा करना निषिद्ध नहीं है, लेकिन इसके लिए बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। हमारे जैसे साधारण लोगों के लिए मिलावट करने से बस भ्रम ही उत्पन्न होगा।

यदि हमारी प्रमुख साधना गेलुग हो, लेकिन यदि हमें जोग्चेन की साधना करना भी पसंद हो, तो ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा?

जोग्चेन की अलग से साधना करना ही सबसे अच्छा तरीका होगा। यह वैसे ही है जैसा स्कूल में होता है: जब हम गणित पढ़ रहे होते हैं तब हम गणित ही पढ़ते हैं, जब हम लेखन सीख रहे होते हैं तो लेखन ही करते हैं। हम एक बार में अलग से एक ही कक्षा में पढ़ते हैं। और अन्त में हम जो कुछ सीखते हैं वह हमारे व्यक्तित्व के विकास में एक-दूसरे के साथ मेल खाता है।

बहुत से लोगों को बहुत सारे तरीकों से अभ्यास करना बहुत कठिन होता है, इसलिए ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यही बेहतर है कि एक ही प्रकार की साधना को जारी रखा जाए, और साथ ही साथ विभिन्न प्रकार की दूसरी बोद्ध विधियों की मान्यता का भी सम्मान किया जाए। नहीं तो जब हम किसी दूसरे धर्म केंद्र में जाएंगे और वहाँ दूसरे साधकों से मिलेंगे, और हमें लगेगा कि वे हमारे तरीके से अलग ढंग से साधना कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, किसी तिब्बती परम्परा के अनुयायी के रूप में यदि हम किसी ज़ेन केंद्र में जाएं और वहाँ हम देखें कि किस प्रकार वहाँ के सदस्य साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं। हमारे कान उसी तरह खड़े हो जाते हैं जैसे किसी कार की बत्तियों की रोशनी में किसी खरगोश के कान खड़े होते हैं और हम धक से रह जाते हैं, “यह तो गलत है! उनकी हथेलियाँ फर्श पर ऊपर की ओर हैं, नीचे की तरफ नहीं हैं; ये लोग नरक में जाएंगे!” हम इसलिए चौंक जाते हैं क्योंकि हमें पर्याप्त रूप से व्यापक बौद्ध शिक्षा नहीं मिली होती है। सभी चीनी बौद्ध उसी प्रकार साष्टांग प्रणाम करते हैं। हालाँकि कुछ तिब्बती आचार्य अपनी परम्पराओं के बारे में कट्टरतावादी दृष्टिकोण अपनाते हैं, लेकिन उनके उदाहरण का अनुसरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

यह कैसे पता लगाएं कि कौन सी परम्परा हमारे लिए सबसे उपयुक्त है?

यह आसान नहीं है। तिब्बत में लोग उन्हीं मठों में और उन्हीं शिक्षकों के पास चले जाते थे जो उनकी घाटियों में उपलब्ध होते थे। जिन्हें यह महसूस होता था कि उनके लिए उतना ही काफी नहीं है और वे आगे और अध्ययन करना चाहते हैं, वे अपनी बुनियादी बौद्ध शिक्षा हासिल करने के बाद उन्हें और कहीं जाना पड़ता था। उदाहरण के लिए, मेरे एक शिक्षक गेशे न्गवांग धारग्ये ने बचपन में एक स्थानीय शाक्य मठ में प्रवेश लिया, लेकिन जब वे बड़े हुए तो उन्होंने अपनी मुख्य शिक्षा गेलुग मठों में हासिल की, पहले अपने ही ज़िले में और फिर बाद में दूर ल्हासा में।

यहाँ पश्चिम जगत में अब स्थिति बहुत बदल चुकी है। कई शहरों में कई प्रकार के विकल्प उपलब्ध हैं, इसलिए आप विभिन्न धर्म केंद्रों में जा सकते हैं। लेकिन अन्ततः हमें किसी एक गुरु परम्परा का चुनाव करना होता है जिसमें हमें अपनी प्रमुख शिक्षा और साधना पर ध्यान केंद्रित करना होता है। दर-दर भटकते रहना और किसी निष्कर्ष पर न पहुँचना बहुत खराब रहेगा। यदि हमें स्वतः ही कोई गुरु परम्परा या शिक्षक परिचित और उपयुक्त लगे तो यह अच्छा संकेत है कि उस परम्परा या शिक्षक के साथ हमारा कार्मिक सम्बंध है। वही हमें “सही” लगता है।

किसी गुरु परम्परा या शिक्षक का चुनाव करते समय यह महत्वपूर्ण होता है कि हम खुले दिमाग से काम लें और ऐसा दृष्टिकोण न अपनाएं कि, “मैं तो केवल अपने धर्म केंद्र में ही जाऊँगा। मैं किसी दूसरे धर्म केंद्र में कदम नहीं रखूँगा और किसी दूसरे शिक्षक की बात नहीं सुनूँगा।“ मैं मानता हूँ कि ऐसा करने से हम और अधिक सीखने के कई अच्छे अवसरों से चूक जाते हैं। वहीं दूसरी ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि हम हर कहीं जाएं। इससे तो बेहतर है कि हम सविवेक बोध का प्रयोग करें और “मध्य मार्ग” अपनाएं।

यदि हम किसी दूरदराज़ के इलाके में रहते हों जहाँ धर्म के अध्ययन के बहुत थोड़े विकल्प उपलब्ध हों तो सम्भवतः हमें पारम्परिक तिब्बती उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए। शुरुआती तौर पर हम ऐसे किसी भी केंद्र में या शिक्षक के पास जा सकते हैं जो सबसे नज़दीक हो और जहाँ जाना सबसे अधिक सुविधाजनक हो। यदि वहाँ जाना हमारे लिए उपयुक्त हो तो यह बहुत अच्छी बात है। यदि हमें वह संतोषजनक न लगे तो हम आदरपूर्वक वहाँ से जितना सम्भव हो सके सीखें और यदि हमें अवसर मिले तो हम आगे का अध्ययन और साधना किसी और स्थान पर कर सकते हैं।

यदि हम इस तरह की प्रक्रिया को अपनाते हैं तो यह आवश्यक होता है कि हम ऐसा कोई भाव न रखें कि यदि हम दूसरे शिक्षकों के पास, केंद्रों में या किसी दूसरी गुरु परम्परा में जाते हैं तो यह हमारे अपने केंद्र या शिक्षकों के प्रति अनिष्ठा या विश्वासघात है। हाइस्कूल की शिक्षा पूरी कर लेने के बाद कॉलेज में जाना अपने स्कूल या शिक्षकों के साथ विश्वासघात नहीं होता है। यही बात उस स्थिति में किसी दूसरे विश्वविद्यालय में जाने के मामले में लागू होती है जब हमें लगता है कि हमने जिस विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था वहाँ उस पाठ्यक्रम या उस स्तर की शिक्षा नहीं दी जाती है जो हम चाहते हैं। यदि हम अपने पिछले शिक्षकों और उनसे प्राप्त शिक्षा के प्रति सम्मान का भाव बनाए रखते हैं तो फिर इसमें कोई अपराध-बोध या दोष का भाव नहीं होना चाहिए।

सभी तिब्बती मतों के ग्रंथों में किए गए दूसरी परम्पराओं के दार्शनिक दृष्टिकोणों के खंडन को किस दृष्टि से देखना सबसे उपयुक्त है?

परम पावन दलाई लामा और प्रचीन काल के कुछ महान आचार्यों ने इस बात पर बल दिया है कि हालाँकि तिब्बती मतों – और यहाँ तक कि एक ही मत के विभिन्न मठों के पाठ्यग्रंथों – में कुछ गौण विषयों पर मतांतर हैं, लेकिन फिर भी सर्वाधिक महत्व वाले विषयों के बारे में उनके दृष्टिकोण परस्पर विरोधी नहीं हैं। इसके अलावा, जैसाकि परम पावन भी कहते हैं, बहुत से प्राचीन महान आचार्य अपने ध्यानसाधना के अनुभवों की तर्कपूर्ण या अविरोधी ढंग से व्याख्या करने में विशेष योग्यता नहीं रखते थे। लेकिन फिर भी यदि हम निष्पक्ष ढंग से उनकी साधनाओं और सिद्धियों को देखें, तो हम यही निष्कर्ष निकालेंगे कि उनकी सिद्धियाँ प्रामाणिक हैं।

बहुत से ग्रंथों में विभिन्न विद्वानों, केवल अलग-अलग मतों के विद्वानों के बीच ही नहीं बल्कि एक ही मत के विद्वानों के बीच उत्तेजनापूर्ण बहस के उदाहरण मिलते हैं। कई बार ग्रंथों में अशिष्ट और भड़काऊ टिप्पणियाँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। हो सकता है कि हमें इस प्रकार का वाद-विवाद शत्रु पक्षों के बीच के युद्ध जैसा लगे, लेकिन इस प्रकार का दृष्टिकोण हमें शास्त्रार्थ की अन्तर्वस्तु का लाभ उठाने से वंचित करता है। यदि हम इसे तटस्थ भाव से देखें तो हमें पता चलेगा कि उनके शब्दों का भाव इस प्रकार का होता है, “यदि आपका यह कहना है कि चित्त नित्य है तो स्पष्ट तौर पर यह परिभाषित किए बिना कि नित्य से आपका क्या आशय है, तो कुछ लोग इस शब्द का आशय मेरी परिभाषा की सहायता से समझेंगे। तब वे बहुत अधिक भ्रमित हो जाएंगे क्योंकि यह बेतुका निष्कर्ष और असंगति तब उत्पन्न होती है जब आप स्थायी को मेरे तरीके से परिभाषित करते हैं और फिर उसे चित्त पर लागू करते हैं।“ मुझे लगता है कि इस प्रकार के कठोर शब्दों वाले शास्त्रार्थ से हम ऐसे निष्पक्ष निष्कर्षों पर पहुँच सकते हैं।

कई तिब्बती बौद्ध लामाओं ने बॉन परम्परा के बारे में बहुत ही नकारात्मक बातें कही या लिखी हैं। क्या आप इसके बारे में कोई टिप्पणी कर सकते हैं?

बॉनपाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह झ़ांग-झ़ुंग, जोकि पश्चिमी तिब्बत में बॉन मत का गृहस्थान है, की प्राचीन विजय, और मध्य तिब्बत में उसे तिब्बती साम्राज्य में शामिल किए जाने के समय से ही रहा है। मूलतः बॉनपो शब्द का प्रयोग झ़ांग-झ़ुंग से आने वाले मंत्रियों और दूसरे अधिकारियों के लिए किया जाता था, उन लोगों के लिए प्रयोग नहीं किया जाता था जो शाही दरबार में झ़ांग-झ़ुंग  अनुष्ठानों को सम्पादित करते थे। मूल रूप में बॉनपाओं के विरुद्ध पूर्वाग्रह धार्मिक मान्यताओं या साधना पद्धतियों के कारण न होकर राजनीति से प्रेरित था। परम पावन ज़ोर देकर कहते हैं कि यह पूर्वाग्रह विभाजनकारी और नकारात्मक है। सबसे अच्छा यही होगा कि तिब्बती बौद्ध अपनी मानसिकता से इस पूर्वाग्रह को निकालने का प्रयास करें।

मैं समझता हूँ कि यदि हम युंग के मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो हम बॉन विरोधी पूर्वाग्रह की ऐतिहासिक उत्पत्ति को समझ सकते हैं। समय के साथ-साथ अपने आध्यात्मिक गुरु को बुद्ध के रूप में देखने का महत्व बढ़ता चला गया। जैसे-जैसे इस “गुरु भक्ति” की तीव्रता बढ़ी, बहुत से ऐसे साधक इस परिपाटी को सही ढंग से समझ नहीं पाए जो अभी तक स्थिर भावात्मक संतुलन के स्तर हो हासिल नहीं कर पाए थे। उन्होंने अपने शिक्षकों की परिपूर्णता की कल्पना करने पर जितना अधिक ज़ोर दिया उतना ही अधिक उन्होंने नकारात्मक पक्ष – जिसे युंग ने “परछाईं” कहा था – को प्रबल बनाया। इस छवि को उन्होंने तथाकथित “धर्म के शत्रुओं” पर प्रक्षेपित किया। इसका बहुत सा आरोप बॉनपाओं पर मढ़ गया। 

मेरे अच्छे दोस्त, डा. मार्टिन काल्फ जोकि एक बौद्ध शिक्षक और युंगवादी मनोवैज्ञानिक हैं, ने मुझे बताया कि शाक्यमुनि बुद्ध द्वारा बोधि वृक्ष के नीचे ध्यानसाधना करने और व्यवधान और नकारात्मकता को दर्शाने वाले मार द्वारा उन पर हमला किए जाने का वर्णन इस मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त को दर्शाता है। हमारे सकारात्मक पक्षों पर ध्यान केंद्रित किए जाने पर प्रतिसंतुलन के रूप में अनायास ही हमारे नकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित हो जाता है। जब शाक्यमुनि ने यह सिद्ध कर दिया कि मार उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता है तभी उन्हें ज्ञानोदय की प्राप्ति हुई।

यहाँ यह बात महत्वपूर्ण है कि अक्सर वही बौद्ध परम्पराएं गुरु भक्ति के मामले में सबसे ज़्यादा कट्टर होती हैं जिनमें रक्षक की साधनाएं सबसे ज़्यादा क्रूर और रक्तरंजित होती हैं। वे अपने गुरु की जितनी अधिक भक्ति करते हैं उतने ही अधिक वे धर्म के शत्रुओं का विनाश करने के लिए आमादा दिखाई देते हैं। इस प्रकार का ध्रुवीकरण बहुत हानिकारक है। पश्चिम जगत के साधकों के रूप में यह बहुत आवश्यक है कि हम इस प्रवृत्ति का शिकार होने से बचें कि हम अपनी गुरु परम्परा के गुरुओं को देवताओं के रूप में पूजने लगें और दूसरी गुरु परम्पराओं और धर्मों के शिक्षकों को दानव समझने लगें।

कौन सी तिब्बती परम्परा सबसे बड़ी है?

तिब्बत और मंगोलिया में गेलुग परम्परा के अनुयायी सबसे अधिक हैं। निर्वासन में रह रहे तिब्बतियों में भी गेलुग के अनुयायियों की संख्या सबसे ज्यादा है। पश्चिम जगत के और पूर्वी एशिया के लोगों में जो पारम्परिक तिब्बती बौद्ध नहीं हैं, कर्म काग्यू ही सबसे बड़ा समूह दिखाई देता है। लेकिन तिब्बत की निर्वासित सरकार में प्रत्येक तिब्बती परम्परा को समान प्रतिनिधित्व दिया गया है।

क्या परम पावन ने कभी पाँचों तिब्बती परम्पराओं को संरक्षित किए जाने की उपयोगिता या उन्हें एक परम्परा में समाहित कर दिए जाने के फायदों के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं?

स्वयं दलाई लामा या किसी दूसरे तिब्बती आध्यात्मिक नेतृत्वकर्ता को इस प्रकार के बदलाव करने की शक्ति या अधिकार प्राप्त नहीं हैं। परम पावन सदैव लोगों के अलग-अलग झुकावों की आवश्यकता के अनुरूप आध्यात्मिक परम्पराओं की विविधता का स्वागत करते हैं। फिर भी, सम्प्रदायनिरपेक्ष सम्मेलन, जिसका मैंने पहले उल्लेख किया था, में परम पावन ने एक समिति गठित किए जाने की सिफारिश की थी जो शांतिदेव की प्रार्थना जैसी भारतीय बौद्ध प्रार्थनाओं के तिब्बती अनुवादों के संकलन का चुनाव करे जिसे अपनी बैठकों में सभी तिब्बती परम्पराएं एक समान प्रार्थना पद्धति के रूप में स्वीकार कर सकें। एक साथ मिलकर प्रार्थना कर पाने की यह योग्यता परम्पराओं को समाप्त नहीं करेगी बल्कि उन्हें एक-दूसरे के नज़दीक ही लाएगी। पश्चिम जगत में बौद्ध केंद्रों के लिए परम पावन का यह सुझाव निश्चित तौर पर उपयोगी रहेगा। 

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